योनिप्रदोषान्मनसोऽभितापाच्छुक्रासृगाहारविहारदोषतत्।
अकालयोगाद्बलसंक्षयाच्च गर्भं चिराद्विन्दति सप्रजापि॥
बीस प्रकार के योनि रोगों में से किसी प्रकार के रोग होने से, अंग विशेष के दूषित होने नया विकारग्रस्त होने से, किसी प्रकार के मानसिक आघात होने से, शुक्र या आर्तव के दूषित होने से, समुचित आहार-विहार का सेवन न करने से, अकाल अर्थात् ऋतुकाल के अतिरिक्त समयम गर्भाधान होने से, रोगादि के कारण अथवा अधिक उपवास करने या कुपोषण आदि के कारण, शरीर के निर्बल हो जाने के कारण, एक बार संतान को जन्म दे चुकने वाली अबंध्या स्त्री भी देर से गर्भ धारण करती है।
बंध्यापन के कारणों का और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए इसी में आगे कहा गया है-
विंशतिर्व्यापदो योनेर्निर्दिष्टा रोग सग्रहे।
न शुक्रं धारयत्येभिर्दोषेर्योनिरुपद्रुता तस्माद्गर्भे न गृह्वाति स्त्री...॥
आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार बंध्यापन तीन दोषों के कारण होता है-
(1) आधिदैविक,
(2) आधिभौतिक और
(3) आध्यात्मिक दोष। इनमें से अधिकाँश आधिदैविक दोषों का निराकरण यज्ञोपचार प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है,
जिसमें गायत्री महामंत्र या महामृत्युँजय का जप-अनुष्ठान भी सम्मिलित है।
यज्ञोपचार द्वारा बंध्यापन दूर करने एवं गर्भपुष्टि के लिए इसके विभिन्न कारणों,
दोषों एवं वात, पित्त, कफ आदि प्रकृति के अनुसार अलग-अलग वनौषधियां मिलाई और तदनुरूप हवन सामग्री तैयार की जाती है,
परन्तु यहाँ पर सामान्य रूप से संतानोत्पत्ति के मार्ग में उत्पन्न हुई रुकावट को दूर करने एवं बंध्यत्व दोष को मिटाने के लिए एक विशेष प्रकार की सर्वसुलभ एवं सर्वोपयोगी हवन सामग्री दी जा रही है,
जिसका हवन करने एवं खाने से मनोवाँछित सफलता मिल सकती है।
1. बंध्यापन दूर करने की विशेष हवन सामग्री- इसमें निम्नलिखित वनौषधियां मिलाई जाती हैं :–
सफेद फूलों वाली छोटी कंटकारी (लक्ष्मणा पंचाँग),
(2) जियापोता (पुत्रीजवा) के फल या मूल,
(3) शिवलिंगी के बीज,
(5) ब्रह्मदंडी पंचाँग,
(6) शरपुँखा की जड़,
(7) अपराजिता (विष्णुकाँता) पंचाँग,
(8) उलट-कंबल,
(9) अशोक छाल,
(10) लोध्र,
(11) देवदार,
(12) अश्वगंधा,
(13) जीवक,
(14) बरगद के अंकुर,
(15) चंदन,
(16) खस,
(17) पद्माख
(18) बच,
(19) दोनों सारिवा
(20) चमेली के फूल
(21) बालछड़
(22) कुमुदिनी
(23) नागबला (गंगेरन) की छाल या पत्ता
(24) नागकेशर
(25) जटामाँसी
(26) नागरमोथा
(27) पीपल के पके फल के बीज
(28) गूलर के पके फल
(29) पारस पीतल की जड़ या बीज,
(30) कौंच (केवाँच) की जड़ या बीज।
उक्त सभी 30 चीजों को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीसकर जौकुट चूर्ण बना लेते हैं और ‘हवन सामग्री क्र.
2’ का लेवल लगाकर एक बड़े पात्र में रख लेते हैं।
इन्हीं तीस चीजों के समग्र पाउडर की कुछ मात्रा को घोट-पीसकर, अधिक बारीक करके कपड़छन कर लिया जाता है और उसे खाने के लिए एक अलग सुरक्षित डिब्बे में रख लिया जाता है।
संतानोत्पत्ति की इच्छुक महिला को इसी बारीक पाउडर में से प्रतिदिन सुबह-शाम एक एक चम्मच चूर्ण घी-शक्कर या गोदुग्ध के साथ हवन करने के पश्चात खिलाया जाता है।
यह प्रयोग कम से कम तीन माह तक (ऋतुकाल के चौथे दिन के बाद) अपनाना होता है।
नित्य हवन करते समय उपयुक्त तैयार ‘हवन सामग्री क्र. 2’ में पहले से तैयार ‘कॉमन हवन सामग्री क्र. 1’ को भी बराबर मात्रा में मिला लेते हैं और तब हवन करते हैं।
इसे खाने के लिए उपयोग में नहीं लाते।
इस कॉमन हवन सामग्री में निम्नाँकित चीजें समभाग में मिली होती है-
अगर, तगर, देवदार, चंदन, लाल चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता और गिलोय। इसी में गोघृत, शक्कर जौ, और तिल मिलाकर सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं।
सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार हैं- ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यो प्रचोदयात्।
अंत में ‘स्वाहा’ शब्द जोड़कर कम-से-कम चौबीस आहुतियाँ नित्य देते हैं।
संतति के लिए पीपल या पलाश की समिधा सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।
इसी तरह काष्ठ पात्रों में उडुँबर (गूलर) का काष्ठपात्र अधिक लाभकारी होता है।
स्त्रियों में बंध्यत्व रोग की तरह ही पुरुषों में विविध कारणों से उत्पन्न दोष या क्लैव्यता भी संतानोत्पत्ति में एक बहुत बड़ी बाधा होती है। अतः इसके लिए अलग तरह की
क्लैव्Kयतानाशक हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है।
(2) क्लैव्यतानाशक विशिष्ट हवन सामग्री-
इसमें निम्नलिखित चीजें समभाग में मिलाई जाती हैं और उनका जौकुट पाउडर तैयार करके सूर्य गायत्री मंत्र बोलते हुए हवन करते हैं।
(1) गोक्षुर
(2) तालमखाना
(3) अकरकरा
(4) अश्वगंधा
(5) शतावर
(6) लौंग
(7) जायफल
(8) कपूर
(9) कौंच बीज
(10) श्वेत मूसली
(11) काली मूसली
(12) मुलहठी
(13) बला (खिरैटी)
(14) वनउड़द
(15) कदंब की गोंद
(16) कायफल
(17) भिलावा गिरी (शोधित)। हवन करते समय उक्त चीजों से तैयार जौकुट पाउडर में बराबर मात्रा में पूर्व वर्णित ‘कॉमन हवन सामग्री क्र. 1’ को मिला लेते हैं।
क्र. 1 से 17 तक की उपर्युक्त वर्णित वनौषधियों को हवन करने के साथ-ही-साथ खाने में भी प्रयुक्त करते हैं।
इसके लिए इनके सम्मिलित पाउडर को अधिक बारीक कूट-पीसकर कपड़छन चूर्ण तैयार कर लेते हैँ।
इस चूर्ण की एक चम्मच मात्रा सुबह एवं एक चम्मच शाम को दूध के साथ या घी एवं शक्कर के साथ खाते हैं।
भिलावा गिरी सदैव शोधन के बाद ही प्रयोग की जाती है।
इसे हवन सामग्री में न मिलाकर अलग से भी तीन गिरी की मात्रा में प्रतिदिन अकेले ही खाया जा सकता है।
शोधन करने के लिए पके हुए काले भिलावे लेकर एक बोरी में डालते हैं और उसी में इट या खपरे के छोटे छोटे टुकड़े डाल देते हैं।
इसके बाद बोरी को उठाकर आधे घंटे तक चारों तरफ उलट-पुलटकर पटकते हैं।
इससे भिलावे का विषैला रस इट या खपरे के टुकड़े सोख लेते हैं।
इसके उपराँत भिलाव निकालकर अंदर की गिरी निकालते हैं।
अंदर सफेद गिरी मिलेगी। इस बात का यहाँ विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि अगर किसी कारणवश हाथ में जलन होने लगे तो नारियल का तेल लगा लें या घी चुपड़ लें।
भिलावे के विषैले रस से बचने के लिए गिरी निकालते समय हाथ में कपड़ा लपेट लेना चाहिए।
क्लैव्यता मिटाने, आँतरिक दोषों को दूर करने में इस गिरी की विशेष भूमिका होती है।
(3) गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री इसमें निम्नलिखित चीजें मिलाई जाती हैं :-
(1) सौंप
(2) कासनी
(3) धनिया
(4) खस
(5) खसखस अर्थात् पोस्त बीज
(6) इंद्र जौ मीठा
(7) पलाश गोंद
(8) मुनक्का
(9) गुलाब के फूल
(10) ब्रह्मदंडी। इन सभी दस चीजों को बराबर मात्रा में लेकर जौकुट पाउडर बना लिया जाता है और एक पात्र में ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री
क्र. 2 का लेवल लगाकर उसमें सुरक्षित रख लिया जाता है।
इन्हीं दस चीजों की सम्मिलित मात्रा का कुछ भाग बारीक कूट-पीस करके कपड़छन कर लिया जाता है और उसे नित्य हवन के साथ खाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।
खाने के लिए मात्रा एक-एक चम्मच सुबह एवं शाम को गोदुग्ध अथवा घी एवं शक्कर के साथ है।
गर्भवती महिलाओं के लिए यह एक विशेष रूप से उपयोगी है।
इसको हवन करने और चूर्णरूप में खाने वाली माताओं की संतानें स्वस्थ, सुन्दर,हृष्ट पुष्ट एवं दीर्घजीवी होती है।
हवन करते समय पहले से तैयार की गई ‘कॉमन हवन सामग्री
क्र. 1 की बारबर मात्रा को उक्त ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री क्र. 2 में मिलाकर तब सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं।
यह हवन उपचार पूरे गर्भकाल तक करते रहने से जननी एवं शिशु दोनों के लिए विशेष लाभकारी सिद्ध होता है। प्रायः देखा जाता है कि कई बार गर्भवती महिलाओं को जी मिचलाने, चक्कर आने, उल्टी होने आदि से लेकर गर्भस्राव होने तक की अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
ऐसी स्थिति में उपर्युक्त हवनोपचार के साथ वर्णित चूर्ण के स्थान पर गर्भस्थापना के तीसरे-चौथे महीने से निम्नलिखित ‘गर्भरक्षक पौष्टिक चूर्ण’ का सेवन कराना चाहिए।
इसमें निम्न चीजें मिलाई जाती हैं-
1. अकरकरा-6 ग्राम
2. जायफल-7 ग्राम
3. जावित्री-7 ग्राम
4. चित्रक-7 ग्राम
5. कपूर कचरी-7 ग्राम
6. धाय के फूल-7 ग्राम
7. तुखमलंगा-7 ग्राम
8. तज-7 ग्राम
9. बड़ी इलायची-7 ग्राम
10. अश्वगंधा-7 ग्राम
11. छोटी पीपल-10 ग्राम,
12. काली मिर्च-10 ग्राम
13. बहमन सुर्ख-10 ग्राम
14. बहमन श्वेत-10 ग्राम
15. दालचीनी-18 ग्राम
16. ढाक (पलाश) के सूखे पत्ते-24 ग्राम
17. सौंठ-27 ग्राम
18. रुमी मस्तगी-27 ग्राम
19. मोती की सीप का चूर्ण (मुक्तिशुक्ति)-12 ग्राम एवं
20. मिश्री-360 ग्राम।
इन सभी 20 चीजों को कूट-पीसकर कपड़छन करके एकसार कर लेना चाहिए और हवन करने के बाद एक-एक चम्मच सुबह-शाम गोदुग्ध के साथ गर्भिणी को खिलाते रहना चाहिए।
डायबिटीज से ग्रस्त गर्भिणी को मात्र क्र. 1 से 19 तक की चीजों से बने पाउडर को ही चौथाई चम्मच की मात्रा में दोनों समय देना चाहिए। उसमें मिश्री नहीं मिलानी चाहिए।
यह गर्भस्थ शिशु की इंद्रियों को पुष्ट कर उसे स्वस्थ, सुन्दर और गर्भावस्था के समय होने वाले सभी उपद्रवों को शाँत करता है। प्रायः देखा जाता है कि किन्हीं-किन्हीं परिवारों में मात्र कन्या शिशु ही जन्मती है।
अतः जिन्हें बालक की चाहत हो, उन्हें चाहिए कि ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री’ से हवन करने के साथ ही इच्छुक महिला को जियापोता के पके हुए चार फल प्रतिदिन अथवा शिवलिंगी के सात बीज और मोरपंखी का एक चंदोवा घोट-पीसकर प्रतिदिन अथवा
शिवलिंगी के बीज-10 ग्राम,
जियापोता के 21 फल,
सफेद फूलों वाली छोटी कंटकारी की जड़ या पंचाँग-10 ग्राम
और मोरपंख का चंदोवा-7 नग लेकर सबको अच्छी तरह खरल करके 30 ग्राम पुराने गुड़ के साथ मिलाकर, 21 गोलियाँ बनाकर खिलाएं।
इन तीनों में से किसी एक को प्रतिदिन प्रातःकाल खाली पेट बछड़े वाली गाय के दूध के साथ एक-एक मात्रा या एक-एक गोली ऋतुकाल के चौथे दिन के बाद सात दिन तक इन्हें खिलाना चाहिए।
इसी तरह अगले माह भी 7-7 दिन तक एक-एक खुराक खिलानी चाहिए।
इसको सेवन करने के बाद एक घंटे तक कुछ नहीं खाना चाहिए।
उपर्युक्त सभी उपचारों के साथ अत्यंत खट्टे, तीखे, चरपरे, खारे एवं गरम पदार्थों का परहेज करना आवश्यक है।
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