Thursday, 26 September 2024

#चोरी की वस्तु

रेवती नक्षत्र से अभिजित सहित गणना करें, रेवती नक्षत्र पूर्व में रहता है इस तरह शेष नक्षत्रों की दिशा भी क्रमशः गणना करें।
पूर्व दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 1 सप्ताह में प्राप्त होती है
दक्षिण दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 2-3 सप्ताह में प्राप्त होती है 
पश्चिम दिशा नक्षत्र में गई वस्तु 3 सप्ताह से 3 माह में विशेष प्रयत्न करने पर प्राप्त होती है, अन्यथा प्राप्त नहीं होती है
उत्तर दिशा नक्षत्र में गई वस्तु कभी प्राप्त नहीं होती है

जय सियाराम जी

आशीर्वाद


लक्ष्मीस्ते पङ्कजाक्षी निवसतु भवने भारती कण्ठदेशे । वर्धन्तां बन्धुवर्गाः सकलरिपुगणा यान्तु पातालमूलम् ।। देशे देशे च कीर्ति प्रसरतु भवतां दिव्यकुन्देन्दुशुभ्रा । जीव त्वं पुत्रपाैत्रै:सकल सुखयुतै र्हायनानां शतैश्च ।।

Sunday, 22 September 2024

वास्तु पूजा एवं गृह प्रवेश पूजा सामग्री

================================ 1】हल्दीः--------------------------50 ग्राम 
२】कलावा(आंटी)-------------10 गोले 
३】अगरबत्ती------------------- 3पैकिट
 ४】कपूर------------------------- 50 ग्राम
 ५】केसर------------------------- 1डिव्वि 
६】चंदन पेस्ट ------------------ 50 ग्राम
 ७】यज्ञोपवीत ----------------- 11नग्
 ८】चावल------------------------ 07 किलो 
९】अबीर-------------------------50 ग्राम 
१०】गुलाल, -----------------100 ग्राम
 ११कच्चा सूत ----------------200 फिट
१२】सिंदूर --------------------100 ग्राम 
१३】रोली, --------------------100ग्राम 
१४】सुपारी, ( बड़ी)-------- 200 ग्राम
 १५】नारियल ----------------- 11 नग्
 १६】सरसो----------------------50 ग्राम
 १७】पंच मेवा------------------100 ग्राम 
१८】शहद (मधु)--------------- 50 ग्राम
 १९】शकर-----------------------0 1किलो
 २०】घृत (शुद्ध घी)------------ 01किलो
 २१】इलायची (छोटी)-----------10ग्राम 
२२】नागफणी किले --------------05 नग
 २३】इत्र की शीशी----------------1 नग् 
२४】रंग लाल----------------------10ग्राम 
२५】रंग काला --------------------10ग्राम 
२६】रंग हरा -----------------------10ग्राम 
२७】रंग पिला ---------------------10ग्राम 
२८】बास्तु किट --------------------1 नग्
 २९】धुप बत्ती ---------------------2 पैकिट

सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम
 १】 जौ-----------
 २】गेहूँ- 
३】चावल- 
४】तिल- 
५】काँगनी- 
६】उड़द-
 ७】मूँग =============================
 
३३】कुशा 
३४】दूर्वा 
35】पुष्प कई प्रकार के 
३६】गंगाजल 
३७】ऋतुफल पांच प्रकार के -----1 किलो

 38】पंच पल्लव 
१】बड़, 
२】 गूलर,
 ३】पीपल, 
४】आम 
५】पाकर के पत्ते) ============================= 


३९】बिल्वपत्र 
४०】शमीपत्र 
४१】सर्वऔषधि 
४२】अर्पित करने हेतु पुरुष बस्त्र 
४३】मता जी को अर्पित करने हेतु सौ भाग्यवस्त्र
 44】जल कलश तांबे का मिट्टी का) 
-------------------------------------------------
४५】 बस्त्र 
१】सफेद कपड़ा दोमीटर) 
२】लाल कपड़ा (2मीटर) 
३】काला कपड़ा 2मीटर)
 ४】हरा कपड़ा 2मीटर)  पीला कपड़ा 2 मीटर

४६】पंच रत्न (सामर्थ्य अनुसार)
 ४७】दीपक 
४८】तुलसी दल
 ४८】केले के पत्ते (यदि उपलब्ध हों तो खंभे सहित) 49】बन्दनवार 50】पान के पत्ते ------------11 नग 51】रुई
 ५२】भस्म 
53】ध्वजालाल-1 
पचरंगा -1 
54】प्रसाद(अनुमानि) ====================================नवग्रह समिधा======= 
१】आक 
२】 छोला
 ३】खैर 
४】आंधी झाड़ा
 ५】पीपल 
६】उमर(गूलर) 
७】शमी 
८】दूर्वा 
९】कुशा


घरेलू समान 
आसान बिछाने के लिए 
चौकी 2/2की पांच या फिर प्लाई एक 3/6 की
दूध ,दही ,फूल ,दूर्वा ,पूजा के लिए  बर्तन ,भगवान की तस्वीरे , आटा चोक पुरने के  लिए,
 
Gurudev 
Bhubneshwar
9893946810

Friday, 20 September 2024

#गणेश जी की आरती


जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।

एकदंत, दयावन्त, चार भुजाधारी,
माथे सिन्दूर सोहे, मूस की सवारी। 
पान चढ़े, फूल चढ़े और चढ़े मेवा,
लड्डुअन का भोग लगे, सन्त करें सेवा।। ..
जय गणेश, जय गणेश, जय गणेश, देवा।
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।

अंधन को आंख देत, कोढ़िन को काया,
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया। 
'सूर' श्याम शरण आए, सफल कीजे सेवा।। 
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा .. 
माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा। 

दीनन की लाज रखो, शंभु सुतकारी। 
कामना को पूर्ण करो जय बलिहारी

Sunday, 15 September 2024

#सूतक

#अशौची से संसर्ग करनेवालोंकी शुद्धि

अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च।
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाऽग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति॥
(मनुस्मृति - ५.१०३)

जो मनुष्य (सपिण्डसे भिन्न) अपनी जाति अथवा अन्य जाति के साथ श्मशान में जाता है वह वस्त्रोंके सहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करने और घी खानेपर शुद्ध होताहै॥ 

ब्राह्मणेनानुगन्तव्यो न शूद्रो न द्विजः क्वचि।
अनुगम्याम्भसि स्नात्वा स्पृष्टाग्निं घृतभुक्शुचिः॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति - ३.२६)

ब्राह्मण को उचित है कि (असपिण्ड) द्विज अथवा शूद्रके मुर्देके साथ श्मशान में नही जावे; किन्तु यदि जावे तो जलमें स्नान करके अग्निका स्पर्श और घी भोजन करके शुद्ध होवे॥

यस्तैः सहान्नं कुर्याच्च यानादीनि तु चैवं हि।
ब्राह्मणे वा परे वापि दशाहेन विशुध्यति॥ 
यस्तेषामन्नमश्नाति स तु देवोऽपि कामतः।
तदा शौचनिवृत्तेषु स्नानं कृत्वा विशुध्यति॥
यावत्तदन्नमश्नाति दुर्भिक्षाभिहतो नरः।
तावन्त्यन्यन्यशुद्धिः स्यात्प्रायश्चित्तं ततश्चरेत्॥
(उशनास्मृति - ६.४८-५०)

ब्राह्मण अथवा अन्य वर्णका मनुष्य जो कोई अशौचीके सहित अन्न भोजन या एकत्र यानादि व्यवहार करेगा वह १० दिनपर अर्थात् अशौची के शुद्ध होनेपर शुद्ध होगा॥  जो जान करके अशौचवालेके घर अन्न खाता है वह देवता होनेपर भी अशौचवाले के शुद्ध होनेपर स्नान करके शुद्ध होता है; किन्तु जो दुर्भिक्षसे पीड़ित होकर प्राणरक्षाके लिये अशौचवालेके घर जितने दिन भोजन करता है वह उतने दिनतक अशुद्ध रहता है, उसके बाद स्नान आदि प्रायश्चित्त करके शुद्ध हो जाता है॥

असपिण्डेर्न कर्त्तव्यं चूडाकार्ये विशेषतः॥
जन्मप्रभृतिसंस्कारे श्मशानान्ते च भोजनम्॥
(आपस्तम्ब स्मृति - ९.२१-२२)
जातकर्म आदि संस्कार के समय, प्रेतकर्ममें और विशेष करके चूड़ाकरणके समय असपिण्डके घर भोजन नहीं करना चाहिये॥

संपर्कादुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा।
संपर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकम्॥ 
(पाराशरस्मृति - ३.२१)

ब्राह्मण असपिण्ड के मृत्यु तथा जन्मके अशौचमें केवल सम्पर्कसे ही दूषित होता है; यदि वह अशौच वालेसे सम्पर्क नहीं रखे तो उसको मरणका अथवा जन्मका अशौच नहीं लगता है॥

#अनाथब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः।
पदे पदे यज्ञफलमानुपूर्व्यालभन्ति ते॥
न तेषामशुभं किञ्चित्पापं वा शुभकर्मणाम्।
जला गाहनात्तेषां सद्यः शौचं विधीयते॥ 
असगोत्रमबन्धुश्च प्रेतीभूतद्विजोत्तमम्।
वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुध्यति॥
(पाराशरस्मृति ३.४१-४३)

जो द्विजाति अनाथ ब्राह्मणके मृत शरीरको ढोकर श्मशानमें ले जाते हैं वे पद-पद पर यज्ञ करनेका फल पाते हैं; उन शुभ कर्म करनेवालोंको न तो कुछ दोष लगता है न अशुभ होता है; वे लोग जलमें स्नान करनेसे उसी समय शुद्ध होजाते हैं।  जो ब्राह्मण अन्य गोत्र और अबान्धव मृतकको ढोता है और दाह करता है वह प्राणायाम करने पर शुद्ध होजाता है।

#पराशौचे नरो भुक्त्वा कृमियोनौ प्रजायते। 
भुक्त्वान्नं म्रियते यस्य तस्य योनौ प्रजायते॥
(शङ्खस्मृति - १५.२४)
जो मनुष्य अन्यके अशौचमे अर्थात् उसके शुद्ध होनेसे पहिले उसके घर भोजन करता है वह कीड़की योनि में जन्म लेता है और जो जिसका अन्न खाकर अर्थात् पेटमें उसका अन्न रहनेपर मर जाता है वह उसी की जाति जन्मता॥

अनिर्दशाहे पक्वान्नं नियोगाद्यस्त भुक्तवान्।
कृमिर्भूत्वा स देहान्ते तद्विष्टामुपजीवति॥  द्वादशमासान्द्वादशार्द्धमासान्वाऽनश्नन्संहितामधीयानः पूतो भवतीति विज्ञायते॥
(वसिष्ठस्मृति - ४.२७-२८)

जो ब्राह्मण अशौचवाले ब्राह्मणके घर १० दिनके भीतर निमन्त्रित होकर पका हुआ अन्न खाता है वह मरनेपर कीड़ा होकर अशौचवालेकी विष्ठा से जीता है। वह मनुष्य १२ मास अथवा ६ मास अन्नरहित होकर (केवल दूध पीकर) वेदकी संहिताका पाठ करनेपर शुद्ध होजाता है; ऐसा शास्त्र से जाना गया है॥
-आचार्य श्री दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
-आचार्य_। वैदिक नितिन शुक्ला जी ✍️🙏

#ब्रह्मण का धन

ब्राह्मण का धन सम्पत्ति कभी नहीं खाना चाहिए??
-::-  -::-
1.नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया।
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि।।१२/ ३३।।
2.हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति।
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः
।।१२/ ३४।।
3.स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः।
#षष्टिवर्षसहस्त्राणिविष्ठायां जायते कृमिः।।१२/३९।।
4.यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः।
तथा नमत यूयं च योन्यथा मे  स दण्डभाक्।।१२/४२।।
                  ----------

मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता,क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है।वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है;उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध,कोई उपाय नहीं है

जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति,उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं,वे साठ हजार वर्ष तक विष्ठाके कीड़े होते हैं।
Arun Dubey Jabalpur

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कृष्णः परिजनं प्राह भगवान्देवकीसुतः
ब्रह्मण्यदेवो धर्मात्मा राजन्याननुशिक्षयन् ३१

दुर्जरं बत ब्रह्मस्वं भुक्तमग्नेर्मनागपि
तेजीयसोऽपि किमुत राज्ञां ईश्वरमानिनाम् ३२

नाहं हालाहलं मन्ये विषं यस्य प्रतिक्रिया
ब्रह्मस्वं हि विषं प्रोक्तं नास्य प्रतिविधिर्भुवि ३३

हिनस्ति विषमत्तारं वह्निरद्भिः प्रशाम्यति
कुलं समूलं दहति ब्रह्मस्वारणिपावकः ३४

ब्रह्मस्वं दुरनुज्ञातं भुक्तं हन्ति त्रिपूरुषम्
प्रसह्य तु बलाद्भुक्तं दश पूर्वान्दशापरान् ३५

राजानो राजलक्ष्म्यान्धा नात्मपातं विचक्षते
निरयं येऽभिमन्यन्ते ब्रह्मस्वं साधु बालिशाः ३६

गृह्णन्ति यावतः पांशून्क्रन्दतामश्रुबिन्दवः
विप्राणां हृतवृत्तीनाम्वदान्यानां कुटुम्बिनाम् ३७

राजानो राजकुल्याश्च तावतोऽब्दान्निरङ्कुशाः
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते ब्रह्मदायापहारिणः ३८

स्वदत्तां परदत्तां वा ब्रह्मवृत्तिं हरेच्च यः
षष्टिवर्षसहस्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ३९

न मे ब्रह्मधनं भूयाद्यद्गृध्वाल्पायुषो नराः
पराजिताश्च्युता राज्याद्भवन्त्युद्वेजिनोऽहयः ४०

विप्रं कृतागसमपि नैव द्रुह्यत मामकाः
घ्नन्तं बहु शपन्तं वा नमस्कुरुत नित्यशः ४१

यथाहं प्रणमे विप्राननुकालं समाहितः
तथा नमत यूयं च योऽन्यथा मे स दण्डभाक् ४२

ब्राह्मणार्थो ह्यपहृतो हर्तारं पातयत्यधः
अजानन्तमपि ह्येनं नृगं ब्राह्मणगौरिव ४३

एवं विश्राव्य भगवान्मुकुन्दो द्वारकौकसः
पावनः सर्वलोकानां विवेश निजमन्दिरम् 
अर्थ 👇👇👇👇👇👇
राजा नृगके चले जानेपर ब्राह्मणोंके परम प्रेमी, धर्मके आधार देवकीनन्दन भगवान्‌ श्रीकृष्णने क्षत्रियोंको शिक्षा देनेके लिये वहाँ उपस्थित अपने कुटुम्बके लोगोंसे कहा— ।। 
‘जो लोग अग्रिके समान तेजस्वी हैं, वे भी ब्राह्मणोंका थोड़े-से-थोड़ा धन हड़पकर नहीं पचा सकते। फिर जो अभिमानवश झूठमूठ अपनेको लोगोंका स्वामी समझते हैं, वे राजा तो क्या पचा सकते हैं ?।। 
मैं हलाहल विषको विष नहीं मानता, क्योंकि उसकी चिकित्सा होती है। वस्तुत: ब्राह्मणोंका धन ही परम विष है; उसको पचा लेनेके लिये पृथ्वीमें कोई औषध, कोई उपाय नहीं है ।। ३३ ।।
हलाहल विष केवल खानेवालेका ही प्राण लेता है, और आग भी जलके द्वारा बुझायी जा सकती है; परंतु ब्राह्मणके धनरूप अरणिसे जो आग पैदा होती है, वह सारे कुलको समूल जला डालती है ।। 
ब्राह्मणका धन यदि उसकी पूरी-पूरी सम्मति लिये बिना भोगा जाय तब तो वह भोगनेवाले, उसके लडक़े और पौत्र—इन तीन पीढिय़ोंको ही चौपट करता है। परंतु यदि बलपूर्वक हठ करके उसका उपभोग किया जाय, तब तो पूर्वपुरुषोंकी दस पीढिय़ाँ और आगेकी भी दस पीढिय़ाँ नष्ट हो जाती हैं ।। 
 जो मूर्ख राजा अपनी राजलक्ष्मीके घमंडसे अंधे होकर ब्राह्मणोंका धन हड़पना चाहते हैं, समझना चाहिये कि वे जान-बूझकर नरकमें जानेका रास्ता साफ कर रहे हैं। वे देखते नहीं कि उन्हें अध:पतनके कैसे गहरे गड्ढेमें गिरना पड़ेगा ।।  ।।
जिन उदारहृदय और बहुकुटुम्बी ब्राह्मणोंकी वृत्ति छीन ली जाती है, उनके रोनेपर उनके आँसूकी बूँदोंसे धरतीके जितने धूलिकण भीगते हैं, उतने वर्षोंतक ब्राह्मणके स्वत्वको छीननेवाले उस उच्छृङ्खल राजा और उसके वंशजोंको कुम्भीपाक नरकमें दु:ख भोगना पड़ता है ।। 
जो मनुष्य अपनी या दूसरोंकी दी हुई ब्राह्मणोंकी वृत्ति, उनकी जीविकाके साधन छीन लेते हैं, वे साठ हजार वर्षतक विष्ठाके कीड़े होते हैं ।।
 इसलिये मैं तो यही चाहता हूँ कि ब्राह्मणोंका धन कभी भूलसे भी मेरे कोषमें न आये, क्योंकि जो लोग ब्राह्मणोंके धनकी इच्छा भी करते हैं—उसे छीननेकी बात तो अलग रही—वे इस जन्ममें अल्पायु, शत्रुओंसे पराजित और राज्यभ्रष्ट हो जाते हैं और मृत्युके बाद भी वे दूसरोंको कष्ट देनेवाले साँप ही होते हैं ।। 
इसलिये मेरे आत्मीयो ! यदि ब्राह्मण अपराध करे, तो भी उससे द्वेष मत करो । वह मार ही क्यों न बैठे या बहुत-सी गालियाँ या शाप ही क्यों न दे, उसे तुमलोग सदा नमस्कार ही करो ।। 
जिस प्रकार मैं बड़ी सावधानीसे तीनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करता हूँ, वैसे ही तुमलोग भी किया करो। जो मेरी इस आज्ञाका उल्लङ्घन करेगा, उसे मैं क्षमा नहीं करूँगा, दण्ड दूँगा ।। 
यदि ब्राह्मणके धनका अपहरण हो जाय तो वह अपहृत धन उस अपहरण करनेवालेको—अनजानमें उसके द्वारा यह अपराध हुआ हो तो भी— अध:पतनके गड्ढे में डाल देता है। जैसे ब्राह्मणकी गाय ने अनजान में उसे लेनेवाले राजा नृगको नरकमें डाल दिया था ।। 
परीक्षित्‌ ! समस्त लोकोंको पवित्र करनेवाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण द्वारका- वासियोंको इस प्रकार उपदेश देकर अपने महलमें चले गये।।
   Arun shastri जबलपुर 
❗जय महादेव❗
 ⭕प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें‼️

Saturday, 14 September 2024

#पुत्र होने का अचूक नुस्खा

अवश्य लड़का ही होगा 

भांग के बीज नया गुड़ दोनों एक एक तोला लें पांच मोर पंख की चंद्रिका घोंट कर चौदह गोली बनायें जब ढाई माह का गर्भ हो तब बछड़े बाली गाय के दूध में एक एक  गोली सात दिन तक खाएं दवा खाते समय कन्या नहीं देखें वाल रुप में कन्हैया जी के फोटो के दर्शन करें 

                 गुरुदेव
भुवनेश्वर 

# श्राद्ध पक्ष

श्राद्ध पक्ष: एक विस्तृत व्याख्यान
अवश्य पढ़ें बहुमूल्य जानकारी

श्राद्ध पक्ष, जिसे पितृ पक्ष भी कहा जाता है, हिन्दू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठानों में से एक है। इसे आत्माओं और पितरों के प्रति सम्मान और श्रद्धा प्रकट करने का समय माना जाता है। यह अनुष्ठान हिंदू पंचांग के अनुसार भाद्रपद महीने की पूर्णिमा से आश्विन महीने की अमावस्या तक मनाया जाता है। 16 दिनों तक चलने वाले इस समय को विशेष रूप से पूर्वजों के उद्धार और उनकी आत्मा की शांति के लिए समर्पित किया जाता है। 

श्राद्ध पक्ष में, लोग अपने दिवंगत पूर्वजों के लिए विशेष अनुष्ठान करते हैं, जिसमें तर्पण, पिंडदान, और ब्राह्मणों को भोजन दान करना शामिल होता है। यह मान्यता है कि श्राद्ध कर्म करने से पितर संतुष्ट होते हैं और अपनी संतान को आशीर्वाद देते हैं। यह परंपरा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि इसमें सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों का भी गहरा संबंध है।

#### श्राद्ध पक्ष का पौराणिक महत्व
श्राद्ध पक्ष की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है और इसके कई धार्मिक और पौराणिक संदर्भ हैं। महाभारत, रामायण, और पुराणों में श्राद्ध कर्म के महत्व का वर्णन मिलता है। कहा जाता है कि जब महाभारत के युद्ध के बाद भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर थे, तो उन्होंने पांडवों को श्राद्ध कर्म की महत्ता बताई थी।

रामायण में भी इसका उल्लेख है। जब भगवान राम ने लंका से विजय प्राप्त करने के लिए समुद्र पार किया, तो उन्होंने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध तर्पण किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि श्राद्ध कर्म का धार्मिक और पौराणिक महत्व अत्यंत गहरा और प्राचीन है।

#### श्राद्ध पक्ष का धार्मिक पक्ष
श्राद्ध शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "श्रद्धा" शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है श्रद्धा या विश्वास। यह वह अनुष्ठान है जिसमें व्यक्ति अपनी श्रद्धा और विश्वास के साथ अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और उद्धार के लिए विशेष कर्म करता है। हिन्दू मान्यता के अनुसार, मृत्यु के बाद आत्मा शरीर से निकलकर पितृलोक में जाती है, और वहां उसे तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध कर्म के माध्यम से पोषण प्राप्त होता है।

श्राद्ध कर्म में मुख्य रूप से तीन प्रकार के कार्य किए जाते हैं:
1. **पिंडदान**: इसमें चावल, तिल और जौ से बने पिंड अर्पित किए जाते हैं। यह प्रतीकात्मक रूप से दिवंगत आत्मा को भोजन देने का कार्य है।
2. **तर्पण**: इसमें जल अर्पित करके पितरों की तृप्ति की जाती है। यह जल उनके लिए अमृत के रूप में माना जाता है।
3. **ब्राह्मण भोजन और दान**: श्राद्ध कर्म के दौरान ब्राह्मणों को भोजन कराया जाता है और उन्हें वस्त्र, धन आदि का दान किया जाता है। इसे पितरों के लिए किया गया पुण्य कर्म माना जाता है।

#### श्राद्ध पक्ष की तिथियों का महत्व
श्राद्ध पक्ष के 16 दिनों में हर दिन का विशेष महत्व होता है, और हर दिन एक विशेष प्रकार का श्राद्ध किया जाता है। यह तिथियां व्यक्ति के निधन के दिन और परिवार की स्थिति के अनुसार निर्धारित की जाती हैं। आमतौर पर जिस तिथि को व्यक्ति की मृत्यु होती है, उसी तिथि को श्राद्ध कर्म किया जाता है। इसके अलावा, कुछ विशेष श्राद्ध भी होते हैं:
- **महालय अमावस्या**: यह श्राद्ध पक्ष का अंतिम दिन होता है और इसे सभी पितरों का श्राद्ध करने का दिन माना जाता है। जिनका तिथि अनुसार श्राद्ध नहीं हो पाता, उनके लिए इस दिन विशेष तर्पण और पिंडदान किया जाता है।
- **मूल श्राद्ध**: यह उन व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जिनकी मृत्यु अनजान परिस्थितियों में या अकाल मृत्यु से हुई होती है।

#### श्राद्ध कर्म की विधि
श्राद्ध कर्म एक अत्यंत पवित्र और नियमबद्ध प्रक्रिया है। इसे करने के लिए व्यक्ति को कुछ विशेष नियमों का पालन करना होता है:
1. श्राद्ध करने वाले को पवित्रता का ध्यान रखना चाहिए। स्नान करके, शुद्ध वस्त्र धारण करके श्राद्ध कर्म किया जाता है।
2. श्राद्ध कर्म आमतौर पर घर में ही किया जाता है, लेकिन यदि संभव हो, तो इसे तीर्थ स्थानों या पवित्र नदियों के किनारे करना शुभ माना जाता है।
3. श्राद्ध में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में चावल, तिल, जौ, गाय का घी, शहद और जल शामिल होते हैं। इन्हें पिंड के रूप में बनाकर अर्पित किया जाता है।
4. ब्राह्मणों को भोजन कराने और उन्हें दान देने का विशेष महत्व है। इस दिन का भोजन विशेष रूप से सात्विक होता है और इसे श्रद्धा और समर्पण के साथ तैयार किया जाता है।

#### श्राद्ध पक्ष के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पहलू
श्राद्ध पक्ष केवल धार्मिक अनुष्ठान का समय नहीं है, बल्कि इसका एक गहरा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है। यह समय हमें यह सिखाता है कि हमारी वर्तमान स्थिति, हमारे सुख, समृद्धि और सफलताएँ हमारे पूर्वजों के आशीर्वाद का परिणाम हैं। श्राद्ध कर्म के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता है और यह भाव उसे उसके समाज और संस्कृति से जोड़ता है।

यह परंपरा हमें हमारी जड़ों से जोड़े रखने का कार्य करती है। इस समय परिवार के सदस्य एकत्रित होकर श्राद्ध कर्म करते हैं, जिससे परिवार में एकता और सामंजस्य बढ़ता है। इसके अलावा, श्राद्ध पक्ष व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण करने का भी अवसर प्रदान करता है। इस समय वह अपने जीवन की अस्थायीता और मृत्यु के अनिवार्य सत्य को समझने का प्रयास करता है।

#### श्राद्ध पक्ष और विज्ञान
हालांकि श्राद्ध पक्ष मुख्य रूप से धार्मिक अनुष्ठानों से जुड़ा हुआ है, लेकिन इसके पीछे के कुछ वैज्ञानिक पहलू भी हैं। उदाहरण के लिए, पितृ पक्ष के दौरान तर्पण और पिंडदान के लिए प्रयुक्त जल और तिल का मिश्रण, जिसे वातावरण में अर्पित किया जाता है, वैज्ञानिक दृष्टि से पर्यावरणीय शुद्धिकरण का कार्य करता है। इसके अलावा, इस समय वंशजों द्वारा दान और पुण्य कर्म किए जाते हैं, जो समाज में संतुलन बनाए रखने और जरूरतमंदों की मदद करने का कार्य करते हैं।

#### निष्कर्ष
श्राद्ध पक्ष एक गहरा और पवित्र धार्मिक अनुष्ठान है, जिसमें व्यक्ति अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए तर्पण, पिंडदान, और दान-पुण्य के माध्यम से कृतज्ञता प्रकट करता है। यह परंपरा न केवल हिन्दू धर्म की आस्था का प्रतीक है, बल्कि इसमें मानवता, परिवार और समाज के प्रति भी सम्मान और सेवा का भाव समाहित है। 

यह समय हमें यह याद दिलाता है कि हम अपने जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करते हैं, वह हमारे पितरों के आशीर्वाद और उनके द्वारा किए गए कर्मों का ही परिणाम होता है। इसलिए श्राद्ध पक्ष हमारे लिए एक आत्मावलोकन का समय है, जब हम अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि देते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारे कर्म भी आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणादायक बनें।
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Friday, 13 September 2024

#पितृ दोष निवारण अचूक प्रयोग

🔥पितृदोष के निवारण का अचूक प्रयोग :-

इस ग्रुप में पितृदोष से पीड़ित कई साधको की तीव्र इच्छा थी की इस दोष के समनार्थ कोई उचित प्रयोग बताया जाये। निसंदेह ये दोष अत्यंत कष्ट कारक तथा दुःख प्रद है।

सामान्य रूप से गया श्राद्ध, नारायण बली आदि पितृदोष समन के सर्वोत्तम उपाय हैं किन्तु जिनको इससे लाभ नहीं मिला अथवा जो इन विधियों को करने में असमर्थ हैं वे अवश्य निम्न प्रयोगो को श्रद्धा विश्वास पूर्वक करेंगे अथवा किसी आचार्य से करवा लेंगे तो उनका कल्याण होगा।

🔥दुर्गा सपशती के 4 थे अध्याय का 8वां मंत्र पितृ शांति के लिए अमोघ माना जाता हैं-

🔥ॐ यस्या: समस्त सुरता समुदिरणेन,तृप्तिं प्रयाती सकलेषु मखेषु देवी।
स्वाहासि वै पितृ-गणस्य च तृप्ति हेतु:उच्चार्यसे त्वमत एव जन: स्वधा च।।

संकल्प वाक्य :- मम जन्मकुंडल्याम, वर्ष कुंडल्याम वा, मम गृहे कुले वा उपस्थित पितृ दोष निरसन पूर्वक  भगवत्या: दुर्गाया: प्रीति काम: अस्य मन्त्रस्य अष्टोत्तर शत/अष्टोत्तर सहस्त्र / अयुत जपमहं करीष्ये।

इस मंत्र का नित्य जप करने से तथा इसका सम्पूट पाठ करने से पितृदोष का समाधान होता है।
जिनको गायत्री का अधिकार नहीं वे ॐ के स्थान पर नम: अथवा श्री शब्द का प्रयोग कीजिए।

नोट:- इस मंत्र में दीक्षित अदीक्षित का बंधन नहीं, किन्तु प्रणव इत्यादी के प्रयोग पर ध्यान देना हीं चाहिए तभी लाभ होगा।

श्रद्धा पूर्वक करने से 41 दिन में लाभ अवश्य दिखेगा।
सबका मंगल हो 🙏

Monday, 9 September 2024

#गणेश जी का विसर्जन

गणेश जी की मूर्ति प्रतिष्ठा कोई नवाचार नहीं अपितु प्राचीन काल से है,जिसे बालगंगाधर तिलक जी ने महाराष्ट्र में पुनः प्रचार में लाया।

गणपति मूर्ति विसर्जन निर्णय -
जो कहते हैं कि गणेशजी की प्रतिमा का विसर्जन नहीं करना चाहिए, उनके लिए। संस्कृत श्लोक निम्न हैं- सम्पूर्ण हिंदी टीका हेतु चित्र देखें 

ततः सुहृज्जनयुतः स्वयं भुञ्जीत सादरम्।
अपरस्मिन्दिने मूर्तिं नृयाने स्थापयेन्मुदा॥
छत्रध्वजपताकाभिश्चामरैरुपशोभिताम्।
किशोरैर्दण्डयुद्धेन युध्यद्भिश्च पुरःसरम्॥
महाजलाशयं गत्वा विसृज्य निनयेज्जले।
वाद्यगीतध्वनियुतो निजमन्दिरमाव्रजेत्॥
(गणेशपुराण, उपासनाखण्ड, अध्याय - ५०, श्लोक - ३१-३३)

 

#शिव जी पर हल्दी

प्रश्न ~क्या शिवलिंग पर हल्दी कुमकुम चढ़ सकता है?
उत्तर -प्रायः यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि शिवलिङ्ग पर हरिद्रा(हल्दी) अथवा कुमकुम अर्पित करना निषिद्ध है एवं इनका पूजोपचारादिके अन्तर्गत कोई विधान नहीं है। वस्तुतः ऐसी बातें निराधार हैं। ज्योतिषाचार्य आशुतोष मिश्र जी ने कहा कि शिवलिङ्ग पर हरिद्रा, कुमकुम अर्पण करने के विधानका पर्याप्त वर्णन सच्छास्त्रों में प्राप्त है। परन्तु  विना अध्ययन के ही ऐसा भ्रम फैलाया जाता है ऐसी कल्पनाओं का शमन करने हेतु निम्न शास्त्रप्रमाणों को उद्धृत किया जा रहा है—

उष्णोदकेन हरिद्राद्येन लिंगमूर्ति पीठसहितां विशोध्य गंधोदकहिरण्योदकमंत्रोदकेन रुद्राध्यायं पठमानः
[लिङ्गमहापुराण, उत्तरभाग, अध्याय २४, श्लोक २७]

सुगन्धामलकं दद्याद्धरिद्रां च यथाक्रमम्।
ततः संशोध्य सलिलैर्लिङ्ग बेरमथापि वा॥४३॥
[शिवमहापुराण, वायवीयसंहिता-उत्तरखण्ड, अध्याय २४]

रक्तचन्दनपुष्पाढ्यं पानीयं चातिशीतलम्।
मृदु एलारसाक्तं च खण्डं पूगफलस्य च॥१५॥
........
कस्तूरिका कुंकमं च रसो मृगमदात्मकः।
पुष्पाणि सुरभीण्येव पवित्राणि शुभानि च॥१८॥
[शिवमहापुराण, वायवीयसंहिता-उत्तरखण्ड, अध्याय २५]

स्नापयेत्पयसा पूर्वं दध्ना घृतयुतेन च।
मधुनेक्षुरसेनैव कुंकुमेन विलेपयेत्॥४॥
[स्कन्दमहापुराणे, प्रभासक्षेत्रमाहात्म्येचण्डीशमाहात्मये, अध्याय ३०]

हरिद्राखण्डचूर्णेन यो विलिम्पेदुमासखम्।
स मे गणेशः स्कंदः स्यादश्वमेधायुतं लभेत्॥
गंधं दत्वा चंद्रमौलौ द्वादशाहफलं लभेत्।
त्रिफलं चंदनं प्रोक्तं कुंकुमं तत्समं स्मृतम्॥
[शिवरहस्ये, एकादशांशे]

यवगोधूमजैश्चूर्णैः कषायैर्रजनीसहै:।
कवोष्णेनाम्बुना देवि स्नापयेत्तदननंतरम्॥
[शिवरहस्ये, उग्राख्ये सप्तमांशे]

ततो हरिद्रया देवमालिप्य स्नानमाचरेत्।
[शैवाचारप्रदीपिकायाम्]

हरिद्रां कवचेन संयोजयेत्..... मूलेन मर्दयेत्।
.......
चन्दनागरुकस्तुरी कुंकुमकर्पूरमनश्शिलैलाकुष्ठतक्कोल-लवंगोशीररजनीचूर्णसहितमुदकं गंधोदकम्।
[शिवार्चनचंद्रिकायां, दिक्षितेन्द्र]

चन्दनागुरुकर्पूरै: कृष्णपिष्टै: सकुंकुमै:।
लिंग पर्याप्त मालिप्य कल्पकोटिं वसेद्दिवी॥

शिवलिंग के सुगन्धानुलेपन का महान फल होता है। सुगन्धानुलेपन के पुण्य से भी दुगना चन्दनानुपेलन का फल होता है। उससे आठ गुना अधिक पुण्य अगरू लेपन का होता है उसमें भी कृष्णागरु का फल दोगुना होता है, इससे भी सौ गुना फल कुंकम के अनुलेपन का कहा जाता है। 

अत: शिवलिंग पर कुंकुम का अनुलेपन अवश्य करना चाहिए, इसमें कोई निषेध नहीं। चन्दन, अगरु, कृष्णागुरु, कर्पूर एवं कुंकुम से ​शिवलिंग का अनुलेपन करने वाला करोडों कल्प तक देवलोक में निवास करता है।

नोट:-
केवल पारदलिङ्ग हेतु हरिद्रा का निषेध है। 
यथा-
नैवार्पणं कुर्यात हरिद्रा हिंगुल च वासवः।
रसलिङ्गं संततिः दद्याद् कुष्ठी वा हृदयार्णवः॥

🙏श्रीशिवार्पणमस्तु🙏

तर्पण विधि

तर्पण विधि
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(देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि)
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।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

क्या है तर्पण
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पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।

श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।

'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद

ऋषि और पितृ तर्पण विधि
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तर्पण के प्रकार
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पितृतर्पण, 
मनुष्यतर्पण, 
देवतर्पण, 
भीष्मतर्पण, 
मनुष्यपितृतर्पण, 
यमतर्पण

तर्पण विधि
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सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुँह कर,दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर,सव्य होकर(जनेऊ व् अंगोछे को बांया कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में कुशों का  पवित्री (पैंती) धारण करें । फिर हाथ में त्रिकुशा ,जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढें—

ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये । 

तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें- 

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः। 

तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें । फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढँक लें और  देवताओं का आवाहन करें ।

आवाहन मंत्र : ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम् । एदं वर्हिनिषीदत ॥

‘हे विश्वेदेवगण  ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजे ।

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें—

1.देवतर्पण:
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ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।

ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।

ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।

ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ संवत्सररू सावयवस्तृप्यताम् ।

ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।

2.ऋषितर्पण
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इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—

ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।

ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।

ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।

ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।

ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।

ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।

ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।

ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।

ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥

3.मनुष्यतर्पण
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उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व् गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर  निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें—

ॐ सनकस्तृप्यताम् -2

ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2

ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2

ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2

ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2

ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2

ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2

4.पितृतर्पण
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दोनों हाथ के अनामिका में धारण किये पवित्री व त्रिकुशा को निकाल कर रख दे ,

अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके  अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर बाँये हाथ जे नीचे ले जायें ) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

5.यमतर्पण
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इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रो को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें—

ॐ यमाय नम: – 3

ॐ धर्मराजाय नम: – 3

ॐ मृत्यवे नम: – 3

ॐ अन्तकाय नम: – 3

ॐ वैवस्वताय नमः – 3

ॐ कालाय नम: – 3

ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3

ॐ औदुम्बराय नम: – 3

ॐ दध्नाय नम: – 3

ॐ नीलाय नम: – 3

ॐ परमेष्ठिने नम: – 3

ॐ वृकोदराय नम: – 3

ॐ चित्राय नम: – 3

ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3

6.मनुष्यपितृतर्पण
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इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें—

ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम'  

ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए। 

‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।’

तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें—

अस्मत्पिता अमुकशर्मा  वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी  रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3

इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़े।

इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे—

देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: ।  पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥

जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: । प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥

नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिता: । तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥

अर्थ : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से भीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में पङेपडे दुरूख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुम्कसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों ।’

ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिंपितृमानवा: । तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥

अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥

अर्थ : ‘ब्रह्माजी  से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों मेरे कुल की बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यम्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जायँ ।

वस्त्र-निष्पीडन करे तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र : “ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृतारू । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ” को पढते हुए अपसव्य होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्र को निचोड़े । पवित्रक को तर्पण किये हुए जल मे छोड दे । यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।

7.भीष्मतर्पण :
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इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही अनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करे । उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है–

“वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च । गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् । अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥”

अर्घ्य दान:
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फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे । तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य कर एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दन् से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे ।

अर्ध्यदान के मन्त्र निम्नाङ्कित हैं—
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ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव:। स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्व व्विव:॥ ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥

ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्यपा, सुरे स्वाहा ॥ ॐ विष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम: । वाहुब्यामुत ते नम: ॥ ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥

ॐ तत्सवितुर्व रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात् ॥ ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥

ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि । द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥ ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥

ॐ इमं मे व्वरूण श्रुधी हवमद्या च मृडय ।   त्वामवस्युराचके ॥ ॐ वरुणाय नम: । वरूणं पूजयामि ॥

फिर भगवान सूर्य को अघ्र्य दें –
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एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशिं जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकरः। 
हाथों को उपर कर उपस्थान मंत्र पढ़ें –

चित्रं देवाना मुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्यआत्माजगतस्तस्थुशश्च।

फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।

ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः। ॐ आग्नयै अग्नयै नमः। ॐ दक्षिणायै यमाय नमः। ॐ नैऋत्यै नैऋतये नमः। ॐ पश्चिमायै वरूणाय नमः। ॐ वायव्यै वायवे नमः। ॐ उदीच्यै कुवेराय नमः। ॐ ऐशान्यै ईशानाय नमः। ॐ ऊध्र्वायै ब्रह्मणै नमः। ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।

इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर बैठकर नीचे लिखे मन्त्र से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।

ॐ ब्रह्मणै नमः। ॐ अग्नयै नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ औषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः। ॐ अपांपतये नमः। ॐ वरूणाय नमः। 

फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।

समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।

ॐ तत्सद् कृष्णार्पण मस्तु।

नोट- यदि नदी में तर्पण किया जाय तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गौ माता की सींग जितना ऊँचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दें।
〰️〰️🔹〰️〰️🔸〰️〰️🔹〰️〰️🔸〰️〰️🔹〰️〰️गुरुदेव
भुवनेश्वर
9893946810

Tuesday, 3 September 2024

#आचमन का महत्व

आचमन/ पवित्रता क्यों आवश्यक है........?

* सकल सौच करि राम नहावा। सुचि सुजान बट छीर मगावा॥
अनुज सहित सिर जटा बनाए। देखि सुमंत्र नयन जल छाए॥

भावार्थ:-शौच के सब कार्य करके (नित्य) पवित्र और सुजान श्री रामचन्द्रजी ने स्नान किया। फिर बड़ का दूध मँगाया और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित उस दूध से सिर पर जटाएँ बनाईं। यह देखकर सुमंत्रजी के नेत्रों में जल छा गया॥

संध्या वंदन के समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संधिकाल में ही संध्या वंदन किया जाता है। वेदज्ञ और ईश्‍वरपरायण लोग इस समय प्रार्थना करते हैं। ज्ञानीजन इस समय ध्‍यान करते हैं। भक्तजन कीर्तन करते हैं।  

पुराणिक लोग देवमूर्ति के समक्ष इस समय पूजा या आरती करते हैं। तब सिद्ध हुआ की संध्योपासना या हिन्दू प्रार्थना के चार प्रकार हो गए हैं- (1)प्रार्थना-स्तुति, (2)ध्यान-साधना, (3)कीर्तन-भजन और (4)पूजा-आरती।

 व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।   

भारतीय परंपरा में पूजा, प्रार्थना और दर्शन से पहले शौच और आचमन करने का विधान है। बहुत से लोग मंदिर में बगैर शौच या आचमन किए जले जाते हैं जो कि अनुचित है। प्रात्येक मंदिर के बाहर या प्रांगण में नल जल की उचित व्यवस्था होनी चाहिए जहां व्यक्ति बैठकर अच्छे से खुद को शुद्ध कर सके। जल का उचित स्थान नहीं है तो यह मंदिर दोष में गिना जाएगा। 
 
शौच का अर्थ : - शौच अर्थात शुचिता, शुद्धता, शुद्धि, विशुद्धता, पवित्रता और निर्मलता। शौच का अर्थ शरीर और मन की बाहरी और आंतरिक पवित्रता से है। आचमन से पूर्व शौचादि से निवृत्त हुआ जाता है।

 शौच का अर्थ है अच्छे से मल-मूत्र त्यागना भी है। शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य का अर्थ बाहरी शुद्धि से है और आभ्यन्तर का अर्थ आंतरिक अर्थात मन वचन और कर्म की शुद्धि से है। जब व्यक्ति शरीर, मन, वचन और कर्म से शुद्ध रहता है तब उसे स्वास्थ्‍य और सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिलना शुरू हो जाता है।
 
*शौचादि से निवृत्ति होने के बाद पूजा, प्रार्थना के पूर्व आचमन किया जाता है। मंदिर में जाकर भी सबसे पहले आचमन किया जाता है।
 
शौच के दो प्रकार हैं- बाह्य और आभ्यन्तर।

*बाहरी शुद्धि- हमेशा दातुन कर स्नान करना एवं पवित्रता बनाए रखना बाह्य शौच है। कितने भी बीमार हों तो भी मिट्टी, साबुन, पानी से थोड़ी मात्रा में ही सही लेकिन बाहरी पवित्रता अवश्य बनाए रखनी चाहिए। आप चाहे तो शरीर के जो छिद्र हैं उन्हें ही जल से साफ और पवित्र बनाएँ रख सकते हैं। बाहरी शुद्धता के लिए अच्छा और पवित्र जल एवं भोजन करना भी जरूरी है। अपवित्र या तामसिक खानपान से बाहरी शु‍द्धता भंग होती है।
 
*आंतरिक शुद्धि- आभ्यन्तर शौच उसे कहते हैं जिसमें हृदय से राग-द्वेष तथा मन के सभी खोटे कर्म को दूर किया जाता है। जैसे क्रोध से मस्तिष्क और स्नायुतंत्र क्षतिग्रस्त होता है।

 लालच, ईर्ष्या, कंजूसी आदि से मन में संकुचन पैदा होता है जो शरीर की ग्रंथियों को भी संकुचित कर देता है। यह सभी हमारी सेहत को प्रभावित करते हैं। मन, वचन और कर्म से पवित्र रहना ही आंतरिक शुद्धता के अंतर्गत आता है अर्थात अच्छा सोचे, बोले और करें।
 
शौच के लाभ- ईर्ष्या, द्वेष, तृष्णा, अभिमान, कुविचार और पंच क्लेश को छोड़ने से दया, क्षमा, नम्रता, स्नेह, मधुर भाषण तथा त्याग का जन्म होता है। इससे मन और शरीर में जाग्रति का जन्म होता है। विचारों में सकारात्मकता बढ़कर उसके असर की क्षमता बढ़ती है। रोग और शोक से छुटकारा मिलता है। शरीर स्वस्थ और सेहतमंद अनुभव करता है। निराशा, हताशा और नकारात्मकता दूर होकर व्यक्ति की कार्यक्षमता बढ़ती है।
 
जानिए आचमन के बारे में विस्तार से...
 
आचमन का अर्थ : - आचमन का अर्थ होता है जल पीना। प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं। छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है। यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
 
आचमन विधि : - वैसे तो आचमन के कई विधान और मंत्र है लेकिन यहां छोटी सी ही विधि प्रस्तुत है। आचमन सदैव उत्तर, ईशान या पूर्व दिशा की ओर मुख करके ही किया जाता है अन्य दिशाओं की ओर मुंह करके कदापि न करें। संध्या के पात्र तांबे का लोटा, तारबन, आचमनी, टूक्कस हाथ धोने के लिए कटोरी, आसन आदि लेकर के गायत्री छंद से इस संध्या की शुरुआत की जाती है। प्रातःकाल की संध्या तारे छिपने के बाद तथा सूर्योदय पूर्व करते हैं।
 
आचमन के लिए जल इतना लें कि हृदय तक पहुंच जाए। अब हथेलियों को मोड़कर गाय के कान जैसा बना लें कनिष्ठा व अंगुष्ठ को अलग रखें। तत्पश्चात जल लेकर तीन बार निम्न मंत्र का उच्चारण करते हैं:- हुए जल ग्रहण करें-
ॐ केशवाय नम: 
ॐ नाराणाय नम:
ॐ माधवाय नम:
ॐ ह्रषीकेशाय नम:, बोलकर ब्रह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। उपरोक्त विधि ना कर सकने की स्थिति में केवल दाहिने कान के स्पर्श मात्र से ही आचमन की विधि की पूर्ण मानी जाती है।
 
आचमन मुद्रा : - शास्त्रों में कहा गया है कि,,,
 त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए तर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय के कान जैसी हो जाए।
 
भविष्य पुराण के अनुसार जब पूजा की जाए तो आचमन पूरे विधान से करना चाहिए। जो विधिपूर्वक आचमन करता है, वह पवित्र हो जाता है। सत्कर्मों का अधिकारी होता है। आचमन की विधि यह है कि हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें। दाहिने हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल का आचमन करें।
 
आचमन करते समय हथेली में 5 तीर्थ बताए गए हैं- 1. देवतीर्थ, 2. पितृतीर्थ, 3. ब्रह्मातीर्थ, 4. प्रजापत्यतीर्थ और 5. सौम्यतीर्थ।
 
कहा जाता है कि अंगूठे के मूल में ब्रह्मातीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्रजापत्यतीर्थ, अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ, तर्जनी और अंगूठे के बीच पितृतीर्थ और हाथ के मध्य भाग में सौम्यतीर्थ होता है, जो देवकर्म में प्रशस्त माना गया है।

 आचमन हमेशा ब्रह्मातीर्थ से करना चाहिए। आचमन करने से पहले अंगुलियां मिलाकर एकाग्रचित्त यानी एकसाथ करके पवित्र जल से बिना शब्द किए 3 बार आचमन करने से महान फल मिलता है। आचमन हमेशा 3 बार करना चाहिए।
 
आचमन के बारे में स्मृति ग्रंथ में लिखा है कि
प्रथमं यत् पिबति तेन ऋग्वेद प्रीणाति।
यद् द्वितीयं तेन यजुर्वेद प्रीणाति।
यत् तृतीयं तेन सामवेद प्रीणाति।
 
श्लोक का अर्थ है कि आचमन क्रिया में हर बार एक-एक वेद की तृप्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक कर्म के आरंभ में आचमन करने से मन, शरीर एवं कर्म को प्रसन्नता प्राप्त होती है। आचमन करके अनुष्ठान प्रारंभ करने से छींक, डकार और जंभाई आदि नहीं होते हालांकि इस मान्यता के पीछे कोई उद्देश्य नहीं है।
 
पहले आचमन से ऋग्वेद और द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है। आचमन करके जलयुक्त दाहिने अंगूठे से मुंह का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। आचमन करने के बाद मस्तक को अभिषेक करने से भगवान शंकर प्रसन्न होते हैं। दोनों आंखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु और कानों के स्पर्श से सभी ग्रंथियां तृप्त होती हैं। माना जाता है कि ऐसे आचमन करने से पूजा का दोगुना फल मिलता है।
 
"शौच ईपसु: सर्वदा आचामेद एकान्ते प्राग उदड़्ग मुख:" (मनुस्मृति) 

अर्थात जो पवित्रता की कामना रखता है उसे एकान्त में आचमन अवश्य करना चाहिए। 'आचमन' कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है। वास्तव में आचमन केवल कोई प्रक्रिया नहीं है। यह हमारी बाहरी और भीतरी शुद्धता का प्रतीक है। 
 
“एवं स ब्राह्मणों नित्यमुस्पर्शनमाचरेत्।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यंन्तं जगत् स परितर्पयेत्॥”

प्रत्येक कार्य में आचमन का विधान है। आचमन से हम न केवल अपनी शुद्धि करते हैं अपितु ब्रह्मा से लेकर तृण तक को तृप्त कर देते हैं। जब हम हाथ में जल लेकर उसका आचमन करते हैं तो वह हमारे मुंह से गले की ओर जाता है, यह पानी इतना थोड़ा होता है कि सीधे आंतों तक नहीं पहुंचता। 

हमारे हृदय के पास स्थित ज्ञान चक्र तक ही पहुंच पाता है और फिर इसकी गति धीमी पड़ जाती है। यह इस बात का प्रतीक है कि हम वचन और विचार दोनों से शुद्ध हो गए हैं तथा हमारी मन:स्थिति पूजा के लायक हो गई है। आचमन में तांबे के विशेष पात्र से हथेली में जल लेकर ग्रहण किया जाता है। उसके बाद खुद पर जल छिड़क कर शुद्ध किया जाता है।
 
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।

सत्य सनातन धर्म की जय हो।।
Arun shastri जबलपुर 
 ❗जय महादेव❗
 ⭕प्रश्न नहीं स्वाध्याय करें‼️

Monday, 2 September 2024

#हवन

🔥🔥🔥 हवन 🔥🔥🔥
हवन कुंड और हवन के नियमों के बारे में विशेष जानकारी 
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जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना जाता है। वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाॅ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।
शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है। जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। इसलिये पुराणों में कहा गया है।
 ""अग्निर्वे देवानां दूतं ""
कोई भी मन्त्र जाप की पूर्णता , प्रत्येक संस्कार , पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म , हवन के बिना अधूरा रहता है।
हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक. आप  हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं. शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं. इसलिए इसे “मंडल” भी कहा जाता हैं.
हवन की भूमि👉  हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.
हवन कुंड की बनावट👉  हवन कुंड में तीन सीढियाँ होती हैं. जिन्हें “ मेखला ” कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग – अलग होता हैं.
1👉 हवन कुंड की सबसे पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं.
2👉 दूसरी सीढि का रंग लाल होता हैं.
3👉 अंतिम सीढि का रंग काला होता हैं.
ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढियों में तीन देवता निवास करते हैं.
1👉 हवन कुंड की पहली सीढि में विष्णु भगवान का वास होता हैं.
2👉 दूसरी सीढि में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.
3👉 तीसरी तथा अंतिम सीढि में शिवजी का वास होता हैं.
हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढि पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढियों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।
तांत्रिक हवन कुंड 👉  वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं. तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं.
हवन कुंड और हवन के नियम 
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हवन कुंड के प्रकार - हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.
आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें 
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1👉 अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.
2👉 यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.
3👉 एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.
4👉 दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.
5👉 कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.
6👉 यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा – चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं.
7👉 इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं. शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं. पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं. इनका प्रयोग अनेक विद्वान् हवन – बलिवैश्व – देव आदि के लिए करते हैं.
8👉 भविषयपुराण में 50 आहुति का हवन करने के लिए मुष्टिमात्र का निर्देश दिया गया हैं. भविष्यपूराण में बताये गए इस विषय के बारे में शारदातिलक तथा स्कन्दपुराण जैसे ग्रन्थों में कुछ मतभेद मिलता हैं।
हवन के नियम👉  वैदिक या तांत्रिक दोनों प्रकार के मानव कल्याण से सम्बन्धित यज्ञों को करने के लिए हवन में “मृगी” मुद्रा का इस्तेमाल करना चाहिए.
1👉 हवन कुंड में सामग्री डालने के लिए हमेशा शास्त्रों की आज्ञा, गुरु की आज्ञा तथा आचार्यों की आज्ञा का पालन करना चाहिए.
2👉 हवन करते समय आपके मन में यह विश्वास होना चाहिए कि आपके करने से कुछ भी नहीं होगा. जो होगा वह गुरु के करने से होगा.
3👉 कुंड को बनाने के लिए अड़गभूत वात, कंठ, मेखला तथा नाभि को आहुति एवं कुंड के आकार के अनुसार निश्चित किया जाना च हिए.
4👉 अगर इस कार्य में कुछ ज्यादा या कम हो जाते हैं तो इससे रोग शोक आदि विघ्न भी आ सकते हैं.
5👉 इसलिए हवन को तैयार करवाते समय केवल सुन्दरता का ही ध्यान न रखें बल्कि कुंड बनाने वाले से कुंड शास्त्रों के अनुसार तैयार करवाना चाहिए।
हवन करने के फायदे 
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1👉 हवन करने से हमारे शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं.
2👉 हवन करने से आस – पास का वातावरण शुद्ध हो जाता हैं.
3👉 हवन ताप नाशक भी होता हैं.
4👉 हवन करने से आस–पास के वातावरण में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ जाती हैं.
हवन से सम्बंधित कुछ आवश्यक बातें 
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अग्निवास का विचार 
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तिथि वार के अनुसार अग्नि का वास पृथ्वी ,आकाश व पाताल लोक में होता है। पृथ्वी का अग्नि वास समस्त सुख का प्रदाता है लेकिन आकाश का अग्नि वास शारीरिक कष्ट तथा पाताल का धन हानि कराता है। इसलिये नित्य हवन , संस्कार व अनुष्ठान को छोड़कर अन्य पूजन कार्य में हवन के लिये अग्निवास अवश्य देख लेना चाहिए। 
हवन कार्य में विशेष सावधानियां 
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मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को  हिलाना - डुलाना या छेड़ना नही चाहिए।
हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है। अन्यथा 
कम जलने वाला भाग नेत्र - यहाँ आहुति डालने पर अंधापन , 
धुँआ वाला भाग नासिका - यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट ,
अंगारा वाला भाग मस्तक - यहां आहुति डालने पर धन नाश तथा काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है। हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए। 
विशेष कामना पूर्ति के लिये अलग अलग होम सामग्रियों का प्रयोग भी किया जाता है।
सामान्य हवन सामग्री ये है
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तिल, जौं, चावल ,सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , पानड़ी , लौंग , बड़ी इलायची , गोला , छुहारे , सर्वोषधि ,नागर मौथा , इन्द्र जौ , कपूर काचरी , आँवला ,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिश, बालछड़ , घी आदि ......
हवन समिधाएँ
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कुछ अन्य समिधाओं का भी वाशिष्ठी हवन पद्धति में वर्णन है । उसमें ग्रहों तथा देवताओं के हिसाब से भी कुछ समिधाएँ बताई गई हैं। तथा विभिन्न वृक्षों की समिधाओं के फल भी अलग-अलग कहे गये हैं। 
यथा-नोः पालाशीनस्तथा।
खादिरी भूमिपुत्रस्य त्वपामार्गी बुधस्य च॥
गुरौरश्वत्थजा प्रोक्त शक्रस्यौदुम्बरी मता ।
शमीनां तु शनेः प्रोक्त राहर्दूर्वामयी तथा॥
केतोर्दभमयी प्रोक्ताऽन्येषां पालाशवृक्षजा॥
आर्की नाशयते व्याधिं पालाशी सर्वकामदा। 
खादिरी त्वर्थलाभायापामार्गी चेष्टादर्शिनी।
प्रजालाभाय चाश्वत्थी स्वर्गायौदुम्बरी भवेत।
शमी शमयते पापं दूर्वा दीर्घायुरेव च ।
कुशाः सर्वार्थकामानां परमं रक्षणं विदुः ।
यथा बाण हारणां कवचं वारकं भवेत ।
तद्वद्दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका॥
यथा समुत्थितं यन्त्रं यन्त्रेण प्रतिहन्यते ।
तथा समुत्थितं घोरं शीघ्रं शान्त्या प्रशाम्यति॥
अब समित (समिधा) का विचार कहते हैं, सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मङ्गल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की, और केतु की कुशा की समिधा कही गई है । इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए । मदार की समिक्षा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है। जिस प्रकार बाण के प्रहारों को रोकने वाला कवच होता है, उसी प्रकार दैवोपघातों को रोकने वाली शान्ति होती है। जिस प्रकार उठे हुए अस्त्र को अस्त्र से काटा जाता है, उसी प्रकार (नवग्रह) शान्ति से घोर संकट शान्त हो जाते हैं।
ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
वसन्त-शमी
ग्रीष्म-पीपल
वर्षा-ढाक, बिल्व
शरद-पाकर या आम
हेमन्त-खैर
शिशिर-गूलर, बड़
यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।
विभिन्न हवन सामग्रियाँ और समिधाएं विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं। विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं।
प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये।
सर भारी या दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये :-
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।। गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।। 
(चरक सू* 5/26-27)
अर्थात अपराजिता , मालकांगनी , हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो विरेचन होता है। 
परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।
रोग और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री 
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१.👉 सर के रोग, सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए
ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली सरसो
२.👉 स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम
३.👉 पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , लौंग , बड़ी इलायची , गोला 
४.👉 पेट एवं लिवर रोग हेतु भृंगराज, आमला , बेल , हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची
५👉  श्वास रोगों हेतु वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस।
हवन में आहुति डालने के बाद क्या करें
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आहुति डालने के बाद तीन प्रकार के क्षेत्रों का विभाजित करने के बाद मध्य भाग में पूर्व आदि दिशाओं की कल्पना करें. इसके बाद आठों दिशाओं की कल्पना करें. आठों दिशाओं के नाम हैं – पूर्व अग्नि, दक्षिण, नीऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा इशान।
हवन की पूर्णाहुति में ब्राह्मण भोजन 
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""ब्रह्स्पतिसंहिता "" के अनुसार यज्ञ हवन की पूर्णाहुति वस्तु विशेष से कराने पर निम्न संख्या में ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिए। 
पान - 5 ब्राह्मण
पक्वान्न - 10 ब्राह्मण
ऋतुफल - 20 ब्राह्मण
सुपारी - 21 ब्राह्मण
नारियल - 100 ब्राह्मण
घृतधारा - 200 ब्राह्मण
हवन यज्ञ आदि से सम्बंधित समस्त जानकारियो के लिये ""यज्ञ मीमांसा "" देखें। 
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Sunday, 1 September 2024

# कुशा में जड़ में ब्रह्मा मध्य में विष्णु और ऊपर शिव का बास है

#कुशा_का_एक_ब्राह्मण_के_लिए_महत्व:-

ब्राह्मण को नित्य कुश धारण करने का निर्देश देते हुए कहा गया है कि-
"यथेन्द्रस्याशनिर्हस्ते यथा शूलं कपर्दिन: ।
यथा सुदर्शनं विष्णोर्विप्रहस्तकुशस्तथा ।।
वरुणस्य करे पाशो यथा दण्डो यमस्य तु ।
तथा ब्राह्मणहस्तस्थ: सकलं साधयेत् कुश:।।"
  #अर्थात्:-
जिस प्रकार देवराज इंद्र के हाथ में स्थित वज्र ,शंकर जी का त्रिशूल ,विष्णु का सुदर्शन चक्र ,वरुण देव का पाश, यमराज का दंड ,अमोघ होता है, वैसे ही ब्राम्हण के हाथ में स्थित कुश भी अमोघ एवं फलदाई होता है।

#कुश_का_अर्थ:- 
"पापाह्वय: 'कु' शब्द: स्यात् 'श' शब्द: शमनाह्वय: ।
तूर्णेन पाप शमनं येनैतत्कुश उच्यते ।।"
#अर्थात्:-
'कुश' नाम की व्युत्पत्ति में कहा गया है कि 'कु' शब्द समस्त पापों का वाचक है और 'श' शब्द सभी प्रकार के दोष पापों का नाशक है ,इसलिए शीघ्र ही पापो का नाश करने के कारण इसे "#कुश" कहा गया है। 


कुश का महत्व
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार, कुश का मूल ब्रह्मा, मध्य विष्णु और अग्रभाग शिव का जानना चाहिए. ये देव कुश में प्रतिष्ठित माने गए हैं. बताया जाता है कि मंत्र, ब्राह्मण, अग्नि, तुलसी और कुश कभी भी बासी नहीं माने जाते हैं. पूजा में इनका उपयोग बार-बार किया जाता है. धर्मग्रंथों में कुश के बारे में विस्तार से वर्णन मिलता है.

भगवान विष्णु के रोम से बना है कुश
अथर्ववेद के अनुसार, कुश घास का उपयोग करने से क्रोध नियंत्रित करने में सहायता मिलती है.कुश का उपयोग औषधि के रूप में भी होता है. भगवान विष्णु के रोम से बने होने की वजह से इसे पवित्र माना जाता है.

कुश की उत्पत्ति कथा
मत्स्य पुराण के अनुसार, जब भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था और हिरण्याक्ष का वध किया था. फिर से पृथ्वी को समुद्र से निकालकर सभी प्राणियों की रक्षा की थी. उस समय जब भगवान वराह ने अपने शरीर को झटका था, तब उनके शरीर के कुछ रोम धरती पर गिर गए थे. उन्हीं से कुश की उत्पत्ति हुई. इस वजह से कुश पवित्र माने जाते हैं.

कुश और अमृत कलश से जुड़ा प्रसंग
महाभारत में कुश से जुड़ा एक प्रसंग है. एक समय की बात है, जब गरुड़ देव स्वर्ग से अमृत कलश लेकर आ रहे थे, तब उन्होंने कुछ देर लिए अमृत कलश को जमीन पर कुश पर रख दिया. इस पर अमृत कलश रखने के कारण यह पवित्र माना जाता है.

कुश से जुड़े नियम
जिस कुश घास में पत्ती हो, आगे का भाग कटा न हो और वो हरा हो, वह कुश देवताओं और पितरों की पूजा के लिए श्रेष्ठ मानी जाती है. शास्त्रों के अनुसार, कुश को इस अमावस्या पर सूर्योदय के वक्त लाना चाहिए. यदि आप सूर्योदय के समय इसे न ला पाएं तो उस दिन के अभिजित या विजय मुहूर्त में घर पर लाएं.


कुशोत्पाटनी अमावस्या के नाम से लोक में विश्रुत है क्योकि इस दिन पूरे साल देव पूजा और श्राद्ध आदि कर्मों के लिए कुश का संग्रह किया जाता है। कुशग्रहणी अमावस्या के दिन पितारों की पूजा और श्राद्ध करने से पितर संतुष्ट और प्रसन्न होते हैं। इस दिन किए गए स्नान, दान आदि से पुण्य फल की प्राप्ति होती है। शास्त्रानुसार बिना कुश के की गई पूजा का फल निष्फल मानी जाती है यथा- –

पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया॥

इसी कारण पूजा के समय पुजारी अनामिका उंगली में कुश की बनी पैंती पहनाते हैं और पंडित जी उसी पैंती से गंगा जल मिश्रित जल बैठे हुए सभी भक्त जनों पर छिड़कते हैं। इसी कारण इस दिन पूरे साल के लिए पूजा आदि हेतु कुश उखाड़ा रखा जाता है-

कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:॥

आपके समीप सहज रूप में जो भी कुश उपलब्ध हो उसे ग्रहण कर लेना चाहिए।


 कहा जाता है कि जिस कुश का मूल तीक्ष्ण, जिसमे 7 पत्ती हों, आगे का भाग कटा न हो और हरा हो, उसका उपयोग देव और पितृ दोनों पूजा में होता है अतः कुश उखाड़ते समय इस बात का अवश्य ही ध्यान रखें।

किस मन्त्र से कुश को उखाड़ना चाहिए ?

जहां भी कुश उपलब्ध हो, वहां पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके बैठ जाए उसके बाद इस मन्त्र को बोलते हुए दाहिने हाथ से  


“ॐ हूं फट” तथा अधोलिखित मंत्र पढ़कर कुश को उखाड़ लेना चाहिए।
मंत्र | 

‘विरंचिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।
नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव॥

कुश के जड़ में ब्रह्मा, 

मूल भाग में नारायण 

एवं ऊपर में शिव का वास माना गया है।