जानकी।।*
मानस में *जानकी* शब्द की आवृत्ति कितनी बार हुई है? देखते हैं।
*जानकी* (जनक की पुत्री, सीताजी)
जनकसुता जग जननि *(१)जानकी*। अतिसय प्रिय करुनानिधान की ।। बा. 17.7।।
कहहु जथा *(२)जानकी* विवाही। राज तजा सो दूषन काहीं ।।बा. 109.6।।
प्रभ जय जात *(३)जानकी* जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी ।।बा. 234.2।। एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो *(४)जानकी* जोगू ।।बा. 248. 6।।
अस जियं जानि *(५)जानकी* देखी। प्रभु पुलके लखि प्रोति बिसेषी।।बा. 260.4।।
सभय बिलोके लोग सब जानि *(६)जानकी* भीरु ।
हृदयं न हरषु विषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु।।बा. 270।।
जिन्ह *(७)जानकी* राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस विसेषी ।।बा. 309.5।।
*(८)जानकी* लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै ।
सो तनय दीन्ही व्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ।।बा. 324 15.छ।
निज पानि मनि महँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की ।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि विरह भय बस *(९)जानकी* ।।बा. 326.15छं.
सुक सारिका *(१०)जानकी* ज्याए। कनक पिजरन्हि राखि पढ़ाए ।। बा. 337.1।।
लीन्हि राय उर लाइ *(११)जानकी*। मिटो महामरजाद ग्यान की ।। बा 337.6।।
तब *(१२)जानकी* सासु पग लागी। सुनिअ माय मैं परम अभागी ।। अ.68.3।।
सुनि केवट के बैन प्रेम लपेटे अटपटे ।
बिहसे करुनाऐन चितइ *(१३)जानकी* लखन तन ।। अ. 100 सो ।।
लखन *(१४)जानकी* सहित तब गवनु कीन्ह रघुनाथ ।
फेरे सब प्रिय बचन कहि लिए लाइ मन साथ ।। अ.118।।
श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया *(१५)जानकी* ।
जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाइ कृपानिधान की ।। अ. 125 9छ।।
लखन *(१६)जानकी* सहित प्रभु राजत रुचिर निकेत ।
सोह मदनु मुनि वेष जनु रति रितुराज समेत ।। अ.133।।
हा *(१७)जानकी* लखन हा रघुबर। हा पितु हित चित चातक जलधर ।। अ 154.8।।
राजा रामु *(१८)जानकी* रानो । आनंद अवधि अवध रजधानी ।। अ.272.6।।
तापस बेष *(१९)जानकी* देखी। भा सबु विकल विषाद बिसेषी ।। अ 285.2।।
लीन्हि लाइ उर जनक *(२०)जानकी*। पाहुनि पावन पेम प्रान की ।। अ. 285 4।।
पुनि आए जहें मुनि सरभंगा। सुदर अनुज *(२१)जानकी* सगा ।। अर.6.8।।
अनुज *(२२)जानकी* सहित प्रभु चाप बान धर राम ।
मम हिय गगन इदु इव बसहु सदा निहकाम ।। अर.11।।
आश्रम देखि *(२३)जानकी* हीना। भए विकल जस प्राकृत दीना ।। अर. 29.6।।
हा गुन खानि *(२४)जानकी* सीता। रूप सील व्रत नेम पुनीता ।। अर 29.7।।
सुनु *(२५)जानकी* तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ।। अर. 29.14।।
सब प्रकार करिहउँ सेवकाई। जेहि विधि मिलिहि *(२६)जानकी* आई ।। कि 4.811
जब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ *(२७)जानकी* माता ।। सु.7.4।।
निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन ।
परम दुखी भा पवनसुत देखि *(२८)जानकी* दीन ।। सुं.4।।
अस मन समुझ कहति *(२९)जानकी*। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की ।। सुं.8.8।।
राम दूत मैं मातु *(३०)जानकी*। सत्य सपथ करुनानिधान की ।। सुं.12.9।।
राम बान रवि उएँ *((३१)जानकी* । तम बरूथ कहँ जातुधान की ।। सुं.15.2।।
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें *(३२)जानकी* दीजै ।। सुं 21.10।।
कहहु तात केहि भाँति *(३३)जानकी*। रहति करति रच्छा स्वप्रान की ।। सुं 29.8।।
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिवी *(३४)जानकी* ।। सुं 31.4।।
रामहि सौंपि *(३५)जानकी* नाइ कमल पद माथ ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ ।। लं.6।।
भंजि धनुष *(३६)जानकी* बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही ।। लं 35.11।।
तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु *(३७)जानकी* ।। ल 59.1।।
बहु बिधि कर बिलाप *(३८)जानकी*। करि करि सुरति कृपानिधान की ।। लं.98.11 ।।
एहि के हृदय बस *(३९)जानकी*
*(४०)जानकी* उर मम बास है ।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ।। लं.98.14छ।। करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ *(४१)जानकी* दुखारी ।। अनुज *(४२)जानकी* सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस ।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस ।। लं.112।।
अनुज *(४३)जानकी* सहित निरंतर । बसहु राम नृप मम उर अंतर ।।
लं.114.8छं.।।
बैदेही।।*
*बैदेही* (वैदेही, विदेह देश की राजकुमारी, विदेहराज जनक की पुत्री, सीताजी, जानकीजी) वैदेही शब्द को तुलसी ने मानस में *४४* बार प्रयोग किया है।
करि छलु मूढ हरी *(१)बैदेही*। प्रभु प्रभाउ तस विदित न तेही ।।बा. 48.5।।
*(२)बैदेही* मुख पटतर दीन्हे । होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे ।।बा. 237. 3।।
विष बारुनी बंधु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि *(३)बैदेही* ।।बा. 246.6।।
त्रिभुवन जय समेत *(४)बैदेही*। विनहि विचार बरड़ हठि तेही ।। बा. 249. 4।।
तब रामहि विलोकि *(५)बैदेही*। सभय हृदयं वितवति जेहि तेही।।बा. 256.4।। देखी विपुल बिकल *(६)बैदेही*। निमिष विहात कलप सम तेही।।बा. 260.1।।
जेहि मंडप दुलहिनि *(७)बैदेही*। सो बरने असि मति कवि केही ।।बा. 288-4।।
जनक सुकृत मूरति *(८)बैदेही*। दसरथ सुकृत रामू घरे देही ।।बा. 309.1।।
व्याकुल कहहिं कहाँ *(९)बैदेही*। सुनि धीरजु परिहरइ न केही ।।बा. 337.2।। देखन हेतु राम *(१०)बैदेही* । कहहु लालसा होहि न केही ।। बा.344.4।।
उतरु न आव बिकल *(११)बैदेही*। तजन चहत सुचि स्वामि सनेहो ।। अ.63.3।।
तात तुम्हारि मातु *(१२)बैदेही*। पिता रामु सब भाँति सनेही ।। अ.73.2।।
रामचंदु पति सो *(१३)बैदेही*। सोवत महि विधि वाम न केही ।। अ 90.7।।
सुनि पति बचन कहति *(१४)बैदेही* । सुनहु प्रानपति परम सनेही ।। अ.96.4।।
सुनु रघुबीर प्रिया *(१५)बैदेही*। तव प्रभाउ जग विदित न. केही ।। अ.102.5।। राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित *(१६)बैदेही* ।। अ.130.4।।
जो कह रामु लखनु *(१७)बैदेही*। हिंकरि हिंकरि हित हेरहि तेही ।। अ.142.7।।
पूँछत उतरु देब मैं तेही । गे बनु राम लखनु *(१८)बैदेही* ।। अ.145.4।।
राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन *(१९)बैदेही* ।। अ.147.8।।
राम कुसल कहु सखा सनेही। कहँ रघुनाथु लखनु *(२०)बैदेही* ।। अ 148.3।।
कहाँ लखनु कहें रामु सनेही। कहँ प्रिय पुत्रवधू *(२१)बैदेही* ।। अ.154.2।।
करि प्रनामु पूँछहिं जेहि तेही । केहि वन लखनु रामु *(२२)बैदेही* ।। अ. 223.5।।
मन तहँ जहें रघुबर *(२३)बैदेही* । विनु मन तन दुख सुख सुधि केही ।। अ.274.4।।
परिहरि लखन रामु *(२४)बैदेही*। जेहि घरु भाव वाम विधि तेही ।। अ. 279.4।।
प्रिय परिजनहि मिली *(२५)बैदेही*। जो जेहि जोगु भाँति तेहि तेही ।। अ.285.1।।
राम अनुज समेत *(२६)बैदेही* । निसि दिनु देव जपत हहु जेही ।। अर.11.8।।
सत्यसंध प्रभु वधि करि एही। आनहु चर्म कहति *(२७)बैदेही* ।। अर.26.5।।
बिबिध बिलाप करति *(२८)बैदेही* । भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ।। अर. 28.4।।
इहाँ हरी निसिचर *(२९)बैदेही* । विप्र फिरहिं हम खोजत तेही ।। कि.13।।
सयन किएँ देखा कपि तेही। मंदिर महुँ न दीखि *(३०)बैदेही* ।। सु.4.7।।
तृन धरि ओट कहति *(३१)बैदेही* । सुमिरि अवधपति परम सनेही ।। सुं 8.6।।
प्रभु संदेसु सुनत *(३२)बैदेही* । मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही ।। सुं.14.8।।
देहु नाथ प्रभु कहुँ *(३३)बैदेही* । भजहु राम बिनु हेतु सनेही ।। सुं. 38.6।।
जब तेहिं कहा देन *(३४)बैदेही* । चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही ।। सुं. 56.8।।
परिहरि बयरु देहु *(३५)बैदेही* । भजहु कृपानिधि परम सनेही ।। लं.48.1।।
अब जनि राम खेलावहु एही । अतिसय दुखित होति *(३६)बैदेही* ।। लं.85.6।।
प्रभु ताते उर हतइ न तेही । एहि के हृदय बसति *(३७)बैदेही* ।। लं. .98.13।।
राम सुभाउ सुमिरि *(३८)बैदेही* । उपजी बिरह बिथा अति तेही ।। लं.99.2।।
ता पर हरषि चढ़ी *(३९)बैदेही* । सुमिरि राम सुखधाम सनेही ।। लं.107.8।।
पावक प्रबल देखि *(४०)बैदेही* । हृदय हरष नहिं भय कछु तेही ।। लं. 108.6।।
प्रभुहि सहित बिलोकि *(४१)बैदेही*। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही ।।लं.120.11।।
सासुन्ह सबनि मिली *(४२)बैदेही* । चरनन्हि लागि हरषु अति तेही ।। उ.6.1।।
अनुज राज संपति *(४३)बैदेही* । देह गेह परिवार सनेही ।। उ.15.6।।
आए कपि सब जहँ रघुराई । *(४४)बैदेही* की कुसल सुनाई ।। उ.66.6।।
No comments:
Post a Comment