संस्कृत और प्राकृत/भाषा/अवधी/ब्रज में छन्द दो प्रकार के होते हैं -
वार्णिक और मात्रिक |
दोनों की इकाई है वर्ण, जो कि मात्रा सहित उच्चारित ध्वनि है |
वर्ण से यहाँ अर्थ है
१. एक अकेला (व्यञ्जन रहित) स्वर
२. एक या एक से अधिक व्यञ्जन के बाद एक स्वर (क क्य स्त्य र्स्त्न्य इत्यादि) वार्णिक छन्द में वर्णों की सङ्ख्या और लघु-गुरु के क्रम का नियम होता है |
जबकि मात्रिक छन्द में केवल मात्राओं की सङ्ख्या का नियम होता है |
छन्दों में मात्रा गिनने के लिए और लघु-गुरु निर्धारण के लिए कुछ नियम हैं -
रामचरित मानस में छंद वैविध्य मात्रा गिनना :
१. अ इ उ ऋ - ये ह्रस्व स्वर अकेले आएँ या किसी व्यञ्जन के बाद - तब एक मात्रा गिनी जाती है (लघु)
२. आ ई ऊ ए ऐ ओ औ - ये दीर्घ स्वर अकेले आएँ या किसी व्यञ्जन के बाद - तब दो मात्राएँ गिनी जाती हैं (गुरु) |
३. यदि एक ही शब्द में लघु के तुंरत बाद संयुक्ताक्षर (दो या अधिक व्यञ्जन जिनके बीच कोई स्वर न हो) हो तो पहले आनेवाले लघु को गुरु गिना जाता है |
४. छन्द के एक चरण (चौथे या आधे भाग) के अन्त में लघु को गुरु गिना जा सकता हैं यदि चरण पूरा करने के लिए आवश्यकता हो |
५. प्राकृत में एकार और ओकार एकमात्रिक भी होते हैं | मानस गेय है, अतः इसमें दोनों प्रकार के (एकमात्रिक और द्विमात्रिक) एकार और ओकार का प्रयोग है | यह सूक्ष्मज्ञान मानस के छन्द गाने के बाद ही होता है | दो शब्दों के बीच आने वाले विराम या अवसान को छन्दःशास्त्र में "यति" की संज्ञा दी जाती है | छन्दःशास्त्र में गणों द्वारा छन्दों का वर्णन किया जाता है | तीन वर्णों के समूह को संक्षेप में लिखने के लिए एक अक्षर का प्रयोग होता है |
आठ गण इस प्रकार है |
गण :
१. य लघु-गुरु-गुरु
२. म गुरु-गुरु-गुरु
३. त गुरु-गुरु-लघु
४. र गुरु-लघु-गुरु
५.ज लघु-गुरु-लघु
६. भ गुरु-लघु-लघु
७. न लघु-लघु-लघु
८. स लघु-लघु-गुरु गणों के अक्षरों को कण्ठस्थ करने के लिए एक सूत्र है -
"यमाताराजभानसलगाः" |
इसके अतिरिक्त एक श्लोक भी है - आदिमध्यावसानेषु यरता यान्ति लाघवम् | भजसा गौरवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ||
आदिमध्यावसानेषु यरता यान्ति लाघवम् | भजसा गौरवं यान्ति मनौ तु गुरुलाघवम् ||
मानस में विविध छन्दों की सङ्ख्या:
चौपाई - ९३८८,
दोहा - ११७२,
सोरठा - ८७,
श्लोक
(अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ, उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक) - ४७, छन्द (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर) २०८कुल १०९०२ |
श्रीरामचरितमानस में संस्कृत श्लोकों में प्रयुक्त छन्द ;
मानस में कुल मिलाकर संस्कृत के ४७ श्लोक हैं जिनके छन्द इस प्रकार हैं
- १. अनुष्टुप् यह मानस का पहला छन्द है | वाल्मीकि रामायण मुख्यतः इसी छन्द में लिखी हुई है |
इसे श्लोक भी कहते हैं | यह छन्द न पूर्णतयः मात्रिक है, न ही पूर्णतयः वार्णिक | इसमें चार चरण होते हैं | हर चरण में आठ वर्ण होते हैं - पर मात्राएँ सबमें भिन्न भिन्न | प्रत्येक चरण में पाँचवा वर्ण लघु और छठा वर्ण गुरु होता है | पहले और तीसरे चरण में सातवाँ वर्ण गुरु होता है, और दूसरे और चौथे में सातवाँ वर्ण लघु होता है |प्रत्येक चरण के बाद यति होती है |
मानस में ७ अनुष्टुप् छन्द हैं -
पाँच बालकाण्ड के प्रारंभ में (१.१.१-१.१.५), एक युद्धकाण्ड के प्रारंभ में (६.१.३) और एक उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टकम् के अन्त में (७.१०८.९) | उदाहरण - मानस का पहला छन्द (१.१.१) -
वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि | मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ||
२. शार्दूलविक्रीडित इस मनोरम छन्द में चार चरण होते हैं | प्रत्येक चरण में १९ वर्ण होते हैं | १२ वर्णों के पश्चात् तथा चरण के अन्त में यति होती है | गणों का क्रम इस प्रकार है - म स ज स त त ग | मानस में यह छन्द सभी काण्डों में प्रयुक्त है (दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका भी सभी काण्डों में प्रयुक्त हैं ) |
मानस में १० शार्दूलविक्रीडित छन्द हैं - बालकाण्ड (१.१.६),
अयोध्याकाण्ड (२.१.१),
सुन्दरकाण्ड (५.१.१)
और युद्धकाण्ड (६.१.२) के प्रारम्भ में एक-एक,
अरण्यकाण्ड (३.१.१, ३.१.२)
और किष्किन्धाकाण्ड (४.१.१, ४.१.२)
के प्रारम्भ में दो-दो, और उत्तरकाण्ड के (और मानस के)
अन्तिम दो छन्द (७.१३१.१, ७.१३१.२) |
उदाहरण -
मानस का अन्तिम छन्द (७.१३१.२) -
पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् | श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ||
३. वसन्ततिलका इसे उद्धर्षिणी या सिंहोन्नता भी कहते हैं | यह बड़ा ही सुन्दर छन्द है | इसमें चार चरण होते हैं | प्रत्येक चरण में १४ वर्ण होते हैं, ८ वर्णों के बाद यति होती है |
गणों का क्रम इस प्रकार है
- त-भ-ज-ज-ग-ग | "उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः" |
मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है -
१) बालकाण्ड के प्रारम्भ में (१.१.७)
नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि |
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ||
२) सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में (५.१.२)
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा | भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ||
४. वंशस्थ इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं |
इसके चार चरण होते हैं | प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है - ज त ज र | प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है |
मानस में केवल एक वंशस्थ छन्द का प्रयोग है
अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में (२.१.२) -
प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदुःखतः |
मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदाऽस्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा ||
स्मरण रहे कि कुछ प्रतियों में "मम्ले" पाठ छपा है जो अशुद्ध है | हमारे गुरुदेव के अनुसार - "ग्लैम्लै धातुक्षये" इस गणपाठ सूत्र से म्लै धातु परस्मैपदी होने के कारण लिट्लकार प्रथमपुरुष एकवचन में "मम्लौ" रूप ही बनता है |
५. उपजाति इन्द्रवज्रा
(चार चरण, ११ वर्ण - त त ज ग ग) और उपेन्द्रवज्रा (चार चरण, ११ वर्ण - ज त ज ग ग) के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं |
साधारणतः उपजाति छन्द संस्कृत के काव्यों में सबसे अधिक प्रयुक्त होता है,
मानस में यह एक ही स्थान पर अयोध्याकाण्ड के प्रारंभ में (२.१.३) प्रयुक्त हुआ है |
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् |
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ||
गुरुवर के अनुसार यहो श्लोक एकाक्षरी रामायण कहलाने योग्य हैं,
क्योंकि इसके चार चरणों में प्रभु श्रीराम की चार लीलाओं -
बाललीला,
विवाहलीला,
रणलीला
और राज्यलीला का एक ही श्लोक में वर्णन है |
६. प्रमाणिका इसके चार चरण होते हैं |
प्रत्येक चरण में ८-८ वर्ण होते हैं |
चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (|ऽ|ऽ|ऽ|ऽ) होता है | गणों में लिखे तो ज-र-ल-ग |
मानस में १३ प्रमाणिकाएँ हैं |
अरण्यकाण्ड में अत्रि मुनि कृत स्तुति (३.४.१ से ३.४.१२) में १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त हैं जिनमें से प्रथम है -
नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम् | भजामि ते पदाम्बुजं अकामिनां स्वधामदम् ||
गुरुदेव के अनुसार १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त होने का कारण है कि प्रभु राम ने १२ वर्षों तक चित्रकूट में निवास किया था |
उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद में एक प्रमाणिका है - ७.१२२(ग)
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे |
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ||
७. मालिनी इसकॆ चार चरण हॊतॆ हैं |
प्रत्येक चरण में पन्द्रह (१५) वर्ण होते हैं
- दो नगण, एक मगण और दो यगण ( न-न-म-य-य ) होते हैं |
आठवे वर्ण पर और चरण के अंत में यति होती है |
मानस में केवल एक मालिनी छन्द है
जो सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में हनुमान जी की स्तुति में आता है
(५.१.३) - अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् | सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ||
८. स्रग्धरा स्रग्धरा मानस में प्रयुक्त संस्कृत छन्दों में सबसे लम्बा है |
इसके चार चरण होते हैं |
प्रत्येक चरण में वर्ण २१ होते हैं, और ७-७-७ के क्रम से यति | गणों का क्रम इस प्रकार है - म-र-भ-न-य-य-य | तदनुसार लघु(|)-गुरु(ऽ) का क्रम इस प्रकार है - ऽ ऽ ऽ ऽ | ऽ ऽ (यति) | | | | | | ऽ (यति) ऽ | ऽ ऽ | ऽ ऽ (यति) | मानस में दो स्थानों पर यह छंद प्रयुक्त है -
१) युद्धकाण्ड पहला
(६.१.१) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् | मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ||
२) उत्तरकाण्ड पहला छन्द
(७.१.१) केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम् |
पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ||
९. रथोद्धता इसके चार चरण होते हैं |
प्रत्येक चरण में ११-११ वर्ण होते हैं |
गणों का क्रम है र-न-र-ल-ग | हर चरण में तीसरे/चौथे वर्ण के बाद यति होती है |
मानस में उत्तरकाण्ड के प्रारंभ में दो रथोद्धता छन्द है(७.१.२ और ७.१.३) -
कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ | जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ||
कुन्द इन्दुदरगौरसुन्दरं अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम् | कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ||
गुरुवचन के अनुसार ७.१.३ के प्रारंभ में "कुन्दः मन्दबुद्धिः इन्दुदरगौरसुन्दरम्" विग्रह समझना चाहिए |
कुन्दः अहम् तुलासीदासः शंकरं नौमि इति | सन्धि के कारण कुन्दः के विसर्ग का लोप हो गया है |
१०. भुजङ्गप्रयात इसकॆ चार चरण हॊतॆ हैं |
हर चरण मॆ चार यगण होते हैं (य-य-य-य) |
उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टक (७.१०८.१-७.१०८.८) में ब्राह्मण द्वारा की गयी शिव-स्तुति में आठ भुजङ्गप्रयात छन्दों का प्रयोग है,
जिनमें से प्रथम है -
नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवॆदस्वरूपम् |
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजॆऽहम् ||
श्रीरामचरितमानस में प्राकृत (अवधी) भाषा में प्रयुक्त छन्द
११. सोरठा (सौराष्ट्र) यह मानस में प्राकृत में पहला छन्द है | यह मात्रिक छन्द है | इसमें चार चरणों में ११-१३ ११-१३ मात्राएँ होती हैं |
हर चरण के अन्त में यति होती है | पहले और तीसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है |
११ मात्राएँ ६-४-१ और १३ मात्राएँ को ६-४-३ में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है |
हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है |
उदाहरण
(१.१.८) - जेहि सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन |
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ||
दोहा में १३-११ १३-११ का क्रम रहता है और तुक दूसरे और चौथे चरण में बनता है - बाकी सब सोरठे जैसा ही है |
वैसे यहाँ भी दूसरे और चौथे चरण में तुक है लेकिन यह दोहा नहीं है क्योंकि बदन और सदन में तुक में गुरु-लघु का क्रम नहीं है, और दूसरे पंक्ति में १३ मात्राओं के बाद यति (शब्द का अंत) नहीं है,
"करउ अनुग्रह सोइ" में "बुद्धि" जोड़ने से ११ से सीधे १४ मात्राएँ हो जायेंगी और क्रम १४-१० हो जायेगा |
मानस में ८७ सोरठे हैं -
बालकाण्ड में ३६,
अयोध्याकाण्ड में १३
(हर पच्चीसवे चौपाई समूह के बाद - २.२५, २.५०, २.७५, २.१००, २.१२६, २.१५१,इत्यादि),
अरण्यकाण्ड में ८,
किष्किन्धाकाण्ड में ३,
सुन्दरकाण्ड में १,
युद्धकाण्ड में ९
और उत्तरकाण्ड में १७ |
१२. चौपाई इस मात्रिक छन्द के दो चरण होते हैं, प्रत्येक में १६-१६ मात्राएँ होती हैं |
हर चरण में ८ मात्राओं के बाद यति होती है | केवल एक चरण हों तो उसे अर्धाली कहते हैं | यह मानस का प्रमुख छन्द है |
प्रथम और द्वितीय चरण के अन्त में तुक होता है |
उदाहरण
(५.४०.६) - जहाँ सुमति तहँ संपति नाना |
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ||
हनुमान चालीसा में भी यही छंद है, और वहाँ ४० चौपाइयाँ हैं |
मानस में कुल ९३८८ चौपाइयाँ हैं,
जिनकी उपमा इस अर्धाली (१.३७.४) में गोस्वामी जी ने मानससरोवर के घने कमल के पत्तों से दी है -
पुरइनि सघन चारु चौपाई |
१३. दोहा (द्विपाद) यह भी एक मात्रिक छंद है |
इसमें चार चरणों में १३-११ १३-११ मात्राएं होती हैं |
हर चरण के अन्त में यति होती है | दूसरे और चौथे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है |
१३ मात्राएँ ६-४-३ और ११ मात्राएँ को ६-४-१ में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है |
हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है |
उदाहरण
(१.१) - जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान |
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ||
श्रीरामचरितमानस में ११७२ दोहे हैं - जिनमें
बालकाण्ड में ३५९,
अयोध्याकाण्ड में ३१४,
अरण्यकाण्ड में ५१,
किष्किन्धाकाण्ड में ३१,
सुन्दरकाण्ड में ६२,
युद्धकाण्ड में १४८
और उत्तरकाण्ड में २०७ दोहे सम्मिलित हैं |
१४. हरिगीतिका यदि मानस कि चौपाइयाँ कमल हैं और दोहे-सोरठे कुमुद हैं, तो निश्चित रूप से हरिगीतिका उत्तुङ्ग शिखरों पे दीखने वाला "ब्रह्मकमल" है | यह छन्द गाने में अत्यन्त मनोहर है, और इसमें गोस्वामीजी के भाव ऐसे निखर के सामने आते हैं कि इस छन्द की शोभा सुनते ही बनती है |
इसमें चार चरण होते हैं |
प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं, जोकि ७-७-७-७ (२-२-१-२, २-२-१-२, २-२-१-२, २-२-१-२) के क्रम से होती हैं |
प्रत्येक सातवीं मात्रा के बाद यति होती है |
पहले और दूसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है |
तुक में क्रम लघु-गुरु होता है |
मानस में हरिगीतिका चौपाइयों और दोहा/सोरठा के बीच आता है |
और इसके प्रारम्भ के २-३ शब्द प्रायः इसके पहले की चौपाई के अंत के २-३ शब्द अथवा उन शब्दों के पर्याय होते है |
ध्यान देने योग्य है कि शिव विवाह में ११ स्थानों पर (१ सोरठा और १० दोहों के पहले) और राम विवाह में १२ स्थानों पर (१२ दोहों के पहले) हरिगीतिका छन्द है -
स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती के अनुसार इसका कारण है कि रुद्र (शिव) ११ हैं और आदित्य (विष्णु) १२ हैं | उदाहरण (५.३५.११) - चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल पावक खरभरे |
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे ||
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं |
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ||
मानस में केवल पाँच छन्द हैं जो प्रत्येक काण्ड में हैं
- चौपाई, दोहा, हरिगीतिका, सोरठा और शार्दूलविक्रीडित | हरिगीतिकाओं की सङ्ख्या १३९ है -
बालकाण्ड में ४७,
अयोध्याकाण्ड में १३,
अरण्यकाण्ड में १४,
किष्किन्धाकाण्ड में ३,
सुन्दरकाण्ड में ६,
युद्धकाण्ड में ३८
और उत्तरकाण्ड में १८ |
१५. चौपैया चार चरण, हर चरण में ३० मात्राएँ (१०-८-१२) , १० और १८ मात्राओं के बाद यति, हर चरण के अंत में गुरु | पहले और दूसरे चरणों के अन्त में तुक, तीसरे और चौथे चरणों के अंत में तुक | और साथ ही हर चरण के अन्दर १० और १८ मात्राओं के अन्त पे भी तुक | ध्यान रहे - त्रिभङ्गी में १०-८-१४ मात्राओं का क्रम है, और यहाँ १०-८-१२ |
मानसजी में बालकाण्ड में १० चौपैया छन्दों का प्रयोग है
- १.१८३.९, १.१८४.९, १.१८६.१ से १.१८६.४, १.१९२.१ से १.१९२.४ | इनमें देवताओं द्वारा श्रीरामचन्द्र की स्तुति (१.१८६.१ से १.१८६.४,) और श्रीराम का आविर्भाव (१.१९२.१ से १.१९२.४) तो मानस प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय हैं
| उदाहरण -
१) देवताओं की स्तुति (१.१८६.१) जय जय सुरनायक (१०) + जन सुखदायक (८) + प्रनतपाल भगवंता (१२) = ३० | गो द्विज हितकारी (१०) + जय असुरारी (८) + सिंधुसुता प्रिय कंता (१२) = ३० || पालन सुर धरनी (१०) अद्भुत करनी (८) मरम न जानई कोई (१२) = ३० | जो सहज कृपाला (१०) + दीनदयाला (८) करउ + अनुग्रह सोई (१२) = ३० || २) श्रीराम जी का आविर्भाव (१.१९२.१) भए प्रगट कृपाला (१०) + दीनदयाला (८) + कौसल्या हितकारी (१२) = ३० | हरषित महतारी (१०) + मुनि मन हारी (८) + अद्भुत रूप बिचारी (१२) = ३० || लोचन अभिरामा (१०) + तनु घनश्यामा (8) + निज आयुध भुज चारी (१२) = ३० | भूषन बनमाला (१०) + नयन बिशाला (८) शोभासिन्धु खरारी (१२) = ३० ||
१६. त्रिभङ्गी त्रिभङ्गी के एक चरण में ३२ मात्राएँ होती हैं |
इसमें एक चरण के अन्दर भी तुक होता है और चरणों के बीच मैं भी | प्रथम और द्वितीय चरणों में, और तृतीय और चतुर्थ चरणों में तुक होता है - और हर चरण का अन्तिम वर्ण गुरु होता है | ३२ मात्राएँ १०-८-१४ में विभाजित हैं, १० और ८ के बीच यति है, और ८ और १४ के बीच यति है | साथ में १० मात्राओं के अन्तिम वर्ण और ८ मात्राओं के अन्तिम वर्ण में भी तुक बनता है | ऐसे त्रिभंगी को १०-८-८-६ में भी बाँटते हैं, पर मानस में सर्वत्र अन्तिम ८ और ६ के बीच यति न होने के कारण १०-८-१४ का क्रम दिया गया है |
मानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छन्द प्रयुक्त हुए हैं - १.२११.१ से १.२११.४ |
गुरुवचन के अनुसार इसका कारण है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया, अतः गोस्वामी जी की वाणी में सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया |
उदाहरण
(१.२११.१) - परसत पद पावन (१०) + शोक नसावन (८) + प्रगट भई तपपुंज सही (१४) = ३२ | देखत रघुनायक (१०) + जन सुखदायक (८) + सनमुख होइ कर जोरि रही (१४) = ३२ || अति प्रेम अधीरा (१०) + पुलक शरीरा (८) + मुख नहिं आवइ बचन कही (१४) = ३२ | अतिशय बड़भागी (१०) + चरनन लागी (८) + जुगल नयन जलधार बही (१४) = ३२ || १७. तोमर तोमर एक मात्रिक छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १२ मात्राएँ होती हैं |
पहले और दुसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है |
मानस में तीन स्थानों पर आठ-आठ (कुल २४) तोमर छन्दों का प्रयोग है |
ये तीन स्थान हैं -
१) अरण्यकाण्ड में खर, दूषण, त्रिशिरा और १४००० राक्षसों की सेना के साथ प्रभु श्रीराम का युद्ध (३.२०.१ से ३.२०.८) - तब चले बान कराल | फुंकरत जनु बहु ब्याल | कोपेउ समर श्रीराम | चले बिशिख निशित निकाम || २)
युद्धकाण्ड में रावण का मायायुद्ध (६.१०१.१ से ६.१०१.८)
जब कीन्ह तेहिं पाषंड |
भए प्रगट जंतु प्रचंड ||
बेताल भूत पिशाच |
कर धरें धनु नाराच ||
३) युद्धकाण्ड में वेदवतीजी के अग्निप्रवेश और सीताजी के अग्नि से पुनरागमन के पश्चात् इन्द्रदेव द्वारा राघवजी की स्तुति
(६.११३.१ से ६.११३.८)
जय राम शोभा धाम |
दायक प्रनत बिश्राम ||
धृत तूण बर शर चाप |
भुजदंड प्रबल प्रताप ||
१८. तोटक तोटक में चार चरण होते हैं |
हर चरण में १२-१२ वर्ण होते हैं और सारे छंद में केवल "सगण" (लघु-लघु-गुरु अथवा ||ऽ) का क्रम रहता है ("वद तोटकमब्धिसकारयुतम्" ) | प्रत्येक चरण में ४ सगण होते हैं | मानस जी में ३१ तोटक छन्द हैं जो कि इन स्थानों पर हैं -
१. युद्धकाण्ड में रावण वध के बाद ब्रह्माजी कृत राघवस्तुति में ग्यारह छन्द (६.१११.१ से ६.१११.११) - जय राम सदा सुखधाम हरे | रघुनायक सायक चाप धरे ||
भव बारन दारन सिंह प्रभो | गुन सागर नागर नाथ बिभो || २. उत्तरकाण्ड में वेदों द्वारा की गयी स्तुति में दस छन्द (७.१४.१ से ७.१४.१०)
जय राम रमा रमणं शमनम् |
भवताप भयाकुल पाहि जनम् ||
अवधेश सुरेश रमेश बिभो |
शरणागत माँगत पाहि प्रभो ||
३. उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि जी के पूर्वजन्म की कथा में विकराल कलियुग वर्णन के प्रकरण में दस छन्द (७.१०१.१ से ७.१०१.५, और ७.१०२.१ से ७.१०२.५) -
बहु दाम सँवारहिं धाम जती |
विषया हरी लीन्ह गई बिरती ||
तपसी धनवंत दरिद्र गृही |
कलि कौतुक तात न जात कही ||
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