Sunday, 28 July 2024

१२ राशियों एवं उनके स्वामी ७ ग्रहों की स्थिति का चक्र है।

√★समाज के दो मुख्य घटक हैं-स्त्री और पुरुष समाज पुरुष प्रधान है, यह प्रत्यक्ष है। पुरुष प्रबल है, स्त्री अबल। इस सत्य के पीछे क्या सूत्र है ? इस पर विचार करता हूँ। नीचे १२ राशियों एवं उनके स्वामी ७ ग्रहों की स्थिति का चक्र है। १२ राशियों के राज्य का राजा सूर्य है, रानी चन्द्रमा है, युवराज बुध है, मंत्री शुक्र है, सेनापति मंगल है, पुरोहित गुरु है तथा सेवक कर्मचारी शनि है। ऊपर से नीचे के समान मनुष्य समाज की यही दशा पूरे विश्व में है। सूर्य पुरुष है, चन्द्रमा स्त्री है। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है। सूर्य सिंह का एवं चन्द्रमा कर्क का स्वामी है। सिंह = ५। कर्क = ४। स्पष्टतः सिंह ५> कर्क ४।५ का अंक ४ के अंक से बड़ा है। अतएव सूर्य बड़ा है चन्द्रमा से इस कारण से, पुरुष बड़ा है स्त्री से। पुरुष >स्त्री ,होने से यह समाज पुरुष प्रधान हुआ। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। इसमें कोई सन्देह नहीं ।

√★सप्तम भाव लग्न को अपनी ओर खींचता है। लग्न स्थान सप्तम को आकर्षित करता है। इन दोनों की खींचातानी का फल है मिलन-विवाह, सम्मिलन- सहवास, संसर्ग-सम्भोग, साहचर्य-सहचार सन्निकर्ष-सम्प्रविष्टि, संसेचन- निषेचन स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को अपनी ओर खींचते हैं। इन दोनों | के बीच का आकर्षण बढ़ते-बढ़ते मिलन/विवाह का रूप ले लेता है। इस युग्म की एषणा का वर्णन वैदिक ऋषि इस वाक्य द्वारा करता है...

 "जनियन्ति नावग्रवः पुत्रियन्ति सुदानवः। 
   अरिष्टासू सचेवहि वृहते वाजसातये ।।"
           (अथर्ववेद १४/२/७२)

√●जनियन्ति = जन + क्यच् (य) + लट् प्र. पु. बहुवचन । जन नाम धातु है। इसमें इच्छार्थक क्यच् प्रत्यय लगने से जनमिच्छति जनकाम्यति अर्थ होता है। जन् + अच् = जन। जन का अर्थ है- स्त्री वा पुरुष। जनियन्ति का अर्थ-जन की इच्छा करते हैं। अर्थात् स्त्रियाँ पुरुष जनों की कामना करती हैं तथा पुरुष स्त्रीजनों को चाहते हैं। स्त्री के मन में पुरुष प्राप्ति की इच्छा होती है तो पुरुष के हृदय में स्त्री की चाहना ।

 √●पुत्रियन्ति = पुत्र नाम धातु है। पुत्र + क्यच् + लट् प्र.पु. बहुवचन परस्मैयद पुत्र की इच्छा करते हैं। पुत्र का अर्थ पुत्र और पुत्री दोनों होता है। यथा--- "अविशेषेण मिथुनः पुत्रा दायादाः।" (-निरुक्त ३ । १ । ३) यहाँ मिथुनाः पुत्राः द्वारा पुत्र और पुत्री दोनों को पुत्राः कहा गया है। सामान्यतः पुरुष अपने कार्य में सहयोग के लिये पुत्र की इच्छा करता है तथा स्त्री अपने कार्य में हाथ बँटाने हेतु पुत्री की इच्छा करती है। पुत्रियन्ति का अर्थ है - स्त्री और पुरुष दोनों पुत्र-पुत्री की कामना करते हैं। 

√●नौ = आवाम् हम दोनों (पति पत्नी)। →

 अग्रवः = अ(नञ्+) + ग्रवः + अच् = ग्रथः । ग्रथ = ग्रवः (थ→व) । ग्रथ् धातु भ्वादि आत्मने ग्रथते टेढ़ा होना, दुष्ट होना, झुकना अर्थवाली है। अतः प्रथ/ प्रवः का अर्थ हुआ कुटिल, दुष्ट, नीच। नत्र समास होने से, अपव का अर्थ हुआ जो कुटिल नहीं है, दुष्ट नहीं है, नीच नहीं है। अर्थात् सरल, सज्जन श्रेष्ठ / दोनों स्त्री-पुरुष अप्रूव हों, यही भाव इसमें सन्निहित है।

√● सुदानव = सु + दान + वः । दा + ल्युट् दानम्। वा + ड=वः। वः नाम भुजा का है। जो अपने हाथ से दान करता है, देता है, उसे दानव कहते हैं। जो प्रकृष्टता प्रचुरता से दान देता है, उसे सुदानवः कहते हैं। अतः सुदानवः= महादानी।

 √●अरिष्ट = अ + रिष्ट (रिषु हिंसायाम् + क्त) रिष् धातु भ्वा पर रेषति क्षति पहुँचाना, चोट पहुँचाना, ठेस पहुँचाना। रिष्ट= चोट पहुँचाया हुआ, क्षतिग्रस्त, नष्टप्राय, अभागा ।

√●असू = असु का प्रथमा द्विवचन। असु = प्राण स्त्री और पुरुष दोनों के प्राण का नाम असू है।

√●अरिष्टासू = एक दूसरे के प्राणों को क्षति न पहुँचाने वाले, परस्पर की जीवनीशक्ति को क्षीण न करने वाले, दुःखी न करने वाले पति-पत्नी/ दम्पत्ति ।

√● सचेवहि =आत्मनेपद लट् उत्तम पुरुष द्विववचन। परस्पर मित्र भाव से साथ-साथ रहें ।सच् (शच्)+ इन्= सचि। सचि का अर्थ है, मित्र अन्य प्रकार से, सच + इव हि। सच = वाक् =बह्म = मित्र। सचेवहि मित्रवत् होना हि = निश्चय। 

√●बृहते= बृहत् (बृह + अति) शब्द चतुर्थी एक वचन विस्तार के लिये पूर्ण विकास के लिये, महान् होने के लिये, ब्रह्म के लिये।

 वाजसातये = वाजसाति शब्द चतुर्थी एक वचन ।

√● वाज = बलनाम अन्न नाम ।(निघण्टु २।७)

षण् सम्भक्तौ सेवा करना तथा षणु दाने दान करना धातुएँ क्रमशः भ्वादि तनादि गणीय हैं। सनति, सनोति। सन् + क्तिन्= सति ।सति + अण् स्वार्थे =साति। वाज + साति = वाजसाति। सति का अर्थ है- दान, उपहार, अन्त (पराकाष्ठा)। इस प्रकार, वाजसाति = बल की पराकाष्ठा / अत्यन्त बलशाली होना, अन्न का दान करना / अन्न की अधिकता का होना। गृहस्थ के लिये अन्न और शारीरिक बल दोनों अत्यावश्यक हैं। अन्नवान् बलवान् होना ही वाजसाति है। अन्न होगा तो उसका दान होगा। बल होगा तो दूसरों की सहायता के लिये उसका दान/ प्रयोग/ उपयोग होगा। इस प्रकार से वाजसातये = अन्न एवं बल प्राप्त करने के लिये अथवा अन्न और बल का दान / परहिताय लगाने के लिये ।

 √∆मन्त्रान्वय- नौ अग्रवः सुदानवः जनियन्ति पुत्रियन्ति बृहते वाजसातये अरिष्टासू सचेवहि । 

√■मन्त्रार्थ- हम दोनों सरल सज्जन श्रेष्ठ एवं सुदानी होते हुए एक दूसरे को चाहें एवं सन्तानवान् बनें। अपने पूर्ण विकास के लिये, अन्नवान् बलवान् होने के लिये तथा दूसरों को अन्न एवं बल का उपहार बाँटने के लिये, इसके द्वारा दूसरों की तथा अपनी सेवा करने के लिये एक दूसरे के प्राण/जीवन को क्षति न पहुँचाते हुए, परस्पर प्रीतिपूर्वक रहते हुए मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखें, बिना झगड़ते हुए साथ-साथ रहें।

 √●दम्पत्ति को क्या इच्छा करनी चाहिये ? यही इस मंत्र का वर्ण्य विषय है। दम्पत्ति की कामना संबंधी एक अन्य मन्त्र द्रष्टव्य है ...

"आ वामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हत्सुकामा अरसत अभूत गोपा मिथुना शुभस्पती प्रिया अर्वम्गे दुर्गा अशीमहि ।। " 
          ( अथर्ववेद १४।२।५ )

[आ वाम् अमन् सुमतिः वाजिनीवसू नि अश्विना हत्सु कामाः अरसत।
 अभूत गोपा मिथुना शुभस्पती प्रियाः अर्यम्णः दुर्यान् अशीमहि ।।] 

√■वाजिनीवसू = उषा और सूर्य ।प्रथमा द्विवचन।

√■वाजिनी= उषो नाम निघण्टु १। ८ वसु = सूर्य प्रमाण के लिये यह मंत्र है...

 "अग्निश्च पृथिवी च वायुश्वान्तरिक्षं च आदित्यश्च
 द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि च एते वसवः ।"
        ( शतपथ बा. १२ । ६ । ३।३)

 ये ८ वसु हैं। आदित्य = सूर्य ।

√● हत्सु= मन, बुद्धि, अहंकार में ।हृद् (पुं) सप्तमी बहुवचन ।

√◆न्यश्विना = नि + + श्वि (भ्वा. पर. श्वयति विकसित होना, बढ़ना, फलना फूलना, समुन्द सेना + ल्युट् + टाप्। श्विना= विकास वृद्धि ।अश्विना= अकारस्य वृद्धि। अकार ब्रह्मवाचक है। इसलिये अश्विना = बस वा विश्व का विकसित रूप । नि उपसर्ग होने से नि + अश्विना= न्यश्विना= पूर्ण विकसित विश्वात्मा, विराट् परमात्मा। यह विराट परमात्मा कृति-पुरुष रूप में सबका माता पिता है। अश्विना माता-पिता। इसमें यह प्रमाण है...
 "यदश्विना पृच्छमानी।"
( अथर्व १४।१ ।१४)

 √●मिथुना = मिथ् (भ्वादि उभय मेथति-ते सहकारी बनना एकत्र मिलना, मैथुन करना, जोड़ा बनाना, प्रहार करना) + वनच् + टाप् स्त्री और पुरुष का युग्म / जोड़ा जो एक दूसरे को सहारा देते, आश्रित करते, चिपकते हैं, वे दोनों एक साथ ही मिथुन / मिथुना है। यथा...
 "मिथुनौ कस्मान् मिनोति: श्रयतिकर्मा, थु इति नामकरणः।"
        (निरुक्त ७।७।२९)

 √●अर्यम्णः = अर्यमन् षष्ठ एक वचन। सूर्य (परमेश्वर) के। जिसकी सबके हृदय में संतत गति है, वह अर्यमन (ऋगती है। सर्वत्र गति होने से सबके के मन के विचार वह जानता है। 

√●दुर्यान् =द्वितीया बहुवचन घरों को। "दुर्याः गृहनाम्।"( निघण्टु ३ । ४)

 √●अशीमहि= अश् भ्वादि आ/ कर्माणि विधिलिङ् उत्तम पुरुष बहुवचन उपभोग करें, रस लें, प्राप्त करें। 

√●अरंसत= रम् रमणे क्रीडायाम् भ्वादि आत्मने लुट्लकार प्रथम पुरुष, बहुवचन। क्रीडा किये। 

√●अभूतम् = भू धातु लुङ्लकार मध्यम पुरुष द्विवचन हुए। 

√●गोपा =गोप्त( गुप् + तृच्) का प्रथमा एकवचन। रक्षक, संधारक, अभिभावक । 

√●आ अगन् = आ + गम् + लुङ् प्रथम पुरुष बहुवचन में आ + अगमन्। अगमन के म का लोप होकर अगन् पद प्रतिष्ठित हुआ है। इसका अर्थ- आयें प्राप्त होएँ।

√● प्रियाः = स्नेह भाजन हो। 

√●शुभस्पती =प्रथमा विभक्ति द्विवचन समस्त शुभों के स्वामी/ रक्षक / पालक ।

√● सुमति = सुन्दर मति, सद्बुद्धि, विवेक ।

√●कामाः= कामनाएँ, इच्छाएँ, अभिलाषाएँ । 

√●वाम् = युष्मद् पष्ठी द्विवचन। युवयोः। तुम दोनों की। 

अन्वय...

 वा वाजिनीवसू शुभस्पती गोपा (गोपौ)

न्यश्विना अभूतम् ।
 मिथुना हत्सु प्रियाः कामाः अरंसत । अर्यम्णः सुमतिः आ अगन् । दुर्यान् अशीमहि। 

√◆अर्थ- तुम दोनों समस्त शुभों के स्वामी, रक्षक, उषा और सूर्य रूप न्यश्विना (प्रकृति-पुरुष /पति-पत्नी/ माता-पिता) हुए हो, पहले से हो, अनादिकाल से हो। हम दोनों स्त्री-पुरुष के मन में, बुद्धि में, अहं में प्रिय लगने वाले सुन्दर विचार विद्यमान रहें। हम प्रिय कामनाओं वाले हों। परमेश्वर सूर्य को श्रेष्ठ मति हमें प्राप्त हो। हम घरों को प्राप्त करें एक दूसरे के घरों हृदयों में हमारा प्रवेश हो परस्पर हार्दिक प्रेम हो।

स्त्री को किस स्थिति में रखकर पुरुष उसके साथ मैथुन क्रिया करे ? इसके उत्तर में वेद कहता है...

 "आ रोहोरुमुप धत्स्व हस्तं परिष्वजस्व जायां सुमनस्यमानः ।
 प्रजां कृण्वाथामिह एमोदमानौ दीध्रं वामायुः सविता कृणोतु ॥" 
      (अथर्ववेद १४।२।३९)

◆आरोह = आ + ह् + लोट् मधु एक वचन। ऊपर चढ़ो, सवारी करो, पकड़ लो।

 ◆उरुम्= (स्त्री) की दोनों जांघों को एक व. = द्विव. ।

 ◆उपयत्स्व = उप + था + आत्मने लोट् मपु. एक वचन रखो, उठाओ, नीचे रखो, निकट रखो, ऊपर डालो, सम्हालो, तकिये के स्थान में रखो।

 ◆हस्तम् = हाथ को (अपने दोनों हाथों को एक व. द्विव. । 

◆परिष्वजस्व =परि + स्वन (भ्वादि) आत्मने लोट् मधु एक वचन आलिंगन करो। 

◆जायाम् = स्त्री को। 

सुमनस्यमानः= प्रसन्नचित्त होकर। सु+मनस् + शानच् ।

√◆  प्रजां कृण्याथाम् = प्रजनन क्रिया करें। प्र + जन + टाप्= प्रजा। प्रजा का अर्थ उत्पादन / जनन है। कृ विकरणार्थक आत्मने विधिलिङ् मपु, द्विवचन कुर्वीयाथाम् =कृण्वायाम्। स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर जनन कर्म / प्रजनन क्रिया/संभोग करें।

◆ इह = यहाँ, इस एकान्त स्थान में, इस भोग शय्या पर । 

◆मोदमानौ= दोनों प्रसन्नमन से, स्त्री और पुरुष दोनों प्रहर्षाविष्ट होकर।

 दीर्घम् लम्बी। 

◆ आयुः = जीवनावधि ।

 √●वाम् = तुम दोनों को, युवाम्। युष्मद् शब्द द्वितीया विभक्ति द्विवचन का रूप वाम् / युवाम् है। 

●सविता= सवितृ प्रथमा एक वचन । सर्वोत्पादक परमश्वर/ सूर्य ।

 ●कृणोतु =करे। लोट् प्र.पु. एक वचन कृषि आत्मनेपदी ।

√★ मन्त्रान्वय- सुमन्यमानः जायाम् आ-रोह (तस्याः) उरुम् उप धत्स्व हस्तम् परिष्वजस्व इह मोदमानी प्रजाम् कृण्वाथाम् । सविता वाम् दीर्घ आयुः कृणोतु ।

√★ मन्त्रार्थ - ऋषि, सम्भोगेच्छु पुरुष को सम्भोग की प्रक्रिया समझाता है-प्रसन्नचित्त होकर, स्त्री को नीचे कर उसके ऊपर होओ। उसके बाद उसके जांघों को ऊपर उठाओ। हाथों को आलिंगन में लगाओ। इस संसार में तुम दोनों मुदित मन से मैथुन कर प्रजोत्पत्ति करो। सविता तुम दोनों को दीर्घायु करे।

 √★गर्भाधान की इस विधि में ४ बातें कही गई हैं ...

१. आरोहण । 
२. उपधानन।
 ३. परिष्वञ्जन ।
४. प्रजाकरण / शेपप्रहारण | संसेचन ] |

 √●१. प्रथम क्रम में पुरुष को चाहिये कि वह प्रसन्नचित्त होकर स्त्री पर आरोहण करे। आरोहण की क्रिया में स्त्री नीचे तथा पुरुष उसके ऊपर होता है, किन्तु अपना पूरा भार उस पर नहीं डालता केवल उसे ऊपर से आच्छादित करता/ ढकता है। 

√●२. द्वितीय क्रम में पुरुष स्त्री के नितम्ब प्रदेश को ऊपर उठाता और उसे सम्हाले रहता है। नितम्ब भाग का ऊपर उठा होना गर्भाधान की सुनिश्चितता के लिये अनिवार्य है। इसके लिये यदि स्त्री का जंघा क्षेत्र बृहद् पृथुल एवं भारी हो तो उसके नीचे उपधान ( तकिया) रख लेना चाहिये। अन्यथा, बायें हाथ से काम चल जाये तो उसी को उपधान का रूप (कर्म) देना चाहिये।

√●३. तृतीय क्रम में पुरुष को अपने दोनों बाहुओं वा केवल दाहने बाहु से स्त्री के ऊर्ध्व प्रदेश (पृष्ठ स्कन्ध भाग) को घेर कर आलिंगन / परिष्वजन करना चाहिये। इस क्रिया में स्त्री की परिपूर्णता में स्त्री का वक्ष एवं कुक्षि क्रमशः पुरुष के वक्ष एवं कुद्धि के सन्निकट होता है।

 √●४. चतुर्थ क्रम में पुरुष अपना शेप स्त्री के भग में डाल कर प्रहारण करता है। बार-बार के प्रहारण से वीर्य स्खलन होता है। इससे योनि की सिंचाई सम्पन्न होती है। यही संसेचन है, गर्भाधान है, प्रजाकरण है।

√◆वैदिक ऋषि के अनुसार सन्तानोत्पादन ही संभोग का लक्ष्य है। इसीलिये इस सरल किन्तु अमोद्य मैथुनासन का वर्णन इस मंत्र में किया है। ऐसा करने वालों को (स्त्री और पुरुष दोनों) के लिये ऋषि परम पुरुष परमात्मा से दीर्घायु की प्रार्थना करता है। आगे के मन्त्र में सहवासी, सहभोगी स्त्री और पुरुष दोनों के मंगल की कमाना की गई है ...

"आ वां प्रजां जनपतु प्रजापतिरहोरात्राभ्यां समनकृत्यर्यमा । अदुमंगली पतिलोकमाविशेमं शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।” 
    (अथर्ववेद १४ । २ । ४०)

√●काल ही द्विपदा तथा चतुष्पदा नाम से जाना जाता है। द्विपदा दो पैरों वाला। रात और दिन इसके दो पैर हैं। चतुष्पदा = चार पैरों वाला। प्रातः संध्या, मध्यान्ह, सायं संध्या तथा निशीथ (अर्द्धरात्रि) इसके चार पैर हैं। द्विपदे चतुष्पदे पद सम्बोधन एक वचन हैं। द्विपदे = हे रात्रि दिवस नामक दो पैरों वाले काल देवता ।

 ●चतुष्पदे = हे प्रात: सायं, रात्रि-दिवस नामक चार पैरों वाले काल देवता।

●नः = अस्मद् चतुर्थी बहुवचन। हम लोगों के लिये ।यहाँ नः अस्मभ्यम् = पति + पत्नी + देवता । गर्भस्थ शिशु के लिये।

 ●शम् भव = कल्याण हो, शुभ हो, अच्छा हो।

● प्रजापतिः = प्रजानां पतिः । अर्थात् सूर्य ।

 ●अर्यमा= ऋ + यत्+मा+कनिन् =अर्यमन् का प्रथमा एक व. जो चलता है तथा आकाश को मापता है अर्थात् सूर्य हो अर्यमा है। ऋॠ गतौ। मा मिमीते मापने।

●अ-दुर-मंगली= बुरे लक्षणों से रहित, नितान्त शुभ ।

●पतिलोकम् = पति का घर आवासस्थल / आँख / दृष्टि / हृदय / मन । 

●इमम् = इस। 'पतिलोक' का विशेषण है। 

●आ जनयतु = आ + जन् (प्रादुर्भावे) + णिच् + लोट् प्र.पु. एक वचन जन्म दे। प्रजाम्= सन्तान  को।

सम्-अनक्तु = सम् + अन् (जीवने) अदादि गण + लोट् प्र.पु. एक वचन जीवन दे, जीवित किये रखे।

आ-विश = आ + विश् + लोट् मपु. एक वचन प्रवेश कर, स्वामित्व स्थापित कर ।

 वाम् = तुम दोनों के लिये। चतुर्थी ।

√★ मन्त्रार्थ- प्रजापति, तुम दोनों के लिये उत्तम सन्तान को जन्म दे। अर्यमा, रात-दिन द्वारा सम्यक् प्रकार से उसे कान्तियुक्त करे। बुरे लक्षणों राहत तू पति के हृदय में प्रवेश कर अर्थात् पति की स्नेहभाजन बन । रात / चन्द्र एवं दिन / सूर्य रूप दो पैरों वाले कालदेव । हम लोगों का शुभ हो। पुनः रात-दिन, सायं प्रातः रूप चार पैरों वाले कालदेव ! हमारा शुभ हो।

√●वैदिक साहित्य में सर्वत्र सन्तानोत्पादन के लिये विवाह तथा विवाह का उद्देश्य सन्तानोत्पादन कहा गया है सन्तानोत्पत्ति मैथुन धर्म से होती है। मैथुन धर्म का स्वरूप एक दम्पत्ति के लिये कैसा होना चाहिये ? यह भी बताया गया है। इसकी सरल, सहज एवं सशक्त प्रविधि का निदेशन भी किया गया है। स्वानुभव एवं धर्म बुद्धि से मैने इसकी व्याख्या में संक्षिप्तता एवं समग्रता का सूत्र प्रयुक्त किया। गृहस्थ का परम धर्म मैथुन है। दोनों (स्त्री-पुरुष) के बीच मैथुन धर्म का भलीभाँति पालन न करने से दाम्पत्य जीवन में तिक्तता का समावेश होता है। इस तिक्तता से सुख और शान्ति का वृक्ष सूखने लगता है। इसे सूखने से बचाने के लिये उसके मूल में राम नाम का रस डाला जाय। राम नाम अमृत है। यह अवर्ण्य है। मैं इसकी शरण में हूँ, मेरी रसना पर यह सतत विद्यमान रहता है।
#shulba #त्रिस्कन्धज्योतिर्विद् #फलितशास्त्र #astrologypost #ज्योतिष #फलादेश #famousastrologer #vastuconsultant #indianastrology #astrologerindelhi

No comments:

Post a Comment