प्रसव (वर्षा) का समय
शुक्ल पात का गर्भ, कृष्ण पाल में और कृष्ण पक्ष का शुक्ल पक्ष में प्रसवित,
दिन का रात्रि में और रात्रि का दिन में
संध्या का विपरीत संध्या में.
विपरीत दिशा में अर्थात् यदि गर्भ के समय मेघ पूर्व दिशा से उठते हैं तो वर्षा ऋतु
में पश्चिम दिशा से उठेंगे, तदानुसार
हवा की दिशा विपरीत होगी.
गर्भोपघात के लक्षण
यदि प्रसव के समय विपरीत परिस्थियों हो तो गर्म स्थिर नहीं रह पाता और वर्षा नहीं होती, इस अवस्था की गर्मीपघात कहते हैं, इसके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं।
उल्कापात, ग्रहण, धूमकेतु का उदय होना.
किसी दिशा में आकाश का लाल होना, तूफान आना.
भूकंप, भूस्खलन, विस्फोट, बाढ़ आना, भयंकर आग लगना या गैस रिसाव, युद्ध का होना भारी वर्षा का होना
> यहाँ का अतिचारी या मंदचारी होना.
ग्रह स्थिति / संचरण से वर्षा विचार
बुध, शुक्र व शनि के उदय व अस्त के समय वर्षा होती है।
शनि और मंगल के राशि परिवर्तन करते समय वर्षा होती है।
यह वक्री होने से भी वर्षा की संभावना बनती है। सूर्य, सिंह राशि में होने पर वर्षा का योग नहीं बनता लेकिन कर्क राशि में हो तो हल्की वर्षा होती है।शुक्र स्थित राशि से सप्तम राशि में चन्द्रमा, बुध, शुक्र व गुरु में कोई एक या अधिक ग्रह हो तो वर्षी होने के अच्छे योग होते हैं।
जब बुध-गुरु, बुध-शुक्र, गुरु-शुक्र और शनि-मंगल की युति हो तथा उन पर बुध, शुक या गुरु की दृष्टि या प्रभाव न हो तो तेज हवा चलती है और तापमान बढ़ता है। सूर्य से धीमी गति वाला यह आगे तथा तेज गति यह पीछे रहने की स्थिति में अच्छी वर्षा के योग होते हैं।आगे मंगल और पीछे सूर्य हो, तो समस्त बादलों को सोख लेते हैं लेकिन आगे सूर्य और पीछे मंगल हो तो अच्छी वर्षा व फसल होती है।जब समस्त ग्रह सूर्य से आगे या पीछे हो तो अच्छी वर्षा होन सूर्य यदि बुध व शुक्र के समीप हो तो वर्षी होती है लेकिन होने से वर्षा नहीं होती।
वराहमिहिर रचित बृहत संहिता में मेघ गर्भ धारण का उल्लेख है, अनेक अन्य खगोलविर्दा ने भी इसका विस्तृत वर्णन किया है, कश्यप ऋषि के अनुसार-
सितादी मार्गशीर्षस्य प्रतिपद् दिवसे तथा। पूर्वाषाढ़गले चन्द्रे गर्भाणां धारणं भवेत् ॥
अर्थात् मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आता है तब वहाँ से कहना चाहिए (लगभग दिसंबर मध्यः इस वर्ष
गर्भ-लक्षण
मेध-गर्भ धारण के समय सामान्य आकाशीय लक्षणों से ग्रहों विम्बों के आकार बड़े होना, ग्रहो की किरण कोमल होना, नक्षत्रों के गमन मार्ग की दिशा उत्तर/उत्तर-पूर्व/पूर्वी होना, हवा का मध्यम व कोमल गति से चलना, आसमान साफ रहना, सूर्य व चन्द्रमा की चमक अधिक होना, चन्द्रमा सूर्य के चारों और बादलों का गोलाकार वलय बनना, सध्या समय इन्द्रधनुष दिखना, मधुर गर्जन होना शामिल है।
तत्पश्चात् आकाश में जिस दिन बादल दिखाई दे, वह उस मेघ का गर्भ धारण कहलाता है।
यह प्रक्रिया चैत्र शुक्ल पक्ष (लगभग अप्रैल मध्य) तक जारी रहती है।
चन्द्रमा के जिस नक्षत्र में जाने से गर्भ होता है, उसके 195 सूर्य-दिवस के उपरान्त उसी नक्षत्र में पन्द्रमा के आने से प्रसव होता है।
उत्तम गर्भ के लक्षण
बादल चाँदी या मोती के समान श्वेत हो या बादलों का रंग गहरा सलेटी हो.
वायु उत्तर, उत्तर-पूर्व अथवा पूर्व दिशा से बह रही हो.
आकाश स्वच्छ हो.
प्रातः काल / सायंकाल आकाश में चिकने और लालिमा युक्त बादल ही या इन्द्रधनुष
दिखाई दें.
गर्जला हो या बिजली चमके.
नक्षत्रफल
उत्तम वर्षा पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, उत्तराषाढा, पूर्वाषाढा और रोहिणी.
वर्षा शतभिषा, आश्लेषा, आर्दा, स्वाति और मया,
यदि गर्भ के समय नक्षत्र पर सूर्य, मंगल, शनि, राहू या केतु की दृष्टि हो तो वर्षा के साथ ओले भी पड़तें है और विद्युतपात भी होता है. उयदि नक्षत्र पर बुध, शुक्र या चन्द्रमा की दृष्टि या युति हो तो बहुत वर्षा होती है.
प्रसव (वर्षा) का समय
> शुक्ल पक्ष का गर्भ, कृष्ण पक्ष में और कृष्ण पक्ष का शुक्ल पक्ष में प्रसवित > दिन का रात्रि में और रात्रि का दिन में.
संध्या का विपरीत सध्या में
विपरीत दिशा में अर्थात् यदि गर्भ के समय मेघ पूर्व दिशा से उठते हैं तो वर्षा ऋतु में पश्चिम दिशा से उठेंगे, लदानुसार,
हवा की दिशा विपरीत होगी.
गर्भोपघात के लक्षण
यदि प्रसव के समय विपरीत परिस्थियों हो तो गर्भ स्थिर नहीं रह पाता और वर्षा नहीं होती, इस अवस्था को गपिधात कहते हैं. इसके प्रमुख लक्षण इस प्रकार हैं।
नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति पर आधारित चक्र / योग
आर्दा प्रवेश चक्र मानसून की वर्षा के पूर्वानुमान के किये सूर्य के आर्दा नक्षत्र में प्रवेश के समय की ग्रहस्थिति को आर्दा प्रवेश धक्र कहते हैं. इसका खगोलीय व ज्योतिषीय विश्लेषण वर्षा पूर्वानुमान में बहुत सहायक होता है यहीं से वर्षा ऋतु का आरम्भ माना जता है (लगभग 21-22 जून) और आर्दा, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता और चित्रा इन 9 नक्षत्रों में सूर्य-संचरण की अवधि वर्षा-ऋतु कहलाती है। लगभग 24 अक्टूबर तक)।
सूर्य-संक्रांति चक्र सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। और राशि-परिवर्तन के समय की यह स्थिति चक्र को सूर्य-संक्रांति चक्र कहा जाता है।
रोहिणी-योग- आषाड़ माह के कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा जब रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तो वह रोहिणी योग बनाता है. इस समय वायु एवं बादलों के आकार का निरिक्षण करके निकट भविष्य में वर्षा की माग की जानकारी देते हैं। वायु का समय, वेग एवं अवधिः वर्षा की मात्रा व कालावधि का निधारण करती हैं।
सप्तनाड़ी चक इस चक्र में सात नाड़ियों में चार-चार नक्षत्रों की कल्पना की गई है. जिनकी प्रकृति के आधार पर वर्षा का पूर्वानुमान किया जाता है।
* मेघ-गर्भ बादलों की प्रारम्भिक उत्पत्तिा
नाड़ियों में ग्रह-स्थिति का फल
सामान्यतयाः जो यह अपनी नाडी में होता है, वह उसी नाडी क मंगल जिस भी नाडी में होता है, उसका फल देता है।
एक नाडी में एक से अधिक यह होने पर संयुक्त प्रकृति के अनुसार फल देते हैं।
निर्जल नाडी में चन्द्र, बुध व शुक्र आदि एक से अधिक जलद ग्रह हो तो वह जलद नाड़ी बन जाती है।
जलद नाडी में सूर्य, मंगल व शनि आदि एक से अधिक निर्जल यह हो तो वह निर्जल नाडी बन जाती है।
यदि चन्द्रमा, बुध, गुरु या शुक्र के साथ जलद नाही में हो तो तब तक वर्षा होती है
जब तक चन्द्रमा उस नाड़ी में रहता है।
चन्द्र, मंगल व गुरु एक ही नाही में हो तो भारी वर्षा होती है।
मेघ-गर्भ
वराहमिहिर रचित बृहत संहिता में मेघ गर्भ धारण का उल्लेख है, अनेक अन्य खगोलविर्दा ने भी इसका विस्तृत वर्णन किया है, कश्यप ऋषि के अनुसार-
सितादाँ मार्गशीर्षस्य प्रतिपद् दिवसे तथा।
पूर्वाषाढ़गले चन्द्रे गर्माणां धारणं भवेत् ॥
अर्थात् मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष में जब चन्द्रमा पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आता है तब वहाँ से गर्भ-लक्षण कहना चाहिए (लगभग दिसंबर मध्यः इस वर्ष
मेघ-गर्भ धारण के समय सामान्य आकाशीय लक्षणों में यहाँ बिम्बों के आकार बड़े होना, ग्रहो की किरण कोमल होना, नक्षत्री के गमन मार्ग की दिशा उत्तर/उत्तर-पूर्व पूर्वी होना, हवा का मध्यम व कोमल गति से चलना, आसमान साफ रहना, सूर्य व
नक्षत्र
पुरुष नक्षत्र- आर्दा, पुनर्वसु पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा स्वाति।
स्त्री नक्षत्र मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी व मृगशिरा ।
नपुंसक नक्षत्र विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा।
वर्षाकाल के दौरान सूर्य और चन्द्र की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति से वर्षों का विचार किया जाता है। इनकी स्थिति क्रमशः
पुरुष व स्त्री हो तो वर्षाकारका
स्त्री व पुरुष हो तो अधिक वर्षाकारकः
स्त्री व नपुसंक हो तो कम वर्षाकारक,
स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष हो तो बादल छाये रहने की संभावना, तया
नपुसंक-नपुसक हो तो अनावृष्टि समझना चाहिए।
सप्तनाड़ी चक्र
बारहवी शताब्दी के नरपति जयधर्या में सप्तनाही चक्र का विस्तृप्त वर्णन है. इसमें अभिजित् सहित 28 नक्षत्रों को 7 भागी में बांटा गया है। प्रत्येक भाग (नाही) के विशिष्ट लक्षण निम्नानुसार होते हैं।
प्रकृति नाही
स्वामी यह
शनि
सूर्य
प्रचंडवायु, आंधी, तुफान तेज हावा
मगल
निर्जन
वायु
दहन
रेवली
तापमान बढना
उत्तराभाद्रप
बादर बनना
पुनर्वसु
चन्द्र
पूर्वाषाढा
अच्छी वर्षा
भारी वर्षी
नीर
जलद जिल
अमृत
नक्षत्रों में ग्रहों की स्थिति पर आधारित चक्र / योग
*आदी प्रवेश चक्र मानसून की वर्षा के पूर्वानुमान के किये सूर्य के आदी नाक्षत्र में प्रवेश के समय की ग्रहस्थिति को आर्दा प्रवेश चक्र कहते हैं. इसका खगोलीय व ज्योतिषीय विश्लेषण वर्षा पूर्वानुमान में बहुत सहायक होता है यहीं से वर्षा ऋतु का आरम्भ माना जता है (लगभग 21-22 जून) और आर्दा, पुनर्वसु, पुष्य, अश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता और चित्रा इल इन 9 नक्षत्रों में सूर्य-संचरण की अवधि वर्षा-ऋतु कहलाती है। लगभग 24 अक्टूबर तक)।
*सूर्य-संक्रांति चक्र सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। और राशि परिवर्तन के समय की यह स्थिति चक्र को सूर्य-संक्रांति चक्र कहा जाता है। रोहिणी-योग- आषाड़ माह के कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा जब रोहिणी नक्षत्र में प्रवेश करता है तो वह रोहिणी योग बनाता हैं, इस समय वायु एवं बादली के आकार का निरिक्षण
ग्रह
> सूर्य ग्रीष्मऋतु, पूर्व-दिशा, अग्नि, आकाश शुष्वा गर्न पुलिंग पन्टमा के साथ मिलकर मौसम को चरमसीसा की और ले जाता है. शुक्र के साथ मिलकर बादलवर्षा का योग बनाता है।
चन्द्रमा वर्षाऋतु, उत्तरपश्चिम दिशा राजबली, स्वीलिंग, खेती, ठंडी, तरल पदार्थ, पानी, गौलेपन अकर राशि मै चन्द्रमा के साथ वर्षाकारक।
>मगल- ग्रीष्मऋतु, दक्षिण दिशा, रात्रि के अंत में बनी, गर्मी, भूमि, अग्नि, पुल्लिंग, खेत, मौसम की पराकाष्ठाः सूर्य-हानि के साथ मिलकर सूखे का योग बनाना।
बुध शरदऋतु, उत्तर-दिशाः प्रात कालबली, नंपुसकता, ठंडा, नमी, वायु, उदवाव साफ मौसमा
गुरु हेमंतऋतु, अत्तरपूर्व-दिशा, फसल, शीतल-मंद-समीर, शुष्कता, पुल्लिंग, साफ मौसमका कारण ताप बढ़ाने में सक्षम ।
>शुक्र वसंतऋतु, दक्षिणपूर्व-दिशा, जलस्थान, गर्म, नम, स्त्रीलिंग, मध्याहनातर, कृषि उत्पाद, निम्तदबाव, हिमपात, आदत संगार के साथ मिलकर फरक
शनि- शिशिरऋतु, पश्चिम दिशा, नंपुसक, ठंडा, शुष्क, ठंडा सीलन मुक्त मौसम, कमदबाव का क्षेत्र, ताप व वर्षा में गिरावटः सूर्व के साथ मिलकर ध्धता ठंडा मौसम बनाने वाला समान मौसम कनाका रखने वाला राहू। केतु से सबंध होने पर वर्षों के साथ ले और विदयुत्पात की समावना होती है।
राशियाँ
पुरुष राशि -विसम राशि (मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ)
स्त्री राशि
सम राशि (वृषभ, कर्क, कन्या, वृश्चिक, मकर, मीन)
दिनबली रात्रिबली मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, धनु, मकर।
सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, कुम्भ, मीन।
मेष- अग्नितत्व, पूर्व-दिशा, शुष्क, उग्रप्रकृति, गर्म, वायुकारक, चर।
वृष भूमितत्व दक्षिण-दिशा शीतल, कान्ति-रहित, नमी, अर्द्धजल-राशि ।
नियुन- वायुतत्व, पश्चिम-दिशा, शुष्क, उष्ण।
कर्क जलतत्व, उत्तर दिशा, ठंडी, गीली ।
सिंह अग्नितत्व, पूर्व-दिशा, उष्ण, शुष्क, निर्जल-राशि।
कन्या पृथ्वीतत्व, दक्षिण दिशाः वायुकारक, शीतल, शुष्क
तुजा वायुतत्व, पश्चिम दिशा, ठंडी, श्याम-वर्ण, जल-राशि।
वृश्चिक जलतत्व, उत्तर-दिशा: अर्द्धजल राशि, मौसम की चरमसीमा की और से जाने वाली।
धनु अग्नितत्व पूर्व-दिशा, क्रूर. शुष्क, अर्धजल-राशि।
मकर- पृथ्वीतत्व, दक्षिण-दिशा, ठंडी, तूफानकारक।
कुम्भ- अयुतत्व पश्चिम दिशा, स्थिरसंशक, विद्युतकारक, उष्ण, अर्द्धजला
भौन जलतत्व, उत्तर-दिशाः ठंडी, नम।
नक्षत्र
पुरुष नक्षत्र आदी, पुनर्वसु पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्ता, चित्रा
वै स्वाति।
स्वी नक्षत्र मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद, रेवती. अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी व मृगशिरा।
नपुंसक नक्षत्र- विशाखा, अनुराधा व ज्येष्ठा।
वर्षाकाल के दौरान सूर्य और चन्द्र की विभिन्न नक्षत्रों में स्थिति से वर्षा का
विचार किया जाता है। इनकी स्थिति क्रमशः
पुरुष व स्त्री हो तो वर्षाकारक,
स्त्री व पुरुष हो तो अधिक वर्षाकारक,
स्त्री व नपुसंक हो तो कम वर्षाकारक,
स्त्री-स्त्री या पुरुष-पुरुष हो तो बादल छाये रहने की संभावना, तथा
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