ज्योतिष समाधान

Tuesday, 30 September 2025

पान दशहरा

#दशहरा पर बीड़ा चबाने की #परम्परा भी है।.....
बीड़ा ताम्बूलवीटिका के घटक द्रव्य हैं सुपारी , इलायची, कत्था, कपूर।
#पूग्येलाखदिराढ्यं_तु_ताम्बूलं।
बाण ने कादम्बरी में कई बार ताम्बूलवीटिका का प्रयोग किया है। सिंहासनबत्तीसी में भी बीड़ा दिये जाने का वर्णन है।
#दे_बीरा_रघुनाथ_पठाये ...
बीड़ा पान ताम्बूल  किसी कार्य को पूरा करने का संकल्प लेना - बीड़ा उठाना ।
"सुपारी लेना" का भाव वही जो बीड़ा उठाने का.
सुपारी और पान का साथ सदा से ही है ।
देव पूजन में प्रयोग होता है ।
किसी सत्कर्म के उद्देश्य से ही पान, सुपारी का शगुन होता था । किन्तु आजकल हत्या करने जैसे जघन्य अपराध के लिये "सुपारी लेना" या देना का प्रचलन हो गया ।
#शब्दों की यही विडम्बना है , काल के साथ अर्थ एवं भाव परिवर्तन हो जाता है ।
पान सुपारी खाये जाने का चलन बहुत पुराना है,
आज भी लोग एक बटुआ में सरौता , कत्था, सुपारी, चूना रखे हुये मिल जायेंगे ।
आजकल #गुटखा के चलन ने सब दूषित और विकृत कर दिया है । तम्बाकू युक्त गुटखा पर प्रतिबन्ध होते हुये भी , तम्बाकू अलग पाउच में साथ में मिलने से निष्प्रभावी है ।
गुटखा में बहुत से हानिकारक केमिकल और पत्थर का चूरा भी मिला होता है ।

पहले #विप्रों और राजसामंतों के दाँत ताम्बूलरंजित होते थे। बल्लालकृत भोजप्रबन्ध में एक प्रसंग है। कवियों को अकूतधन देने वाले राजा भोज के दरबार में कविकर्म से रहित वेदशास्त्रज्ञाता विद्वान पहुँचे। द्वारपाल ने इन लोगों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। दरबार में जाकर उसने उन वैदिक विद्वानों का परिचय इस प्रकार दिया -
#राजमाषनिभैर्दन्तैः_कटिविन्यस्त_पाणयः।
#द्वारतिष्ठन्ति_राजेन्द्र_छादन्साः_श्लोकशत्रावः॥ 
हे राजा ! द्वार पर राजमा के समान दाँतों वाले, श्लोकशत्रु, वेदज्ञ कमर पर हाथ रखे खड़े हैं।

एक श्लोक है -
#शुक्लदन्ताः_जिताक्षश्च_मुंडाः_काषायवाससः।
#शुद्धाधर्म_वदिष्यन्ति_शाठ्यबुद्धयोपजीविनः॥
सफेद दाँत वाले' शठबुद्धि से जीविका चलाने वाले निन्दा के पात्र हैं, वे शुद्धअधर्म की बात करते हैं |
आभास कुमार गांगुली जिन्हें गायक किशोर कुमार के नाम से जाना जाता है, पान की प्रशंसा में एक कविता रची थी
#पान सो पदारथ, सब जहान को सुधारत
गायन को बढ़ावत जामे चूना चौकसाई है
सुपारिन के साथ साथ,मसाला मिले भांत भांत
जामे कत्थे की रत्ती भर थोड़ी सी ललाई है
बैठें है सभा मांहि बात करे भांत भांत
थूकन जात बार बार जाने का बड़ाई है
कहें कवि 'किशोरदास' चतुरन की चतुराई साथ
पान में तमाखू किसी मूरख ने चलाई है.
( मूरख न बनिये )

                     🙇 #जयश्रीसीताराम 🙇

दुर्गा सप्तशती हवन किस श्लोक पर किस ओषधि का हवन करना है केवल ब्राह्मणों के उपयोगार्थ लिंक ओपन करे

नवरात्रि हवन सामग्री श्लोक संख्या सहित कई कौन से श्लोक पर किस ओषधि का हवन करना है केवल ब्राह्मणों के उपयोगार्थ लिंक ओपन करे
श्लोक सँख्या   ///******///
1   पत्र पुष्प, फल,
2 अर्क
3 अर्क
5 अपामार्ग
6 कुशा
7 खैर
10 त्रण कुशा दूर्वा
20 पत्र पुष्प फल
26 पत्र पुष्प फल
29 पत्र पुष्प फल
35 पत्र पुष्प फल
39 पत्र पुष्प फल
46पत्र पुष्प फल
51 यव तंडुल
55 इलायची
56 शकर
59 पत्र पुष्प फल
63 पत्र पुष्प फल
66 मिश्री पुष्प
67 पीपल पत्ता कमल गट्टा
68 उडद राल समुद्र फेन
69कमल गट्टा
70 कमल गट्टा
71पत्र पुष्प फल
72 हल्दी
73पुष्प
74दूर्वा दर्भा
75 मिश्री
77 राई
78 राई
79 लाजा  पुष्प मिश्री शहदेवी
80 हवन नही
83 राई
84जाय फल  भांग
87 भांग
88पत्र पुष्प फल
89 कमल गट्टा
92 रक्त गुंजा
94 राई
96 पत्र पुष्प फल
100 कपूर
101 कमलगट्टा दर्भा
102 पत्र पुष्प फल
103 कुशा शंख  पुष्पी गूगल पान  मधु केला
104 पुष्प
महाहुति "","पान कैथ मधु कमल गट्टा गूगल गंधक्षत पुष्प लोंग इलायची सुपाड़ी
=================================

               दूसरा अध्याय

श्लोक सँख्या ///******///
1 पत्र पुष्प, फल,
2 अर्क
3 अर्क
5 अपामार्ग
6 कुशा
7 खैर
10 त्रण कुशा दूर्वा
20 पत्र पुष्प फल
26 पत्र पुष्प फल
29 पत्र पुष्प फल
35 पत्र पुष्प फल
39 पत्र पुष्प फल
46पत्र पुष्प फल
51 यव तंडुल
55 इलायची
56 शकर
59 पत्र पुष्प फल
63 पत्र पुष्प फल
66 मिश्री पुष्प
67 पीपल पत्ता कमल गट्टा
68 उडद राल समुद्र फेन
69कमल गट्टा
70 कमल गट्टा
71पत्र पुष्प फल
72 हल्दी
73पुष्प
74दूर्वा दर्भा
75 मिश्री
77 राई
78 राई
79 लाजा पुष्प मिश्री शहदेवी
80 हवन नही
83 राई
84जाय फल भांग
87 भांग
88पत्र पुष्प फल
89 कमल गट्टा
92 रक्त गुंजा
94 राई
96 पत्र पुष्प फल
100 कपूर
101 कमलगट्टा दर्भा
102 पत्र पुष्प फल
103 कुशा शंख पुष्पी गूगल पान मधु केला
104 पुष्प
महाहुति "","पान कैथ मधु कमल गट्टा गूगल गंधक्षत पुष्प लोंग इलायची सुपाड़ी
=================================

               दूसरा अध्याय



""""""""","''''''':::::::::::""""""""""''''''''**********
1 पत्र पुष्प फल
2 भैंसा गूगल
10 नीम गिलोय जाय फल
12 कपूर
14 जाटा मासी  विष्णु कांता
15आम्र फल
17 कपूर
18 रक्त चंदन
20 लोंग
21 शंख पुष्पी
22 लोंग
25 पुष्प
28 कपूर पुष्प
29 पुष्प कमल गट्टा
30 मधु
57 हरताल
60 सरसो
63 कटहल
67 दर्भा कपूर राई
69 पुष्प गूगल विल्वफल

महाहुति """"","",पान शाकल्य  कमल गट्टा  गूगल नारियल फल खंड  पुष्प  लोंग  इलायची सुपाड़ी

:::      ::::  ::::::::::;;;         ::::::::: :;: ;;;;;;;;;    ;;
     तीसरा अध्याय
1पत्र पुष्प फल
9 दर्पण कपूर
10 लोंग कागजी नीबू
12 मैनसिल
17 मैनसिल शिलाजीत
19 लोंग
20 सरसों
25 खिरनी
27 सिंघाड़ा
29 हरताल
34 पान गुड़ दूध शहद
36 वच राजान
37 पत्र पुष्प फल
38  मधुआसव पत्र पुष्प फल
39 पत्र पुष्प फल
40 सरसो गोखुरु
42 कालीमिर्च उडद लोकी
44 पत्र पुष्प गुलाल पान सुपारी
  महा आहुति """""""पान विजोरानीबू चंदन दधि नीम गिलोय  माष (उडद दही मिलाकर ) भैसा गूगल  कमल गट्टा  लोंग इलायची सुपारी पत्र पुष्प फल

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
चौथा अध्याय :::::::
3 कदली फल
5 विष्णु कांता विल्वफल
7 विल्व फल
8 हलुआ पकवान  श्वेत चंदन
11 ब्राह्मी कपूर
12 विजोरा
14 लाल कनेर पुष्प
23 कमल गट्टा  लाल कनेर सीताफल
24 से  हवन नही होगा
27 तक हवन नही होगा
28 पत्र पुष्प फल
29 पुष्प लाल चंदन हरिद्रा सुगंधित द्रव्य
30 अष्टांग धूप गूगल
31 पत्र पुष्प फल
33 पत्र पुष्प फल
34 राई  गूगल
35 गूगल जाय फल
36 पंचमेवा खीर गुलकंद  मिश्री पुष्प फल
37 पत्र पुष्प फल 
39 पुष्प
41 भोजपत्र  रक्तनीर 
42 पुष्प आंवला  मधु  धूप
महआहुति :::::     पान शाकल्य खीर कमल गट्टा विल्वफल लोंग इलायची गूगल पुष्प सुपारी

::::: :::::::::: :::::: ::::::; :::::::: :::::::: ::::: ::::;: ::::: :::::
1 पत्र पुष्प फल
6 पत्र पुष्प फल
8 पत्रपुष्प फल
9 पत्र पुष्प फल  गूगल भोज पत्र 
10 हल्दी  आंवला
11 पुष्प
12 दूर्वा
13 दारू हल्दी
14 से 16तक  विष्णु कांता
17 से  19 तक आंवला
20 से 22 तक ब्राह्मी
23 से 25  तक हल्दी ब नीम गिलोय
29 से 31 तक सतावरी
32 से 34 तक सोंठ  जाय फल
44 से 46 तक   लाजा पुष्प
47 से 49 तक पुष्प
50 से 52 तक पुष्प
53 से 55 तक  अबीर
56 से 58 तक  मिश्री विल्वफल कमल गट्टा
59 से 61 तक शहद  पुष्प
62 से 64 तक  ब्राह्मी विजया
65 से 67 तक सहदेवी
68 से 70 तक पकवान
71 से 73 तक  केसर लाल कनेर
81 मिश्री इलायची
82 गूगल
83 पत्र पुष्प फल
84 जावित्री
85 दाल चीनी
86 भोज पत्र 
87 भोजपत्र दालचीनी
88 दारू हल्दी  पुष्प
89 आम्र फल
92 कपूर
94 पुष्प विल्व पत्र
95 गुंजा
96 पुष्प कमलगट्टा
97 भोजपत्र
99 भोजपत्र
101 पत्र पुष्प
104 मैनसिल
105 पत्र पुष्प फल
114 लाजा
115 पत्र पुष्प फल
116 वच पान भोजपत्र शमीपत्र दूर्वा
117  शमी पत्र दूर्वा फल पुष्प कनेर पुष्प
120 लाजा लोंग काजल
121 लाजा खाजा शमीपत्र  हिंगुल
122 पत्र पुष्प फल
126 जटामांसी
127 पान पुष्प फल शमीपत्र
129 ताम्बूल सुपारी गन्ना
महआहुति:::   पान शाकल्य लोंग इलायची सुपारी गूगल कमल गट्टा श्वेत चंदन पुष्प फल विजोरा

:::::/,,,,,,::    ::::::::::::::::::::;;;;;;;;;;;;;;;;;;;!!!!!!!!!!::;;;;;;;;;




छठवा अध्याय :::::::
1पत्र पुष्प फल
4 राई  जटामांसी गूगल
7 मसूर
10 पत्र पुष्प फल
12 पत्र पुष्प फल
13 राल विजोरा गूगल
14 उडद मसूर
17 केसर
18 केसर राई
19 केसर राई
23 राई जटामांसी
24 लोंग कनेर गन्ना
महआहुति ******पान शाकल्य गूगल कमलगट्टा  भोजपत्र कुष्मांड नारंगीफल  नारिकेल फल खंड /
**///***///////****//////*****/////*****/////***
सातवा अध्याय **///*****////***/////
1पत्र पुष्प फल
5 काली हल्दी कस्तूरी काजल
6 काली मिर्च
8 पान रक्त चंदन कुमकुम केसर
12 सरसो
14 हल्दी काली मिर्च
15 गूगल बज्र दंती
19 कपूर बज्र दंती
20 जटा मासी दर्भा सरसो कदली फल
23 विजोरा नीबू
24 गन्ना
25 पत्र पुष्प फल
26 पान पुष्प फल आम्रफल  चिरोंजी
महआहुति ****/////पान शाकल्य लोंग इलायची चिरोंजी लाजवंती पुष्प कमल गट्टा जाय फल कुष्मांड फलखंड कपूर
******///////*****/////******///////****//////आठवाँ अध्याय
1 पत्र पुष्प फल
5 राई
6 राई
8दूर्वा रक्त नीर गूगल
9 दूर्वा रक्त नीर गूगल
10 दूर्वा गूगल काली हल्दी
13 पत्र पुष्प फल
14 गुंजा
15 ब्राह्मी
16 जटामासी
17 मोर पंख
18 विष्णु कांता
19 बज्रदन्ति पत्र
20 गोखरू
21 पुष्प लोंग
28 जटामासी  विजया
29  आमी हल्दी
39 सरसों
43 रक्त गूंजा 
44 रक्त गुंजा
49 लालचन्दन
54 रक्त चंदन रक्त गुंजा
55 रक्त चंदन
57 से 61 तक रक्त चंदन
62 विजोरा नीबू
63 पुष्प
महआहुति****//////पान शाकल्य कमलगट्टा लोंग इलायची  सुपारी गूगल कुष्मांड फलखण्ड लाल चंदन मधु

*/******///////******///////******/////******//

नबम अध्याय ****///////
1पत्र पुष्प फल
2 विजोरा नीबू
4 पत्र पुष्प फल
17 कवीठ/कैथ
20 केसर
31 दूर्वा रक्त नीर
34 लोंग
35 विजोरा नीबू
36 गूगल कण इन्द्र जो
38 मोरपंखी
41 उडद कुष्मांड फलखण्ड गन्ना पान सुपारी बेलगिरी
महआहुति ****////पान शाकल्य लोंग इलायची सुपारी विजोरा कूष्मांडखण्ड इक्षुरखण्ड /गन्ना विल्वफल  मैनफल

*******///////*******////////******/////*****//

/दसवाँ अध्याय **///
1 पत्र पुष्प फल
2 केसर कस्तूरी
4 पान पुष्प फल दूर्वा शमीपत्र
5 रक्त चंदन
6 पान पुष्प फल
7 पुष्प
8 पान पुष्प फल दूर्वा शमीपत्र
9 पुष्प
10 पान पुष्प फल
27 पक्का केला
28 भोजपत्र
31 पुष्प
32 कपूर गूगल कमल गट्टा बटपत्र इन्द्र जो
महआहुति *****/////
पान शाकल्य लोंग इलायची सुपाड़ी  कस्तूरी कमलगट्टा गूगल विल्वफल  कूष्मांडखण्ड फल पुष्प मैनसिल मातुलिंग

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ग्यारवा अध्याय ****/////

1 /1से 3 तक पुष्प पत्र फल
3 दूर्वा
5 विष्णु कांता विजोरा नीबू
6 भोजपत्र  मालकांगनी
10 इलायची गूगल जायफल दूर्वा पुष्प फल केसर मिश्री
12 दूर्वा पुष्प गुगल कमलगट्टा
13 कुशा ब्राह्मी
14 कपूर
15 मोरपंखी
16 शंख पुष्पी
17 बज्र दंती
18 गोखरू
19 पुष्प
20 जायफल जटामांसी
21 नीम गिलोय
22 लोंग इलायची गूगल मिश्री
23पान पुष्प
24 लालकनेर दूर्वा फल पुष्प पत्र बहेड़ा
25 बहेड़ा
26 नीम आंवला राई
28 रक्तचन्दन उडद मसूर दही
29 सरसो कालीमिर्च जायफल नीम गिलोय आंवला राई
31भोजपत्र मालकांगनी 
32 हल्दी दर्भा दुर्बा
33 पुष्प मिश्री
35 फल पुष्प
36 दुर्बा पत्र पुष्प फल शमी पत्र
37 लाजा शमीपत्र फल पुष्प फल
38 पान पुष्प फल
39 सरसों कालीमिर्च दालचीनी जायफल
40 दूर्वा पान शमीपत्र
41 सरसों
42 मक्खन
43 जायफल
44 दाड़िम/गुड़हल के पुष्प
45 आनार मजीठ
46 पुष्प पान फल नारंगी
47 इलायची कमल गट्टा
49 पालक पत्र पुष्प फल
50 दूर्वा लाल कनेर पान फल
52 रक्त गुंजा पान पुष्प फल
53 लालकनेर
54 पुष्प फल पान
55 काली मिर्च सरसो गुगल
महआहुति****///// पान लोंग इलायची कपूर  शकर पत्र पुष्प फल कमल गट्टा सुपारी  मिश्री खीर गूगल गन्ना गुड़हल पुष्प फल
******///////*******///////*******//////*****

बारहवा अध्याय ****/////
1 पान शमीपत्र पुष्प फल
2 गूगल दूर्वा आमी हल्दी  नागकेसर
3 दर्भा
4 भोजपत्र
5 गूगल मिश्री
6 हल्दी दूर्वा
8 मिश्री गूगल
9 पान पुष्प मिश्री इलायची मधु
10 गन्ना कुष्मांड खंड फल नारियल खण्ड फल पेड़ा
11 केला गन्ना कुष्मांड खंड फल
12 पान पुष्प फल मिश्री
13 पान पुष्प मिश्री हल्दी खीर फल इलायची
14 दूर्वा
15 दर्भा
17 अर्क पलास शमीपत्र खैर भोजपत्र
18 राई गुगल फूल प्रियंगु  आशापुरी धूप
20 पान पुष्प फल
21 पान पुष्प फल धूप केसर  मिश्री कपूर विजोरा नीबू  पकवान
22 खीर पकवान
23पान पुष्प फल जायफल
25 दर्भा पुष्प भोजपत्र
29 हरताल गूगल पुष्प
30 सरसों गूगल लोंग
31 पान पुष्प फल
32 वच पान पुष्प
33 सर्वोषधि
36 पान पुष्प फल
39 अनार के छिलके
41 गंध पुष्प पान फल मिश्री जाय फल  चन्दन धूप
महआहुति ****/////
अगर केसर कस्तूरी कमल गट्टा पत्र पुष्प फल जाय फल विल्वफल  मिश्री

******/////******/////////*******////////*******

तेरहँवा अध्याय

1 पत्र पुष्प फल
3 विष्णु कांता
5 पान पत्र  पुष्प फल
6 पान पत्र पुष्प फल
9 पुष्प  भोजपत्र
10 पान पुष्प गन्ध धूप फल
11 गन्ना
12 पान पुष्प फल  खोपरा बूरा गुड़
13 पान पुष्प फल दूर्वा शमीपत्र
14 पान पुष्प फल नारियल खंड फल
15 पान पुष्प फल
16 भैंसा गुगल काली मिर्च अशोक पुष्प या पत्र
18 पान पुष्प फल दूर्वा कनेर पुष्प शमीपत्र
19 कमलपुष्प अशोक पुष्प या पत्र
20 सरसो गुगल
22 अर्क कपूर
23 पुष्प फल
24 भोजपत्र
25 पुष्प फल पान
26 पुष्प फल पान
28 पुष्प फल पान
29 अर्क कपूर गंध फल पान सुपारी
महआहुति******//////पान शाकल्य लोंग इलायची सुपारी  विल्वफल गुगल कमल गट्टा फल शमीपत्र श्वेतकेसर कपूर पुष्प अर्क पुष्प  नारियल खंड फल
महआहुति///****

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Monday, 29 September 2025

शारदीय नवरात्रि

शारदीय नवरात्रि विशेष दस महाविद्या दीक्षा 

साधनाओं की बात आते ही दस महाविद्या का नाम सबसे ऊपर आता है। प्रत्येक महाविद्या का अपने आप में अलग ही महत्त्व है। लाखों में कोई एक ही ऐसा होता है जिसे सदगुरू से महाविद्या दीक्षा प्राप्त हो पाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद सिद्धियों के द्वार एक के बाद एक कर साधक के लिए खुलते चले जाते है।

दस महा विद्या:👉  1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4.भुवनेश्वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला।

महाकाली महाविद्या दीक्षा
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नाम : माता कालिका
शस्त्र : त्रिशूल और तलवार
वार : शुक्रवार
दिन : अमावस्या
ग्रंथ : कालिका पुराण
मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं क्रीं परमेश्वरि कालिके स्वाहा

दुर्गा का एक रूप : माता कालिका 10 महाविद्याओं में से एक

मां काली के 4 रूप हैं:- दक्षिणा काली, शमशान काली, मातृ काली और महाकाली।

राक्षस वध : रक्तबीज।

कालीका के प्रमुख तीन स्थान है
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 कोलकाता में कालीघाट पर जो एक शक्तिपीठ भी है। मध्यप्रदेश के उज्जैन में भैरवगढ़ में गढ़कालिका मंदिर इसे भी शक्तिपीठ में शामिल किया गया है और गुजरात में पावागढ़ की पहाड़ी पर स्थित महाकाली का जाग्रत मंदिर चमत्कारिक रूप से मनोकामना पूर्ण करने वाला है।

यह तीव्र प्रतिस्पर्धा का युग है। आप चाहे या न चाहे विघटनकारी तत्व आपके जीवन की शांति, सौहार्द भंग करते ही रहते हैं। एक दृष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्ति की अपेक्षा एक सरल और शांत प्रवृत्ति वाले व्यक्ति के लिए अपमान, तिरस्कार के द्वार खुले ही रहते हैं। आज ऐसा एक भी व्यक्ति नहीं है, जिसका कोई शत्रु न हो … और शत्रु का तात्पर्य मानव जीवन की शत्रुता से ही नहीं, वरन रोग, शोक, व्याधि, पीडा भी मनुष्य के शत्रु ही कहे जाते हैं, जिनसे व्यक्ति हर क्षण त्रस्त रहता है … और उनसे छुटकारा पाने के लिए टोने टोटके आदि के चक्कर में फंसकर अपने समय और धन दोनों का ही व्यय करता है, परन्तु फिर भी शत्रुओं से छुटकारा नहीं मिल पाता।

महाकाली दीक्षा के माध्यम से व्यक्ति शत्रुओं को निस्तेज एवं परास्त करने में सक्षम हो जाता है, चाहे वह शत्रु आभ्यांतरिक हों या बाहरी, इस दीक्षा के द्वारा उन पर विजय प्राप्त कर लेता है, क्योंकि महाकाली ही मात्र वे शक्ति स्वरूपा हैं, जो शत्रुओं का संहार कर अपने भक्तों को रक्षा कवच प्रदान करती हैं। जीवन में शत्रु बाधा एवं कलह से पूर्ण मुक्ति तथा निर्भीक होकर विजय प्राप्त करने के लिए यह दीक्षा अद्वितीय है। देवी काली के दर्शन भी इस दीक्षा के बाद ही सम्भव होते है, गुरु द्वारा यह दीक्षा प्राप्त होने के बाद ही कालिदास में ज्ञान का स्रोत फूटा था, जिससे उन्होंने ‘मेघदूत’ , ‘ऋतुसंहार’ जैसे अतुलनीय काव्यों की रचना की, इस दीक्षा से व्यक्ति की शक्ति भी कई गुना बढ़ जाती है।

काली माता का मंत्र:  हकीक की माला से नौ माला 'क्रीं ह्रीं ह्नुं दक्षिणे कालिके स्वाहा:।' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

तारा दीक्षा
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भगवती तारा के तीन स्वरूप हैं👉 तारा , एकजटा और नील सरस्वती

तारा के सिद्ध साधक के बारे में प्रचिलित है, वह जब प्रातः काल उठाता है, तो उसे सिरहाने नित्य दो तोला स्वर्ण प्राप्त होता है। भगवती तारा नित्य अपने साधक को स्वार्णाभूषणों का उपहार देती हैं। तारा महाविद्या दस महाविद्याओं में एक श्रेष्ठ महाविद्या हैं। तारा दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक को जहां आकस्मिक धन प्राप्ति के योग बनने लगते हैं, वहीं उसके अन्दर ज्ञान के बीज का भी प्रस्फुटन होने लगता है, जिसके फलस्वरूप उसके सामने भूत भविष्य के अनेकों रहस्य यदा-कदा प्रकट होने लगते हैं। तारा दीक्षा प्राप्त करने के बाद साधक का सिद्धाश्रम प्राप्ति का लक्ष्य भी प्रशस्त होता हैं।

तारा माता का मंत्र👉  नीले कांच की माला से बारह माला प्रतिदिन 'ऊँ ह्रीं स्त्रीं हुम फट' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

षोडशी त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा
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महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

त्रिपुर सुन्दरी दीक्षा प्राप्त होने से आद्याशक्ति त्रिपुरा शक्ति शरीर की तीन प्रमुख नाडियां इडा, सुषुम्ना और पिंगला जो मन बुद्धि और चित्त को नियंत्रित करती हैं, वह शक्ति जाग्रत होती है। भू भुवः स्वः यह तीनों इसी महाशक्ति से अद्भुत हुए हैं, इसीसलिए इसे त्रिपुर सुन्दरी कहा जाता है। इस दीक्षा के माध्यम से जीवन में चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति तो होती ही है, साथ ही साथ आध्यात्मिक जीवन में भी सम्पूर्णता प्राप्त होती है, कोई भी साधना हो, चाहे अप्सरा साधना हो, देवी साधना हो, शैव साधना हो, वैष्णव साधना हो, यदि उसमें सफलता नहीं मिल रहीं हो, तो उसको पूर्णता के साथ सिद्ध कराने में यह महाविद्या समर्थ है, यदि इस दीक्षा को पहले प्राप्त कर लिया जाए तो साधना में शीघ्र सफलता मिलती है। गृहस्थ सुख, अनुकूल विवाह एवं पौरूष प्राप्ति हेतु इस दीक्षा का विशेष महत्त्व है। मनोवांछित कार्य सिद्धि के लिए भी यह दीक्षा उपयुक्त है। इस दीक्षा से साधक को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है।

त्रिपुर सुंदरी माता का मंत्र:👉 रूद्राक्ष माला से दस माला 'ऐ ह्रीं श्रीं त्रिपुर सुंदरीयै नम:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

भुवनेश्वरी दीक्षा
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भुवनेश्वरी को आदिशक्ति और मूल प्रकृति भी कहा गया है। भुवनेश्वरी ही शताक्षी और शाकम्भरी नाम से प्रसिद्ध हुई। पुत्र प्राप्ती के लिए लोग इनकी आराधना करते हैं।

भूवन अर्थात इस संसार की स्वामिनी भुवनेश्वरी, जो ‘ह्रीं’ बीज मंत्र धारिणी हैं, वे भुवनेश्वरी ब्रह्मा की भी आधिष्ठात्री देवी हैं। महाविद्याओं में प्रमुख भुवनेश्वरी ज्ञान और शक्ति दोनों की समन्वित देवी मानी जाती हैं। जो भुवनेश्वरी सिद्धि प्राप्त करता है, उस साधक का आज्ञा चक्र जाग्रत होकर ज्ञान-शक्ति, चेतना-शक्ति, स्मरण-शक्ति अत्यन्त विकसित हो जाती है। भुवनेश्वरी को जगतधात्री अर्थात जगत-सुख प्रदान करने वाली देवी कहा गया है। दरिद्रता नाश, कुबेर सिद्धि, रतिप्रीती प्राप्ति के लिए भुवनेश्वरी साधना उत्तम मानी है है। इस महाविद्या की आराधना एवं दीक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति की वाणी में सरस्वती का वास होता है। इस महाविद्या की दीक्षा प्राप्त कर भुवनेश्वरी साधना संपन्न करने से साधक को चतुर्वर्ग लाभ प्राप्त होता ही है। यह दीक्षा प्राप्त कर यदि भुवनेश्वरी साधना संपन्न करें तो निश्चित ही पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है।

भुवनेश्वरी माता का मंत्र:👉 स्फटिक की माला से ग्यारह माला प्रतिदिन 'ह्रीं भुवनेश्वरीयै ह्नीं नम:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

छिन्नमस्ता महाविद्या दीक्षा
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माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होताते हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।

भगवती छिन्नमस्ता के कटे सर को देखकर यद्यपि मन में भय का संचार अवश्य होता है, परन्तु यह अत्यन्त उच्चकोटि की महाविद्या दीक्षा है। यदि शत्रु हावी हो, बने हुए कार्य बिगड़ जाते हों, या किसी प्रकार का आपके ऊपर कोई तंत्र प्रयोग हो, तो यह दीक्षा अत्यन्त प्रभावी है। इस दीक्षा द्वारा कारोबार में सुदृढ़ता प्राप्त होती है, आर्थिक अभाव समाप्त हो जाते हैं, साथ ही व्यक्ति के शरीर का कायाकल्प भी होना प्रारम्भ हो जाता है। इस साधना द्वारा उच्चकोटि की साधनाओं का मार्ग प्रशस्त हो जाता है, तथा उसे मौसम अथवा सर्दी का भी विशेष प्रभाव नहीं पङता है।

छीन्नमस्ता माता का मंत्र👉  रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन 'श्रीं ह्रीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

त्रिपुर भैरवी दीक्षा
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भैरवी के नाना प्रकार के भेद बताए गए हैं जो इस प्रकार हैं त्रिपुरा भैरवी, चैतन्य भैरवी, सिद्ध भैरवी, भुवनेश्वर भैरवी, संपदाप्रद भैरवी, कमलेश्वरी भैरवी, कौलेश्वर भैरवी, कामेश्वरी भैरवी, नित्याभैरवी, रुद्रभैरवी, भद्र भैरवी तथा षटकुटा भैरवी आदि। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं। यह साधक को युक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रदान करती है। इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। जल, थल और नभ में उसका वर्चस्व कायम होता है। आजीविका और व्यापार में इतनी वृद्धि होती है कि व्यक्ति संसार भर में धन श्रेष्ठ यानि सर्वाधिक धनी बनकर सुख भोग करता है।

भूत-प्रेत एवं इतर योनियों द्वारा बाधा आने पर जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में तथा पिछडे क्षेत्रों के साथ ही सभ्य समाज में भी इस प्रकार के कई हादसे सामने आते है, जब की पूरा का पूरा घर ही इन बाधाओं के कारण बर्बादी के कगार पर आकर खडा हो गया हो। त्रिपुर भैरवी दीक्षा से जहां प्रेत बाधा से मुक्ति प्राप्त होती है, वही शारीरिक दुर्बलता भी समाप्त होती है, व्यक्ति का स्वास्थ्य निखारने लगता है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक में आत्म शक्ति त्वरित रूप से जाग्रत होने लगती है, और बड़ी से बड़ी परिस्थियोंतियों में भी साधक आसानी से विजय प्राप्त कर लेता है, असाध्य और दुष्कर से दुष्कर कार्यों को भी पूर्ण कर लेता है। दीक्षा प्राप्त होने पर साधक किसी भी स्थान पर निश्चिंत, निर्भय आ जा सकता है, ये इतर योनियां स्वयं ही ऐसे साधकों से भय रखती है।

त्रिपुर भैरवी का मंत्र👉  मुंगे की माला से पंद्रह माला 'ह्रीं  भैरवी क्लौं ह्रीं स्वाहा:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

धूमावती दीक्षा
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धूमावती का कोई स्वामी नहीं है। इसलिए यह विधवा माता मानी गई है। इनकी साधना से जीवन में निडरता और निश्चंतता आती है। इनकी साधना या प्रार्थना से आत्मबल का विकास होता है। मां धूमावती महाशक्ति स्वयं नियंत्रिका हैं। ऋग्वेद में रात्रिसूक्त में इन्हें 'सुतरा' कहा गया है। अर्थात ये सुखपूर्वक तारने योग्य हैं। इन्हें अभाव और संकट को दूर करने वाली मां कहा गया है। इस महाविद्या की सिद्धि के लिए तिल मिश्रित घी से होम किया जाता है। धूमावती महाविद्या के लिए यह भी जरूरी है कि व्यक्ति सात्विक और नियम संयम और सत्यनिष्ठा को पालन करने वाला लोभ-लालच से दूर रहें। शराब और मांस को छूए तक नहीं।

धूमावती दीक्षा प्राप्त होने से साधक का शरीर मजबूत व् सुदृढ़ हो जाता है। आए दिन और नित्य प्रति ही यदि कोई रोग लगा रहता हो, या शारीरिक अस्वस्थता निरंतर बनी ही रहती हो, तो वह भी दूर होने लग जाती है। उसकी आखों में प्रबल तेज व्याप्त हो जाता है, जिससे शत्रु अपने आप में ही भयभीत रहते हैं। इस दीक्षा के प्रभाव से यदि कीसी प्रकार की तंत्र बाधा या प्रेत बाधा आदि हो, तो वह भी क्षीण हो जाती है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद मन में अदभुद साहस का संचार हो जाता है, और फिर किसी भी स्थिति में व्यक्ति भयभीत नहीं होता है। तंत्र की कई उच्चाटन क्रियाओं का रहस्य इस दीक्षा के बाद ही साधक के समक्ष खुलता है।

धूमावती का मंत्र:👉 मोती की माला से नौ माला 'ऊँ धूं धूं धूमावती देव्यै स्वाहा:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।  

बगलामुखी दीक्षा
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माता बगलामुखी की साधना युद्ध में विजय होने और शत्रुओं के नाश के लिए की जाती है। बगला मुखी के देश में तीन ही स्थान है। कृष्ण और अर्जुन ने महाभातर के युद्ध के पूर्व माता बगलामुखी की पूजा अर्चना की थी। इनकी साधना शत्रु भय से मुक्ति और वाक् सिद्धि के लिए की जाती है।

यह दीक्षा अत्यन्त तेजस्वी, प्रभावकारी है। इस दीक्षा को प्राप्त करने के बाद साधक निडर एवं निर्भीक हो जाता है। प्रबल से प्रबल शत्रु को निस्तेज करने एवं सर्व कष्ट बाधा निवारण के लिए इससे अधिक उपयुक्त कोई दीक्षा नहीं है। इसके प्रभाव से रूका धन पुनः प्राप्त हो जाता है। भगवती वल्गा अपने साधकों को एक सुरक्षा चक्र प्रदान करती हैं, जो साधक को आजीवन हर खतरे से बचाता रहता है।

बगलामुखी का मंत्र:👉 हल्दी या पीले कांच की माला से आठ माला 'ऊँ ह्लीं बगुलामुखी देव्यै ह्नीं ओम नम:' दूसरा मंत्र- 'ह्लीं बगलामुखी सर्व दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वां कीलम बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा।' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

मातंगी दीक्षा
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मतंग शिव का नाम है। शिव की यह शक्ति असुरों को मोहित करने वाली और साधकों को अभिष्ट फल देने वाली है। गृहस्थ जीवन को श्रेष्ठ बनाने के लिए लोग इनकी पूजा करते हैं। अक्षय तृतीया अर्थात वैशाख शुक्ल की तृतीया को इनकी जयंती आती है।

यह श्याम वर्ण और चन्द्रमा को मस्तक पर धारण करती हैं। यह पूर्णतया वाग्देवी की ही पूर्ति हैं। चार भुजाएं चार वेद हैं। मां मातंगी वैदिकों की सरस्वती हैं।

पलास और मल्लिका पुष्पों से युक्त बेलपत्रों की पूजा करने से व्यक्ति के अंदर आकर्षण और स्तम्भन शक्ति का विकास होता है। ऐसा व्यक्ति जो मातंगी महाविद्या की सिद्धि प्राप्त करेगा, वह अपने क्रीड़ा कौशल से या कला संगीत से दुनिया को अपने वश में कर लेता है। वशीकरण में भी यह महाविद्या कारगर होती है।

आज के इस मशीनी युग में जीवन यंत्रवत, ठूंठ और नीरस बनकर रह गया है। जीवन में सरसता, आनंद, भोग-विलास, प्रेम, सुयोग्य पति-पत्नी प्राप्ति के लिए मातंगी दीक्षा अत्यन्त उपयुक्त मानी जाती है। इसके अलावा साधक में वाक् सिद्धि के गुण भी जाते हैं। उसमे आशीर्वाद व् श्राप देने की शक्ति आ जाती है। उसकी वाणी में माधुर्य और सम्मोहन व्याप्त हो जाता है और जब वह बोलता है, तो सुनने वाले उसकी बातों से मुग्ध हो जाते है। इससे शारीरिक सौन्दर्य एवं कान्ति में वृद्धि होती है, रूप यौवन में निखार आता है। इस दीक्षा के माध्यम से ह्रदय में जिस आनन्द रस का संचार होता है, उसके फलतः हजार कठिनाई और तनाव रहते हुए भी व्यक्ति प्रसन्न एवं आनन्द से ओत-प्रोत बना रहता है।

मातंगी माता का मंत्र:👉 स्फटिक की माला से बारह माला 'ऊँ ह्रीं ऐ भगवती मतंगेश्वरी श्रीं स्वाहा:' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

कमला दीक्षा
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दरिद्रता, संकट, गृहकलह और अशांति को दूर करती है कमलारानी। इनकी सेवा और भक्ति से व्यक्ति सुख और समृद्धि पूर्ण रहकर शांतिमय जीवन बिताता है।

श्वेत वर्ण के चार हाथी सूंड में सुवर्ण कलश लेकर सुवर्ण के समान कांति लिए हुए मां को स्नान करा रहे हैं। कमल पर आसीन कमल पुष्प धारण किए हुए मां सुशोभित होती हैं। समृद्धि, धन, नारी, पुत्रादि के लिए इनकी साधना की जाती है। 

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार प्रकार के पुरुषार्थों को प्राप्त करना ही सांसारिक प्राप्ति का ध्येय होता है और इसमे से भी लोग अर्थ को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करते हैं। इसका कारण यह है की भगवती कमला अर्थ की आधिष्ठात्री देवी है। उनकी आकर्षण शक्ति में जो मात्रु शक्ति का गुण विद्यमान है, उस सहज स्वाभाविक प्रेम के पाश से वे अपने पुत्रों को बांध ही लेती हैं। जो भौतिक सुख के इच्छुक होते हैं, उनके लिए कमला सर्वश्रेष्ठ साधना है। यह दीक्षा सर्व शक्ति प्रदायक है, क्योंकि कीर्ति, मति, द्युति, पुष्टि, बल, मेधा, श्रद्धा, आरोग्य, विजय आदि दैवीय शक्तियां कमला महाविद्या के अभिन्न देवियाँ हैं।

कमला माता का मंत्र:👉 कमलगट्टे की माला से रोजाना दस माला 'हसौ: जगत प्रसुत्तयै स्वाहा:।' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

प्रत्येक महाविद्या दीक्षा अपने आप में ही अद्वितीय है, साधक अपने पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर या गुरुदेव से निर्देश प्राप्त कर इनमें से कोई भी दीक्षा प्राप्त कर सकते हैं। प्रत्येक दीक्षा के महत्त्व का एक प्रतिशत भी वर्णन स्थानाभाव के कारण यहां नहीं हुआ है, वस्तुतः मात्र एक महाविद्या साधना सफल हो जाने पर ही साधक के लिए सिद्धियों का मार्ग खुल जाता है, और एक-एक करके सभी साधनों में सफल होता हुआ वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो जाता है।

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है, कि दीक्षा कोई जादू नहीं है, कोई मदारी का खेल नहीं है, कि बटन दबाया और उधर कठपुतली का नाच शुरू हो गया।

दीक्षा तो एक संस्कार है, जिसके माध्यम से कुस्नास्कारों का क्षय होता है, अज्ञान, पाप और दारिद्र्य का नाश होता है, ज्ञान शक्ति व् सिद्धि प्राप्त होती है और मन में उमंग व् प्रसन्नता आ पाती है। दीक्षा के द्वारा साधक की पशुवृत्तियों का शमन होता है … और जब उसके चित्त में शुद्धता आ जाती है, उसके बाद ही इन दीक्षाओं के गुण प्रकट होने लगते हैं और साधक अपने अन्दर सिद्धियों का दर्शन कर आश्चर्य चकित रह जाता है।

जब कोई श्रद्धा भाव से दीक्षा प्राप्त करता है, तो गुरु को भी प्रसनता होती है, कि मैंने बीज को उपजाऊ भूमि में ही रोपा है। वास्तव में ही वे सौभाग्यशाली कहे जाते है, जिन्हें जीवन में योग्य गुरु द्वारा ऐसी दुर्लभ महाविद्या दीक्षाएं प्राप्त होती हैं, ऐसे साधकों से तो देवता भी इर्ष्या करते हैं।


Sunday, 28 September 2025

दुर्गा हवन

#चण्डी #हवन की विशेषता.........
साधारण हवन और चण्डी पाठ की पूर्ति के बाद के हवन में बहुत अंतर होता है।इस अंतर को समझ कर जो हवन करता है वह उत्तम फल को प्राप्त करता है।
चण्डी पाठ में जिस अग्निदेव की स्थापना की जाती है उनका नाम है "" #शतमंगल "" अग्नि।इस अग्निदेव की विशेषता है कि ये सौ प्रकार से कल्याण करते हैं।आयु, आरोग्य,ऐश्वर्य के साथ शत्रुनाश,रोग नाश और भय नाश होता है। जैसे शताक्षी देवी देख कर सौ प्रकार से कल्याण करती हैं वैसे ही शतमंगल अग्निदेव देवी की आज्ञा से सौ प्रकार का कल्याण करते हैं।
साधारण हवन में हवन कुंड में अग्निबीज #रं लिखा जाता है।चण्डी हवन में #ह्रीं लिखा जाता है। देवी पूजन में ह्रीं का सर्वोच्च स्थान है।
#साधारण पूजन में तीन बार आचमन किया जाता है।देवीपूजन में चार बार आचमन किया जाता है।व्यवहार में ॐ केशवाय नमः ॐ नारायणाय नमः ॐ माधवाय नमः सामान्य पूजन का आचमनीय मन्त्र है जबकि देवी पूजा में ॐ ऐंआत्मतत्त्वं शोधयामि नमः ॐह्रींविद्यातत्त्वं शोधयामि नमःॐ क्लीं शिवतत्त्वं शोधयामि नमः ॐ ऐं ह्रीं क्लीं सर्व- तत्त्वं शोधयामि नमः से चार बार आचमन किया जाता है।
साधारण हवन में जो चार आहुतियाँ दी जाती हैं वे
ॐ भू: स्वाहा, ॐ भुवः स्वाहा,ॐ स्वः स्वाहा ॐप्रजापतये
स्वाहा होती हैं। #देवी हवन में जो चार आहुतियाँ दी जाती हैं वे निम्नवत् होती हैं--
ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा,ह्रीं महालक्ष्म्यै स्वाहा,ह्रींमहासरस्वत्यै
स्वाहा,ह्रीं प्रजापतये स्वाहा ।।
ध्येय है देवी के पूजन में सभी #शाक्त ॐ की जगह #ह्रीं का प्रयोग करते हैं।इस परम्परा को खिलमार्कण्डेय में बहुत महत्त्व दिया गया है।देव प्रणव की जगह देवी प्रणव ह्रीं का सर्वत्र महत्त्व प्रतिपादित है।
#सप्तशती के तेरह अध्याय के हवन से व्यक्ति रोग,शत्रु से मुक्त होकर सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करता है।सम्पत्ति और ऐश्वर्य भरा रहता है।अतः #एकमेव सप्तशती का हवनात्मक पाठ ऐसा होता है जो विविध हवनीय द्रव्य से युक्त होता है।
मेरे पास परम्परा से अनेक हवनीय पदार्थों की सूची विद्यमान है पर मैं प्रमाणिक हवनीय द्रव्यों(सामग्री)की चर्चा करना चाहूँगा।
१- पायस आहुति से समृद्धि प्राप्ति।
२- सुगंधित पेय आहुति से देवी कृपा
३- मधु आहुति से रोग,शत्रु नाश
४- पीली सरसों से आहुति से शत्रु भय नाश
५- क्षीर,गोघृत,मधु मिश्रित आहुति से विपुल सम्पदा
६- कमल पुष्प आहुति से देवी कृपा
७- मालती और जाती पुष्प से विद्या प्राप्ति
८- पीली सरसों और गुग्गल से शत्रु नाश
९- काली मिर्च(गोल)से शत्रु उच्चाटन
१०-अनार (दाड़िम) आहुति से ऐश्वर्य, यश
११- शाक आहुति से भोज्यपदार्थ की वृद्धि
१२- अंगूर,इलायची,केसर से आहुति से सौंदर्य और सम्पदा लाभ
१३- भोजपत्र से हवन से विजय प्राप्ति
१४- कमलगट्टा से आहुति से लक्ष्मी प्राप्ति
१५-रक्तचंदन से हवन से रोग-शत्रु नाश
इसी तरह से किस मन्त्र में किस हवनीय पदार्थ से हवन करना चाहिए यह भी वर्णित है।
जिसे सम्पत्ति चाहिए वह पायस,बेल फल और कमल से अवश्य हवन करे।जिसे #शत्रु नाश अभीष्ट हो वह पीली सरसों, कालीमिर्च और बेर की लकड़ी से अवश्य हवन करें।व्यक्तिगत शत्रु और राष्ट्र शत्रुओं के नाश के लिए चण्डी पाठ हवन बेजोड़ है।ऐसे प्रयोगों में प्रक्रिया, मन्त्र, वस्तु और चित्त की शुद्धि अनिवार्य होती है।पाठ और हवन करने वाला व्यक्ति बहुत जल्दबाजी न दिखाये अन्यथा विपरीत प्रभाव भी होता है।केवल #कल्याण हेतु किया पाठ हवन कभी भी विपरीत फल नहीं देता।
पान के दो पत्ते , नारियल और नैवेद्य माता को हवन में अति प्रिय है।इन हवनीय पदार्थों को दुर्गार्चनसृति, नागेश भट्ट और सप्तशती सर्वस्व में से चयनित किया गया है।

                     

Saturday, 27 September 2025

दुर्गा अष्टमी

#दुर्गाष्टमी व्रत की विशेष #जानकारी ...........
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जिनको पुत्र संतानें हैं, वे दुर्गाष्टमी व्रत #उपवास नहीं करें। जिनकी पुत्र संतानें नहीं हैं,वे दुर्गाष्टमी व्रत उपवास करें।
उस आलेख पर सभी सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों?क्या इसका कोई #शास्त्रीय प्रमाण है? हमलोग परम्परा वश तो दुर्गाष्टमी उपवास व्रत करते आ रहे हैं। शास्त्र प्रमाण के आधार पर धार्मिक कृत्य करने चाहिए।
इसी प्रमाण को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
सबसे पहले यह जान लिजिए कि सप्तमी युक्त #अष्टमी व्रत नहीं करना चाहिए.............
शरन्महाष्टमी पूज्या नवमी संयुता सदा।
सप्तमी संयुता नित्यं शोकसंतापकारिणीम्।।
सप्तमी युक्त अष्टमी शोक संताप देने वाली होती है। इसे शल्य कहा जाता है : ---
सप्तमी कलया यत्र परतश्चाष्टमी भवेत्।
तेन शल्यमिदं प्रोक्तं पुत्र पौत्र क्षयप्रदम्।।
शल्य युक्त #अष्टमी कंटक अष्टमी है , जो पुत्र पौत्रादि का क्षय करता है। आगे और भी स्पष्ट है : -- 
#पुत्रान् हन्ति पशून हन्ति राष्ट्र हन्ति सराज्यकम्।
हन्ति जातानजातांश्च सप्तमी सहिताष्टमी।।
सप्तमी सहित अष्टमी व्रत पुत्रों को नाश करती है , पशुओं को नाश करती है, राष्ट्र / देश तथा राज्य का नाश करती है। और , उत्पन्न हुए और न उत्पन्न हुए का नाश करती है।
सप्तमी वेध संयुता यैः कृता तु महाष्टमी ।
पुत्रदार धनैर्हीना भ्रमयन्तीह पिशाचवत्।।
#सप्तमी वेध से युक्त महा - अष्टमी को करने से लोग इस संसार में पुत्र , स्त्री तथा धन से हीन होकर पिशाच के सदृश भ्रमण करते हैं तथा : ---
सप्तमीं शैल्यसंयुक्तां मोहादज्ञानतोऽपि वा ।
महाष्टमीं प्रकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते।।
मोह - अज्ञान से शल्य युक्त / सप्ती से युक्त महाष्टमी को जो करता है , वह नरक में जाता है। इसलिए, स्पष्ट है कि सप्तमी युक्त #अष्टमी उपवास व्रत नहीं करना चाहिए। 

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(02)
लेकिन , #दुर्गाष्टमी उपवास किसे करना चाहिए और किसे नहीं करना चाहिए, यह जानना अत्यावश्यक है : ---
कालिका पुराण में स्पष्ट कहा गया है , जो निर्णय सिन्धु पृष्ठ संख्या 357 में उद्धृत है :---
अष्टम्युपवाश्च पुत्रवाता न कार्यः।
उपवासं महाष्टम्यां पुत्रवान्न समाचरेत्।
यथा तथा वा पूतात्मा व्रतीं देवीं प्रपूज्येत्।।
अर्थात अष्टमी तिथि में उपवास #पुत्रवाला न करे। जैसे - तैसे पवित्र आत्मा वाला व्रती देवी की पूजा करे। यानि स्पष्ट है कि जिनके पुत्र संतान हैं वे लोग दुर्गाष्टमी को उपवास व्रत नहीं करें।
लेकिन, वैसे लोग जिनके #पुत्र संतान नहीं हैं , वे सभी भक्त गण पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दुर्गाष्टमी का उपवास व्रत करें। महाभागवत ( देवीपुराण ) अध्याय 46 श्लोक संख्या 30 एवं 31 में स्पष्टतः देवी का आदेश है :--- 
महाष्टम्यां मम प्रीत्यै उपवासः सुरोत्तमाः। 
कर्तव्यः पुत्रकामैस्तु लोकैस्त्रैलोक्यवासिभिः।।
स्वयं माँ #भगवती कहती हैं कि मेरी संतुष्टि के लिए तीनों लोकों में रहने वाले लोगों को महाष्टमी के दिन पुत्र की कामना से उपवास करना चाहिए । ऐसा करने से उन्हें सर्वगुण सम्पन्न पुत्र की प्राप्ति अवश्य होगी। 
अवश्यं भविता पुत्रस्तेषां सर्वगुण समन्वितः।
लेकिन, उस दिन पुत्रवान लोगों को उपवास व्रत नहीं करना चाहिए :---
#पुत्रवद्भिर्न कर्तव्य उपवासस्तु तद्दिने।।
माँ भगवती जगत् जननी सब का कल्याण करें ,

Friday, 26 September 2025

#ध्वजा _क्यों_ चढ़ाई _जाती है -और क्या -है -उसका _महत्व

मन्दिर में ध्वजा क्यों चढ़ाई जाती है और क्या है उसका महत्व
सनातन हिन्दू धर्म में ऐसा माना जाता है कि बिना ध्वजा (ध्वज, पताका, झण्डा) के मन्दिर में असुर निवास करते है इसलिए मन्दिर में सदैव ध्वजा लगी होनी चाहिए । सनातन धर्म की चार पीठों में से एक द्वारका पीठ भारत का एक मात्र ऐसा मन्दिर है जहां पर 52 गज की ध्वजा दिन में तीन बार चढ़ाई जाती है ।

यह रक्षा ध्वज है जो मन्दिर और नगर की रक्षा करता है । ऐसा माना जाता है कि ध्वजा नवग्रह को धारण किये होती है, जो रक्षा कवच का काम करती है । मंदिर के शिखर पर लगभग 84 फुट लंबी विभिन्न प्रकार के रंग वाली, लहराती धर्मध्वजा को देखकर दूर से ही श्रीकृष्ण-भक्त उसके सामने अपना शीश झुका लेते हैं ।

कब से शुरु हुई मन्दिर में ध्वजा लगाने की परम्परा ?

प्राचीनकाल में देवताओं और असुरों में भीषण युद्ध हुआ । उस युद्ध में देवताओं ने अपने-अपने रथों पर जिन-जिन चिह्नों को लगाया, वे उनके ध्वज कहलाये । तभी से ध्वजा लगाने की परम्परा शुरु हुई । जिस देवता का जो वाहन है, वही उनकी ध्वजा पर भी अंकित होता है ।

किस देवता की ध्वजा पर है कौन-सा चिह्न ?

प्रत्येक देवता के ध्वज पर उनको सूचित करने वाला चिह्न (वाहन) होता है । जैसे—

विष्णु—विष्णुजी की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पीले रंग का होता है । उस पर गरुड़ का चिह्न अंकित होता है ।

शिव—शिवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है । उस पर वृषभ का चिह्न अंकित होता है ।

ब्रह्माजी—ब्रह्माजी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज पद्मवर्ण का होता है । उस पर कमल (पद्म) का चिह्न अंकित होता है ।

गणपति—गणपति की ध्वजा का दण्ड तांबे या हाथीदांत का व ध्वज सफेद रंग का होता है । उस पर मूषक का चिह्न अंकित होता है ।

सूर्यनारायण—सूर्यनारायण की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज पचरंगी होता है । उस पर व्योम का चिह्न अंकित होता है ।

गौरी—गौरी की ध्वजा का दण्ड तांबे का व ध्वज बीरबहूटी के समान अत्यन्त रक्त वर्ण का होता है । उस पर गोधा का चिह्न होता है ।

भगवती/देवी/दुर्गा—देवी की ध्वजा का दण्ड सर्वधातु का व ध्वज लाल रंग का होता है । उस पर सिंह का चिह्न अंकित होता है ।

चामुण्डा—चामुण्डा की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज नीले रंग का होता है । उस पर मुण्डमाला का चिह्न अंकित होता है ।

कार्तिकेय—कार्तिकेय की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का व ध्वज चित्रवर्ण का होता है । उस पर मयूर का चिह्न अंकित होता है ।

बलदेवजी—बलदेवजी की ध्वजा का दण्ड चांदी का व ध्वज सफेद रंग का होता है । उस पर हल का चिह्न अंकित होता है ।

कामदेव—कामदेव की ध्वजा का दण्ड त्रिलौह का (सोना, चांदी, तांबा मिश्रित)  व ध्वज लाल रंग का होता है । उस पर मकर का चिह्न अंकित होता है ।

यम—यमराज की ध्वजा का दण्ड लोहे का व ध्वज कृष्ण वर्ण का होता है । उस पर महिष (भैंसे) का चिह्न अंकित होता है ।

इन्द्र—इन्द्र की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज अनेक रंग का होता है । उस पर हस्ती (हाथी) का चिह्न अंकित होता है ।

अग्नि—अग्नि की ध्वजा का दण्ड सोने का व ध्वज अनेक रंग का होता है । उस पर मेष का चिह्न अंकित होता है ।

वायु—वायु की ध्वजा का दण्ड लौहे का व ध्वज कृष्ण वर्ण का होता है । उस पर हरिन का चिह्न अंकित होता है ।

कुबेर—कुबेर की ध्वजा का दण्ड मणियों का व ध्वज लाल रंग का होता है । उस पर मनुष्य के पैर का चिह्न अंकित होता है ।

वरुण की ध्वजा पर कच्छप चिह्न होता है।

ऋषियों की ध्वजा पर कुश का चिह्न अंकित होता है।

प्राय: लोग किसी मनोकामना पूर्ति के लिए हनुमानजी या देवी के मन्दिर में ध्वजा लगाने की मन्नत रखते हैं । हनुमानजी व देवी की पूजा बिना ध्वजा-पताका के पूरी नहीं होती है । देवी का तो पौषमास की शुक्ल नवमी को ध्वजा नवमी व्रत होता है जिसमें उनको ध्वजा अर्पण की जाती है।

प्रश्न यह है कि मन्दिर में ध्वजारोपण से कैसे हमारी मनोकामना पूरी हो जाती है ? इसका उत्तर हमें नारद-विष्णु पुराण में मिलता है जिसमें कहा गया है कि—

▪️भगवान विष्णु के मन्दिर में ध्वजा चढ़ाने का महत्व यह है कि जितने क्षणों तक ध्वजा की पताका वायु के वेग से फहराती है, ध्वजा चढ़ाने वाले मनुष्य की उतनी ही पापराशियां नष्ट हो जाती हैं । जब पाप नष्ट हो जाते हैं तो पुण्य का पलड़ा भारी हो जाता है और मनुष्य की मनचाही वस्तु उसे प्राप्त हो जाती है ।

▪️मन्दिर में ध्वजा चढ़ाने से मनुष्य की सम्पत्ति की सदा वृद्धि होती रहती है ।

▪️ध्वजारोपण से मनुष्य इस लोक में सभी प्रकार के सुख भोग कर परम गति को प्राप्त होता है ।

▪️जिस प्रकार मन्दिर की ध्वजा दूर से ही दिखाई पड़ जाती है, उसी प्रकार ध्वज अर्पण करने से मनुष्य हर क्षेत्र में विजयी होता है और उसकी यश-पताका चारों ओर फहराती है ।

ध्वजारोपण के लिए पहले सुन्दर ध्वजा का निर्माण करायें । फिर शुभ मुहुर्त में जिस देवता को ध्वजा चढ़ानी है, उन भगवान का पूजन करें । इसके बाद ध्वजा का पंचोपचार (रोली, चावल, पुष्प, धूप-दीप और नैवेद्य से) पूजन करें । फिर ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन करा कर मंगल वाद्य आदि बजाकर उसका मन्दिर में आरोहण करें । हो सके तो उस देवता के मन्त्र से 108 आहुति का हवन करें । ब्राह्मण को वस्त्र दक्षिणा देकर भोजन करायें ।

दुर्गा हवन सामग्री सभी ओषधियो की लिष्ट सम्पर्क सूत्र 9893946810


 समिधा=======
 १】आक
२】 छोला
३】खैर
४】आंधी झाड़ा
५】पीपल
६】उमर(गूलर)
७】शमी
८】दूर्वा
९】कुशा
============================ नवरात्र पूजा के लिए साधारण विशेष आहुतियों के लिए
जैसे हवन सामग्रि
तीली से आधा चावल
चावल से आधा जौ
जैसे तीली 3 किलो तो':
चावल 1 किलो 500 ग्राम
जौ 750 ग्राम
1=तिली
2=चाबल
3=जौ 
4=शकर 
5=हवन सामग्री पेकीट 
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
किस औषधि की कितनी आहुतियां
--------------------------------------------------
6=कूष्माण्ड खण्ड (पेठा )
7=गोल सुपारी (15)
8=लौंग (20)
9=इलायची (25)
10=कमल गट्टे  (30)
11=जायफल    (13)
12=मेनफल     (1)
13=पीली सरसो (29)
14=पंच मेवा      
15=सिन्दूर 
16=उड़द  (6)
18=शहद (3)
19=नारियल खण्ड(5)
20=सुखा नारियल गोला
21=गूगल (35)
22=राई  सरसो (30)
23=कपूर((15)
24=लाल रंग (1)
25=केशर(9)
26=लाल चंदन(11)
27=सफेद चंदन(1)
28=सतावरी (1)
39=कथ्था (खेर) (1)
40=भोज पत्र (14)
41=काली मिर्च (7)
42=मिश्री।      (19)
43=अनारदाना
44=शकर बूरा (3)
45=अगर(1)
46=तगर
47=नागर मोथा
48=बालछड
49= छार छवीला 
50=कपूर काचरी 
52=इन्द्र जौ (3)
53 हल्दी  (8)
54=राल  (3)
55=समुद्र फेन (2)
56=मसूर (3)
57= इत्र(२)
58=अष्टांग धूप (२)
59=भांग (7)
60=दारु हल्दी(2)
61=सताबरी 
62=लाजा (6)
63=अवीर 
64=सहदवी( 2)
65=जावित्रि 
66=दालचीनी(3)
67=काली हल्दी(2)
68=खाजा 
69=कुंकुम
70=बज्र दन्ती(4)
71=बेल गिरी
72=कस्तूरि(4)
73=मातुलिंग
74=माल्कान्गनी(२)
75=बहेड़ा 
76=मजीठ
77=नाग केशर (1)
78=प्रियंगू फूल (1)
79=आशापुरि धूप
80=हरताल(1)
81=सर्व औषधी (1)
82=धूप(3)
83=खोपरा बूरा
84=गूड़(2)
85=विजया (भाँग)
86=रक्त गुंजा (7)
87=शंख पुष्पी (4)
88=आवला (6)
89= नीम गिलोय (5)
90= जटा माशी (4)
91=विष्णू कान्ता (6)
92=अमचूर (खडा)
93=रक्त चंदन(11)
94=हरताल(3)
95=सरसो पीली 
96=दर्पण(1)
97=मेनसिल (4)
88=खिरनि
89=बच(3)
90=राजान (1)
91=मधुआसब (१)
92=गोखरू(3)
93=भेसा गूगल(3)
94=ब्राह्मी (5)
95 आमी हल्दी (2)
96मोर पंखी (2)
============================== घरेलू सामग्री 
1=आम के पत्ते 
2=पीपल के पत्ते
3=बड़ के पत्ते 
4=अशोक के पत्ते 
5=अशोक के फूल
6=अकौआ के पत्ते 
7=शमी के पत्ते 
8=कुशा 
9=दूर्वा 
10= पान के पत्ते
11=अपामार्ग
12= पालक के पत्ते
13=गूड़ हल  के फूल
14= लाल कनेर के फूल
15= नीम गिलोय
16=गन्ना 
17=कैथ फ़ल
19= वील फ़ल
20=कुमड़ा 
21= कटहल
22= कागजी निवू
23= सिन्घाड़ा 
24=विजोरा निवू 
25=केला 
26=अनार
27= मोरपंख
28= नारंगी
29=खाजा
30=मख्खन
31=काजल 
32=आवला
33= पैठा 
34= लाल कपडा चुनरी 
=======================///
सामग्री  की मात्रा अपने हिसाब से लेवे  
×××××××××××××××××××××××××××× संपर्क -किसी भी प्रकार की पूजा जैसे - सतचण्डीपाठ , नवरात्रिपाठ , महामृत्यंजय , वास्तु पूजन, ग्रह प्रवेश , श्री मदभागवत कथा, श्री राम कथा , करवाने हेतु एबम ज्योतिष द्वारा समाधान,आदि की जानकारी के लिए ×××××××××××××××××××××××××××××× संपर्क सूत्र पंडित -परमेश्वर दयाल शास्त्री (मधुसुदनगड़) 09893397835 ============================= पंडित-भुबनेश्वर दयाल शास्त्री (पर्णकुटी गुना) 09893946810 ============================ पंडित -घनश्याम शास्त्री(parnkuti guna ) 09893983084

============================

💐💐💐💐💐विशेष संपर्क👍👍👍💐

कस्तूरवा नगर पर्णकुटी आश्रम 👍
गुना ऐ -बी रोड 👍
दा होटल सारा के सामने 👍
09893946810 ===========

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नवरात्रि

#नवरात्र महोत्सव में #यव रोपण...…. ❣️❣️
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#नवरात्रि के प्रथम दिन जो कलश बैठाता है वह अथवा जो कलश न बैठा कर केवल #यव उगाता है दोनों भगवतीके द्वारा अभिलषित प्राप्त करतेहैं।कभी कभी पूर्व #जीवनके #पाप इतने #बलिष्ठ होते हैं कि पूजा को ही विफल कर डालतेहैं।#विघ्नोंकी प्रबलता होतो उसकी सूचनाअनेक प्रकार से मिलती है जैसे- यव का न उग पाना, रक्षा दीप या अखण्ड दीप का बूझ जाना,कलश का फट जाना, चींटियों, मूषकों द्वारा उत्पात मचाना आदि।
यव चाहे #कलश के मूल में उगाया जाए या अलग से मिट्टी के पात्र में उसके द्वारा #भविष्य की सूचना दी जाती है।मैंने स्वयं अपने अनेक व्यक्तिगत #नवरात्रि पूजन में यवों के संदेश को पढा है और उसके प्रतिफल को झेला भी है।अतः यवों के प्रतीक संदेश को यहां शास्त्र की ओर से रखा जा रहा है।
#अष्टमी और #नवमी तिथि को यव अपने चरम #उत्कर्ष को प्राप्त करता है।अतः पता चल जाता है कि यह कैसा है।कैसा फल देगा?
यदि #यव हरित वर्ण का #ऊँचा उठे तथा झुके नहीं तो उत्कृष्ट फल देता है।यव के रंग से फल प्राप्ति का आभास होता है।
१-- पत्तियाँ काली हों तो उस वर्ष कम वृष्टि होती है।
२-- पत्तियाँ धूम्र वर्ण की हों तो कलह होता है।
३-- #कम जमे तो जन नाश का संकेत मिलता है।
४--श्यामवर्ण की पत्तियाँ हों तो उस वर्ष अकाल पड़ता है।
५--यव यदि तिर्यक (तिरछा) जमे तो रोग बढ़ता है।
६-- यव की पत्तियाँ कुब्ज (झुलसी सी) हों तो शत्रु भय होता है।
७-- #यव को चूहे या टिड्डे कुतर जायें तो भी विफलता और बीमारी का भय होता है।
८-- यव बढ़ कर बीच से टूट जाये तो भयावह स्थिति होती है। ऐसा प्रायः सभी यवों के साथ हो तब।
#उपाय..........
जब लग जाये कि #यव संतोषप्रद नहीं उगा है तो #नवार्ण मन्त्र से १०८ या १००८ आहुतियां देनी चाहिए।अथवा #अघोरास्त्र मन्त्र से इतना ही हवन करना कराना चाहिए।
बिना घबड़ाये #शास्त्र उक्त विधान को अपनाना चाहिए।यव की परीक्षा सप्तम या नवम दिन में की जाती है।प्राचीन काल में यव रोपण से पूर्व नान्दी श्राद्ध किया जाता था।नान्दी श्राद्ध अभ्युदय परक होता है।यह बहुत आसान होता है #सप्तशती के साथ यव रोपण प्रथम दिन होता है।
देव प्रतिष्ठा में, उपनयन में, विवाह में, स्थापना और महोत्सव में तथा शांति कर्म में यव का रोपण अवश्य किया जाता है.................
#प्रतिष्ठायां च दीक्षायां स्थापने चोत्सवे तथा।
संप्रोक्षणे च शान्त्यर्थं #विवाहे मौंजिबंधने ।।
राजशेखर तंत्र ग्रन्थ से ..........

                               

Thursday, 25 September 2025

*नवदुर्गा के नौ स्वरूप...**

*नवदुर्गा के नौ स्वरूप...*
*स्त्री का पूर्ण जीवनचक्र है.....*

1. जन्म ग्रहण करती हुई कन्या "शैलपुत्री" स्वरूप है।

2. कौमार्य अवस्था तक "ब्रह्मचारिणी" का रूप है।

3. विवाह से पूर्व तक चंद्रमा के समान निर्मल होने से वह 
"चंद्रघंटा" समान है।

4. नए जीव को जन्म देने के लिए गर्भ धारण करने पर वह "कूष्मांडा" स्वरूप में है।

5. संतान को जन्म देने के बाद वही स्त्री "स्कन्दमाता"हो जाती है।

6. संयम व साधना को धारण करने वाली स्त्री "कात्यायनी" रूप है।

7. अपने संकल्प से पति की अकाल मृत्यु को भी जीत लेने से वह "कालरात्रि" जैसी है।

8. संसार (कुटुंब ही उसके लिए संसार है) का उपकार करने से "महागौरी" हो जाती है।

9. धरती को छोड़कर स्वर्ग प्रयाण करने से पहले संसार में अपनी संतान को सिद्धि(समस्त सुख-संपदा) का आशीर्वाद देने वाली "सिद्धिदात्री" हो जाती है।

*सनातन परंपरा में,आरंभ से ही,शक्ति का आधार,देवी स्वरूपा मां है।*
🙏🙏🙏

Sunday, 21 September 2025

रजस्वला के विधि निषेध का पालन करने वाली ही आदि शंकराचार्य जैसे पुत्र को जन्म दे सकती है। सभी जानते है माँ आर्यम्बा ने मासिक धर्म की अशुद्धि के कारण बालक शंकर को भगवती की सेवा में दूध का पात्र देकर भेजा था और भगवती ने स्वयं प्रकट होकर उसे ग्रहण किया और तो और बालक शंकर को अपने स्तन का दूध भी पिलाया, जिसके कारण वे महान कवि बने। आदि शंकराचार्य जी ने सौंदर्य लहरी में इस बात का संकेत भी किया है। वे सौंदर्य लहरी के ७५ वें श्लोक में लिखते है--- 

तव स्तन्यं मन्ये धरणिधरकन्ये हृदयतः
पयःपारावारः परिवहति सारस्वतमिव ।
दयावत्या दत्तं द्रविडशिशुरास्वाद्य तव यत् 
कवीनां प्रौढानामजनि कमनीयः कवयिता ॥ ७५॥

अर्थः- हे धरणिधर कन्ये ! मैं ऐसा समझता हूं कि तेरे स्तनों के दूध का पारावार तेरे हृदय से बहने वाला सारस्वत ज्ञान सदृश है। जिसे पीकर, दयावती होकर तेरे स्तनपान कराने पर द्रविडशिशु ने प्रौढकवियों के सदृश कमनीय कविता की रचना की।

जया किशोरी, प्रेमानन्द बाबा, विचित्र लेखा जैसे बाजारू नट अपनी मीठी मोहित अशास्त्रीय बातों से आपका सर्वनाश ही करेंगें। सदैव याद रखें शास्त्रीय विधि निषेध के सम्यक पालन से ही जीवन में धर्म धारण किया जाता है, उसी धर्म से भगवद्भक्ति पैदा होती है, भक्ति से ज्ञान और ज्ञान से मुक्ति है।

नारायण

Saturday, 20 September 2025

श्राद्ध

🔸 ️पितृपक्षादि में प्रायः लोगों द्वारा पूछे जानेवाले प्रश्न:👉------------
▪︎  १. पितृपक्ष में देव पूजा होगा या नहीं ?
▪︎  २. विवाह में आभ्युदयिक(नान्दी) श्राद्ध कर लिए हैं या कोई 
        शुभ कार्य किए हैं तो पिंडदान ,तर्पण होगा या नहीं?
▪︎  ३. गया श्राद्ध कर लिए हैं तो पितृपक्ष मनाएंगे या नहीं?

🔸️ इन सभी प्रश्नों के शास्त्रसम्मत समाधान हैं:👉

महालये गया श्राद्धे माता पित्रोर्मृतेहनि। 
कृतोद्वाहोऽपि कुर्वीत पिंडदानं यथा विधि। 

महालय गया श्राद्ध और माता-पिता का मरण दिन इनमें विवाह करके भी पिंड दान विधि पूर्वक करें । 
----------

तीर्थे तिथि विशेषे च गयायां प्रेत पक्षकै:।
निषिद्धेऽपि दिने कुर्यात्तिलैस्तर्पणमाचरेत्। 

तीर्थ में पितृयज्ञ में और महालय में विवाह करने पर भी तिलतर्पण सदा करना चाहिए।

गया श्राद्ध करने के बाद भी पितृपक्ष में पिंड दान तर्पणादि करना चाहिए, इसका निषेध कहीं नहीं है। हां, बद्री क्षेत्र में ब्रह्म कपाली पर पिंडदान करने के बाद अन्य कहीं भी पिंडदान नहीं होता है। पितृपक्ष में देव पूजा का कहीं भी निषेध नहीं है । देव कर्म के बाद पितृकर्म होना चाहिये। पहले देव पूजा कर ले फिर तर्पण करें।तर्पण, पिंडदानादि में क्षौर कर्म एक दिन पूर्व होना चाहिए उस दिन क्षौर करवाना निषेध है जबकि प्रायः लोग उसी दिन क्षौर करवाते हैं। इसका शास्त्रों ने स्पष्ट निषेध किया है।
------------

कृत्वा तु मैथुनं क्षौरं यो देवांस्तर्पयेत्पितॄन् ।
रुधिरं तद्भवेत्तोयं दाता च नरकं व्रजेत् ।।

जो मनुष्य मैथुन तथा क्षौरकर्म करके देवताओं और पितरों का तर्पण करता है वह जल रक्त के समान होता है तथा दाता नरक में जाता है।
-------------

और हां....
▪️ ध्यान दें-पितृ पक्ष के नाम पर अनेक अशास्त्रीय भ्रान्तियाँ 
      भी प्रचलित हैं 👉

▪︎  १.  पितृ पक्ष में दैनिक पूजन अनुष्ठानादि का निषेध 
▪︎  २.  नवीन सामग्री क्रयविक्रयनिषेध, 
▪︎  ३.  हल्दी तेल मसाला निषेध। कृपया इस पाखण्ड का विरोध करें, और जो भी ऐसा कहे उससे ऐसी मान्यता का शास्त्रीय प्रमाण अवश्य मांगें।
गुरुदेव 
भुवनेश्वर
9893.46810

Tuesday, 16 September 2025

नवरात्रि मुहूर्त 2025


आश्विन माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि की शुरुआत 22 सितंबर को रात 01 बजकर 23 मिनट पर होगी। वहीं, इसका समापन 23 सितंबर को रात 02 बजकर 55 मिनट पर होगा। ऐसे में नवरात्र की शुरुआत 22 सितंबर, 2025 दिन सोमवार से है नवरात्र की शुरुआत सोमवार से हो रही है।गुरुदेव भुवनेश्वर जी पर्णकुटी वालो के अनुसार घटस्थापना का चौघड़िया शुभ मुहूर्त प्रात: 06:09 से प्रात: 08:06 बजे तक रहेगा।  दूसरा मुहूर्त प्रात: 9;11 से 10:42 तक चौघड़िया मुहूर्त रहेगा इसके अलावा अभिजित मुहूर्त सुबह 11 बजकर 49 मिनट से दोपहर 12 बजकर 38 मिनट तक रहेगा। जो कि घट स्थापना के लिए सर्व श्रेष्ठ मुहूर्त रहेगा  वैकल्पिक मुहूर्त में दोपहर 1:44से 06:17बजे तक रहेगा धर्म शास्त्रों के अनुसार रात्रि में घट स्थापना नहीं की जाती है घटस्थापना का नियम धर्मशास्त्रों में  गुरुदेव भुवनेश्वर जी के अनुसार इस प्रकार है 

इदं कलशस्थापनं रात्रौ न कार्यम् ।

न रात्रौ स्थापनं कार्य न च कुम्भाभिषेचनम् ।

इस कलश स्थापन को रात्रि में न करे। मत्स्यपुराण में कहा है कि- रात में कलशस्थापन और कुंभा-भिषेचन नहीं करना चाहिये ।

भास्करोदयमारभ्य यावत्तु दशनाडिकाः । प्रातःकाल इति प्रोक्तः स्थापनारोपणादिषु ॥ 

मतलब सूर्य के उदय से प्रारंभ कर दश नाडी (घडी) तक  स्थापना रोपण आदि में प्रातः काल कहा है। 

 प्रातरावाहयेद्देवीं प्रातरेव प्रवेशयेत् ।
प्रातः प्रातश्च सम्पूज्य प्रातरेव विसजयेत् ।।

देवीपुराण में भी कहा किप्रातःकाल' देवी का आवाहन करे । प्रातःकालही प्रवेश करे। प्रातःकाल पूजन करे और प्रातःकाल ही विसर्जन करे ।

गुरुदेव भुवनेश्वर जी के अनुसार इस पर्व के दौरान मां दुर्गा के नौ अलग-अलग स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है. धार्मिक मान्यता है कि हर साल देवी दुर्गा अलग-अलग वाहनों पर सवार होकर अपने भक्तों से मिलने आती हैं. मां दुर्गा के प्रत्येक वाहन का खास महत्व और प्रभाव होता है. वर्ष 2025 में मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आ रही हैं. देवी भागवत पुराण के अनुसार, अगर नवरात्र सोमवार को शुरू हो, तो देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं। हिंदू परंपराओं में हाथी को शुभ जीव माना गया है। भगवान इंद्र का वाहन ऐरावत भी हाथी ही है और गणपति का स्वरूप भी हाथीमुख है, जो बुद्धि और समृद्धि का द्योतक है। यही कारण है कि जब मां दुर्गा हाथी की सवारी करती हैं, तो यह सकारात्मक ऊर्जा और मंगलकारी फल का प्रतीक बन जाता है। गुरुदेव भुवनेश्वर जी महाराज पर्णकुटी वालो के अनुसार  प्रत्येक वाहन का अपना विशेष महत्व माना जाता है.दुर्गा तंत्र सार के अनुसार 

 "शशि सूर्य गजारूढ़ा शनिभौमै तुरंगमे। 

गुरौ शुक्रेचा दोलायं बुधे नौकाप्रकीर्तिता।"

गजे च जलदा देवी , छत्रभङ्ग तुरंगमे ।
नौकायां सर्व सिद्धिस्यात् दोलायां मरणं धुव्रम् ।।


मां दुर्गा का हाथी से आना एक शुभ संकेत माना जा रहा है। यह शांति, समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रतीक है। कहा जा रहा है कि यह अच्छी बारिश, भरपूर फसल और किसानों की समृद्धि का संकेत दे रहा है। नवरात्र के दौरान मां दुर्गा का वाहन उनके आगमन के दिन पर निर्भर करता है। मां दुर्गा का हाथी पर आना बेहद शुभ माना जाता है। हाथी को सुख, समृद्धि, और शांति का प्रतीक माना जाता है। जब मां दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं, तो यह खुशहाली का संकेत होता है। इसके साथ ही चारों ओर सुख-समृद्धि का माहौल बनता है। इसके साथ ही सभी भक्तों के लिए यह सुख और संपन्नता का प्रतीक है। मौसम अनुकूल रहता है, अन्न-धान्य की वृद्धि होती है और कृषि क्षेत्र में प्रगति देखने को मिलती है. चारों ओर सुख-समृद्धि का वातावरण बना रहता है. भक्तों के लिए यह सुख और संपन्नता का संकेत माना जाता है.

गुरुदेव भुवनेश्वर 

पर्णकुटी आश्रम गुना 

9893946810

नवरात्रि घट स्थापना निर्णय


निर्णय सिंधु 328 ( अथाश्विन शुक्लपक्षः )


तदाह लल्लः - तिथिः शरीरं तिथिरेव कारणं तिथिः प्रमाणं तिथिरेव साधनम् । इति । 
उसी बात को लत्ल ने कहा है कि - 
तिथि ही शरीर है, तिथि ही कारण है, तिथि ही प्रमाण है तिथि ही साधन है।

(आश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारंभनिर्णयकथनम् )

अथाश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारम्भः । 
तन्निर्णयः ।
 तत्र भार्गवार्चनदीपिकायां देवीपुराणे सुमेधा उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि चण्डिकापूजनक्रमम् । आश्विनस्य सिते पचे प्रतिपत्सु शुभे दिने ।॥ 

इत्युपक्रम्योक्तम् । 
शुद्धे तिथौ प्रकर्तव्यं प्रतिपच्चोर्ध्वगामिनी । आद्यास्तु नाडिका-स्त्यक्त्वा षोडश द्वादशापि वा ॥ अपराह्ने च कर्तव्यं शुद्धसन्ततिकांक्षिभिः ।॥ इदं चापराह्णयोगिन्याः प्राशस्त्यं द्वितीयदिने प्रतिपदोऽभावे ज्ञेयम् ।

आश्विनशुक्लपक्षको प्रतिपदातिथि में नवरात्रारंभ होता है।
 उसका निर्णय कहते हैं। 
भार्गवार्चन-दीपिकामें देवीपुराण का वचन है कि- सुमेधा ने कहा है कि हेराजन्, सुनो, चण्डिकाके पूजनका क्रम कहता हूँ ।
 आश्विनशुक्लपक्ष की प्रतिपदातिथि के शुभदिन में, यह उपक्रम (प्रारंभ) कर कहा है-शुद्ध (अमास्पर्शरहिते) तिथि में प्रतिपदा ऊर्ध्वगामिनी (अमोर्ध्वगा) हो तो आद्य (पहली), सोलह या बारह नाडी (घड़ी) को त्यागकर शुद्ध (पवित्र ) सन्तति की इच्छावाले अपराह्न में करे और यह अपराह्न ( बारह बजे के बाद ) प्राशस्त्य सात्र है। दूसरे दिन प्रतिपदा के अभावपरक जानना चाहिये ।






यह दक्षन निषेध किया है

( अथाश्विन शुक्लपक्षः )

(आश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारंभनिर्णयकथनम् )

अथाश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारम्भः । तन्निर्णयः । तत्र भार्गवार्चनदीपिकायां देवीपुराणे सुमेधा उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि चण्डिकापूजनक्रमम् । आश्विनस्य सिते पचे प्रतिपत्सु शुभे दिने ।॥ इत्युपक्रम्योक्तम् । शुद्धे तिथौ प्रकर्तव्यं प्रतिपच्चोर्ध्वगामिनी । आद्यास्तु नाडिका-स्त्यक्त्वा षोडश द्वादशापि वा ॥ अपराह्ने च कर्तव्यं शुद्धसन्ततिकांक्षिभिः ।॥ इदं चापराह्णयोगिन्याः प्राशस्त्यं द्वितीयदिने प्रतिपदोऽभावे ज्ञेयम् ।



इदं कलशस्थापनं रात्रौ न कार्यम् ।
 न रात्रौ स्थापनं कार्य न च कुम्भाभिषेचनम् । इति मात्स्योक्तेः ।

इस कलशस्थापन को रात्रि में न करे। मत्स्यपुराण में कहा है कि- रात में कलशस्थापन और कुंभा-भिषेचन नहीं करना चाहिये ।

( स्थापनारोपणादिषु प्रातःकालनिर्णयः)

भास्करोदयमारभ्य यावत्तु दशनाडिकाः । प्रातःकाल इति प्रोक्तः स्थापनारोपणादिषु ॥ 
इति विष्णुधर्मोक्तेश्च ।

और विष्णुधर्म में कहा है कि-सूर्य के उदय से प्रारंभ कर दश नाडी (घडी) तक स्थापनारोपण आदि में प्रातः काल कहा है।

१- देवीपूजनादौ कलशस्थापनमात्रे वा निषेध इति मतभेदः ।

२- प्रातरावाहयेद्देवीम्--इत्यादि में प्रातःकाल 'पूर्वाह्नकाल' को कहते हैं यह पहले कह चुके हैं और कलशस्था सतिसंभव में प्रतिपदा के आद्य की सोलह घडी छोड़कर करे । '
आद्याः षोडशनाडीस्तु' ऐसा पाठ पहले आया है।

के निर्णयसिन्धु का द्वितीय परिच्छेद

रुद्रयामलतन्त्र और डामरतन्त्र निमू ल हैं-तथापि विरोध न होनेसे तथा प्रचारसे उन वचनों को लिखते हैं। 

तिथितत्त्वे देवीपुराणेऽपि -

 प्रातरावाहयेद्देवीं प्रातरेव प्रवेशयेत् ।
प्रातः प्रातश्च सम्पूज्य प्रातरेव विसजयेत् ।।

विथितत्त्व में और देवीपुराणमें भी कहा कि-प्रातःकाल' देवी का आवाहन करे । प्रातःकालही प्रवेश करे। प्रातःकाल पूजन करे और प्रातःकाल ही विसर्जन करे ।

तत्रैव-शरत्काले महापूजा क्रियते याच वार्षिकी । सा कार्योदयगामिन्यां न तत्र तिथियुग्मता ।। वहीं पर कहा है कि-शरत्कालसे जो वार्षिकी महापूजा की जाती है वह उदयकाल की तिथि में करे। उसमें दो तिथियों की युग्मता नहीं है। (संवत्सर के आदिमें - चैत्रशुक्ल प्रतिपदासे लेकर नवमी तिथितक पूजा का विधान है। 




देवी भागवत पुराण के अनुसार, अगर नवरात्र सोमवार को शुरू हो, तो देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं।

  • सोमवार या रविवार - हाथी पर आगमन (सुख-समृद्धि और अच्छी बारिश)
  • शनिवार या मंगलवार - घोड़े पर आगमन (युद्ध और राजनीतिक उथल-पुथल)
  • गुरुवार या शुक्रवार - पालकी पर आगमन (सुख, शांति और समृद्धि)
  • बुधवार - नाव पर आगमन (सभी मनोकामनाओं की पूर्ति)


श्लोक - 

"शशि सूर्य गजारूढ़ा शनिभौमै तुरंगमे। 

गुरौ शुक्रेचा दोलायं बुधे नौकाप्रकीर्तिता।"

मां दुर्गा का हाथी से आना एक शुभ संकेत माना जा रहा है। यह शांति, समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रतीक है। कहा जा रहा है कि यह अच्छी बारिश, भरपूर फसल और किसानों की समृद्धि का संकेत दे रहा है।







(कुमारीपूजाकथनम्)

ततः कुमारीपूजा । 
तदुक्तं हेमाद्रौ स्कान्दै एकैकां पूजयेत्कन्यामेकवृद्धया तथैव च ।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवर्क तु वा ।।

 कुमारीपूजा कहते हैं-
उसी बात को हेमाद्रि में स्कन्दपुराण का मत है कि 

एक एक कन्या का पूजन करे। वैसे ही एक एक ही वृद्धि से करे या द्विगुणित या त्रिगुणित कन्या का या प्रतिदिन नौ कन्या अर्चन करे।

तथा 
नवभिर्लभते भूमिमैश्वर्यं द्विगुणेन तु ।
 एकवद्धया लभेत्क्षेममेकैकेन श्रियं लमेत् ॥ 

और नौ कन्याओं से भूमिका लाभ होता है। द्विगुणित से ऐश्वर्य मिलता है। एक एक की वृद्धि से क्षेम (कुशक्षता) मिलती है। एक एक कन्या से लक्ष्मी का लाभ होता है।

एकवर्षा तु या कन्या पूजार्थे तां विवर्जयेत् । गन्धपुष्पफलादीनां प्रीतिस्तस्या न विद्यते ॥ 

तेन द्विवर्षामारभ्य दशवर्षपर्यन्ता एव पूज्या न त्वन्याः । तासां च क्रमेण कुमारिका, त्रिमूर्तिः, कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा, सुभद्रा, इति नामभिः पूजा कार्या। आसां
प्रत्येकं पूजामन्त्राः फलविशेषाश्च तत्रैव ज्ञेयाः ।

एक वर्ष की जो कन्या है उसे पूजा के कार्य में वर्जित करे। 
क्योंकि उस कन्या को गन्ध, पुष्प, न आदि की प्रीति नहीं होती है। 
इससे 'दो वर्ष की कन्या से लेकर दश वर्ष की कन्या का ही पूजा करें अन्य का नहीं करे। 
उस कन्याओं का क्रम यों है-
कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालो, बडका, शांभवी, दुर्गा तथा सुभद्रा इन उपरोक्त नामों से पूजा करनी चाहिये। 
इनके प्रत्येक की पूजा के और फल विशेष वहीं से जानने चाहिये ।

मंत्राक्षरमयिम लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम् । नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामा-नाम्यहम् ॥

सामान्यता से तो- (सामान्यता से तो सबों में एकही मन्त्राक्षरमयी लक्ष्मी, माताओं के रूप को करनेवाली और नवदुर्गात्मिका कन्या का साक्षात् मैं आवाहन करता हूँ।

अभ्यर्चनं कुर्यात्कुमारीणां प्रयत्नतः । 
कञ्चुकैश्चैव वस्त्रैश्च गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ॥ नानाविधै-ज्यैर्भोजयेत्पायसादिभिः ॥

इसप्रकार कुमारियों का प्रयत्न से अभ्यर्चन करे- कञ्चुक (चोली), वस्त्र, गन्ध, पुष्प, अक्षत तथा अनेकतरह के भक्ष्य एवं पायस आदि से भोजन कराबे 

(पूजने त्याश्वकन्याकथनम् )

तथा ग्रन्थिस्फुटितशीणोङ्गी रक्तपूयवणाङ्किताम् । जात्यन्यां केकरों काणीं कुरूर्णा तनुरोम शाम् ।। सन्त्यजेद्रोगिणीं कन्यां दासीगर्भसमुद्भवाम् ।।

अन्थि (कूर्पराणाः) जिसके शरीर में गांठ हों, जिसका अंग कटा हो, जिसके शरीर में रुचिर तवा भवादयक्त जण हो, जो जन्म से अन्धी हो, जो (केकरा) ऐचातानावाली हो, जो एक आंखवाली हो, श्री कुरूपा हो, जिसके शरीर में बहुत रोयें हो, जो रोगबाली हो और दासी के गर्भ से उत्पन्न हो ऐसी कन्याओं का पूजन कार्य में त्याग कर दे।

(कन्यापूजने विचारः)

तथा ब्राह्मणीं सर्वकार्येषु जयायें नृपवंशजाम् । लाभायें वैश्यवंशोत्थां सुतायें शूद्रवंशजाम् ॥
दारुणे चान्त्यजातानां पूजयेद्विधिना नरः । इति ।

और सब कार्यों में ब्राह्मणी, 
जय के लिए क्षत्रिय कन्या, लाभार्थ में वैश्य वंश से उत्पन्न कन्या,
 पुत्र के लिये शूद्र बंशोत्पन्न कन्या 
तथा दारुण कार्यों में अन्त्यजों से उत्पन्न कन्या का मनुष्य विधि से 'पूजन करे।
)


कुशा का महत्व


... कुशाग्रे वसते रुद्र: कुश मध्ये तु केशव:। कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशान् मे देहि मेदिनी।।

👉🏻#कुश_की_पवित्री_का_महत्त्व
कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है।

सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।

👉🏻#पूजन_और_श्राद्ध_कर्म_में_कुश_का_महत्त्व
सनातन धर्म में इसे पूजा और श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं ।
धार्मिक कर्मकाण्ड में कुश का उपयोग आवश्यक रूप से होता है-

#पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया।। – शब्दकल्पद्रुम

कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के समय पहनी जाती है। कुश प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावाश्या की तोडी गई कुश पूरे महीने काम दे सकती है और भाद्रपद माह की अमावश्या के दिन की तोडी कुश पूरे वर्ष काम आती है।

Monday, 15 September 2025

एकादशी श्राद्ध कब करें

1+"अमावास्यायां यत्र स्याद्दर्शनं चन्द्रसूर्ययोः। 
तत्र श्राद्धं न कर्तव्यं तद्व्रतेनैव तिष्ठति॥

" मत्स्यपुराण 
(22/30) यदि अमावस्या को सूर्य या चंद्र ग्रहण हो तो उस दिन श्राद्ध नहीं करना चाहिए।

2+एकादशी "एकादश्यां न कर्तव्यं श्राद्धं पितृपूजनम्।
 विष्णोः पूजाव्रतो ह्येष तस्मात् तत्र विवर्जयेत्॥"

 (मत्स्यपुराण 22)

एकादशी को केवल विष्णु की पूजा और उपवास करना चाहिए। इस दिन पितृ-श्राद्ध वर्जित है।

 "3+यदि तु निषिद्धे दिने पितॄणां श्राद्धकालः स्यात्।
पूर्वं वा परं कुर्यात् नियमेन विधिपूर्वकम्॥"
(मत्स्यपुराण 22/32)

📖 भावार्थ –
यदि पितरों की श्राद्ध तिथि किसी निषिद्ध दिन पड़ती हो तो उस श्राद्ध को निषिद्ध दिन से एक दिन पहले अथवा एक दिन बाद में विधिपूर्वक करना चाहिए।


4+अमावास्यायां यत्र स्याद्दर्शनं चन्द्रसूर्ययोः।
तत्र श्राद्धं न कर्तव्यं तद्व्रतेनैव तिष्ठति॥"
(मत्स्यपुराण 22/30)

📖 भावार्थ –
यदि अमावस्या को सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़े तो उस दिन भी श्राद्ध नहीं करना चाहिए, केवल व्रत रखना चाहिए।

 श्राद्ध निषिद्ध तिथियाँ (मत्स्यपुराण, अध्याय 22–23)

5+> "चतुर्दश्यां च संक्रान्तौ ग्रहणे व्यत्यये तथा।
एकादश्यां च नृप श्राद्धं कर्तव्यं कथंचन॥"
(मत्स्यपुराण 22/27)

📖 भावार्थ –
चतुर्दशी तिथि, संक्रांति दिन, ग्रहण काल, व्यत्यय योग और एकादशी – इन दिनों में किसी प्रकार भी श्राद्ध नहीं करना चाहिए।

मत्स्य पुराण अध्याय  22_23

6+"एकादश्यां न कर्तव्यं श्राद्धं पितृपूजनम्।
विष्णोः पूजाव्रतो ह्येष तस्मात्तत्र विवर्जयेत्॥"

अर्थात् –
एकादशी के दिन पितरों का श्राद्ध या तर्पण नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह दिन केवल विष्णु की उपासना और उपवास के लिए है।

7+ये कुर्वन्ति महिपाल श्राद्धं एकादशी दिनें । त्रयस्तेनरकंयान्ति दाताभोक्तानुमोदकः ॥

*(ब्रह्मवैवर्त पुराण) *

अर्थ – जो एकादशी को श्राद्ध करता हैं तो श्राद्ध करने वाला उस श्राद्ध को खाने वाला और जिसने वो श्राद्ध करने केलिए प्रेरणा दी है ये तीनो ही नरक में जाते हैं।

8+एकादश्यां यदा राम श्राद्धं नैमित्तकं भवेत् । तद्दिने तु परित्यज्य द्वादश्यां श्राद्धमाचरेत ।।

पद्मपुराण ॥

अर्थ-- एकादशी के दिन श्राद्ध नहीं करना चाहिये अगले दिन द्वादशी को वो श्राद्ध करना चाहिये ।
निर्णय सिंधु _111


( एकादश्यां श्राद्धप्राप्तौ )

एकादश्यां श्राद्धप्राप्तौ माधवीये कात्यायन आह-

8+उपवासो यदा नित्यः श्राद्धं नैमित्तिकं भवेत् । उपवासं तदा कुर्यादाघ्राय पितृसेवितम् ॥

9+ मातापित्रोः क्षये प्राप्ते मवेदेकादशी यदि । अभ्यर्च्य पितृदेवांश्च आजिघेत्पितृसेवितम् ॥ 

इति । हेमाद्रयादिसर्वनिबन्धेष्वप्येवम् । 10+एतेनैकादशी-निमित्तकं श्राद्धं द्वादश्यां कार्यमिति वदन्तः परास्ताः ।

एकादशीमें श्राद्ध की प्राप्तिमें माधवीय में कात्यायन ने कहा है- यदि उपवास नित्य है और श्राद्ध नैमित्तिक है तो पितरोंको दिये हुए पदार्थ का आघ्राणकर उपवास करे। यदि माता-पिता की क्षयतिथि दिन एकादशी हो तो पितर एवं देवताओं का अर्चन कर पितरों को दिये हुए पदार्थी को सूँघ लेवे । हेमाद्रि आदि सब ग्रन्थनिबन्धों में भो ऐसा ही है। इससे एकादशी निमिक्त श्राद्धको द्वादशी तिथि में करे । यह कहनेवाले परास्त हुए ।

किञ्च महालये--
11+-स पक्षः सकलः पूज्यः श्राद्धपोडशक प्रति । इति श्रुतं षोडशत्वम्, पाषका-दश्यांच मन्वादिश्राद्धं, क्षयाहापरिज्ञाने च तत्पचेकादश्यां विहितं श्राद्धं बाधितमेव स्यात् ।

और भी महालय में कहा है-सोलहश्राद्धका संपूर्णपक्ष पूज्य है। ऐसा सुना है षोडशत्व और पौष

एकादशी में मन्वादिश्राद्ध सुना गया है। क्षयाह की जानकारी न होने से तो उस पक्ष की एकादशी में विहित

श्राद्ध बाधित ही होता है।

12+यदपि स्मृतिचन्द्रिकास्थं पठन्ति--
अन्नाश्रितानि पापानि तद्भोक्तुर्दातुरेव वा । मञ्जन्ति पितरस्तस्य नरके शाश्वतीः समाः ॥ इति ।
 तस्यापि रागप्राप्तिभुजिगोचरस्य वैधं श्राद्धं गोचरयतां महत्साहसमित्यलम् ।

जो स्मृतिचन्द्रिकामें दिये हुए प्रमाण को पढ़ते हैं भोक्ता तथा दाता के पाप अन्नमें रहते हैं। जो व्रत में अन्न को खाता है उसके पितर बहुत समय तक नरकों में डूबते रहते हैं। यह वचन रागप्राप्त भोजनके निषेध को वैध श्राद्ध माननेवालों का बड़ाही साहस है। अर्थात् उनका प्रलाप ही है।

योऽपि - अकृतश्राद्धनिचता जल पिण्डं विना कृताः। इति लघुनारदीये एकादश्यां श्राद्धादिनिषेधः स मातापितृ‌भिन्नविषयः । पूर्ववाक्ये तद् ग्रहणात् । यद्वाश्राद्धनिचयः = श्राद्धे प्रतिग्रहः ।

लघुनारदीय में लिखा है- एकादशी के दिन जो श्राद्धका निषेध है। वह माता-पिताके श्राद्धसे भिन्न समझना चाहिये । क्योंकि पूर्ववाक्यमें माता-पिता का ग्रहण किया गया है अथवा श्राद्ध का प्रतिग्रह लेनेवाले के लिये यह निषेध है। श्राद्ध करनेवाले के लिये नहीं है।

(महणे श्राद्धाकरणे विशेषफलकथनम् )

अत्र श्राद्धमाह ऋष्यशृङ्गः - 
'12+चन्द्रसूर्यग्रहे यस्तु श्राद्धंद्वं विधिवदाचरेत् । 
तेनैव सकला पृथ्वी दत्ता विप्रस्य वै करे ।।

ग्रहण में ऋष्यश्रृंग ने श्राद्ध का करना कहा है-जो मनुष्य चन्द्र-सूर्यग्रहण में श्राद्ध को करता है,
ब्राह्मणों के हाथ में मानो सम्पूर्ण भूमि दे दी है।

( ग्रहणे श्राद्धाकरणे महत्कष्टम् )

13+ 'सर्वस्वेनापि कर्तव्य' श्राद्धं वै राहुदर्शने । अकुर्वाणस्तु नास्तिक्यात्पङ्के गौरिव सीदति ॥'

भारत में लिखा है कि- ग्रहण में सब वस्तुसे श्राद्धको करे । नास्तिकता से जो नहीं करता है पंक में गौ के तुल्य  दुःखी होता है।

( ग्रहणे श्राद्धकरणे महत्फलकथनम् )





नामान्न या सुवर्ण से करे । अन्न से न करे ।

तरनौ तीर्थे च चन्द्रसूर्यग्रहे तथा । आमश्राद्धं प्रकुर्वीत हेमश्राद्धमथाि

14+"एकादश्यां न कर्तव्यं श्राद्धं पितृपूजनम्।
विष्णोः पूजाव्रतो ह्येष तस्मात्तत्र विवर्जयेत्॥"



अर्थात् –
एकादशी के दिन पितरों का श्राद्ध या तर्पण नहीं करना चाहिए। क्योंकि यह दिन केवल विष्णु की उपासना और उपवास के लिए है।

,,15+संक्रान्तौ च ग्रहणे चैव चतुर्दश्यां तथैव च।
एकादश्यां च यो दद्यात् स दाता निरयं व्रजेत्॥" (गरुड पुराण, प्रेतकल्प 10/43)



📖 भावार्थ –
संक्रांति, ग्रहण, चतुर्दशी और एकादशी पर यदि कोई श्राद्ध करता है तो वह नरक का भागी होता है।


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16+ ब्रह्म पुराण

> "अमावास्यां विशेषेण श्राद्धं स्याद्भुवनत्रये।
अन्यासां तिथिषु प्रोक्तं निषिद्धं पितृकर्मणाम्॥" (ब्रह्मपुराण, श्राद्ध प्रकरण)



📖 भावार्थ –
अमावस्या को श्राद्ध विशेष रूप से फलदायी है, परंतु अन्य निषिद्ध तिथियों (जैसे एकादशी, चतुर्दशी, संक्रांति) पर पितृकर्म वर्जित है।


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17+ वायु पुराण

> "व्यत्यये संक्रान्तौ ग्रहणे च चतुर्दशी।
एकादश्यां तु यः कुर्यात् श्राद्धं पित्र्यं स दोषभाक्॥" (वायु पुराण, अध्याय 82)



📖 भावार्थ –
व्यत्यय योग, संक्रांति, ग्रहण, चतुर्दशी और एकादशी – इन दिनों में जो श्राद्ध करता है, वह दोष का भागी होता है।
 Gurudev bhubneshwar
9893946810

Sunday, 14 September 2025

तिलक

हिन्दू सनातन धर्म में #तिलक (Tilak) या तिलक-चिह्न का विशेष महत्व है। तिलक केवल सजावट नहीं बल्कि यह आध्यात्मिक, धार्मिक और दार्शनिक पहचान भी दर्शाता है। अलग-अलग सम्प्रदाय, परम्पराएँ और देवताओं की उपासना पद्धति के अनुसार तिलक के कई प्रकार होते हैं।

🚩प्रमुख तिलक के प्रकार :

🚩1. ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक (Urdhva Pundra)

इसे वैष्णव तिलक कहा जाता है।

माथे पर दो ऊर्ध्व रेखाएँ (U आकार) होती हैं और बीच में श्रीचरण या राम-शालिग्राम की रेखा होती है।

यह विष्णु और उनके अवतारों के उपासकों का चिह्न है।

🚩2. त्रिपुण्ड्र तिलक (Tripundra)

यह तीन क्षैतिज रेखाओं वाला तिलक है, जिसे भस्म या राख से बनाया जाता है।

यह भगवान शिव के उपासकों का तिलक है।

बीच में लाल बिन्दु (कुमकुम/चंदन) लगाने की भी परंपरा है।

🚩3. ऊर्ध्वपुण्ड्र-त्रिपुण्ड्र मिश्रित तिलक

कुछ संप्रदाय दोनों का सम्मिश्रण करते हैं।

🚩4. शैव तिलक (Vibhuti Tilak)

शिवभक्त भस्म से माथे पर क्षैतिज रेखा या बिन्दु लगाते हैं।

🚩5. वैष्णव तिलक (Urdhva Rekha)

श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में चंदन से ‘U’ आकार और बीच में लाल/पीला चिन्ह बनाया जाता है।

🚩6. शाक्त तिलक

शक्ति उपासक प्रायः लाल रंग (कुमकुम/सिन्दूर) का बिन्दु या तिलक लगाते हैं।

कभी-कभी त्रिकोण अथवा लाल बिन्दु भी प्रयोग करते हैं।

🚩7. रामानुज सम्प्रदाय तिलक

‘U’ आकार के चंदन तिलक के बीच में लाल रेखा होती है।

🚩8. मध्व सम्प्रदाय तिलक

चंदन से सीधी रेखा, बीच में काले (गंध/काजल) का चिन्ह।

🚩9. गौड़ीय वैष्णव तिलक

नाक की जड़ से ऊपर तक जाती दो रेखाएँ, नीचे तुलसी पत्र या बिन्दु का चिन्ह।

🚩10. श्रीचक्र/त्रिपुण्ड्र-बिन्दु तिलक (शाक्त परंपरा में)

शक्ति साधना में माथे पर लाल बिन्दु और त्रिपुण्ड्र का मेल भी देखा जाता है।

संक्षेप में

मुख्यतः 3 आधार प्रकार माने जाते हैं –

1. ऊर्ध्वपुण्ड्र (वैष्णव तिलक)

2. त्रिपुण्ड्र (शैव तिलक)

3. बिन्दु तिलक (शाक्त तिलक)

बाकी सारे तिलक इन्हीं के भेद या संप्रदाय विशेष के अनुसार रूप होते हैं।
सनातन 
#तिलक

आरती कैसे करें

पूजन में आरती का क्या विधान है

हिंदू धर्म में प्रत्येक धार्मिक कर्म-कांड के बाद भगवान की आरती उतारने का विधान है। देखने में आता है कि प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी इच्छानुसार भगवान की आरती उतारता है। जबकि भगवान की आरती उतारने के भी कुछ विशेष नियम होते हैं।

आरती के दो भाव हैं जो क्रमश: 
'आरात्रिक अथवा ‘नीराजन’ और ‘आरती’ शब्द से व्यक्त हुए हैं। नीराजन (नि:शेषेण राजनम् प्रकाशनम्) का अर्थ है- विशेष रूप से, नि:शेष रूप से प्रकाशित हो उठे चमक उठे, अंग-प्रत्यंग स्पष्ट रूप से उद्भासित हो जाय जिसमें दर्शक या उपासक भलीभाँति देवता की रूप-छटा को निहार सके, हृदयंगम कर सके।

दूसरा ‘आरती’ शब्द (जो संस्कृत के आर्तिका प्राकृत रूप है और जिसका अर्थ है- अरिष्ट) विशेषत: माधुर्य- उपासना से संबंधित है। ‘आरती वारना’ का अर्थ है- आर्ति-निवारण, अनिष्ट से अपने प्रियतम प्रभु को बचाना।
                                                                                           आरती कैसे करे? 

आरती में पहले मूलमन्त्र (जिस देवता का जिस मन्त्र से पूजन किया गया हो, उस मन्त्र) के द्वारा तीन बार पुष्पांजलि देनी चाहिये और ढोल, नगारे, शंख, घड़ियाल आदि महावाद्यों के तथा जय-जयकार के शब्द के साथ शुभ पात्र में धृत से या कपूर से विषम संख्या की (1,5,7,11,21,101) अनेक बत्तियाँ जलाकर आरती करनी चाहिये-विषम संख्याओ में तीन की संख्या वर्जित है।

तत्श्च मूलमन्त्रेण दत्वा पुष्पांजलित्रयम्।
महानीराजनं कुर्यान्महावाद्यजयस्वनै:।।
प्रज्वलयेत् तदर्थं च कर्पूरेण घृतेन वा।
आरार्तिकं शुभे पात्रे विषमानेकवर्तिकम्।।

साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है। कपूर से भी आरती होती है। 

पद्मपुराण में आया है-
कुंकुमागुरुकर्पूरघृतचन्दननिर्मिता:
वर्तिका: सप्त वा पंच कृत्वा वा दीपवर्त्तिकाम्।
कुर्यात् सप्तप्रदीपेन शंखघण्टादिवाद्यकै:।

‘कुंकुम, अगर, कपूर, घृत और चन्दन की सात या पाँच बत्तियाँ बनाकर अथवा दिये की (रुई और घी की) बत्तियाँ बनाकर सात बत्तियों से शंख, घण्टा आदि बाजे बजाते हुए आरती करनी चाहिये।’

‘आरती उतारते समय सर्वप्रथम भगवान् की प्रतिमा के चरणों में उसे चार बार घुमाये, दो बार नाभि देश में, एक बार मुख मण्डल पर और सात बार समस्त अंगों पर घुमाये’इया तरह चौदह बार आरती घुमानी चाहिये।

आदौ चतु: पादतले च विष्णो- र्द्वौ नाभिदेशे मुखबिम्ब एकम्।
सर्वेषु चांग्ङेषु च सप्तवारा- नारात्रिकं भक्तजनस्तु कुर्यात्।।

 आरती के अंग 

आरती के पाँच अंग होते हैं अर्थात केवल आरती करना अकेला नहीं आता बल्कि उसके साथ साथ कुछ और क्रियाए भी होती है जिसे आरती के अंग कहा जाता है -

पंच नीराजनं कुर्यात् प्रथमं दीपमालया।
द्वितीयं सोदकाब्जेन तृतीयं धौतवाससा।।
चूताश्चत्थादिपत्रैश्च चतुर्थं परिकीर्तितम्।
पंचमं प्रणिपातेन साष्टांकेन यथाविधि।।

अर्थात - 
‘प्रथम दीपमाला के द्वारा, दूसरे जलयुक्त शंख से, तीसरे धुले हुए वस्त्र से, चौथे आम और पीपल आदि के पत्तों से और पाँचवें साष्टांग दण्डवत् से आरती करे।’

१. दीपमाला के द्वारा - साधारणत: पाँच बत्तियों से आरती की जाती है, इसे ‘पंचप्रदीप’ भी कहते हैं। एक, सात या उससे भी अधिक बत्तियों से आरती की जाती है।

२. सोदकाब्ज – जल युक्त शंख चौदह बार प्रज्वलित ज्योतियो द्वारा आरती करने से इष्ट देव के श्री अंगों को जो ताप पहुँचता है उसके निवारण शीतलीकरण के लिए शंख में जल भरकर बार बार घुमाया जाता है,और बीच बीच में थोडा थोडा जल भूमि पर छोड़ा जाता है शंख के अभाव में शुद्ध पात्र द्वारा भी निर्मच्छन किया जाता है।

३.धौतवास -  अर्थात धुला हुआ वस्त्र, दाये हाथ में शुद्ध स्वच्छ मुलायम और सुखा वस्त्र लेकर उसी प्रकार घुमाया जाता है इसका भाव यह है कि जल से शीतलीकरण करते हुए जो भावमय जल बिंदु इष्ट के श्री अंगों पर पड़ गए हो उन्हें पोछना।

४. चमर – मयूरपिच्छ का पंखा लेकर श्री विग्रह से ऊपर हवा में लहराते हुए धीरे धीरे घुमाना इस प्रकार शीतल मंद पवन से इष्ट को आराम पहुँचाना चमर को जोर से तीव्र गति से पंखे कि भांति नहीं चलाना चाहिये।

५. दंडवत – साष्टांग प्रणाम इसका भाव स्वतः स्पष्ट है आत्म निवेदन–समर्पण और क्षमा प्रार्थना करना।
                                                         
 आरती लेने का अर्थ 

ऐसे कहा जाता है कि प्रज्वलित दीपक अपने इष्ट देव के चारों ओर घुमाकर उनकी सारी विघ्र-बाधा टाली जाती है। आरती लेने से भी यही तात्पर्य है- उनकी ‘आर्ति’ (कष्ट) को अपने ऊपर लेना। बलैया लेना, बलिहारी जाना, बलि जाना, वारी जाना, न्योछावर होना आदि सभी प्रयोग इसी भाव के द्योतक हैं यह ‘आरती’ मूलरूप में कुछ मन्त्रोंच्चारण के साथ केवल कष्ट-निवारण के भाव से उतारी जाती रही होगी। आरती के साथ सुन्दर-सुन्दर भावपूर्ण पद्य-रचनाएँ गाये  जाते हैं।

 आरती देखने का महत्व

आरती करने का ही नही, आरती देखने का भी बड़ा पुण्य लिखा है। हरि भक्ति विलास में एक श्लोक है-

नीराजनं च य: पश्येद् देवदेवस्य चक्रिण:।
सप्तजन्मनि विप्र: स्यादन्ते च परमं पदम्।।१ 

अर्थात - 
‘जो देवदेव चक्रधारी श्रीविष्णुभगवान् की आरती (सदा) देखता है, वह सात जन्मों तक ब्राह्मण होकर अन्त में परमपद को प्राप्त होता है।’

धूपं चारात्रिकं पश्येत् कराभ्यां च प्रवन्दते।                                                
कुलकोटि समुद्धृत्य याति विष्णो: परं पदम्।।२

अर्थात - 
‘जो धूप और आरती को देखता है और दोनों हाथों से आरती लेता है, वह करोड़ पीढ़ियों का उद्धार करता है और भगवान् विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है।’

 ध्यान रखने योग्य बातें 

१. - पंच नीराजन में जलते हुए दीप युक्त दीप पात्र को आरती से पूर्व और आरती से बाद खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये ,लकड़ी या पत्थर कि चौकी या किसी पात्र में आरती पात्र को रखना चाहिये।                                               
“भूमौ प्रदीप यो र्पयति सोन्ध सप्तजन्मसु “

२. –  निर्मच्छन हेतु शंख में जल भरने के लिए शंख को जल में डुबोकर कभी नहीं भरना चाहिये.ऊपर से जल डालकर शंख में भरना चाहिये। बजाने वाले (छिद्रयुक्त)शंख में जल भरकर निर्मच्छन नहीं करना चाहिये .शंख चाहे रिक्त हो या जल से भरा कभी खाली भूमि पर नहीं रखना चाहिये।

३. – निर्मच्छन में उपयुक्त वस्त्र स्वच्छ शुद्ध कोमल हो,उसे अन्य कार्य में ना लिया जावे यहाँ तक कि श्री विग्रह के स्नानोपरांत अंग पोछने के कार्य में भी ना लिया जावे।

४. – आरती में बजाई जाने वाली घंटी को भी भूमि पर नहीं रखनी चाहिये।

आरती के महत्व को विज्ञानसम्मत भी माना जाता है। आरती के द्वारा व्यक्ति की भावनाएँ तो पवित्र होती ही हैं, साथ ही आरती के दीये में जलने वाला गाय का घी तथा आरती के समय बजने वाला शंख वातावरण के हानिकारक कीटाणुओं को निर्मूल करता है। इसे आज का विज्ञान भी सिद्ध कर चुका है।

🙏🏼 हर हर महादेव 🙏🏼

Saturday, 13 September 2025

जनेऊ क्या है

#जनेऊ_मर्यादा=-> 
अनध्यायों में बना, व्यभिचारिणी से बना, लक्कड़हारे से निर्मित,बाजार में बिकता, व्रात्यों(तीन या कईं पैढ़ी से जनेऊ-संस्कार से रहितों)से प्राप्त, इस प्रकार पतित्व होने के मार्गों का वर्ताव करने वाले से प्राप्त #जनेऊ धारण करने से किया हुआ कर्म महादोषयुक्त होकर  निष्फल हो जातें हैं | इस दोषों की शान्त्यर्थ #प्राजापत्य व्रत करना चाहिए | बाद में लक्षणयुक्त बना हुआ जनेऊ धारण करना चाहिए अन्यथा दुःख(किसी भी प्रकारका)प्राप्त होता हैं | अतः दोषमुक्त जनेऊ बनाने की पद्धति जाननेवाले विद्वान् की समीप अपनी आँखो से देखकर, अभ्यास द्वारा बनाना सीखकर ही जनेऊ धारण करना चाहिये..  इस तथ्य से यह भी पुष्ट होता हैं कि देवपूजा में व्रात्यों (अनुपनीतो)को उपवीत के  उपचार बिना ही शेष उपचारों को करना चाहिये, अथवा विप्र के हाथ उपवीतार्पण करना चाहिये।.. 
नैवेद्य निवेदन में भी नित्यसंध्योपासनारहितो, वैश्वदेव रहितों को पके हुए अन्नादि भोज्य पदार्थ समर्पित नहीं करना चाहिये...

Friday, 12 September 2025

स्त्री से कथा

#ब्राह्मणेतर_व_स्त्री_से_कथा_श्रवण_व_दीक्षा_का_निषेध

" व्यासानोपवेशाच्य शूद्र चाण्डालतां व्रजेत् ।
  विप्रस्येवाधिकारोऽस्ति व्यासासन समागमे।।
  धर्माणां श्रुतिगीतानामुपदेशे तथा द्विजः।। " 
          यदि शूद्र व्यास पीठस्थ होते हैं तो चाण्डालवत् हो जाते हैं -- विप्राधिकार ही व्यासपीठ में श्रेयस्कर है -- धर्मशास्त्रों के प्रवचन का अधिकार मात्र ब्राह्मण को है ।

व्यासपीठ पर बैठे ब्राह्मण को नाचना - गाना निषेध है तो निकृष्ट योनि को प्राप्त होता है ।।
" तस्माद् ब्राह्मणे नैव गायन्नानृत्येनन्माग्लागृधः स्यात्। ( अथर्ववेद् )

      अब स्वाभाविक है कि ब्राह्मणेतर अगर व्यासपीठस्थ हो तो विप्र भी उसे प्रणाम करेगा और कितने ऐसे भी मूढचित्त हैं जो ब्राह्मणेतर से दीक्षा भी ग्रहण कर लेते हैं -- 

      महाभारत शांतिपर्व में कहा है :--
" अभार्या शयने विभ्रच्छूद्रं वृद्धं च वै द्विजः। 
  अब्राह्मणं मन्य मानस्तृणेष्वासीत पृष्ठतः।। " 
             यदि ब्राह्मण अपनी पत्नि सिवाय दुशरी स्त्री को शय्या पर बिठा ले अथवा बडे - बूढे शूद्र को या ब्राह्मणेतर क्षत्रीय या वैश्य को सम्मान देता हुआ ऊंचे आसन पर बैठाकर स्वयं चटाई पर बैठे अथवा उससे नीचे आसान पर बैठे तो वह ब्राह्मण ब्राह्मणत्व से गिर जाता है ।

शिवपुराण में भी कहा है :--
" अपूज्याः यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते। 
. त्रीणि तत्र प्रवर्तन्ते दुर्भिक्षं मरणं भयम् ।। "
         जहां अपूज्य की पूजा होती है - जो पूज्य हैं उनको सम्मान नहीं दिया जाता - तीन चीजें वहां अवश्य होती हैं - दुर्भिक्ष- मरण और भय । ( मौजूदा समय में ये तीनों ही चरम पर हैं - बाढ से अकाल की स्थिती - मारकाट और भय - जनता जनता के रक्षकों से ही भयभीत है )।

और ब्राह्मणेतर से मंत्र दीक्षा के लिए ब्रह्मपुराण में स्पष्ट शब्दों में कहा है :---
           " ब्राह्मणेतरान् वर्णान् गुरून् मोहात् करोति यः। 
             सयाति नरकं घोरं विपन्नोऽपि भवेद् ध्रुवम् ।। "
ब्राह्मण से अतिरिक्त अन्य से मंत्र लेने में शास्त्र ने कहा कि वह शिष्य सुनिश्चित् नरकगामी होता है तथा अनेक विपत्तियां आती है ।

स्कन्द पुराण क्या कहता है :---
            " यो नरः नीच वर्णेभ्यो मंत्र ग्रहणमाचरन्। 
              न मंत्रफलमाप्नोति श्वयोनि चाधिगच्छति।। "
जो मनुष्य निम्न वर्ण के मनुष्य से मंत्र ग्रहण करता है - न तो उसे मंत्र का कोई फल प्राप्त होता है उल्टा वह कुत्ते की योनि में जन्म लेता है ।

अब कोई कहे कि कर्म से ही ब्राह्मण होते हैं विश्वामित्र तप से ब्राह्मण हुए  :--- तो वो भी सुन लें ! 

           " कलौ ब्राह्मणवीर्यात् न तपश्चरणादिभिः।  
कलियुग में ब्राह्मण वीर्य से ब्राह्मण स्त्री से ही ब्राह्मण होता है - तपस्या आदि से नहीं ।

नापित जनेऊ धारण करने से ब्राह्मण नहीं बन जाता ।
         " न नापिती ब्राह्मणतां याति सूत्रादि धारणात्। "

वहीं स्त्री से भी मंत्र ग्रहण का निषेध है :---
          " दैवपित्र्यातिथेयानि तत्प्रधानानि यस्य तु ।
            नाश्नन्ति पितृदेवास्तन्न च स्वर्ग स गच्छति।। "
जिस व्यक्ति के घर में देवकार्य - यज्ञ - मंत्रदीक्षा - श्राद्ध --  स्त्री के द्वारा सम्पन्न होते हैं -- वहां से देवता तथा पितृगण सदा के लिए विदा हो जाते हैं ।

           " वर्णोत्कृष्टो हीनवर्ण गुरूमोहाद् यदाचरेत्। 
             प्रायश्चितं तदाकृत्वा गुरूमन्यं समाश्रयेत् ।। "
यदि उच्च वर्ण वालों ने अपने से नीच वर्ण या ब्राह्मण आचार्य के अतिरिक्त किसी से दीक्षा ली है तो वह प्रायश्चित् करे तथा श्रेष्ठ गुरू का वरण करे । ( विश्वामित्र संहिता )

      शूद्र से दीक्षित ब्राह्मण को शूद्र ही समझना चाहिए ( कौशिक संहिता)

और भी :---
        " नाश्रोत्रियतते यज्ञे ग्रामयाजिकृते तथा। 
          स्त्रिया क्लीवेन च हुते भुञ्जीत ब्राह्मणः क्वचित् ।। 
जिस यज्ञ में स्त्री हवन करती है - नपुंसक के द्वारा होम होता है - जो स्त्री से मंत्र लेता है - ऐसे घर या स्थल पर ब्राह्मण को कदापि भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिए। 

         " अश्लील मेत्तसाधूनां यत्र जुहत्य मी हविः। 
.           प्रतीप मेतद्देवानां तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ।। 
स्त्री को यज्ञ में पति के साथ मात्र बैठना चाहिए न कि आहुति देनी चाहिए-- व तो मात्र पति सुश्रुषा से ही मुक्ति पाती है ।

                   🚩 हर हर महादेव 🚩 ।। वशिष्ठ ।।