ज्योतिष समाधान

Saturday, 16 November 2024

भूमि पूजन सामग्री

1】हल्दीः--------------------------20ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------01गोले
३ धूप बत्ती--------------     1पैकिट
४】कपूर---------------------   10ग्राम
5)
6)
७】यज्ञोपवीत -----------------   05नग्
८】चावल------------------------ 500ग्राम
९】अबीर-------------------------10ग्राम
१०】गुलाल, -----------------20ग्राम
11)
१२】सिंदूर --------------------20ग्राम
१३】रोली, --------------------20 ग्राम
१४】गोल सुपारी, ( बड़ी)---  50 ग्राम
१५】नारियल -----------------  3 नग्
१६】
१७】पंच मेवा------------------100 ग्राम
१८】शहद (मधु)--------------- 50 ग्राम
१९】शकर-----------------------100ग्रांम
२०】घृत (शुद्ध घी)---------  100 ग्राम
२१】इलायची (छोटी)--------05ग्राम
२२】लौंग -----------------05ग्राम
२३】इत्र की शीशी---------------1 नग्
२4】धुप बत्ती -------------------1पैकिट
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25】दूर्वा
26】पुष्प 
27】हार मोगरा के फूल के  5
28】ऋतुफल पांच प्रकार के -----1 किलो
29) पान के पत्ते ,5
29) नाग नागिन जोड़ा 1
30) कछुआ 1
31) 
32)तगाड़ी ....2
33)फडुआ ....2
34) गेंती........1
35) 

1)सफेद कपड़ा (आधा मीटर)
२】लाल कपड़ा (आधा मीटर)

घर से उप्लब्ध करने का सामान
1)आसन बैठने के लिये
2)चौकी2×2
3)थाली 2 पूजा के लिये 
4)कटोरी 5
5)हाथ पोछ्ने के लिये टाविल 
6)दूध
7)दही
8)माचिस
10)रुई
11)आटा  चोक पूरने  के लिये 100 ग्राम
12)प्रशाद  अनुमानित
13)  ईंट------ 9
14)नागफणी कील ,-----5
15)पूजा के लिये फुटकर पैसे
16) गाय का गोबर
17)आम के गुच्छे- 5 
18)गाय का मूत्र
19)गंगा जल
20)तुलसी दल 

Tuesday, 5 November 2024

*64 योगिनियों का सम्बन्ध तंत्र तथा योग विद्या से भी है आईए जानते हैं इस राज को,,*
 
चौसठ योगिनीयां की चर्चा पुराणों में है। सभी योगिनियों को आदिशक्ति मां काली का अवतार माना गया है। “घोर” नामक दैत्य के साथ युद्ध करते समय योगिनियों का अवतार हुआ था और यह सभी माता पार्वती की सखियां मानी गई हैं।

ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार ये सभी 64 योगिनी कृष्ण की नासिका के छेद से प्रकट हुई है। स्त्री के बिना पुरुष और पुरुष के बिना स्त्री अधूरी होती है और पूर्ण पुरुष 32 कलाओं से युक्त होता है। वहीं संपूर्ण स्त्री भी 32 कलाओं से युक्त होती है, इसलिए दोनों को मिलाकर 64 योगिनी शिव और शक्ति जो संपूर्ण कलाओं से युक्त हैं के मिलन से प्रकट हुई है।
यह भी कहा जाता है कि चन्द्रमा मन का प्रतीक होता है और इसकी 16 कलाएं होती है, जो हमारी आयु की चारों अवस्थाओं में भिन्न भिन्न होती है।आदि गुरु के चार मठ और हमारे चार युग सोलह संस्कारों के साक्षी है। प्रत्येक दिशा में 8 योगिनी फैली हुई है, हर योगिनी के लिए एक सहायक योगिनी है।इस प्रकार हर दिशा में 16 योगिनी है। दिशा 4 होने के कारण कुल 64 योगिनी है। सभी योगिनी तंत्र की अधिष्ठात्री देवी है। इनमें से एक भी देवी की कृपा हो जाने पर उससे संबंधित तंत्र की सिद्धि मानी जाती है।
योगिनियों की पूजा करने से ही सभी देवियों की पूजा मान्य है। इन 64 देवियों में से 10 महाविद्या और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की गई है। ये सभी आदि शक्ति काली के ही भिन्न-भिन्न अवतार रूप है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि सभी योगिनियों का संबंध मुख्यतः काली कुल से हैं और ये सभी तंत्र तथा योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है।
अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न होती है। इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कार्य इन्हीं की कृपा से की जाती है। सही अर्थ में आधुनिक विज्ञान का आधार यहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से लोगों ने इसे समझने के बजाये, इसे टोने-टोटकों से जोड़ दिया है।
*योगिनियों में आठ योगनियां अपना विशेष स्थान रखती है,,* -1.सुर-सुंदरी योगिनी 2.मनोहरा योगिनी 3.कनकवती योगिनी 4.कामेश्वरी योगिनी 5.रति सुंदरी योगिनी 6.पद्मिनी योगिनी 7.नटिनी योगिनी एवं 8.मधुमती योगिनी प्रमुख हैं। सुर-सुंदरी योगिनी के सम्बंध में कहा गया है कि ये अत्यंत सुंदर, शरीर सौष्ठव, अत्यंत दर्शनीय है। इनकी साधना एक महीने तक की जाती है। इनके प्रसन्न होने पर ही सुर-सुंदरी योगिनी सामने आती है और इन्हें माता, बहन या पत्नी कहकर संबोधन किया जाता है। इनकी सिद्धि से राज्य, स्वर्ण, दिव्यालंकार तथा दिव्य कन्याएं की प्राप्ति होती हैं। मनोहरा योगिनी अत्यंत सुंदर होती हैं और इनके शरीर से सुगंध निकलती रहती है। एक महीने साधना करने पर ये प्रसन्न होती है। इनकी सिद्धि से साधक को प्रतिदिन स्वर्ण मुद्राएं प्राप्त होती है।कनकवती योगिनी रक्त वस्त्रालंकार से भूषित रहती हैं तथा सिद्धि के पश्चात ये अपनी परिचारिकाओं के साथ आकर वांछित कामना पूर्ण करती है। कामेश्वरी योगिनी का जप रात्रि में किया जाता है। पुष्पों से सज्जित देवी प्रसन्न होकर ऐश्वर्य, भोग की वस्तुएं प्रदान करती हैं। रति सुंदरी योगिनी स्वर्णाभूषण से सुसज्जित देवी हैं, महीने भर की साधना के बाद प्रसन्न होकर अभीष्ट वर प्रदान करती है और सभी ऐश्वर्य, धन एवं वस्त्रालंकार देती हैं।पद्मिनी योगिनी का वर्ण श्याम रहता है। ये देवी वस्त्रालंकार से युक्त, महीने भर साधना के बाद प्रसन्न होकर ऐश्वर्यादि प्रदान करती हैं। नटिनी योगिनी को अशोक वृक्ष के नीचे रात्रि में साधना कर के सिद्ध किया जाता है। इनकी प्रसन्नता से अपने सारे मनोरथ पूर्ण किए जाते हैं। मधुमती योगिनी शुभ्र वर्ण की होती है। योगिनी अति सुंदर, विविध प्रकार के अलंकारों से भूषित होती हैं। साधना के पश्चात सामने आकर किसी भी लोक की वस्तु प्रदान करती हैं। इनकी कृपा से पूर्ण आयु, अच्छा स्वास्थ्य तथा राज्याधिकार प्राप्त होता है। चौंसठ योगिनियों में 1.बहुरूप, 2.तारा, 3.नर्मदा, 4.यमुना, 5.शांति, 6.वारुणी 7.क्षेमंकरी, 8.ऐन्द्री, 9.वाराही, 10.रणवीरा, 11.वानर-मुखी, 12.वैष्णवी, 13.कालरात्रि, 14.वैद्यरूपा, 15.चर्चिका, 16.बेतली, 17.छिन्नमस्तिका, 18.वृषवाहन, 19.ज्वाला कामिनी, 20.घटवार, 21.कराकाली, 22.सरस्वती, 23.बिरूपा, 24.कौवेरी, 25.भलुका, 26. नारसिंही, 27. बिरजा, 28. विकतांना, 29.महालक्ष्मी, 30.कौमारी, 31.महामाया, 32.रति, 33.करकरी, 34.सर्पश्या, 35.यक्षिणी, 36.विनायकी, 37.विंध्यवासिनी, 38.वीर कुमारी, 39.माहेश्वरी, 40.अम्बिका, 41.कामिनी, 42.घटाबरी, 43.स्तुती, 44.काली, 45.उमा, 46.नारायणी, 47.समुद्र, 48.ब्रह्मिनी, 49.ज्वाला मुखी, 50.आग्नेयी, 51. अदिति, 52.चन्द्रकान्ति, 53.वायुवेगा, 54.चामुण्डा, 55. मूरति, 56.गंगा, 57. धूमावती, 58. गांधार, 59.सर्व मंगला, 60.अजिता, 61.सूर्यपुत्री 62.वायु वीणा, 63.अघोर और 64. भद्रकाली योगिनियाँ है। इन 64 योगिनियों के मंदिर भारत में कई स्थानों पर है।

🕉️🪷🚩जय मां भुवनेश्वरी 🚩🪷🕉️

Sunday, 27 October 2024

#दीपावली

🌺🌺#दिनांक- 31/10/2024- #कार्तिक ,कृष्ण - पक्ष, तिथि - चतुर्दशी #तदोपरि #अमावस्या दिन गुरुवार को दिन में 3: 12 बजे के बाद 

#प्रतिसंवत्सरं कुर्यात्कालिकायां महोत्सवम्।
 कार्तिके तु विशेषेण अमावस्या निशार्द्धके।
तस्यां सम्पूजयेद्देवीं भोगमोक्षप्रदायिनी ।।

#उभय दिने निशीथव्याप्तौ तत्र प्रदोषे भवेत्तदैव। तथोक्तं कुलसर्वस्वे 
#प्रदोषव्यापिनी यत्र महानिशा च सा भवेत् ।
तदैव कालिका पूज्या दक्षिणा मोक्षदायिनी।।

#यदोभयदिने तदा चतुर्दशीयुता ग्राह्या ------

#अर्द्धरात्रे महेशानि अमावस्या यदा भवेत्।
चतुर्दशीयुताग्राह्या चामुण्डा पूजने सदा।। इत्यागमात्।

🌺🌺#दिनांक - 1/11/2024- #कार्तिक,कृष्ण- पक्ष, तिथि - अमावस्या #तदोपरि प्रतिपदा ,दिन - शुक्रवार को-- #स्वातीनक्षत्र के योग में #दीपावली 

#निर्णयामृते - #ज्योतिषर्निबन्धे--- नारदोऽपि--- 

#इषासितचततुर्दश्यामिन्दुक्षयतिथावति।
 ऊर्जादौ स्वातिसंयुक्ते तदा दीपावली भवेत्।।

#निर्णयामृते - मात्स्ये (#मत्स्य पुराण) --- #दीपैर्नीराजनादत्र सैषा दीपावली स्मृता।
#अत्र विशेषो हेमाद्रौ भविष्ये  (#भविष्य पुराण) --- दिवा तत्र न भोक्तव्यमृते बालातुराज्जनात्। प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा तत: क्रमात्।। दीपवृक्षाश्च दातव्या शक्त्या देवगृहेषु च ।।

#प्रदोषसमये दीपदानम् ---- दीपान्दत्त्वा प्रदोषे तु लक्ष्मीं पूज्य यथाविधि । स्वलंकृतेन भोक्तव्यं सितवस्त्रोपशोभिता।।
#अयं प्रदोषव्यापिनी ग्राह्य:।

#धर्मसिंधसारे द्वितीयपरिच्छेदे --- अथामावास्याभ्यंगनिर्णय:

#अथाश्विनामावास्यायां प्रातरभ्यंग: प्रदोषे दीपदानलक्ष्मीपूजनादि विहितम्।

#तथा च परदिने एव दिनद्वयेऽपि वा प्रदोषव्याप्तौ परा।
 पूर्वत्रैव प्रदोषव्याप्तौ लक्ष्मीपूजनादौ पूर्वा । #अभ्यंगस्नानादौ परा।
#एवमुभयत्र प्रदोषव्याप्त्यभावेऽपि पुरुषार्थचिंतामणौ तु पूर्वत्रैव व्याप्तिरिति पक्षे परत्र यामत्रयाधिकव्यापिदर्शे दर्शापेक्षया प्रतिपद्वृद्धिसत्त्वे लक्ष्मीपूजादिकमपि परत्रैवेत्युक्तम्।

#एतन्मते उभयत्र प्रदोषाव्याप्तिपक्षेऽपि परत्र दर्शस्य सार्धयामत्रयाधिकव्याप्तित्वात्परैव युक्तेति भांति।

🪔🌺#चतुर्दश्यादिदिनत्रयेऽपि दीपावलिसंज्ञके यत्रयत्राह्नि स्वातीनक्षत्रयोगस्तस्यतस्यप्राशस्त्यातिशय:।

🪔🌺#अस्यामेव निशीथोत्तरं नगरस्त्रीभि: स्वगृहांगणादलक्ष्मीनि: सरणं कार्यम्

Saturday, 26 October 2024

#दीपावली निर्णय


☀️👉व्याख्या :-
किसी भी व्रत-पर्वादि का सही निर्णय लेने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कर्मकाल का सटीक ज्ञान । जब तक कर्मकाल का ज्ञान नहीं होगा तब तक उचित निर्णय लेना असंभव है, क्योंकि शास्त्रों के वचन परस्पर विरोधाभासी प्रतीत होंगे। दीपावली निर्धारण हेतु कर्मकाल क्या है? दीपावली निर्धारण हेतु प्रदोष कर्मकाल है।

🔥भविष्य पुराण:- दिवातत्रनभोक्तव्यमृतेबा लातुराज्जनात् । प्रदोषसमयेलक्ष्मीं पूजयित्वाततः क्रमात् 
दीपवृक्षाश्चदातव्याः शक्त्या देवगृहेषु च ॥

🔥पुनः:- दीपान्दत्वा प्रदोषे तु लक्ष्मीं पूज्य यथाविधि । स्वलङ्कृतेन भोक्तव्यं सितवस्त्रोपशोभिना ॥

🔥पुनः ब्रह्मपुराण से :- प्रदोषसमयेराजन् कर्तव्यादीपमालिका॥

यहां स्पष्ट रूपसे कर्मकाल का निर्धारण हो रहा है कि लक्ष्मी पूजा व दीपावली का “कर्मकाल प्रदोषकाल है”। कर्मकाल का ज्ञान होने के बाद निर्णय लेना सहज हो जाता है। जिस किसी दिन भी कर्मकाल में ग्राह्य तिथि व्याप्त हो व्रत पर्व उसी दिन होता है। यदि दो दिन कर्मकाल में तिथि व्याप्त हो (तिथिवृद्धि होने पर ऐसा होता है) तो कुछ अपवादों को छोड़कर सर्वत्र दूसरे दिन को ग्रहण करने की विधि होती है। और यदि दोनों में से एक दिन भी कर्मकाल में तिथि न मिले तो भी कुछ अपवादों के अतिरिक्त दूसरा दिन ही ग्राह्य होता है।
व्रत-पर्वादि का निर्णय करने के लिए यही मुख्य नियम है। दीपावली और लक्ष्मीपूजा का कर्मकाल प्रदोषकाल है और उपरोक्त नियमानुसार ही इसका निर्णय लेना चाहिए।

🔥तिथितत्त्वचिन्तामणौ – 
कार्तिके कृष्णपक्षे च प्रदोषे भूतदर्शयोः । 
प्रदोषसमये दीपान् दद्यान्मनोरमान् ॥ ब्रह्मविष्णुशिवादीनां भवनेषु मठेषु च । 
उल्काहस्ता नराः कुर्युः पितॄणां मार्गदर्शनम् ॥

🔥पं० राजनाथ मिश्रकृत राजमार्तण्डे – 
दण्डैकं रजनीं प्रदोषसमये दर्शे यदा संस्पृशेत् । 
कर्त्तव्या सुखरात्रिकात्र विधिना दर्शाद्यभावे तदा ॥

🔥अन्यत्र से – 
अमावस्या यदा रात्रौ दिवाभागे चतुर्द्दशी । 
पूजनीया तदा लक्ष्मीर्विज्ञेया सुखरात्रिका ॥

दीपावली अंधकार पर प्रकाश, बुराई पर अच्छाई और अज्ञान पर ज्ञान की जीत का उत्सव है।

2024 में 31 अक्टूबर गुरुवार को चतुर्दशी 3:23 बजे दिन तक है तत्पश्चात अमावास्या अगले दिन शुक्रवार 1 नवम्बर 2024 को 5:24 बजे संध्या काल तक है। स्पष्टतः दोनों दिन प्रदोषकाल में अमावास्या प्राप्त होती है, किन्तु 
ऐसी स्थिति में दीपावली हेतु दो और विशेष नियम हैं जो मुख्य नियम का बाधक है। यहां पर एक विशेष नियम तिथितत्व में वर्णित है कि यदि दोनों दिन अमावास्या प्रदोष व्यापिनी हो तो भी अगले दिन रात में अर्थात् सूर्यास्त के पश्चात् न्यूनतम 1 दण्ड अमावास्या हो तो ही पहले दिन का त्याग और अगले दिन को ग्रहण करना जाना चाहिए । अर्थात् यदि दूसरे दिन सूर्यास्त के पश्चात् एक दण्ड से कम अमावास्या रहे तो पहले दिन करना चाहिए।

🔥ज्योतिषार्णवे :-
दंडैक रजनी योगे दर्श: स्याच्च परेहनी।
तदा विहाय पूर्वेद्यु: परेह्णी सुखरात्रिका।।

प्रदोष काल में अमावाश्या का अभाव रहे तो पितृ उल्काग्रहण नहीं करते हैं।

🔥भूताहे ये प्रकुर्वँती उल्काग्रहमचेतना:।
निराशा: पितरो यान्ति शापं दत्वा सुदारूनम।।

#दीपावली निर्णय

*1 नवंबर 2024 को होगा दीपावली पर्व ... बिरला मंदिर में विद्वत्सभा का सर्वसम्मत निर्णय*

आपको यह सूचित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि आज 20 अक्टूबर 2024 को लक्ष्मी नारायण मंदिर,(बिरला मंदिर) दिल्ली के  परिसर में आयोजित विद्वत् धर्मसभा में डॉ अरुण बंसल जी अध्यक्ष अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ (फ्यूचर प्वाइंट) की अध्यक्षता में  आयोजित की गई, जिसमें आचार्य शुभेश शर्मन ज
दीपावली पर्व या दीपमालिका निर्णय
1. संग्रहशिरोमणिः (द्वितीयो भागः) सम्पादक आचार्य श्री कमलाकान्त शुक्ल, सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्वविद्यालयः वाराणसी।  पृष्ठ ४००-४०१ से लिए गए कुछ वाक्यांश - 
2. सूर्यास्त के बाद अधिक (घटिका) व्यापिनी अमावस्या हो तो इसे अमावस्या मानने में कोई संदेह नहीं है। इस अमावस्या में प्रातः अभ्यङ्ग, देवपूजन व अपराह्न में पार्वण श्राद्ध करके प्रदोष में दीपदान, आकाशदीप-प्रदर्शन, लक्ष्मीपूजन करके भोजन करना चाहिए।

3. दूसरे दिन या दोनों दिन प्रदोष-व्याप्ति होने पर दूसरे दिन की अमावस्या ग्राह्य है।
4. व्याप्ति के पक्ष में दूसरे दिन तीन प्रहर से अधिक हो और अमावस्या की अपेक्षा तीसरे दिन प्रतिपदा का घटिकामान अधिक हो तो, लक्ष्मीपूजन आदि कार्य दूसरे दिन ही करेंगे।  इस आधार पर दोनों दिन प्रदोष-व्याप्ति के पक्ष में परा (दूसरे दिन) अमावस्या ग्राह्य है।
5. जिस दिन स्वाती नक्षत्र का योग हो, उस दिन की शुभता विशेष है।

   निर्णयसिन्धुः

6. श्रीकमलाकरभट्ट प्रणीत, प्रकाशक – श्रीठाकुर प्रसाद पुस्तक भण्डार, वाराणसी, से लिए गए कुछ वाक्यांश 

7. पुष्कर पुराण में कहा है कि – स्वाती में स्थित सूर्य में यदि स्वाती में गया चन्द्रमा हो तो पंचत्वचा के जल से मनुष्य अभङ्गविधिकर स्नान करे और महालक्ष्मी का नीराजन करे तो लक्ष्मी को प्राप्त करता है। (पृष्ठ 405)

8. अमावस्या के प्रातःकाल में तो दही, खीर, घृत आदियों से पार्वण श्राद्ध करे। (पृष्ठ 405)

9. तिथि तत्व में ज्योति का वचन है कि – एक दण्ड (घटी) रात्रि के योग में अमावस्या दूसरे दिन हो तब पूर्वदिन को त्यागकर दूसरे दिन सुखरात्रि में करे। (पृष्ठ 406)

10. प्रदोष और अर्धरात्रिव्यापिनी मुख्य है। इस की व्याप्ति में परा ही है।  प्रदोष के मुख्यत्व होने से आधी रात में अनुष्ठान का अभाव है।

11. पूर्णिमा तिथि तथा अमावस्या तिथि सावित्री व्रत के बिना परा ग्रहण करनी चाहिए।  ब्रह्मवैवर्त पुराण का मत है कि – हे मुनिश्रेष्ठ, व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी प्रयोग नहीं करना चाहिए।(पृष्ठ 89)
12. धर्मसिन्धु– प्रदोष समय दीपदान लक्ष्मीपूजन आदि के हैं।  उसमें सूर्योदय के अनन्तर घटीका तक (भी) अधिक रात्रि तक अमावस्या हो तो (परा लेने में) कुछ संदेह नहीं है।  (पृष्ठ 177)
13. पुरुषार्थचिन्तामणि।  विष्णुभट्टविरचितः पृष्ठ 306 ... तच्चोत्तरदिनेऽस्तोत्तरं घटिकाद्यवच्छेदेन विद्यते, तथा सैव ग्राह्या। (घटिका के अंश मात्र से भेद में भी लेना है)
14. मार्तण्ड पञ्चाङ्ग प्रियव्रतशर्मा – दीपावली को भले ही अमावस्या सूर्यास्त के बाद एक ही मिनट तक व्याप्त हो, शास्त्रानुसार उसे पूरे प्रदोषकाल में (सूर्यास्त के अनन्तर तीन मुहूर्त तक) व्याप्त माना जाता है, अतः इस स्थिति में भी पूरा प्रदोषकाल लक्ष्मी पूजन के लिए विहित है।

01 नवम्बर को दीपावली निर्णय
1-11-2024 शुक्रवार शालिवाह्न शक -1946, विक्रम संवत - 2081 पंचांग
कालयुक्त संवत्सर॥ सूर्य - दक्षिणायन, दक्षिण गोलार्द्ध॥ हेमन्त ऋतु।
कार्तिक मास कृष्ण पक्ष॥ अमावस्या तिथि 29:33 घटी तक॥ स्वाति नक्षत्र 52:42 घटी तक॥  दिनमान – 27:52:30 घटी॥

1 नवम्बर 2024 को सूर्यास्त के बाद 24 घटी 40 पल 30 विपल की अमावस्या और प्रदोषकाल का योग है।  इस कारण और शास्त्रों के वचन से यह स्पष्ट होता है कि दिल्ली में 01 नवम्बर 2024 को निःसंदेह दीपावली का निर्णय सही है

"सम्पूर्ण भारतवर्ष में दीपावली का महापर्व इस वर्ष 1 नवंबर 2024, शुक्रवार को मनाना शास्त्रसम्मत है एवं इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य दिन दीपावली मनाना शास्त्रानुसार नहीं है।"

हमें विश्वास है कि इस सर्वसम्मत निर्णय के उपरांत पूरे देश में किसी भी प्रकार के भ्रम व संशय की संभावना नहीं है। सभी सनातन धर्मियों हेतु 1 नवंबर 2024 शुकवार को कार्तिकी अमावस्या लक्ष्मीपूजन करना शास्त्रसम्मत होगा एवं इसके अतिरिक्त किसी भी अन्य दिन दीपावली मनाना शास्त्रसम्मत नहीं होगा।

#दीपावली निर्णय

दीपावली का शास्त्रीय निर्णय :- 01 नवम्बर 2024, शुक्रवार
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दीपावली की पुनश्च चर्चा करते है, आज बात शुरू करेंगे ईस्वी सन् 1926 से लेकर ईस्वी सन् 1989 तक। यहॉं जयपुर के सबसे पुराने पंचांग के प्रमाण आपको प्रस्तुत किये जा रहे है, जिनके आधार पर आम जनता भी यह जान पायेगी कि दीपावली का निर्णय आज भी उसी विधि से 01 नवम्बर 2024, शुक्रवार का किया गया है, जिस विधि से ईस्वी सन् 1926 से लेकर ईस्वी सन् 1989 तक के इन पंचांगों में किया गया था। उस जमाने में न तो कम्प्यूटर था, न कैलकुलेटर, न सोशल मीड़िया, बस यही पंचांग प्रमाण हुआ करते थे। अत: आप भी देखे और समझे कि किस तरह एक पुराने पंचांगकर्ता ने अपने ही परदादाजी—दादाजी—पिताजी के समय में बनाये गये पंचांगों में दिये प्रमाणों व आधार को त्यागकर कैसे जनता को भ्रमित किया और यह दीपावली का विवाद उत्पन्न किया जो कि असल में कोई विवाद हीं नहीं था।
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उदाहरणार्थ पुराने पंचांगों का उद्धरण :-
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01. विक्रम् संवत् 1983, ईस्वी सन् 1926, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 04 नवम्बर 1926 (गुरुवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 28 घटी 58 पल, दिनमान : 27 घटी 18 पल, सूर्यास्त : 05:28

ब :- 05 नवम्बर 1926 (शुक्रवार), अमावस्या तिथि समाप्त 32 घटी 04 पल, दिनमान : 27 घटी 15 पल, सूर्यास्त : 05:27

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 05 नवम्बर 1926 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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02. विक्रम् संवत् 1984, ईस्वी सन् 1927, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 24 अक्टूबर 1927 (सोमवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 27 घटी 56 पल, दिनमान : 27 घटी 53 पल, सूर्यास्त : 05:35

ब :- 25 अक्टूबर 1927 (मंगलवार), अमावस्या तिथि समाप्त 33 घटी 02 पल, दिनमान : 27 घटी 50 पल, सूर्यास्त 05:34

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 25 अक्टूबर 1927 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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03. विक्रम् संवत् 2013, ईस्वी सन् 1956, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 01 नवम्बर 1956 (गुरुवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 36 घटी 58 पल, दिनमान : 27 घटी 27 पल, सूर्यास्त 05:30

ब :- 02 नवम्बर 1956 (शुक्रवार), अमावस्या तिथि समाप्त 37 घटी 50 पल, दिनमान : 27 घटी 25 पल, सूर्यास्त 05:29

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 02 नवम्बर 1956 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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04. विक्रम् संवत् 2023, ईस्वी सन् 1966, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 11 नवम्बर 1966 (शुक्रवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 37 घटी 56 पल, दिनमान : 26 घटी 56 पल, सूर्यास्त : 05:23

ब :- 12 नवम्बर 1966 (शनिवार), अमावस्या तिथि समाप्त 33 घटी 05 पल, दिनमान : 26 घटी 57 पल, सूर्यास्त : 05:22

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 12 नवम्बर 1966 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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5. विक्रम् संवत् 2032, ईस्वी सन् 1975, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 02 नवम्बर 1975 (रविवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 36 घटी 17 पल, दिनमान : 27 घटी 25 पल, सूर्यास्त : 05:29

ब :- 03 नवम्बर 1975 (सोमवार), अमावस्या तिथि समाप्त 30 घटी 44 पल, दिनमान : 27 घटी 21 पल, सूर्यास्त : 05:28

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 03 नवम्बर 1975 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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6. विक्रम् संवत् 2041, ईस्वी सन् 1984, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 23 अक्टूबर 1984 (मंगलवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 35 घटी 16 पल, दिनमान : 27 घटी 53 पल, सूर्यास्त : 05:35

ब :- 24 अक्टूबर 1984 (बुधवार), अमावस्या तिथि समाप्त 29 घटी 20 पल, दिनमान : 27 घटी 50 पल, सूर्यास्त : 05:34

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 24 अक्टूबर 1984 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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7. विक्रम् संवत् 2045, ईस्वी सन् 1988, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 08 नवम्बर 1988 (मंगलवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 27 घटी 08 पल, दिनमान : 27 घटी 06 पल, सूर्यास्त : 05:25

ब :- 09 नवम्बर 1988 (बुधवार), अमावस्या तिथि समाप्त 30 घटी 06 पल, दिनमान : 27 घटी 02 पल, सूर्यास्त 05:24

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 09 नवम्बर 1988 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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8. विक्रम् संवत् 2046, ईस्वी सन् 1989, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 28 अक्टूबर 1989 (शनिवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 26 घटी 07 पल, दिनमान : 27 घटी 40 पल, सूर्यास्त : 05:32

ब :- 29 अक्टूबर 1989 (रविवार), अमावस्या तिथि समाप्त 31 घटी 23 पल, दिनमान : 27 घटी 37 पल, सूर्यास्त : 05:32

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 29 अक्टूबर 1989 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
(साभार रवि शर्मा, जयपुर)

#दीपावली

दीपावली का शास्त्रीय निर्णय :- 01 नवम्बर 2024, शुक्रवार
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दीपावली की पुनश्च चर्चा करते है, आज बात शुरू करेंगे ईस्वी सन् 1926 से लेकर ईस्वी सन् 1989 तक। यहॉं जयपुर के सबसे पुराने पंचांग के प्रमाण आपको प्रस्तुत किये जा रहे है, जिनके आधार पर आम जनता भी यह जान पायेगी कि दीपावली का निर्णय आज भी उसी विधि से 01 नवम्बर 2024, शुक्रवार का किया गया है, जिस विधि से ईस्वी सन् 1926 से लेकर ईस्वी सन् 1989 तक के इन पंचांगों में किया गया था। उस जमाने में न तो कम्प्यूटर था, न कैलकुलेटर, न सोशल मीड़िया, बस यही पंचांग प्रमाण हुआ करते थे। अत: आप भी देखे और समझे कि किस तरह एक पुराने पंचांगकर्ता ने अपने ही परदादाजी—दादाजी—पिताजी के समय में बनाये गये पंचांगों में दिये प्रमाणों व आधार को त्यागकर कैसे जनता को भ्रमित किया और यह दीपावली का विवाद उत्पन्न किया जो कि असल में कोई विवाद हीं नहीं था।
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उदाहरणार्थ पुराने पंचांगों का उद्धरण :-
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01. विक्रम् संवत् 1983, ईस्वी सन् 1926, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 04 नवम्बर 1926 (गुरुवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 28 घटी 58 पल, दिनमान : 27 घटी 18 पल, सूर्यास्त : 05:28

ब :- 05 नवम्बर 1926 (शुक्रवार), अमावस्या तिथि समाप्त 32 घटी 04 पल, दिनमान : 27 घटी 15 पल, सूर्यास्त : 05:27

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 05 नवम्बर 1926 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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02. विक्रम् संवत् 1984, ईस्वी सन् 1927, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 24 अक्टूबर 1927 (सोमवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 27 घटी 56 पल, दिनमान : 27 घटी 53 पल, सूर्यास्त : 05:35

ब :- 25 अक्टूबर 1927 (मंगलवार), अमावस्या तिथि समाप्त 33 घटी 02 पल, दिनमान : 27 घटी 50 पल, सूर्यास्त 05:34

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 25 अक्टूबर 1927 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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03. विक्रम् संवत् 2013, ईस्वी सन् 1956, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 01 नवम्बर 1956 (गुरुवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 36 घटी 58 पल, दिनमान : 27 घटी 27 पल, सूर्यास्त 05:30

ब :- 02 नवम्बर 1956 (शुक्रवार), अमावस्या तिथि समाप्त 37 घटी 50 पल, दिनमान : 27 घटी 25 पल, सूर्यास्त 05:29

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 02 नवम्बर 1956 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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04. विक्रम् संवत् 2023, ईस्वी सन् 1966, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 11 नवम्बर 1966 (शुक्रवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 37 घटी 56 पल, दिनमान : 26 घटी 56 पल, सूर्यास्त : 05:23

ब :- 12 नवम्बर 1966 (शनिवार), अमावस्या तिथि समाप्त 33 घटी 05 पल, दिनमान : 26 घटी 57 पल, सूर्यास्त : 05:22

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 12 नवम्बर 1966 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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5. विक्रम् संवत् 2032, ईस्वी सन् 1975, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 02 नवम्बर 1975 (रविवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 36 घटी 17 पल, दिनमान : 27 घटी 25 पल, सूर्यास्त : 05:29

ब :- 03 नवम्बर 1975 (सोमवार), अमावस्या तिथि समाप्त 30 घटी 44 पल, दिनमान : 27 घटी 21 पल, सूर्यास्त : 05:28

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 03 नवम्बर 1975 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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6. विक्रम् संवत् 2041, ईस्वी सन् 1984, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 23 अक्टूबर 1984 (मंगलवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 35 घटी 16 पल, दिनमान : 27 घटी 53 पल, सूर्यास्त : 05:35

ब :- 24 अक्टूबर 1984 (बुधवार), अमावस्या तिथि समाप्त 29 घटी 20 पल, दिनमान : 27 घटी 50 पल, सूर्यास्त : 05:34

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 24 अक्टूबर 1984 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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7. विक्रम् संवत् 2045, ईस्वी सन् 1988, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 08 नवम्बर 1988 (मंगलवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 27 घटी 08 पल, दिनमान : 27 घटी 06 पल, सूर्यास्त : 05:25

ब :- 09 नवम्बर 1988 (बुधवार), अमावस्या तिथि समाप्त 30 घटी 06 पल, दिनमान : 27 घटी 02 पल, सूर्यास्त 05:24

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 09 नवम्बर 1988 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
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8. विक्रम् संवत् 2046, ईस्वी सन् 1989, कार्तिक कृष्ण देव-पितृ अमावस्या : दीपावली का निर्णय

अ :- 28 अक्टूबर 1989 (शनिवार), चतुर्दशी तिथि समाप्त 26 घटी 07 पल, दिनमान : 27 घटी 40 पल, सूर्यास्त : 05:32

ब :- 29 अक्टूबर 1989 (रविवार), अमावस्या तिथि समाप्त 31 घटी 23 पल, दिनमान : 27 घटी 37 पल, सूर्यास्त : 05:32

निष्कर्ष :- दीपावली का पर्व 29 अक्टूबर 1989 को मनाया गया, जो कि प्रतिपदा युक्त अमावस्या थी, जबकि पहले दिन चतुर्दशी युक्त अमावस्या पर प्रदोषकाल, सिंहलग्न, निशीथकाल आदि सभी में अमावस्या मिल रही थी, परन्तु तत्कालीन विद्वानों ने जयपुर दीपावली का निर्णय प्रतिपदा युक्त दूसरे दिन व्यापिनी अमावस्या को ही दिया, यही नियम ईस्वी सन् 2024 व 2025 में भी लागू किया गया हैं, पुराने पंचांगकर्ताओं व धर्मशास्त्रों का अनुसरण करते हुए।
(साभार रवि शर्मा, जयपुर)

#दीपावली

 *प्रतिपदा युक्त अमावस्या को त्यागने का खंडन, दीपावली 01 नवंबर 24 को ही मनाया जाना शास्त्रसम्मत*

1नवम्बर 2024 को शास्त्रानुमोदित दीपावली पर्व को लेकर जनमानस में भ्रान्तियाँ फैलाने की दृष्टि से तथाकथित विद्वानों ने अब नया शगूफा छोड़ा है- *यदि दीपोत्सव के समय प्रतिपदा तिथि दिख जाए तो उस दूषित तिथि को रजस्वला स्त्री के समान त्याग देना चाहिए।* इसका निराकरण इस प्रकार है -
1👉1 नवम्बर दीपावली के दिन अमावस्या तिथि प्रदोष काल में सायं 6.17तक व्याप्त रहेगी और इसी में दीपोत्सव अथवा दीपदान किया जाएगा अतः यह कथन पूरी तरह से निराधार है।

*रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्यां च पूर्णिमा। प्रतिपदाष्यमावस्या तिथ्योर्युग्मं महाफलम्।एतद्व्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुराकृतम्।।*

2👉जनता को भ्रमित करने वाले इन विद्वानों से पूछा जाना चाहिए कि,यदि स्वयं की पत्नी, पुत्री, बहन और बहू आदि पर्व अथवा मांगलिक कार्य के अवसर पर अचानक रजस्वला हो जायें तो क्या उन्हें त्याग दिया जायेगा?क्योंकि वे धन-धान्य का क्षय करने वाली हैं?
3👉विष्णु धर्मोत्तरपुराण में कहा गया है कि,जिस कर्म का जो काल(समय) हो उस समय तक व्यापिनी जो तिथि हो उसमें कर्मों को करना चाहिए क्योंकि उसमें ह्रास और वृद्धि कारण नहीं होता है- *कर्मणो यस्य य:कालस्तत्काल व्यापिनी तिथि:।तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम्।।* यदि वह तिथि दो दिन हो तो युग्म वाक्य से निर्णय करना चाहिए अर्थात् इसमें एकादशी से युक्त द्वादशी,चतुर्दशी से युक्त पूर्णिमा और प्रतिपदा से युक्त अमावस्या ग्रहण करना चाहिए।इन तिथियों का युग्म महान् फल देता है और इसके विपरीत हो तो महान् दोषकारक होकर होकर सारे पुण्यों को नष्ट कर देता है- *रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्यां च पूर्णिमा। प्रतिपदाष्यमावस्या तिथ्योर्युग्मं महाफलम्।एतद्व्यस्तं महादोषं हन्ति पुण्यं पुराकृतम्।।*
4👉स्कन्दपुराण में भी यह स्पष्ट किया गया है कि-जिस तिथि को प्राप्त करके सूर्य अस्त हो जाए और उस दिन तीन मुहूर्त जो तिथि हो वही पूरे समय मानी जाएगी- *यां तिथिं समनुप्राप्य यात्यस्तं पद्मिनीपति:।सा तिथिस्तद्दिने प्रोक्ता त्रिमुहूर्तैव या भवेत्।।*
5👉 इसी तरह धर्मसिन्धु, निर्णयसिन्धु,व्रत-पर्व-निर्णय,आदि ग्रंथों में स्पष्टतः उल्लिखित है कि-व्रतों में उत्तम सावित्री व्रत को छोड़कर चतुर्दशी से विद्ध अमावस्या तथा पूर्णिमा कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए- *पौर्णमास्यमावास्ये तु सावित्रीव्रतं विना परे ग्राह्ये।* ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी कहा गया है - *भूतविद्धे न कर्तव्ये दर्शपूर्णे कदाचन।वर्जयित्वा मुनिश्रेष्ठ सावित्रीव्रतमुत्तमम्।।* 
     इस प्रकार और भी अनेक प्रमाण धर्मशास्त्रों में उपलब्ध हैं जिनके आधार पर इस प्रकार के अतिरेकी वचन स्वत:ही निर्मूल सिद्ध हैं। अतः जनता जनार्दन को इस प्रकार के असंबद्ध विचारों से विचलित न होकर उमंग और हर्षोल्लास से दीपावली का पर्व 1 नवम्बर को शास्त्रों के निर्देशानुसार मनाना चाहिए।
#01_नवंबर_को_दीपावली_शास्त्रसम्मत_है 
#शास्त्रसम्मत 
#दीपावली 
#पंचांग 
#मुहूर्त

Wednesday, 23 October 2024

#गुरु पुष्य 2024

गुरुदेव भुवनेश्वर पर्णकुटी आश्रम ने बताया कि इस बार 24 अक्टूबर 2024 को  गुरु पुष्य योग के साथ सर्वार्थ सिद्धि योग और अमृत सिद्धि योग का इस प्रकार तीन योगों का  शुभ संयोग भी बन रहा है। 

24 अक्तूबर को पुष्य नक्षत्र की शुरुआत सुबह से हो जाएगी, जो पूरे दिन रहेगा।
गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र पड़ने के कारण इसे गुरु पुष्य नक्षत्र योग के नाम से जाना जाता है।
पुष्य को ऋग्वेद में तिष्य अर्थात शुभ या माँगलिक तारा भी सत्ताइस नक्षत्रों में आठवां नक्षत्र है पुष्य। सभी नक्षत्रों में इस नक्षत्र को सबसे अच्छा माना जाता है।

 सभी नए सामान की खरीदारी, सोना, चांदी की खरीदारी के लिए पुष्य नक्षत्र को सबसे पवित्र माना जाता है।

 ऐसा क्यों हैं? 
चंद्रमा धन का देवता है, चंद्र कर्क राशि में स्वराशिगत माना जाता हैं। बारह राशियों में एकमात्र कर्क राशि का स्वामी चंद्रमा है और पुष्य नक्षत्र के सभी चरणों के दौरान ही चंद्रमा कर्क राशि में स्थित होता है। इसके अलावा चंद्रमा अन्य किसी राशि का स्वामी नहीं है। इसलिए पुष्य नक्षत्र को धन के लिए अत्यन्त पवित्र माना जाता है। 
देवताओं के द्वारा पूजे जाना वाला नक्षत्र है,
गुरु पुष्य में नया काम शुरु करने और खरीदारी को बहुत ही शुभ माना जाता है। 
ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पुष्य नक्षत्र के देवता बृहस्पति और स्वामी शनि देव हैं। 
इसलिए इन दोनों ग्रहों का आशीर्वाद पुष्य नक्षत्र पर होता है।
गुरुपुष्य योग में धर्म, कर्म, मंत्र जाप, अनुष्ठान, मंत्र दीक्षा अनुबंध, व्यापार आदि आरंभ करने के लिए अतिशुभ माना गया है। 
पुष्य नक्षत्र में गोल्ड खरीदने का बड़ा महत्व है। इसके पीछे के कारण के अनुसार सोना शुद्ध, पवित्र और अक्षय धातु है। भाग्य के कारक बृहस्पति की प्रतिनिधि धातु भी है, 

अत: पुष्य नक्षत्र में सोना खरीदना शुभ और स्थायी रूप से समृद्धि बढ़ाने वाली होती है।
 इस शुभ योग में सोना-चांदी, आभूषण, बर्तन, कपड़े, कार, चार पहिय, इलेक्ट्रॉनिक सामान और प्रॉपर्टी के सौदे किए जा सकते हैं। गुरु पुष्य नक्षत्र योग में खरीदारी करने से जीवन में सुख और समृद्धि में बढ़ोतरी होती है। वैदिक ज्योतिष शास्त्र के अनुसार सभी 27 नक्षत्रों में आठवां नक्षत्र पुष्य होता है।
गुरु पुष्य नक्षत्र में छोटे बच्चों को विद्यारंभ करवाना अच्छा माना जाता है।


सोने-चांदी के आभूषण और वाहन खरीदने का मुहूर्त-

 सुबह 11.43 से दोपहर 12.28 तक
लाभ चौघड़ियां- दोपहर 12.05 से दोपहर 01.29 तक
शुभ चौघड़ियां- शाम 04.18 से 05. 42 मिनट तक 




Monday, 21 October 2024

#दीपावली


इतना ही नहीं कभी-कभी तो गणितीय मानों में सामानता तथा धर्मशास्त्रीय वचनों की उपलब्धता के बाद भी व्रत पर्वों की तिथियों में अंतर दृष्टिगत होने लगता है ऐसी ही स्थिति कुछ इस बार वर्ष 2024 के दीपावली के संदर्भ में बन रही है। लेकिन जिन पंचांगो में 1 नवंबर को दीपावली लिखा गया है उनके ति
 
सामान्यतया प्रदोषसमये लक्ष्मीं पूजयित्वा ततः क्रमात्। दीपवृक्षाश्चदातव्याः शक्त्यादेवगृहेषुच॥ तथा दीपान्दत्वा प्रदोषे तु लक्ष्मीं पूज्य यथा विधि। 
 
आदि भविष्य पुराण के वचनों का आश्रय लेकर हेमाद्रि ने कहा है कि अयं प्रदोषव्यापिग्राह्यः॥ यह सब निर्णय सिंधु का उद्धरण है। पुनः इसकी विवेचना के क्रम में वहां वर्णित है कि दिनद्वये सत्त्वे पर:।
 
इस स्थिति को और भी स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार ने दंडैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि। तदाविहायपूर्वेद्युः परेऽह्निसुखरात्रिकेति। 

 

 
अर्थात् पूर्व और पर दिन प्रदोष काल में अमावस्या के रहने पर तथा दूसरे दिन अमावस्या का रजनी से न्यूनतम 1 दण्ड योग होने की स्थिति में दूसरे दिन दीपावली मनाना शास्त्रोचित होगा। परंतु इस संशय की स्थिति में दीपावली का स्पष्ट निर्णय देने से पहले उपर्युक्त दोनों स्थितियों को समझ लेना अति आवश्यक होगा जिसमें उभयदिन प्रदोष व्यापिनी अमावस्या तथा दूसरे दिन अमावस्या का रजनी के साथ योग वर्णित है।
 
प्रस्तुत प्रसंग में दिनद्वये प्रदोष सत्त्वे पर:। का उद्धरण देते हुए स्वयं निर्णय सिंधुकार ने कहा है कि 
(दंडैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि। तदाविहायपूर्वेद्युः परेऽह्निसुखरात्रिकेति।) इति वचनात्।
 
अतः इससे यह सिद्ध हो रहा है कि स्वयं निर्णयसिंधु कार ने दिनद्वये प्रदोष सत्त्वे पर: के लिए दंडैकरजनीयोगे.....को ही आधार बनाया है। तो क्या अमावस्या का प्रदोष काल में एक दण्ड व्यापित होना ही दंडैकरजनीयोग अर्थात् अमावस्या की रजनी में एक दण्ड व्याप्ति है। नहीं, अतः इसका निर्णय करने से पूर्व रजनी को समझना आवश्यक है। शास्त्र के अनुसार रजनी का तात्पर्य प्रदोष से नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद से है और इसको स्पष्ट करते हुए तिथि निर्णय एवं पुरुषार्थ चिंतामणि आदि ग्रंथों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि सूर्यास्त के अनंतर तीन मुहूर्त तक प्रदोष एवं उसके बाद की रजनी संज्ञा होती है।
 
नक्षत्रदर्शनात्संध्या सायं तत्परतः स्थितम्।
तत्परा रजनी ज्ञेया पुरुषार्थ चिंतामणि।

उदयात् प्राक्तनी संध्या घटिकाद्वयमिष्यते। 
सायं सन्ध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः॥ 
त्रिमुहूर्तः प्रदोषः स्याद् भानावस्तंगते सति। 
तत्परा रजनी प्रोक्ता तत्र कर्म परित्यजेत्॥
तिथिनिर्णय:।।
त्रियामां रजनीं प्राहुस्त्यक्त्वाद्यन्तचतुष्टयम्। 
नाडीनां तदुभे सन्ध्ये दिवसाद्यन्तसंज्ञके।। 
 
इन धर्मशास्त्रीय वचनों से यह स्पष्ट हो रहा है कि रजनी प्रदोष नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद की संज्ञा है अतः दंडैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि। के अनुसार 1 को अमावस्या का रजनी से कोई योग भी नहीं हो रहा है। अतः जिन क्षेत्रों में प्रदोष के एक भाग से संगति हो भी रही है वहां पर रजनी से अमावस्या का किसी भी स्थिति में योग नहीं हो रहा है अतः उनके मत से भी अग्रिम दिन दीपावली नहीं होगी। इसको पुष्ट करने के लिए स्वयं कमलाकरभट ने भी लिखा है कि दिवोदास के ग्रंथ में प्रदोष को दीपावली का मुख्य कर्मकाल मानने के कारण उपर्युक्त विवेचना है। परंतु ब्रह्म पुराण के मत में...
 
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्। 
अतःस्वलंकृतालिप्तादीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः। 

सुधाधवलि ताः कार्याः पुष्पमालोपशोभिताः इति। 
 
उपरोक्त के अनुसार दीपावली में प्रदोष तथा अर्धरात्रि उभय काल व्यापिनी अमावस्या उत्तम है, इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने ब्रह्मपुराण के निम्न वाक्यों का उद्धरण देते हुए लिखा है कि–
 
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्। 
अतः स्वलंकृता लिप्ता दीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः।। 
इति ब्राह्मोक्तेश्च प्रदोषार्धरात्रव्यापिनी मुख्या। 
एकैकव्याप्तौ परैव; प्रदोषस्य मुख्यत्वादर्धरात्रेऽनुष्ठेयाभावाच्च।
 
अर्थात् प्रदोष या अर्धरात्रि इन दोनों में से किसी एक में अमावस्या की व्याप्ति हो तो पूर्व दिन को छोड़कर अगले दिन ही दीपावली मनाई जानी चाहिए।
 
पुनः अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः। प्रदोषसमये राजन्‌ कर्तव्यादीपमालिकेति क्रमः। को आधार बनाकर कुछ लोगों ने यह भी निर्धारित कर दिया है कि श्राद्ध इत्यादि करने के बाद ही प्रदोष कल में दीप मालिका पूजन होगा परंतु उनकी इन शंकाओं का निवारण पुरुषार्थ चिंतामणि एवं जय सिंह कल्पद्रुम आदि ग्रंथों में विस्तृत विवेचना के साथ कर दिया गया है कि तिथिमान वश पूर्व दिन दीपावली पूजन के उपरांत अग्रिम दिन भी पितृ श्राद्ध इत्यादि शास्त्र विहित है। तथा अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः। प्रदोषसमये राजन्‌ कर्तव्यादीपमालिकेति क्रमः। जो कहा गया है वह उस दिन संपूर्ण तिथी प्राप्त होने की स्थिति का अनुवाद है कोई विधि नहीं

#दीपावली



*दीपोत्सवस्य वेलायां प्रतिपद् दृश्यते यदि।*
*सा तिथिर्विबुधैस्त्याज्या यथा नारी रजस्वला॥*



*आषाढ़ी श्रावणी वैत्र फाल्गुनी दीपमालिका।*
*नन्दा विद्धा न कर्तव्या कृते धान्यक्षयो भवेत्॥*



◆ इसके अतिरिक्त स्कंदपुराण के द्वितीय भाग वैष्णवखंड के कार्तिकमहात्म्य के 10वें अध्याय  “दीपावली कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा महात्म्य” नामक अध्याय के श्लोक क्रमांक 11 में भगवान श्री ब्रह्माजी ने स्पष्ट कह दिया...

“माङ्गल्यंतद्दिनेचेत्स्याद्वित्तादितस्यनश्यति। 
बलेश्चप्रतिपद्दर्शाद्यदिविद्धं भविष्यति॥"
अर्थात् – 
अमावस्या विद्ध बलि प्रतिपदा तिथि में मोहवशात् माङ्गल्य कार्य हेतु अनुष्ठान करने से सारा धन नष्ट हो जाता है।"

व्रतराज में तो यहाँ तक कहा है -

न कुर्वन्ति नरा इत्थं लक्ष्म्या ये सुखसुप्तिकाम् । 
धनचिन्ताविहीनास्ते कथं रात्रौ स्वपन्ति हि ॥ 
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन लक्ष्मीं सुस्वापयेन्नरः । 
दुःखदारिद्यानिर्मुक्तः स्वजातौ स्यात् प्रतिष्ठितः ।॥
ये वैष्णवावैष्णवा या बलिराज्योत्सवं नराः। 
न कुर्वन्ति वृथा तेषां धर्माः स्युर्नात्र संशयः ॥


Saturday, 19 October 2024

#सिर ढकना चाहिए या नहीं

आजकल एक कुप्रथा चल पड़ी है कि पूजन आरंभ होते हीं रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते हैं, और कर्मकांड के लोग भी नहीं मना करते । जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है। शौच के समय हीं सिर ढकने को कहा गया है। प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।

शास्त्र क्या कहते हैं ? आइए देखते हैं...

उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।
प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥
अर्थात् -
पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'

शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |
अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||

( -कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9)

अर्थात्-- सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।

सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।

-कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध।

अर्थात्-- बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।

शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-(कर्मठगुरूः)

अर्थात्-- वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।

उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥-

(शब्द कल्पद्रुम )

अर्थात्-- सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर ।

अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।

न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य

अर्थात्-- न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।

अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा ।
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते ।। (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)

अर्थात्-- अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।

शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14-- सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।। आचार्य श्री राजेश वत्स कुरूक्षेत्र

Wednesday, 16 October 2024

#दीपावली निर्णय

दीपावली 1 नवंबर 2024 की ही है,
 31 अक्टूबर को दीपावली नहीं मनाई जाएगी। 
आपको बता दें कि तिथि निर्णय की एक परम्परा हैं, स्कंध पुराण के अनुसार
 "द्दिने प्रोक्ता त्रिमुहूर्तेव या भवेत्"
जो तिथि तीन महुर्त दिन का भोग करती है,तो उस दिन वहीं तिथि मानी जाती हैं ,दूसरी पद्धति से पर्वकाल की वरीयता रहती हैं,जैसा कि आपने कहा की निशीथव्यापनी दीपावली एक दिन पहले होगी तो हम एक दिन पहले करेंगे,
लेकिन आपको स्मरण करा दूं की दीपावली का पर्वकाल प्रदोष वेला मै मान्य हैं, निशीथ काल में नहीं-यथा
"प्रभातसमये त्वंमावास्या नराधिप । कृत्वा तु पार्वणश्राद्धं दधिक्षीरवृतादिभिः ॥ दीपान्दत्त्वा प्रदोषे तु लक्ष्मीं पूज्य यथाविधि"

 अमावस्याको प्रभात कालमें दधि, खीर, घृत आदि से पार्वणश्राद्ध करके और दीप लेकर प्रदोष में लक्ष्मी का यथाविधि पूजन करें।

"प्रदोषार्धरात्रव्यापिनी मुख्या एकैकव्याप्तौ परैव ॥ प्रदोषस्य मुख्यत्वादर्भ-
रात्रेऽनुष्ठेयाभावाच्च ।"

ज्योतिष का वाक्य उसमें प्रमाण है, यदि दोनों दिन अमावस्या प्रदोषव्यापिनी हो तो अगले दिन करना चाहिए ,कारण कि, तिथितत्व में ज्योतिष का वाक्य है कि,एक घडी रात्रि का योग होय तो अमावास्या दूसरे
दिन होती है,तब प्रथम दिन छोडकर अगले दिन सुख रात्रि होती है, दिवोदासीय में तो
प्रदोषको कर्म का समय होने से और ब्रह्मपुराण के इस वाक्य से कि,अर्द्धरात्र हो जानें पर 
लक्ष्मी घरों में घूमती है इससे मनुष्य को भली प्रकार अलंकार और चंदन लगाकर दीपक के चांदने में उत्सब पूर्वक जागते रहें, और श्वेत फूलों की माला से शोभित रहें,
इससे प्रदोष और अर्द्धरात्रव्यापिनी मुख्य है (यदि प्रदोष वा अर्द्धरात्रि में एक- दो व्यापिनी होय तो अगली लेनी चाहिये, प्रदोष मुख्य है) और
अर्धरात्री कर्म करने योग्य नहीं है। 

अब आपको युग्म तिथि भी बता दूं - 
"रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा ॥ प्रतिपद्यप्यमावास्यातिथ्योर्युग्मं महाफलम् ।"

एकादशीसे युक्त द्वादशी और चतुर्दशीसे युक्त पूर्णिमा और प्रतिपदासे युक्त अमावस्या इन तिथियोंका युग्मयोग महाफलको देताहै।

आचार्य विष्णु महाराज 
बलभद्र पीठाधीश्वर

दीपावली निर्णय

दीपावली 1 नवंबर 2024 की ही है,
 31 अक्टूबर को दीपावली नहीं मनाई जाएगी। 
आपको बता दें कि तिथि निर्णय की एक परम्परा हैं, स्कंध पुराण के अनुसार
 "द्दिने प्रोक्ता त्रिमुहूर्तेव या भवेत्"
जो तिथि तीन महुर्त दिन का भोग करती है,तो उस दिन वहीं तिथि मानी जाती हैं ,दूसरी पद्धति से पर्वकाल की वरीयता रहती हैं,जैसा कि आपने कहा की निशीथव्यापनी दीपावली एक दिन पहले होगी तो हम एक दिन पहले करेंगे,
लेकिन आपको स्मरण करा दूं की दीपावली का पर्वकाल प्रदोष वेला मै मान्य हैं, निशीथ काल में नहीं-यथा
"प्रभातसमये त्वंमावास्या नराधिप । कृत्वा तु पार्वणश्राद्धं दधिक्षीरवृतादिभिः ॥ दीपान्दत्त्वा प्रदोषे तु लक्ष्मीं पूज्य यथाविधि"

 अमावस्याको प्रभात कालमें दधि, खीर, घृत आदि से पार्वणश्राद्ध करके और दीप लेकर प्रदोष में लक्ष्मी का यथाविधि पूजन करें।

"प्रदोषार्धरात्रव्यापिनी मुख्या एकैकव्याप्तौ परैव ॥ प्रदोषस्य मुख्यत्वादर्भ-
रात्रेऽनुष्ठेयाभावाच्च ।"

ज्योतिष का वाक्य उसमें प्रमाण है, यदि दोनों दिन अमावस्या प्रदोषव्यापिनी हो तो अगले दिन करना चाहिए ,कारण कि, तिथितत्व में ज्योतिष का वाक्य है कि,एक घडी रात्रि का योग होय तो अमावास्या दूसरे
दिन होती है,तब प्रथम दिन छोडकर अगले दिन सुख रात्रि होती है, दिवोदासीय में तो
प्रदोषको कर्म का समय होने से और ब्रह्मपुराण के इस वाक्य से कि,अर्द्धरात्र हो जानें पर 
लक्ष्मी घरों में घूमती है इससे मनुष्य को भली प्रकार अलंकार और चंदन लगाकर दीपक के चांदने में उत्सब पूर्वक जागते रहें, और श्वेत फूलों की माला से शोभित रहें,
इससे प्रदोष और अर्द्धरात्रव्यापिनी मुख्य है (यदि प्रदोष वा अर्द्धरात्रि में एक- दो व्यापिनी होय तो अगली लेनी चाहिये, प्रदोष मुख्य है) और
अर्धरात्री कर्म करने योग्य नहीं है। 

अब आपको युग्म तिथि भी बता दूं - 
"रुद्रेण द्वादशी युक्ता चतुर्दश्या च पूर्णिमा ॥ प्रतिपद्यप्यमावास्यातिथ्योर्युग्मं महाफलम् ।"

एकादशीसे युक्त द्वादशी और चतुर्दशीसे युक्त पूर्णिमा और प्रतिपदासे युक्त अमावस्या इन तिथियोंका युग्मयोग महाफलको देताहै।

आचार्य विष्णु महाराज 
बलभद्र पीठाधीश्वर

#दीपावली निर्णय

सनातन धर्म की व्रत पर्व आदि के निर्धारण संबंधी व्यवस्था में गणित द्वारा प्राप्त तिथि, ग्रह, नक्षत्रादि के मानों के आधार पर धर्मशास्त्र ग्रंथों में वर्णित नियमानुसार किसी भी व्रत पर्व आदि का निर्धारण किया जाता है जिसके अंतर्गत स्थान भेद से व्रत पर्व आदि के तिथियों में अंतर पड़ना भी स्वाभाविक है परंतु यदा कदा गणितीय मानो में भिन्नता या धर्मशास्त्रीय किसी एक भाग/ मत का ही अनुसरण करने से एक स्थान पर भी व्रत पर्व अलग-अलग दिखने लगते हैं। इतना ही नहीं कभी-कभी तो गणितीय मानों  में सामानता तथा धर्मशास्त्रीय वचनों की उपलब्धता के बाद भी व्रत पर्वों की तिथियों में अंतर दृष्टिगत होने लगता है ऐसी ही स्थिति कुछ इस बार वर्ष 2024 के #दीपावली के संदर्भ में बन रही है।  लेकिन जिन #पंचांगो में 1 नवंबर को दीपावली लिखा गया है उनके तिथि मानो को देखकर धर्मशास्त्रीय ग्रंथों के तत्संबंधी समस्त वाक्यों का अनुसरण एवं अनुशीलन करते हुए 31अक्टूबर को ही दीपावली सिद्ध हो रही है। अतः सभी विद्वतगण को पुनः एक बार इस पर विचार करना चाहिए क्योंकि इससे समाज में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही है और सनातन धर्म तथा शास्त्रों से लोगों का अविश्वास बढ़ रहा है। यदा  कदा हमारी किसी मानवीय भूल के कारण या धर्मशास्त्र के किसी एक भाग का अनुसरण करते हुए हम किसी व्रत पर्वों को लिख देते हैं परंतु अगर तत् संबंधित धर्मशास्त्रीय सभी उदाहरणों का अनुशीलन करते हुए अगर इनका निर्णय किया जाए तो वह उचित होगा।
                    सामान्यतया 
#प्रदोषसमये_लक्ष्मीं_पूजयित्वा_ततः_क्रमात्। #दीपवृक्षाश्चदातव्याः_शक्त्यादेवगृहेषुच॥
 तथा 
#दीपान्दत्वा_प्रदोषे_तु_लक्ष्मीं_पूज्य_यथा_विधि।
 आदि भविष्य पुराण के वचनों का आश्रय लेकर #हेमाद्रि ने कहा है कि 
#अयं_प्रदोषव्यापिग्राह्यः॥
यह सब निर्णय सिंधु का उद्धरण है। 
पुनः इसकी विवेचना के क्रम में वहां वर्णित है कि #दिनद्वये_सत्त्वे_पर:।
इस स्थिति को और भी स्पष्ट करते हुए ग्रंथकार ने 
#दंडैकरजनीयोगे दर्शः स्यात्तु परेऽहनि।
#तदाविहायपूर्वेद्युः_परेऽह्निसुखरात्रिकेति।
अर्थात् पूर्व और पर दिन प्रदोष काल में अमावस्या के रहने पर तथा दूसरे दिन अमावस्या का #रजनी से न्यूनतम 1 दण्ड योग होने की स्थिति में दूसरे दिन दीपावली मनाना शास्त्रोचित होगा। परंतु इस संशय की स्थिति में #दीपावली का स्पष्ट निर्णय देने से पहले उपर्युक्त दोनों स्थितियों को समझ लेना अति आवश्यक होगा जिसमें उभयदिन प्रदोष व्यापिनी अमावस्या तथा दूसरे दिन अमावस्या का रजनी के साथ योग वर्णित है।
प्रस्तुत प्रसंग में #दिनद्वये_प्रदोष_सत्त्वे_पर:। का उद्धरण देते हुए स्वयं निर्णय सिंधुकार ने कहा है कि 
(#दंडैकरजनीयोगे_दर्शः_स्यात्तु_परेऽहनि। #तदाविहायपूर्वेद्युः_परेऽह्निसुखरात्रिकेति।) 
इति वचनात्।
 अतः इससे यह सिद्ध हो रहा है कि स्वयं निर्णयसिंधु कार ने #दिनद्वये_प्रदोष_सत्त्वे_पर: के लिए #दंडैकरजनीयोगे..... को ही आधार बनाया है। तो क्या अमावस्या का प्रदोष काल में एक दण्ड व्यापित होना ही #दंडैकरजनीयोग अर्थात्  अमावस्या की रजनी में एक दण्ड व्याप्ति है। नहीं
अतः इसका निर्णय करने से पूर्व #रजनी को समझना आवश्यक है।शास्त्र के अनुसार रजनी का तात्पर्य प्रदोष से नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद से है और इसको स्पष्ट करते हुए तिथि निर्णय एवं पुरुषार्थ चिंतामणि आदि ग्रंथों में स्पष्ट रूप से वर्णित है कि सूर्यास्त के अनंतर तीन मुहूर्त तक प्रदोष एवं उसके बाद की रजनी संज्ञा होती है
#नक्षत्रदर्शनात्संध्या_सायं_तत्परतः_स्थितम्।
#तत्परा_रजनी_ज्ञेया   पुरुषार्थ चिंतामणि।
#उदयात्_प्राक्तनी_संध्या_घटिकाद्वयमिष्यते।
#सायं सन्ध्या त्रिघटिका अस्तादुपरि भास्वतः॥ 
#त्रिमुहूर्तः_प्रदोषः_स्याद्_भानावस्तंगते_सति। 
#तत्परा_रजनी_प्रोक्ता_तत्र_कर्म_परित्यजेत्॥          
                           तिथिनिर्णय:।।
#त्रियामां_रजनीं_प्राहुस्त्यक्त्वाद्यन्तचतुष्टयम्।
#नाडीनां_तदुभे_सन्ध्ये_दिवसाद्यन्तसंज्ञके।।
इन धर्मशास्त्रीय वचनों से यह स्पष्ट हो रहा है कि #रजनी #प्रदोष नहीं अपितु प्रदोष काल के बाद की संज्ञा है अतः #दंडैकरजनीयोगे_दर्शः_स्यात्तु_परेऽहनि। के अनुसार 1 को अमावस्या का रजनी से कोई योग भी नही हो रहा है।
अतः जिन क्षेत्रों में 1 नवंबर को अमावस्या का प्रदोष के एक भाग से संगति हो भी रही है वहां पर रजनी से अमावस्या का किसी भी स्थिति में योग नहीं हो रहा है अतः उनके मत से भी अग्रिम दिन दीपावली नहीं होगी। इसको पुष्ट करने के लिए स्वयं कमलाकरभट ने भी लिखा है कि दिवोदास के ग्रंथ में प्रदोष को दीपावली का मुख्य कर्मकाल मानने के कारण उपर्युक्त विवेचना है।
परंतु ब्रह्म पुराण के मत में 
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्। अतःस्वलंकृतालिप्तादीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः।
 सुधाधवलि ताः कार्याः पुष्पमालोपशोभिताः इति।
 के अनुसार दीपावली में  प्रदोष तथा अर्धरात्रि उभय काल व्यापिनी अमावस्या उत्तम है, इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने ब्रह्मपुराण के निम्न वाक्यों का उद्धरण देते हुए लिखा है कि–
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रयितुं गृहान्। 
अतः स्वलंकृता लिप्ता दीपैर्जाग्रज्जनोत्सवाः।।
 इति ब्राह्मोक्तेश्च प्रदोषार्धरात्रव्यापिनी मुख्या। एकैकव्याप्तौ परैव; प्रदोषस्य मुख्यत्वादर्धरात्रेऽनुष्ठेयाभावाच्च
अर्थात् प्रदोष या अर्धरात्रि इन दोनों में से किसी एक में अमावस्या की व्याप्ति हो तो पूर्व दिन को छोड़कर अगले दिन ही दीपावली मनाई जानी चाहिए।

पुनः 
#अपराह्ने प्रकर्तव्यं श्राद्धं पितृपरायणैः।
 प्रदोषसमये राजन्‌ #कर्तव्यादीपमालिकेति क्रमः।
को आधार बनाकर कुछ लोगों ने यह भी निर्धारित कर दिया है कि श्राद्ध इत्यादि करने के बाद ही प्रदोष कल में दीप मालिका पूजन होगा परंतु उनकी इन शंकाओं का निवारण #पुरुषार्थ_चिंतामणि एवं #जय_सिंह_कल्पद्रुम आदि ग्रंथों में विस्तृत विवेचना के साथ कर दिया गया है कि तिथिमान वश पूर्व दिन दीपावली पूजन के उपरांत अग्रिम दिन भी पितृ श्राद्ध इत्यादि शास्त्र विहित है। तथा #अपराह्ने_प्रकर्तव्यं_श्राद्धं_पितृपरायणैः।
 #प्रदोषसमये_राजन्‌_कर्तव्यादीपमालिकेति_क्रमः।
 जो कहा गया है वह उस दिन संपूर्ण तिथी प्राप्त होने की स्थिति का अनुवाद है कोई विधि नहीं। 

अतः केवल पूर्व दिन प्रदोष प्राप्त होने पर प्रथम दिन, केवल दूसरे दिन प्रदोष प्राप्त होने पर (पूर्व दिन अर्धरात्रि एवं दूसरे दिन प्रदोष) दूसरे दिन तथा पूर्व एवं पर दोनों ही दिन पूर्ण प्रदोष व्यापिनी अमावस्या के साथ #दंडैकरजनीयोगे आदि को संगति लगने पर दूसरे दिन ही दीपावली मनाया जाना शास्त्रोचित है। परन्तु पूर्व दिन प्रदोष और अर्धरात्रि दोनों तथा पर दिन केवल प्रदोष के एक भाग में अमावस्या की प्राप्ति होने तथा दंडैक आदि से संगति नहीं होने पर पूर्व दिन ही दीपावली का पर्व मनाया जाना शत्रोचित है।
इस वर्ष पंचांगों में अमावस्या 31 अक्टूबर को पूर्ण प्रदोष काल में एवं 1 नवंबर को प्रदोष काल के कुछ भाग में ही प्राप्त हो रही है तथा उपर्युक्त धर्मशास्त्रीय वचनों की संगति नहीं लग रही है अतः ऐसी स्थिति में शास्त्रोक्त समग्र वचनों का अनुशीलन करते हुए 31 अक्टूबर 2024 को ही दीपावली मनाया जाना शास्त्र सम्मत है।।

                   🙇 जयश्रीसीताराम 🙇

Thursday, 10 October 2024

#गरबा

वैसे तो "गरबा" के नाम पर सिर्फ और सिर्फ स्वछंद रूप से उघाड़ी गई पीठ और कमर मटका रहे देश को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना है ये लेख उनके लिए है :- 

मूल गरबो शब्द एक पात्र (मिट्टी के बर्तन) के लिए उपयोग किया गया। यह शब्द संस्कृत के "गर्भदीप" से बना। गर्भ शब्द का अर्थ "घड़ा" होता है। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में 84 या 108 छिद्र करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 × 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घूमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है। जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो गोलाई में घूम-घूम कर गाया जाता है।

गर्भदीप शब्द ने, गरबो तक का सफर शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से होकर तय किया। और अब गरबो से गरबा तक की यात्रा विकृत्ति, वासना, अश्लीलता, फूहड़ता को समेटे हुए चल रही है।

गरबो के प्रथम लेखक गुजराती कवि वल्लभ भट्ट मेवाड़ा माने गये हैं। (1640 ई. से 1751)। गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे "मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी" में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने प्रक्रिया बताई कि नवरात्रि में अखण्ड ज्योति बिखेरता हुआ गरबा स्थापित हुआ। इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की। इस प्रकार पूजित गरबो को भक्तिभाव में वृद्धि होने से उसे श्रृद्धा से माथे पर रख कर घूमने लगी और अन्य सुन्दरियाँ भी अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं।

भक्ति भाव की वृद्धि हुई, तो उनके कंठ से देवी माता की स्तुति में मधुर फूटे, वो माता की स्तुति में मधुर गीत गाने लगीं, परन्तु इतने से ही उनकी अभिव्यक्ति और हृदय का आवेश पूरा व्यक्त न हुआ तो सिर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक लय कर नृत्य करने लगीं।

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया नाम "गरबा"।
अब सोचिए कि आजकल गरबा के नाम पर जो हो रहा है वो सब क्या है?? अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं! इन नचईयों और नाच आयोजकों से कोई गरबा का असली मतलब पूछे तो वो शायद बता भी नहीं पाएंगे।

Saturday, 5 October 2024

दुर्गा हवन सामग्री सभी ओषधियो की लिष्ट सम्पर्क सूत्र 9893946810


 समिधा=======
 १】आक
२】 छोला
३】खैर
४】आंधी झाड़ा
५】पीपल
६】उमर(गूलर)
७】शमी
८】दूर्वा
९】कुशा
============================ नवरात्र पूजा के लिए साधारण विशेष आहुतियों के लिए
जैसे हवन सामग्रि
तीली से आधा चावल
चावल से आधा जौ
जैसे तीली 3 किलो तो':
चावल 1 किलो 500 ग्राम
जौ 750 ग्राम
1=तिली
2=चाबल
3=जौ 
4=शकर 
5=हवन सामग्री पेकीट 
--------------------------------------------------------------------------------------------------------
किस औषधि की कितनी आहुतियां
--------------------------------------------------
6=कूष्माण्ड खण्ड (पेठा )
7=गोल सुपारी (15)
8=लौंग (20)
9=इलायची (25)
10=कमल गट्टे  (30)
11=जायफल    (13)
12=मेनफल     (1)
13=पीली सरसो (29)
14=पंच मेवा      
15=सिन्दूर 
16=उड़द  (6)
18=शहद (3)
19=नारियल खण्ड(5)
20=सुखा नारियल गोला
21=गूगल (35)
22=राई  सरसो (30)
23=कपूर((15)
24=लाल रंग (1)
25=केशर(9)
26=लाल चंदन(11)
27=सफेद चंदन(1)
28=सतावरी (1)
39=कथ्था (खेर) (1)
40=भोज पत्र (14)
41=काली मिर्च (7)
42=मिश्री।      (19)
43=अनारदाना
44=शकर बूरा (3)
45=अगर(1)
46=तगर
47=नागर मोथा
48=बालछड
49= छार छवीला 
50=कपूर काचरी 
52=इन्द्र जौ (3)
53 हल्दी  (8)
54=राल  (3)
55=समुद्र फेन (2)
56=मसूर (3)
57= इत्र(२)
58=अष्टांग धूप (२)
59=भांग (7)
60=दारु हल्दी(2)
61=सताबरी 
62=लाजा (6)
63=अवीर 
64=सहदवी( 2)
65=जावित्रि 
66=दालचीनी(3)
67=काली हल्दी(2)
68=खाजा 
69=कुंकुम
70=बज्र दन्ती(4)
71=बेल गिरी
72=कस्तूरि(4)
73=मातुलिंग
74=माल्कान्गनी(२)
75=बहेड़ा 
76=मजीठ
77=नाग केशर (1)
78=प्रियंगू फूल (1)
79=आशापुरि धूप
80=हरताल(1)
81=सर्व औषधी (1)
82=धूप(3)
83=खोपरा बूरा
84=गूड़(2)
85=विजया (भाँग)
86=रक्त गुंजा (7)
87=शंख पुष्पी (4)
88=आवला (6)
89= नीम गिलोय (5)
90= जटा माशी (4)
91=विष्णू कान्ता (6)
92=अमचूर (खडा)
93=रक्त चंदन(11)
94=हरताल(3)
95=सरसो पीली 
96=दर्पण(1)
97=मेनसिल (4)
88=खिरनि
89=बच(3)
90=राजान (1)
91=मधुआसब (१)
92=गोखरू(3)
93=भेसा गूगल(3)
94=ब्राह्मी (5)
95 आमी हल्दी (2)
96मोर पंखी (2)
============================== घरेलू सामग्री 
1=आम के पत्ते 
2=पीपल के पत्ते
3=बड़ के पत्ते 
4=अशोक के पत्ते 
5=अशोक के फूल
6=अकौआ के पत्ते 
7=शमी के पत्ते 
8=कुशा 
9=दूर्वा 
10= पान के पत्ते
11=अपामार्ग
12= पालक के पत्ते
13=गूड़ हल  के फूल
14= लाल कनेर के फूल
15= नीम गिलोय
16=गन्ना 
17=कैथ फ़ल
19= वील फ़ल
20=कुमड़ा 
21= कटहल
22= कागजी निवू
23= सिन्घाड़ा 
24=विजोरा निवू 
25=केला 
26=अनार
27= मोरपंख
28= नारंगी
29=खाजा
30=मख्खन
31=काजल 
32=आवला
33= पैठा 
34= लाल कपडा चुनरी 
=======================///
सामग्री  की मात्रा अपने हिसाब से लेवे  
×××××××××××××××××××××××××××× संपर्क -किसी भी प्रकार की पूजा जैसे - सतचण्डीपाठ , नवरात्रिपाठ , महामृत्यंजय , वास्तु पूजन, ग्रह प्रवेश , श्री मदभागवत कथा, श्री राम कथा , करवाने हेतु एबम ज्योतिष द्वारा समाधान,आदि की जानकारी के लिए ×××××××××××××××××××××××××××××× संपर्क सूत्र पंडित -परमेश्वर दयाल शास्त्री (मधुसुदनगड़) 09893397835 ============================= पंडित-भुबनेश्वर दयाल शास्त्री (पर्णकुटी गुना) 09893946810 ============================ पंडित -घनश्याम शास्त्री(parnkuti guna ) 09893983084

============================

💐💐💐💐💐विशेष संपर्क👍👍👍💐

कस्तूरवा नगर पर्णकुटी आश्रम 👍
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09893946810 ===========

अगर कोई समान छूट गया हो तो इसमें कॉमेंट बॉक्स में जरूर लिखे हमारा प्रयास प्रसिद्धि पाना नही केवल जन सहयोग की भावना है ।

कन्या पूजन

कुमारीपूजामें प्रशस्त कन्याओ का वर्णन 🙏😊🙇‍♀
~~  » पूजाविधिमें एक वर्षकी अवस्थावाली कन्या नहीं लेनी चाहिये; क्युंकि वह कन्या गन्ध और भोग आदि पदार्थोंके स्वाद से बिलकुल अनभिज्ञ रहती है । कुमारी कन्या वह रही गयी है, जो दो वर्षकी हो चुकी हो । तीन वर्षकी कन्या त्रिमूर्ति, चार वर्षकी कन्या कल्याणी, पांच वर्षकी कन्या रोहिणी, छः वर्षकी कन्या कालिका, सात वर्षकी कन्या चण्डिका, आठ वर्षकी कन्या शाम्भवी, नौ वर्षकी कन्या दुर्गा, दश वर्षकी कन्या सुभद्रा कहलाती है । इससे उपरकी अवस्थावाली कन्याका पूजन नहि करना चाहीये; ।।
एकवर्षा न कर्तव्या कन्या पूजाविधौ नृप ।
परमज्ञा तु भोगानां गन्धादीनां च बालिका ।।
कुमारिका तु सा प्रोक्ता द्विवर्षा या भवेदिह ।
त्रिमूर्तिश्च त्रिवर्षा च कल्याणी चतुरब्धिका ।।
रोहिणी पञ्चवर्षा च षड्वर्षा कालिका स्मृता ।
चण्डिका सप्तवर्षा स्यादष्टवर्षा च शाम्भवी ।।
नववर्षा भवेद् दुर्गा सुभद्रा दशवार्षिकी ।
अत उर्ध्वं न कर्तव्या सर्वकार्यविगर्हिता ।। 
श्रीमद्देवीभागवतजी » ३/२६/४०-४३

कुमारीपूजामें निषिद्ध कन्याओंका वर्णन 🙏😊🙇‍♀

हीनाङ्गीं वर्जयेत्कन्यां कुष्ठयुक्तां वर्णाङ्किताम् ।
गन्धस्फुरितहीनाङ्गीं विशालकुलसम्भवाम् ।।
जात्यन्धां केकरां काणीं कुरूपां बहुरोमशाम् ।
सन्त्यजेद्रोगिणीं कन्यां रक्तपुष्पादिनाङ्किताम् ।।
क्षामां गर्भसमुद्भूतां गोलकां कन्यकोद्भवाम् ।
वर्जनीयाः सदा चैताः सर्वपूजादिकर्मसु ।।
श्रीमद्देवीभागवतजी » ३/२७/१-३

सरलार्थ » जो कन्या किसी अंगसे हीन हो, कोढ़ तथा घावयुक्त हो, और जो विशाल कुलमें उत्पन्न हुई हो - एसी कन्याका पूजामें परित्याग करदेना चाहीये । जन्मसे अन्धी, तिरछी नजर से देखने वाली, कानी, कुरुप, बहुत रोमवाली, रोगी तथा रजस्वला कन्याका पूजामें परित्याग करदेना चाहीये । अत्यन्त दुर्बल, समयसे पुर्व ही गर्भ से उत्पन्न, विधवा स्त्रीसे उत्पन्न तथा कन्यासे उत्पन्न ये सभी कन्याए पूजा आदि सभी कार्यो में सर्वथा त्याज्य है ।। 

कामनार्थ कन्या पूजन...
ब्राह्मणी सर्वकार्येषु जयार्थे नृपवंशजा ।
लाभार्थे वैश्यवंशोत्था मता वा शूद्रवंशजा ।। 
श्रीमद्देवीभागवतजी - ३/२७/५

सरलार्थ » समस्त कार्योकी सिद्धिके लिये ब्राह्मणकी कन्या, विजय-प्राप्ति के लिये राजवंशमें उत्पन्न कन्या तथा धन-लाभ के लिये वैश्यवंश अथवा शूद्रवंशमें उत्पन्न कन्या पूजन के योग्य मानी गयी है ।।
>> ये शास्त्रीय व्यवस्था है।।
: ❗जय महादेव❗
Gurudev bhubneshwar
9893946810

Friday, 4 October 2024

काली ध्यान

जय माँ काली! नमो शैलपुत्री शिवा शम्भुरानी । उमा अम्बिका विश्व की है भवानी।
तू ही सृष्टिकरणी सब कष्टहरणी। तू ही मौनधरणी महादेव वरणी।
नमो क्रोधिनी कालिका वेगधारी । सुनो कान दे माँ विनती हमारी ।
नमो मात गिरिजा करो आस पूरी । नमो अम्बा माता करो दुःख दूरी। kinkars.blogspot.com
करो दूर मेरे जित्ते पाप भारे। परायो अनिदिन दुआरे तिहारे ।
बिना कौन तेरे हित है हमारी । कहो कौन के द्वार पे मैं पुकारूँ।
बजे शंख वीणा नफारी नगाड़े। रहे भीड़ तेरे सदा ही द्वारे।
रहूँ मैं महादीन होके तेरी । न दूजा भरोसा सुनो मात तेरी ।
खड़े हाथ जोड़े सेवक दुखारी। करे आरती स्वच्छ पूजा तुम्हारी ।

दुर्गाष्टमी

#दुर्गाष्टमी व्रत की विशेष जानकारी........
==============================
जिनको पुत्र संतानें हैं, वे दुर्गाष्टमी व्रत उपवास नहीं करें।जिनकी पुत्र संतानें नहीं हैं,वे दुर्गाष्टमी व्रत उपवास करें।
उस आलेख पर सभी सोच रहे होंगे कि ऐसा क्यों?क्या इसका कोई शास्त्रीय प्रमाण है? हमलोग परम्परा वश तो दुर्गाष्टमी उपवास व्रत करते आ रहे हैं। शास्त्र प्रमाण के आधार पर धार्मिक कृत्य करने चाहिए। इसी प्रमाण को यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
(01)
सबसे पहले यह जान लिजिए कि #सप्तमी युक्त #अष्टमी व्रत नहीं करना चाहिए । 
#शरन्महाष्टमी पूज्या नवमी संयुता सदा।
सप्तमी संयुता नित्यं शोकसंतापकारिणीम्।।
सप्तमी युक्त अष्टमी शोक संताप देने वाली होती है। इसे शल्य कहा जाता है : ---
#सप्तमी कलया यत्र परतश्चाष्टमी भवेत्।
तेन शल्यमिदं प्रोक्तं पुत्र पौत्र क्षयप्रदम्।।
शल्य युक्त अष्टमी कंटक अष्टमी है , जो पुत्र पौत्रादि का क्षय करता है। आगे और भी स्पष्ट है : -- 
#पुत्रान्_हन्ति_पशून हन्ति राष्ट्र हन्ति सराज्यकम्।
हन्ति जातानजातांश्च सप्तमी सहिताष्टमी।।
सप्तमी सहित अष्टमी व्रत पुत्रों को नाश करती है , पशुओं को नाश करती है, राष्ट्र / देश तथा राज्य का नाश करती है। और , उत्पन्न हुए और न उत्पन्न हुए का नाश करती है।
#सप्तमी वेध संयुता यैः कृता तु #महाष्टमी ।
पुत्रदार धनैर्हीना भ्रमयन्तीह पिशाचवत्।।
सप्तमी वेध से युक्त महा - अष्टमी को करने से लोग इस संसार में पुत्र , स्त्री तथा धन से हीन होकर पिशाच के सदृश भ्रमण करते हैं तथा : ---
#सप्तमीं शैल्यसंयुक्तां मोहादज्ञानतोऽपि वा ।
महाष्टमीं प्रकुर्वाणो #नरकं प्रतिपद्यते।।
मोह - अज्ञान से शल्य युक्त / सप्ती से युक्त महाष्टमी को जो करता है , वह नरक में जाता है। इसलिए, स्पष्ट है कि सप्तमी युक्त अष्टमी उपवास व्रत नहीं करना चाहिए। 

(02)
लेकिन , दुर्गाष्टमी उपवास किसे करना चाहिए और किसे नहीं करना चाहिए, यह जानना अत्यावश्यक है : ---
कालिका पुराण में स्पष्ट कहा गया है , जो निर्णय सिन्धु पृष्ठ संख्या 357 में उद्धृत है :---
#अष्टम्युपवाश्च पुत्रवाता न कार्यः।
उपवासं महाष्टम्यां पुत्रवान्न समाचरेत्।
यथा तथा वा पूतात्मा व्रतीं देवीं प्रपूज्येत्।।
अर्थात #अष्टमी तिथि में उपवास पुत्रवाला न करे। जैसे - तैसे पवित्र आत्मा वाला व्रती देवी की पूजा करे। यानि स्पष्ट है कि जिनके पुत्र संतान हैं वे लोग दुर्गाष्टमी को उपवास व्रत नहीं करें।
लेकिन, वैसे लोग जिनके पुत्र संतान नहीं हैं , वे सभी भक्त गण पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से दुर्गाष्टमी का उपवास व्रत करें। महाभागवत ( देवीपुराण ) अध्याय 46 श्लोक संख्या 30 एवं 31 में स्पष्टतः देवी का आदेश है :--- 
#महाष्टम्यां मम प्रीत्यै उपवासः सुरोत्तमाः। 
कर्तव्यः पुत्रकामैस्तु लोकैस्त्रैलोक्यवासिभिः।।
स्वयं माँ भगवती कहती हैं कि मेरी संतुष्टि के लिए तीनों लोकों में रहने वाले लोगों को महाष्टमी के दिन पुत्र की कामना से उपवास करना चाहिए । ऐसा करने से उन्हें सर्वगुण सम्पन्न पुत्र की प्राप्ति अवश्य होगी। 
अवश्यं भविता #पुत्रस्तेषां सर्वगुण समन्वितः।
लेकिन, उस दिन पुत्रवान लोगों को उपवास व्रत नहीं करना चाहिए :---
#पुत्रवद्भिर्न कर्तव्य उपवासस्तु तद्दिने।।
माँ भगवती जगत् जननी सब का कल्याण करें , यही प्रार्थना है।।
Gurudev 
Bhubneshwar
9893946810

#दीपावली निर्णय 2024

प्रश्नकर्ता - क्या दुर्गा पूजा में वेश्या के घर से मिट्टी लाकर मूर्ति बनाने का विधान है ?

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु -  दुर्गा पूजा में प्रतिमा निर्माण हेतु वेश्या के घर से मिट्टी लाने का आचार कई परम्पराएं पालन करती आ रही हैं। इसको माध्यम बनाकर परम मूढ़ता और मूर्खता से ग्रस्त कुमार्गगामी नरपिशाच गण श्रीदेवी के सन्दर्भ में अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। सबसे पहले हम वेश्या की तन्त्रोक्त परिभाषा देखेंगे :-

कुलमार्गे प्रवृत्ता या सा वेश्या मोक्षदायिनी।
एवंविधा भवेद्वेश्या न वेश्या कुलटा प्रिये॥

शिव जी कहते हैं, कि व्यभिचार में रत कुलटा स्त्री को तन्त्र में वेश्या नहीं कहा गया है, अपितु कुलमार्ग में स्थित जो मोक्ष को देने वाली साधिका है, उसे वेश्या कहा गया है। 

अब कुलमार्ग क्या है, यह गुरुपरम्परागम्य गूढ़ शाक्ताचार से सम्बंधित है, इसीलिए अधिक नहीं लिखूंगा, किन्तु कुलार्णव तन्त्र में वर्णित सामान्य परिभाषा बताता हूँ :-

कुलं कुंडलिनी शक्तिरकुलन्तु महेश्वर:।
कुलाकुलस्यतत्वज्ञ: कौल इत्यभिधीयते॥

कुण्डलिनी शक्ति को कुल और परमशिव को अकुल कहा गया है, इन दोनों का रहस्य जानने वाला ब्रह्मवेत्ता ही कौल यानी कुलमार्ग का अनुसरण करने वाला है।

तन्त्र की परिभाषा के अंतर्गत जिस वेश्या का वर्णन है, वह परम साध्वी होती है :-

शिवलिंगगता साध्वी शिवलिंगगता सती।
शिवलिंगगता वेश्या कीर्तिता सा पतिव्रता॥
(निरुत्तर तन्त्र)

शिवलिंग (ब्रह्मभाव की पहचान) में जो स्थित है, वही साध्वी, सती, वेश्या है और उसे ही पतिव्रता कहा गया है।

यहां साध्वी, सती, पतिव्रता तो ठीक है, किन्तु वेश्या शब्द का अर्थ विरोधाभासी होने से इसका कारण निम्न उक्ति से स्पष्ट किया गया है :-
वेश्यावद्भ्रमते यस्मात्तस्माद्वेश्या प्रकीर्तिता।

जैसे (लोक)वेश्या बिना किसी के प्रति आसक्ति रखे केवल धनपरायणा होकर स्वच्छन्द विहार करती है, वैसे ही (बिना किसी के प्रति आसक्ति रखे केवल ब्रह्मपरायणा होकर) स्वच्छन्द विहार करने वाली होने से ऐसी साधिका को वेश्या कहा गया है।

अब यह वेश्या सात प्रकार की होती है :-

गुप्तवेश्या महावेश्या कुलवेश्या महोदया।
राजवेश्या देववेश्या ब्रह्मवेश्या च सप्तधा॥
(निरुत्तर तन्त्र)

गुप्तवेश्या, महावेश्या, कुलवेश्या, महोदयावेश्या, राजवेश्या, देववेश्या एवं ब्रह्मवेश्या, ये सात प्रकार की वेश्याओं का वर्णन तन्त्र में है।

गरुड़ पुराण, नारद पुराण, गर्ग संहिता आदि में निम्न सात तीर्थपुरियों को मोक्षदायिनी बताया गया है :-

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
(मायापुरी हरिद्वार को कहते हैं)

इसी प्रकार हमारे पुराणों में वर्णित सात महान् मोक्षमूलक तीर्थों का भी तन्त्र में यही संकेत है :-

गुप्तवेश्या महावेश्या अयोध्या मथुरा प्रिये।
माया च कुलवेश्या स्यात् महोदया च कालिका॥
राजवेश्या देववेश्या द्वारका परिकीर्तिता।
कांची च राजवेश्या स्याद्देववेश्या अवन्तिका॥
द्वारावती ब्रह्मवेश्या सप्तैते मोक्षदायिका॥
(निरुत्तर तन्त्र)

अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्तिका एवं द्वारिका, ये क्रमशः गुप्तवेश्या, महावेश्या, कुलवेश्या, महोदयावेश्या, राजवेश्या, देववेश्या एवं ब्रह्मवेश्या हैं। द्वारिका को मतांतर से राजवेश्या अथवा देववेश्या भी कहा गया है।

इस प्रकार से उपर्युक्त परिभाषा से युक्त साधिका के घर की मिट्टी अथवा उपर्युक्त तीर्थों की मिट्टी लेकर प्रतिमा बनाने का विधान तन्त्रशास्त्र में है। उपर्युक्त तीर्थों का सेवन करने वाला ही तन्त्रोक्त परिभाषा के अनुसार वेश्यागामी है और इसीलिए वेश्यागामी को तत्वज्ञानी एवं मोक्ष का अधिकारी बताया गया। 

कुलपूजां विना देवि तत्वज्ञानं न जायते।
तत्वज्ञानं विना देवि निर्वाणं नैव जायते॥

हमारे शास्त्रों में सर्वाधिक गूढ़ और गोपनीयता की बातें तन्त्रग्रंथ में ही हैं जिन्हें समझना ऊपरी दृष्टि वाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। बहुत से तंत्रों को जानबूझकर कर ऐसी भाषा और शैली में बताया और लिखा गया है कि सामान्य लोग उसे न जान पाएं और सिद्धियों का दुरूपयोग न हो। अतएव अपने धर्म और धर्मग्रंथों में पूर्ण आस्था रखें औए यदि कोई संदेह हो तो साधक एवं रहस्यवादियों के पास जाकर शंका समाधान करें। गूगल बाबा और पाखंडियों के फेर में न रहें। 

(यह लेख मेरी पुस्तक "अमृत वचन" - पृष्ठ ३९३ में प्रकाशित हो चुका है)

साभार - श्री भगवतानंद जी 🙏

Thursday, 3 October 2024

दुर्गा पूजा में वेश्या के पैर की मिट्टी

प्रश्नकर्ता - क्या दुर्गा पूजा में वेश्या के घर से मिट्टी लाकर मूर्ति बनाने का विधान है ?

निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु -  दुर्गा पूजा में प्रतिमा निर्माण हेतु वेश्या के घर से मिट्टी लाने का आचार कई परम्पराएं पालन करती आ रही हैं। इसको माध्यम बनाकर परम मूढ़ता और मूर्खता से ग्रस्त कुमार्गगामी नरपिशाच गण श्रीदेवी के सन्दर्भ में अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। सबसे पहले हम वेश्या की तन्त्रोक्त परिभाषा देखेंगे :-

कुलमार्गे प्रवृत्ता या सा वेश्या मोक्षदायिनी।
एवंविधा भवेद्वेश्या न वेश्या कुलटा प्रिये॥

शिव जी कहते हैं, कि व्यभिचार में रत कुलटा स्त्री को तन्त्र में वेश्या नहीं कहा गया है, अपितु कुलमार्ग में स्थित जो मोक्ष को देने वाली साधिका है, उसे वेश्या कहा गया है। 

अब कुलमार्ग क्या है, यह गुरुपरम्परागम्य गूढ़ शाक्ताचार से सम्बंधित है, इसीलिए अधिक नहीं लिखूंगा, किन्तु कुलार्णव तन्त्र में वर्णित सामान्य परिभाषा बताता हूँ :-

कुलं कुंडलिनी शक्तिरकुलन्तु महेश्वर:।
कुलाकुलस्यतत्वज्ञ: कौल इत्यभिधीयते॥

कुण्डलिनी शक्ति को कुल और परमशिव को अकुल कहा गया है, इन दोनों का रहस्य जानने वाला ब्रह्मवेत्ता ही कौल यानी कुलमार्ग का अनुसरण करने वाला है।

तन्त्र की परिभाषा के अंतर्गत जिस वेश्या का वर्णन है, वह परम साध्वी होती है :-

शिवलिंगगता साध्वी शिवलिंगगता सती।
शिवलिंगगता वेश्या कीर्तिता सा पतिव्रता॥
(निरुत्तर तन्त्र)

शिवलिंग (ब्रह्मभाव की पहचान) में जो स्थित है, वही साध्वी, सती, वेश्या है और उसे ही पतिव्रता कहा गया है।

यहां साध्वी, सती, पतिव्रता तो ठीक है, किन्तु वेश्या शब्द का अर्थ विरोधाभासी होने से इसका कारण निम्न उक्ति से स्पष्ट किया गया है :-
वेश्यावद्भ्रमते यस्मात्तस्माद्वेश्या प्रकीर्तिता।

जैसे (लोक)वेश्या बिना किसी के प्रति आसक्ति रखे केवल धनपरायणा होकर स्वच्छन्द विहार करती है, वैसे ही (बिना किसी के प्रति आसक्ति रखे केवल ब्रह्मपरायणा होकर) स्वच्छन्द विहार करने वाली होने से ऐसी साधिका को वेश्या कहा गया है।

अब यह वेश्या सात प्रकार की होती है :-

गुप्तवेश्या महावेश्या कुलवेश्या महोदया।
राजवेश्या देववेश्या ब्रह्मवेश्या च सप्तधा॥
(निरुत्तर तन्त्र)

गुप्तवेश्या, महावेश्या, कुलवेश्या, महोदयावेश्या, राजवेश्या, देववेश्या एवं ब्रह्मवेश्या, ये सात प्रकार की वेश्याओं का वर्णन तन्त्र में है।

गरुड़ पुराण, नारद पुराण, गर्ग संहिता आदि में निम्न सात तीर्थपुरियों को मोक्षदायिनी बताया गया है :-

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः ॥
(मायापुरी हरिद्वार को कहते हैं)

इसी प्रकार हमारे पुराणों में वर्णित सात महान् मोक्षमूलक तीर्थों का भी तन्त्र में यही संकेत है :-

गुप्तवेश्या महावेश्या अयोध्या मथुरा प्रिये।
माया च कुलवेश्या स्यात् महोदया च कालिका॥
राजवेश्या देववेश्या द्वारका परिकीर्तिता।
कांची च राजवेश्या स्याद्देववेश्या अवन्तिका॥
द्वारावती ब्रह्मवेश्या सप्तैते मोक्षदायिका॥
(निरुत्तर तन्त्र)

अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांची, अवन्तिका एवं द्वारिका, ये क्रमशः गुप्तवेश्या, महावेश्या, कुलवेश्या, महोदयावेश्या, राजवेश्या, देववेश्या एवं ब्रह्मवेश्या हैं। द्वारिका को मतांतर से राजवेश्या अथवा देववेश्या भी कहा गया है।

इस प्रकार से उपर्युक्त परिभाषा से युक्त साधिका के घर की मिट्टी अथवा उपर्युक्त तीर्थों की मिट्टी लेकर प्रतिमा बनाने का विधान तन्त्रशास्त्र में है। उपर्युक्त तीर्थों का सेवन करने वाला ही तन्त्रोक्त परिभाषा के अनुसार वेश्यागामी है और इसीलिए वेश्यागामी को तत्वज्ञानी एवं मोक्ष का अधिकारी बताया गया। 

कुलपूजां विना देवि तत्वज्ञानं न जायते।
तत्वज्ञानं विना देवि निर्वाणं नैव जायते॥

हमारे शास्त्रों में सर्वाधिक गूढ़ और गोपनीयता की बातें तन्त्रग्रंथ में ही हैं जिन्हें समझना ऊपरी दृष्टि वाले व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। बहुत से तंत्रों को जानबूझकर कर ऐसी भाषा और शैली में बताया और लिखा गया है कि सामान्य लोग उसे न जान पाएं और सिद्धियों का दुरूपयोग न हो। अतएव अपने धर्म और धर्मग्रंथों में पूर्ण आस्था रखें औए यदि कोई संदेह हो तो साधक एवं रहस्यवादियों के पास जाकर शंका समाधान करें। गूगल बाबा और पाखंडियों के फेर में न रहें। 

(यह लेख मेरी पुस्तक "अमृत वचन" - पृष्ठ ३९३ में प्रकाशित हो चुका है)

साभार - श्री भगवतानंद जी 🙏

Thursday, 26 September 2024

#चोरी की वस्तु

रेवती नक्षत्र से अभिजित सहित गणना करें, रेवती नक्षत्र पूर्व में रहता है इस तरह शेष नक्षत्रों की दिशा भी क्रमशः गणना करें।
पूर्व दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 1 सप्ताह में प्राप्त होती है
दक्षिण दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 2-3 सप्ताह में प्राप्त होती है 
पश्चिम दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 3 सप्ताह से 3 माह में विशेष प्रयत्न करने पर प्राप्त होती है, अन्यथा प्राप्त नहीं होती है
उत्तर दिशा नक्षत्र में गई वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती है

जय सियाराम जी

आशीर्वाद


लक्ष्मीस्ते पङ्कजाक्षी निवसतु भवने भारती कण्ठदेशे । वर्धन्तां बन्धुवर्गाः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूलम् ।। देशे देशे च कीर्ति प्रसरतु भवतां दिव्यकुन्देन्दुशुभ्रा । जीव त्वं पुत्रपाैत्रै:सकल सुखयुतै र्हायनानां शतैश्च ।।

Sunday, 22 September 2024

वास्तु पूजा एवं गृह प्रवेश पूजा सामग्री

================================ 1】हल्दीः--------------------------50 ग्राम 
२】कलावा(आंटी)-------------10 गोले 
३】अगरबत्ती------------------- 3पैकिट
 ४】कपूर------------------------- 50 ग्राम
 ५】केसर------------------------- 1डिव्वि 
६】चंदन पेस्ट ------------------ 50 ग्राम
 ७】यज्ञोपवीत ----------------- 11नग्
 ८】चावल------------------------ 07 किलो 
९】अबीर-------------------------50 ग्राम 
१०】गुलाल, -----------------100 ग्राम
 ११कच्चा सूत ----------------200 फिट
१२】सिंदूर --------------------100 ग्राम 
१३】रोली, --------------------100ग्राम 
१४】सुपारी, ( बड़ी)-------- 200 ग्राम
 १५】नारियल ----------------- 11 नग्
 १६】सरसो----------------------50 ग्राम
 १७】पंच मेवा------------------100 ग्राम 
१८】शहद (मधु)--------------- 50 ग्राम
 १९】शकर-----------------------0 1किलो
 २०】घृत (शुद्ध घी)------------ 01किलो
 २१】इलायची (छोटी)-----------10ग्राम 
२२】नागफणी किले --------------05 नग
 २३】इत्र की शीशी----------------1 नग् 
२४】रंग लाल----------------------10ग्राम 
२५】रंग काला --------------------10ग्राम 
२६】रंग हरा -----------------------10ग्राम 
२७】रंग पिला ---------------------10ग्राम 
२८】बास्तु किट --------------------1 नग्
 २९】धुप बत्ती ---------------------2 पैकिट

सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम
 १】 जौ-----------
 २】गेहूँ- 
३】चावल- 
४】तिल- 
५】काँगनी- 
६】उड़द-
 ७】मूँग =============================
 
३३】कुशा 
३४】दूर्वा 
35】पुष्प कई प्रकार के 
३६】गंगाजल 
३७】ऋतुफल पांच प्रकार के -----1 किलो

 38】पंच पल्लव 
१】बड़, 
२】 गूलर,
 ३】पीपल, 
४】आम 
५】पाकर के पत्ते) ============================= 


३९】बिल्वपत्र 
४०】शमीपत्र 
४१】सर्वऔषधि 
४२】अर्पित करने हेतु पुरुष बस्त्र 
४३】मता जी को अर्पित करने हेतु सौ भाग्यवस्त्र
 44】जल कलश तांबे का मिट्टी का) 
-------------------------------------------------
४५】 बस्त्र 
१】सफेद कपड़ा दोमीटर) 
२】लाल कपड़ा (2मीटर) 
३】काला कपड़ा 2मीटर)
 ४】हरा कपड़ा 2मीटर)  पीला कपड़ा 2 मीटर

४६】पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार)
 ४७】दीपक 
४८】तुलसी दल
 ४८】केले के पत्ते (यदि उपलब्ध हों तो खंभे सहित) 49】बन्दनवार 50】पान के पत्ते ------------11 नग 51】रुई
 ५२】भस्म 
53】ध्वजालाल-1 
पचरंगा -1 
54】प्रसाद(अनुमानि) ====================================नवग्रह समिधा======= 
१】आक 
२】 छोला
 ३】खैर 
४】आंधी झाड़ा
 ५】पीपल 
६】उमर(गूलर) 
७】शमी 
८】दूर्वा 
९】कुशा


घरेलू समान 
आसान बिछाने के लिए 
चौकी 2/2की पांच या फिर प्लाई एक 3/6 की
दूध ,दही ,फूल ,दूर्वा ,पूजा के लिए  बर्तन ,भगवान की तस्वीरे , आटा चोक पुरने के  लिए,
 
Gurudev 
Bhubneshwar
9893946810

Friday, 20 September 2024

#गणेश जी की आरती


जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।

एकदंत, दयावन्त, चार भुजाधारी,
माथे सिन्दूर सोहे, मूस की सवारी। 
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लड्डुअन का भोग लगे, सन्त करें सेवा।। ..
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश, देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया,
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया। 
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।। 
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा .. 
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा। 

दीनन की लाज रखो, शंभु सुतकारी। 
कामना को पूर्ण करो जय बलिहारी

Sunday, 15 September 2024

#सूतक

#अशौची से संसर्ग करनेवालोंकी शुद्धि

अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च।
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाऽग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति॥
(मनुस्मृति - ५.१०३)

जो मनुष्य (सपिण्डसे भिन्न) अपनी जाति अथवा अन्य जाति के साथ श्मशान में जाता है वह वस्त्रोंके सहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करने और घी खानेपर शुद्ध होताहै॥ 

ब्राह्मणेनानुगन्तव्यो न शूद्रो न द्विजः क्वचि।
अनुगम्याम्भसि स्नात्वा स्पृष्टाग्निं घृतभुक्शुचिः॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति - ३.२६)

ब्राह्मण को उचित है कि (असपिण्ड) द्विज अथवा शूद्रके मुर्देके साथ श्मशान में नही जावे; किन्तु यदि जावे तो जलमें स्नान करके अग्निका स्पर्श और घी भोजन करके शुद्ध होवे॥

यस्तैः सहान्नं कुर्याच्च यानादीनि तु चैवं हि।
ब्राह्मणे वा परे वापि दशाहेन विशुध्यति॥ 
यस्तेषामन्नमश्नाति स तु देवोऽपि कामतः।
तदा शौचनिवृत्तेषु स्नानं कृत्वा विशुध्यति॥
यावत्तदन्नमश्नाति दुर्भिक्षाभिहतो नरः।
तावन्त्यन्यन्यशुद्धिः स्यात्प्रायश्चित्तं ततश्चरेत्॥
(उशनास्मृति - ६.४८-५०)

ब्राह्मण अथवा अन्य वर्णका मनुष्य जो कोई अशौचीके सहित अन्न भोजन या एकत्र यानादि व्यवहार करेगा वह १० दिनपर अर्थात् अशौची के शुद्ध होनेपर शुद्ध होगा॥  जो जान करके अशौचवालेके घर अन्न खाता है वह देवता होनेपर भी अशौचवाले के शुद्ध होनेपर स्नान करके शुद्ध होता है; किन्तु जो दुर्भिक्षसे पीड़ित होकर प्राणरक्षाके लिये अशौचवालेके घर जितने दिन भोजन करता है वह उतने दिनतक अशुद्ध रहता है, उसके बाद स्नान आदि प्रायश्चित्त करके शुद्ध हो जाता है॥

असपिण्डेर्न कर्त्तव्यं चूडाकार्ये विशेषतः॥
जन्मप्रभृतिसंस्कारे श्मशानान्ते च भोजनम्॥
(आपस्तम्ब स्मृति - ९.२१-२२)
जातकर्म आदि संस्कार के समय, प्रेतकर्ममें और विशेष करके चूड़ाकरणके समय असपिण्डके घर भोजन नहीं करना चाहिये॥

संपर्कादुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा।
संपर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकम्॥ 
(पाराशरस्मृति - ३.२१)

ब्राह्मण असपिण्ड के मृत्यु तथा जन्मके अशौचमें केवल सम्पर्कसे ही दूषित होता है; यदि वह अशौच वालेसे सम्पर्क नहीं रखे तो उसको मरणका अथवा जन्मका अशौच नहीं लगता है॥

#अनाथब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः।
पदे पदे यज्ञफलमानुपूर्व्यालभन्ति ते॥
न तेषामशुभं किञ्चित्पापं वा शुभकर्मणाम्।
जला गाहनात्तेषां सद्यः शौचं विधीयते॥ 
असगोत्रमबन्धुश्च प्रेतीभूतद्विजोत्तमम्।
वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुध्यति॥
(पाराशरस्मृति ३.४१-४३)

जो द्विजाति अनाथ ब्राह्मणके मृत शरीरको ढोकर श्मशानमें ले जाते हैं वे पद-पद पर यज्ञ करनेका फल पाते हैं; उन शुभ कर्म करनेवालोंको न तो कुछ दोष लगता है न अशुभ होता है; वे लोग जलमें स्नान करनेसे उसी समय शुद्ध होजाते हैं।  जो ब्राह्मण अन्य गोत्र और अबान्धव मृतकको ढोता है और दाह करता है वह प्राणायाम करने पर शुद्ध होजाता है।

#पराशौचे नरो भुक्त्वा कृमियोनौ प्रजायते। 
भुक्त्वान्नं म्रियते यस्य तस्य योनौ प्रजायते॥
(शङ्खस्मृति - १५.२४)
जो मनुष्य अन्यके अशौचमे अर्थात् उसके शुद्ध होनेसे पहिले उसके घर भोजन करता है वह कीड़की योनि में जन्म लेता है और जो जिसका अन्न खाकर अर्थात् पेटमें उसका अन्न रहनेपर मर जाता है वह उसी की जाति जन्मता॥

अनिर्दशाहे पक्वान्नं नियोगाद्यस्त भुक्तवान्।
कृमिर्भूत्वा स देहान्ते तद्विष्टामुपजीवति॥  द्वादशमासान्द्वादशार्द्धमासान्वाऽनश्नन्संहितामधीयानः पूतो भवतीति विज्ञायते॥
(वसिष्ठस्मृति - ४.२७-२८)

जो ब्राह्मण अशौचवाले ब्राह्मणके घर १० दिनके भीतर निमन्त्रित होकर पका हुआ अन्न खाता है वह मरनेपर कीड़ा होकर अशौचवालेकी विष्ठा से जीता है। वह मनुष्य १२ मास अथवा ६ मास अन्नरहित होकर (केवल दूध पीकर) वेदकी संहिताका पाठ करनेपर शुद्ध होजाता है; ऐसा शास्त्र से जाना गया है॥
-आचार्य श्री दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
-आचार्य_। वैदिक नितिन शुक्ला जी ✍️🙏

#ब्रह्मण का धन

ब्राह्मण का धन सम्पत्ति कभी नहीं खाना चाहिए??
-::-  -::-
1.नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया।
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि।।१२/ ३३।।
2.हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः
।।१२/ ३४।।
3.स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः।
#षष्टिवर्षसहस्त्राणिविष्ठायां जायते कृमिः।।१२/३९।।
4.यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः।
तथा नमत यूयं च योन्यथा मे  स दण्डभाक्।।१२/४२।।
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मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता,क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है।वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है;उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध,कोई उपाय नहीं है

जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति,उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं,वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठाके कीड़े होते हैं।
Arun Dubey Jabalpur

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कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः
ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ३१

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि
तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञां ईश्वरमानिनाम् ३२

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ३३

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ३४

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्
प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान् ३५

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते
निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ३६

गृह्णन्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दवः
विप्राणां हृतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ३७

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ३८

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ३९

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः
पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ४०

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ४१

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ४२

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ४३

एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः
पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् 
अर्थ 👇👇👇👇👇👇
राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा— ।। 
‘जो लोग अग्रिके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।। 
मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।।
हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है, और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।। 
ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्र—इन तीन पीढिय़ोंको ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढिय़ाँ और आगेकी भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।। 
 जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा ।।  ।।
जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है ।। 
जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं ।।
 इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैं—उसे छीननेकी बात तो अलग रही—वे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।। 
इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।। 
जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।। 
यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेको—अनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी— अध:पतनके गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था ।। 
परीक्षित्‌ ! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका- वासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले गये।।
   Arun shastri जबलपुर 
❗जय महादेव❗
 ⭕प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें‼️

Saturday, 14 September 2024

#पुत्र होने का अचूक नुस्खा

अवश्य लड़का ही होगा 

भांग के बीज नया गुड़ दोनों एक एक तोला लें पांच मोर पंख की चंद्रिका घोंट कर चौदह गोली बनायें जब ढाई माह का गर्भ हो तब बछड़े बाली गाय के दूध में एक एक  गोली सात दिन तक खाएं दवा खाते समय कन्या नहीं देखें वाल रुप में कन्हैया जी के फोटो के दर्शन करें 

                 गुरुदेव
भुवनेश्वर 

# श्राद्ध पक्ष

श्राद्ध पक्ष: एक विस्तृत व्याख्यान
अवश्य पढ़ें बहुमूल्य जानकारी

श्राद्ध पक्ष, जिसे पितृ पक्ष भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में से एक है। इसे आत्माओं और पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का समय माना जाता है। यह अनुष्ठान हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद महीने की पूर्णिमा से आश्विन महीने की अमावस्या तक मनाया जाता है। 16 दिनों तक चलने वाले इस समय को विशेष रूप से पूर्वजों के उद्धार और उनकी आत्मा की शांति के लिए समर्पित किया जाता है। 

श्राद्ध पक्ष में, लोग अपने दिवंगत पूर्वजों के लिए विशेष अनुष्ठान करते हैं, जिसमें तर्पण, पिंडदान, और ब्राह्मणों को भोजन दान करना शामिल होता है। यह मान्यता है कि श्राद्ध कर्म करने से पितर संतुष्ट होते हैं और अपनी संतान को आशीर्वाद देते हैं। यह परंपरा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि इसमें सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों का भी गहरा संबंध है।

#### श्राद्ध पक्ष का पौराणिक महत्व
श्राद्ध पक्ष की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और इसके कई धार्मिक और पौराणिक संदर्भ हैं। महाभारत, रामायण, और पुराणों में श्राद्ध कर्म के महत्व का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध के बाद भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर थे, तो उन्होंने पांडवों को श्राद्ध कर्म की महत्ता बताई थी।

रामायण में भी इसका उल्लेख है। जब भगवान राम ने लंका से विजय प्राप्त करने के लिए समुद्र पार किया, तो उन्होंने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध तर्पण किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्राद्ध कर्म का धार्मिक और पौराणिक महत्व अत्यंत गहरा और प्राचीन है।

#### श्राद्ध पक्ष का धार्मिक पक्ष
श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "श्रद्धा" शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है श्रद्धा या विश्वास। यह वह अनुष्ठान है जिसमें व्यक्ति अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और उद्धार के लिए विशेष कर्म करता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा शरीर से निकलकर पितृलोक में जाती है, और वहां उसे तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध कर्म के माध्यम से पोषण प्राप्त होता है।

श्राद्ध कर्म में मुख्य रूप से तीन प्रकार के कार्य किए जाते हैं:
1. **पिंडदान**: इसमें चावल, तिल और जौ से बने पिंड अर्पित किए जाते हैं। यह प्रतीकात्मक रूप से दिवंगत आत्मा को भोजन देने का कार्य है।
2. **तर्पण**: इसमें जल अर्पित करके पितरों की तृप्ति की जाती है। यह जल उनके लिए अमृत के रूप में माना जाता है।
3. **ब्राह्मण भोजन और दान**: श्राद्ध कर्म के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और उन्हें वस्त्र, धन आदि का दान किया जाता है। इसे पितरों के लिए किया गया पुण्य कर्म माना जाता है।

#### श्राद्ध पक्ष की तिथियों का महत्व
श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों में हर दिन का विशेष महत्व होता है, और हर दिन एक विशेष प्रकार का श्राद्ध किया जाता है। यह तिथियां व्यक्ति के निधन के दिन और परिवार की स्थिति के अनुसार निर्धारित की जाती हैं। आमतौर पर जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है, उसी तिथि को श्राद्ध कर्म किया जाता है। इसके अलावा, कुछ विशेष श्राद्ध भी होते हैं:
- **महालय अमावस्या**: यह श्राद्ध पक्ष का अंतिम दिन होता है और इसे सभी पितरों का श्राद्ध करने का दिन माना जाता है। जिनका तिथि अनुसार श्राद्ध नहीं हो पाता, उनके लिए इस दिन विशेष तर्पण और पिंडदान किया जाता है।
- **मूल श्राद्ध**: यह उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु अनजान परिस्थितियों में या अकाल मृत्यु से हुई होती है।

#### श्राद्ध कर्म की विधि
श्राद्ध कर्म एक अत्यंत पवित्र और नियमबद्ध प्रक्रिया है। इसे करने के लिए व्यक्ति को कुछ विशेष नियमों का पालन करना होता है:
1. श्राद्ध करने वाले को पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। स्नान करके, शुद्ध वस्त्र धारण करके श्राद्ध कर्म किया जाता है।
2. श्राद्ध कर्म आमतौर पर घर में ही किया जाता है, लेकिन यदि संभव हो, तो इसे तीर्थ स्थानों या पवित्र नदियों के किनारे करना शुभ माना जाता है।
3. श्राद्ध में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में चावल, तिल, जौ, गाय का घी, शहद और जल शामिल होते हैं। इन्हें पिंड के रूप में बनाकर अर्पित किया जाता है।
4. ब्राह्मणों को भोजन कराने और उन्हें दान देने का विशेष महत्व है। इस दिन का भोजन विशेष रूप से सात्विक होता है और इसे श्रद्धा और समर्पण के साथ तैयार किया जाता है।

#### श्राद्ध पक्ष के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू
श्राद्ध पक्ष केवल धार्मिक अनुष्ठान का समय नहीं है, बल्कि इसका एक गहरा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है। यह समय हमें यह सिखाता है कि हमारी वर्तमान स्थिति, हमारे सुख, समृद्धि और सफलताएँ हमारे पूर्वजों के आशीर्वाद का परिणाम हैं। श्राद्ध कर्म के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है और यह भाव उसे उसके समाज और संस्कृति से जोड़ता है।

यह परंपरा हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करती है। इस समय परिवार के सदस्य एकत्रित होकर श्राद्ध कर्म करते हैं, जिससे परिवार में एकता और सामंजस्य बढ़ता है। इसके अलावा, श्राद्ध पक्ष व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण करने का भी अवसर प्रदान करता है। इस समय वह अपने जीवन की अस्थायीता और मृत्यु के अनिवार्य सत्य को समझने का प्रयास करता है।

#### श्राद्ध पक्ष और विज्ञान
हालांकि श्राद्ध पक्ष मुख्य रूप से धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसके पीछे के कुछ वैज्ञानिक पहलू भी हैं। उदाहरण के लिए, पितृ पक्ष के दौरान तर्पण और पिंडदान के लिए प्रयुक्त जल और तिल का मिश्रण, जिसे वातावरण में अर्पित किया जाता है, वैज्ञानिक दृष्टि से पर्यावरणीय शुद्धिकरण का कार्य करता है। इसके अलावा, इस समय वंशजों द्वारा दान और पुण्य कर्म किए जाते हैं, जो समाज में संतुलन बनाए रखने और जरूरतमंदों की मदद करने का कार्य करते हैं।

#### निष्कर्ष
श्राद्ध पक्ष एक गहरा और पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है, जिसमें व्यक्ति अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान, और दान-पुण्य के माध्यम से कृतज्ञता प्रकट करता है। यह परंपरा न केवल हिन्दू धर्म की आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें मानवता, परिवार और समाज के प्रति भी सम्मान और सेवा का भाव समाहित है। 

यह समय हमें यह याद दिलाता है कि हम अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह हमारे पितरों के आशीर्वाद और उनके द्वारा किए गए कर्मों का ही परिणाम होता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष हमारे लिए एक आत्मावलोकन का समय है, जब हम अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे कर्म भी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक बनें।
लो