Sunday, 15 September 2024

#सूतक

#अशौची से संसर्ग करनेवालोंकी शुद्धि

अनुगम्येच्छया प्रेतं ज्ञातिमज्ञातिमेव च।
स्नात्वा सचैलः स्पृष्ट्वाऽग्निं घृतं प्राश्य विशुध्यति॥
(मनुस्मृति - ५.१०३)

जो मनुष्य (सपिण्डसे भिन्न) अपनी जाति अथवा अन्य जाति के साथ श्मशान में जाता है वह वस्त्रोंके सहित स्नान करके अग्निका स्पर्श करने और घी खानेपर शुद्ध होताहै॥ 

ब्राह्मणेनानुगन्तव्यो न शूद्रो न द्विजः क्वचि।
अनुगम्याम्भसि स्नात्वा स्पृष्टाग्निं घृतभुक्शुचिः॥
(याज्ञवल्क्यस्मृति - ३.२६)

ब्राह्मण को उचित है कि (असपिण्ड) द्विज अथवा शूद्रके मुर्देके साथ श्मशान में नही जावे; किन्तु यदि जावे तो जलमें स्नान करके अग्निका स्पर्श और घी भोजन करके शुद्ध होवे॥

यस्तैः सहान्नं कुर्याच्च यानादीनि तु चैवं हि।
ब्राह्मणे वा परे वापि दशाहेन विशुध्यति॥ 
यस्तेषामन्नमश्नाति स तु देवोऽपि कामतः।
तदा शौचनिवृत्तेषु स्नानं कृत्वा विशुध्यति॥
यावत्तदन्नमश्नाति दुर्भिक्षाभिहतो नरः।
तावन्त्यन्यन्यशुद्धिः स्यात्प्रायश्चित्तं ततश्चरेत्॥
(उशनास्मृति - ६.४८-५०)

ब्राह्मण अथवा अन्य वर्णका मनुष्य जो कोई अशौचीके सहित अन्न भोजन या एकत्र यानादि व्यवहार करेगा वह १० दिनपर अर्थात् अशौची के शुद्ध होनेपर शुद्ध होगा॥  जो जान करके अशौचवालेके घर अन्न खाता है वह देवता होनेपर भी अशौचवाले के शुद्ध होनेपर स्नान करके शुद्ध होता है; किन्तु जो दुर्भिक्षसे पीड़ित होकर प्राणरक्षाके लिये अशौचवालेके घर जितने दिन भोजन करता है वह उतने दिनतक अशुद्ध रहता है, उसके बाद स्नान आदि प्रायश्चित्त करके शुद्ध हो जाता है॥

असपिण्डेर्न कर्त्तव्यं चूडाकार्ये विशेषतः॥
जन्मप्रभृतिसंस्कारे श्मशानान्ते च भोजनम्॥
(आपस्तम्ब स्मृति - ९.२१-२२)
जातकर्म आदि संस्कार के समय, प्रेतकर्ममें और विशेष करके चूड़ाकरणके समय असपिण्डके घर भोजन नहीं करना चाहिये॥

संपर्कादुष्यते विप्रो जनने मरणे तथा।
संपर्काच्च निवृत्तस्य न प्रेतं नैव सूतकम्॥ 
(पाराशरस्मृति - ३.२१)

ब्राह्मण असपिण्ड के मृत्यु तथा जन्मके अशौचमें केवल सम्पर्कसे ही दूषित होता है; यदि वह अशौच वालेसे सम्पर्क नहीं रखे तो उसको मरणका अथवा जन्मका अशौच नहीं लगता है॥

#अनाथब्राह्मणं प्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः।
पदे पदे यज्ञफलमानुपूर्व्यालभन्ति ते॥
न तेषामशुभं किञ्चित्पापं वा शुभकर्मणाम्।
जला गाहनात्तेषां सद्यः शौचं विधीयते॥ 
असगोत्रमबन्धुश्च प्रेतीभूतद्विजोत्तमम्।
वहित्वा च दहित्वा च प्राणायामेन शुध्यति॥
(पाराशरस्मृति ३.४१-४३)

जो द्विजाति अनाथ ब्राह्मणके मृत शरीरको ढोकर श्मशानमें ले जाते हैं वे पद-पद पर यज्ञ करनेका फल पाते हैं; उन शुभ कर्म करनेवालोंको न तो कुछ दोष लगता है न अशुभ होता है; वे लोग जलमें स्नान करनेसे उसी समय शुद्ध होजाते हैं।  जो ब्राह्मण अन्य गोत्र और अबान्धव मृतकको ढोता है और दाह करता है वह प्राणायाम करने पर शुद्ध होजाता है।

#पराशौचे नरो भुक्त्वा कृमियोनौ प्रजायते। 
भुक्त्वान्नं म्रियते यस्य तस्य योनौ प्रजायते॥
(शङ्खस्मृति - १५.२४)
जो मनुष्य अन्यके अशौचमे अर्थात् उसके शुद्ध होनेसे पहिले उसके घर भोजन करता है वह कीड़की योनि में जन्म लेता है और जो जिसका अन्न खाकर अर्थात् पेटमें उसका अन्न रहनेपर मर जाता है वह उसी की जाति जन्मता॥

अनिर्दशाहे पक्वान्नं नियोगाद्यस्त भुक्तवान्।
कृमिर्भूत्वा स देहान्ते तद्विष्टामुपजीवति॥  द्वादशमासान्द्वादशार्द्धमासान्वाऽनश्नन्संहितामधीयानः पूतो भवतीति विज्ञायते॥
(वसिष्ठस्मृति - ४.२७-२८)

जो ब्राह्मण अशौचवाले ब्राह्मणके घर १० दिनके भीतर निमन्त्रित होकर पका हुआ अन्न खाता है वह मरनेपर कीड़ा होकर अशौचवालेकी विष्ठा से जीता है। वह मनुष्य १२ मास अथवा ६ मास अन्नरहित होकर (केवल दूध पीकर) वेदकी संहिताका पाठ करनेपर शुद्ध होजाता है; ऐसा शास्त्र से जाना गया है॥
-आचार्य श्री दीनदयालमणि त्रिपाठी जी
-आचार्य_। वैदिक नितिन शुक्ला जी ✍️🙏

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