कामधेनुगुणा विद्या ह्ययकाले फलदायिनी।
प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्॥
विद्या कामधेनु के समान गुणोंवाली है, बुरे समय में भी फल देनेवाली है, प्रवास काल में माँ के समान है तथा गुप्त धन है।
रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः।
विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥
रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैं और शोभा नहीं देते |
शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे॥
जिस प्रकार कुत्ते की पुंछ से न तो उसके गुप्त अंग छिपते हैं और न वह मच्छरों के काटने से रोक सकती है, इसी प्रकार विद्या से रहित जीवन भी व्यर्थ है । क्योंकि विद्याविहीन मनुष्य मूर्ख होने के कारण न अपनी रक्षा कर सकते है न अपना भरण- पोषण ।
किं कुलेन विशालेन विद्याहीने च देहिनाम्।
दुष्कुलं चापि विदुषी देवैरपि हि पूज्यते॥
विद्याहीन होने पर विशाल कुल का क्या करना? विद्वान नीच कुल का भी हो, तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है । विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्। विद्वया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते॥ विद्वान की लोक में प्रशंसा होती है, विद्वान को सर्वत्र गौरब मिलता है, विद्या से सब कुछ प्राप्त होता है और विद्या की सर्वत्र पूजा होती है ।
धनहीनो न च हीनश्च धनिक स सुनिश्चयः।
विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु॥
धनहीन व्यक्ति हीन नहीं कहा जाता, उसे धनी ही समझना चाहिए । जो विद्यारत्न से हीनहै, वस्तुतः वह सभी वस्तुओं में हीन है ।
यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः।
न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥
जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।
बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा।
बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ॥
विद्या ही ब्राह्मणों का बल है । राजा का बल सेना है । वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है ।
आयुः कर्म वित्तञ्च विद्या निधनमेव च।
पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥
आयु, कर्म, वित्त, विद्या, निधन ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होते है ।
त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्।
त्यजेत्क्रोधमुखी भार्या निःस्नेहान्बान्धवांस्यजेत्॥
धर्म में यदि दया न हो तो उसे त्याग देना चाहिए । विद्याहीन गुरु को, क्रोधी पत्नी को तथा स्नेहहीन बान्धवों को भी त्याग देना चाहिए ।
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैता पितरः स्मृताः॥
जन्म देनेवाला, उपनयन संस्कार करनेवाला, विद्या देनेवाला, अन्नदाता तथा भय से रक्षा करनेवाला, ये पांच प्रकार के पिता होते हैं ।
आलस्योपहता विद्या परहस्तं गतं धनम्।
अल्पबीजहतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्॥
आलस्य से विद्या नष्ट हो जाती है । दूसरे के हाथ में धन जाने से धन नष्ट हो जाता है । कम बीज से खेत तथा बिना सेनापति वाली सेना नष्ट हो जाती है ।
अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते।
गुणेन ज्ञायते त्वार्य कोपो नेत्रेण गम्यते॥
अभ्यास से विद्या का, शील-स्वभाव से कुल का, गुणों से श्रेष्टता का तथा आँखों से क्रोध का पता लग जाता है । यह भी पढ़िए चाणक्य नीति - शत्रु (शत्रुता) पर चाणक्य के अनमोल विचार
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥
घर से बाहर विदेश में रहने पर विद्या मित्र होती है , घर में पत्नी मित्र होती है , रोगी के लिए दवा मित्र होती है तथा मृत्यु के बाद व्यक्ति का धर्म ही उसका मित्र होता है |
सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत्सुखम्।
सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्॥
यदि सुखों की इच्छा है, तो विद्या त्याग दो और यदि विद्या की इच्छा है, तो सुखों का त्याग कर दो । सुख चाहनेवाले को विद्या कहां तथा विद्या चाहनेवाले को सुख कहां ।
येषां न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं च गुणो न धर्मः।
ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति॥
जिनमें विद्या, तपस्या, दान देना, शील, गुण तथा धर्म में से कुछ भी नहीं है, वे मनुष्य पृथ्वी पर भार हैं । वे मनुष्य के रूप में पशु हैं, जो मनुष्यों के बीच में घूमते रहते हैं ।
जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः।
स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥
एक-एक बूंद डालने से क्रमशः घड़ा भर जाता है । इसी तरह विद्या, धर्म और धन का भी संचय करना चाहिए ।
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या अल्पं च कालो बहुविघ्नता च । आसारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥
शास्त्र अनेक हैं, विद्याएं अनेक हैं, किन्तु मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, उसमें भी अनेक विघ्न हैं । इसलिए जैसे हंस मिले हुए दूध और पानी में से दूध पि लेता है और पानी को छोड़ देता है उसी तरह काम की बातें ग्रहण कर लो तथा बाकी छोड़ दो
स्वदेशे पूज्यते राजा, विद्वान सर्वत्र पूज्यते ।
राजा अपने देश में पूजा जाता है , विद्वान की सर्वत्र पूजा होती है
काकचेष्टा वकोध्यानं श्वाननिद्रा तथैव च |
अल्पहारी गृह्त्यागी विद्यार्थी पंचलक्षण्म् ।|
विद्यार्थी के पाँच लक्षण होते हैं :
1कौवे जैसी दृष्टि ,
2बकुले जैसा ध्यान ,
3कुत्ते जैसी निद्रा ,
4अल्पहारी और
5गृहत्यागी ।
अनभ्यासेन विषम विद्या ।
बिना अभ्यास के विद्या बहुत कठिन काम है
सुखार्थी वा त्यजेत विद्या , विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम ।सुखार्थिनः कुतो विद्या , विद्यार्थिनः कुतो सुखम ॥
विद्यार्थी’ के गुण –
विद्यार्थी का पहला और सबसे आवश्यक गुण है
1– जिज्ञासा |
जिसे कुछ जानने की इच्छा ही न हो, उसे कुछ भी पढ़ाना व्यर्थ होता है | जिज्ञासा-शून्य छात्र उस औंधे घड़े के समान होता है जो बरसते जल में भी खाली रहता है |
2 लगन और परिश्रम –
विद्यार्थी का दूसरा महत्वपूरण गुण है – परिश्रमी होना | परिश्रम के बल पर मंध्बुधि छात्र भी अच्छे-अच्छे बुद्धिमान छात्रों को पछाड़ देते हैं | इसलिए छात्र को परिश्रमी होना अवश्य होना चाहिए | जो परिश्रम की वजाय सुख-सुविधा, आराम और विलास में रूचि लेता है, वह दुर्भगा कभी सफल नहीं हो सकता |
3 सादा जीवन, उच्च विचार –
विद्यार्थी के लिए आवश्यक है कि वह आधुनिक फैशनपरस्ती, फ़िल्मी दुनिया या अन्य रंगीन आकर्षणों से बचे | विद्यार्थी को इसे मित्रों के साथ संगति करनी चाहिए, जो उसी के समान शिक्षा का उच्च लक्ष्य लेकर चले हों |
4 श्रद्धावान एवं बिनयी –
संस्कृत की एक शुक्ति का अर्थ है – श्रद्धावान को ही ज्ञान की प्राप्ति होती है | जिस छात्र के चित में अपने ज्ञानी होने का घमंड भरा रहता है, वह कभी गुरुओं की बात नहीं सुनता | जो छात्र अपने अध्यापकों तथा अपने से बुद्धिमान छात्रों का सम्मान नहीं करता, वह कभी फल-फूल नहीं सकता |
5 अनुशासनप्रिय –
छात्र के लिए, अनुशासनप्रिय होना आवश्यक है | अनुशासन के बल पर ही छात्र अपने व्यस्त समय का सही सदुपयोग कर सकता है | मनचाही गति से चलने वाले छात्र अपना समय इधर-उधर व्यर्थ करते हैं, जबकि अनुशासित छात्र समय पर पड़ने के साथ-साथ हँस-खेल भी लेते हैं |
6 स्वस्थ तथा बहुमुखी प्रतिभावान –
आदर्श छात्र पढाई के साथ-साथ खेल-व्ययाम और अन्य गतिविधियों में भी बराबर रूचि लेता है | कहलों से उसका शरीर स्वस्थ बना रहता है | अन्य गतिविधियों-भाषण, नृत्य, संगीत, कविता-पाठ, एन.सी.सी. आदि में भाग लेने से उसका जीवन विकसित होता है |
7 उच्च लक्ष्य –
आदर्श छात्र वाही है जो अपनी विद्या-बुद्धि का उपयोग अपने तथा अपने समाज के विकास के लिए करना चाहता हो | सुभाष चंद्र बोस कहा करते थे—‘’विदेयार्थियों का जीवन-लक्ष्य न केवल परीक्षा में उतीर्ण होना या स्वर्ण-पदक प्राप्त करना है अपितु देश-सेवा की क्षमता एवं योग्यता प्राप्त करना भी है |”
No comments:
Post a Comment