ज्योतिष समाधान

Thursday, 7 August 2025

श्रावण मास की पूर्णिमा और श्रवण नक्षत्र दोनों साथ पड़ेंगे. सौभाग्य योग और सर्वार्थ सिद्धि योग इस वर्ष रक्षाबंधन का पर्व भद्रा से मुक्त है.

गुरुदेव भुवनेश्वर जी पर्णकुटी वालो के अनुसार इस साल श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, शुक्रवार यानि दिनांक 08 अगस्त 2025 को पूर्णिमा  02:12 बजे प्रारंभ हो जाएगी और दूसरे दिन 09 अगस्त 2025, शनिवार को दोपहर 01:24 बजे तक रहेगी. 

इसी तरह श्रवण नक्षत्र भी दिनांक 08 अगस्त 2025, शुक्रवार को  दोपहर 02:27 बजे से प्रारंभ होकर दूसरे दिन 09 अगस्त 2025, शनिवार को दिन में 02:30 मिनट तक रहेगा. 

ऐसे में इस बार यह उत्तम संयोग बन रहा है कि श्रावण मास की पूर्णिमा और श्रवण नक्षत्र दोनों साथ पड़ेंगे. इस वर्ष रक्षाबंधन का पर्व भद्रा से मुक्त है.

 रक्षा बन्धन पर राखी बाँधने का शुभ मुहूर्त के बारे में गुरुदेव ने बताया कि वैसे तो  यह पर्व पूरे दिन मनाया जाना चाहिए फिर भी चौघड़िया मुहूर्त के अनुसार प्रातः 07:31 से प्रातः 09:09 तक शुभ का और मध्यान्ह 12:26 पर अभिजित मुहूर्त के साथ ही क्रमशः चर,लाभ, अमृत, का चौघड़िया सायंकाल 05:21 तक रहेगा 

मुख्य रूप से यह त्यौहार यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये  अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। 
गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत।

इस त्यौहार को श्रावणी पर्व भी कहते हैं। 
 ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। गुरुदेव भुवनेश्वर पर्णकुटी वालो के अनुसार रक्षाबंधन पर्व का सीधा संदेश है कि जिसके प्रति रक्षा की भावना हो आप उसे राखी बांध सकती हैं. शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति रक्षित होगा, वह हमारी भी रक्षा करेगा. हालांकि रक्षाबंधन के पर्व के दिन बहन के द्वारा अपने भाई के हाथ में रक्षा पोटली बांधने की परंपरा रही है. वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। उसमें
(१) दूर्वा
(२) अक्षत (साबूत अरुणाक्षत)
(३) केसर या हल्दी
(४) शुद्ध चंदन
(५) सरसों के साबूत दाने
इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी  आदि बांधकर भाई की कलाई में बांधा जाता रहा है. यदि आपके परिवार में कोई भी भाई नहीं है तो आपको भगवान श्रीकृष्ण को राखी बांधनी चाहिए. सनातन परंपरा में भी पहली राखी अपने आराध्य देवता को अर्पित करने का विधान बताया गया है. ऐसे में आप यदि आप पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ बांके बिहारी या फिर अपने घर में रखे हुए गणेश, शिव ,लड्डू, गोपाल को राखी बांध सकते हैं. ऐसा करने पर पूरे साल वे आपकी रक्षा करते हुए सुख-सौभाग्य प्रदान करेंगे. 

राखी बांधने का सबसे पहला अधिकार ईश्वर को माना गया है. कई बहनें सबसे पहले भगवान कृष्ण, शिव या गणेश को राखी बांधती हैं और फिर अपने भाई को. 

यदि किसी स्त्री का भाई न हो या वह बहनों के साथ ही पली-बढ़ी हो, तो वह अपनी बड़ी बहन को राखी बांध सकती है. यह बहनत्व, प्रेम और साथ निभाने का प्रतीक होता है.

कई स्थानों पर महिलाएं साधु-संतों या मंदिर के पुजारियों को राखी बांधती हैं. 

जिन लोगों की कोई बहन नहीं होती है, उनके लिए भी रक्षासूत्र बांधने का उपाय शास्त्रों में बताया गया है. यदि आपकी कोई बहन नहीं है तो आप अपने गुरु अथवा किसी मंदिर के पुजारी से 'ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः. तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल' मंत्र का उच्चारण करते हुए रक्षासूत्र बंधवा सकते हैं. 

पुरोहित और यजमान (जो पूजा करवाता है) का रिश्ता बहुत गहरा होता है। पुराने समय में रक्षाबंधन पर पंडित अपने यजमान को राखी बांधते थे और उनके कल्याण की कामना करते थे। यह परंपरा आज भी जिंदा रहनी चाहिए।रक्षाबंधन के अवसर पर बहनें भारतीय सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों को राखी भेजती हैं या स्वयं जाकर बांधती हैं. यह समाज की रक्षा करने वाले रक्षक के प्रति श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है. पर्यावरण संरक्षण की भावना को बढ़ावा देने के लिए कई लोग वृक्षों को राखी बांधते हैं. यह संकल्प होता है कि हम पेड़ों की रक्षा करेंगे और पर्यावरण को सुरक्षित रखेंगे.



रक्षा बंधन हमेशा से भाई-बहन के रिश्ते का का पर्व रहा है। पुराने समय में भी इसको लेकर यही जिक्र मिलता है। साथ ही हर पर्व-त्योहार को मनाने के धार्मिक नियम होते हैं जिसको उसी अनुरूप मनाया जाना चाहिए। इस आधार पर कहा जा सकता है कि पत्नी पति को राखी नहीं बांध सकती है। हां, वो रक्षा के लिए पति की कलाई पर कलावा जैसे पवित्र धागा को जरूर बांध सकती है।


आरती गणेश जी की

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,
नित नित शीश झुकाऊँ,
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,,,

तुम एक दन्त गणराया,
मैं शरण तिहारी आया।
अब राखो लाज हमारी ,
मेरे गणराज बिहारी ।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ ,,,,,,

तुम ऋद्धि सिद्धि के दाता ,
भक्तो के भाग्य विधाता ।
मैं आया शरण तिहारी,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,

तुम माँ गोरा घर जाये ,
और शिव के मन को भाये।
अब मेरे घर भी आओ,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,


कोई छप्पन भोग लगाये,
कोई मोदक भोग जिमाये.
मैं तो दूर्वा ले आया,
जीमो गणराज बिहारी,
मैं आरती तेरी गाऊँ मेरे गणराज बिहारी

Wednesday, 6 August 2025

आरती गणेश जी की

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,
नित नित शीश झुकाऊँ,
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,,,

तुम एक दन्त गणराया,
मैं शरण तिहारी आया।
अब राखो लाज हमारी ,
मेरे गणराज बिहारी ।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ ,,,,,,

तुम ऋद्धि सिद्धि के दाता ,
भक्तो के भाग्य विधाता ।
मैं आया शरण तिहारी,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,

तुम माँ गोरा घर जाये ,
और शिव के मन को भाये।
अब मेरे घर भी आओ,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,


कोई छप्पन भोग लगाये,
कोई मोदक भोग जिमाये.
मैं तो दूर्वा ले आया,
जीमो गणराज बिहारी,
मैं आरती तेरी गाऊँ मेरे गणराज बिहारी

Monday, 4 August 2025

रक्षा सूत्र कैसे बनाए

#वैदिक_रक्षासूत्र____|| रक्षाबंधन.रक्षासूत्र.राखी विशेष!!
रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है।
#कैसे_बनायें_वैदिक_राखी
वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। उसमें
(१) दूर्वा
(२) अक्षत (साबूत अरुणाक्षत)
(३) केसर या हल्दी
(४) शुद्ध चंदन
(५) सरसों के साबूत दाने
इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।
कुछ विशिष्ठ पवित्र पदार्थ का प्रयोग करने के लिये अपने आचार्य या पुरोहित से सम्पर्क कर समझे||
#वैदिक_राखी_का_महत्त्व
वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं।
(१) #दूर्वा
जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें...’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा । दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय ।
(२) #अरुणाक्षत (साबूत लालचावल)
हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड और अटूट हो, कभी क्षत-विक्षत न हो - यह अक्षत का संकेत है । अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय ।
(३) #केसर या #हल्दी
केसरकेसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो । उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय । केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं । हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है । यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है 
(४) #चंदन
चंदनचंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है । यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो । उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे । उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले ।
(५) #सरसों_पीत
सरसोंसरसों तीक्ष्ण होती है । इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें ।
अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व-मंगलकारी है। 

रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है :-
#येन_बद्धो_बली_राजा_दानवेन्द्रो_महाबलः ।
#तेन_त्वाम_नुबध्नामि_रक्षे_मा_चल_मा_चल ।।

यहां वैदिक मन्त्र का भी उपयोग किया जा सकता है||
यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:। तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है  भक्ति बढ़ती है।
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 यज्ञोपवीतः आभूषणं च,शिखा धर्मस्तम्भयः ।
जयतु ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये ----------
-------/आपको इसे पढ़कर निर्माण विधि का ज्ञान हो गया ,लेकिन इसमें रक्षा शक्ति का संचार कैसे करेंगे उन मन्त्रो से  इसे अभिमंत्रित करें जिससे आप इस रक्षासूत्र से स्वयं की एव जिसे यह बांधे उसकी भी रक्षा यह करे।
इसके लिए आचार्य ,पुरोहित से मार्गदर्शन अवश्य लीजिये।।
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रक्षा सूत्रों के विभिन्न प्रकार
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विप्र रक्षा सूत्र- रक्षाबंधन के दिन किसी तीर्थ अथवा जलाशय में जाकर वैदिक अनुष्ठान करने के बाद सिद्ध रक्षा सूत्र को विद्वान पुरोहित ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन करते हुए यजमान के दाहिने हाथ मे बांधना शास्त्रों में सर्वोच्च रक्षा सूत्र माना गया है।

गुरु रक्षा सूत्र- सर्वसामर्थ्यवान गुरु अपने शिष्य के कल्याण के लिए इसे बांधते है।

मातृ-पितृ रक्षा सूत्र- अपनी संतान की रक्षा के लिए माता पिता द्वारा बांधा गया रक्षा सूत्र शास्त्रों में  "करंडक" कहा जाता है।

भातृ रक्षा सूत्र- अपने से बड़े या छोटे भैया को समस्त विघ्नों से रक्षा के लिए बांधी जाती है देवता भी एक दूसरे को इसी प्रकार रक्षा सूत्र बांध कर विजय पाते है।

स्वसृ-रक्षासूत्र- पुरोहित अथवा वेदपाठी ब्राह्मण द्वारा रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहिन का पूरी श्रद्धा से भाई की दाहिनी कलाई पर समस्त कष्ट से रक्षा के लिए रक्षा सूत्र बांधती है। भविष्य पुराण में भी इसकी महिमा बताई गई है। इससे भाई दीर्घायु होता है एवं धन-धान्य सम्पन्न बनता है।

गौ रक्षा सूत्र- अगस्त संहिता अनुसार गौ माता को राखी बांधने से भाई के रोग शोक दूर होते है। यह विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है।

वृक्ष रक्षा सूत्र - यदि कन्या को कोई भाई ना हो तो उसे वट, पीपल, गूलर के वृक्ष को रक्षा सूत्र बांधना चाहिए पुराणों में इसका विशेष उल्लेख है।।


 
विशेष>>> यदि सूत्र अभिमंत्रित नहीं है तो उसकी उपयोगिता मात्र एक सूत्र की रहेगी उस सूत्र से किसी रक्षा या सुरक्षा की कल्पना नहीं करें.. बाजार से निर्मित सूत्र राखी आदि खरीदने से बचना चाहिए..!!


Sunday, 3 August 2025

#श्रावणी_उपाकर्म-> (साभार 🚩 #सन्मार्ग )
>>> उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल है । इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि - जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। जीवन की वैज्ञानिक प्रक्रिया:- जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है । यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए युगऋषि ने लिखा है- 'मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।' जैसे अण्डा माता की छाती की ऊष्मा से पकता है, वैसे ही मनुष्यता गुरु-अनुशासन में वेदमाता की गर्मी (शुद्ध ज्ञान की ऊर्जा) से धीरे-धीरे परिपक्व होती है । परिपक्व होने पर साधक अपने संकल्प से उस संकीर्णता के घेरे को तोड़ डालता है । तब उसे अपने तथा जन्मदात्री माता के स्वरूप का बोध होता है । तब वह भी माँ की तरह विराट् आकाश में उड़ने की चेष्टा करता है । तब माँ ऊँची उड़ानें भरने के उसके प्रयासों को शुद्ध-सही बनाती है । यही मर्म है- 'पावमानी द्विजानाम्' का । जो संकीर्णता के खोल में बंद है, उसे माँ विकसित करने के लिए अपनी ऊर्जा तो देती रहती है, किन्तु नया जन्म लेने के पहले उसके लिए अपने अन्य कौशलों का प्रयोग नहीं कर सकती । जिसने दूसरा जन्म ले लिया, वह 'द्विज' । नये दुर्लभ जन्म की प्रक्रिया को पूरा करने की प्रवृत्ति-साधना है 'द्विजत्व' । जब द्विज के चिंतन, चरित्र, व्यवहार पवित्र हो जाते हैं, तो वह ब्रह्म के अनुशासन में सिद्ध ब्राह्मण हो जाता है । जब उसकी कामनाएँ ब्रह्म के अनुरूप ही हो जाती हैं, तो ब्राह्मी चेतना-आदिशक्ति उसके लिए कामधेनु बन जाती है । जिसकी कामनाएँ-प्रवृत्तियों अनगढ़ हैं, उन्हें पूरा करने से तो संसार में अनगढ़ता ही बढ़ेगी । इसलिए माता सुगढ़-शुद्ध कामना वालों के लिए ही कामधेनु का रूप धारण करती है । भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं । इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । संगीत के द्वार सभी के लिए खुले हैं, किन्तु संगीताचार्य अपनी बारीकियाँ उन्हीं के सामने खोलते हैं, जिनकी संगीत साधना उच्च स्तरीय हो गई है । खेल सभी खेल सकते हैं, किन्तु खेल प्रशिक्षक खेल तकनीक की बारीकियाँ उसी को समझाता है, जिनके कौशल और दमखम की साधना उच्च स्तरीय है । जिसकी साधना विकसित नहीं हुई है, उसे आगे की बात बताने से बतलाने वाले का प्रयास निरर्थक तो जाता ही है, कई बार उसका विपरीत प्रभाव भी भोगना पड़ जाता है । तिथि:- श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।'भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:' संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं- 'श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥' अर्थात श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है|ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं| 

#श्रावणी_पर्व:- श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का 'एकोहं बहुस्यामि' का संकल्प फलित हुआ । पौराणिक उपाख्यान सबको पता है । भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ । उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ''संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वल्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है । सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए-१ ज्ञान, २ कर्म । इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया । उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।'' मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं । समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है । इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है । 

#विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। द्विज और द्विजत्व:- द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है । द्विज का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है । इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है । यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है । तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है । तभी माता (आदिशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है । तैयारी करें:- जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने र्कत्तव्य निश्चित करके गुुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए । 

श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर-प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है । रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है । प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं । यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण-प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकतापूर्वक प्रयास करने-कराने चाहिए । भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं|

।। जय श्री राम ।।
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Friday, 25 July 2025

शिव प्रार्थना

भस्म अंग, मर्दन अनंग, संतत असंग हर।
सीस गंग, गिरिजा अर्धंग भुजंगबर।।

मुंडमाल , बिधु बाल भाल, डमरू कपालु कर।
बिबुधबृंद-नवककुमुद-चंद, सुखकंद सूलधर।

 त्रिपुरारि त्रिलेाचन, दिग्बसन, बिषभोजन, भवभयहरन।
कह तुलसिदासु सेवत सुलभ सिव सिव संकर सरन।।

(150)

गरल -असन दिगबसन ब्यसन भंजन जनरंजन।
कुंद-इंदु-कर्पूर-गौर सच्चिदानंदघन।।

बिकटबेष, उर सेष , सीस सुरसरित सहज सुचि।
सिव अकाम अभिरामधाम नित रामनाम रूचि।ं

कंदर्प दुर्गम दमन उमारमन गुन भवन हर।
त्रिपुरारि! त्रिलोचन! त्रिगुनपर! त्रिपुरमथन! जय त्रिदसबर।।

Thursday, 24 July 2025

सोने का जनेऊ कैसे पहने

#कलियुग_में_कार्पासनिर्मित_(कपास)जनेऊ की प्राधान्यता ->> सत्युग में पद्मनालतन्तु निर्मित , त्रेतायुग में सुवर्णनिर्मित द्वापर में रजतनिर्मित और कलियुग में कार्पासनिर्मित जनेऊ की ही प्रधानता हैं -

कृते पद्ममयं सूत्रं त्रेतायां कनकोद्भवम्। 
             द्वापरे रजतं प्रोक्तं कलौ कार्पास निर्मितम्।।

मन्वपि - कार्पासमुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्ध्वंवृतं त्रिवृत्।।

कार्पास निर्मित के अभाव में - अतसी , वृक्ष की छाल , गाय के बाल , शण  आदि यथासम्भव प्राप्त हो उनकी धारण करना उचित हैं --

देवलः - 
कार्पासक्षौमगोबालशाणवल्कतृणादिकम्।
                  यथा संभवतो धार्यमुवीतं द्विजातिभिः।।

युगान्तर विषयक स्वर्णमय जनेऊ का प्राधान्य त्रेतायुग में था , उस समय स्वयं देवशिल्प विश्वकर्मा का भी धरातल आनाजाना रहता था और अन्य रसविद्या के आचार्यो भी विद्यमान थे ।  आजकल जो स्वर्णमय जनेऊ की तरह अलङ्कार धारण करते हैं वह मात्र जनेऊ की तरह शरीर की शोभामात्र बढाने का अलङ्कार हैं । क्योंकि जिस प्रकार जनेऊ का निर्माण की पद्धति शास्त्र में कही हैं उस प्रकार से स्वर्ण जनेऊ निर्माण करना सम्भव नहीं हैं । 

व्रात्य अनुपनीत आदि से जनेऊ लेना और दक्षिणा के बहाने खरीदना भी निषिद्ध कहा हैं  इस प्रकार जनेऊ निर्माण किसने किया उसपर विचार मननीय हैं -->

चतुर्वर्गचिंतामणि प्रा०खण्ड ब्रह्माण्डपुराण 
अनध्याये तु यत्सूत्रं 
       यत्सूत्रं रण्डया कृतम्। 
यत्सूत्रं दारुसम्भृतं --------------
       #क्रीतं यद्ब्रह्मसूत्रकम् । 
व्रात्यादिभिस्तथा दत्तं 
        तत्सूत्रं परिवर्जयेत्। 
#एतदुर्मार्गवर्त्तिभ्यः_प्रतिगृह्य_द्विजातयः #यद्यत्_कर्म_तदा_कुर्युस्तद्भवति_निष्फलम्।।

अन्यच्च देवलः -
विधवा रचितं सूत्रमनध्यायकृतं च यत्। 
              विच्छिन्नं #चाप्यधोयातं #भुक्त्वा निर्मितमुत्सृजेत्" इति।।

उक्त प्रमाण से क्रीत जनेऊ या अनुपनीत व्रात्य आदि से ग्रहण किया हुआ किसी भी प्रकार के जनेऊ से जो जो भी कर्म किये जाएगे वह सभी निष्फल होते हैं, बिना उपवास किये निर्मित जनेऊ त्यागने योग्य हैं।

बिना उचित यथा कलिप्रधान कार्पासनिर्मित जनेऊ न पहनने में  यज्ञोपवीत त्याग , यज्ञोपवीत रहीते भोजन,  पान , मूत्र पुरीष  सम्भाषण आदि करना भी  दोष हैं, इसलिये स्वर्णसूत्र को नित्य धारण करना हैं तो  कार्पास निर्मित जनेऊ का त्याग नहीं करना चाहिये , कार्पास के जनेऊ के साथ ही स्वर्णालङ्कार का जनेऊ धारण कर सकते हैं नहीं तो पुनरुपनयन भी होना अनिवार्य हैं।   
          कितनेक पुष्टिमार्गीय वैष्णवाचार्यो आज भी कार्पास के जनेऊ को नित्यनिरन्तर धारण करते हुए ही स्वर्णमय-जनेऊ धारण करते हैं।।
                       

Monday, 21 July 2025

शिव जी की आरती

हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं,

आरती गाऊं तुम्हें चित्त में बसाऊं,
हे गौरीशंकर तेरी आरती गाऊं,
हे शिवशंकर तेरी आरती गाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ।

भगीरथी जब धरा पे आये,
जटा में भोले की वेग समाये,
जनहितकारी पे बलि बलि जाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ॥

हलाहल से सबको बचाते,
नीलकण्ठ तब आप कहाते,
उमापति के दर्शन पाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ॥

सरल हृदय, करुणा के सागर,
खाली ना रहती किसी की गागर,
कृपा की कुछ बूंदें पा जाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ॥

महादेव प्रभु, हो त्रिपुरारी,
भक्तों के हो भोले तुम भयहारी,
हर हर शम्भो कहके तुमको रिझाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ॥

पूजा, जप, तप, योग ना जानूं,
महादेव को अपना मानूं,
श्रद्धा सुमन चरणों में चढ़ाऊं,
हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं ॥

हे भोलेनाथ तेरी आरती गाऊं,
आरती गाऊं तुम्हें चित्त में बसाऊं,
हे गौरीशंकर तेरी आरती गाऊं,
हे शिवशंकर तेरी आरती गाऊं.......

अशुभ पेड़

केलेका पेड़ घरमें नहीं लगाना चाहिए!!! अवश्य पढ़ें!!
#प्रमाण—
1 बदरी कदली चैव दाडिमी बीजपूरिका।
प्ररोहन्ति गृहे यत्र तद्गृहं न प्ररोहति॥
(#समरांगणसूत्रधार-38/131)
#अर्थ— बेर, केला, अनार तथा नींबू जिस घरमें उगते हैं, उस घरकी वृद्धि नहीं होती।

*2 अश्वत्थं च कदम्बं च कदलीबीजपूरकम्।
*गृहे यस्य प्ररोहन्ति स गृही न प्ररोहति॥
      (#बृहद्दैवज्ञ० 87/9)

*#अर्थ—* पीपल, कदम्ब, केला, बीजू नींबू-ये जिस घरमें होते हैं, उसमें रहनेवालेकी वंशवृद्धि नहीं होती।

*3 मालतीं मल्लिकां मोचां चिञ्चां श्वेतां पराजिताम्।
*वास्तुन्यां रोपयेद्यस्तु स शस्त्रेण निहन्यते॥
(#वास्तुसौख्यम्- 39)

*#अर्थ—* मालती, मल्लिका, मोचा (केला/कपास), इमली, श्वेता (विष्णुक्रान्ता) और अपराजिताको जो वास्तुभूमिपर लगाता है, वह शस्त्रसे मारा जाता है।

*#तुलसी—* घरके भीतर लगायी हुई तुलसी मनुष्यों के लिये कल्याणकारिणी, धन-पुत्र प्रदान करनेवाली, पुण्यदायिनी तथा हरिभक्ति देनेवाली होती है। 

प्रात:काल तुलसीका दर्शन करनेसे सुवर्ण-दानका फल प्राप्त होता है।
(#ब्रह्मवैवर्तपुराण,कृष्ण०-103/62)

अपने घरसे दक्षिणकी ओर तुलसीवृक्षका रोपण नहीं करना चाहिये, अन्यथा यम-यातना भोगनी पड़ती है।    
         (#भविष्यपुराण म० 1)

*#गृह_समीपमें_निषिद्ध_वृक्ष—

घरके पास काँटेवाले, दूधवाले तथा फलवाले वृक्ष स्त्री
और सन्तानकी हानि करनेवाले हैं। 

यदि इन्हें काटा न जा सके
तो इनके पास शुभ वृक्ष लगा दें।

काँटेवाले वृक्ष शत्रुसे भय देनेवाले
दूधवाले वृक्ष धनका नाश करनेवाले और 
फलवाले वृक्ष सन्तानका नाश करनेवाले होते हैं। 

इनकी लकड़ीको भी घरमें नहीं लगानी चाहिये—

*आसन्ना: कण्टकिनो रिपुभयदाः क्षीरिणोऽर्थनाशाय।
*फलिनः प्रजाक्षयकरा दारूण्यपि वर्जयेदेषाम् ।।
         (#बृहत्संहिता-53/86)

पाकर, गूलर, आम, नीम, बहेरा, पीपल, अगस्त्य, बेर, निर्गुंडी, इमली, कदंब, केला, नींबू, अनार, खजूर, बेल आदि वृक्ष घरके पास अशुभ हैं।

*#गृहसमीपस्थ_शुभवृक्ष—

अशोक, पुन्नाग, मौलसिरी, शमी, चंपा, अर्जुन, कटहल, केतकी, चमेली, पाटल, नारियल, नागकेसर, अड़हुल, महुआ, वट, सेमल, बकुल, शाल, आदि वृक्ष घरके पास शुभ हैं।

*#घरसे_दिशा_विशेषमें_वृक्षोंके_शुभाशुभ_फल—*

*#पूर्वमें—* पीपल भय तथा निर्धनता देता है ,
परंतु बरगद कामना पूर्ति करता है।

*#आग्नेयमें—* वट, पीपल, सेमल, पाकर तथा गूलर पीड़ा और मृत्यु देने वाले हैं।
 परंतु अनार शुभम् है ।

*#दक्षिणमें—* पाकर रोग तथा पराजय देने वाला है और आम, कैद, अगस्त्य तथा निर्गुंडी धन नाश करने वाले हैं।
 परंतु गूलर शुभ है।

 *#नैर्ऋत्यमें—* इमली शुभ है।

*#दक्षिण_नैर्ऋत्यमें—* जामुन और कदम्ब शुभ हैं।

*#पश्चिममें—* वट होनेसे राजपीड़ा, स्त्रीनाश व कुलनाश होता है, और आम, कैथ, अगस्त्य तथा निर्गुंडी धननाशक हैं। 
परंतु पीपल शुभ दायक है।

 *#वायव्यमें—* बेल शुभदायक है।

*#उत्तरमें—* गूलर नेत्ररोग तथा ह्रास करने वाला है ।
परंतु पाकर शुभ है।

#ईशानमें— आँवला शुभदायक है।

#ईशान_पूर्वमें— कटहल एवं आम शुभदायक हैं।

*#गृहवाटिका_का_विचार—*

जो घरसे पूर्व, उत्तर, पश्चिम या
ईशान दिशामें वाटिका बनाता है, वह सदा गायत्रीसे युक्त, दान देनेवाला और यज्ञ करनेवाला होता है। 

परन्तु जो आग्नेय, दक्षिण,
नैर्ऋत्य या वायव्यमें वाटिका बनाता है, उसे धन और पुत्रकी हानि तथा परलोकमें अपकीर्ति प्राप्त होती है। 
वह मृत्युको प्राप्त होता है। वह जातिभ्रष्ट व दुराचारी होता है।

यदि घरके समीप अशुभ वृक्ष लगे हों तो अशुभ वृक्ष और घरके बीचमें शुभफल देनेवाले वृक्ष लगा देने चाहिये। 

यदि पीपलका वृक्ष घरके पास
हो तो उसकी सेवा-पूजा करते रहना चाहिये।

दिनके दूसरे और तीसरे पहर यदि किसी वृक्ष, मन्दिर
आदिकी छाया मकानपर पड़े तो वह सदा दुःख व रोग देनेवाली होती है।

घरकी जितनी ऊंचाई है उससे कुछ ज्यादा दूरीपर कोई निषिद्ध वृक्ष खड़ा है तो कोई दोष नहीं होता।
Gurucev 
Bhubneshwar 
Parnkuti guna 
9893946810

Sunday, 6 July 2025

महामृत्युंज अनुष्ठान पूजन सामग्री पर्णकुटी गुना {【9893946810】

(1)हल्दी पिसी-------------------50 ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------10गोले 
३】गुलावजल--------    100ग्राम
४】कपूर----------------   50 ग्राम
५】बताशा-----------    (01) किलो
६】 हल्दी खड़ी ------------ 150 ग्राम
७】यज्ञोपवीत ---------------   2 मुुठा
८】चावल------------------ 15 किलो
९】अबीर-------------------50 ग्राम
१०】गुलाल,---100 ग्राम (पांच प्रकार की)

११】खोपरा बूरा 500 ग्राम 
    शक्कर बूरा 500 ग्राम
१२】सिंदूर ------------------100 ग्राम
१३】रोली, ------------------100ग्राम
१४】सुपारी, ( बड़ी)--------  200 ग्राम
१५】नारियल -----------------  15 नग्
१६】सरसो पीली---------------50 ग्राम
१७】काजू -100ग्राम 
बादाम -100 ग्राम 
किशमिस -100 ग्राम 
मखाने -100 ग्राम 
खारक -100 ग्राम
पिस्ता -100 ग्राम
१८】शहद (मधु)--------------- 100 ग्राम
१९】शकर------------------0 3 किलो
२०】घृत (शुद्ध घी)------------  04 किलो
२१】इलायची (छोटी)-----------10ग्राम
२२】लौंग ----------------10ग्राम
२३】इत्र की शीशी----------------1 नग्
२४】रंग लाल----------------20ग्राम
२५】रंग काला ---------------20ग्राम
२६】रंग हरा ------------------20ग्राम
२७】रंग पिला -----------------20ग्राम
२८】भस्म-----------------100 ग्राम 
२९】धुप बत्ती ---------------2 पैकिट
30】तिल का तेल -------------2 लीटर 
(31)  दाख {बड़ी}---------------50 ग्राम
32】आँवला ----------------50ग्राम
(32)मूँग बडी-----------------200ग्राम
(33)पापाड़थेली-------------01थैली
(34 ) पीताम्बरी पूजा बर्तन साफ करने के लिए 500ग्राम 
(35)नागफनी किले 04नग
(36)कच्चा सूत  गोले 05
(37)   नग उन के गोले
(38) बांस की डालिया 1 नग
(39) पचरंगा झंडा
(40,,)चांदी का सिक्का
(41) माचिस पैकेट 
(42)उड़द खड़े
(43) दालें पांच प्रकार की मात्रा पूजा अनुसार
(44) काली हल्दी
(45) ब्राह्मण बरण वस्त्र इच्छानुसार

हवन सामग्री सदस्य अनुसार 
तिल
 जौं 
इंद्र जौ
हवन सामग्री पैकेट
कमल गट्टा
गुगल
भोजपत्र
नारियल गोला


Gurudev Bhubaneswar:
Parnkuti ashram guna
9893946810
 =======================
३०】सप्तमृत्तिका
1】 हाथी के स्थान की मिट्टि-------50ग्राम
२】घोड़ा बांदने के स्थान की मिटटी--50ग्राम
३】बॉबी की मिटटी--------------50ग्राम
४】तुलसी की मिटटी-------------50ग्राम
५】नदी संगम की मिटटी----------50ग्राम
६】तालाब की मिटटी------------50ग्राम
७】गौ शाला की मिटटी-----------50ग्राम
राज द्वार की मिटटी--------------50ग्राम
============================
३१】पंचगव्य
१】 गाय का गोबर --------------50 ग्राम
२】गौ मूत्र-------------------50ग्राम
३】गौ घृत-------------------50ग्राम
4】गाय दूध-----------------50ग्राम
५】गाय का दही ------------50ग्राम
========================
३२】सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम
१】 जौ-----------
२】गेहूँ-
३】चावल-
४】तिल-
५】काँगनी-
६】उड़द-
७】मूँग
=============================
३३】कुशा 
३४】दूर्वा
35】पुष्प कई प्रकार के 
३६】गंगाजल
३७】ऋतुफल पांच प्रकार के -----1 किलो

38】पंच पल्लव
१】बड़,
२】 गूलर,
३】पीपल,
४】आम 
५】पाकर के पत्ते)
=========================
३९】बिल्वपत्र
४०】शमीपत्र
४१】सर्वऔषधि 
     तुलसी मंजरी
      भांग 

४२】अर्पित करने हेतु पुरुष बस्त्र
४३】मता जी को अर्पित करने हेतु  
सौभाग्यवस्त्र 

बर्तन
44】

(1)जल कलश तांबे के
पूजा की थाली 
कटोरी 
लौटा
आसान
आर्घा 
गंगा सागर छोटा 
श्रृंगी अभिषेक के लिए 

मिट्टी के कलश ढक्कन सहित 5 नग
     (2) खप्पर 5 
      दोना गड्डी 


१】सफेद कपड़ा 3मीटर
२】लाल कपड़ा 2मीटर
(3)पीला कपड़ा3मीटर
४】हरा कपड़ा 1मीटर
(5) काला कपडा 1मीटर
पीला चद्दर 1
छींट का कपड़ा 2मीटर

 Gurudev Bhubaneswar: 

पान के पत्ते ------------11 नग
रुई मेडिकल वाली 500 ग्राम
बन्दनवार


 ब्राह्मणों के लिए उपयोगी 
सावुन नहाने के---------------10
सावुन कपड़े धोने के --------10
सर्फ कपडे धोने का ---------1 किलो
मंजन --------------------100ग्राम
तेल शीशी -----             1 नग 
फलाहार सामग्री 

Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti aashram
Guna
9893946810

Thursday, 5 June 2025

एकादशी निर्णय कैसे करें

केवल एकादशी-निर्णय की चर्चा की जायेगी। एकादशी को हरिवासर कहा गया है। भविष्यपुराण का वचन है—

शुक्ले वा यदि वा कृष्णे विष्णुपूजनतत्परः। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ॥

अर्थात्, विष्णुपूजा परायण होकर दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण) की ही एकादशी में उपवास करना चाहिये। लिङ्गपुराण में तो और भी स्पष्ट कहा है—

गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि॥

अर्थात्, गृहस्थ, ब्रह्मचारी, सात्त्विकी किसी को भी एकादशी [दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण)] के दिन भोजन नहीं करना चाहिये। अब प्रश्न उठता है कि एकादशी व्रत का निर्धारण कैसे हो? वशिष्ठस्मृति के अनुसार दशमी विद्धा एकादशी संताननाशक होता है और विष्णुलोकगमन में बाधक हो जाता है। यथा—

दशम्येकादशी यत्र तत्र नोपवसद्बुध:। अपत्यानि विनश्यन्ति विष्णुलोकं न गच्छति॥

अतः यह परमावश्यक है कि एकादशी दशमीविद्धा (पूर्वविद्धा) न हो। हाँ द्वादशीविद्धा (परविद्धा) तो हो ही सकती है क्योंकि ‘पूर्वविद्धातिथिस्त्यागो वैष्णवस्य हि लक्षणम्’ (नारदपाञ्चरात्र)। लेकिन वेध-निर्णय का सिद्धान्त भी सर्वसम्मत नहीं है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्पर्शवेध प्रमुख है।उनके अनुसार यदि सूर्योदय में एकादशी हो परन्तु पूर्वरात्रि में दशमी यदि आधी रात को अतिक्रमण करे अर्थात् दशमी यदि सूर्योदयोपरान्त ४५ घटी से १ पल भी अधिक हो तो एकादशी त्याग कर महाद्वादशी का व्रत अवश्य करे। यथा—

अर्धरात्रमतिक्रम्य दशमी दृश्यते यदि। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥

(कूर्मपुराण)। परन्तु कण्व स्मृति के अनुसार अरुणोदय के समय दशमी तथा एकादशी का योग हो तो द्वादशी को व्रत कर त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। यथा—

अरुणोदयवेलायां दशमीसंयुता यदि । तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥

यहाँ पुराण और स्मृति के निर्देश में भिन्नता पायी जा रही है अतः शास्त्र-सिद्धान्त से स्मृति-वचन ही बलिष्ठ होता है। अतः यही सिद्धान्त बहुमान्य है। अपने रामानन्द-सम्प्रदाय का मत है कि वैष्णवों को वेध रहित एकादशी का व्रत रखना चाहिये।यदि अरुणोदय-काल में एकादशी दशमी से विद्धा हो तो उसे छोड़कर द्वादशी का व्रत करना चाहिये—

एकादशीत्यादिमहाव्रतानि कुर्याद्विवेधानि हरिप्रियाणि। विद्धा दशम्या यदि साऽरुणोदये स द्वादशीन्तूपवसेद्विहाय ताम्॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ६७)। 
उदाहरणार्थ, भाद्रपद शु. ११ रविवार २०७० को उदया तिथि में एकादशी तो है पर पूर्ववर्ती दिन (शनिवार) दशमी की समाप्ति २८:४६ बजे हो रही है 
जो सूर्योदय (५:५२ बजे) से मात्र १घंटा ६ मि. अर्थात् पौने तीन घटी पहले है
 अतः अरुणोदय काल (२८:१६ बजे) में यह एकादशी दशमी-विद्धा है। 
फलतः इसे त्यागकर भाद्रपद शु. १२ सोमवार को पद्मा एकादशी का व्रत विहित है।
 यह वेध भी चार प्रकार का होता है- (१) सूर्योदय से पूर्व साढ़े तीन घटी का काल अरुणोदय वेध है (२) सूर्योदय से पूर्व २ घटी का काल अति-वेध है (३) सूर्य के आधे उदित हो जाने पर महावेध काल है तथा (४) सूर्योदय में तुरीय योग होता है। यथा—

घटीत्रयंसार्द्धमथारुणोदये वेधोऽतिवेधो द्विघटिस्तुदर्शनात्। रविप्रभासस्य तथोदितेऽर्द्धे सूर्येमहावेध इतीर्यते बुधैः॥ योगस्तुरीयस्तु दिवाकरोदये तेऽर्वाक् सुदोषातिशयार्थबोधकाः।

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७१-७२)। सूर्योदयकाल से पूर्व दो मुहुर्त संयुक्त एकादशी शुद्ध है और शेष सभी विद्धा हैं—

पूर्णेति सूर्योदयकालतः या प्राङ्मुहूर्तद्वयसंयुता च। अन्या च विद्धा परिकीर्तिता बुधैरेकादशी सा त्रिविधाऽपि शुद्धा॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७३)। शुद्धा एकादशी के भी तीन भेद हैं। यथा—

एका तु द्वादशी मात्राधिका ज्ञेयोभयाधिका। द्वितीया च तृतीया तु तथैवानुभयाधिका॥ तत्राद्या तु परैवास्ति ग्राह्या विष्णुपरायणैः। शुद्धाप्येकादशी हेया परतो द्वादशी यदि ॥ उपोष्य द्वादशीं शुद्धान्तस्यामेव च पारणम्। उभयोरधिकत्वे तु परोपोष्या विचक्षणैः॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७४-७६) अर्थात्, एक वह जिसमें केवल द्वादशी अधिक हो, दूसरी जिसमें दोनों अधिक हों तथा तीसरी जिसमें दोनों में कोई भी अधिक न हो। (अब इनमें से किसे ग्रहण किया जाय। जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्य-चरण का आदेश है –) इनमें से वैष्णवों को प्रथम एकादशी अर्थात् द्वादशी मात्र का ग्रहण करना चाहिये, यदि परे द्वादशी की वृद्धि हो तो शुद्ध एकादशी भी छोड़ देनी चाहिये। विज्ञ-जनों को एकादशीरहित शुद्ध षष्ठीदण्डात्मक द्वादशी में उपवास कर अगले दिन अवशिष्ट द्वादशी में ही पारण भी कर लेना चाहिये। दोनों की अधिकता में पर का उपवास करना चाहिये।



 आगे आचार्य-चरण ने अष्टविध एकादशी का वर्णन इस प्रकार किया है—

उन्मीलिनी वञ्जुलिनी सुपुण्याः सा त्रिस्पृशाऽथो खलु पक्षवर्द्धिनी । 

जया तथाऽष्टौ विजया जयन्ती द्वादश्य एता इति पापनाशिनी॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७७) अर्थात्, उन्मीलिनी,
 वञ्जुलिनी, 
त्रिस्पर्शा, 
पक्षवर्द्धिनी, 
जया, 
विजया, जयन्ती और पापनाशिनी ये आठ
 द्वादशियाँ अत्यन्त पवित्र हैं।
 पद्मपुराणानुसार भी—

एकादशी तु संपूर्णा वर्द्धते पुनरेव सा। 

द्वादशी न च वर्द्धेत कथितोन्मीलिनीति सा॥

 संपूर्णैकादशी यत्र द्वादशी च यथा भवेत्। त्रयोदश्यां मुहुर्त्तार्द्धं वञ्जुली सा हरिप्रिया॥

 शुक्ले पक्षेऽथवा कृष्णे यदा भवति वञ्जुली। एकादशीदिने भुक्त्वा द्वादश्यां कारयेद्व्रतम्॥

यहाँ स्पष्टतः कहा गया है कि शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष को यदि वञ्जुली हो तो एकादशी को भोजन कर द्वादशी का व्रत करें। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी यह वर्णन आया है।
 यथा—

एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी भवेत्।

 तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥

 पर्वाच्युतजयावृद्धौ ईश दुर्गान्तकक्षये। शुद्धाष्येकादशी त्याज्या द्वादश्यां समुपोषणम् ॥

 इनमें चार तिथिजन्य और चार नक्षत्रजन्य हैं जो इस प्रकार हैं-

१. उन्मीलनी अरुणोदय काल में सम्पूर्ण एकादशी अगले दिन प्रातः द्वादशी में वृद्धि को प्राप्त हो परन्तु द्वादशी की वृद्धि किसी भी दशा में न हो। 
२. वञ्जुली:- एकादशी की वृद्धि न होकर द्वादशी की वृद्धि हो अर्थात् त्रयोदशी में मुहुर्तार्ध द्वादशी हो। (पारण द्वादशी मध्य होनी चाहिये)।

 उदाहरणार्थ आश्विन कृष्ण ११ सोमवार २०७० को एकादशी रहते हुए भी द्वादशी की वृद्धि परिलक्षित हो रही है अतः इन्दिरा एकादशी व्रत को सोमवार को त्यागकर मंगलवार को वञ्जुली महाद्वादशी के रुप में की जायेगी।ध्यान रहे कि पारण द्वादशी मध्य विहित होने के कारण इसे ०६:०४ तक कर लेनी चाहिए।

 ३. त्रिस्पर्शा:- अरुणोदय काल में एकादशी, सम्पूर्ण दिन-रात्रि में द्वादशी तथा पर दिन त्रयोदशी हो, किन्तु किसी भी दशामें दशमीयुक्त नहीं हो। 

। ४. पक्षवर्द्धिनी:- अमावस्या अथवा पूर्णिमा की वृद्धि ।यथा वैशाख कृष्ण ११ रविवार २०७० को एकादशी वर्तमान होते हुये भी अमावस्या की वृद्धि होने के कारण वैशाख कृष्ण १२ सोमवार (पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी) को वरुथिनी एकादशी का उपवास विहित है। 
चार नक्षत्रयुक्त महाद्वादशी व्रत ये हैं यदि शुक्लपक्षीय द्वादशी

 १.पुनर्वसुयुता (जया) २. श्रवणयुता (विजया) ३. रोहिणीयुता (जयन्ती) तथा ४. पुष्ययुता (पापनाशिनी)। एकादशी (महाद्वादशी) व्रतोपवास का अन्त पारण के साथ होता है।

 कूर्मपुराणानुसार एकादशी को व्रत एवं द्वादशी को पारण होना चाहिए। किन्तु त्रयोदशी को पारण नहीं होना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से १२ एकादशियों के पुण्य नष्ट हो जाते हैं ।

 उदाहरणार्थ 
चैत्र शु. ११ सं. २०७० (२२ अप्रिल २०१३ सोमवार) के दिन कामदा एकादशी है अतः परवर्ती दिन मङ्गलवार अर्थात् २३ अप्रिल २०१३ को पारण करना होगा। परन्तु ध्यान रहे कि पारण सूर्योदयोपरान्त ७:४९ बजे के पहले ही कर लेना होगा। परन्तु एक दिन पूर्व दशमीयुक्ता एकादशी हो और दूसरे दिन एकादशीयुक्ता द्वादशी तो उपवास तो द्वादशी को होता है, किन्तु यदि उपवास के बाद द्वादशी न हो तो त्रयोदशी के दिन पारण होगा।उदाहरणार्थ फाल्गुन कृष्ण ११ मंगलवार सं. २०७० (२५ फरवरी २०१४) के अरुणोदयकाल में दशमी है और सूर्योदय में एकादशी है अतः आचार्य-चरण के अनुसार यह एकादशी दशमीविद्धा अतः अकरणीय है। अतः विजया एकादशी का व्रतोपवास फाल्गुन कृष्ण १२ बुधवार सं. २०७० (२६ फरवरी २०१४) को होगा । परन्तु अगले दिन गुरुवार २७ फरवरी २०१४ को त्रयोदशी तिथि है अतः द्वादशी तिथि की अप्राप्ति में त्रयोदशी को ही पारण होगा।जैसा कि वायुपुराण में कहा है-

कलाप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्। पुण्यं क्रतुशतस्योक्तं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥

एक और भी बात। पारण में आचार्य-चरण ने यह भी आदेश किया है कि

आषाढ़भाद्रोर्जसितेषु संगता मैत्रश्रवोऽन्त्यादिगताद्व्युपान्त्यैः। चेद्द्वादशी तत्र न पारणं बुधः पादैः प्रकुर्याद्व्रतवृंदहारिणी॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७८)। अर्थात् यदि द्वादशी आषाढ़, भाद्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष में अनुराधा, श्रवण, रेवती के आदि चरण, द्वितीय चरण और तृतीय चरण के साथ संयुक्त हो तो उसमें विद्वान् पारण न करे, 
क्योंकि वह समस्त व्रतों का नाशक है। अतः व्रतोपवास हेतु एकादशी-निर्णय एवं व्रत-समाप्ति के लिए उसके पारण-काल का निर्णय एकादशी का परमावश्यक अङ्ग है।

Friday, 23 May 2025

बर्षा योग

प्रसव (वर्षा) का समय

शुक्ल पात का गर्भ, कृष्ण पाल में और कृष्ण पक्ष का शुक्ल पक्ष में प्रसवित,

दिन का रात्रि में और रात्रि का दिन में

संध्या का विपरीत संध्या में.

विपरीत दिशा में अर्थात् यदि गर्भ के समय मेघ पूर्व दिशा से उठते हैं तो वर्षा ऋतु

में पश्चिम दिशा से उठेंगे, तदानुसार
हवा की दिशा विपरीत होगी.

गर्भोपघात के लक्षण

यदि प्रसव के समय विपरीत परिस्थियों हो तो गर्म स्थिर नहीं रह पाता और वर्षा नहीं होती, इस अवस्था की गर्मीपघात कहते हैं, इसके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं।

उल्कापात, ग्रहण, धूमकेतु का उदय होना.

किसी दिशा में आकाश का लाल होना, तूफान आना.

भूकंप, भूस्खलन, विस्फोट, बाढ़ आना, भयंकर आग लगना या गैस रिसाव, युद्ध का होना भारी वर्षा का होना
> यहाँ का अतिचारी या मंदचारी होना.


ग्रह स्थिति / संचरण से वर्षा विचार

बुध, शुक्र व शनि के उदय व अस्त के समय वर्षा होती है।
शनि और मंगल के राशि परिवर्तन करते समय वर्षा होती है।
यह वक्री होने से भी वर्षा की संभावना बनती है। सूर्य, सिंह राशि में होने पर वर्षा का योग नहीं बनता लेकिन कर्क राशि में हो तो हल्की वर्षा होती है।शुक्र स्थित राशि से सप्तम राशि में चन्द्रमा, बुध, शुक्र व गुरु में कोई एक या अधिक ग्रह हो तो वर्षी होने के अच्छे योग होते हैं।
जब बुध-गुरु, बुध-शुक्र, गुरु-शुक्र और शनि-मंगल की युति हो तथा उन पर बुध, शुक या गुरु की दृष्टि या प्रभाव न हो तो तेज हवा चलती है और तापमान बढ़ता है। सूर्य से धीमी गति वाला यह आगे तथा तेज गति यह पीछे रहने की स्थिति में अच्छी वर्षा के योग होते हैं।आगे मंगल और पीछे सूर्य हो, तो समस्त बादलों को सोख लेते हैं लेकिन आगे सूर्य और पीछे मंगल हो तो अच्छी वर्षा व फसल होती है।जब समस्त ग्रह सूर्य से आगे या पीछे हो तो अच्छी वर्षा होन सूर्य यदि बुध व शुक्र के समीप हो तो वर्षी होती है लेकिन होने से वर्षा नहीं होती।
वराहमिहिर रचित बृहत संहिता में मेघ गर्भ धारण का उल्लेख है, अनेक अन्य खगोलविर्दा ने भी इसका विस्तृत वर्णन किया है, कश्यप ऋषि के अनुसार-
सितादी मार्गशीर्षस्य प्रतिपद् दिवसे तथा। पूर्वाषाढ़गले चन्द्रे गर्भाणां धारणं भवेत् ॥

अर्थात् मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आता है तब वहाँ से कहना चाहिए (लगभग दिसंबर मध्यः इस वर्ष 

गर्भ-लक्षण 
मेध-गर्भ धारण के समय सामान्य आकाशीय लक्षणों से ग्रहों विम्बों के आकार बड़े होना, ग्रहो की किरण कोमल होना, नक्षत्रों के गमन मार्ग की दिशा उत्तर/उत्तर-पूर्व/पूर्वी होना, हवा का मध्यम व कोमल गति से चलना, आसमान साफ रहना, सूर्य व चन्द्रमा की चमक अधिक होना, चन्द्रमा सूर्य के चारों और बादलों का गोलाकार वलय बनना, सध्या समय इन्द्रधनुष दिखना, मधुर गर्जन होना शामिल है।

तत्पश्चात् आकाश में जिस दिन बादल दिखाई दे, वह उस मेघ का गर्भ धारण कहलाता है।

यह प्रक्रिया चैत्र शुक्ल पक्ष (लगभग अप्रैल मध्य) तक जारी रहती है।

चन्द्रमा के जिस नक्षत्र में जाने से गर्भ होता है, उसके 195 सूर्य-दिवस के उपरान्त उसी नक्षत्र में पन्द्रमा के आने से प्रसव होता है।

उत्तम गर्भ के लक्षण

बादल चाँदी या मोती के समान श्वेत हो या बादलों का रंग गहरा सलेटी हो.

वायु उत्तर, उत्तर-पूर्व अथवा पूर्व दिशा से बह रही हो.

आकाश स्वच्छ हो.

प्रातः काल / सायंकाल आकाश में चिकने और लालिमा युक्त बादल ही या इन्द्रधनुष

दिखाई दें.

गर्जला हो या बिजली चमके.

नक्षत्रफल

उत्तम वर्षा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, पूर्वाषाढा और रोहिणी.

वर्षा शतभिषा, आश्लेषा, आर्दा, स्वाति और मया,

यदि गर्भ के समय नक्षत्र पर सूर्य, मंगल, शनि, राहू या केतु की दृष्टि हो तो वर्षा के साथ ओले भी पड़तें है और विद्‌युतपात भी होता है. उयदि नक्षत्र पर बुध, शुक्र या चन्द्रमा की दृष्टि या युति हो तो बहुत वर्षा होती है.


प्रसव (वर्षा) का समय

> शुक्ल पक्ष का गर्भ, कृष्ण पक्ष में और कृष्ण पक्ष का शुक्ल पक्ष में प्रसवित > दिन का रात्रि में और रात्रि का दिन में.

संध्या का विपरीत सध्या में

विपरीत दिशा में अर्थात् यदि गर्भ के समय मेघ पूर्व दिशा से उठते हैं तो वर्षा ऋतु में पश्चिम दिशा से उठेंगे, लदानुसार,

हवा की दिशा विपरीत होगी.

गर्भोपघात के लक्षण

यदि प्रसव के समय विपरीत परिस्थियों हो तो गर्भ स्थिर नहीं रह पाता और वर्षा नहीं होती, इस अवस्था को गपिधात कहते हैं. इसके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं।





नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति पर आधारित चक्र / योग

आर्दा प्रवेश चक्र मानसून की वर्षा के पूर्वानु‌मान के किये सूर्य के आर्दा नक्षत्र में प्रवेश के समय की ग्रहस्थिति को आर्दा प्रवेश धक्र कहते हैं. इसका खगोलीय व ज्योतिषीय विश्लेषण वर्षा पूर्वानुमान में बहुत सहायक होता है यहीं से वर्षा ऋतु का आरम्भ माना जता है (लगभग 21-22 जून) और आर्दा, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता और चित्रा इन 9 नक्षत्रों में सूर्य-संचरण की अवधि वर्षा-ऋतु कहलाती है। लगभग 24 अक्टूबर तक)।

सूर्य-संक्रांति चक्र सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। और राशि-परिवर्तन के समय की यह स्थिति चक्र को सूर्य-संक्रांति चक्र कहा जाता है।

रोहिणी-योग- आषाड़ माह के कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा जब रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तो वह रोहिणी योग बनाता है. इस समय वायु एवं बादलों के आकार का निरिक्षण करके निकट भविष्य में वर्षा की माग की जानकारी देते हैं। वायु का समय, वेग एवं अवधिः वर्षा की मात्रा व कालावधि का निधारण करती हैं।

सप्तनाड़ी चक इस चक्र में सात नाड़ियों में चार-चार नक्षत्रों की कल्पना की गई है. जिनकी प्रकृति के आधार पर वर्षा का पूर्वानुमान किया जाता है।

* मेघ-गर्भ बादलों की प्रारम्भिक उत्पत्तिा


नाड़ियों में ग्रह-स्थिति का फल

सामान्यतयाः जो यह अपनी नाडी में होता है, वह उसी नाडी क मंगल जिस भी नाडी में होता है, उसका फल देता है।

एक नाडी में एक से अधिक यह होने पर संयुक्त प्रकृति के अनुसार फल देते हैं।

निर्जल नाडी में चन्द्र, बुध व शुक्र आदि एक से अधिक जलद ग्रह हो तो वह जलद नाड़ी बन जाती है।

जलद नाडी में सूर्य, मंगल व शनि आदि एक से अधिक निर्जल यह हो तो वह निर्जल नाडी बन जाती है।

यदि चन्द्रमा, बुध, गुरु या शुक्र के साथ जलद नाही में हो तो तब तक वर्षा होती है

जब तक चन्द्रमा उस नाड़ी में रहता है।

चन्द्र, मंगल व गुरु एक ही नाही में हो तो भारी वर्षा होती है।



मेघ-गर्भ

वराहमिहिर रचित बृहत संहिता में मेघ गर्भ धारण का उल्लेख है, अनेक अन्य खगोलविर्दा ने भी इसका विस्तृत वर्णन किया है, कश्यप ऋषि के अनुसार-

सितादाँ मार्गशीर्षस्य प्रतिपद् दिवसे तथा।
पूर्वाषाढ़गले चन्द्रे गर्माणां धारणं भवेत् ॥

अर्थात् मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आता है तब वहाँ से गर्भ-लक्षण कहना चाहिए (लगभग दिसंबर मध्यः इस वर्ष 

मेघ-गर्भ धारण के समय सामान्य आकाशीय लक्षणों में यहाँ बिम्बों के आकार बड़े होना, ग्रहो की किरण कोमल होना, नक्षत्री के गमन मार्ग की दिशा उत्तर/उत्तर-पूर्व पूर्वी होना, हवा का मध्यम व कोमल गति से चलना, आसमान साफ रहना, सूर्य व




नक्षत्र

पुरुष नक्षत्र- आर्दा, पुनर्वसु पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा स्वाति।

स्त्री नक्षत्र मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी व मृगशिरा ।

नपुंसक नक्षत्र विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा।

वर्षाकाल के दौरान सूर्य और चन्द्र की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति से वर्षों का विचार किया जाता है। इनकी स्थिति क्रमशः

पुरुष व स्त्री हो तो वर्षाकारका

स्त्री व पुरुष हो तो अधिक वर्षाकारकः

स्त्री व नपुसंक हो तो कम वर्षाकारक,

स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष हो तो बादल छाये रहने की संभावना, तया

नपुसंक-नपुसक हो तो अनावृष्टि समझना चाहिए।


सप्तनाड़ी चक्र

बारहवी शताब्दी के नरपति जयधर्या में सप्तनाही चक्र का विस्तृप्त वर्णन है. इसमें अभिजित् सहित 28 नक्षत्रों को 7 भागी में बांटा गया है। प्रत्येक भाग (नाही) के विशिष्ट लक्षण निम्नानुसार होते हैं।

प्रकृति नाही

स्वामी यह

शनि

सूर्य

प्रचंडवायु, आंधी, तुफान तेज हावा

मगल

निर्जन

वायु

दहन

रेवली

तापमान बढना

उत्तराभाद्रप

बादर बनना

पुनर्वसु

चन्द्र

पूर्वाषाढा

अच्छी वर्षा

भारी वर्षी

नीर

जलद जिल

अमृत


नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति पर आधारित चक्र / योग

*आदी प्रवेश चक्र मानसून की वर्षा के पूर्वानुमान के किये सूर्य के आदी नाक्षत्र में प्रवेश के समय की ग्रह‌स्थिति को आर्दा प्रवेश चक्र कहते हैं. इसका खगोलीय व ज्योतिषीय विश्लेषण वर्षा पूर्वानुमान में बहुत सहायक होता है यहीं से वर्षा ऋतु का आरम्भ माना जता है (लगभग 21-22 जून) और आर्दा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता और चित्रा इल इन 9 नक्षत्रों में सूर्य-संचरण की अवधि वर्षा-ऋतु कहलाती है। लगभग 24 अक्टूबर तक)।

*सूर्य-संक्रांति चक्र सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। और राशि परिवर्तन के समय की यह स्थिति चक्र को सूर्य-संक्रांति चक्र कहा जाता है। रोहिणी-योग- आषाड़ माह के कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा जब रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तो वह रोहिणी योग बनाता हैं, इस समय वायु एवं बादली के आकार का निरिक्षण





ग्रह

> सूर्य ग्रीष्मऋतु, पूर्व-दिशा, अग्नि, आकाश शुष्वा गर्न पुलिंग पन्टमा के साथ मिलकर मौसम को चरमसीसा की और ले जाता है. शुक्र के साथ मिलकर बादलवर्षा का योग बनाता है।

चन्द्रमा वर्षाऋतु, उत्तरपश्चिम दिशा राजबली, स्वीलिंग, खेती, ठंडी, तरल पदार्थ, पानी, गौलेपन अकर राशि मै चन्द्रमा के साथ वर्षाकारक।

>मगल- ग्रीष्मऋतु, दक्षिण दिशा, रात्रि के अंत में बनी, गर्मी, भूमि, अग्नि, पुल्लिंग, खेत, मौसम की पराकाष्ठाः सूर्य-हानि के साथ मिलकर सूखे का योग बनाना।

बुध शरदऋतु, उत्तर-दिशाः प्रात कालबली, नंपुसकता, ठंडा, नमी, वायु, उदवाव साफ मौसमा

गुरु हेमंतऋतु, अत्तरपूर्व-दिशा, फसल, शीतल-मंद-समीर, शुष्कता, पुल्लिंग, साफ मौसमका कारण ताप बढ़ाने में सक्षम ।

>शुक्र वसंतऋतु, दक्षिणपूर्व-दिशा, जलस्थान, गर्म, नम, स्त्रीलिंग, मध्याहनातर, कृषि उत्पाद, निम्तदबाव, हिमपात, आदत संगार के साथ मिलकर फरक

शनि- शिशिरऋतु, पश्चिम दिशा, नंपुसक, ठंडा, शुष्क, ठंडा सीलन मुक्त मौसम, कमदबाव का क्षेत्र, ताप व वर्षा में गिरावटः सूर्व के साथ मिलकर ध्धता ठंडा मौसम बनाने वाला समान मौसम कनाका रखने वाला राहू। केतु से सबंध होने पर वर्षों के साथ ले और विदयुत्पात की समावना होती है।


राशियाँ

पुरुष राशि -विसम राशि (मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ)

स्त्री राशि

सम राशि (वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन)

दिनबली रात्रिबली मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, धनु, मकर।

सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुम्भ, मीन।

मेष- अग्नितत्व, पूर्व-दिशा, शुष्क, उग्रप्रकृति, गर्म, वायुकारक, चर।

वृष भूमितत्व दक्षिण-दिशा शीतल, कान्ति-रहित, नमी, अर्द्धजल-राशि ।

नियुन- वायुतत्व, पश्चिम-दिशा, शुष्क, उष्ण।

कर्क जलतत्व, उत्तर दिशा, ठंडी, गीली ।

सिंह अग्नितत्व, पूर्व-दिशा, उष्ण, शुष्क, निर्जल-राशि।

कन्या पृथ्वीतत्व, दक्षिण दिशाः वायुकारक, शीतल, शुष्क

तुजा वायुतत्व, पश्चिम दिशा, ठंडी, श्याम-वर्ण, जल-राशि।

वृश्चिक जलतत्व, उत्तर-दिशा: अर्द्धजल राशि, मौसम की चरमसीमा की और से जाने वाली।

धनु अग्नितत्व पूर्व-दिशा, क्रूर. शुष्क, अर्धजल-राशि।

मकर- पृथ्वीतत्व, दक्षिण-दिशा, ठंडी, तूफानकारक।

कुम्भ- अयुतत्व पश्चिम दिशा, स्थिरसंशक, विद्‌युतकारक, उष्ण, अर्द्धजला

भौन जलतत्व, उत्तर-दिशाः ठंडी, नम।


नक्षत्र

पुरुष नक्षत्र आदी, पुनर्वसु पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा

वै स्वाति।

स्वी नक्षत्र मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद, रेवती. अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी व मृगशिरा।

नपुंसक नक्षत्र- विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा।

वर्षाकाल के दौरान सूर्य और चन्द्र की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति से वर्षा का

विचार किया जाता है। इनकी स्थिति क्रमशः


पुरुष व स्त्री हो तो वर्षाकारक,

स्त्री व पुरुष हो तो अधिक वर्षाकारक,

स्त्री व नपुसंक हो तो कम वर्षाकारक,

स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष हो तो बादल छाये रहने की संभावना, तथा

नपुसक नपुसक हो तो अनावृष्टि समझना चाहिए।



Sunday, 18 May 2025

#नवतपा 2025#

नौतपा में अबकी बार पड़ेगी प्रचंड गर्मी, जानें कब से कब तक लगेगा नौतपा

ज्योतिषाचार्य गुरुदेव भुननेश्वर पर्णकुटी आश्रम  ने बताया की सूर्य 15 दिनों के लिए रोहिणी नक्षत्र में रहते हैं, जिसके शुरुआती 9 दिनों को नौतपा कहा जाता है. नौतपा के 9 दिन अगर भीषण गर्मी पड़ती है तो यह बारिश होने के अच्छे संकेत होते हैं. लेकिन नौतपा के दौरान बारिश हो जाती है तो फिर यह फसलों के लिए अच्छा नहीं माना जाता है. 25 मई से 2025 से सूर्य रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करेंगे, जिससे नौतपा की शुरुआत होगी, हर साल सूर्य देव 15 दिनों के लिए रोहिणी नक्षत्र में गोचर करते हैं और इन्हीं 15 दिन के शुरुआती नौ दिनों को नौतपा के नाम से जाना जाता है.इस बार 25 मई को प्रात:9:40से नौतपा की शुरुआत हो रही है. जब सूर्य रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करेगे. यह अवधि 15 दिनों तक चलेगी और रोहिणी नक्षत्र का समापन 8 जून प्रात:07:27 को होगा, उसके बाद सूर्य मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश करेगा.  अत: 25 मई से 02 जून तक नव तपा का योग बन रहा है गुरुदेव भुवनेश्वर ने बताया  रोहिणी नक्षत्र शुक्र देव का नक्षत्र होता है और शुक्र देव सूर्य देव के शत्रु नक्षत्र माने गए हैं, इसलिए जब सूर्य और शुक्र मिलते हैं तो इसी वजह से भीषण गर्मी पड़ती है.  तपा लगने के दौरान चंद्रदेव नौ नक्षत्रों में भ्रमण करते हैं इसलिए शीतलता का प्रभाव नौतपा के दौरान हट जाता है ज्योतिष शास्त्र में जब चंद्रमा ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र तक अपनी स्थितियों में हो एवं तीव्र गर्मी पड़े, तो ये स्थिति नौतपा कहलाती है। अगर रोहिणी के दौरान अगर बारिश हो जाती है तो इसे रोहिणी नक्षत्र का गलना भी कहा जाता है।

ज्येष्ठ मासे सीत पक्षे आर्द्रादि दशतारका।
सजला निर्जला ज्ञेया निर्जला सजलास्तथा।।

 धार्मिक मान्यता है कि अगर नौतपा के इन 9 दिनों में बारिश नहीं होती, तो उस साल बारिश भी जोरदार होती है। 


अगर नो तपा न तपे तो जहरीले जीव-जंतु और फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट पतंगे खत्म नहीं होंगे. 

टिड्डियों के अंडे नष्ट नहीं होंगे, 

बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे. 

सांप-बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे. 

लू नहीं चलने के कारण आंधियां फसलों को चौपट कर सकती है. 

यही वजह है कि नौतपा में भीषण गर्मी पड़ना अच्छा माना जाता है. घाघ भद्दरी के अनुसार 

 दो मूसा, दो कातरा, दो तीड़ी, दो ताय।

दो की बादी जल हरे दो विश्वर दो वाव

कहने का मतलब  

नौतपा के पहले 2 दिन लू न चले तो चूहे बहुत हो जाएंगे। 

अगले 2 दिन लू न चले तो कातरा (फसल को नुकसान पहुंचाने वाला कीट) नहीं मरेगा। 

. तीसरे दिन से 2 दिन लू न चली तो टिडियों के अंडे नष्ट नहीं होंगे। 

चौथे दिन से 2 दिन नहीं तपा तो बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे। 

इसके बाद दो दिन लू न चली तो विश्वर यानी सांप-बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। 

आखिरी दो दिन भी लू नहीं चली तो आंधियां अधिक चलेंगी और फसलें चौपट कर देंगी।

इस वार नव तपा के दौरान आगजनी  तेज हवाएं, आंधिया और फिर बरसा के योग बनते नजर आ रहे है नौ दिन में से अंतिम 3 दिन हवाएं खूब तेज चलेगी। कहीं-कहीं मध्यम बारिश की संभावना है तो कहीं बौछारें भी हो सकती है। नौतपा का समय हमेशा गर्मी और सूर्य की प्रचंड तपिश के लिए प्रसिद्ध होता है। इस समय सूर्य देव पृथ्वी के बहुत करीब आ जाते हैं जिससे गर्मी की तीव्रता अपने चरम पर पहुंच जाती है। 

Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti
9893946810

2025 में #होलिका दहन कब है

गुरुदेव भुवनेश्वर जी महाराज ने बताया है कि होलिका दहन 13 मार्च को देर रात होगा। होलिका दहन का शुभ मुहूर्त रात 11 बजकर 26 मिनट से लेकर रात 12 बजकर 30 मिनट तक रहेगा। इसी समय होलिका दहन किया जाएगा। होलिका दहन के दिन सबसे पहले गोबर की होलिका और प्रहलाद की प्रतिमा बनाकर तैयार कर लें।ओर गोबर की मलरिया की माला 
भरभोलिए (गाय के गोबर के उपले जिसमें छेद रहता है, इसमें मूंज की रस्सी डालकर माला बनाई जाती है)
तैयार कर लेवे
 उसके बाद पूजा की थाली में रोली, चावल, नारियल,, कलावा,, कच्चा सूत, ,फूल,  दूर्वा ,साबुत हल्दी, ,बताशे,,मिठाई ,,घर में बने हुए पकवान, फल पूजा के लिए जल से भरा जल कलश आदि रखें। फिर पूजा स्थल पर एक कलश में पानी भरकर रख दें। इस बात का ध्यान रखें कि पूजा के दौरान आपको अपना मुख पूर्व या उत्तर की ओर रखना है। अब नरसिंह भगवान का ध्यान करते हुए उन्हें रोली, चावल, मिठाई, फूल आदि अर्पित करें। इसके बाद होलिका दहन वाले स्थान पर जाकर होलिका की पूजा करें। फिर प्रह्लाद का नाम लेकर फूल अर्पित करें और उन्हें 5 अनाज चढ़ाएं। 
होलिका के लिए मंत्र: ओम होलिकायै नम:
भक्त प्रह्लाद के लिए मंत्र: ओम प्रह्लादाय नम:
भगवान नरसिंह के लिए मंत्र: ओम नृसिंहाय नम:
इसके बाद एक कच्चा सूत लेकर होलिका की परिक्रमा करें और आखिरी में उसमें गुलाल डालकर जल अर्पित करें।
होलिका दहन के दिन शरीर से उतारे गए उबटन को होलिका में अवश्य जलाना चाहिए-

 होलिका की आग में कपड़े, टायर आदि चीजें डाल देते हैं, जिससे ना सिर्फ होलिका की अग्नि अपवित्र होती है बल्कि प्रदूषण भी होता है. साथ ही इन चीजों का संबंध राहु और मंगल ग्रह से है, अगर आप होलिका की अग्नि में इन चीजों का डालते हैं तो कुंडली में इन ग्रहों का प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता 

शास्त्रों के अनुसार, साल में तीन रात्रियां अत्यंत शुभ मानी जाती हैं- (1,)महाशिवरात्रि, (2)होलिका दहन और (3)दीपावली की अमावस्या. होली की रात का विशेष महत्व है, खासकर उन लोगों के लिए जो लंबे समय से परेशानियों का सामना कर रहे हैं. यह रात विशेष रूप से उन समस्याओं को समाप्त करने में मददगार होती है जो लंबे वक्त से परेशान कर रही हों. सही उपाय करने से व्यक्ति की बाधाएं दूर होती हैं और जीवन में नई सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है.
घर में अगर कोई सदस्य लंबे समय से बीमार है, तो होली की रात भगवान नरसिंह का स्तोत्र पाठ करें.
एवं होलिका दहन की राख को शिवलिंग पर अर्पित करना शुभ माना जाता है. मान्यता है कि इससे शनि की महादशा, साढ़ेसाती और ढैय्या के प्रभाव कम हो जाते हैं, जिससे रुके हुए कार्य बनने लगते हैं. यह उपाय राहु-केतु के नकारात्मक प्रभाव को भी कम करने में सहायक होता है और वैवाहिक जीवन में खुशियाँ लाता है होलिका दहन की राख को लाल कपड़े में रखकर उसमें तांबे का सिक्का डालकर बांध लें और इसे तिजोरी या पैसे रखने वाले स्थान पर रखें. ऐसा करने से घर में धन-संपत्ति का आगमन होता है और देवी लक्ष्मी की कृपा बनी रहती है.जो लोग बार-बार बीमार पड़ते हैं, उन्हें एक महीने तक प्रतिदिन होलिका दहन की राख को माथे पर लगाना चाहिए. ऐसा करने से स्वास्थ्य में सुधार होता है और व्यक्ति पूर्णतः स्वस्थ महसूस करता है. बच्चों को बुरी नज़र से बचाने के लिए होलिका दहन की राख को उनके माथे पर तिलक के रूप में लगाएँ. यह उपाय बच्चों की सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है.
एक काला कपडा लें और उसमें काले तिल, 7 लौंग, 3 सुपारी, 50 ग्राम सरसों और ओर थोड़ी सी मिट्टी लेकर एक पोटली बना लें. इसे खुद पर से 7 बार उतारा कर लें और होलिका दहन में डालें.
यदि राहु के कारण परेशानी है तो एक नारियल का गोला लेकर उसमें अलसी का तेल भरें. उसी में थोड़ा सा गुड़ डालें और इस गोले को जलती हुई होलिका में डाल दें. इससे राहु का बुरा प्रभाव समाप्त हो जाएगा.
बेरोजगार हैं तो होली की रात 12 बजे से पहले एक नींबू लेकर चौराहे पर जाएं और अपने सिर से सात बार घुमाकर उसके चार टुकड़े कर चारों दिशाओं में फेंक दें. वापिस घर आ जाएं किन्तु ध्यान रहे, वापस आते समय पीछे मुड़कर न देखें.
इसके अलावा होलिका दहन में पान के पत्ते का भी एक उपाय करना चाहिए। इसके लिए एक पान का पत्ता लें और इस पान के पत्ते को घी में डूबा दें, इसके बाद इश पर एक बताशा रख लें। इसके बाद इसे होलिका दहन में डाल दें, इससे भी मां लक्ष्मी की कृपा मिलती है।
अगर आपको नौकरी नहीं मिल रही या पदोन्नति में अड़चनें आ रही हैं, तो होली की रात 8 नींबू लेकर उन्हें अपने ऊपर से 21 बार उल्टी दिशा में वारें और फिर जलती होलिका में डाल दें. इसके बाद होलिका की 8 परिक्रमा करें और मन ही मन अपने करियर से जुड़ी इच्छा पूरी होने की प्रार्थना करें.
होलिका दहन के दिन सरसों के दाने और काले तिल अपने ऊपर से वारकर सरसों के दानें और काले तिल डाल दें। इससे आपकी नेगेटिविट दूर होगी।

Monday, 5 May 2025

ram katha

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)

■ काष्ठा = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि  = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुटि  = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■3 होरा=1प्रहर व 8 प्रहर 1 दिवस (वार)
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग   त्रेतायुग   द्वापरयुग   कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय  = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यहीं है जो हमारे देश भारत में बना हुआ है । ये हमारा भारत जिस पर हमे गर्व होना चाहिये l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)

■ काष्ठा = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि  = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुटि  = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■3 होरा=1प्रहर व 8 प्रहर 1 दिवस (वार)
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग   त्रेतायुग   द्वापरयुग   कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय  = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )

सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यहीं है जो हमारे देश भारत में बना हुआ है । ये हमारा भारत जिस पर हमे गर्व होना चाहिये l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।

तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।

Thursday, 1 May 2025

चौषठ योगनी

चौसठ योगिनी का उल्लेख पुराणों में मिलता है जिनकी अलग अलग कहानियां है । इनको आदिशक्ति मां काली का अवतार बताया है
कहा जाता है घोर नामक दैत्य के साथ युद्ध करते हुए माता ने ये अवतार लिए थे। यह भी माना जाता है कि ये सभी माता पर्वती की सखियां हैं।

ब्रह्म वैवर्त पुराण में भी इन योगिनियों का वर्णन है लेकिन इस पुराण के अनुसार ये ६४ योगिनी कृष्ण की नासिका के छेद से प्रकट हुईं हैं
चौसठ योगिनियों की पूजा करने से सभी देवियों की पूजा हो जाती है। इन चौंसठ देवियों में से दस महाविद्याएं और सिद्ध विद्याओं की भी गणना की जाती है। ये सभी आद्या शक्ति काली के ही भिन्न-भिन्न अवतार रूप हैं। कुछ लोग कहते हैं कि समस्त योगिनियों का संबंध मुख्यतः काली कुल से हैं और ये सभी तंत्र तथा योग विद्या से घनिष्ठ सम्बन्ध रखती हैं।

हर दिशा में 8 योगिनी फ़ैली हुई है, हर योगिनी के लिए एक सहायक योगिनी है, हिसाब से हर दिशा में 16 योगिनी हुई तो 4 दिशाओ में 16 × 4 = 64 योगिनी हुई । ६४ योगिनी ६४ तन्त्र की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है। एक देवी की भी कृपा हो जाये तो उससे संबंधित तन्त्र की सिद्धी मानी जाती है। चौंसठ योगिनियों के नाम इस प्रकार हैं – 1.बहुरूप, 3.तारा, 3.नर्मदा, 4.यमुना, 5.शांति, 6.वारुणी 7.क्षेमंकरी, 8.ऐन्द्री, 9.वाराही, 10.रणवीरा, 11.वानर-मुखी, 12.वैष्णवी, 13.कालरात्रि, 14.वैद्यरूपा, 15.चर्चिका, 16.बेतली, 17.छिन्नमस्तिका, 18.वृषवाहन, 19.ज्वाला कामिनी, 20.घटवार, 21.कराकाली, 22.सरस्वती, 23.बिरूपा, 24.कौवेरी, 25.भलुका, 26.नारसिंही, 27.बिरजा, 28.विकतांना, 29.महालक्ष्मी, 30.कौमारी, 31.महामाया, 32.रति, 33.करकरी, 34.सर्पश्या, 35.यक्षिणी, 36.विनायकी, 37.विंध्यवासिनी, 38. वीर कुमारी, 39. माहेश्वरी, 40.अम्बिका, 41.कामिनी, 42.घटाबरी, 43.स्तुती, 44.काली, 45.उमा, 46.नारायणी, 47.समुद्र, 48.ब्रह्मिनी, 49.ज्वाला मुखी, 50.आग्नेयी, 51.अदिति, 51.चन्द्रकान्ति, 53.वायुवेगा, 54.चामुण्डा, 55.मूरति, 56.गंगा, 57.धूमावती, 58.गांधार, 59.सर्व मंगला, 60.अजिता, 61.सूर्यपुत्री 62.वायु वीणा, 63.अघोर और 64. भद्रकाली।
योगिनीस्तोत्रसारं च श्रवणाद्धारणाद् यतिः ।
अप्रकाश्यमिदं रत्नं नृणामिष्टफलप्रदम् ॥ ३१-३७॥

यस्य विज्ञानमात्रेण शिवो भवति साधकः ॥ ३१-३८॥

कङ्काली कुलपण्डिता कुलकला कालानला श्यामला ।
योगेन्द्रेन्द्रसुराज्यनाथयजिताऽन्या योगिनीं मोक्षदा ।
मामेकं कुजडं सुखास्तमधनं हीनं च दीनं खलं
यद्येवं परिपालनं करोषि नियतं त्वं त्राहि तामाश्रये ॥ ३१-३९॥

यज्ञेशी शशिशेखरा स्वमपरा हेरम्बयोगास्पदा ।
दात्री दानपरा हराहरिहराऽघोरामराशङ्करा ।
भद्रे बुद्धिविहीन देहजडितं पूजाजपावर्जितं
मामेकार्भमकिञ्चनं यदि सरत्त्वं योगिनी रक्षसि ॥ ३१-४०॥

भाव्या भावनतत्परस्य करणा सा चारणा योगिनी ।
चन्द्रस्था निजनाथदेहसुगता मन्दारमालावृता ।
योगेशी कुलयोगिनी त्वममरा धाराधराच्छादिनी
योगेन्द्रोत्सवरागयागजडिता या मातृसिद्धिस्थिता ॥ ३१-४१॥

त्वं मां पाहि परेश्वरी सुरतरी श्रीभास्करी योगगं
मायापाशविबन्धनं तव कथालापामृतावर्जितम् ।
नानाधर्मविवर्जितं कलिकुले संव्याकुलालक्षणं
मय्येके यदि दृष्टिपातकमला तत् केवलं मे बलम् ॥ ३१-४२॥

मायामयी हृदि यदा मम चित्तलग्नं
     राज्यं तदा किमु फलं फलसाधनं वा ।
इत्याशया भगवती मम शक्तिदेवी
     भाति प्रिये श्रुतिदले मुखरार्पणं ते ॥ ३१-४३॥

या योगिनी सकलयोगसुमन्त्रणाढ्या
     देवी महद्गुणमयी करुणानिधाना ।
सा मे भयं हरतु वारणमत्तचित्ता
     संहारिणी भवतु सोदरवक्षहारा ॥ ३१-४४॥

यदि पठति मनोज्ञो गोरसामीश्वरं यो
     वशयति रिपुवर्गं क्रोधपुञ्जं विहन्ति ।
भुवनपवनभक्षो भावुकः स्यात् सुसङ्गी
     रतिपतिगुणतुल्यो रामचन्द्रो यथेशः ॥ ३१-४५॥

एतत्स्तोत्रं पठेद्यस्तु स भक्तो भवति प्रियः ।
मूलपद्मे स्थिरो भूत्त्वा षट्चक्रे राज्यमाप्नुयात् ॥ ३१-४६॥

इति श्रीरुद्रयामले उत्तरतन्त्रे महातन्त्रोद्दीपने षट्चक्रप्रकाशे
सिद्धिमन्त्रप्रकरणे भैरवभैरवीसंवादे भेदिन्यादिस्तोत्रं
नाम एकत्रिंशः पटलः ॥
  महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती की तीनों की सहचरी योगिनी पृथक पृथक है और प्रत्येक में कुछ भेद है इस विषय पर चलचित्र के द्वारा अवगत करवा दिया जायेगा।।

Thursday, 24 April 2025

वर्धिनी कलश कौन कौन से है

🌷💐गृह प्रवेश:- 🌷💐
वर्धिनी कलश पूजनमंत्र- वर्धिनी त्वं महापूता महातीर्थोदकान्विता । त्वत्तोयेन प्रपूर्येऽहं भव त्वं कुलवर्धिनी ।। वर्धिनी त्वं जगन्माता पवित्रातिमनोहरा, तव तोयेन कलशान् पूरयामि श्रिये मुदा।। 


ॐ भू० वर्धिन्यै० आ०स्था० 
ॐ भू० वरुणाय० आ०स्था० 
ब्रह्मणे० 
रुद्राय० 
विष्णवे०. 
मातृभ्यो० 
मातृः आ०स्था० 
सागरेभ्यो० 
महौ० 
नदीभ्यो० 
तीर्थेभ्यो० 
तीर्थानि आ०स्था०
 गायत्र्यै० 
ऋग्वेदाय० 
यजुर्वेदाय० 
सामवेदाय० 
अथर्ववेदाय० 
अग्नये० 
आदित्येभ्यो० 
एकादशरुद्रेभ्यो० 
मरुद्भ्यो०
 मरुतः आ०स्था० 
गंधर्वेभ्यो० 
ऋषये० 
वरुणाय वायवे० 
धनदाय० 
यमाय० 
धर्माय० 
शिवाय० 
यज्ञाय० 
विश्वेभ्यो देवेभ्यो० 
स्कंदाय०
 गणेशाय० 
यक्षाय० 
अरुंधत्यै० आ०स्था०
 ॐ मनोजूर्ति० ॐ भू० वर्धिनीवरुणाद्यावाहितदेवताः सुप्रतिष्ठिताः वरदा भवत। 
पंचोपचारैः पूजनम् । 
   द्वार पर शुभ लाभ स्वस्तिक आदि करें। पत्नीद्वारा देहली पूजन। पंचामृत तथा जलसे द्वारमार्जन । 
ॐ असुरान्तकचक्राय नमः

संकल्पः- शुभपुण्यतिथौ अस्मिन् पुण्याहे श्रौतस्मार्त कर्म करणार्थं अनेकविध ऐश्वर्यप्राप्ति अर्थ ऐहिक आमुष्मिक अभीष्ट सिद्धिअर्थं नवीनगृह प्रवेशं अहं करिष्ये

* द्वारशाखापूजनम् - ॐ स्थापितेंयं मया शाखा शुभदा, ऋद्धिदाऽस्तु मे। सुस्थिरा च सुदा भूयात् सर्वेषां हितकारिणी।। दक्षिणशाखायाम्- यो धारयति सर्वेशो जगन्ति स्थावराणि च। धाता दक्षिणशाखायां पूजितो वरदोऽस्तु मे ।। ॐ धात्रे नमः ।। वामशाखायाम्- यः समुत्पाद्य विश्वेशो भुवनानि चतुर्दश। विधाता वामशाखायां स्थिरो भवतु पूजितः ।। ॐ विधात्रे नमः ।। ऊर्ध्वम् ॐ गणानान्त्वा० ॐ गणपतये नमः । अधो- देहल्याम्- ॐ इदम्मे ब्रह्म च क्षेत्रञ्चोभे श्रिय॑मश्नुताम्। मय॑ि देवा देघतु श्रियमुत्त॑मां तस्यै ते स्वाहो।। यस्याः प्रसादात् सुखिनो देवाः सेन्द्राः सहोरगाः। सा वै श्रीर्देहलीसंस्था पूजिता ऋद्धिदाऽस्तु मे ।। ॐ देहल्यै नमः ।। दक्षिणे चंडाय० वामे प्रचंडाय० ऊर्ध्वं द्वारश्रियै० अधो देहल्यां वास्तुपुरुषाय० दक्षिणशाखायां गंगायै० शंखनिधये० वामशाखायां यमुनायै० प‌द्मनिधये० द्वारस्य ऊर्ध्वं आग्नेय्यां गणपतये० अधः नैऋत्यां दुगर्गायै० अधः वायव्यां सरस्वत्यै० ऊर्ध्वं ईशान्यां क्षेत्रपालाय० द्वारश्रिया द्यावाहितदेवताभ्यो नमः पंचोपचारैः पूजनम्। वास्तुपुरुषाय बलिदानम्। अपसर्पन्तु० भो ब्रह्मन् प्रविशामि । प्रविशस्व। शांतिसूक्तपाठः। मंगलघोषः।

गृहप्रवेशः - ॐ धर्मार्थकामसिद्ध्यर्थं पुत्रपौत्राभिवृद्धये । मंदिरं प्रविशाम्यद्य सर्वदा मंगलं भवेत् ।। यावत् चन्द्रश्च सूर्यश्च यावत् तिष्ठति मेदिनी। तावत् त्वं मम वंशस्य मंगलाभ्युदयं कुरु ।। ॐ धर्मस्थूणाराजं श्रीस्तूपमहोरात्रे द्वारफलके। इन्द्रस्य गृहा वसुमन्तो वरूथिनस्तानहं प्रपद्ये सह प्रजया पशुभिः सह ।। यन्मे किंचिदस्त्युपहूतः सर्वगण सखाय साधु संवृतः । तान्वा शालेऽरिष्टवीरा गृहान्नः सन्तु सर्वे ।।

         ज्योतिषाचार्य डॉ०आशुतोष मिश्र

Thursday, 17 April 2025

विबाह के लिए लगने वाली आबश्यक सामग्री लिस्ट

पर्णकुटी ज्योतिष केंद्र
विबाह के लिए लगने वाली आबश्यक सामग्री लिस्ट
   ------ //-- (   पीली चिट्टी पूजा के लिए  )--- //--------
१】श्री गणेश जी
२】पांच हल्दी की गाँठ
३】पांच गोलसुपारि
४】 पिले चावल
५】गोबर के गणेश जी
६】बतासे
७】  दूर्वा
८】कलश एक मिटटी का
९】दीपक
१०】रुई
११】माचिस
पूजा की थाली सामग्री सहित 
नाई(खबॉस )को किराया बतौर दक्षिणा
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बत्तीसी  झिलाने की सामग्री-

32 लड़डू,
32 रुपया
मेवा,
शकर,
चावल,
गुड़ की भेली,
लाल कपड़ा,
हार,
फुल,
बताशा,
नारियल
और जवारी का रुपया।

विधि-

इसमे भाई पटिये पर बैठता है और बहन उसकी गोद मे पूरा सामान रख़कर आरती उतारती है सभी भाई अपनी बहन को साड़ी और जीजाजी को जवारी देकर बिदा करते है।

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सभी प्रकार की जटिल समस्याओ के समाधान हेतु   शीघ्र सम्पर्क करे एबम  अपनी कुंडली दिखाकर  उचित मार्ग दर्शन प्राप्त करे ।

सम्पर्क सूत्र

पंडित जी श्री परमेस्वर दयाल जी शास्त्री

तिलकचोक मधुसुदनगण

मोबाइल नंबर 09893397835

(पूजन समग्री कम  और  ज्यादा कर  सकते है )

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श्री गणेश पूजन  सहित अन्य पूजन के लिए
सभी पूजन में उपयोग के लिए यही सामग्री में से ले सकते है
०】आटा हल्दी  चोक पुरने के लिए
1】हल्दीः--------------------------50 ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------100 ग्राम
३】अगरबत्ती-------------------     3पैकिट
४】कपूर-------------------------  - 50 ग्राम
५】केसर-------------------------   -1डिव्वि
६】चंदन पेस्ट --------------------- 50 ग्राम
७】यज्ञोपवीत ---------------------   11नग्
८】चावल-------------------------- 05 किलो
९】अबीर-----------------------------50 ग्राम
१०】गुलाल, ----------------------10 0ग्राम
११】अभ्रक---------------------------10ग्राम
१२】सिंदूर ------------------------100 ग्राम
१३】रोली, -------------------------100ग्राम
१४】सुपारी, ( बड़ी)-----------  200 ग्राम
१५】नारियल ----------------------  11 नग्
१६】सरसो--------------------------50 ग्राम
१७】पंच मेवा---------------------100 ग्राम
१८】शहद (मधु)------------------ 50 ग्राम
१९】शकर-------------------------0 1किलो
२०】घृत (शुद्ध घी)--------------  01किलो
२१】इलायची (छोटी)--------------10ग्राम
२२】लौंग मौली---------------------10ग्राम
२३】इत्र की शीशी--------------------1 नग्
२४】तिली--------------------------२००ग्राम
२५】जौ-----------------------------१००ग्राम
२६】माचिस -------------------------१पैकिट
२७】रुई-------------------------------२०ग्राम
२८】नवग्रह समिधा------------------१पैकेट
२९】धुप बत्ती ------------------------२पैकिट
३०】लाल कपड़ा --------------------२मीटर
३१】सफेद कपडा-------------------२मीटर
३२】समिधा हवन के लिए ---------५किलो
33) तिली ------- ---------------------1किलो
34)जौ-----------------------------200 ग्राम

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                     अन्य सामग्री

१】पान
२】 पुष्प
३】पुष्पहार
४】दूर्वा
५】विल्वपत्र
६】दोना गड्डी
७】बताशे या प्रशाद
८】फल
९】आम के पत्ते
१०】समिधा हवन के लिए
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           माता पूजन सामग्री

१】झंडियां लाल
२】पूड़ी
३】ताव
४】खारक
५】बदाम
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               मंडप पूजन सामग्री

१】मानक खम्भ
२】पटली लकड़ी की
३】नींव में रखने का सामान
४】जैसे  लाख का टुकड़ा
५】सर के वाल
६】कोयला
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अगर  गंगाजली पूजन  हो तो ---------कही कही होती है
ऊपर दी गयी पूजा  सामग्री में से लेबे

१】खाजा
२】खारक
३】वादाम
४】लाल कपड़ा 3 मीटर
५】श्री फल (नारियल)
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          जनेऊ (यज्ञनोपवित) संस्कार

१】मूँज की जनेऊ
२】खड़ाऊ
३】डण्डा(दंड)
४】भिक्षा पात्र "कमण्डल
५】गुरुपूजन की सामग्री
६】जैसे =बस्त्र नारियल जनेऊ गोलसुपारी आदि
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१】बर के निमित्त बस्त्र
२】फल
३】नारियल
४】आभूषण आदि
५】जनेऊ
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गनाना 
पूजन सामग्री ऊपर दी गयी  उसी में से पूजन थाली तैयार होगी
लड़के वालो की तरफ से दुल्हन के निमित्त
१】 बस्र
२】आभूषण श्रृंगार दानी
३】कुलदेवी प्रतिमा टिपारी
४】मोहर दुल्हन के सर पर बाँधने का
५】पिछौड़ा 
६】सिंधोडा
७】सिंधोड़ि
८】कंकण
९】 बतासे
१०】नारियल या नारियल गोला
11)तस्वीर राम विबाह शिव विबाह
12)रगवारै के लोटा
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फेरे के समय  लड़की वालों के यहाँ। पूजन सामग्री  ऊपर दी है उसके
अलावा

१】लाजा
२】सूप
३】मधुपर्क
४】हथलेवा
५】सिंदुर्दानी
६】डाभ
७】मधुपर्क 
८】गुड़
९】बतासे
१०】हल्दी पिसी पॉब पुजाई के लिए
११】समिधा हवन के लिए फेरे के समय
११】विछुड़ी

संपर्क
गुरुदेब भुबनेश्वर
कस्तूरवानगर पर्णकुटी गुना
मो।९८९३९४६८१०