ज्योतिष समाधान

Friday, 7 July 2017

सुभाषित बचन जीवन उपयोगी

1 अल्पानामपि वस्तूनां संहति: कार्यसाधिका तॄणैर्गुणत्वमापन्नैर् बध्यन्ते मत्तदन्तिन:

छोटी­ छोटी वस्तुएँ एकत्र करने से बडे काम भी हो सकते हैं। जैसे घास से बनायी हुर्इ डोरी से मत्त हाथी बांधा जा सकता है।

सुभाषित

शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने

हितोपदेश हर एक पर्वत पर माणिक नहीं होते, हर एक हाथी में गंडस्थल में मोती नहीं होते साधु सर्वत्र नहीं होतेहोते , हर एक वनमें चंदन नहीं होता । उसी प्रकार दुनिया में भली चीजें प्रचुर मात्रा में सभी जगह नहीं मिलती ।

सुभाषित

एकवर्णं यथा दुग्धं भिन्नवर्णासु धेनुषु ।
तथैव धर्मवैचित्र्यं तत्त्वमेकं परं स्मॄतम् ॥

जिस प्रकार विविध रंग रूप की गायें एक ही रंग का (सफेद) दूध देती है, उसी प्रकार विविध धर्मपंथ एक ही तत्त्व की सीख देते है

सर्वं परवशं दु:खं सर्वम् आत्मवशं सुखम् ।
एतद् विद्यात् समासेन लक्षणं सुखदु:खयो: ॥

जो चीजें अपने अधिकार में नही है वह सब दु:ख है तथा जो चीज अपने अधिकार में है वह सब सुख है । संक्षेप में सुख और दु:ख के यह लक्षण है ।

अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रम् अमित्रस्य कुतो सुखम् ॥

आलसी मनुष्य को ज्ञान कैसे प्राप्त होगा ? य्दि ज्ञान नही तो धन नही मिलेगा । यदि धन नही है तो अपना मित्र कौन बनेगा ? और मित्र नही तो सुख का अनुभव कैसे मिलेगा

आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरम् । सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति ॥

जिस प्रकार आकाश से गिरा जल विविध नदीयों के माध्यम से अंतिमत: सागर से जा मिलता है उसी प्रकार सभी देवताओं को किया हुवा नमन एक ही परमेश्वर को प्राप्त होता है ।

नीरक्षीरविवेके हंस आलस्यम् त्वम् एव तनुषे चेत् ।
विश्वस्मिन् अधुना अन्य: कुलव्रतं पालयिष्यति क: ॥

अरे हंस यदि तुम ही पानी तथा दूध भिन्न करना छोड दोगे तो दूसरा कौन तूम्हारा यह कुलव्रत का पालन कर सकता है ? यदि बुद्धीवान तथा कुशल मनुष्य ही अपना कर्तव्य करना छोड दे तो दूसरा कौन वह काम कर सकता है ?

सुभाषित

पापं प्रज्ञा नाशयति क्रियमाणं पुन: पुन: ।
नष्टप्रज्ञ: पापमेव नित्यमारभते नर: ॥

विदूरनीति बार बार पाप करनेसे मनुष्य की विवेकबुद्धी नष्ट होती है और जिसकी विवेकबुद्धी नष्ट हो चुकी हो , ऐसी व्यक्ति हमेशा पापही करती है ।

सुभाषित

पुण्यं प्रज्ञा वर्धयति क्रियमाणं पुन:पुन: ।
वॄद्धप्रज्ञ: पुण्यमेव नित्यमारभते नर: ॥

विदूरनीति बार बार पुण्य करनेसे मनुष्य की विवेकबुद्धी बढती है और जिसकी विवेकबुद्धी हो , ऐसी व्यक्ति हमेशा पुण्यही करती है ।

सुभाषित

अनेकशास्त्रं बहुवेदितव्यम् अल्पश्च कालो बहवश्च विघ्ना:
यत् सारभूतं तदुपासितव्यं हंसो यथा क्षीरमिवाम्भुमध्यात्

पढने के लिए बहौत शास्त्र हैं और ज्ञान अपरिमित है| अपने पास समय की कमी है और बाधाए बहौत है। जैसे हंस पानीमेसे दुध निकाल लेता है उसी तरह उन शास्त्रौंका सार समझलेना चाहिए।

कलहान्तनि हम्र्याणि कुवाक्यानां च सौ)दम
कुराजान्तानिराष्ट्राणि कुकर्मांन्तम् यशो नॄणाम्

झगडोंसे परिवार टूट जाते है| गलत शब्दप्रयोग करनेसे दोस्त टूटते है। बुरे शासकोंके कारण राष्ट्रका नाश होता है| बुरे काम करनेसे यश दूर भागता है।

दुर्लभं त्रयमेवैतत् देवानुग्रहहेतुकम् ।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरूषसश्रय: ॥

मनुष्य जन्म, मुक्ती की इच्छा तथा महापुरूषोंका सहवास यह तीन चीजें परमेश्वर की कॄपा पर निर्भर रहते है ।

सुखार्थी त्यजते विद्यां विद्यार्थी त्यजते सुखम् ।
सुखार्थिन: कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिन: सुखम् ॥

जो व्यक्ती सुख के पिछे भागता है उसे ज्ञान नही मिलेगा । तथा जिसे ज्ञान प्रप्त करना है वह व्यक्ती सुख का त्याग करता है । सुख के पिछे भागनेवाले को विद्या कैसे प्राप्त होगी ? तथा जिसको विद्या प्रप्त करनी है उसे सुख कैसे मिलेगा?

सुभाषित

दिवसेनैव तत् कुर्याद् येन रात्रौ सुखं वसेत् ।
यावज्जीवं च तत्कुर्याद् येन प्रेत्य सुखं वसेत् ॥

विदूरनीति दिनभर ऐसा काम करो जिससे रातमें चैनकी नींद आ सके । वैसेही जीवनभर ऐसा काम करो जिससे मॄत्यूपश्चात सुख मिले ह्मअर्थात सद्गती प्राप्त हो )

सुभाषित

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् तडागोदरसंस्थानां परीवाह इवाम्भसाम् कमाए हुए धन का त्याग करनेसे ही उसका रक्षण होता है। जैसे तालब का पानी बहते रहने सेे साफ रहता है।

खल: सर्षपमात्राणि पराच्छिद्राणि पश्यति ।
आत्मनो बिल्वमात्राणि पश्यन्नपि न पश्यति ॥

दुष्ट मनुष्य को दुसरे के भीतर के राइ र्इतने भी दोष दिखार्इ देते है परन्तू अपने अंदर के बिल्वपत्र जैसे बडे दोष नही दिखार्इ पडते ।

दानं भोगो नाश: तिस्त्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तॄतीया गतिर्भवति ॥

धन खर्च होने के तीन मार्ग है । दान,उपभोग तथा नाश । जो व्यक्ति दान नही करता तथा उसका उपभोगभी नही लेता उसका धन नाश पाता है ।

यादॄशै: सन्निविशते यादॄशांश्चोपसेवते ।
यादॄगिच्छेच्च भवितुं तादॄग्भवति पूरूष: ॥

मनुष्य , जिस प्रकारके लोगोंके साथ रहता है , जिस प्रकारके लोगोंकी सेवा करता है , जिनके जैसा बनने की इच्छा करता है , वैसा वह होता है ।

सुभाषित

गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणो बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बल: । पिको वसन्तस्य गुणं न वायस: करी च सिंहस्य बलं न मूषक: ॥

गुणी पुरुषही दुसरे के गुण पहचानता है, गुणहीन पुरुष नही। बलवान पुरुषही दुसरे का बल जानता है, बलहीन नही। वसन्त ऋतु आए तो उसे कोयल पहचानती है, कौआ नही। शेर के बल को हाथी पहचानता है, चुहा नही।

सुभाषित

गुणवान् वा परजन: स्वजनो निर्गुणोपि वा निर्गुण: स्वजन: श्रेयान् य: पर: पर एव च

गुणवान शत्रु से भी गुणहीन मित्र अच्छा। शत्रु तो आखिर शत्रु है।

पदाहतं सदुत्थाय मूर्धानमधिरोहति ।
स्वस्थादेवाबमानेपि देहिनस्वद्वरं रज: ॥

जो पैरोंसे कुचलने पर भी उपर उठता है ऐसा मिट्टी का कण अपमान किए जाने पर भी चुप बैठनेवाले व्यक्ति से श्रेष्ठ है ।

सा भार्या या प्रियं बू्रते स पुत्रो यत्र निवॄति: ।
तन्मित्रं यत्र विश्वास: स देशो यत्र जीव्यते ॥

जो मिठी वाणी में बोले वही अच्छी पत्नी है, जिससे सुख तथा समाधान प्रााप्त होता है वही वास्तवीक में पुत्र है, जिस पर हम बीना झीझके संपूर्ण विश्वास कर सकते है वही अपना सच्चा मित्र है तथा जहा पर हम काम करके अपना पेट भर सकते है वही अपना देश है ।

सुभाषित

जरा रूपं हरति, धैर्यमाशा, मॄत्यु:प्राणान् , धर्मचर्यामसूया ।
क्रोध: श्रियं , शीलमनार्यसेवा , ह्रियं काम: , सर्वमेवाभिमान: ॥

वॄद्धत्वसे रूपका हरण होता है , आशासे ह्मतॄष्णासे) धैर्यका , मॄत्युसे प्राणका हरण होता है| मत्सरसे धर्माचरण का , क्रोधसे सम्पत्तीका तथा दुष्टोंकी सेवा करनेसे शील का नाश होता है। कामवासनासे लज्जा का तथा अभिमानसे सभी अच्छी चीजोंका अन्त होता है ।

विरला जानन्ति गुणान् विरला: कुर्वन्ति निर्धने स्नेहम् ।
विरला: परकार्यरता: परदु:खेनापि दु:खिता विरला: ॥

दुसरोंके गुण पहचाननेवाले थोडे ही है । निर्धन से नाता रखनेवाले भी थोडे है । दुसरों के काम मे मग्न हानेवाले थोडे है तथा दुसरों का दु:ख देखकर दु:खी होने वाले भी थोडे है ।

आरोग्यं विद्वत्ता सज्जनमैत्री महाकुले जन्म ।
स्वाधीनता च पुंसां महदैश्वर्यं विनाप्यर्थे: ॥

आरोग्य, विद्वत्ता, सज्जनोंसे मैत्री, श्रेष्ठ कुल में जन्म, दुसरों के उपर निर्भर न होना यह सब धन नही होते हुए भी पुरूषों का एैश्वर्य है ।

सुभाषित

कालो वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्
इति ते संशयो मा भूत् राजा कालस्य कारणं

काल राजा का कारण है कि राजा काल काÆ इसमे थोडीभी दुविधा नही कि राजाही काल का कारण है

सुभाषित

आयुष: क्षण एकोपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते ।
नीयते तद् वॄथा येन प्रामाद: सुमहानहो ॥

सब रत्न देने पर भी जीवन का एक क्षण भी वापास नही मिलता । ऐसे जीवन के क्षण जो निर्थक ही खर्च कर रहे है वे कितनी बडी गलती कर रहे है

सुभाषित

योजनानां सहस्रं तु शनैर्गच्छेत् पिपीलिका ।
आगच्छन् वैनतेयोपि पदमेकं न गच्छति ॥

यदि चिटी चल पडी तो धीरे धीरे वह एक हजार योजनाएं भी चल सकती है । परन्तु यदि गरूड जगह से नही हीला तो वह एक पग भी आगे नही बढ सकता ।

सुभाषित

कन्या वरयते रुपं माता वित्तं पिता श्रुतम् बान्धवा: कुलमिच्छन्ति मिष्टान्नमितरेजना:

विवाह के समय कन्या सुन्दर पती चाहती है| उसकी माताजी सधन जमाइ चाहती है। उसके पिताजी ज्ञानी जमाइ चाहते है|तथा उसके बन्धु अच्छे परिवार से नाता जोडना चाहते है। परन्तु बाकी सभी लोग केवल अच्छा खाना चाहते है।

सुभाषित

अर्था भवन्ति गच्छन्ति लभ्यते च पुन: पुन: पुन:
कदापि नायाति गतं तु नवयौवनम्

घन मिलता है, नष्ट होता है| (नष्ट होने के बाद) फिरसे मिलता है। परन्तु जवानी एक बार निकल जाए तो कभी वापस नही आती।

आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यशॄङखला ।
यया बद्धा: प्राधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत् ॥

आशा नामक एक विचित्र और आश्चर्यकारक शॄंखला है । इससे जो बंधे हुए है वो इधर उधर भागते रहते है तथा इससे जो मुक्त है वो पंगु की तरह शांत चित्त से एक ही जगह पर खडे रहते है

। शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खा यस्तु क्रियावान् पुरूष: स विद्वान् ।
सुचिन्तितं चौषधमातुराणां न नाममात्रेण करोत्यरोगम् ॥

शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद भी लोग मूर्ख रहते है । परन्तु जो कॄतीशील है वही सही अर्थ से विद्वान है । किसी रोगी के प्राती केवल अच्छी भावनासे निश्चित किया गया औषध रोगी को ठिक नही कर सकता । वह औषध नियमानुसार लेनेपर ही वह रोगी ठिक हो सकता है ।

सुभाषित

वॄत्तं यत्नेन संरक्ष्येद् वित्तमेति च याति च ।
अक्षीणो वित्तत: क्षीणो वॄत्ततस्तु हतो हत: ॥

विदूरनीति सदाचार की मनुष्यने प्रयन्तपूर्व रक्षा करनी चाहिए , वित्त तो आता जाता रहता है । धनसे क्षीण मनुष्य वस्तुत: क्षीण नही , बल्कि सद्वर्तनहीन मनुष्य हीन है ।

सुभाषित

परस्य पीडया लब्धं धर्मस्योल्लंघनेन च आत्मावमानसंप्राप्तं न धनं तत् सुखाय वै

महाभारत दुसरोंको दु:ख देकर , धर्मका उल्लंघन करकर या खुद का अपमान सहकर मिले हुए धन से सुख नही प्राप्त होता

जानामि धर्मं न च मे प्रावॄत्ति: ।
जानाम्यधर्मं न च मे निवॄत्ति: ॥

दुर्योधन कहते है "ऐसा नही की धर्म तथा अधर्म क्या है यह मैं नही जानता था । परन्तू ऐसा होने पर भी धर्म के मार्ग पर चलना यह मेरी प्रावॄत्ती नही बन पायी और अधर्म के मार्ग से मैं निवॄत्त भी नही हो सका ।

" अकॄत्वा परसन्तापं अगत्वा खलसंसदं अनुत्सॄज्य सतांवर्तमा यदल्पमपि तद्बहु

दूसरोंको दु:ख दिये बिना ; विकॄती के साथ अपाना संबंध बनाए बिना ; अच्छों के साथ अपने सम्बंध तोडे बिना ; जो भी थोडा कुछ हम धर्म के मार्ग पर चलेंगे उतना पर्याप्त है ।

सुभाषित

परोपदेशे पांडित्यं सर्वेषां सुकरं नॄणाम्
धर्मे स्वीयमनुष्ठानं कस्यचित् सुमहात्मन:

दूसरोंको उपदेश देकर अपना पांडित्य दिखाना बहौत सरल है। परन्तु केवल महान व्यक्तिही उसतरह से (धर्मानुसार)अपना बर्ताव रख सकता है।

सुभषित

अमित्रो न विमोक्तव्य: कॄपणं व*णपि ब्राुवन् कॄपा न तस्मिन् कर्तव्या हन्यादेवापकारिणाम्

शत्रु अगर क्षमायाचना करे, तो भी उसे क्षमा नही करनी चाहिये| वह अपने जीवित को हानि पहुचा सकता है यह सोचके उसको समाप्त करना चाहिये।

सुभषित

नेह चात्यन्तसंवास: कर्हिचित् केनचित् सह ।
राजन् स्वेनापि देहेन किमु जायात्मजादिभि: ॥

श्रीमद्भागवत हे राजा ह्मधॄतराष्ट)्र इस जगत में कभीभी , किसीका किसीसे चिरंतन संबंध नहीं होता । अपना खुदके देहसे तक नहीं , तो पत्नी और पुत्र की बात तो दूर ॥

इंद्रियाणि पराण्याहु: इंद्रियेभ्य: परं मन: ।
मनसस्तु परा बुद्धि: यो बुद्धे: परतस्तु स: ॥

गीता 3|42 इंद्रियों के परे मन है मन के परे बुद्धि है और बुद्धि के भी परे आत्मा है ।

सुभाषित

वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय:
अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि

जब काल विपरीत हो, तब शत्रुको भी कन्धोंपे उठाना चाहिये। अनुकूल काल आनेपर उसे जैसे घट पथर पे फोड जाता है, वैसे नष्ट करना चाहिये।

सुभाषित

उष्ट्राणां च विवाहेषु गीतं गायन्ति गर्दभा:

परस्परं प्रशंसन्ति अहो रुपमहो ध्वनि: उंटोके विवाह मे

गधे गाना गा रहे हैं। दोनो एक दूसरेकी प्रशंसा कर रहे हैं वाह क्या रुप है (उंट का), वाह क्या आवाज है (गधेकी)। वास्तव मे देखा जाए तो उंटों मे सौंदर्य के कोई लक्षण नही होते, न की गधोंमे अच्छी आवाजके| परन्तु कुछ लोगोंने कभी उत्तम क्या है यही देखा नही होता| ऐसे लोग इस तरह से जो प्रशंसा करने योग्य नही है, उसकी प्रशंसा करते हैं

आपूर्यमाणमचलप्रातिष्ठं समुद्रमाप: प्राविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत् कामा यं प्राविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥

गीता 2|70

जो व्यक्ती समय समय पर मन में उत्पन्न हुइ आशाओं से अविचलित रहता हैर् जैसे अनेक नदीयां सागर में मिलने पर भी सागर का जल नही बढता, वह शांत ही रहता हैर् ऐसे ही व्यक्ती सुखी हो सकते है ।

मैत्री करूणा मुदितोपेक्षाणां। सुख दु:ख पुण्यापुण्य विषयाणां। भावनातश्चित्तप्रासादनम्। पातञ्जल योग 1|

33 आनंदमयता, दूसरे का दु:ख देखकर मन में करूणा, दूसरे का पुण्य तथा अच्छे कर्म समाज सेवा आदि देखकर आनंद का भाव, तथा किसी ने पाप कर्म किया तो मन में उपेक्षा का भाव 'किया होगा छोडो' आदि प्रातिक्रियाएँ उत्पन्न होनी चाहिए।

सुभाषित

न प्रहॄष्यति सन्माने नापमाने च कुप्यति ।
न क्रुद्ध: परूषं ब्रूयात् स वै साधूत्तम: स्मॄत: ॥

मनुस्मॄति जो सम्मान से गर्वित नहीं होते , अपमान से क्रोधित नहीं होते क्रोधित होकर भी जो कठोर नहीं बोलते, वे ही श्रेष्ठ साधु है ।

हर्षस्थान सहस्राणि भयस्थान शतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढं आविशन्ति न पंडितम् ॥

मूर्ख मनुष्य के लिए प्राति दिन हर्ष के सौ कारण होते है तथा दु:ख के लिए सहस्र कारण| परन्तु पंडितों के मन का संतुलन ऐसे छोटे कारणों से नही बिगडता।

एका केवलमर्थसाधनविधौ सेना शतेभ्योधिका नन्दोन्मूलन दॄष्टवीर्यमहिमा बुद्धिस्तु मा गान्मम ॥

जिन्हे छोडकर जाना था वे चले गए| जो छोड कर जाना चाहते है वे भी चले जाए कोइ चिंता की बात नही| परन्तू इप्सित प्रााप्त करने में जो सैंकडो सेनाओं से भी अधिक बलवान है और नन्द साम्राज्य के निर्मूलन के कार्य में जिसके प्राताप को दुनीया ने देखा है वह केवल मेरी बुद्धि मुझे छोडकर न जाए।

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