ज्योतिष समाधान

Wednesday, 2 November 2016

देव उठनी ग्यारस महुर्त एबं आबस्यक सामग्री लिंक ओपन करे


हल्दी powder
2 चन्दन powder या चंदन मूठा  बिष्णु जी के तिलक के लि
3 अक्षत
4 रोली
5 धुप
6 अगरबत्ती
7 कपूर
8 पान का पत्ता
9 सुपारी /
घी
10 मोली धागा
11 आम का पत्ता
12 फल
13 फूल व माला
14 तुलसी पत्ता
15 मोदक / लड्डू
16 नारियल
17 गंगा जल
18 बैठने के लिए आसन
19 लाल कपड़ा
20 गणेश भगवान की प्रतिमा लड्डू गोपाल जी की प्रतिमा  तुलसी का गमला
21 चौकी
22 चौकी पर बिछाने के लिए आसन
23 दीपक
24 बाती
25 कलश
26जनेऊ 
चोक पूरणे के लिए रंगोली या आटा 
गन्ने
ज्वार की भुठीया
सिंघाड़ा
भाजी
मूली
भटे
होम करने के लिए गाय के गोबर के कंडी

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देव उठनी एकादशी प्रबोधिनी एकादशी पारण ११th को, पारण


(व्रत तोड़ने का) समय = १३:०९ से १५:२० पारण तिथि के दिन


हरि वासर समाप्त होने का समय = १४:३०

 दूजी देवुत्थान एकादशी = ११/११/२०१६ 

१२th को, दूजी एकादशी के लिए पारण
(व्रत तोड़ने का) समय = ०६:३८ से ०८:४९ 

पारण के दिन द्वादशी सूर्योदय से पहले समाप्त हो जाएगी 


एकादशी तिथि प्रारम्भ = १०/नवम्बर/२०१६ को ११:२१ बजे एकादशी


तिथि समाप्त = ११/नवम्बर/२०१६ को ०९:१२ बजे

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प्रबोधिनी एकादशी के दिन का पञ्चाङ्ग प्रबोधिनी एकादशी के दिन का चौघड़िया मुहूर्त टिप्पणी - २४ घण्टे की घड़ी गुना मध्य प्रदेसके स्थानीय समय के साथ और सभी मुहूर्त के समय है 

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एकादशी प्रबोधिनी एकादशी को देव उठनी एकादशी और देवुत्थान एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए। कभी कभी एकादशी व्रत लगातार दो दिनों के लिए हो जाता है। जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब स्मार्त-परिवारजनों को पहले दिन एकादशी व्रत करना चाहिए। दुसरे दिन वाली एकादशी को दूजी एकादशी कहते हैं। सन्यासियों, विधवाओं और मोक्ष प्राप्ति के इच्छुक श्रद्धालुओं को दूजी एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए। जब-जब एकादशी व्रत दो दिन होता है तब-तब दूजी एकादशी और वैष्णव एकादशी एक ही दिन होती हैं।.

मान्यतानुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन विष्णु के शलिग्राम रूप और देवी तुलसी के विवाह की सालगिरह मनार्ई जाती है। शास्त्रों में बताया गया है कि इस अवसर पर भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराना बड़ा ही पुण्यदायी होता है।जो व्यक्ति तुलसी के साथ शालिग्राम का विवाह करवाता है उनके दांपत्य जीवन में आपसी सद्भाव बना रहता है और मृत्यु के पश्चात उत्तम लोक में स्थान मिलता है।इस दिन शालिग्राम और तुलसी जी का विवाह कराकर पुण्यात्मा लोग कन्या दान का फल प्राप्त करते है । तुलसी के पौधे को पवित्र और पूजनीय माना गया है। तुलसी की नियमित पूजा से हमें सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।कार्तिक पूर्णिमा को श्रीहरि को तुलसी चढ़ाने का फल दस हज़ार गोदान के बराबर माना जाता ।नये घर में तुलसी का पौधा, श्रीहरि नारायण का चित्र या प्रतिमा और जल भरा कलश लेकर प्रवेश करने से नये घर में संपत्ति की कमी  नही रहती

तुलसी विवाह की विधि और शुभ मुहर्त —-

इस वर्ष तुलसी विवाह का शुभ दिन 11 नवंबर 2016 को है। पद्म पुराण के अनुसार तुलसी विवाह का कार्य एकादशी को करना शुभ होता है। तुलसी विवाह संपन्न कराने के लिए एकादशी के दिन व्रत करना चाहिए और तुलसी जी के साथ विष्णु जी की मूर्ति घर में स्थापित करनी चाहिए।शालिग्राम मूर्ति यानि विष्णु जी की काले पत्थर की मूर्ति मिलना दुर्लभ होता है। इसके ना मिलने पर विष्णु जी की मूर्ति या तस्वीर को भी इस्तेमाल कर सकते हैं। शाम के समय सारा परिवार इसी तरह तैयार हो जैसे विवाह समारोह के लिए होते हैं। तुलसी का पौधा एक चोकी पर आंगन, छत या पूजा घर में बिलकुल बीच में रखें। तुलसी के पौधे और विष्णु जी की मूर्ति को पीले वस्त्रों से सजाना चाहिए। पीला विष्णु जी की प्रिय रंग है।देव प्रबोधिनी एकादशी से कुछ वस्तुएं खाना आरंभ किया जाता है। अत: भाजी, मूली़ बेर और आंवला जैसी सामग्री बाजार में पूजन में चढ़ाने के लिए मिलती है वह लेकर आएं। तुलसी और सालिग्राम जी पर दूध में भीगी हल्दी लगाएं।तुलसी विवाह के लिए तुलसी के पौधे को सजाकर उसके चारों तरफ गन्ने का मंडप बनाना चाहिए। तुलसी जी के पौधे पर चुनरी या ओढ़नी चढ़ानी चाहिए। इसके बाद जिस प्रकार एक विवाह के रिवाज होते हैं उसी तरह तुलसी विवाह की भी रस्में निभानी चाहिए। गन्ने के मंडप पर भी हल्दी का लेप करें और उसकी पूजन करें।गमले में सालिग्राम जी रखें सालिग्राम जी पर चावल नहीं चढ़ते हैं उन पर तिल चढ़ाई जा सकती है। तुलसी विवाह के दिन व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है। इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है।11 बार तुलसी जी की परिक्रमा करें। प्रसाद को मुख्य आहार के साथ ग्रहण करें।पूजा समाप्ति पर घर के सभी सदस्य चारों तरफ से चोकी को उठा कर भगवान विष्णु से जागने का आह्वान करते है ।

इस मंत्र का उच्चारण करते हुए भी देव को जगाया जा सकता है-

‘(उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये।
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्‌ सुप्तं भवेदिदम्‌॥’)

‘(उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव।
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः॥’)

‘शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव।’

अगर चाहें तो पंडित या ब्राह्मण की सहायता से भी विधिवत

रूप से तुलसी विवाह संपन्न कराया जा सकता है अन्यथा मंत्रोच्चारण (ऊं तुलस्यै नम:) के साथ स्वयं भी तुलसी विवाह किया जा सकता है।

तुलसी और शालिग्राम विवाह की कथा

एक समय जलंधर नाम का एक पराक्रमी असुर हुआ। इसका विवाह वृंदा नामक कन्या से हुआ। वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थी। इसके पतिव्रत धर्म के कारण जलंधर अजेय हो गया था। इसने एक युद्ध में भगवान शिव को भी पराजित कर दिया। अपने अजेय होने पर इसे अभिमान हो गया और स्वर्ग की कन्याओं को परेशान करने लगा। दुःखी होकर सभी देवता भगवान विष्णु की शरण में गये और जलंधर के आतंक को समाप्त करने की प्रार्थना करने लगे। भगवान विष्णु ने अपनी माया से जलांधर का रूप धारण कर लिया और छल से वृंदा के पतिव्रत धर्म को नष्ट कर दिया। इससे जलंधर की शक्ति क्षीण हो गयी और वह युद्ध में मारा गया। जब वृंदा को भगवान विष्णु के छल का पता चला तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर का बन जाने का शाप दे दिया। देवताओं की प्रार्थना पर वृंदा ने अपना शाप वापस ले लिया। लेकिन भगवान विष्णु वृंदा के साथ हुए छल के कारण लज्जित थे अतः वृंदा के शाप को जिवित रखने के लिए उन्होनें अपना एक रूप पत्थर रूप में प्रकट किया जो शालिग्राम कहलाया। शालिग्राम पत्थर नर्मदा नदी से प्राप्त होता है। भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा कि तुम अगले जन्म में तुलसी के रूप में प्रकट होगी और लक्ष्मी से भी अधिक मेरी प्रिय रहोगी। तुम्हारा स्थान मेरे शीश पर होगा। मैं तुम्हारे बिना भोजन ग्रहण नहीं करूंगा। यही कारण है कि भगवान विष्णु के प्रसाद में तुलसी अवश्य रखा जाता है। बिना तुलसी के अर्पित किया गया प्रसाद भगवान विष्णु स्वीकार नहीं करते हैं। भगवान विष्णु को दिया शाप वापस लेने के बाद वृंदा जलंधर के साथ सती हो गयी। वृंदा के राख से तुलसी का पौधा निकला। वृंदा की मर्यादा और पवित्रता को बनाये रखने के लिए देवताओं ने भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप का विवाह तुलसी से कराया।

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