Friday, 31 May 2024

तेरह दिन का पक्ष करेगा कमाल

अगर 13  दिन का पक्ष हो तो भीषण संहार होता है (महाभारत)

इस वर्ष आषाढ़ मास का कृष्ण पक्ष केवल 13 दिन का, ऐसा संयोग द्वापर युग के महाभारत काल में था......!!!!!
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि आषाढ़ मास 23 जून से शुरू है और 21 जुलाई तक चलेगा
हिंदू पंचांग के अनुसार इस साल संवत् 2081 में बहुत समय बाद आषाढ़ कृष्ण पक्ष केवल 13 दिन का पर रहा है। ज्योतिष शास्त्र में इसे दुर्योंग काल माना जा रहा है। ऐसा संयोग महाभारत काल में पड़ा था। इस साल दुर्योग काल के चलते प्रकृति का प्रकोप बढ़ने की संभावना जताई जा रही है। 
 विक्रम संवत् का प्रत्येक महीना दो पखवाड़ा यानी-15-15 दिनों का होता है। इसे कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष कहा जाता है। जब किसी पक्ष में एक तिथि दो दिन पड़ती है तो यह पक्ष 16 दिनों का हो जाता है और तिथि के घटने पर 14 दिनों का होता है।
इस साल विक्रम संवत 2081 में आषाढ महीने का कृष्ण पक्ष 23 जून से शुरू होकर 5 जुलाई तक चलेगा अर्थात कृष्ण पक्ष 13 दिनों का रहेगा।अब शुक्ल_पक्ष 6 जुलाई से शुरू हो रहा है जो 21जुलाई तक चलेगा। इस कृष्ण पक्ष में दो तिथियों द्वतिया और चतुर्थी का क्षय हो रहा है, इसलिए यह कृष्ण पक्ष केवल 13 दिनों का होगा। ऐसा संयोग बहुत सालों में आता है। ,इसे "विश्व घस्र" पक्ष कहते हैं। यह बहुत बड़ा दुर्योग है, बहुत वर्ष बाद ऐसा दुर्योग आता है। महाभारत युद्ध के पहले 13 दिन के पक्ष का दुर्योग काल आया था। उस समय बड़ी जनधन हानि हुई थी। घनघोर युद्ध था।
पक्षस्य_मध्ये_द्वितिथि_पतेतां_यदा_भवेद्रौरव_काल_योगः। 
पक्षे_विनष्टं_सकलं_विनष्ट_मित्याहुराचार्यवराः_समस्ताः

एकपक्षे_यदा_यान्ति_तिथियश्च_त्रयोदश।
त्रयस्तत्र क्षयं यान्ति वाजिनो मनुजा गज:।।
त्रयोदश दिने पक्षे तदा संहरेत जगत् ।
अपि_वर्षे_सहस्रेण_कालयोग_प्रकीर्तित:।।

द्वितियामारभ्य_चतुर्दश्यन्तं_तिथिद्वये_ह्रासे।
 त्रयोदश_दिनात्मक:पक्षोऽति_दोषोवतो_भवति।।

अर्थात आषाढ़ कृष्ण पक्ष 13 दोनों का है यह 13 दिन का पक्ष होने से पृथ्वी पर जनहानि युद्ध की संभावना होती है जिस वर्ष 13 दिन का पक्ष होता है उसे वर्ष संपूर्ण विश्व के लिए हानिकारक होता है विशेष कर द्वितीया तिथि से लेकर चतुर्दशी तिथि पर्यंत अगर दो तिथि का क्षय हो तो विशेष रूप से संपूर्ण विश्व के लिए हानिकारक होता है यह पक्ष मंगल कार्य हेतु भी उत्तम नहीं है 
यह "रौरव काल" संज्ञक दुर्योग होता है। ज्योतिष शास्त्र में इसे अच्छा नहीं माना गया है। ऐसा दुर्योग होने से अतिवृष्टि, अनावृष्टि, राजसत्ता का परिवर्तन, विप्लव, वर्ग भेद आदि उपद्रव होने की संभावना पूरे साल बनी रहती है। ज्योतिष शास्त्र में कहा गया है कि त्रयोदशदिने पक्षे_तदा_संहरते_जगत्। 
अपिवर्षसहस्रेण_कालयोगःप्रकीर्तितः। 
अर्थात समस्त प्रकृति को पीड़ित करने वाला यह दुर्योग संक्रामक रोगों की भी वृद्धि कर सकता है। इस पक्ष में मांगलिक कार्य, व्रतारम्भ, उद्यापन, भूमि भवन का क्रय विक्रय, गृह प्रवेश आदि शुभ कार्यों का त्याग कर देना चाहिए।
काल_चक्र_की_गणना_भारी।
जाने_मुरारी_या_त्रिपुरारी।।

          जयश्रीसीताराम
🙏

Wednesday, 29 May 2024

#पूजा में सिर ढकना चाहिए या नहीं

आजकल एक प्रथा चल पड़ी है कि पूजन आरंभ होते ही रूमाल निकाल कर सर पर रख लेते है … जबकि पूजा में सिर ढकने को शास्त्र निषेध करता है।शौच के समय ही सिर ढकने को कहा गया है। प्रणाम करते समय,जप व देव पूजा में सिर खुला रखें। तभी शास्त्रोचित फल प्राप्त होगा।

शास्त्र प्रमाण:-
उष्णीषो कञ्चुकी चात्र मुक्तकेशी गलावृतः ।
 प्रलपन् कम्पनश्चैव तत्कृतो निष्फलो जपः ॥
अर्थात् -
पगड़ी पहनकर, कुर्ता पहनकर, नग्न होकर, शिखा खोलकर, कण्ठको वस्त्रसे लपेटकर, बोलते हुए, और काँपते हुए जो जप किया जाता है, वह निष्फल होता है ।'

शिर: प्रावृत्य कण्ठं वा मुक्तकच्छशिखोऽपि वा |
अकृत्वा पादयोः शौचमाचांतोऽप्यशुचिर्भवेत् ||
                   ( -कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 9)
अर्थात्-- सिर या कण्ठ को ढककर ,शिखा तथा कच्छ(लांग/पिछोटा) खुलने पर,बिना पैर धोये आचमन करने पर भी अशुद्ध रहता हैं(अर्थात् पहले सिर व कण्ठ पर से वस्त्र हटाये,शिखा व कच्छ बांधे, फिर पाँवों को धोना चाहिए, फिर आचमन करने के बाद व्यक्ति शुद्ध(देवयजन योग्य) होता है)।

सोपानस्को जलस्थो वा नोष्णीषी वाचमेद् बुधः।
                  -कुर्म पुराण,अ.13,श्लोक 10अर्ध।
अर्थात्-- बुध्दिमान् व्यक्ति को जूता पहनें हुए,जल में स्थित होने पर,सिर पर पगड़ी इत्यादि धारणकर आचमन नहीं करना चाहिए ।

शिरः प्रावृत्य वस्त्रोण ध्यानं नैव प्रशस्यते।-(कर्मठगुरूः)
अर्थात्-- वस्त्र से सिर ढककर भगवान का ध्यान नहीं करना चाहिए ।

उष्णीशी कञ्चुकी नग्नो मुक्तकेशो गणावृत।
अपवित्रकरोऽशुद्धः प्रलपन्न जपेत् क्वचित् ॥-
                              (शब्द कल्पद्रुम  )
अर्थात्-- सिर ढककर,सिला वस्त्र धारण कर,बिना कच्छ के,शिखा खुलीं होने पर ,गले के वस्त्र लपेटकर । 
अपवित्र हाथों से,अपवित्र अवस्था में और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।

न जल्पंश्च न प्रावृतशिरास्तथा।-योगी याज्ञवल्क्य
अर्थात्-- न वार्ता करते हुए और न सिर ढककर।

अपवित्रकरो नग्नः शिरसि प्रावृतोऽपि वा । 
प्रलपन् प्रजपेद्यावत्तावत् निष्फलमुच्यते  ।।          (रामार्च्चनचन्द्रिकायाम्)
अर्थात्-- अपवित्र हाथों से,बिना कच्छ के,सिर ढककर जपादि कर्म जैसे किये जाते हैं, वैसे ही निष्फल होते जाते हैं ।
शिव महापुराण उमा खण्ड अ.14-- सिर पर पगड़ी रखकर,कुर्ता पहनकर ,नंगा होकर,बाल खोलकर ,गले के कपड़ा लपेटकर,अशुद्ध हाथ लेकर,सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर और बोलते हुए कभी जप नहीं करना चाहिए ।।
               ज्योतिषाचार्य डॉ०आशुतोष मिश्र 
                       8887540341

Saturday, 25 May 2024

नौतपा_का_तपना_क्यों_जरूरी_है

#जानिये_नौतपा_का_तपना_क्यों_जरूरी_है।

नौतपा अगर ना तपे तो क्या होता है? 

[‘दो मूसा, दो कातरा, दो तीड़ी, दो ताव।
दो की बादी जळ हरै, दो विश्वर दो वाव।]

‘नौतपा के पहले दो दिन लू न चली तो चूहे बहुत हो जाएंगे। 
अगले दो दिन न चली तो कातरा (फसल को नुकसान पहुँचाने वाला कीट)। 
तीसरे दिन से दो दिन लू न चली तो टिड्डियों के अंडे नष्ट नहीं होंगे। 
चौथे दिन से दो दिन नहीं तपा तो बुखार लाने वाले जीवाणु नहीं मरेंगे। 
इसके बाद दो दिन लू न चली तो विश्वर यानी साँप-बिच्छू नियंत्रण से बाहर हो जाएंगे। 
आखिरी दो दिन भी नहीं चली तो आंधियां अधिक चलेंगी, फसलें चौपट कर देंगी।

Wednesday, 22 May 2024

शिव जी पर कुम कुम

शिव लिंगे हरिद्राद्यर्पण विधी निषेध :-

कल रात्रि ग्रुप के एक विद्वान् महाभाग फोन आया था की,प्रायः यह भ्रम फैलाया जाता है कि शिवलिङ्ग पर हरिद्रा(हल्दी) अथवा कुमकुम अर्पित करना निषिद्ध है एवं इनका पूजोपचारादिके अन्तर्गत कोई विधान नहीं है।
उनकी संका थी की क्या ऐसा वास्तव में है अथवा ये केवल एक भ्रम मात्र है।

                          वस्तुतः ऐसी बातें निराधार हैं। शिवलिङ्ग पर हरिद्रा, कुमकुम अर्पण करने के विधानका पर्याप्त वर्णन धर्मग्रंथो में प्राप्त होता है। ऐसी कल्पनाओं का शमन करने हेतु निम्न शास्त्रप्रमाणों को देखना चाहिए —

🔥उष्णोदकेन हरिद्राद्येन लिंगमूर्ति पीठसहितां विशोध्य गंधोदकहिरण्योदकमंत्रोदकेन रुद्राध्यायं पठमानः
[लिङ्गo,उत्तरभाग, 24/17]

🔥सुगन्धामलकं दद्याद्धरिद्रां च यथाक्रमम्।
ततः संशोध्य सलिलैर्लिङ्ग बेरमथापि वा॥
[शिवo,वायवीयसंहिता-उत्तरखण्ड,24/43]

🔥रक्तचन्दनपुष्पाढ्यं पानीयं चातिशीतलम्।
मृदु एलारसाक्तं च खण्डं पूगफलस्य च॥
🔥कस्तूरिका कुंकमं च रसो मृगमदात्मकः।
पुष्पाणि सुरभीण्येव पवित्राणि शुभानि च॥
[शिवमहापुराण, वायवीयसंहिता-उत्तरखण्ड,25/15-18]

🔥स्नापयेत्पयसा पूर्वं दध्ना घृतयुतेन च।
मधुनेक्षुरसेनैव कुंकुमेन विलेपयेत्॥४॥
[स्कन्दमहापुराणे, प्रभासक्षेत्रमाहात्म्येचण्डीशमाहात्मये,30/4]

🔥हरिद्राखण्डचूर्णेन यो विलिम्पेदुमासखम्।
स मे गणेशः स्कंदः स्यादश्वमेधायुतं लभेत्॥
गंधं दत्वा चंद्रमौलौ द्वादशाहफलं लभेत्।
त्रिफलं चंदनं प्रोक्तं कुंकुमं तत्समं स्मृतम्॥
[शिवरहस्ये, एकादशांशे]

🔥यवगोधूमजैश्चूर्णैः कषायैर्रजनीसहै:।
कवोष्णेनाम्बुना देवि स्नापयेत्तदननंतरम्॥
[शिवरहस्ये, उग्राख्ये सप्तमांशे]

🔥ततो हरिद्रया देवमालिप्य स्नानमाचरेत्।
[शैवाचारप्रदीपिकायाम्]

🔥हरिद्रां कवचेन संयोजयेत्..... मूलेन मर्दयेत्।
.......
चन्दनागरुकस्तुरी कुंकुमकर्पूरमनश्शिलैलाकुष्ठतक्कोल-लवंगोशीररजनीचूर्णसहितमुदकं गंधोदकम्।
[शिवार्चनचंद्रिकायां, दिक्षितेन्द्र]

🔥चन्दनागुरुकर्पूरै: कृष्णपिष्टै: सकुंकुमै:।
लिंग पर्याप्त मालिप्य कल्पकोटिं वसेद्दिवी॥

शिवलिंग के सुगन्धानुलेपन का महान फल होता है। सुगन्धानुलेपन के पुण्य से भी दुगना चन्दनानुपेलन का फल होता है। उससे आठ गुना अधिक पुण्य अगरू लेपन का होता है और उसमें भी कृष्णागरु का फल दोगुना होता है, इससे भी सौ गुना फल कुंकम के अनुलेपन का कहा जाता है। 

अत: शिवलिंग पर कुंकुम का अनुलेपन अवश्य करना चाहिए, इसमें कोई निषेध नहीं। चन्दन, अगरु, कृष्णागुरु, कर्पूर एवं कुंकुम से ​शिवलिंग का अनुलेपन करने वाला करोडों कल्प तक देवलोक में निवास करता है।

🔥नोट:-
केवल पारदलिङ्ग हेतु हरिद्रा का निषेध है। 

यथा-
नैवार्पणं कुर्यात हरिद्रा हिंगुल च वासवः।
रसलिङ्गं संततिः दद्याद् कुष्ठी वा हृदयार्णवः॥

सर्वे जना: सुखिनो भवन्तुः।
(साभार शास्त्री लखन पाल शर्मा)

Tuesday, 14 May 2024

यज्ञ

ध्यान से श्रवण करिये।~~~ 
#अन्नहीनो_दहेद्राष्ट्रं_मन्त्रहीनस्तु_ऋत्विजः ।
#दीक्षितं_दक्षिणाहिनो_नास्ति_यज्ञसमो_रिपुः ।।
अन्नहीन (ब्राह्मण भोजन से रहित) यज्ञ से राष्ट्र का , मंत्र हीन यज्ञ से पुरोहित का ,  ओर दक्षिणा से हीन यज्ञ करने से यजमान का नाश होता है । अतः संपूर्ण विधि विधान से रहित यज्ञ न करे । 
Arun shastri जबलपुर
#प्रश्न_नही_स्वाध्याय_करे!!

~~~~~(सर्वेषाम् एव शौचानाम्) सब शौचों में (अर्थ शौचं परं स्मृतम्) धन की शुद्धि सबसे बढ़कर है। (यः अर्थे शुचिः) जो धन कमाने में शुद्ध है (स शुचिः) वह वस्तुतः शुद्ध है। (न मृत + वारि + शुचिः शुचिः) मिट्टी और जल की शुद्धि शुद्धि नहीं है‼️
‼️स्वधर्म वृत्ति से प्राप्त धन ही शुद्ध होता है ‼️
 जिसके धन कमाने के साधन शुद्ध नहीं हैं वह 
 कितना ही अन्य बातों में शुद्ध क्यों न हो शुद्ध 
   नहीं कहा जा सकता‼️
 
  वाचा शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
  सर्वभूते दया शौचमेतच्छौचं परार्थिनाम् ‼️
  यदि आप दिव्यता चाहते है तो आपके वाचा, मन 
  और इन्द्रियों में शुद्धता होनी चाहिए. उसी प्रकार 
   आपके ह्रदय में करुणा होनी चाहिए.‼️
~~~~~~
उनका कहना भी सही है, इस संबंध में एक प्रमाण भी है..."" मूर्खो वदति विष्णाय, ज्ञानी वदति विष्णवे ।।

Sunday, 12 May 2024

👉सूतक ,पातक निर्णय --



।।👉सूतक ,पातक निर्णय --

 👉हिन्दू धर्म में सूतक और पातक नाम से दो परंपराएं प्रचलित हैं। किसी के भी घर-परिवार में कोई शांत हो जाते हैं या स्वर्ग चला जाता है तो उस परिवार या घर में सूतक लग जाता है। मृतक के जितने भी खून के रिश्ते के बंधु बंधव होते हैं उनक सभी के घरों में सूतक माना जाता है। क्या होता है या सूतक और कितने समय तक का होता है जानिए इस संबंध में संक्षिप्त जानकारी।
 
 👉क्या होता है सूतक और पातक : --

👉सूतक का संबंध जन्म-मरण के कारण हुई अशुद्धि से है। जन्म के अवसर पर जो नाल काटा जाता है और जन्म होने की प्रक्रिया के दौरान जो हिंसा होती है, उसमें लगने वाला दोष या पाप प्रायश्‍चित के रूप में पातक माना जाता है। इस तरह मरण से फैली अशुद्धि से सूतक और दाह संस्कार से हुई हिंसा के दोष या पाप से प्रायश्‍चित स्वरूप पातक माना जाता है।

 👉जिस तरह घर में बच्चे के जन्म के बाद सूतक लगता है उसी तरह गरुड़ पुराण के अनुसार परिवार में किसी सदस्य की मृत्यु होने पर लगने वाले सूतक को 'पातक' कहते हैं। सूतक और पातक की परिभाषा इससे अलग भी है। जैसे व्यक्ति की मृत्यु होने के पश्चात गोत्रज तथा परिजनों को विशिष्ट कालावधि तक अशुचित्व और अशुद्धि प्राप्त होता है, उसे सूतक कहते हैं। अशुचित्व अर्थात अमंगल और शुद्ध का विपरित अशुद्धि होता है।
 
 👉कब-कब लगता है सूतक : --

👉जन्म काल, ग्रहण काल, स्त्री के मासिक धर्म का काल और मरण काल में सूतक और पातक का विचार किया जाता है। सभी के काल में सूतक के दिन और समय का निर्धारण अलग-अलग होता है। 

👉सूतक-पातक का समय : ---

1. 👉मृत व्यक्ति के परिजनों को 10 दिन तथा अंत्यक्रिया करने वाले को 12 से 13 दिन (सपिंडीकरण तक) सूतक पालन कड़ाई से करना होता है। मूलत: यह सूतक काल सवा माह तक चलता है। सवा माह तक कोई किसी के घर नहीं जाता है। सवा माह अर्थात 37 से 40 दिन। 40 दिन में नक्षत्र का एक काल पूर्ण हो जाता है। घर में कोई सूतक (बच्चा जन्म हो) या पातक (कोई मर जाय) हो जाय 40 तक का सूतक या पातक लग जाता है।
 
2. 👉ऐसा भी कहा जाता है कि सात पीढ़ियों पश्चात 3 दिन का सूतक माना जाता है, लेकिन यह निर्धारित करना कठिन है। मृतक के अन्य परिजन (मामा, भतीजा, बुआ इत्यादि परिजन) कितने दिनों तक सूतक का पालन करें, यह संबंधों पर निर्भर है तथा उसकी जानकारी पंचांग व धर्मशास्त्रों में दी जाती है। लेकिन जिसका संबंध रक्त से है उसे उपर बताए नियमों अनुसार ही चलना होता है।
 
3. 👉जन्म के बाद नवजात पीढ़ियों को हुई अशुचिता 3 पीढ़ी तक 10 दिन, 4 पीढ़ी तक 10 दिन, 5 पीढ़ी तक 6 दिन गिनी जाती है। एक रसोई में भोजन करने वालों के पीढ़ी नहीं गिनी जाती है। वहां पूरा 10 दिन तक का सूतक होता है। प्रसूति नवजात की मां को 45 दिन का सूतक रहता है। प्रसूति स्थान 1 माह अशुद्ध माना जाता है। इसीलिए कई लोग अस्पताल से घर आते हैं तो स्नान करते हैं। पुत्री का पीहर में बच्चे का जन्म में 3 दिन का, ससुराल में जन्म दे तो उन्हें 10 दिन का सूतक रहता है।
 
4. 👉मरण के अवसर पर दाह संस्कार में इत्यादि में हिंसा होती है। इसमें लगने वाले दोष या पाप के प्रायश्चित के स्वरूप पातक माना जाता है। जिस दिन दाह संस्कार किया जाता है, उस दिन से पातक के दिनों की गणना होती है। न कि मृत्यु के दिन से। अगर किसी घर का सदस्य बाहर है तो जिस दिन उसे सूचना मिलती है उस दिन तक उसके पातक लगता ही है। अगर 12 दिन बाद सूचना मिले तो स्नान मात्र से शुद्धि हो जाती है।
 
5. 👉अगर परिवार की किसी स्त्री का गर्भपात हुआ है तो जितने माह का हुआ है उतने दिन का ही पातक माना जाएगा। घर का कोई सदस्य मुनि, साध्वी है उसे जन्म मरण का सूतक नहीं लगता है। किंतु उसका ही मरण हो जाने पर उसका एक दिन का पातक लगता है।
 
6. 👉किसी की शवयात्रा में जाने को एक दिन, मुर्दा छूने को 3 दिन और मुर्दे को कन्धा देने वाले को 8 दिन की अशुद्धि मानी जाती है। घर में कोई आत्मघात करले तो 6 माह का पातक माना जाता है। छह माह तक वहां भोजन और जल ग्रहण नहीं किया जा सकता। वह मंदिर नहीं जाता और ना ही उस घर का द्रव्य मंदिर में चढ़ाया जाता है।
 
7. 👉इसी तरह घर के पालतू गाय, भैंस, घोड़ी, बकरी इत्यादि को घर में बच्चा होने पर 1 दिन का सूतक परंतु घर से दूर-बाहर जन्म होने पर कोई सूतक नहीं रहता। बच्चा देने वाली गाय, भैंस और बकरी का दूध, क्रमशः 15 दिन, 10 दिन और 8 दिन तक अशुद्ध रहता है।
 
 👉सूतक-पातक के नियम : --

1. 👉सूतक और पातक में अन्य व्यक्तियों को स्पर्श न करें। 
2. 👉कोई भी धर्मकृत्य अथवा मांगलिक कार्य न करें तथा सामाजिक कार्य में भी सहभागी न हों। 
3.👉 अन्यों की पंगत में भोजन न करें। 
4.👉 किसी के घर न जाएं और ना ही किसी भी प्रकार का भ्रमण करें। घर में ही रहकर नियमों का पालन करें।
 
5. 👉किसी का जन्म हुआ है तो शुद्धि का ध्यान रखते हुए भगवान का भजन करें और यदि कोई मर गया है तो गरुढ़ पुराण सुनकर समय गुजारें।
 
6.👉 सूतक या पातक काल समाप्त होने पर स्नान तथा पंचगव्य (गाय के दूध, दही, घी, गोमूत्र और गोबर का मिश्रण) सेवन कर शुद्ध हो जाएं।
 
7👉. सूतक पातक की अवधि में देव शास्त्र गुरु, पूजन प्राक्षाल, आहार आदि धार्मिक क्रियाएं वर्जित होती है।
 
8. 👉जिस व्यक्ति या परिवार के घर में सूतक-पातक रहता है, उस व्यक्ति और परिवार के सभी सदस्यों को कोई छूता भी नहीं है। वहां का अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है। वह परिवार भी मंदिर सहित किसी के घर नहीं जा सकता है और न किसी का भोगों पानी या प्रसाद नही ग्रहण करना चाहिए ।

स्त्री को श्राद्ध का अधिकार है या नहीं

माता सीता ने समय के महत्व को समझते हुए अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान करने का निर्णय लिया. देवी सीता ने फल्गु नदी के किनारे बालू का पिंड बनाया और वटवृक्ष, केतकी फूल, नदी और गाय को साक्षी मानकर स्वर्गीय राजा दशरथ का पिंडदान किया. राजा दशरथ की आत्मा इससे बहुत प्रसन्न हुई और देवी सीता को आशीर्वाद दिया था I  .तथा मार्कंडेय पुराण में भी कहा गया है कि अगर किसी का पुत्र न हो तो पत्नी ही बिना मंत्रों के श्राद्ध कर्म कर सकती है इसके अलावा गरुड़ पुराण:के ग्यारहवें अध्याय में बताया गया है पुत्राभावे वधु कूर्यात ..भार्याभावे च सोदनः !
 शिष्यो वा ब्राह्मणः सपिण्डो वा समाचरेत !!
 ज्येष्ठस्य वा कनिष्ठस्य भ्रातृः पुत्रश्चः पौत्रके !
 श्राध्यामात्रदिकम कार्य पुत्रहीनेत खगः !! अर्थात -  ज्येष्ठ पुत्र या कनिष्ठ पुत्र के अभाव में बहू, पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। इसमें ज्येष्ठ पुत्री या एकमात्र पुत्री भी शामिल है। अगर पत्नी भी जीवित न हो तो सगा भाई अथवा भतीजा, भानजा, नाती, पोता आदि कोई भी श्राद्ध कर सकता है। इन सबके अभाव में शिष्य, मित्र, कोई भी रिश्तेदार अथवा कुल पुरोहित मृतक का श्राद्ध कर सकता है। इस प्रकार परिवार के पुरुष सदस्य के अभाव में कोई भी महिला सदस्य व्रत लेकर पितरों का श्राद्ध, तर्पण कर सकती है।  आप सभी विद्वानों से सविनय निवेदन है की तो इसपर उचित प्रकाश  डालने की कृपा करें
प्रश्न की पत्नी को श्राद्ध का अधिकार है अथवा नहीं:- हमारा उत्तर है की पत्नी को श्राद्ध करने का अधिकार है। किन्तु इसके लिए नियम है, स्मरण रहें स्वपुत्र के अतिरिक्त जो भी श्राद्ध करेंगे उन्हें स्वयं को अधिकारी घोषित करना होगा श्राद्ध मे प्रथम और एक मात्र अधिकार पुत्र का ही होता है पुत्र के अभाव मे पत्नी आदि विकल्प होते हैं।
अब विकल्प का निर्णय सुनिए :-
पुत्र, पौत्र, प्रपोत्र, नाती,पत्नी,भाई,भतीजा, पिता, माता,पुत्र वधु, बहन,भांजा,सपिंड (1से 7 पीढ़ी तक के लोग), सोदक (7से 14)
ऊपर से एक एक के अभाव मे अगला श्राद्ध करे ऐसा शास्त्र का आदेश हैं।स्मृति संग्रह और श्राद्ध कल्प मे ये वचन आया है।
और भी वचन हैं जो पत्नी को श्राद्ध का अधिकारी बनाती है -
पितु: पुत्रेन कर्तव्या:पिंडदानोदक कृया।
पुत्राभावे तु पत्नी: स्यात पत्न्याभावे तु सोदर:!!

Saturday, 11 May 2024

दोष देखना

और दूसरी कटोरी खाली रखें जिसमें

आपको सरसों के 8 दाने

बिल्कुल साफ करके पोंछ करके रखने है सुखी कटोरी में

और जिस कटोरी में जल भरा हुआ है उसे भी अपने सामने रख लें और जिस कटोरी में दाने डाल कर रखे हुए हैं वह भी आपके सामने रख ले

अब उपरोक्त मंत्र की माला का जाप कर ले

उसके बाद कटोरी में रखे दानों को राइट हैंड (दांये हाथ) की हथेली में रखें और लेफ्ट हैंड (बांये हाथ)से उसे ढक लें

फिर उसके बाद आप उपरोक्त मंत्र को आठ बार जाप करें

और उन दानों को जल से भरी हुई कटोरी में डाल दे

अब आपको देखना यह है कि कितने दाने जल के ऊपर ऊपर *तैर* रहे हैं

जो डूब जाए उन्हें ना देखें केवल जो जो दानी तैर रहे हैं पानी में उनको आपको गिनना है कितनी संख्या में है

जितनी संख्या होगी उसके अनुसार आपका दोष का निराकरण देख ले

अगर आप की कटोरी में

एक (1) दाना तैर रहा है तो आपको भूत दोष है

(2) दो दाने तैर रहे हैं तो क्षेत्रपाल का दोष है

(3) तीन दाने तैर रहे हैं तो शौकीनी दोष माने

(4) चार दाने तैर रहे हैं तो भूतनी दोष माने

(5) पांच दाने तैर रहे हैं तो आकाश देवी का दोष माने

(6) छः दाने तैर रहे हैं तो जल देवता का दोष माने

(7) सात दाने तैर रहे हैं तो कुलदेवी का दोष जाने

(8) आठ दाने तैरे तो अपने गौत्र का दोष जाने यानी कि अपने जो भी गोत्र है और उसका दोष जाने

यदी सभी दाने डूब जाते हैं तो आपको किसी भी प्रकार का कोई दोष नहीं है

जो भी दोष नजर आता हे उसी अनुसार निराकरण करवायें या करें तो आपको जल्द ही आराम महसूस होगा ।

gurudev 

Bhubneshwar

9893946810

Wednesday, 8 May 2024

गुरु शुक्र अस्त में कैसे करे

शान्ति कर्माणि कुर्वीत नित्ये नैमित्तिके तथा।
गुरु भार्गव मौढ्योऽपि दोष: तत्र न जायते।।
(यज्ञ मीमांसा)

शांति कर्म नित्य नैमित्तिक कर्म आदि गुरु शुक्र के अस्त होने पर भी किया जा सकता है इसमें कोई दोष नहीं है।

Sunday, 5 May 2024

प्रणव के जप में माता पार्वती का भी अधिकार नहीं- साधारण स्त्री की तो बात ही क्या है-!!#ईश्वर_उवाच --- #द्विजातानां_सहोंकारः_सहितो_द्वादशाक्षरः । #स्त्रीशूद्राणां_नमस्कारपूर्वकः_समुदाह्रतः ।। #प्रणवस्याधिकारो_न_तवास्ति_वरवर्णिनि। #नमो_भगवते_वासुदेवायेति_जपः_सदा ।। 👉👉 स्कन्दपुराणम्/खण्डः ६ (नागरखण्डः)/अध्यायः २५७ #श्रीमहादेव_कहते हैं -- पार्वती ! द्विजों के लिए ओंकार सहित द्वादशाक्षर मंत्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए ओंकार रहित नमस्कार पूर्वक ( नमो भगवते वासुदेवाय ) द्वादशाक्षर मंत्र का जप बताया गया है-- संकरजातियों के लिए रामनाम का (#रांरामाय_नमः ) है - इसे भी प्रणव से रहित उन्हें जपना चाहिए--- #पार्वती ! -- प्रणव जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है- अतः तुम्हें सदा " नमो भगवते वासुदेवाय " इसी मंत्र का जप करना चाहिए--- #तस्मात्_सर्वप्रदो_मंत्र_सोऽयं_पञ्चाक्षरः_स्मृतः। #स्त्रीभिः_शूद्रेश्च_संकीर्णैर्धार्यते_मुक्तिकाङ्क्षिभिः। #नास्य_दीक्षा_न_होमश्च_न_संस्कारो_न_तर्पणम् ।#न_कालो_नोपदेशश्च_सदा_शुचिरयं_मनुः।। 👉👉 #स्कन्दपुराणम्/खण्डः ३ (ब्रह्मखण्डः)/ब्रह्मोत्तर खण्डः/अध्यायः १ अतः यह पञ्चाक्षरमंत्र ( नमः शिवाय द्विजों के लिए-द्विजेतरों व स्त्री के लिए शिवाय नमः ) सब कुछ देने वाला माना गया है-- इसे मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले स्त्री समुदाय- शूद्र- और वर्णसंकर धारण कर सकते हैं-- इस मंत्र के लिए दीक्षा - होम - संस्कार-तर्पण- समय शुद्धि- तथा गुरूमुख से उपदेश आदि की आवश्यकता नहीं है-- यह मंत्र सदा पवित्र है --शिव " यह दो अक्षर का नाम बडे - बडे पातकों का नाश करने में समर्थ है -- और उसमें " नमः " पद जोड दिया जाये - तब तो मोक्ष देने वाला हो जाता है । ❗हर हर महादेव❗

प्रणव के जप में माता पार्वती का भी अधिकार नहीं-
 साधारण स्त्री की तो बात ही क्या है-!!

#ईश्वर_उवाच ---
        #द्विजातानां_सहोंकारः_सहितो_द्वादशाक्षरः ।
         #स्त्रीशूद्राणां_नमस्कारपूर्वकः_समुदाह्रतः ।।          
         #प्रणवस्याधिकारो_न_तवास्ति_वरवर्णिनि।
         #नमो_भगवते_वासुदेवायेति_जपः_सदा ।।
           👉👉 स्कन्दपुराणम्/खण्डः ६ (नागरखण्डः)/अध्यायः २५७                               

#श्रीमहादेव_कहते हैं  -- 
      पार्वती ! द्विजों के लिए ओंकार सहित द्वादशाक्षर 
      मंत्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए
      ओंकार रहित नमस्कार पूर्वक  ( नमो भगवते
       वासुदेवाय ) द्वादशाक्षर मंत्र का जप बताया गया
         है-- संकरजातियों के लिए रामनाम का  (#रांरामाय_नमः ) है - इसे भी प्रणव से रहित उन्हें जपना चाहिए---
               
#पार्वती ! -- प्रणव जप में तुम्हारा अधिकार नहीं है- अतः तुम्हें सदा " नमो भगवते वासुदेवाय " इसी मंत्र का जप करना चाहिए---

 #तस्मात्_सर्वप्रदो_मंत्र_सोऽयं_पञ्चाक्षरः_स्मृतः।
 #स्त्रीभिः_शूद्रेश्च_संकीर्णैर्धार्यते_मुक्तिकाङ्क्षिभिः।
 #नास्य_दीक्षा_न_होमश्च_न_संस्कारो_न_तर्पणम् ।
#न_कालो_नोपदेशश्च_सदा_शुचिरयं_मनुः।।

                               👉👉 #स्कन्दपुराणम्/खण्डः ३ (ब्रह्मखण्डः)/ब्रह्मोत्तर खण्डः/अध्यायः १

  अतः यह पञ्चाक्षरमंत्र ( नमः शिवाय द्विजों के लिए-द्विजेतरों व स्त्री के लिए शिवाय नमः )  सब कुछ देने वाला माना गया है-- इसे मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले स्त्री समुदाय- शूद्र- और वर्णसंकर धारण कर सकते हैं-- इस मंत्र के लिए दीक्षा - होम - संस्कार-तर्पण- समय शुद्धि- तथा गुरूमुख से उपदेश आदि की आवश्यकता नहीं है-- 

यह मंत्र सदा पवित्र है --शिव " यह दो अक्षर का नाम बडे - बडे पातकों का नाश करने में समर्थ है -- और उसमें " नमः " पद जोड दिया जाये - तब तो मोक्ष देने वाला हो जाता है । 

 ❗हर हर महादेव❗

सुविचार

जय माँ भैरवी 

अपि संपूर्णता युक्तैः कर्तृव्या सुहृदो बुधैः।
नदीशः  परिपूर्णोऽपि    चन्द्रोदयमपेक्षते।।
भावार्थ-- 
जिस प्रकार समुद्र को अथाह जल राशि के होते हुए भी ज्वार उत्पन्न करने के लिए चन्द्रमा की आवश्यकता पडती है। उसी तरह सर्वगुण संपन्न विद्वान् व्यक्ति को भी किसी विशेष कार्य को संपन्न करने के लिये अपने मित्रों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है|
                                 
              
                    व्रत करने से पूर्व पति की आज्ञा आवश्यक-

"पत्युराज्ञां विना नारी उपोष्य व्रतचारिणी।"
  "आयुष्य हरते भर्तुः सा नारी नरकं व्रजेत् ॥"

   *भावार्थ*- 
          पति की आज्ञा के बिना उपवास इत्यादि करने वाली स्त्री पति की आयु को नष्ट करती है और स्वयं भी नरक में जाती है।


साथ रहने वाले ही साथी के गुण- दोष जान सकते हैं~

पश्य लक्ष्मण पंपायां वकः परमधार्मिकः ।
मंदं मंदं पदं  धत्ते   जीवानां वध शंकया ।।
वकः किं वण्यते राम येनाहं निष्कुलीकृतः ।
सहवासी विजानीयात् चरित्रं सहवासीनाम् ।।
अर्थात्~
         जब माता सीता की खोज करते हुये भगवान् श्रीराम पम्पा सरोवर पहुँचे तब उन्होनें एक बकुले को देखा तो उसे देख श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं :- देखो लक्ष्मण पम्पा सरोवर में विचरण करने वाला वह बकुला कितना धार्मिक है धीरे धीरे पैरों को रख रहा है दृष्टि भी जल में है कहीं कोई जीव मेरे पैर के नीचे आकर न मार जाये ।
जब राम जी की इस बात को मछलियों ने सुना तो कहने लगीं :- हे राम ! आप इस बकुले को धार्मिक कह रहे हैं जिसने हमें निष्कुल करने का प्रण ले रखा है , सच बात है साथ रहने वाला ही जान सकता है कि उसके साथी का चरित्र कैसा है । अन्यथा दूर से देखने पर तो बकुला भी धार्मिक ही लगता है ।
                            


Friday, 3 May 2024

अंकों का महत्व..

सनातन हिन्दू धर्म में अंकों का महत्व..
इसका ज्ञान होना भी आवश्यक  है..

दो लिंग -  नर और नारी ।
दो पक्ष - शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष ।
दो पूजा - वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त) ।
दो अयन - उत्तरायन और दक्षिणायन ।

तीन देव - ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ - महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक - पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण - सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति - ठोस, द्रव, गैस ।
तीन स्तर - प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव - बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ - देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था - जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल - भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी - इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या - प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति - इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम - बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि - सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार नीति - साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद - सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री - माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय - सुबह,दोपहर, शाम, रात।
चार अप्सरा - उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु - माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी - जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव - अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी - ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, ग्रहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य - खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य - तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व - पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता - गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म - रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच  उंगलियां - अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार - गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत - दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत - भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद - मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु - प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ - आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष - सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते - आम, पीपल, बरगद, गुलर, जामुन
पाँच कन्या - अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु - शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म - देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष - काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

सात छंद - गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर - षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र - सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मूलाधार।
सात वार - रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी - गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप - जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि - वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग - बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल - अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी - मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य - गेहूँ, चना, चांवल, जौ मूँग,उड़द, बाजरा।

आठ मातृका - ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी - आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु - अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि - अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु - सोना, चांदी, तांबा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह - सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न - हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि - पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

दस महाविद्या - काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल - इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) - मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
*दस सती - सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती ।                       

कृपया उपर्युक्त पोस्ट को बच्चो को कण्ठस्थ करा दे । इससे घर में भारतीय संस्कृति जीवित रहेगी ।

Arun Dubey Jabalpur

हिंदू शब्द

हिन्दू शब्द पर विचार* -

1.अद्भुतकोषके_अनुसार*- 
हिन्दु और हिन्दू दोनों शब्द पुल्लिंग है ।
दुष्टों का दमन करने वाले हिंदू कहे जाते हैं।
सुंदर रूपसे सुशोभित और दुष्टोंके दमनमें दक्ष ।
इन दोनों अर्थोंमें भी इन शब्दोंका प्रयोग होता है-
*हिंदुहिंदूश्च पुंसि दुष्टानां च विघर्षणे।रूपशालिनि दैत्यारौ....* (अद्भुतकोष)

2. *हेमंतकवि_कोषके_अनुसार* -
हिंदू उसे कहा जाता है जो परंपरासे नारायण आदि देवताओंका भक्त हो।
*हिंदूर्हि नारायणादि देवताभक्ततः*।

3. *मेरुतंत्रके_अनुसार* -
 जो हीनाचरणको निंद्य समझ कर , उसका त्याग करें वह हिंदू कहलाता है।
*हीनं च दूषयत्येव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये।*

4. *शब्दकल्पद्रुमकोशके_अनुसार*- 
हीनतासे रहित साधु जाति विशेष हिंदू है।
*हीनं दूषयति इति हिन्दू*

5. *पारिजातहरणनाटकके_अनुसार* -
जो अपनी तपस्यासे, दैहिक पापों तथा चित्तको दूषित करने वाले दोषोंका नाश करता है, तथा जो शस्त्रोंसे अपने शत्रु समुदायका भी नाश करता है वह हिंदू कहलाता है।

6. *रामकोषके_अनुसार* - 
हिंदू दुर्जन नहीं होता, न अनार्य होता है, ना निंदक ही होता है। जो सद्धर्म पालक विद्वान् और श्रौतधर्म परायण है , वह हिंदू है।
*हिंदुर्दुष्टो न भवति नानार्यो न विदूषकः।*
*सद्धर्मपालको विद्वान् श्रौतधर्मपरायणः।।*

7. *हिंदूशब्दके_अर्थ* - 
सौम्य, सुंदर, सुशोभित, शीलनिधि, दमशील और दुष्टदलनमें दक्ष। (विचारपीयूष)

8. *अरबी_कोषमें* - हिंदू शब्दका अर्थ खालिस अर्थात् शुद्ध होता है। ना कि चोर आदि मलिन निकृष्ट अर्थ।

9. *यहूदियोंके_मतमें* -  
हिंदूका अर्थ शक्तिशाली वीर पुरुष होता है।

*हिन्दुपदवाच्योंकी_कतिपय_मुख्य_परिभाषाएं* -

 #1.वेदादि शास्त्रोंको मानने वाली  जाति ही  हिंदू जाति है ।

जो श्रुति - स्मृति - पुराण - इतिहास  प्रतिपादित कर्मोंके आधार पर अपनी लौकिक पारलौकिक उन्नति पर विश्वास रखता है वह हिंदू है ।

अपने वर्णाश्रम धर्मानुकूल आचार - विचारके द्वारा जीवन व्यतीत करने वाला  और  वेद शास्त्रोंको अपना  धर्म ग्रंथ मानने वाला ही हिंदू है ।

*श्रुतिस्मृत्यादिशास्त्रेषु प्रामाण्यबुद्ध्यावलंब्य श्रुत्यादिप्रोक्ते धर्मे विश्वासं-निष्ठां च यः करोति स एव वास्तव हिंदुपदवाच्यः।*

*वेदशास्त्रोक्तधर्मेषु वेदाद्युक्ताधिकारिवान्।*
*आस्थावान् सुप्रतिष्ठिश्च सोऽयं हिंदुः प्रकीर्तितः।।* 

2. जो गोभक्ति संपन्न है, वेद और प्रणवादिमें जिसकी दृढ़ आस्था है, तथा पुनर्जन्मोंमें जिसका विश्वास है, वही वास्तवमें हिंदू कहने योग्य है। (इस परिभाषाके अनुसार जैन, बौद्ध , सिक्ख आदि हिंदू मान्य हैं) - -

*गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवादौ दृढामतिः।*
*पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिंदुरिति स्मृतः।।*

3. श्रुति स्मृति पुराण इतिहास में निरूपित समस्त दुर्गुणों का/ दोषोंका जो हनन करें वह हिंदू है।-
*श्रुत्यादि प्रोक्तानि सर्वाणि दूषणानि हिनस्तीति हिन्दुः।*

4.  *वृद्धस्मृतिकेअनुसार* --- हिंसा से दुखित होने वाला, सदाचरण तत्पर (वर्ण उचित आचरण संपन्न ) वेद, गोवंश और देव प्रतिमा की सेवा करने वाला  हिंदू कहलाने योग्य है-

*हिंसया दूयते यश्च सदाचारतत्परः।*
*वेदगोप्रतिमासेवी स हिंदुमुखशब्दभाक्।।*

5. *आधुनिक_सुधारक_हिंदुओंके_मतमें_हिंदू_शब्द* -

विचार नवनीत ग्रंथमें r.s.s. के गुरु माने जाने वाले गोलवलकर जी पृष्ठ 44 और 45 पर -
हिंदू अपरिभाष्य है - इस शीर्षकसे आप कहते हैं कि - "जैसे सूर्य चंद्रकी परिभाषा हो सकने पर भी चरम सत्यकी परिभाषा नहीं हो सकती, वैसे ही मुसलमान ईसाईकी परिभाषा है, पर हिंदू अपरिभाषित ही है" ।
इस बातका खंडन करते हुए -

*धर्मसम्राट_स्वामी_श्रीकरपात्रीजी_महाराज विचारपीयूष नामक ग्रंथमें कहते हैं*- 
जिन ग्रंथोंको आप प्रमाण रूप में उपस्थित करते हैं उन्हीं ग्रंथोंमें ईश्वर तककी परिभाषाएं बतलाई गई हैं।
*सत्यं ज्ञानमनन्तं  ब्रह्म*
 *विज्ञानमानन्दं ब्रह्म* आदि आदि !

*आश्चर्य है कि जो हिंदुत्वके संबंधमें कुछ भी नहीं जानता' जो उसकी परिभाषा भी नहीं कर सकता, वही दुनियाके सामने बढ़-चढ़कर घमंड की बात करता है। ऐसे  संघ समूहोंकी संसारमें कमी नहीं, जो संसारमें अपनेको ही सर्वोत्कृष्ट मानते हैं।*
( विचारपीयूष ग्रंथमें पृष्ठ 336 से 348 तक तथा पृष्ठ 5 से 50 तक)

इसी विचारधाराको मानने वाले कुछ लोग कहते हैं कि-
   सिंधुसे लेकर सिंधु पर्वतपर्यंत भारत भूमिको जो पितृभू और पुण्यभू मानता है वही हिंदू है।
किंतु उनकी यह परिभाषा अव्याप्ति ,अतिव्याप्ति दोषोंसे पूर्ण है।
 इसके अनुसार प्राचीन कालके वे हिंदू जो दूसरे द्वीपोंमें रहते थे, हिंदू ही नहीं कहे जा सकते।

इसी विचारधाराके कुछ लोग कहते हैं कि -
जो हिंदुस्तानमें रहता है वह हिंदू है।
पर ऐसा नहीं है।

 ऐसा मानने पर यहां विभिन्न धर्मोंके रहने वाले लोग हिंदू कहे जाने लगेंगे, जबकि वे स्वयं स्वीकार नहीं है और हमारी उपर्युक्त परिभाषाओंके अंतर्गत भी वे नहीं आते इसलिए यह विचार पूर्ण नहीं है।

 
यहां तक लेखको पढ़नेके बाद, और हमारे द्वाराअनेक धर्म ग्रंथोंके उद्धरण देनेके बाद, आप लोग यह तो समझ ही गए होंगे कि, हमारे यहां यानी धर्मशास्त्रोंमें हिंदू शब्द परिभाष्य है या अपरिभाष्य।

*सारगर्भित_परिभाषा* - 
 जो वेदादिशास्त्रानुसार वेद शास्त्रोक्त धर्ममें विश्वासवान् तथा स्थित है। वह हिंदू है।

*वेदादिशास्त्रोंमें वेदाध्ययन, अग्निहोत्र, बाजपेय, राजसूय, आदि कुछ धर्म ऐसे हैं जिनका अनुष्ठान जन्मना ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य ही कर सकते हैं ।*

*निषादस्थपतियाग, रथकारेष्टि जैसे कुछ कर्मोंका शूद्र ही अनुष्ठान कर सकते हैं।*

*कुछ सत्य ,दया ,क्षमा ,अहिंसा ईश्वरभक्ति  तत्वज्ञान आदिका अनुष्ठान मनुष्य मात्र कर सकते हैं ।*

*किंतु वे सभी वेदादि शास्त्रोंका प्रामाण्य मानने वाले तथा अपने अधिकार अनुसार वेदादि शास्त्रोक्त धर्मका अनुष्ठान करने वाले हिंदू हैं।* 

 जन्मना ब्राह्मणआदि का भी सब कर्मोंमें अधिकार नहीं है।

 ब्राह्मण एवं वैश्य का राजसूययज्ञमें अधिकार नहीं है ।

ब्राह्मण क्षत्रिय दोनोंका वैश्यस्तोमयागमें अधिकार नहीं है ।

निषादस्थपतीष्टिमें उक्त तीनोंका अधिकार नहीं है। 

*विशेषतः*  हिंदूशास्त्रानुसार जिनके पुनर्जन्म विश्वास पूर्वक दाएभाग ,विवाह, अंत्येष्टि, मृतक श्राद्धादि कर्म होते हैं ,वे सभी हिंदू हैं ।

गायमें जिसकी भक्ति हो, प्रणव आदि ईश्वर नामोंमें यथा अधिकार जिसकी निष्ठा हो, तथा पुनर्जन्ममें जिसका विश्वास हो, वह हिंदू है

*हिंदुस्तान* -

भारतका नाम ऋग्वेदमें सप्तसिंधु या संक्षिप्त नाम सिंधु आया है। न कि आर्यावर्त या भारतवर्ष ।

वेदोंमें सप्तसिंधवः देशके अतिरिक्त किसी देशका स्पष्ट उल्लेख नहीं है।

 सनातन प्रसिद्धिके अनुसारवे सातों नदियां अखंड भारतको द्योतित करती हैं ।

*गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।*
*नर्मदे सिंधुकावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरु।।*

सिन्धवः शब्द सिंधु नदीके पार्श्ववर्ती देशों एवं वहांके निवासियोंके लिए भी प्रयुक्त हुआ है ।

वेदोंमें सकारके स्थानमें हकारका भी प्रयोग हो जाता है।
इस संबंधमें सरस्वती का हरस्वती आदि वैदिक उदाहरण हैं। 
केसरी तथा केहरी आदि लौकिक उदाहरण भी प्रसिद्ध हैं।
तथा सिंधु -सिंधवः, हिन्धु- हिन्धवः चलने लगा ।

कालक्र से धकारका परिवर्तन दकार रूप में हुआ और हिंदू नाम चल पड़ा ।

लक्षणा वृत्ति से हिंदू शब्द के हिंदू देश यानी हिंदुस्तान और वहां के निवासी हिंदू दोनों अर्थ होते हैं।

*हिमालयं समारभ्य यावदिन्दुसरोवरम्।*
*तं देवनिर्मितं देशं हिंदुस्थानं प्रचक्षते।।*

इस लेखको बहुत ही संक्षिप्तमें लिखने पर भी बहुत बड़ा हो गया है। और भी कुछ लिखना चाहते थे। उसकी कभी फिर चर्चा करेंगे। आप लोग इसे बड़े ध्यानसे कई बार पढ़ें और संजोकरके भी रखें।

 विशेष जानकारीके लिए प्रत्येक हिन्दू धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाराजका विचार_पीयूष ग्रन्थ अवश्य पढ़ें ।

नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव।
  साभार-: आचार्य राजेश राजौरिया वैदिक वृन्दावन।

परीक्षा में सफलता कैसे मिले

बहुत समय से कुछ लोग प्रश्न पूछ रहे थे
 कि पढ़ाई आदि के समय तथा कॉम्पिटेटिव परीक्षा आदि कि सफलता के लिए कुछ सरल अनुष्ठान या पूजा पद्धति है जिससे भगवत्कृपा से लाभ प्राप्त किया जा सके?

 इसके लिए एक सरल उपासना पद्धति मै लिख रहा हूं जो श्री दुर्गा सप्तशती में वर्णित है

 समस्त  विद्याओ की अधिष्ठात्री देवी और मूल स्त्रोत मां भगवती ही है उनकी कृपा से किसी भी विद्या में निपुणता प्राप्त की जा सकती है

 इसलिए किसी भी कॉम्पिटेटिव एक्जाम की तैयारी करते समय या पढ़ाई करते समय
 सुबह स्नान करके नित्य रोज इस श्लोक की एक माला जप करने से तथा मां भगवती से प्रार्थना करने से निश्चित रूप से सफलता प्राप्त होती है।

 श्लोक निम्नलिखित है-:
 विद्या: समस्तास्तव देवि भेदाः
स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्ति।।

 तथा पढ़ाई शुरू करने से पहले तथा अंत में भी इस श्लोक का नित्य एक बार पाठ कर लेना चाहिए
Gurudev 
Bhubneshwar
9893946810

Thursday, 2 May 2024

चंडी पाठ में हवन

चंडीपाठ में कवच, अर्गला ,कीलक और कुंजिका स्तोत्र से हवन नहीं करना चाहिए सप्रमाण प्रस्तुति~

यो मूर्ख: कवचं हुत्वा प्रतिवाचं नरेश्वरः ।
स्वदेह - पतनं तस्य नरकं च प्रपद्यते ।।
अन्धकश्चैव महादैत्यो दुर्गाहोम-परायणः ।
कवचाहुति - प्रभावेण महेशेन निपातितः ।।

कवच में पाहि, अवतु, रक्ष रक्ष, रक्षतु, पातु आदि शब्दों का प्रयोग हुआ रहता है।
सप्तशती के चतुर्थ अध्याय के 4 मंत्र से इसी कारण होम नहीं होता है।
#सिद्ध #कुंजिका स्तोत्र का होम न करने की आज्ञा स्वयं महादेव नें दी है
इसका प्रथम कारण है की ,
कुंजिका देवी सिद्धियों की एकमात्र कुंजी है ।
ओर कुंजी का रक्षण किया जाता है आहूत नहीं किया जा सकता ।

यदि यदि कुंजी का ही लोप हो जाएगा तो सिद्धी के द्वार का खुलना असम्भव हो जाएगा ।
दूसरा कारण यह की 
सप्तशती में आता है की याचना स्तोत्र , कवच एवं कवच मन्त्रों की आहुति नहीं की जाती अन्यथा विनाश ही होता है ।
|| अथ प्रमाण ||

#कवचं #वार्गलाचैव ,#कीलकोकुंजिकास्तथा ।
#स्वप्नेकुर्वन्नहोमं #च ,#जुहुयात्सर्वत्रनष्ट्यते: ।।

भगवान शिव भैरव स्वरूप में स्थित होकर कहते हैं ! 
कवच , अर्गला , कीलक , तथा कुंजिका का होम स्वप्न में भी न करें
 स्वप्न मात्र में भी होम करने से सर्वत्र नाश की संभावनाएँ प्रकट हो जाती है ।

#बुद्धिनाषोहुजेत् #देवि,#अर्गलाऽनर्गलोभवेत् ।
#सिद्धीर्नाषगत:#होता, #विद्यां #च #विस्मृतोर्भभवेत् ।।

अर्गला के होमकर्म से सिद्धीयों का नाश हो जाता है । तथा होता की समस्त विद्याएँ विस्मृत हो जाती है , अर्गला अनर्गल सिद्ध हो जाती है ।

#कीलितोजायतेमन्त्र: ,#होमे #वा #कीलकस्तथा ।
#ममकण्ठसमंयस्य: ,#कीलकोत्कीलकं #हि #च ।।

कीलक के होमकर्म से होता के समस्त मन्त्र सदा सर्वदा के लिए कीलित हो जाते हैं ।
इसे मेरा उत्किलित कण्ठ ही जानें जो जो कीलक का कारक है ।
#धनधान्ययुतंभद्रे ,#पुत्र:#प्राण:#विनष्यते: ।
#रोगशोकोर्व्रिते:#कृत्वा,कवचंहोमकर्मण: ।।
कवच के होम से धन,धान्य, पुत्र तथा प्राण का विनाश निश्चित है  एवं वह होता रोग तथा शोकों से घिर जाता है ।

स्वप्ने वा हुज्यते देवि ,* *कुंजिकायं च कुंजिकां ।

षड्मासे च भवेन्मृत्यु , सत्यं सत्यं न संशय: ।
होमे च कुंजिकायास्तु ,* *सकुटुम्बंविनाश्यती: ।

कुंजिका के होमकर्म के प्रभाव से होता की छः मास में मृत्यु निश्चित जानें तथा होता का सकूटुंब विनाश हो जाता ह

चंडी ध्वज स्त्रोत्र

श्रीचण्डी ध्वज स्तोत्रम्  ज्ञान दर्पण 

महत्व 👉 देवी के अनेक रुपों में एक रुप चण्डी का भी है. देवी काली के समान ही देवी चण्डी भी प्राय: उग्र रूप में पूजी जाती हैं, अपने भयावह रुप में मां दुर्गा चण्डी अथवा चण्डिका नाम से जानी जाती हैं. नवरात्रों में देवी के इस रुप की भी पूजा होती है देवी ने यह रुप बुराई के संहार हेतु ही लिया था. देवी के श्रीचण्डी ध्वज स्तोत्रम् का पाठ सभी संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाला होता है तथा शत्रुओं पर विजय प्रदान कराता है. 

श्री चण्डी ध्वज स्तोत्रम् विनियोग 

अस्य श्री चण्डी-ध्वज स्तोत्र मन्त्रस्य मार्कण्डेय ऋषिः, अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहालक्ष्मीर्देवता, श्रां बीजं, श्रीं शक्तिः, श्रूं कीलकं मम वाञ्छितार्थ फल सिद्धयर्थे विनियोगः. 

अंगन्यास 

श्रां, श्रीं, श्रूं, श्रैं, श्रौं, श्रः । 

    पाठ 

ॐ श्रीं नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै भूत्त्यै नमो नमः । 
परमानन्दरुपिण्यै नित्यायै सततं नमः ।। १ ।। 

नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २ ।। 

रक्ष मां शरण्ये देवि धन-धान्य-प्रदायिनि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ३ ।। 

नमस्तेऽस्तु महाकाली पर-ब्रह्म-स्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ४ ।। 

नमस्तेऽस्तु महालक्ष्मी परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ५ ।। 

नमस्तेऽस्तु महासरस्वती परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ६ ।। 

नमस्तेऽस्तु ब्राह्मी परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ७ ।। 

नमस्तेऽस्तु माहेश्वरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ८ ।। 

नमस्तेऽस्तु च कौमारी परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ९ ।। 

नमस्ते वैष्णवी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १० ।। 

नमस्तेऽस्तु च वाराही परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ११ ।। 

नारसिंही नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १२ ।। 

नमो नमस्ते इन्द्राणी परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १३ ।। 

नमो नमस्ते चामुण्डे परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १४ ।। 

नमो नमस्ते नन्दायै परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १५ ।। 

रक्तदन्ते नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १६ ।। 

नमस्तेऽस्तु महादुर्गे परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १७ ।। 

शाकम्भरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १८ ।। 

शिवदूति नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। १९ ।। 

नमस्ते भ्रामरी देवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २० ।। 

नमो नवग्रहरुपे परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २१ ।। 

नवकूट महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २२ ।। 

स्वर्णपूर्णे नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २३ ।। 

श्रीसुन्दरी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २४ ।। 

नमो भगवती देवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २५ ।। 

दिव्ययोगिनी नमस्ते परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २६ ।। 

नमस्तेऽस्तु महादेवि परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २७ ।। 

नमो नमस्ते सावित्री परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २८ ।। 

जयलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। २९ ।। 

मोक्षलक्ष्मी नमस्तेऽस्तु परब्रह्मस्वरुपिणि । 
राज्यं देहि धनं देहि साम्राज्यं देहि मे सदा ।। ३० ।। 

चण्डीध्वजमिदं स्तोत्रं सर्वकामफलप्रदम् । 
राजते सर्वजन्तूनां वशीकरण साधनम् ।। ३२ ।।

श्रीचण्डी देवी की जय