Tuesday, 16 September 2025

नवरात्रि घट स्थापना निर्णय


निर्णय सिंधु 328 ( अथाश्विन शुक्लपक्षः )


तदाह लल्लः - तिथिः शरीरं तिथिरेव कारणं तिथिः प्रमाणं तिथिरेव साधनम् । इति । 
उसी बात को लत्ल ने कहा है कि - 
तिथि ही शरीर है, तिथि ही कारण है, तिथि ही प्रमाण है तिथि ही साधन है।

(आश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारंभनिर्णयकथनम् )

अथाश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारम्भः । 
तन्निर्णयः ।
 तत्र भार्गवार्चनदीपिकायां देवीपुराणे सुमेधा उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि चण्डिकापूजनक्रमम् । आश्विनस्य सिते पचे प्रतिपत्सु शुभे दिने ।॥ 

इत्युपक्रम्योक्तम् । 
शुद्धे तिथौ प्रकर्तव्यं प्रतिपच्चोर्ध्वगामिनी । आद्यास्तु नाडिका-स्त्यक्त्वा षोडश द्वादशापि वा ॥ अपराह्ने च कर्तव्यं शुद्धसन्ततिकांक्षिभिः ।॥ इदं चापराह्णयोगिन्याः प्राशस्त्यं द्वितीयदिने प्रतिपदोऽभावे ज्ञेयम् ।

आश्विनशुक्लपक्षको प्रतिपदातिथि में नवरात्रारंभ होता है।
 उसका निर्णय कहते हैं। 
भार्गवार्चन-दीपिकामें देवीपुराण का वचन है कि- सुमेधा ने कहा है कि हेराजन्, सुनो, चण्डिकाके पूजनका क्रम कहता हूँ ।
 आश्विनशुक्लपक्ष की प्रतिपदातिथि के शुभदिन में, यह उपक्रम (प्रारंभ) कर कहा है-शुद्ध (अमास्पर्शरहिते) तिथि में प्रतिपदा ऊर्ध्वगामिनी (अमोर्ध्वगा) हो तो आद्य (पहली), सोलह या बारह नाडी (घड़ी) को त्यागकर शुद्ध (पवित्र ) सन्तति की इच्छावाले अपराह्न में करे और यह अपराह्न ( बारह बजे के बाद ) प्राशस्त्य सात्र है। दूसरे दिन प्रतिपदा के अभावपरक जानना चाहिये ।






यह दक्षन निषेध किया है

( अथाश्विन शुक्लपक्षः )

(आश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारंभनिर्णयकथनम् )

अथाश्विनशुक्लप्रतिपदि नवरात्रारम्भः । तन्निर्णयः । तत्र भार्गवार्चनदीपिकायां देवीपुराणे सुमेधा उवाच - शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि चण्डिकापूजनक्रमम् । आश्विनस्य सिते पचे प्रतिपत्सु शुभे दिने ।॥ इत्युपक्रम्योक्तम् । शुद्धे तिथौ प्रकर्तव्यं प्रतिपच्चोर्ध्वगामिनी । आद्यास्तु नाडिका-स्त्यक्त्वा षोडश द्वादशापि वा ॥ अपराह्ने च कर्तव्यं शुद्धसन्ततिकांक्षिभिः ।॥ इदं चापराह्णयोगिन्याः प्राशस्त्यं द्वितीयदिने प्रतिपदोऽभावे ज्ञेयम् ।



इदं कलशस्थापनं रात्रौ न कार्यम् ।
 न रात्रौ स्थापनं कार्य न च कुम्भाभिषेचनम् । इति मात्स्योक्तेः ।

इस कलशस्थापन को रात्रि में न करे। मत्स्यपुराण में कहा है कि- रात में कलशस्थापन और कुंभा-भिषेचन नहीं करना चाहिये ।

( स्थापनारोपणादिषु प्रातःकालनिर्णयः)

भास्करोदयमारभ्य यावत्तु दशनाडिकाः । प्रातःकाल इति प्रोक्तः स्थापनारोपणादिषु ॥ 
इति विष्णुधर्मोक्तेश्च ।

और विष्णुधर्म में कहा है कि-सूर्य के उदय से प्रारंभ कर दश नाडी (घडी) तक स्थापनारोपण आदि में प्रातः काल कहा है।

१- देवीपूजनादौ कलशस्थापनमात्रे वा निषेध इति मतभेदः ।

२- प्रातरावाहयेद्देवीम्--इत्यादि में प्रातःकाल 'पूर्वाह्नकाल' को कहते हैं यह पहले कह चुके हैं और कलशस्था सतिसंभव में प्रतिपदा के आद्य की सोलह घडी छोड़कर करे । '
आद्याः षोडशनाडीस्तु' ऐसा पाठ पहले आया है।

के निर्णयसिन्धु का द्वितीय परिच्छेद

रुद्रयामलतन्त्र और डामरतन्त्र निमू ल हैं-तथापि विरोध न होनेसे तथा प्रचारसे उन वचनों को लिखते हैं। 

तिथितत्त्वे देवीपुराणेऽपि -

 प्रातरावाहयेद्देवीं प्रातरेव प्रवेशयेत् ।
प्रातः प्रातश्च सम्पूज्य प्रातरेव विसजयेत् ।।

विथितत्त्व में और देवीपुराणमें भी कहा कि-प्रातःकाल' देवी का आवाहन करे । प्रातःकालही प्रवेश करे। प्रातःकाल पूजन करे और प्रातःकाल ही विसर्जन करे ।

तत्रैव-शरत्काले महापूजा क्रियते याच वार्षिकी । सा कार्योदयगामिन्यां न तत्र तिथियुग्मता ।। वहीं पर कहा है कि-शरत्कालसे जो वार्षिकी महापूजा की जाती है वह उदयकाल की तिथि में करे। उसमें दो तिथियों की युग्मता नहीं है। (संवत्सर के आदिमें - चैत्रशुक्ल प्रतिपदासे लेकर नवमी तिथितक पूजा का विधान है। 




देवी भागवत पुराण के अनुसार, अगर नवरात्र सोमवार को शुरू हो, तो देवी दुर्गा हाथी पर सवार होकर आती हैं।

  • सोमवार या रविवार - हाथी पर आगमन (सुख-समृद्धि और अच्छी बारिश)
  • शनिवार या मंगलवार - घोड़े पर आगमन (युद्ध और राजनीतिक उथल-पुथल)
  • गुरुवार या शुक्रवार - पालकी पर आगमन (सुख, शांति और समृद्धि)
  • बुधवार - नाव पर आगमन (सभी मनोकामनाओं की पूर्ति)


श्लोक - 

"शशि सूर्य गजारूढ़ा शनिभौमै तुरंगमे। 

गुरौ शुक्रेचा दोलायं बुधे नौकाप्रकीर्तिता।"

मां दुर्गा का हाथी से आना एक शुभ संकेत माना जा रहा है। यह शांति, समृद्धि और ऐश्वर्य का प्रतीक है। कहा जा रहा है कि यह अच्छी बारिश, भरपूर फसल और किसानों की समृद्धि का संकेत दे रहा है।







(कुमारीपूजाकथनम्)

ततः कुमारीपूजा । 
तदुक्तं हेमाद्रौ स्कान्दै एकैकां पूजयेत्कन्यामेकवृद्धया तथैव च ।
द्विगुणं त्रिगुणं वाऽपि प्रत्येकं नवर्क तु वा ।।

 कुमारीपूजा कहते हैं-
उसी बात को हेमाद्रि में स्कन्दपुराण का मत है कि 

एक एक कन्या का पूजन करे। वैसे ही एक एक ही वृद्धि से करे या द्विगुणित या त्रिगुणित कन्या का या प्रतिदिन नौ कन्या अर्चन करे।

तथा 
नवभिर्लभते भूमिमैश्वर्यं द्विगुणेन तु ।
 एकवद्धया लभेत्क्षेममेकैकेन श्रियं लमेत् ॥ 

और नौ कन्याओं से भूमिका लाभ होता है। द्विगुणित से ऐश्वर्य मिलता है। एक एक की वृद्धि से क्षेम (कुशक्षता) मिलती है। एक एक कन्या से लक्ष्मी का लाभ होता है।

एकवर्षा तु या कन्या पूजार्थे तां विवर्जयेत् । गन्धपुष्पफलादीनां प्रीतिस्तस्या न विद्यते ॥ 

तेन द्विवर्षामारभ्य दशवर्षपर्यन्ता एव पूज्या न त्वन्याः । तासां च क्रमेण कुमारिका, त्रिमूर्तिः, कल्याणी, रोहिणी, काली, चण्डिका, शाम्भवी, दुर्गा, सुभद्रा, इति नामभिः पूजा कार्या। आसां
प्रत्येकं पूजामन्त्राः फलविशेषाश्च तत्रैव ज्ञेयाः ।

एक वर्ष की जो कन्या है उसे पूजा के कार्य में वर्जित करे। 
क्योंकि उस कन्या को गन्ध, पुष्प, न आदि की प्रीति नहीं होती है। 
इससे 'दो वर्ष की कन्या से लेकर दश वर्ष की कन्या का ही पूजा करें अन्य का नहीं करे। 
उस कन्याओं का क्रम यों है-
कुमारिका, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालो, बडका, शांभवी, दुर्गा तथा सुभद्रा इन उपरोक्त नामों से पूजा करनी चाहिये। 
इनके प्रत्येक की पूजा के और फल विशेष वहीं से जानने चाहिये ।

मंत्राक्षरमयिम लक्ष्मीं मातृणां रूपधारिणीम् । नवदुर्गात्मिकां साक्षात्कन्यामा-नाम्यहम् ॥

सामान्यता से तो- (सामान्यता से तो सबों में एकही मन्त्राक्षरमयी लक्ष्मी, माताओं के रूप को करनेवाली और नवदुर्गात्मिका कन्या का साक्षात् मैं आवाहन करता हूँ।

अभ्यर्चनं कुर्यात्कुमारीणां प्रयत्नतः । 
कञ्चुकैश्चैव वस्त्रैश्च गन्धपुष्पाक्षतादिभिः ॥ नानाविधै-ज्यैर्भोजयेत्पायसादिभिः ॥

इसप्रकार कुमारियों का प्रयत्न से अभ्यर्चन करे- कञ्चुक (चोली), वस्त्र, गन्ध, पुष्प, अक्षत तथा अनेकतरह के भक्ष्य एवं पायस आदि से भोजन कराबे 

(पूजने त्याश्वकन्याकथनम् )

तथा ग्रन्थिस्फुटितशीणोङ्गी रक्तपूयवणाङ्किताम् । जात्यन्यां केकरों काणीं कुरूर्णा तनुरोम शाम् ।। सन्त्यजेद्रोगिणीं कन्यां दासीगर्भसमुद्भवाम् ।।

अन्थि (कूर्पराणाः) जिसके शरीर में गांठ हों, जिसका अंग कटा हो, जिसके शरीर में रुचिर तवा भवादयक्त जण हो, जो जन्म से अन्धी हो, जो (केकरा) ऐचातानावाली हो, जो एक आंखवाली हो, श्री कुरूपा हो, जिसके शरीर में बहुत रोयें हो, जो रोगबाली हो और दासी के गर्भ से उत्पन्न हो ऐसी कन्याओं का पूजन कार्य में त्याग कर दे।

(कन्यापूजने विचारः)

तथा ब्राह्मणीं सर्वकार्येषु जयायें नृपवंशजाम् । लाभायें वैश्यवंशोत्थां सुतायें शूद्रवंशजाम् ॥
दारुणे चान्त्यजातानां पूजयेद्विधिना नरः । इति ।

और सब कार्यों में ब्राह्मणी, 
जय के लिए क्षत्रिय कन्या, लाभार्थ में वैश्य वंश से उत्पन्न कन्या,
 पुत्र के लिये शूद्र बंशोत्पन्न कन्या 
तथा दारुण कार्यों में अन्त्यजों से उत्पन्न कन्या का मनुष्य विधि से 'पूजन करे।
)


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