भागवत में लिखा है – ‘ पूतना लोकबालघ्नी राक्षसा रुधिराशना।’ (10|6|35) ‘ पूतना संसार के बालकों की हत्या करने वाली राक्षसी थी।’ ‘ पूतना बालघातिनी।’ (10|6|2) ‘ पूतना बालहत्यारी थी।’ ‘ विबुध्य तां बालकमारिकाग्रहम्।’ (10|6|8) ‘ उसे बालकों को मारने वाला हौआ समझकर’ ‘ बालग्रहस्तत्र विचिन्वती शिशून्।’ (10|6|6) (बच्चों को खोजती हुई वह बालिकाओं के लिये हौआ रुप बनी हुई पूतना) इत्यादि। अतः यह बालकों को लगने वालीएक भूतनी या राक्षसी है। यह प्रायः नित्य है और इस कथा का तात्पर्य ‘रक्षोघ्नकृत्य’ से है।
आनन्दरामायण पूर्णकाणड, अध्याय 5|31, 37 में लिखा है कि जब भगवान् श्रीराम समस्त अयोध्या वासियों के साथ स्वधाम चलने लगे, तब सीता जी के निन्दक धोबी तथा कैकेयी की दासी मन्थरा की इच्छा न देखकर, इन्हें कुश के साथ साकेत भेज दिया। ये लोग प्रभु के साथ न गये। अतः कृष्णावतार में यह रजक हुआ और मन्थरा ही पूतना हुई-
तदा रामस्तं रजकं मन्थरां प्रैषयत्पुरीम्।
कुशेन सहवेगेन समाहूयाऽथ सादरम्।।
पूर्ववैरमनुस्मृत्य ना भ्रंऽयातामधर्मिणी।
कृष्णावतारे तावेव रजको रजकोऽभवत्।।
मन्थरा पूतना जाता हतौ तौ पूर्ववैरतः।।
‘ तब श्रीराम ने उस धोबी को (जिसने जानकी जी पर राक्षस के घर में रहने का आरोप लगाया था) तथा मन्थरा को अपने बड़े पुत्र कुशके साथ शीघ्र अयोध्या लौटा दिया। उसी धोबी ने मथुरा में ( ’ (श्रीकृष्णावतार के समय ) पुनः धोबी के रुप में जन्म लिया और मन्थरा पीतना हुई तथा दोंनो ही पूर्व जन्म के वैर के कारण श्रीकृष्ण के द्वारा मारे गये।
आदि पुराण के 18 वें अध्याय में लिखा है कि पूतना पूर्व जन्म में काल भीरु नामक ऋषि की कन्या ‘ चारुमती’ थी। वह कक्षीवान् नामक महर्षि की पत्नी थी। पति के परदेशन जान पर वह एक शुद्र से संसक्त हुई तथा पति के वापस आने एवं स_द् व्यवहार करने पर भी निरन्तर दुष्टता करती रही। अन्त में कक्षीवान् ने उसे राक्षसी हो जाने का शाप दे दिया-
त्वं वञ्चयित्वा मां नूनं वदभूः कितवे रता।
प्रयातु राक्षसीं योविं दुष्टे दुष्टप्रदूषिता।।
कदाचित्करुणासिन्धुः कृष्णस्संतारयिष्यति।।
‘ तूने मेरी वञ्चना कर के एक धूर्त के साथ प्रेम किया; अतः उस दुष्ट के द्वारा दूषित होने के कारण सिन्धु भगवान् श्रीकृष्ण तेरा उद्धार करेंगे - तुझे राक्षसी योनि से छुड़ायेंगे। ’
इसी पुराण में आगे चलकर नारद जी ने भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा है कि ‘ ऐसी पापिनी का आपने दूध क्यों पीया ?’ इसके उत्तर में भगवान् ने उन्हें बतलाया कि च्यावन मुनियों को एक दोष से शीघ्र मरने का शाप भगवान् शिव से मिला था। अतः उन्हें पूतना द्वारा मरना पड़ा। उनके
श्रेय- स्मपादन - पुण्य से उसे कृष्णधात्रीत्व का सौभाग्य मिला।
इसी प्रकार ब्रह्मावैवर्त में कृष्णज्मखण्ड में नारायण ने नारद जी से तथा गर्गसंहिता, गोलोकखण्ड में राजा बहु-लाश्व के प्रश्न पर नारदी जी ने कहा था कि ‘ यह पूतना राजा बलिकी कन्या रत्नमाला ही थी। जब वामनावतार में भगवान् श्रीहरि बलि के यहां पधारे तो रत्नमालाको उन्हें देख वात्सल्यभाव हो आया और सोचने लगी कि कदाचित् ऐसा ही मुझे भी कोई लड़का होता, तो मैं उसे दूध पिलाति - पालती ’-
बलियज्ञे वामनस्य दृष्द्वा रुपमतः परम्।
बलिकन्या रत्नमाला पुत्रस्नेहं चकार ह।।
‘ राजा बलि के यज्ञ में भगवान् वामन के श्रेष्ठ रुप को देखकर उसकी कन्या रत्ननमाला को उनके प्रति वात्सल्यका भाव उमड़ आया।’
पाययामि स्तनं तेन प्रसन्नं मे मनस्तदा ।
साभवद् द्वापरान्ते वै पूतना नामविश्रुता।।
वह सोचने लगी - ‘मैं इस बालक को स्तन्यपान कराऊं तब मेरा मन प्रसन्न हो। वही द्वापर के अन्त में जन्म लेकर पीतना के नाम से प्रसिद्ध हुई।’ भगवान् उसके हृदय की बात जान गये और उसकी इच्छा रखने के लिये उन्होंने द्वापर में श्रीकृष्ण रुप से उसका स्तन्यपान किया। इस तरह कल्पभेद से अनेक कथाएं है
कलप बेद हरिचरित सुहाए। भांति अनेक मुनीसन्ह गाए।।
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने।।
अथवा एक के बाद दूसरा जन्म तथा अन्त में कृष्णप्राप्ति समझनी चाहिये। जैसा कि नारद जी के जन्मों में स्पष्ट है। —
No comments:
Post a Comment