ज्योतिष समाधान

Sunday, 25 August 2024

#रामायण जानकारी

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में
हनुमत हनुमंत हनुमान हनुमंता हनुमाना हनुमानु आदि(हनुमान् जी) के नाम का *९५ बार* उल्लेख किया है।

*(१)हनुमत* जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयं धरि कृपानिधाना ।। कि.22.12।। 
अंगद *(२)हनुमत* अनुचर जाके । रन बाँकुरे बीर अति बाँके ।। लं 36.4।।

हनुमदादि (हनुमान् आदि)

प्रात होत प्रभु सुभट पठाए । *(३)हनुमदादि* अंगद सब धाए ।। लं.84.4।। 
*(४)हनुमदादि* मुरुछित करि बंदर । पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ।। लं.97.11।।

*(५)हनुमदादि* सब बानर बीरा । धरे मनोहर मनुज सरीरा ।। उ.7.211

भरतादि अनुज बिभीषनांगद *(६)हनुमदादि* समेत ते । गहें छत्र चामर व्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ।। उ.11.10छं ।।

हनुमंत (हनुमन्त, हनुमान् जी)

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ *(७)हनुमंत* । मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।। कि.3।। 
तब *(८)हनुमंत* उभय दिसि की सब कथा सुनाइ । पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ ।। कि.4।। 
तब (९)हनुमंत* बोलाए दूता । सब कर करि सनमान बहूता ।। कि.18.6।। 
सुनु *(१०)हनुमंत* संग लै तारा । करि बिनती समुझाउ कुमारा ।। कि.19.3।। 
बचन सुनत सब बानर जाँ तहँ चले तुरंत । तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल *(११)हनुमंत* ।। कि 22।। 
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि *(१२)हनुमंत* हृदय अति भाए ।। सुं.0.1।। 
तब *(१३)हनुमंत* कही सब राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।। सुं.6।। 
तब *(१४)हनुमंत* कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ।। सुं.7.4।। 
तब *(१५)हनुमंत* निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।। सुं.12.8।। 
कह *(१६)हनुमंत* विपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ।। सुं.31.3।। 
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि *(१७)हनुमंत* । चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ।। सुं 32।। 
कह *(१८)हनुमंत* सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास । तव मूरति विधु उर वसति सोइ स्यामता अभास ।। लं.12क ।। 
अंगद अरु *(१९)हनुमंत* प्रवेसा । कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ।। लं.44.7।। 
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ *(२०)हनुमंत* ।। लं. 60क ।।

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।

अंगद नील मयंद नल संग सुभट *(२१)हनुमंत* ।। लं.75 ।। 
*(२२)हनुमंत* संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले ।

रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले ।। लं.94.10छ ।।

*(२३)हनुमंत* अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे ।

मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे ।। लं.95.10छं ।। तब *(२४)हनुमंत* नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए ।। लं. 106.3।।

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदय बसहुँ *(२५)हनुमंत*

सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत ।। लं.107।।

तब *(२६)हनुमंत* नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा ।। 3.1.15 ।।

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ *(२७)हनुमंत* ।

तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए *(२८)भगवंत* ।। उ.19ख ।।

हनुमंतहि (हनुमान् जी को)

आगें कै *(२९)हनुमंतहि* लीन्हा । पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ।। कि.23.8।।

प्रभु *(३०)हनुमंतहि* कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ।। लं.120.1।।

हनुमंता (दे. हनुमंत)

जेहिं गिरि चरन देइ *(३१)हनुमंता* । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।। सुं.0.7।।

अब मोहि भा भरोस *(३२)हनुमंता* । बिनु हरिकृपा मिलहि नहि संता ।। सुं 6.4।। 
पावक जरत देखि *(३३)हनुमंता* । भयउ परम लघुरूप तुरंता ।। सुं 24.8।। 
कोउ कह कहँ अंगद *(३४)हनुमंता*। कहँ नल नील दुविद बलवंता ।। ल.42.2।। 
धरि लघु रूप गयउ *(३५)हनुमंता* । आनेउ भवन समेत तुरंता ।। लं.54.8।। 
पुनिः उठि तेहिं मारेउ *(३६)हनुमंता* । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ।। लं.64.8।। 
अस कहि कपि सब चले तुरंता । अंगद कहइ सुनहु *(३७)हनुमंता* ।। उ.18.10।। 
जोरि पानि कह तब *(३८)हनुमंता* । सुनहु दीनदयाल भगवंता ।। उ.35.5।।

हनुमान (हनुमान् जी, श्रीराम के महान् भक्त, वानर जाति के योद्धा 'केसरी' और

माता 'अंजना/अंजनी' के पुत्र, इन्द्र के वज्र से इनका हनु अर्थात् ठोड़ी भंजन होने से हनुमान् नामकरण, जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को अर्थात् दीपावली के एक दिन  पूर्व हुआ था, सुग्रीव के मंत्री थे, श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता के सेतु बने, सीता की खोज की, संजीवनी लाकर लक्ष्मण की प्राणरक्षा की, हनुमान् जी ब्रह्मचर्य, ज्ञान, शक्ति, कर्मठता और राम-भक्ति के महान् आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित है)

मन *(३९)हनुमान* कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ।। कि 23.4।।

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ *(४०)हनुमान* ।। सुं 2।।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि *(४१)हनुमान* हरषि हियँ लाए ।। सुं 29.711

सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि ।

कस रे सठ *(४२)हनुमान)* कपि गयउ जो तव सुत मारि ।। लं 26।।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर ।

आइ गयउ *(४३)हनुमान* जिमि करुना महँ बीर रस ।। लं.61सो ।। 
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।

धन्य धन्य तव जननी कह अंगद *(४४)हनुमान* ।। लं.76।।

बिनु प्रयास *(४५)हनुमान* उठायो । लंका द्वार राखि पुनि आयो ।। लं.76.1।।

उत पचार दसकंधर इत अंगद *(४६)हनुमान* ।

लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ।। लं.80ग ।।

प्रगटेसि बिपुल *(४७)हनुमान* । धाए गहे पाषान ।। लं.100.13छ ।।

तब *(४८)हनुमान* राम पहिं जाई । जनकसुता कै कुसल सुनाई ।। लं.107.211

कपिपति नील रीछपति अंगद नल *(४९)हनुमान* ।

सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ।। लं.118ख ।।

बूझहिं बैठि राम गुन गाहा । कह *(५०)हनुमान* सुमति अवगाहा ।। उ.25.5।।

हनुमाना (दे. हनुमान)
महाबीर बिनवउँ *(५१)हनुमाना*। राम जासु जस आप बखाना ।। बा 16.10 ।। 
अति सभीत कह सुनु *(५२)हनुमाना*। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ।। कि.0.3।। 
तारा सहित जाइ *(४३)हनुमाना*। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ।। कि.19.4।। 
सुनहु नील अंगद *(५४)हनुमाना*। जामवंत मतिधीर सुजाना ।। कि 22.1।। 
कहइ रीछपति सुनु *(५५)हनुमाना*। का चुप साधि रहेहु बलवाना ।। कि 29.3।। 
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ *(५६)हनुमाना* ।। सुं.0.811 
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ *(५७)हनुमाना* ।। सुं 1.6।। 
अति लघु रूप धरेउ
*(५८)हनुमाना*। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।। सु.4.4।। 
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ *(५९)हनुमाना* ।। सु.12.411 
बूड़त बिरह जलधि *(६०हनुमाना*। भयहु तात मो कहुँ जलजाना ।। सुं 13.2।। 
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन *(६१)हनुमाना* ।। सु. 16.4।। 
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ *(६२)हनुमाना* ।। सु.175।। 
उलटा होइहि कह *(६३)हनुमाना*। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ।। सुं 23.4।। 
हरषे सब बिलोकि *(६४)हनुमाना*। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ।। सुं 27.3।। 
नाथ काजु कीन्हेउ *(६५)हनुमाना*। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ।। सुं 28.5।। 
प्रभु प्रसन्न जाना *(६६)हनुमाना*। बोला बचन विगत अभिमाना ।। सुं 32.6।। सुनि प्रभु बचन हरष *(६७)हनुमाना*। सरनागत बच्छल भगवाना ।। सु. 42.9।। बड़भागी अंगद *(६८)हनुमाना*। चरन कमल चापत विधि नाना ।। लं.10.7।।

निज दल विकल सुना *(६९)हनुमाना*। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ।। लं.42.3।। गए जानि अंगद *(७०)हनुमाना*। फिरे भालु मर्कट भट नाना ।। लं.45.3।। 
सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद *(७१)हनुमाना* ।। लं.46.1।।
 बार बार पचार *(७२)हनुमाना*। निकट न आव मरमु सो जाना ।। लं.50.4।। 
तब लगि लै आयउ *(७३)हनुमाना*। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ।। लं. 54.6।। 
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ *(७४)हनुमाना* ।। लं .57.611 
हरषि राम भेटेउ *(७५)हनुमाना*। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ।। लं.61.1।। 
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद *(७६)हनुमाना* ।। लं.81.6।। 
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल *(७७)हनुमाना* ।। लं.94.5।। 
पुनि प्रभु बोलि लियउ *(७८)हनुमाना*। लंका जाहु कहेउ भगवाना ।। लं.106.1।। 
मारुत सुत मैं कपि *(७९)हनुमाना*। नामु मोर सुनु कृपानिधाना ।। उ.1.8।। 
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे *(८०)हनुमाना* ।। उ.18.7।। 
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह *(८१)हनुमाना* ।। 3.35.411

हनुमानू (दे. हनुमान)

किएहुँ कुवेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत *(८२)हनुमानू* ।। बा.6.7।। 
कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ *(८३)हनुमानू* ।। बा 26.8।।

हनू (दे. हनुमान)

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत । जय कृपाल कहि कपि चले अंगद *(८४)हनू* समेत ।। सुं 44।।

हनूमंत (दे. हनुमान)

कहें नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद *(८५)हनूमंत* बल सीवा ।। लं. 49.2।।

हनूमान (दे. हनुमान)

*(८६)हनूमान* तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ।। सुं. 1।।
सोइ छल *(८७)हनूमान* कहें कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।। सुं 2.4।। 
*(८८)हनूमान* अंगद रन गाजे । हाँक सुनत रजनीचर भाजे ।। लं.46.6।। 
है दससीस मनुज रघुनायक । जाके *(८९)हनूमान* से पायक ।। लं.62.3।। 
देखा श्रमित विभीषनु भारी। धायउ *(९०)हनूमान* गिरि धारी ।। लं.94.1।।(*९१)हनूमान* अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ।। लं.118.10।। 
देखत *(९२)हनूमान* अति हरषेउ । पुलक गात लोचन जल बरषेउ ।। उ.1.1।। 
करहिं बिनय अति बारहि बारा। *(९३)हनूमान* हिय हरष अपारा ।। उ.41.2।। 
*(९४)हनूमान* भरतादिक भ्राता । संग लिए सेवक सुखदाता ।। 3.49.211 
*(९५)हनूमान* सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ।। उ.49.8।।
[25/8, 8:53 am] Devi Lal Ji Sadora: *रामचरितमानस में तुलसी द्वारा शत्रुघ्न, शब्द की केवल* *सात* बार आवृत्ति की गई है
*सत्रुघुन* (शत्रुघ्न, श्रीराम के छोटे भाई, दशरथ और सुमित्रा के छोटे पुत्र, लक्ष्मण इनके जुड़वाँ भाई थे, इनकी पत्नी श्रुतिकीर्ति थीं, यह भरत के अनुगामी रहे) 

सुनि *(१)सत्रुघुन* मातु कुटिलाई । जरहिं गात रिस कछु न बसाई ।। अ.162.1।।

लखनु *(२)सत्रुसूदनु* एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ।। बा.310.7||

जाके सुमिरन तें रिपु नासा । नाम *(३)सत्रुहन* बेद प्रकासा ।। बा.196.8।।

भरत *(४)सत्रुहन* दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ।। बा.197.4।।

कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु ।

राम लखन तुम्ह *(५)सत्रुहन* सरिस सुअन सुचि जासु ।। अ.173।।

पुनि प्रभु हरषि *(६)सत्रुहन* भेंटे हृदय लगाइ ।

लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ।। उ।उ.5।।

भरत *(७)सत्रुहन* दोनउ भाई । सहित पवनसुत उपबन जाई ।। उ.25.4।।


 मारुतसुत मारुति (पवनपुत्र, पवनसुत, हनुमान्)आदि नाम का रामचरितमानस में *१३ बार* उल्लेख किया है

अब *(१)मारुतसुत* दूत समूहा। पठवहु जहँ तहें बानर जूहा ।। कि.18.4।। 
ताहि मारि *(२)मारुतसुत* बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ।। सुं 25॥ *(३)मारुतसुत* देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौ जाइ श्रम ।। ल. 56.2।। 
तब *(४)मारुतसुत* मुठिका हन्यो । परये धरनि व्याकुल सिर धुन्यो ।। ल 64.7।। 
मुरुछा गइ *(५)मारुतसुत* जागा । सुग्रीवहि तब खोजन लागा ।। ल.65.4।। *(६)मारुतसुत* अंगद नल नीलाः । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ।। ल.72.8।। 
बुधि बल निसिचर परइ न पारये। तब मारुतसुत प्रभु संभारये ।। ल.94.8।। *(७)मारुतसुत* के संग सिधावहु । सादर जनकसुतहि लै आवहु ।। ल.107.4।। 
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं । चितवहि सब *(८)मारुतसुत* पाहीं ।। उ.35.2।। 
*(९)मारुतसुत* तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई ।। उ.49.7।।

मारुति (हनुमान्, पवनसुत)

उठि बहोरि *(१०)मारुति* जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ।। लं.75.8।। 
बालितनय *(११)मारुति* नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ।। लं.97.3।। तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत *(१२)मारुति* नयसोला ।। लं.105 2।। 
प्रभु नारद संबाद कहि *(१३)मारुति* मिलन प्रसंग । पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ।। 3.66 क ।।
[25/8, 8:53 am] Devi Lal Ji Sadora: रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने पवन पुत्र या पवन कुमार के नाम का प्रयोग *पांच बार* किया है।

*पवनकुमार* (वायु के पुत्र, हनुमान्

प्रनवउँ *(१)पवनकुमार* खल बन पावक ग्यानघन । जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ।। बा.17॥ 

पवनसुत (वायु के पुत्र, हनुमान् सुमिरि *(२)पवनसुत* पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ।। बा 25.6।।देखि *(३)पवनसुत* पति अनुकूला । हृदय हरष बीती सब सूला ।। कि 3.1॥

इहाँ *(४)पवनसुत* हृदय बिचारा । राम काजु सुग्रीवं बिसारा ।। कि 18.1।।
 गिरि ते उतरि *(५)पवनसुत* आवा । सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ।। कि 23.7।।

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