शुक्ले वा यदि वा कृष्णे विष्णुपूजनतत्परः। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ॥
अर्थात्, विष्णुपूजा परायण होकर दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण) की ही एकादशी में उपवास करना चाहिये। लिङ्गपुराण में तो और भी स्पष्ट कहा है—गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि॥
अर्थात्, गृहस्थ, ब्रह्मचारी, सात्त्विकी किसी को भी एकादशी [दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण)] के दिन भोजन नहीं करना चाहिये। अब प्रश्न उठता है कि एकादशी व्रत का निर्धारण कैसे हो? वशिष्ठस्मृति के अनुसार दशमी विद्धा एकादशी संताननाशक होता है और विष्णुलोकगमन में बाधक हो जाता है। यथा—दशम्येकादशी यत्र तत्र नोपवसद्बुध:। अपत्यानि विनश्यन्ति विष्णुलोकं न गच्छति॥
अतः यह परमावश्यक है कि एकादशी दशमीविद्धा (पूर्वविद्धा) न हो। हाँ द्वादशीविद्धा (परविद्धा) तो हो ही सकती है क्योंकि ‘पूर्वविद्धातिथिस्त्यागो वैष्णवस्य हि लक्षणम्’ (नारदपाञ्चरात्र)। लेकिन वेध-निर्णय का सिद्धान्त भी सर्वसम्मत नहीं है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्पर्शवेध प्रमुख है।उनके अनुसार यदि सूर्योदय में एकादशी हो परन्तु पूर्वरात्रि में दशमी यदि आधी रात को अतिक्रमण करे अर्थात् दशमी यदि सूर्योदयोपरान्त ४५ घटी से १ पल भी अधिक हो तो एकादशी त्याग कर महाद्वादशी का व्रत अवश्य करे। यथा—अर्धरात्रमतिक्रम्य दशमी दृश्यते यदि। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
(कूर्मपुराण)। परन्तु कण्व स्मृति के अनुसार अरुणोदय के समय दशमी तथा एकादशी का योग हो तो द्वादशी को व्रत कर त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। यथा—अरुणोदयवेलायां दशमीसंयुता यदि । तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
यहाँ पुराण और स्मृति के निर्देश में भिन्नता पायी जा रही है अतः शास्त्र-सिद्धान्त से स्मृति-वचन ही बलिष्ठ होता है। अतः यही सिद्धान्त बहुमान्य है। अपने रामानन्द-सम्प्रदाय का मत है कि वैष्णवों को वेध रहित एकादशी का व्रत रखना चाहिये।यदि अरुणोदय-काल में एकादशी दशमी से विद्धा हो तो उसे छोड़कर द्वादशी का व्रत करना चाहिये—एकादशीत्यादिमहाव्रतानि कुर्याद्विवेधानि हरिप्रियाणि। विद्धा दशम्या यदि साऽरुणोदये स द्वादशीन्तूपवसेद्विहाय ताम्॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ६७)।घटीत्रयंसार्द्धमथारुणोदये वेधोऽतिवेधो द्विघटिस्तुदर्शनात्। रविप्रभासस्य तथोदितेऽर्द्धे सूर्येमहावेध इतीर्यते बुधैः॥ योगस्तुरीयस्तु दिवाकरोदये तेऽर्वाक् सुदोषातिशयार्थबोधकाः।
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७१-७२)। सूर्योदयकाल से पूर्व दो मुहुर्त संयुक्त एकादशी शुद्ध है और शेष सभी विद्धा हैं—पूर्णेति सूर्योदयकालतः या प्राङ्मुहूर्तद्वयसंयुता च। अन्या च विद्धा परिकीर्तिता बुधैरेकादशी सा त्रिविधाऽपि शुद्धा॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७३)। शुद्धा एकादशी के भी तीन भेद हैं। यथा—एका तु द्वादशी मात्राधिका ज्ञेयोभयाधिका। द्वितीया च तृतीया तु तथैवानुभयाधिका॥ तत्राद्या तु परैवास्ति ग्राह्या विष्णुपरायणैः। शुद्धाप्येकादशी हेया परतो द्वादशी यदि ॥ उपोष्य द्वादशीं शुद्धान्तस्यामेव च पारणम्। उभयोरधिकत्वे तु परोपोष्या विचक्षणैः॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७४-७६) अर्थात्, एक वह जिसमें केवल द्वादशी अधिक हो, दूसरी जिसमें दोनों अधिक हों तथा तीसरी जिसमें दोनों में कोई भी अधिक न हो। (अब इनमें से किसे ग्रहण किया जाय। जगद्गुरु आद्य रामानन्दाचार्य-चरण का आदेश है –) इनमें से वैष्णवों को प्रथम एकादशी अर्थात् द्वादशी मात्र का ग्रहण करना चाहिये, यदि परे द्वादशी की वृद्धि हो तो शुद्ध एकादशी भी छोड़ देनी चाहिये। विज्ञ-जनों को एकादशीरहित शुद्ध षष्ठीदण्डात्मक द्वादशी में उपवास कर अगले दिन अवशिष्ट द्वादशी में ही पारण भी कर लेना चाहिये। दोनों की अधिकता में पर का उपवास करना चाहिये।उन्मीलिनी वञ्जुलिनी सुपुण्याः सा त्रिस्पृशाऽथो खलु पक्षवर्द्धिनी ।
जया तथाऽष्टौ विजया जयन्ती द्वादश्य एता इति पापनाशिनी॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७७) अर्थात्, उन्मीलिनी,एकादशी तु संपूर्णा वर्द्धते पुनरेव सा।
द्वादशी न च वर्द्धेत कथितोन्मीलिनीति सा॥
संपूर्णैकादशी यत्र द्वादशी च यथा भवेत्। त्रयोदश्यां मुहुर्त्तार्द्धं वञ्जुली सा हरिप्रिया॥
शुक्ले पक्षेऽथवा कृष्णे यदा भवति वञ्जुली। एकादशीदिने भुक्त्वा द्वादश्यां कारयेद्व्रतम्॥
यहाँ स्पष्टतः कहा गया है कि शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष को यदि वञ्जुली हो तो एकादशी को भोजन कर द्वादशी का व्रत करें। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी यह वर्णन आया है।एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी भवेत्।
तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥
पर्वाच्युतजयावृद्धौ ईश दुर्गान्तकक्षये। शुद्धाष्येकादशी त्याज्या द्वादश्यां समुपोषणम् ॥
इनमें चार तिथिजन्य और चार नक्षत्रजन्य हैं जो इस प्रकार हैं-
१. उन्मीलनी अरुणोदय काल में सम्पूर्ण एकादशी अगले दिन प्रातः द्वादशी में वृद्धि को प्राप्त हो परन्तु द्वादशी की वृद्धि किसी भी दशा में न हो।कलाप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्। पुण्यं क्रतुशतस्योक्तं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥
एक और भी बात। पारण में आचार्य-चरण ने यह भी आदेश किया है किआषाढ़भाद्रोर्जसितेषु संगता मैत्रश्रवोऽन्त्यादिगताद्व्युपान्त्यैः। चेद्द्वादशी तत्र न पारणं बुधः पादैः प्रकुर्याद्व्रतवृंदहारिणी॥
(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७८)। अर्थात् यदि द्वादशी आषाढ़, भाद्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष में अनुराधा, श्रवण, रेवती के आदि चरण, द्वितीय चरण और तृतीय चरण के साथ संयुक्त हो तो उसमें विद्वान् पारण न करे,