शुक्लाष्टमी समारभ्य फाल्गुनस्य दिनाष्टकम् | पूर्णिमामवधिम कृत्वा त्याज्यम् बुद्धे: ||
शतरुद्रा विपाशायामैरावत्यां त्रिपुषकरै | होलाष्टकम् विवाहादौ तयजयमान्यत्र शोभनम् ||
लोक मान्यता के अनुसार कुछ तीर्थस्थान,
जैसे- शतरुद्रा विपाशा, इरावती एवं पुष्कर सरोवर के अलावा बाकी सब स्थानों पर होलाष्टक का अशुभ प्रभाव नहीं होता है,
इसलिए अन्य स्थानों में विवाह इत्यादि शुभ कार्य बिना परेशानी हो सकते हैं।
फिर भी शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक की अवधि में शुभ कार्य वर्जित हैं।
माना जाता है इस दौरान शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है।
विपाशेरवतीतीरे शुतुद्र्वाश्च त्रिपुष्करे|
विवाहादीशुभे नेष्टं होलिकाप्रागादिनाष्टकम् ||
मुहूर्त चिंतामणि ||
इन दिनों गृह प्रवेश, मुंडन संस्कार, विवाह संबंधी वार्तालाप, सगाई, विवाह, किसी नए कार्य, नींव आदि रखने , नया व्यवसाय आरंभ करने या किसी भी मांगलिक कार्य आदि का आरंभ शुभ नहीं माना जाता।
होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी घास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है जिसमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है।
इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऎसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूट्कर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है
होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है |
इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है
शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता, अन्यथा अमंगल फल मिलते हैं,
क्योंकि होलिका दहन की परम्परा को सनातन धर्म को मानने वाले सभी लोग मानते हैं।
इसलिए होलाष्टक की अवधि में हिंदू संस्कृति के कुछ संस्कार और शुभ कार्यो की शुरुआत वर्जित है।
लेकिन किसी के जन्म और और मृत्यु के पश्चात किए जाने वाले कृत्यों की मनाही नहीं की गई है।
तभी तो कई स्थानों पर धुलंडी वाले दिन ही अन्नप्राशन संस्कार की परम्परा है।
अत: प्रसूतिका सूतक निवारण, जातकर्म, अंत्येष्टि आदि संस्कारों की मनाही नहीं की गई है।
देश के कई हिस्सों में होलाष्टक नहीं मानते। इस मान्यता के पीछे यह कारण है कि,
भगवान शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को शिव जी ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने पर संसार में शोक की लहर फैल गयी थी।
कामदेव की पत्नी रति द्वारा शिव से क्षमा याचना करने पर शिव जी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनायी।
होलाष्टक का अंत दुलहंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।
होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है।
ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए हुए रहते हैं
दूसरा कारण हिरण्य कश्यप ने प्रह्लाद को नारायण भक्ति से विमुख करने के सभी उपाय निष्फल होने लगे तो उन्होंने प्रह्लाद को इसी तिथि फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी को बंदी बना लिया और मृत्यु हेतु तरह-तरह की यातनाएं देने लगे, किन्तु प्रह्लाद विचलित नहीं हुए।
इस दिन से प्रतिदिन प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए जाने लगे, किन्तु भगवतभक्ति में लीन होने के कारण प्रह्लाद हमेशा जीवित बच जाते।
इसी प्रकार सात दिन बीत गए। आठवें दिन भाई हिरण्यकश्यप की परेशानी देखकर उनकी बहन होलिका,
जिसे ब्रह्मा द्वारा अग्नि से न जलने का वरदान था, उसने प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में भस्म करने का प्रस्ताव रखा। हिरण्यकश्यप ने इसे स्वीकार कर लिया।
लेकिन जैसे ही होलिका भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती आग में बैठी तो वह स्वयं जलने लगी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।
तब से इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।
भक्त प्रह्लाद की भक्ति पर जिस जिस तिथि-वार को आघात होता था, उस दिन और तिथियों के स्वामी भी क्रोधातुर और उग्र हो जाते थे,
इसीलिए इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं।
इस कारण इन दिनों गर्भाधान, विवाह, पुंसवन, नामकरण, चूड़ाकरन, विद्यारम्भ, गृहप्रवेश व निर्माणआदि सोलह संस्कारों और सकाम अनुष्ठान आदि अशुभ माने गए हैं।
Gurudev
Bhubneshwar
Kasturwa nagar parnkuti guna
9893946810
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