ज्योतिष समाधान

Monday, 29 August 2016

क्या आप जानते है की भगवान का परम भक्त नन्दी जी केबारे में

शिवरात्रि के अवसर पर विशेष कहानी नंदी की संकलित पुराणों में यह कथा मिलती है कि शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। शिलाद निरंतर योग तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे अतः उन्होंने संतान की कामना से इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान माँगा। इंद्र ने इसमें असर्मथता प्रकट की तथा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। तब शिलाद ने कठोर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया और उनके ही समान मृत्युहीन तथा दिव्य पुत्र की माँग की। भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया- वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। मेरे अनुग्रह से तुम्हे जरा, जन्म और मृत्यु किसी से भी भय नहीं होगा।" भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर का वरदान है कि जहाँ पर नंदी का निवास होगा वहाँ उनका भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है। शिवजी का वाहन नंदी पुरुषार्थ अर्थात परिश्रम का प्रतीक है। नंदी का एक संदेश यह भी है कि जिस तरह वह भगवान शिव का वाहन है। ठीक उसी तरह हमारा शरीर आत्मा का वाहन है। जैसे नंदी की दृष्टि शिव की ओर होती है, उसी तरह हमारी दृष्टि भी आत्मा की ओर होनी चाहिये। हर व्यक्ति को अपने दोषों को देखना चाहिए। हमेशा दूसरों के लिए अच्छी भावना रखना चाहिए। नंदी यह संकेत देता है कि शरीर का ध्यान आत्मा की ओर होने पर ही हर व्यक्ति चरित्र, आचरण और व्यवहार से पवित्र हो सकता है। इसे ही सामान्य भाषा में मन का स्वच्छ होना कहते हैं। जिससे शरीर भी स्वस्थ होता है और शरीर के निरोग रहने पर ही मन भी शांत, स्थिर और दृढ़ संकल्प से भरा होता है। इस प्रकार संतुलित शरीर और मन ही हर कार्य और लक्ष्य में सफलता के करीब ले जाते हुए मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त करता है। धर्म शास्त्रों में उल्लेख है कि जब शिव अवतार नंदी का रावण ने अपमान किया तो नंदी ने उसके सर्वनाश को घोषणा कर दी थी। रावण संहिता के अनुसार कुबेर पर विजय प्राप्त कर जब रावण लौट रहा था तो वह थोड़ी देर कैलाश पर्वत पर रुका था। वहाँ शिव के पार्षद नंदी के कुरूप स्वरूप को देखकर रावण ने उसका उपहास किया। नंदी ने क्रोध में आकर रावण को यह श्राप दिया कि मेरे जिस पशु स्वरूप को देखकर तू इतना हँस रहा है। उसी पशु स्वरूप के जीव तेरे विनाश का कारण बनेंगे। नंदी का एक रूप सबको आनंदित करने वाला बी है। सबको आनंदित करने के कारण ही भगवान शिव के इस अवतार का नाम नंदी पड़ा। शास्त्रों में इसका उल्लेख इस प्रकार है- त्वायाहं नंन्दितो यस्मान्नदीनान्म सुरेश्वर। तस्मात् त्वां देवमानन्दं नमामि जगदीश्वरम।। -शिवपुराण शतरुद्रसंहिता ६/४५ अर्थात नंदी के दिव्य स्वरूप को देख शिलाद मुनि ने कहा तुमने प्रगट होकर मुझे आनंदित किया है। अत: मैं आनंदमय जगदीश्वर को प्रणाम करता हूं। नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था। यहाँ नंदी के अभाव की कहानी भी बड़ी रोचक है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मदेव के पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ति पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में हर जगह घूमे लेकिन उन्हें मुक्ति का उपाय नहीं मिला। एक दिन जब वे सोमेश्वर में बैठे थे, तब एक बछड़े द्वारा उन्हें इस पाप से मुक्ति का उपाय बताया गया। कथा में बताया गया है कि यह बछड़ा नंदी था। वह शिव जी के साथ गोदावरी के रामकुंड तक गया और कुंड में स्नान करने को कहा। स्नान के बाद शिव जी ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त हो सके। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ति हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया। आज भी माना जाता है कि पुरातन काल में इस टेकरी पर शिवजी की पिंडी थी। अब तक वह एक विशाल मंदिर बन चुकी है। पेशवाओं के कार्यकाल में इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। मंदिर की सीढि़याँ उतरते ही सामने गोदावरी नदी बहती नजर आती है। उसी में प्रसिद्ध रामकुंड है। भगवान राम में इसी कुंड में अपने पिता राजा दशरथ के श्राद्ध किए थे। इसके अलावा इस परिसर में काफी मंदिर है। लेकिन इस मंदिर में आज तक कभी नंदी की स्थापना नहीं की गई। २० फरव

Sunday, 28 August 2016

क्या आप जानना चाहेंगे भगबान श्री राम की बंशाबलि

भगवान श्री राम जी के वंश के बारे भगवान श्री राम जी केवंश के बारे में बताता हूँ | ब्रह्मा जी की उन्चालिसवी पीढ़ी में भगवाम श्री राम का जन्म हुआ था | हिंदू धर्म में श्री राम को श्री हरि विष्णु का सातवाँ अवतार माना जाता है |
वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे – इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त,करुष, महाबली, शर्याति और पृषध |

श्री राम का जन्म इक्ष्वाकु के कुल में हुआ था और जैन धर्म के तीर्थंकर निमि भी इसी कुल के थे |

मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए | इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र, रोहित, वृष, बाहु और सगरतक पहुँची |

इक्ष्वाकु प्राचीन कौशल देश के राजा थे और इनकी राजधानी अयोध्या थी | रामायण के बालकांड में गुरु वशिष्ठ जी द्वारा राम के कुल का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है :-

1 】– ब्रह्मा जी से मरीचि हुए,
2 】– मरीचि के पुत्र कश्यप हुए,
3 】– कश्यप के पुत्र विवस्वान थे,
4 】– विवस्वान के वैवस्वत मनु हुए.वैवस्वत मनु के समय जल प्रलय हुआ था,
5】 – वैवस्वतमनु के दस पुत्रों में से एक का नाम इक्ष्वाकु था, इक्ष्वाकु ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाया और इस प्रकार इक्ष्वाकु कुलकी स्थापना की |
6 】– इक्ष्वाकु के पुत्र कुक्षि हुए,
7】 – कुक्षि के पुत्र का नाम विकुक्षि था,
8 】– विकुक्षि के पुत्र बाण हुए,
9 】– बाण के पुत्र अनरण्य हुए,
10】- अनरण्य से पृथु हुए,
11】- पृथु से त्रिशंकु का जन्म हुआ,
12】- त्रिशंकु के पुत्र धुंधुमार हुए,
13】- धुन्धुमार के पुत्र का नाम युवनाश्व था,
14】- युवनाश्व के पुत्र मान्धाता हुए,
15】- मान्धाता से सुसन्धि का जन्म हुआ,
16】- सुसन्धि के दो पुत्र हुए- ध्रुवसन्धि एवं प्रसेनजित,
17】- ध्रुवसन्धि के पुत्र भरत हुए,
18】- भरत के पुत्र असित हुए,
19】- असित के पुत्र सगर हुए,
20】- सगर के पुत्र का नाम असमंज था,
21】- असमंज के पुत्र अंशुमान हुए,
22】- अंशुमान के पुत्र दिलीप हुए,
23】- दिलीप के पुत्र भगीरथ हुए, भागीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था.भागीरथ के पुत्र ककुत्स्थ थे |
24】- ककुत्स्थ के पुत्र रघु हुए, रघु के अत्यंत तेजस्वी और पराक्रमी नरेश होने के कारण उनके बाद इस वंश का नाम रघुवंश हो गया, तब से श्री राम के कुल को रघुकुल भी कहा जाता है |
25】- रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए,
26】- प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे,
27】- शंखण के पुत्र सुदर्शन हुए,
28】- सुदर्शन के पुत्र का नाम अग्निवर्ण था,
29】- अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग हुए,
30】- शीघ्रग के पुत्र मरु हुए,
31】- मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे,
32】- प्रशुश्रुक के पुत्र अम्बरीष हुए,
33】- अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष था,
34】- नहुष के पुत्र ययाति हुए,
35】- ययाति के पुत्र नाभाग हुए,
36】- नाभाग के पुत्र का नाम अज था,
37】- अज के पुत्र दशरथ हुए,
38】- दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न हुए | इस प्रकार ब्रह्मा की उन्चालिसवी (39) पीढ़ी में श्रीराम का जन्म हुआ |

बाल्मीक जी के विभीषण और त्रिजटा।

31 - सेरीराम रामायण सहित कुछ रामायणों में एक प्रसंग मिलता है कि रावण ने विभीषण को समुद्र में फेंकवा दिया था। वह एक मगर की पीठ पर चढ़ गया, बाद में हनुमान ने उसे बचाया और राम से मिलवाया। विभीषण के साथ रावण का एक भाई इंद्रजीत भी था और एक बेटा चैत्रकुमार भी राम की शरण में आ गया था। राम ने विभीषण को युद्ध के पहले ही लंका का अगला राजा घोषित कर दिया था। रंगनाथ रामायण में उल्लेख मिलता है कि विभीषण के राज्याभिषेक के लिए हनुमान ने एक बालूरेत की लंका बनाई थी। जिसे हनुमत्लंका (सिकतोद्भव लंका) के नाम से जाना गया। कुछ ग्रंथों में ये भी उल्लेख मिलता है कि अशोक वाटिका में सीता की पहरेदारी करने वाली राक्षसी त्रिजटा विभीषण की ही बेटी थी। हनुमान ने राम को बताया था कि विभीषण से हमें मित्रता कर लेनी चाहिए क्योंकि उसकी बेटी त्रिजटा सीता के प्रति मातृवत यानी माता के समान भाव रखती है :.........

बाल्मीकि में रावण की माँ के आशुओँ को सुखेन बैध ने दवा में मिलाया

30 - राम रावण युद्ध के समय जब लक्ष्मण जी मूर्छित थे तो हनुमान जी संजीवनी के रूप में पर्वत ही लेकर आ गए। संजीवनी आगमन के उपरांत राज वैध श्री सुषैण ने कहा कि इस संजीवनी को खरल में रगडऩे के लिए दो चार बूंदे आंसूओं की चाहिए और वो आंसू उस व्यक्ति के होने चाहिए जो आपने जीवन काल में कभी रोया न हो। गंभीर समस्या खड़ी हो गई। आखिर वैध सुषेण जी ने ही उपाय सुझाया कि," रावण की माता कैकशी अपने जीवन काल में कभी नहीं रोई, अगर उसके आंसू मिल जाए तो शीघ्र ही लक्ष्मण जी की मूर्छा को दूर किया जा सकता है।" हनुमान जी इस कार्य के लिए लंका में रावण की माता के राजभवन में गए। हनुमान जी ने पहले तो रावण की माता को जाकर प्रेमपूर्वक बोला," माता जी! आपको रोना पड़ेगा। आप शीघ्र रोएं, हमें आपके आंसूओं की दो-चार बूंदे अभी चाहिए।" रावण की माता क्रोधित होते हुए हनुमान जी से बोली,"चले जाओ यहां से हम क्यों रोएंगे? हम किसी किम्मत पर नहीं रोएंगे। एक तो तुम दुश्मन हो ऊपर से तुम्हारा इतना साहस हमें रोने को कह रहे हो।" हनुमान जी ने बहुत विनय की मगर कैकशी ने एक न मानी। तब हनुमान जी ने अपने साथ लाई हुई दो बड़ी हरी र्मिच रावण की माता की बड़ी बड़ी राक्षसी आंखों में घुसेड़ दी तो वो एकदम चिल्लाकर ऊंचे स्वर में रोने लगी। उसकी आंखों से टपटप आंसूओं की छड़ी लग गई। हनुमान जी बहुत प्रसन्न हुए उनका काम जो बन गया था। उन्होंने झटपट कुछ आंसुओं की बूंदे संचित की और अपनी पवन गति से मूर्छा स्थल पर आ गए। वैध ने संजीवनी में आंसू की बूंदे मिश्रित कर खरल किया और उसके सूघंने से लक्ष्मण जी को जीवन दान मिला :......... विभीषण के लिए बनाई थी नई लंका :

ऋग बैद में सीता जी है क़्रषको की माता

सीता को माना है कृषि की देवी - 28 - ऋग्वेद में अकेले राम नहीं सीता का भी उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद ने सीता को कृषि की देवी माना है। बेहतर कृषि उत्पादन और भूमि के लिए दोहन के लिए सीता की स्तुतियां भी मिलती हैं। ऋग्वेद के 10वें मंडल में ये सूक्त मिलता है जो कृषि के देवताओं की प्रार्थना के लिए लिखा गया है। वायु, इंद्र आदि के साथ सीता की भी स्तुति की गई है। काठक ग्राह्यसूत्र में भी उत्तम कृषि के लिए यज्ञ विधि दी गई है उसमें सीता के नाम का उल्लेख मिलता है तथा विधान बताया गया है कि खस आदि सुगंधित घास से सीता देवी की मूर्ति यज्ञ के लिए बनाई जाती है। रामकथा ही एकमात्र ऐसी कहानी है जिस पर ना जाने कितने ग्रंथ लिखे गए हैं। दुनियाभर में 400 से ज्यादा रामकथाएं प्रचलित हैं ऐसा कई शोधों में उल्लेख मिलता है। हर भाषा और हर वर्ग में एक राम कथा लिखी गई है। लाखों शोध पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं :....... लंका दहन

सुपनखा ने रावण से लिया बदला

24- ये बात सभी जानते हैं कि लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा की नाक काटे जाने से क्रोधित होकर ही रावण ने सीता का हरण किया था, लेकिन स्वयं शूर्पणखा ने भी रावण का सर्वनाश होने का श्राप दिया था। क्योंकि रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा :.....

लंका में सीता जी को भूख क्यों नही लगी

12- जिस दिन रावण सीता का हरण कर अपनी अशोक वाटिका में लाया। उसी रात को भगवान ब्रह्मा के कहने पर देवराज इंद्र माता सीता के लिए खीर लेकर आए, पहले देवराज ने अशोक वाटिका में उपस्थित सभी राक्षसों को मोहित कर सुला दिया। उसके बाद माता सीता को खीर अर्पित की, जिसके खाने से सीता की भूख-प्यास शांत हो गई।

जटायु जी के पिता कौन थे

11- सीताहरण करते समय जटायु नामक गिद्ध ने रावण को रोकने का प्रयास किया था। रामायण के अनुसार जटायु के पिता अरुण बताए गए हैं। ये अरुण ही भगवान सूर्यदेव के रथ के सारथी हैं

राम लछमन भरत स्त्रुघ्न जी का अलग अलग जन्म दिन

4- वाल्मीकि रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम का जन्म चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को, पुनर्वसु नक्षत्र में कर्क लग्न में हुआ था। उस समय सूर्य, मंगल, शनि, गुरु और शुक्र ग्रह अपने-अपने उच्च स्थान में विद्यमान थे तथा लग्न में चंद्रमा के साथ गुरु विराजमान थे। भरत का जन्म पुष्य नक्षत्र तथा मीन लग्न में हुआ था, जबकि लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म अश्लेषा नक्षत्र व कर्क लग्न में हुआ था। उस समय सूर्य अपने उच्च स्थान में विराजमान थे :.

जिन स्त्रियों में हों ऐसे लक्षण

जिन स्त्रियों में हों ऐसे लक्षण उन्हें शास्त्रों में शुभ नहीं माना गया है- स्त्री को हमारे ग्रंथों में लक्ष्मी कहा गया है। ज्योतिष के ग्रंथों में भी स्त्रियों के स्वभाव और उनके भविष्य से जुड़ी बातों के बारे में रोचक वर्णन मिलता है। प्रसिद्ध ग्रंथ बृहद संहिता में स्त्रियों के दो प्रकार बताए गए है शुभ लक्षणा और अशुभ लक्षणा।शुभ लक्षणा को साक्षात लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है। वहीं अशुभ लक्षणा को अलक्ष्मी कहा जा सकता है। आज हम आपको बताने जा रहे हैं स्त्रियों के कुछ ऐसे ही शारीरिक लक्षणों के बारे में जिन्हें इस ग्रंथ में शुभ नही माना गया है- कनिष्ठिका वा तदनन्तरा वा महीं न यस्या: स्पृशति स्त्रिया: स्यात्। गताथवङ्गुष्ठमतीत्य यस्या: प्रदेशिनी सा कुलटातिपापा।। स्त्री के पैर की सबसे छोटी या उसके बराबर वाली अंगुली भूमि पर न टिकती हो या अंगूठे के बराबर वाली अंगुली, अंगूठे से बहुत लंबी हो तो ऐसी स्त्री का चरित्र परिस्थिति के अनुसार बदल सकता है। ऐसी महिलाएं नियंत्रण मेंं न रहने वाली, पाप करने वाली और गुस्सैल स्वभाव की होती हैं। जिस स्त्री की पिण्डली का पिछला भाग मोटा हो, बहुत ऊपर की ओर चढ़ा हुआ सा हो साथ ही नसें उभरी हों तो ऐसी स्त्रियों को शुभ नहीं माना जाता है।यदि यह भाग मांसहीन, सूखा सा हो, पिण्डली पर बहुत रोम हों तो ऐसी स्त्री बहुत दु:ख पाती है। गुहा भाग के बाल वामावर्त रोमों से युक्त हो या यह भाग दबा हुआ सा हो तो अशुभ होता है। यदि पेट घड़े के समान हो तो जीवन में हमेशा दरिद्रता बनी रहती है। पेट पतला, लंबा या गड्ढेदार हो तब भी अच्छा नही माना जाता है- प्रविलम्बिनि देवरं ललाटे, श्वसुर हन्त्युदरे स्फिजो: पतिं च। अतिरोमचयाान्वितोत्तरोष्ठी, न शुभा भर्तुरतीव या च दीर्घा।। किसी महिला का माथा यदि लंबा हो तो देवर के लिए, पेट लंबा हो तो ससुर के लिए, कमर के नीचे वाला हिस्सा भारी हो तो पति के लिए अनिष्टकारक होता है। मूंछों के स्थान पर बहुत रोएं हो या स्त्री का कद बहुत लंबा हो तो पति के लिए शुभ नहीं होता है। स्त्री के कान रोएंदार हों, मैले हों असमान आकार के हों तो हमेशा क्लेश रहता है। दांत, मोटे चौड़े या बहुत लंबे हों, बाहर निकले हों तो जीवन में हमेशा दुख रहता है। काले मसूड़ों वाली महिलाओं का भाग्य उनका अधिक साथ नही देता है- क्रव्यादरूपैर्वृककाकङ्सरीसृपोलूकसमानचिन्है:। शुष्कै: शिरालैर्विषमैश्च हस्तैर्भवन्ति नार्य सुखवित्तहीना:।। किसी स्त्री की हथेली पर मांसभक्षी पक्षी का चिन्ह हो, भेडिय़ा, कौआ, सांप, उल्लू जैसा चिन्ह हों तो वह स्त्री दुख देने वाली होती है- हथेलियां चपटी मांसहीन हों व नसें ज्यादा उभरी हुुई हों तो उन्हें अच्छा नहीं माना जाता है। दोनों हथेलियों के आकार में अंतर हो तो ऐसी महिलाएं सुख और धन से हीन होती हैं- नेत्रे यस्या: केकरे पिङ्गले वा सा दु:शीला श्यामलेक्षणा च। कूपौ यस्या गण्डयोश्च स्मितेषु नि:सन्दिग्धं बंधकी तां वदन्ति।। जिस महिला की आंखें डरी हुई सी, पीली हों वह बुरे स्वभाव वाली होती है। जबकि चंचल और स्लेटी रंग की आंखों को भी शुभ नहीं माना जाता है। हंसते समय जिस स्त्री के गालों पर गड्ढे पड़ते हों उसका चरित्र बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है- ह्स्वयातिनि:स्वता दीर्घया कुलक्षय:। ग्रीवया पृथूत्थया योषित: प्रचण्डता।। किसी स्त्री की गर्दन छोटी हो तो वह जीवनभर दूसरों पर निर्भर रहती है। वह अपना कोई भी निर्णय स्वयं नहीं ले पाती। वहीं 4 अंगुल से अधिक लंबी गर्दन वाली स्त्री वंश का नाश करने वाली होती है। यदि गर्दन बहुत मोटी हो तो उसे शुभ नही माना जाती है। गर्दन चपटी हो तो ऐसी स्त्री का स्वभाव प्रचण्ड यानी गुस्सैल और जिद्दी होता है- (हिन्दू शास्त्रो में देवी के समान नारी के बारे में कुछ जानकारी लिखी गई है। बाबा महाकाल की नगरी से आई खबर को हम ज्यों की त्यों प्रकाशित कर रहे है। इस खबर से हमारा कोई लेना देना नहीं है।)

Saturday, 27 August 2016

रामायण में महाभारत के चार पात्र

1】जामबंत जी ने क्रष्ण अवतार में भगवान क्रष्ण से युध्द करने के बाद  अपनी बेटी का बिबाह किया

2. 】हनुमानजी

रामायण में श्रीराम के कार्यों को पूरा करने में हनुमानजी ने भी खास भूमिका निभाई थी, इसी वजह से श्रीराम ने हनुमानजी को अपने भाई भरत के समान प्रिय माना है। हनुमान चालीसा में लिखा है कि- रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।। इस चौपाई का अर्थ यह है कि श्रीराम ने हनुमानजी की प्रशंसा की और कहा कि मेरे भाई भरत के समान ही तुम भी मुझे प्रिय हो। हनुमानजी का उल्लेख महाभारत काल में भी मिलता है। द्वापर युग में जिस समय पांडवों का वनवास काल चल रहा था, उस समय भीम को अपनी ताकत पर घमंड हो गया था। भीम के घमंड को तोड़ने के लिए वृद्ध वानर के रूप में हनुमानजी भीम से मिले थे। हनुमानजी को पवन पुत्र भी कहा जाता है और भीम भी पवन देव के ही पुत्र हैं। इस कारण मान्यता है कि हनुमानजी और भीम भाई-भाई हैं।

3. 】परशुराम
परशुराम भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। त्रेता युग में सीता के स्वयंवर में रखा गया शिवजी का धनुष श्रीराम ने तोड़ दिया था, तब परशुराम क्रोधित हो गए थे। क्रोधित होकर वे श्रीराम के पास पहुंचे और जब उन्हें ये मालूम हुआ कि श्रीराम भी विष्णु के ही अवतार हैं तो वे वहां से लौट गए। महाभारत काल में भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण के गुरु परशुराम ही थे। परशुराम और भीष्म पितामह के बीच युद्ध भी हुआ था, जिसमें भीष्म जीत गए थे।

4. 】मयासुर
रामायण में रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता मयासुर थे। मयासुर ज्योतिष तथा वास्तु के जानकार थे। महाभारत में युधिष्ठिर के सभा भवन का निर्माण मयासुर ने ही किया था। इस सभा भवन का नाम मयसभा रखा गया था। मयसभा बहुत ही सुंदर और विशाल भवन था। इसे देखकर दुर्योधन पांडवों से ईर्ष्या करने लगा था। ऐसा माना जाता है कि इसी ईर्ष्या के कारण महाभारत युद्ध के योग बने।

रामायण में महाभारत के चार पात्र

1】जामबंत जी ने क्रष्ण अवतार में भगवान क्रष्ण से युध्द करने के बाद  अपनी बेटी का बिबाह किया

2. 】हनुमानजी

रामायण में श्रीराम के कार्यों को पूरा करने में हनुमानजी ने भी खास भूमिका निभाई थी, इसी वजह से श्रीराम ने हनुमानजी को अपने भाई भरत के समान प्रिय माना है। हनुमान चालीसा में लिखा है कि- रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।। इस चौपाई का अर्थ यह है कि श्रीराम ने हनुमानजी की प्रशंसा की और कहा कि मेरे भाई भरत के समान ही तुम भी मुझे प्रिय हो। हनुमानजी का उल्लेख महाभारत काल में भी मिलता है। द्वापर युग में जिस समय पांडवों का वनवास काल चल रहा था, उस समय भीम को अपनी ताकत पर घमंड हो गया था। भीम के घमंड को तोड़ने के लिए वृद्ध वानर के रूप में हनुमानजी भीम से मिले थे। हनुमानजी को पवन पुत्र भी कहा जाता है और भीम भी पवन देव के ही पुत्र हैं। इस कारण मान्यता है कि हनुमानजी और भीम भाई-भाई हैं।

3. 】परशुराम
परशुराम भी भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। त्रेता युग में सीता के स्वयंवर में रखा गया शिवजी का धनुष श्रीराम ने तोड़ दिया था, तब परशुराम क्रोधित हो गए थे। क्रोधित होकर वे श्रीराम के पास पहुंचे और जब उन्हें ये मालूम हुआ कि श्रीराम भी विष्णु के ही अवतार हैं तो वे वहां से लौट गए। महाभारत काल में भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण के गुरु परशुराम ही थे। परशुराम और भीष्म पितामह के बीच युद्ध भी हुआ था, जिसमें भीष्म जीत गए थे।

4. 】मयासुर
रामायण में रावण की पत्नी मंदोदरी के पिता मयासुर थे। मयासुर ज्योतिष तथा वास्तु के जानकार थे। महाभारत में युधिष्ठिर के सभा भवन का निर्माण मयासुर ने ही किया था। इस सभा भवन का नाम मयसभा रखा गया था। मयसभा बहुत ही सुंदर और विशाल भवन था। इसे देखकर दुर्योधन पांडवों से ईर्ष्या करने लगा था। ऐसा माना जाता है कि इसी ईर्ष्या के कारण महाभारत युद्ध के योग बने।

14 वर्ष के वनवास में राम कहां-कहां रहे?…

14 वर्ष के वनवास में राम कहां-कहां रहे?… प्रभु श्रीराम को 14 वर्षका वनवास हुआ। इस वनवास काल में श्रीराम ने कई ऋषि-मुनियों से शिक्षा औरविद्या ग्रहण की, तपस्या की और भारत के आदिवासी, वनवासी और तमाम तरह केभारतीय समाज को संगठित कर उन्हें धर्म के मार्ग पर चलाया। संपूर्ण भारत कोउन्होंने एक ही विचारधारा के सूत्र में बांधा, लेकिन इस दौरान उनके साथ कुछऐसा भी घटा जिसने उनके जीवन को बदल कर रख दिया। रामायणमें उल्लेखित और अनेक अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार जब भगवान राम को वनवासहुआ तब उन्होंने अपनी यात्राअयोध्या से प्रारंभ करते हुए रामेश्वरम औरउसके बाद श्रीलंका में समाप्त की। इस दौरान उनके साथ जहां भी जो घटा उनमेंसे 200 से अधिक घटना स्थलों की पहचान की गई है। जाने-मानेइतिहासकार और पुरातत्वशास्त्री अनुसंधानकर्ता डॉ. राम अवतार ने श्रीराम औरसीता के जीवन की घटनाओं सेजुड़े ऐसे 200 से भी अधिक स्थानों का पतालगाया है, जहां आज भी तत्संबंधी स्मारक स्थल विद्यमान हैं, जहां श्रीराम औरसीता रुके या रहे थे। वहां के स्मारकों, भित्तिचित्रों, गुफाओं आदिस्थानों के समय-काल की जांच-पड़ताल वैज्ञानिक तरीकों से की। आओ जानते हैंकुछ प्रमुख स्थानों के बारे में… केवट प्रसंग :रामको जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहलेतमसानदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमतीनदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वेश्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट परउन्होंने केवट सेगंगा पार करने को कहा था। ‘सिंगरौर‘ :इलाहाबाद से 22 मील (लगभग 35.2 किमी) उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित ‘सिंगरौर’ नामकस्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञातथा। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटीके तट पर स्थितथा। महाभारत में इसे ‘तीर्थस्थल’ कहा गया है। ‘कुरई‘ : इलाहाबादजिले में ही कुरई नामक एक स्थान है, जो सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट परस्थित है।गंगा के उस पार सिंगरौर तो इस पार कुरई। सिंगरौर में गंगा पारकरने के पश्चात श्रीराम इसी स्थान पर उतरे थे।इसग्राम में एक छोटा-सा मंदिर है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थानपर है, जहां गंगा को पार करने केपश्चात राम, लक्ष्मण और सीताजी ने कुछदेर विश्राम किया था। चित्रकूट के घाट पर :कुरईसे आगे चलकर श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सहित प्रयाग पहुंचे थे।प्रयाग को वर्तमान में इलाहाबाद कहा जाता है। यहां गंगा-जमुना का संगम स्थलहै। हिन्दुओं का यह सबसे बड़ा तीर्थस्थान है। प्रभु श्रीराम ने संगम केसमीप यमुना नदी को पार किया और फिर पहुंच गए चित्रकूट। यहां स्थित स्मारकोंमें शामिल हैं, वाल्मीकि आश्रम, मांडव्य आश्रम, भरतकूप इत्यादि।चित्रकूटवह स्थान है, जहां राम को मनाने के लिए भरत अपनी सेना के साथ पहुंचते हैं।तब जब दशरथ का देहांत होजाता है। भारत यहां से राम की चरण पादुका लेजाकर उनकी चरण पादुका रखकर राज्य करते हैं। अत्रि ऋषि का आश्रम :चित्रकूटके पास ही सतना (मध्यप्रदेश) स्थित अत्रि ऋषि का आश्रम था। महर्षि अत्रिचित्रकूट के तपोवन में रहा करते थे। वहां श्रीराम ने कुछ वक्त बिताया।अत्रि ऋषि ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा हैं। अत्रिऋषि की पत्नी का नामहै अनुसूइया, जो दक्ष प्रजापति की चौबीस कन्याओं में से एक थी। अत्रिपत्नी अनुसूइया के तपोबल से ही भगीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूटमें प्रविष्ट हुई और ‘मंदाकिनी’ नाम सेप्रसिद्ध हुई। ब्रह्मा, विष्णु वमहेश ने अनसूइया के सतीत्व की परीक्षा ली थी, लेकिन तीनों को उन्होंने अपनेतपोबल सेबालक बना दिया था। तब तीनों देवियों की प्रार्थना के बाद हीतीनों देवता बाल रूप से मुक्त हो पाए थे। फिर तीनों देवताओंके वरदान सेउन्हें एक पुत्र मिला, जो थे महायोगी ‘दत्तात्रेय’। अत्रि ऋषि के दूसरेपुत्र का नाम था ‘दुर्वासा’। दुर्वासाऋषि को कौन नहीं जानता? अत्रिके आश्रम के आस-पास राक्षसों का समूह रहता था। अत्रि, उनके भक्तगण व माताअनुसूइया उन राक्षसों से भयभीतरहते थे। भगवान श्रीराम ने उन राक्षसों कावध किया। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में इसका वर्णन मिलता है। प्रातःकालजब राम आश्रम से विदा होने लगे तो अत्रि ऋषि उन्हें विदा करते हुए बोले, ‘हे राघव! इन वनों में भयंकरराक्षस तथा सर्प निवास करते हैं, जो मनुष्योंको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं। इनके कारण अनेक तपस्वियों को असमयहीकाल का ग्रास बनना पड़ा है। मैं चाहता हूं, तुम इनका विनाश करके तपस्वियोंकी रक्षा करो।’ रामने महर्षि की आज्ञा को शिरोधार्य कर उपद्रवी राक्षसों तथा मनुष्य काप्राणांत करने वाले भयानक सर्पों को नष्ट करनेका वचन देखर सीता तथालक्ष्मण के साथ आगे के लिए प्रस्थान किया।चित्रकूट की मंदाकिनी, गुप्त गोदावरी, छोटी पहाड़ियां, कंदराओं आदि से निकलकर भगवान राम पहुंच गए घने जंगलोंमें… 4. दंडकारण्य :अत्रिऋषि के आश्रम में कुछ दिन रुकने के बाद श्रीराम ने मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़के घने जंगलोंको अपना आश्रय स्थल बनाया। यह जंगल क्षेत्र था दंडकारण्य। ‘अत्रि-आश्रम’ से ‘दंडकारण्य’ आरंभ हो जाता है।छत्तीसगढ़ के कुछ हिस्सोंपर राम के नाना और कुछ पर बाणासुर का राज्य था। यहां के नदियों, पहाड़ों, सरोवरों एवंगुफाओं में राम के रहने के सबूतों की भरमार है। यहीं पर रामने अपना वनवास काटा था। यहां वे लगभग 10 वर्षों सेभी अधिक समय तक रहे थे। ‘अत्रि-आश्रम’ से भगवान राम मध्यप्रदेश के सतना पहुंचे, जहां ‘रामवन’ हैं। मध्यप्रदेशएवं छत्तीसगढ़ क्षेत्रों मेंनर्मदा व महानदी नदियों के किनारे 10 वर्षोंतक उन्होंने कई ऋषि आश्रमों का भ्रमण किया। दंडकारण्य क्षेत्र तथा सतनाकेआगे वे विराध सरभंग एवं सुतीक्ष्ण मुनि आश्रमों में गए। बाद में सतीक्ष्णआश्रम वापस आए। पन्ना, रायपुर, बस्तरऔर जगदलपुर में कई स्मारक विद्यमानहैं। उदाहरणत: मांडव्य आश्रम, श्रृंगी आश्रम, राम-लक्ष्मण मंदिर आदि। रामवहां से आधुनिक जबलपुर, शहडोल (अमरकंटक) गए होंगे। शहडोल से पूर्वोत्तर कीओर सरगुजा क्षेत्र है। यहां एकपर्वत का नाम ‘रामगढ़’ है। 30 फीट कीऊंचाई से एक झरना जिस कुंड में गिरता है, उसे ‘सीता कुंड’ कहा जाताहै।यहां वशिष्ठ गुफा है। दो गुफाओं के नाम ‘लक्ष्मण बोंगरा’ और ‘सीता बोंगरा’ हैं। शहडोल से दक्षिण-पूर्व की ओरबिलासपुर के आसपास छत्तीसगढ़ है। वर्तमानमें करीब 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस इलाके के पश्चिम मेंअबूझमाड़ पहाड़ियां तथा पूर्व मेंइसकी सीमा पर पूर्वी घाट शामिल हैं।दंडकारण्य में छत्तीसगढ़, ओडिशा एवं आंध्रप्रदेश राज्यों के हिस्से शामिलहैं। इसकाविस्तार उत्तर से दक्षिण तक करीब 320 किमी तथा पूर्व से पश्चिमतक लगभग 480 किलोमीटर है। दंडकराक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा। यहां रामायण काल में रावण केसहयोगी बाणासुर का राज्य था। उसकाइन्द्रावती, महानदी और पूर्व समुद्र तट, गोइंदारी (गोदावरी) तट तक तथा अलीपुर, पारंदुली, किरंदुली, राजमहेन्द्री, कोयापुर, कोयानार, छिन्दक कोया तक राज्य था। वर्तमान बस्तर की ‘बारसूर’ नामक समृद्ध नगर कीनींव बाणासुर ने डाली, जो इन्द्रावती नदी के तट पर था।यहीं पर उसने ग्राम देवी कोयतर मां की बेटी माता माय (खेरमाय) की स्थापनाकी। बाणासुर द्वारा स्थापित देवी दांत तोना (दंतेवाड़िन) है। यह क्षेत्रआजकल दंतेवाड़ा के नामसे जाना जाता है। यहां वर्तमान में गोंड जाति निवासकरती है तथा समूचा दंडकारण्य अब नक्सलवाद की चपेट में है। इसीदंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदीके तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्रमंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिरभद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछदिनइस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे। स्थानीयमान्यता के मुताबिक दंडकारण्य के आकाश में ही रावण और जटायु का युद्ध हुआथा और जटायु के कुछ अंगदंडकारण्य में आ गिरे थे। ऐसा माना जाता है किदुनियाभर में सिर्फ यहीं पर जटायु का एकमात्र मंदिर है। दंडकारण्यक्षे‍त्र की चर्चा पुराणों में विस्तार से मिलती है। इस क्षेत्र कीउत्पत्ति कथा महर्षि अगस्त्य मुनि से जुड़ी हुई है।यहीं पर उनकामहाराष्ट्र के नासिक के अलावा एक आश्रम था। ‘पंचानां वटानां समाहार इति पंचवटी‘। 5. पंचवटी में राम :दण्डकारण्यमें मुनियों के आश्रमों में रहने के बाद श्रीराम कई नदियों, तालाबों, पर्वतों और वनों को पार करने के पश्चात नासिक में अगस्त्य मुनि के आश्रमगए। मुनि का आश्रम नासिक के पंचवटी क्षेत्र में था। त्रेतायुग में लक्ष्मण वसीता सहित श्रीरामजी ने वनवास का कुछ समय यहां बिताया। उसकाल में पंचवटी जनस्थान या दंडक वन के अंतर्गत आता था। पंचवटी या नासिक सेगोदावरी का उद्गम स्थानत्र्यंम्बकेश्वर लगभग 20 मील (लगभग 32 किमी) दूरहै। वर्तमान में पंचवटी भारत के महाराष्ट्र के नासिक मेंगोदावरी नदी केकिनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है। अगस्त्यमुनि ने श्रीराम को अग्निशाला में बनाए गए शस्त्र भेंट किए। नासिक मेंश्रीराम पंचवटी में रहे और गोदावरी केतट पर स्नान-ध्यान किया। नासिक मेंगोदावरी के तट पर पांच वृक्षों का स्थान पंचवटी कहा जाता है। ये पांच वृक्षथे-पीपल, बरगद, आंवला, बेल तथा अशोक वट। यहीं पर सीता माता की गुफा केपास पांच प्राचीन वृक्ष हैं जिन्हें पंचवटके नाम से जाना जाता है। मानाजाता है कि इन वृक्षों को राम-सीमा और लक्ष्मण ने अपने हाथों से लगाया था। यहींपर लक्ष्मण ने शूर्पणखा की नाक काटी थी। राम-लक्ष्मण ने खर व दूषण के साथयुद्ध किया था। यहां पर मारीच वधस्थल का स्मारक भी अस्तित्व में है।नासिक क्षेत्र स्मारकों से भरा पड़ा है, जैसे कि सीता सरोवर, राम कुंड, त्र्यम्बकेश्वर आदि। यहां श्रीराम का बनाया हुआ एक मंदिर खंडहर रूप मेंविद्यमान है। मरीचका वध पंचवटी के निकट ही मृगव्याधेश्वर में हुआ था। गिद्धराज जटायु सेश्रीराम की मैत्री भी यहीं हुई थी। वाल्मीकि रामायण, अरण्यकांड में पंचवटीका मनोहर वर्णन मिलता है। सीताहरण का स्थान ‘सर्वतीर्थ‘ : नासिकक्षेत्र में शूर्पणखा, मारीच और खर व दूषण के वध के बाद ही रावण नेसीताका हरण किया और जटायु का भी वध किया जिसकी स्मृति नासिक से 56 किमी दूरताकेड गांव में ‘सर्वतीर्थ’ नामक स्थान पर आज भी संरक्षित है। जटायुकी मृत्यु सर्वतीर्थ नाम के स्थान पर हुई, जो नासिक जिले के इगतपुरी तहसीलके ताकेड गांव में मौजूद है। इसस्थान को सर्वतीर्थ इसलिए कहा गया, क्योंकि यहीं पर मरणासन्न जटायु ने सीता माता के बारे में बताया। रामजी नेयहां जटायु का अंतिम संस्कार करके पिता और जटायु का श्राद्ध-तर्पण कियाथा। इसी तीर्थ पर लक्ष्मणरेखाथी। पर्णशाला : पर्णशाला आंध्रप्रदेश में खम्माम जिले के भद्राचलम में स्थित है। रामालयसे लगभग 1 घंटे की दूरी परस्थित पर्णशाला को ‘पनशाला’ या ‘पनसाला’ भीकहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से यह एक है।पर्णशालागोदावरी नदी के तट पर स्थित है। मान्यता है कि यही वह स्थान है, जहां सेसीताजी का हरण हुआ था।हालांकि कुछ मानते हैं कि इस स्थान पर रावण ने अपनाविमान उतारा था।इसस्थल से ही रावण ने सीता को पुष्पक विमान में बिठाया था यानी सीताजी नेधरती यहां छोड़ी थी। इसी से वास्तविकहरण का स्थल यह माना जाता है। यहांपर राम-सीता का प्राचीन मंदिर है। सीता की खोज : सर्वतीर्थजहां जटायु का वध हुआ था, वह स्थान सीता की खोज का प्रथम स्थान था। उसकेबादश्रीराम-लक्ष्मण तुंगभद्रा तथा कावेरी नदियों के क्षेत्र में पहुंचगए। तुंगभद्रा एवं कावेरी नदी क्षेत्रों के अनेक स्थलों पर वेसीता की खोजमें गए। शबरी का आश्रम :तुंगभद्राऔर कावेरी नदी को पार करते हुए राम और लक्ष्‍मण चले सीता की खोज में।जटायु औरकबंध से मिलने के पश्‍चात वे ऋष्यमूक पर्वत पहुंचे। रास्ते मेंवे पम्पा नदी के पास शबरी आश्रम भी गए, जो आजकलकेरल में स्थित है। शबरी जाति से भीलनी थीं और उनका नाम था श्रमणा। पम्पानदी भारत के केरल राज्य की तीसरी सबसे बड़ी नदी है। इसे ‘पम्बा’ नाम से भीजाना जाता है। ‘पम्पा’ तुंगभद्रा नदी का पुराना नाम है। श्रावणकौररजवाड़े की सबसे लंबी नदी है। इसी नदी के किनारे पर हम्पी बसा हुआ है। यहस्थान बेर के वृक्षों के लिए आज भी प्रसिद्ध है। पौराणिक ग्रंथ ‘रामायण’ में भी हम्पी का उल्लेख वानर राज्य किष्किंधाकी राजधानी के तौर पर कियागया है।केरल का प्रसिद्ध ‘सबरिमलय मंदिर’ तीर्थ इसी नदी के तट पर स्थित है। हनुमान से भेंट :मलयपर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए वे ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़े। यहांउन्होंने हनुमानऔर सुग्रीव से भेंट की, सीता के आभूषणों को देखा औरश्रीराम ने बाली का वध किया। ऋष्यमूकपर्वत वाल्मीकि रामायण में वर्णित वानरों की राजधानी किष्किंधा के निकटस्थित था। इसी पर्वत पर श्रीराम कीहनुमान से भेंट हुई थी। बाद में हनुमानने राम और सुग्रीव की भेंट करवाई, जो एक अटूट मित्रता बन गई। जब महाबलीबाली अपने भाई सुग्रीव को मारकर किष्किंधा से भागा तो वह ऋष्यमूक पर्वत परही आकर छिपकर रहने लगा था। ऋष्यमूकपर्वत तथा किष्किंधा नगर कर्नाटक के हम्पी, जिला बेल्लारी में स्थित है।विरुपाक्ष मंदिर के पास से ऋष्यमूकपर्वत तक के लिए मार्ग जाता है। यहांतुंगभद्रा नदी (पम्पा) धनुष के आकार में बहती है। तुंगभद्रा नदी मेंपौराणिकचक्रतीर्थ माना गया है। पास ही पहाड़ी के नीचे श्रीराम मंदिर है।पास की पहाड़ी को ‘मतंग पर्वत’ माना जाता है। इसीपर्वत पर मतंग ऋषि काआश्रम था। कोडीकरई :हनुमानऔर सुग्रीव से मिलने के बाद श्रीराम ने अपनी सेना का गठन किया और लंका कीओर चल पड़े। मलय पर्वत, चंदन वन, अनेक नदियों, झरनों तथा वन-वाटिकाओं कोपार करके राम और उनकी सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। श्रीराम ने पहलेअपनी सेना को कोडीकरई में एकत्रित किया।तमिलनाडुकी एक लंबी तटरेखा है, जो लगभग 1,000 किमी तक विस्‍तारित है। कोडीकरईसमुद्र तट वेलांकनी केदक्षिण में स्थित है, जो पूर्व में बंगाल की खाड़ीऔर दक्षिण में पाल्‍क स्‍ट्रेट से घिरा हुआ है। लेकिनराम की सेना ने उस स्थान के सर्वेक्षण के बाद जाना कि यहां से समुद्र कोपार नहीं किया जा सकता और यहस्थान पुल बनाने के लिए उचित भी नहीं है, तबश्रीराम की सेना ने रामेश्वरम की ओर कूच किया। रामेश्‍वरम : रामेश्‍वरमसमुद्र तट एक शांत समुद्र तट है और यहां का छिछला पानी तैरने और सन बेदिंगके लिए आदर्श है। रामेश्‍वरम प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ केंद्र है। महाकाव्‍यरामायण के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई करने के पहले यहां भगवानशिव की पूजा की थी। रामेश्वरम का शिवलिंग श्रीराम द्वारा स्थापित शिवलिंगहै। धनुषकोडी :वाल्मीकिके अनुसार तीन दिन की खोजबीन के बाद श्रीराम ने रामेश्वरम के आगे समुद्रमें वह स्थान ढूंढ़ निकाला, जहां से आसानी से श्रीलंका पहुंचा जा सकता हो।उन्होंने नल और नील की मदद से उक्त स्थान से लंका तक का पुनर्निर्माण करनेका फैसला लिया। छेदुकराईतथा रामेश्वरम के इर्द-गिर्द इस घटना से संबंधित अनेक स्मृतिचिह्न अभी भीमौजूद हैं। नाविक रामेश्वरम मेंधनुषकोडी नामक स्थान से यात्रियों कोरामसेतु के अवशेषों को दिखाने ले जाते हैं। धनुषकोडीभारत के तमिलनाडु राज्‍य के पूर्वी तट पर रामेश्वरम द्वीप के दक्षिणीकिनारे पर स्थित एक गांव है। धनुषकोडीपंबन के दक्षिण-पूर्व में स्थित है।धनुषकोडी श्रीलंका में तलैमन्‍नार से करीब 18 मील पश्‍चिम में है। इसकानाम धनुषकोडी इसलिए है कि यहां से श्रीलंका तक वानर सेना के माध्यम से नलऔर नील ने जो पुल (रामसेतु)बनाया था उसका आकार मार्ग धनुष के समान ही है।इन पूरे इलाकों को मन्नार समुद्री क्षेत्र के अंतर्गत माना जाता है।धनुषकोडी ही भारत और श्रीलंका के बीच एकमात्र स्‍थलीय सीमा है, जहां समुद्रनदी की गहराई जितना है जिसमेंकहीं-कहीं भूमि नजर आती है। दरअसल, यहां एक पुल डूबा पड़ा है। 1860 में इसकी स्पष्ट पहचान हुई और इसे हटानेके कई प्रयास किए गए।अंग्रेज इसे एडम ब्रिज कहने लगे तो स्थानीय लोगोंमें भी यह नाम प्रचलित हो गया। अंग्रेजों ने कभी इस पुल कोक्षतिग्रस्तनहीं किया लेकिन आजाद भारत में पहले रेल ट्रैक निर्माण के चक्कर में बादमें बंदरगाह बनाने के चलते इसपुल को क्षतिग्रस्त किया गया। 30 मीललंबा और सवा मील चौड़ा यह रामसेतु 5 से 30 फुट तक पानी में डूबा है।श्रीलंका सरकार इस डूबे हुए पुल (पम्बन से मन्नार) के ऊपर भू-मार्ग कानिर्माण कराना चाहती है जबकि भारत सरकार नौवहन हेतु उसे तोड़ना चाहतीहै।इस कार्य को भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम प्रोजेक्ट का नाम दिया है। श्रीलंकाके ऊर्जा मंत्री श्रीजयसूर्या ने इस डूबे हुएरामसेतु पर भारत औरश्रीलंका के बीच भू-मार्ग का निर्माण कराने का प्रस्ताव रखा था। 13.’नुवारा एलिया‘ पर्वत श्रृंखला :वाल्मीकिय-रामायणअनुसार श्रीलंका के मध्य में रावण का महल था। ‘नुवाराएलिया’ पहाड़ियोंसे लगभग 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की तरफ मध्य लंका की ऊंची पहाड़ियों केबीचोबीच सुरंगोंतथा गुफाओं के भंवरजाल मिलते हैं। यहां ऐसे कईपुरातात्विक अवशेष मिलते हैं जिनकी कार्बन डेटिंग से इनका कालनिकाला गयाहै। श्रीलंकामें नुआरा एलिया पहाड़ियों के आसपास स्थित रावण फॉल, रावण गुफाएं, अशोकवाटिका, खंडहर हो चुकेविभीषण के महल आदि की पुरातात्विक जांच से इनकेरामायण काल के होने की पुष्टि होती है। आजकल भी इन स्थानोंकी भौगोलिकविशेषताएं, जीव, वनस्पति तथा स्मारक आदि बिलकुल वैसे ही हैं जैसे कि रामायणमें वर्णित किए गएहैं। श्रीवाल्मीकिने रामायण की संरचना श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद वर्ष 5075 ईपू केआसपास की होगी (1/4/1 -2)। श्रुति स्मृति की प्रथा के माध्यम सेपीढ़ी-दर-पीढ़ी परिचलित रहने के बाद वर्ष 1000 ईपू के आसपास इसकोलिखितरूप दिया गया होगा। इस निष्कर्ष के बहुत से प्रमाण मिलते हैं।

जानिए ताड़का का वध क्यों किया था श्रीराम ने

जानिए ताड़का का वध क्यों किया था श्रीराम ने वाल्मीकि रामायण के ऐतिहासिक पात्रों में से एक हैं। उन्हीं में से एक थी 'ताड़का'। ताड़का सुकेतु यक्ष की पुत्री थी, जो एक शाप के प्रभाव से राक्षसी बन गई थी। उसका विवाह सुंद नाम के दैत्य से हुआ था। ताड़का के दो पुत्र थे, उनके नाम थे सुबाहु और मारीच। ताड़का का परिवार अयोध्या के नजदीक एक जंगल में रहता था। ताड़का का परिवार पूरी तरह से राक्षसी प्रवृत्तियों में लिप्त रहता था। वह देवी-देवताओं के लिए यज्ञ करने वाले ऋषि-मुनियों को तंग किया करते थे। सभी ऋषि मुनि ताड़का और उसके दोनों पुत्रों से परेशान थे। जब उन्होंने यह बात ऋषि विश्वामित्र को बताई तो विश्वामित्र अपने दो शिष्यों राम और लक्ष्मण को लेकर यज्ञ भूमि पहुंचे। अयोध्या के दोनों राजकुमारों ने ताड़का के परिवार का अंत कर दिया। लेकिन मारीच बच निकला और लंका जा पहुंचा। वह राम से प्रतिशोध लेना चाहता था क्योंकि उसकी मां ताड़का और भाई को श्रीराम ने मार दिया था। सीता-हरण के दौरान रावण ने मारीच की मायावी बुद्धि की सहायता ली थी। मारीच सीता हरण के दौरान सोने का हिरण बना था। जिसे देखकर ही उसका शिकार करने के लिए उधर भगवान श्रीराम उसके पीछे गए और इधर रावण ने सीता का हरण कर लिया था। सुकेतु नाम का एक यक्ष था। उसकी कोई भी संतान नहीं थी। इसलिए उसने संतान प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मा जी की कठोर तपस्या की। ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए और उन्होंने संतान प्राप्ति का वरदान दिया। कुछ समय बाद सुकेतु यज्ञ के यहां ताड़का का जन्म हुआ। वरदान स्वरूप ताड़का के शरीर में हजार हाथियों का बल था। तब सुकेतु यक्ष ने उसका विवाह सुंद नाम के दैत्य से किया। लेकिन ताड़का( ताड़का का एक अन्य नाम 'सुकेतुसुता' भी था।) दैत्यों की तरह व्यवहार करने लगी तब अगस्त्य ऋषि के शाप से वह भी राक्षसी हो गयी थी। जब ये बात सुंद को पता चली तो वो अगस्त्य ऋषि को मारने पहुंचा। तब ऋषि ने सुंद को भस्म कर दिया। जब उसने अपने पति की मृत्यु के लिए अगस्त्य ऋषि से बदला लेना चाहा। ऐसी विषम परिस्थितियों में जब अगस्त्य ऋषि ने विश्वामित्र की सहायता मांगी तब विश्वामित्र के शिष्यों राम और लक्ष्मण ने मिलकर ताड़का का संहार किया था।

रामायण के प्रमख पात्र और उनका परिचय

रामायण के प्रमुख पात्र और उनका परिचय ...

१】 दशरथ – रघुवंशी राजा इन्द्र के मित्र कौशल के राजा तथा राजधानी एवं निवास अयोध्या

२】कौशल्या – दशरथ की बड़ी रानी,राम की माता

३】सुमित्रा - दशरथ की मंझली रानी,लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न की माता

४】कैकयी -दशरथ की छोटी रानी, भरत की माता

५】सीता – जनकपुत्री,राम की पत्नी

६】उर्मिला – जनकपुत्री, लक्ष्मण की पत्नी

७】मांडवी – जनक के भाई कुशध्वज कीपुत्री,भरत की पत्नी

८】श्रुतकीर्ति - जनक के भाई कुशध्वज पुत्री,शत्रुघ्न की पत्नी

९】राम – दशरथ तथा कौशल्या के पुत्र, सीता के पति

१०】लक्ष्मण - दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्र,उर्मिला के पति

११】भरत – दशरथ तथा कैकयी के पुत्र,मांडवी के पति

१२】शत्रुघ्न - दशरथ तथा सुमित्रा के पुत्रश्रुतकीर्ति के पति,मथुरा के राजा लवणासूर के संहारक

१३】शान्ता – दशरथ की पुत्री,राम भगिनी

१४】बाली – किष्किन्धा (पंपापुर) का राजा,रावण का मित्र तथा साढ़ू,साठ हजार हाथियों का बल

१५】सुग्रीव – बाली का छोटा भाई,जिनकी हनुमान जी ने मित्रता करवाई

१६】तारा – बाली की पत्नी,अंगद की माता, पंचकन्याओं में स्थान

१७】रुमा – सुग्रीव की पत्नी,सुषेण वैद्य की बेटी

१८】अंगद – बाली तथा तारा का पुत्र ।

१९】रावण – ऋषि पुलस्त्य का पौत्र, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा का पुत्र

२०】कुंभकर्ण – रावण तथा कुंभिनसी का भाई, विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा का पुत्र

२१】कुंभिनसी – रावण तथा कुुंंभकर्ण की  भगिनी,विश्रवा तथा पुष्पोत्कटा की पुत्री

२२】विश्रवा - ऋषि पुलस्त्य का पुत्र, पुष्पोत्कटा-राका-मालिनी का पति

२३】विभीषण – विश्रवा तथा राका का पुत्र,राम का भक्त

२४】पुष्पोत्कटा – विश्रवा की पत्नी,रावण, कुंभकर्ण तथा कुंभिनसी की माता

२५】राका – विश्रवा की पत्नी,विभीषण की माता

२६】मालिनी - विश्रवा की तीसरी पत्नी खर दूषण,त्रिसरा तथा शूर्पणखा की माता ।

२७】त्रिसरा – विश्रवा तथा मालिनी का पुत्र,खर-दूषण का भाई एवं सेनापति

२८】शूर्पणखा - विश्रवा तथा मालिनी की पुत्री, खर-दूषण एवं त्रिसरा की भगिनी,विंध्य क्षेत्र में निवास ।

२९】मंदोदरी – रावण की पत्नी,तारा की भगिनी, पंचकन्याओं में स्थान

३०】मेघनाद – रावण का पुत्र इंद्रजीत,लक्ष्मण द्वारा वध

३१】दधिमुख – सुग्रीव का मामा

३२】ताड़का – राक्षसी,मिथिला के वनों में निवास,राम द्वारा वध।

३३】मारिची – ताड़का का पुत्र,राम द्वारा वध (स्वर्ण मृग के रूप में)।

३४】सुबाहू – मारिची का साथी राक्षस,राम द्वारा वध।

३५】सुरसा – सर्पों की माता।

३६】त्रिजटा – अशोक वाटिका निवासिनी राक्षसी, रामभक्त,सीता से अनुराग।

३७】प्रहस्त – रावण का सेनापति,राम-रावण युद्ध में मृत्यु।

३८】विराध – दंडक वन में निवास,राम लक्ष्मण द्वारा मिलकर वध।

३९】शंभासुर – राक्षस, इन्द्र द्वारा वध, इसी से युद्ध करते समय कैकेई ने दशरथ को बचाया था तथा दशरथ ने वरदान देने को कहा।

४०】सिंहिका(लंकिनी) – लंका के निकट रहने वाली राक्षसी,छाया को पकड़कर खाती थी।

४१】कबंद – दण्डक वन का दैत्य,इन्द्र के प्रहार से इसका सर धड़ में घुस गया,बाहें बहुत लम्बी थी,राम-लक्ष्मण को पकड़ा राम-लक्ष्मण ने गड्ढा खोद कर उसमें गाड़ दिया।

४२】जामवंत – रीछ,रीछ सेना के सेनापति।

४३】नल – सुग्रीव की सेना का वानरवीर।

४४】नील – सुग्रीव का सेनापति जिसके स्पर्श से पत्थर पानी पर तैरते थे,सेतुबंध की रचना की थी।नल और नील – सुग्रीव सेना मे इंजीनियर व राम सेतु निर्माण में महान योगदान। (विश्व के प्रथम इंटरनेशनल हाईवे “रामसेतु”के आर्किटेक्ट इंजीनियर)

४५】शबरी – अस्पृश्य जाति की रामभक्त, मतंग ऋषि के आश्रम में राम-लक्ष्मण-सीता का आतिथ्य सत्कार।

४६】संपाती – जटायु का बड़ा भाई,वानरों को सीता का पता बताया।

४७】जटायु – रामभक्त पक्षी,रावण द्वारा वध, राम द्वारा अंतिम संस्कार।

४८】गुह – श्रंगवेरपुर के निषादों का राजा, राम का स्वागत किया था।

४९】हनुमान – पवन के पुत्र,राम भक्त,सुग्रीव के मित्र।

५०】सुषेण वैद्य – सुग्रीव के ससुर ।

५१】केवट – नाविक,राम-लक्ष्मण-सीता को गंगा पार कराई।

५२】शुक्र-सारण – रावण के मंत्री जो बंदर बनकर राम की सेना का भेद जानने गए।

५३】अगस्त्य – पहले आर्य ऋषि जिन्होंने विन्ध्याचल पर्वत पार किया था तथा दक्षिण भारत गए।

५४】गौतम – तपस्वी ऋषि,अहिल्या के पति,आश्रम मिथिला के निकट।

५५】अहिल्या - गौतम ऋषि की पत्नी,इन्द्र द्वारा छलित तथा पति द्वारा शापित,राम ने शाप मुक्त किया,पंचकन्याओं में स्थान।

५६】ऋण्यश्रंग – ऋषि जिन्होंने दशरथ से पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ कराया था।

५७】सुतीक्ष्ण – अगस्त्य ऋषि के शिष्य,एक ऋषि।

५८】मतंग – ऋषि,पंपासुर के निकट आश्रम, यहीं शबरी भी रहती थी।

५९】वशिष्ठ – अयोध्या के सूर्यवंशी राजाओं के गुरु।

६०】विश्वामित्र – राजा गाधि के पुत्र,राम-लक्ष्मण को धनुर्विद्या सिखाई थी।

६१】शरभंग – एक ऋषि, चित्रकूट के पास आश्रम।

६२】सिद्धाश्रम – विश्वमित्र के आश्रम का नाम।

६३】भारद्वाज – वाल्मीकि के शिष्य,तमसा नदी पर क्रौंच पक्षी के वध के समय वाल्मीकि के साथ थे,मां-निषाद’ वाला श्लोक कंठाग्र कर तुरंत वाल्मीकि को सुनाया था।

६४】सतानन्द – राम के स्वागत को जनक के साथ जाने वाले ऋषि।

६५】युधाजित – भरत के मामा।

६६】जनक – मिथिला के राजा।

६७】सुमन्त – दशरथ के आठ मंत्रियों में से प्रधान ।

६८】 मंथरा – कैकयी की मुंह लगी दासी,कुबड़ी।

६९】देवराज – जनक के पूर्वज-जिनके पास परशुराम ने शंकर का धनुष सुनाभ (पिनाक) रख दिया था।

७०】मय दानव - रावण का ससुर और उसकी पत्नी मंदोदरी का पिता

७१】मायावी --मय दानव का पुत्र और रावण का साला, जिसका बालि ने वध किया था

७२】मारीच --रावण का मामा

७३】सुमाली --रावण का नाना

७४】माल्यवान --सुमाली का भाई, रावण का वयोवृद्ध मंत्री

७५】नारंतक - रावण का पुत्र,मूल नक्षत्र में जन्म लेने के कारण रावण ने उसे सागर में प्रवाहित कर दिया था। रावण ने अकेले पड़ जाने के कारण युद्ध में उसकी सहायता ली थी।

७६】दधिबल - अंगद का पुत्र जिसने नारंतक का वध किया था। नारंतक शापित था कि उसका वध दधिबल ही करेगा।

७७】अयोध्या – राजा दशरथ के कौशल प्रदेश की राजधानी,बारह योजन लंबी तथा तीन योजन चौड़ी नगर के चारों ओर ऊंची व चौड़ी दीवारों व खाई थी,राजमहल से आठ सड़कें बराबर दूरी पर परकोटे तक जाती थी।