Monday, 29 July 2024

#दहेज का विचार

√●●कुण्डली में दहेज का विचार अष्टम भाव से करना चाहिये। सप्तम भाव जाया है जाया से दूसरा भाव अर्थात् अष्टम, जाया का घन वैभव हुआ। जाया की धन सम्पत्ति का नाम दहेज है। लोगों की लालची आँखें दहेज पर लगी रहती हैं जिसकी कुण्डली में अष्टम भाव पुष्ट, बली है, उसे अनायास बिना मांगे ही दहेज मिलेगा। 

√●अष्टम भाव के अपुष्ट एवं निर्बल होने पर माँगने पर भी दहेज नहीं मिलता। यदि बलात् दहेज का दोहन किया जाता है तो वह निश्चय ही उसके लिये अनिष्टकर होगा। अष्टम भाव में स्थित मह वा अष्टम को देखने वाले ग्रह की प्रकृति के अनुरूप धन का स्वरूप होगा। व्यक्ति के लिये दहेज शुभ होगा वा अशुभ, इसका निर्णय अष्टमस्थ राशि राशि के स्वामी, अष्टमस्थ मह/ यहाँ एवं अष्टम द्रष्टा मह/ महों के शुभाशुभ प्रभाव का सम्यक् आकलन कर करना चाहिये।

√●दहेज सामाजिक कोढ़ है। राजाओं, उद्योगपतियों, अति धनाढ्य की देखा-देखी सामान्य जनता को यह शोभा नहीं देता। इसके मूल में अकर्मण्यता एवं लोभ है। स्त्री धन पर जीवन निर्वाह करने वालों को धिक्कार है। अपने मायके से प्राप्त धन का प्रयोग स्त्री स्वयं के लिये करे वर का विक्रय कर स्त्री धन/ दहेज लेने वाले अकर्मण्य धन लोलुप कुक्कुरों को मैं नमस्कार करता हूँ।

√●● अंगिरा ऋषि का वचन है...

"स्त्रिया धनन्तु ये मोहाद् उपजीवन्ति बान्धवाः । 
स्त्रिया यानानि वासांसि ते पापा यान्त्यधोगतिम् ॥"
      ( अंगिरास्मृति-७१)

√●स्त्री के धन (दहेज) को जो बान्धव भोगते हैं, स्त्री का यान/ वाहन (जैसे ससुराल से मिली मोटर साइकिल स्कूटर कार ) जो प्रयोग में लाते हैं, उस (स्त्री पक्ष) के वस्त्रों को जो व्यवहार में लाते हैं, वे पापी अधोगति को प्राप्त होते हैं। 

√●स्त्री सेवा करती है। जो सेवा करता है, वह शूद्र है। पुरुष सदैव स्त्री से अपनी सेवा कराता है। इसलिये स्त्री शूद्र हुई। मासिक धर्म के समय स्त्रियों से सेवा नहीं ली जाती। इन दिनों स्त्रिय अस्पृश्य वा अछूत होती हैं। प्रकारान्तर से शूद्र जब सेवा धर्म का त्याग कर दे तो वह अछूत होता है, किन्तु पृण्य नहीं। सेवक सबको प्रिय होता है। अतः स्त्री सदा ही पुरुष को प्रिय है। स्त्री का अन्न अर्थात् दहेज में मिला। अन्न वा अन्नोत्पादक कृषि योग्य भूमि से ब्रह्मतेज का हनन होता है। अंगिरा ऋषि कहते हैं...

 "राजानं हरते तेज, शूद्रानं ब्रह्मवर्चसम्।
 सूतकेषु च यो भुंक्ते    स भुङ्क्ते पृथिवीमलम् ॥"
         (अंगिरा स्मृति ७२ )

√● राजान्न तेज हर्ता है। शूहान्न तपहर्ता है। सूतकान्न/ अशौचान्न तो पाप ही है। इन तीन अन्नों से जो अछूता है, उसे मेरा प्रणाम । सांसारिक आसक्ति से निवृत होने के लिये भगवान्, विष्णु के चरणों में विधिवत् मन लगाना चाहिये। स्वर्ग के द्वार को खोलने में समर्थ धर्म का उपार्जन भी करना चाहिये। युवती नारी के तन के साथ कामक्रीड़ा अवश्य करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह माता के यौवनरूपी वन को काटने में कुल्हाड़ी रूप है ऐसा योगी भाईहरि कहते हैं। यह श्लोक है...

 "न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत् संसारविच्छितये, स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुः धर्मोऽपि नोपार्जित।
 नारीपीनपयोधरोरूयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितं,
 मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे  कुठारा वयम् ॥"
       ( वैराग्य शतक ११ )

√● वैराग्य के लिये ये तीन कर्म आवश्यक हैं। बिना भगवत्पूजा किये बिना धर्म (कलियुग में दान ही धर्म है) किये, बिना स्त्री सहवास किये, स्थिर वैराग्य नहीं होता। पुरुष को वास्तविक वैराग्य देने वाली स्त्री ही है (और स्त्री को पुरुष) ऐसा नित्य समझना चाहिये। स्त्री की लताड़ से पुरुष का स्त्री के प्रति मोह भंग होता है।

√● भर्तृहरि अपने अनुभव की बात करते हैं। ये तीन कर्म अनिवार्य हैं। इसका तात्पर्य है-गृहस्थाश्रम से होकर ही वैराग्य का पथ प्रशस्त होता है। मोक्ष के लिये विवाह (बन्धन) अनिवार्य है। गृहस्थ का बन्धन वास्तविक है। अगूहस्थ का बन्धन अवास्तविक वा मिथ्या है। मिथ्या की मुक्ति सम्भव नहीं। यही विवाह का महत्व है। 

√●जो जीवन भर स्त्री का ध्यान करता रहा, ईश्वर का ध्यान ही न किया, उसे मुक्ति कहाँ ? एक बड़ा सुन्दर श्लोक है ...

"चिरंध्याता रामा, क्षणमपि न रामप्रतिकृतिः 
परं पीतं रामाधरमधु, न रामालिंगसलिलम् ।
 नवा रुष्टा रामा यदचिन रामायविनति:,
 गतं मे जन्म्याय्यं न दशरथजन्मा परिगतः ।"

√●●सुन्दर स्त्री को रामा कहते हैं। आजीवन रामा का ध्यान करता रहा और क्षण भर भी राम की छवि ध्यान नहीं किया। रामा के अधरोष्ठ शहद को जी भर पिया और राम के चरणामृत का पान किया ही नहीं। रुष्ट हुई रामा के सामने बार-बार झुका और राम के सम्मुख एक बार भी नहीं। मेरा सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो गया और मैं दशरथजन्मा राम को न जान पाया। व्यक्ति ऐसे ही पछताता है, जब उसके जीवन का सूर्य अस्ताचल के निकट पहुँचता है।

 √●●राम के बिना रामा व्यर्थ हैं। रामा के बिना जीवन नीरस है। गृहस्थ को दोनों चाहिये। राम और रामा का आगमन जिसके जीवन में है, वह धन्य है। उस सगृहस्थ संत को मेरा प्रणाम है।

 "सुखतः क्रियते रामाभोग पश्चादहन्त!
         शरीरे रोगः ।" 
            ( शंकराचार्य)

√● पहले रामा का भोग सुखपूर्वक किया जाता है, बाद में शरीर रोग से त्रस्त होता है। इसलिये हे मन । राम को न भूल। राम सत्य है, रामा मिथ्या ।

"रामश्शरणं मम।"
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Sunday, 28 July 2024

नर नारी साम्य सूत्र

【नर नारी साम्य सूत्र♂♀ १+५=२+४】

√● १=मेष राशि, राशीश मंगल है। मंगल पुरुष ग्रह एवं रक्तवर्ण है। 

√● ५= सिंह राशि, राशीश सूर्य है। सूर्य पुरुष ग्रह एवं नारंगी स्वर्ण वर्ण है। सूर्य राजा है। मंगल इसका सेनापति है मेष, सूर्य की उच्चराशि है इसलिये यह सूर्य का सिंहासन है। सूर्य अपने सिंहासन पर बैठ कर शोभायमान होता है।

 √●२ = वृष राशि, राशीश शुक्र है। शुक्र स्त्री ग्रह एवं श्वेत वर्ण है।

√● ४ = कर्क राशि, राशीश चन्द्रमा है। चन्द्रमा स्त्रीग्रह एवं पाटल वर्ण है। चन्द्रमा रानी (राज्ञी) है। शुक्र इसका परामर्शदाता मंत्री है। वृष, चन्द्रमा की उच्च राशि है। इसलिये यह चन्द्रमा की आसन्दिका (उच्चपीठ) है। चन्द्रमा इस पर आसीन रहकर सुशोभित होता है।

√∆ इस संख्यात्मक सूत्र को शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है...
【 मंगल + सूर्य = शुक्र + चन्द्रमा】

√★ मंगल= स्त्री का रज।
       शुक्र = पुरुष का वीर्य।

√● मंगल स्त्री के शरीर में होता है, रक्तवर्ण रज मासिक  स्वाय के रूप में शुक्र पुरुष के शरीर में रहता है, श्वेत वर्ण शुक्राणु वीर्य के रूप में स्त्री, वीर्य को खींचती है। पुरुष, रज को खींचता है। पुरुष के शरीर में विद्यमान वीर्य, स्त्री ग्रह शुक्र का प्रतिनिधि है। स्त्री के शरीर में वर्तमान रज, पुरुष ग्रह मंगल का द्योतक है। इसका अर्थ यह हुआ कि पुरुष में स्त्री तत्व तथा स्त्री में पुरुष तत्व सतत उपस्थित रहता है। स्त्री तत्व स्त्री में जाना चाहता है, पुरुष तत्व पुरुष से मिलना चाहता है। यही कारण है कि पुरुष और स्त्री एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। दोनों के बीच यह खिंचाव अनायास एवं स्वाभाविक है। पुरुष, स्त्री को विकृत करता है तो स्त्री, पुरुष को इस विकृति के मर्यादीकरण का नाम विवाह है।

√● विवाह में, पुरुष स्त्री। क्योंकि १ + ५ पुरुष एवं २ + ४ = स्त्री । १+५= ६ तथा २ + ४ = ६ । यह संख्या ६ इन्द्रिय वाचक है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तो प्रसिद्ध हैं, छठीं ज्ञानेन्द्रिय है उपस्थ । यह तो कर्मेन्द्रिय है ? हाँ, कमेन्द्रिय होते हुए भी यह ज्ञानेन्द्रिय है कैसे ? इससे अनिर्वचनीय सुख का ज्ञान होता है। इस सुख की अनुभूति का व्यक्तीकरण सम्भव नहीं है। स्त्री और पुरुष की पाँचों ज्ञानेन्द्रियों में समानता है किन्तु छठीं सुखेन्द्रिय उपस्थ में नितान्त असमानता यही इन्द्रिय पुरुष और स्त्री के भेद को कारक है। ६ अपूर्ण संख्या है। अतः पुरुष वा स्त्री दोनों अलग-अलग अपूर्ण हैं । ६ = पुरुष ।६ स्त्री।जब ये दोनों एकीकरण के सूत्र में बंधते हैं तो पूर्ण होते हैं। एकीकरण को दाम्पत्ययन वा विवाह कहते हैं।【 इसमें पुरुष + स्त्री = ६+६= १२ = पूर्ण संख्या भाव १२ है। 】इस १२ में विश्व समाहित है। इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पूर्णत्व के लिये विवाह होता है। यह स्त्री-पुरुष के बीच होता है, न कि स्त्री स्त्री वा पुरुष पुरुष में।

√∆कुण्डली में लग्न पुरुष है तो सप्तम स्त्री ।

【 लग्न = पुरुष, = १, सप्तम = ७।】

 जब पुरुष-स्त्री दाम्पत्य सूत्र में बँधते हैं तो उनका संख्यात्मक रूप = १ + ७।

 अर्थात् १ + ७ =८ वा ७+१=८= मृत्यु / अशुभ। 

एवं १ - ७ = (१२ + १) - ७- १३ - ७=६ शत्रु, रोग।

 अथवा, ७- १=६ शत्रु / रोग।

√●वैवाहिक संबंध से जिस संख्या की प्राप्ति होती है, वह है ६ वा ८। ये दोनों शुभ नहीं हैं। इसलिये भगवान् अपने भक्तों को विवाह नहीं करने देते, विवाह में व्यवधान डालते हैं, विधुरत्व वा वैधव्य प्रदान करते हैं जिससे वे पुरुष वा स्त्री परमपद प्राप्त कर सकें। ज्ञानी भक्त विवाह ही नहीं करते वा उनका विवाह होता ही नहीं वा वे दाम्पत्य जीवन से पराङ्मुख होकर ईश्वरोन्मुख हो जाते हैं। नारद, शुक, सनकादि, भीष्म तथा सूर, तुलसी, मीरा प्रभृति ऐसे ही हैं। इन ज्ञानी भक्तों की पंक्ति में बैठे हुए श्री महाराज जी को मैं प्रणाम करता हूँ। 

√●युद्ध के प्रश्न में लग्न को स्थायी राजा तथा सप्तम को यामी (आने वाला वा आक्रमणकारी) राजा माना गया है। इस प्रकार पुरुष स्थायी हुआ तथा स्त्री यायी।

√●जैसे दुर्गस्थ राजा पर बाह्य राजा धावा बोलकर दुर्ग पर अधिकार करता है वा सन्धि करता है वा हार कर आत्म समर्पण करता वा भाग/ लौट जाता है, वैसे ही स्त्री यायी राजा बनकर स्थायी राजा पुरुष के घर आती (विवाह करके) है, पुरुष पर अधिकार कर गृहस्वामिनी का पद पाती है वा बराबरी के स्तर पर घर में रहकर गृहस्थी का संचालन करती वा पुरुष से हार कर समर्पण कर गृहस्थी में सहयोग देती है। इस विक्रिया से स्पष्ट है कि विवाहोपरान्त जब स्त्री अपने पति के घर आती है तो दोनों के बीच वर्चस्व प्राप्ति का युद्ध होता है। स्त्री चाहती है कि उसका पति उसकी मुट्ठी में रहे, पुरुष चाहता है कि उसकी स्त्री उसके नियन्त्रण में रहे। स्त्री और पुरुष के बीच हो रहे इस अधिकार युद्ध का कोई अन्त नहीं है। क्योंकि, दोनों ६-६ अंक लेकर बराबर हैं। दोनों पडैश्वर्य युक्त हैं। नृतन के ६ ऐश्वर्य ये हैं-रसेन्द्रिय रसना, श्रवणेन्द्रिय कान, दृश्येन्द्रिय आँख, घ्राणेन्द्रिय नासिका, स्पर्शेन्द्रिय त्वचा जो कि सम्पूर्ण शरीर में विद्यमान है तथा सुखेन्द्रिय शिश्न / भग। ये स्थूल ऐश्वर्य हैं। इन ६ ऐश्वयों का स्वामी मन है। अतः मन ईश्वर है, 'मनोवैस' ।मन अपनी ध्यान शक्ति में इन छ: ऐश्वयों का प्रकाशन एवं उपयोग करता है। आनन्द के ये ७ साधन हुए- (६ ज्ञानेन्द्रिय+१ मन)। इस आनन्द को पाने के लिये स्त्री-पुरुष मिलकर अग्नि के ७ दक्षिणावर्त फेरे लगाते हैं। इस क्रिया का नाम विवाह है। यह वेद विहित है।

√●सप्तम भाव सन्ध्या है। संध्या स्त्री है। सूर्य की पत्नी है। कहा गया है-

"कालस्य तिस्रो भार्याञ्च, संध्या रात्रि दिनानि च।
 याभिर्विना विधात्रा च संख्यां कर्तुं न शक्यति।।" 
(ब्रह्मवैवर्तपुराण,प्रकृतिखण्ड,प्रथमाध्याय ।)

√●सं सम्यक् ध्यायत्यस्यामिति संध्या। सं+ ध्यै चिन्तने + आतश्चोपसर्गे। इत्यङ् । यद्वा संदभातीति संध्या ।सं+ था + अध्न्यादपश्च (उणादि ४। ११३)। दिन और रात्रि के बीच का दो घटी का समय संध्या कहलाता है। प्रकाश और अन्धकार के अभाव का नाम संध्या है। इसमें सूर्य अस्ताचल को जा रहा होता है। इसे 'पितृप्रसू' (अमरकोष) कहा गया है। पिता को पुत्ररूप में पैदा करने वाली वा जाया / पत्नी । सूर्य पिता है, संध्या उसकी पत्नी है। लग्न का कारक सूर्य पुरुष है। यह लग्न से द्वादश, एकादश, दश, नव, अष्ट भावों को पार करता हुआ जब सप्त में पहुंचता है तो वह तेजोहीन हो जाता है। यह लोक में भा घटित होता है। यह पुरुष, स्त्री के सप्तम अंग उपस्थ को प्राप्त करते ही बलहीन हो जाता है। यह स्त्री, पुरुष के वीर्य का अपहरण करके उसे अबल कर देती है। इसलिये इसे अबला कहा गया है। अमित बलवाली होने से भी यह अबला है। पुरुष सम्भोग के अनन्तर शुक्र के क्षरित हो जाने से शववत् हो जाता है। इसके विपरीत स्त्री उस शुक्र से सिंच कर स्फूर्ति को प्राप्त होती है। इस संभोग-व्यापार में पुरुष हानि उठाता है, स्त्री लाभ प्राप्त करती है। क्या बलवान् हानि उठा सकता है ? कदापि नहीं। अतः स्त्री बली है। स्त्री, पुरुष के सामने अपने बल का प्रदर्शन नहीं करती। इसी से पुरुष ठगा जाता है।
 शंकराचार्य ने ठीक ही कहा है...

"विज्ञानमहाविज्ञतमोऽस्ति को वा?
 नार्या पिशाच्या न च वज्ञितो यः ।"
              (प्रश्नोत्तरी)

√●संध्या शब्द का अर्थ ही स्त्री है। सम् + था, सम्यक् दधाति । जो पुरुष के वीर्य को वा उसके भार को धारण करती, वहन करती है-संध्या है। सम् + ध्यै, सम्यक् ध्यायति । कामासक्त पुरुष जिस के अंग प्रत्यंग का ध्यान करता है और ध्यान में सुख पाता है, वह संध्या है। पुरुष इसमें अपने अस्तित्व को लीन कर देता है वा वह अस्तंगत होता है। अतः संध्या = अस्त सप्तम संध्या है सूर्य वहीं अस्त होता है। 

√●सप्तम भाव स्त्री है। स्त्री संध्या है। संध्या में उष्णता के नाश की सामर्थ्य होती है। वह सूर्य को अनुष्ण कर देती है। प्रत्येक स्त्री, पुरुष को यही गति करती है। पुरुष स्त्री का सहवास पाते ही ठण्डा हो जाता है, अपना तेज खो देता है, उष्णता से विपन्न हो जाता है। इसीलिये स्त्री को शक्ति कहा जाता है। इसकी उत्पादन शक्ति तथा पालन क्षमता का वर्णन वेद करता है। यथा...

"आत्मन्वत्युर्वरा नारीयमागन् तस्यां नो वपत बीजमस्याम्।
 सा वः प्रजां जनयद् वक्षणाभ्यो बिभ्रती दुग्धमृषभस्य रेतः ॥"
     ( अथर्ववेद १४।२।१४ )

【आत्मवन्ती उर्वरा नारी- इयम्-आ-अगन् तस्याम् नरः वपत बीजम् अस्याम् । सा व प्रजाम् जनयत् वक्षणाभ्यः विभ्रती दुग्धम् ऋषभस्य रेतः ॥】

अन्वय...
( इयम् आत्मवन्ती उर्वरा नारी आ-अगन्। तस्याम् अस्याम् नरः बीजम् वपत। रेतः बिभ्रती व प्रजाम् सा ऋषभस्य जनयत् वक्षणाभ्यः दुग्धम् (जनयत्) । )

√●इयम् = यह इदम् शब्द स्त्रीलिंग प्रथमा विभक्ति एक वचन ।

 √●आत्मवन्ती = अत् + मनिण् + मनुप् + डीप् + जस्। जो स्वस्थचित्त, शान्त, दूरदर्शी, बुद्धिमान्, मनस्वी, आत्मिकशक्ति सम्पन्ना है। 

√●उर्वरा = उरू शस्यादिकमृच्छति। ऋ + अच्+टाप् । विस्तृत, उपजाऊ भूमि, जिसमें बीज बोने से वह उगे बढ़े और पुष्टता को प्राप्त करे। उत्पादकता के गुणों से युक्त उत्पन्न करने की क्षमता रखने वाली । ऋतुधर्म को प्राप्त स्वस्थ नारी।

√● 'उर गतौ सौत्रधातुरयम्' (शब्द कल्पद्रुमे) + वरा। जिसकी गति अच्छी हो। श्रेष्ठगति वाली सक्रिय, आलस्य रहित, तन्द्राहीन।

√● नारी = नर + ङीष्। स्त्री। न + अरि (री) ऐसी स्त्री जो पुरुष की शत्रु न हो, नारी कही जाती है। पुरुष से लड़ने झगड़ने वाली स्त्री नारी नहीं होती। पुरुष की मित्र वा प्रेमिका को नारी कहते हैं। 

√●आ अगन् = पूरी साजसज्जा / तैयारी के साथ आयी है। यहाँ अगन् आगच्छत् आङ पूर्वक गम् का अर्थ आना है। अतः विवाहोपरान्त पति के घर में वह नारी गृहस्थ धर्म का आचरण करने के लिये आयी है - यह अर्थ अभिप्रेत है।

 √●तस्याम् = तद् सप्तमी एक वचन उस आत्मशक्ति सम्पन्ना नारी (की योनि) में। 

√●अस्याम् = इदम् सप्तमी एक वचन इस उर्वरा / अबन्ध्या नारी (के गर्भाशय) में।

√●नरः = नृ शब्द सम्बोधन एक वचन । किन्तु यहाँ नृ= नी + ऋन् होने से नर का अर्थ वह पुरुष है जो स्त्री का मार्गदर्शन / नेतृत्व करता है जो स्त्री के आगे आगे न चले, उसका पथ-प्रदर्शक न बने, वह पुरुष होते हुए भी नर कहलाने का अधिकारी नहीं है। हे पुरुष । 

√●बीजम् = उत्पादन क्षमता से युक्त / स्वस्थ एवं प्रचुर शुक्राणुओं वाला वीर्य वा रेत ।

 √●वपत = वप् बोना लोट् मध्यम पुरुष बहुवचन परस्मैपद। बोते हैं, गिराते हैं, बिखरते हैं, छीटतें हैं, डालते हैं।

√● सा= तद् स्त्रीलिंग प्रथमा एक वचन वह नारी। 

√●ऋषभस्य = ऋषभ (ऋष, तुदादि परस्मै ऋषति जाना, पहुँचना, मार डालना, चोट पहुँचाना तथा ऋष् भ्वादि परस्मै अर्षति बहना, फिसलना + अभक्) पष्ठी एक वचन जो गतिशील क्रियाशील मारक क्षमता से युक्त वा शक्तिशाली है, उसका नाम ऋषभ है। जो फिसलता है, वह भी ऋषभ है। ऐसा पुरुष, जिसका शेप/शिश्न क्रियाशील है जो शक्तिशाली होते हुए स्त्री के उपस्थ पर चोट करता है तथा उसके भीतर फिसलता हुआ सरलता पूर्वक प्रवेश करता है, गार्हस्थ के लिये श्रेष्ठ है। इससे स्त्री संतुष्ट रहती है श्रेष्ठ सर्वश्रेष्ठ सामर्थ्यवान् कामी विद्वान् को ऋषभ कहते हैं।

√●रेतः = री (दिवादि आत्मने रीयते टपकना बूंद बूंद गिरना, रिसना, बहना) + असुन तुट् च + सु (प्रथमा एक वचन)। जो पदार्थ सम्भोग के समय पुरुष के लिंग से टपकता, रिसता, बहता वा बूंद बूंद टपकता है, वह रेतः कहलाता है। 

√●बिभ्रती = भृ (भ्वा. जुहो. उभ. भरति-ते, बिभर्ति ते) + ङीप् । धारण-पोषण करती हुई। जो पुरुष के तेज को अपने गर्भ में रखती है, उसे सम्हाली है, पुष्ट करती है, वह स्त्री ।

 √●वः = युष्मान् (द्वि बहु व ) युग्भ्यम् (चतुर्थी ब.व) युष्माकम् (षष्ठी ब.व) तुम लोगों (नरों) को/के लिये/के।

√● प्रजाम् = प्र + जन्+ड+ टाप् +अम्[ द्वि.ए. व] सन्तान को ।

√● जनयत् = जन् प्रेरणार्थक जनयति जन्म देना, पैदा करना, उत्पन्न करना, परस्मै विधिलिङ् जनयेत् [= जनयत्)। पैदा करे, जन्म दे ।

 √●वक्षणाभ्यः = वक्षणस् शब्द पञ्चमी विभक्ति बहुवचन छाती से उरोजस्थ रस-रक्त- दुग्ध वाही नाड़ियों से वह (भ्वादि उभय वहति-ते ले जाना, धारण करना, वहन करना, ढोना, आगे चलाना, ढकेलना, बहाकर ले जाना) + ल्युट् + असुन्वक्षणस् वक्षणः नदीनाम्-निघण्टु १ । १३ । जिनके द्वारा जल ढोया जाता है, वह नदी है। इसी प्रकार, इस शरीर (स्त्री के) में छाती क्षेत्र में रक्त को दूध में परिवर्तित करने वाली अनेक वाहिनियाँ होती हैं। ये दूध बना कर उसे कुचाम भाग के छिद्रों से बाहर निकालती हैं। शिशु अपनी माता के चुचूक को मुँह में लेकर दूध चूसता / पीता है। वक्षण का बहुवचन प्रयोग होने के पीछे यही अभिप्राय है। 

√●दुग्धम्= दूध को दुह (अदादि उभय दोग्धि दुग्धे किसी वस्तु में से कोई दूसरी वस्तु निकालना, दोहना, निचोड़ना) + क्त + अम् (द्वितीया एक वचन)। 

√★मन्त्रार्थ - यह आत्मशक्ति सम्पन्ना उत्पादन शक्ति युक्ता नारी आयी हुई है। उस नारी जो कि अबन्ध्या हैं, की इस योनि में है पुरुष । तुम बीज बोओ, निषेक करो, गर्भवती बनाओ। वह नारी श्रेष्ठ पुरुष का वीर्य धारण करती हुई, तुम्हारे लिये पुत्र उत्पन्न करे। अर्थात् तुम्हारा मैथुन कर्म व्यर्थ न जाय। इसलिये वेदोक्त प्रविधि का प्रयोग संभोग के समय करो। वह स्त्री (शिशु जनने के बाद उसे पिलाने के लिये) अपने वक्ष / कुच प्रदेश में स्थित दुग्ध ग्रन्थियों से पर्याप्त दूध उत्पन्न करे। यह सरलार्थ है।

√★ मंत्र में नरः नृशब्द का सम्बोधन एक वचन है, जबकि इस की क्रिया वपत मध्यम पुरुष बहुवचन है। एक वचन कर्ता के साथ बहुवचन क्रिया का क्या औचित्य है ? इसका समाधान यह है कि नर (पुरुष) अपनी स्त्री (नारी) की योनि में बार-बार बीज बोए। एक बार बीज गिराने से गर्भ न ठहरे तो इससे हताश न होकर पुनः पुनः बीज बोए सम्भोग करे। ऐसा तब तक करता रहे जब तक कि लक्ष्य सिद्ध न हो जाय। क्योंकि ब्रह्मा जी ने स्त्री की रचना ही सन्तान प्राप्ति, संतति वृद्धि के लिये की है, व्यर्थ सम्भोग के लिये, शिश्न सुख के लिये नहीं कहा गया है...

 "सन्तानार्थ महाभागा एतः सृष्टः स्वयम्भुवा।"
              ( मनुस्मृति )

√●लोक में सन्तानवती नारी को एक शुभ शकुन माना गया है। मंत्र में दूसरी महत्वपूर्ण बात स्त्री का आत्मवन्ती और उर्वरा होना है। स्त्री के आत्मवन्ती होने से सन्तानें आत्मवत होंगी, अनात्म पदार्थों में आसक्त न होंगी, उनमें विवेक होगा। नारी प्रथम गुरु है। नारी में गुरुत्व (मार्गनिर्देशन की क्षमता, विद्वत्ता, शीलाचार) तो होना ही चाहिये। स्त्री का उर्वरा होना कम महत्वपूर्ण नहीं है। ऊपर भूमि में बीज वपन व्यर्थ होता है। उपजाऊ भूमि में ही किसान बीज बोता है। उर्वरास्त्री उपजाऊ भूमि सदृश होती है, जिसमें बोया गया बीज व्यर्थ नहीं जाता।

√●मंत्र में तीसरा तथ्य है, पुरुष का ऋषभ होना। पुरुष ऋषभ / श्रेष्ठ नहीं है तो सन्तान कैसे श्रेष्ठ होगी ? ऋषभ पुरुष स्त्री को प्रिय होता है। अमरकोष में ऋषभ के ये अर्थ है...

√◆ १. तन्त्री और मनुष्यों के कण्ठ से उत्पन्न हुए सप्तस्वरों में से एक स्वर ऋषभ भी है।

√◆ २. एक औषधि का नाम है, ऋषभ निघण्टु के अनुसार...

"ऋषभो दुर्धरो द्राक्षा मातृको वल्लुरो नृपः। 
ककुद्यान् भूपति: कामी गोपतिः शीतलश्च सः॥"

√◆ ३. साँड़ वा बैल को ऋषभ कहते हैं। बैल के ९ नामों में से एक नाम।【 “उक्षा भद्रो बलीवर्द ऋषभो वृषभो वृषः अनड्वान् सौरभेयो गौः ॥" 】

√◆४. किसी शब्द के उत्तरपद में ऋषभ शब्द लगता है तो इसका अर्थ श्रेष्ठ होता है। 

" स्युरुत्तरपदे व्याघ्रपुंगवर्षभ कुञ्जरः ।
 सिंहशार्दूल नागाद्या: पुंसि श्रेष्ठार्थगोचराः ॥"

★★★ इन सब उद्धरणों को ध्यान में रखते हुए अपभ के अर्थ वा विशेषताएँ ये हैं★★★

√★१. गन्धर्वशास्त्र का ज्ञाता पुरुष ऋषभ है। 

√★२. स्त्री के लिये जो औषधि रूप है, वह ऋषभ है। अर्थात् स्त्री जिस पुरुष का नियमित सेवन करती हुई हृष्ट पुष्ट रहे, वह उसके लिये ऋषभ होता है।

√★३. भूपति = भू (स्त्री) का पति ऋषभ कामी (स्त्री के साथ मैथुन करने की प्रबल इच्छा वाला) पुरुष ऋषभ है। गो (ज्ञान) पतिः = ज्ञानी पुरुष ऋषभ है। स्त्री के प्रति शीतल स्वभाव वाला पुरुष ऋषभ है।

 √★४. जो भद्रः (कल्याणमय), बलीवर्दः (बलशाली), वृपः (धर्मात्मा) है, वह ऋषभ है।

√★ ५. जो व्याच सर्प एवं कुञ्जर (हाथी) के समान मैथुन करने के लिये लालायित रहता है, वह पुरुष स्त्री के लिये श्रेष्ठ है, ऋषभ है। स्त्री मैथुन क्रिया होती है। उसकी समस्त भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता हुआ पुरुष यदि उसे प्रकृष्ट सम्भोग सुख न दे सके तो वह उसके लिये ऋषभ नहीं है। लोक में देखा जाता है कि सांड़ छोड़ा जाता है। यह गाय को गर्भिणी बनाता है। साँड़ के गुण वाला पुरुष ही ऋषभ है। जो स्त्री को गर्भवती बना दे।
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१२ राशियों एवं उनके स्वामी ७ ग्रहों की स्थिति का चक्र है।

√★समाज के दो मुख्य घटक हैं-स्त्री और पुरुष समाज पुरुष प्रधान है, यह प्रत्यक्ष है। पुरुष प्रबल है, स्त्री अबल। इस सत्य के पीछे क्या सूत्र है ? इस पर विचार करता हूँ। नीचे १२ राशियों एवं उनके स्वामी ७ ग्रहों की स्थिति का चक्र है। १२ राशियों के राज्य का राजा सूर्य है, रानी चन्द्रमा है, युवराज बुध है, मंत्री शुक्र है, सेनापति मंगल है, पुरोहित गुरु है तथा सेवक कर्मचारी शनि है। ऊपर से नीचे के समान मनुष्य समाज की यही दशा पूरे विश्व में है। सूर्य पुरुष है, चन्द्रमा स्त्री है। सूर्य आत्मा है, चन्द्रमा मन है। सूर्य सिंह का एवं चन्द्रमा कर्क का स्वामी है। सिंह = ५। कर्क = ४। स्पष्टतः सिंह ५> कर्क ४।५ का अंक ४ के अंक से बड़ा है। अतएव सूर्य बड़ा है चन्द्रमा से इस कारण से, पुरुष बड़ा है स्त्री से। पुरुष >स्त्री ,होने से यह समाज पुरुष प्रधान हुआ। यह प्राकृतिक व्यवस्था है। इसमें कोई सन्देह नहीं ।

√★सप्तम भाव लग्न को अपनी ओर खींचता है। लग्न स्थान सप्तम को आकर्षित करता है। इन दोनों की खींचातानी का फल है मिलन-विवाह, सम्मिलन- सहवास, संसर्ग-सम्भोग, साहचर्य-सहचार सन्निकर्ष-सम्प्रविष्टि, संसेचन- निषेचन स्त्री और पुरुष दोनों एक दूसरे को अपनी ओर खींचते हैं। इन दोनों | के बीच का आकर्षण बढ़ते-बढ़ते मिलन/विवाह का रूप ले लेता है। इस युग्म की एषणा का वर्णन वैदिक ऋषि इस वाक्य द्वारा करता है...

 "जनियन्ति नावग्रवः पुत्रियन्ति सुदानवः। 
   अरिष्टासू सचेवहि वृहते वाजसातये ।।"
           (अथर्ववेद १४/२/७२)

√●जनियन्ति = जन + क्यच् (य) + लट् प्र. पु. बहुवचन । जन नाम धातु है। इसमें इच्छार्थक क्यच् प्रत्यय लगने से जनमिच्छति जनकाम्यति अर्थ होता है। जन् + अच् = जन। जन का अर्थ है- स्त्री वा पुरुष। जनियन्ति का अर्थ-जन की इच्छा करते हैं। अर्थात् स्त्रियाँ पुरुष जनों की कामना करती हैं तथा पुरुष स्त्रीजनों को चाहते हैं। स्त्री के मन में पुरुष प्राप्ति की इच्छा होती है तो पुरुष के हृदय में स्त्री की चाहना ।

 √●पुत्रियन्ति = पुत्र नाम धातु है। पुत्र + क्यच् + लट् प्र.पु. बहुवचन परस्मैयद पुत्र की इच्छा करते हैं। पुत्र का अर्थ पुत्र और पुत्री दोनों होता है। यथा--- "अविशेषेण मिथुनः पुत्रा दायादाः।" (-निरुक्त ३ । १ । ३) यहाँ मिथुनाः पुत्राः द्वारा पुत्र और पुत्री दोनों को पुत्राः कहा गया है। सामान्यतः पुरुष अपने कार्य में सहयोग के लिये पुत्र की इच्छा करता है तथा स्त्री अपने कार्य में हाथ बँटाने हेतु पुत्री की इच्छा करती है। पुत्रियन्ति का अर्थ है - स्त्री और पुरुष दोनों पुत्र-पुत्री की कामना करते हैं। 

√●नौ = आवाम् हम दोनों (पति पत्नी)। →

 अग्रवः = अ(नञ्+) + ग्रवः + अच् = ग्रथः । ग्रथ = ग्रवः (थ→व) । ग्रथ् धातु भ्वादि आत्मने ग्रथते टेढ़ा होना, दुष्ट होना, झुकना अर्थवाली है। अतः प्रथ/ प्रवः का अर्थ हुआ कुटिल, दुष्ट, नीच। नत्र समास होने से, अपव का अर्थ हुआ जो कुटिल नहीं है, दुष्ट नहीं है, नीच नहीं है। अर्थात् सरल, सज्जन श्रेष्ठ / दोनों स्त्री-पुरुष अप्रूव हों, यही भाव इसमें सन्निहित है।

√● सुदानव = सु + दान + वः । दा + ल्युट् दानम्। वा + ड=वः। वः नाम भुजा का है। जो अपने हाथ से दान करता है, देता है, उसे दानव कहते हैं। जो प्रकृष्टता प्रचुरता से दान देता है, उसे सुदानवः कहते हैं। अतः सुदानवः= महादानी।

 √●अरिष्ट = अ + रिष्ट (रिषु हिंसायाम् + क्त) रिष् धातु भ्वा पर रेषति क्षति पहुँचाना, चोट पहुँचाना, ठेस पहुँचाना। रिष्ट= चोट पहुँचाया हुआ, क्षतिग्रस्त, नष्टप्राय, अभागा ।

√●असू = असु का प्रथमा द्विवचन। असु = प्राण स्त्री और पुरुष दोनों के प्राण का नाम असू है।

√●अरिष्टासू = एक दूसरे के प्राणों को क्षति न पहुँचाने वाले, परस्पर की जीवनीशक्ति को क्षीण न करने वाले, दुःखी न करने वाले पति-पत्नी/ दम्पत्ति ।

√● सचेवहि =आत्मनेपद लट् उत्तम पुरुष द्विववचन। परस्पर मित्र भाव से साथ-साथ रहें ।सच् (शच्)+ इन्= सचि। सचि का अर्थ है, मित्र अन्य प्रकार से, सच + इव हि। सच = वाक् =बह्म = मित्र। सचेवहि मित्रवत् होना हि = निश्चय। 

√●बृहते= बृहत् (बृह + अति) शब्द चतुर्थी एक वचन विस्तार के लिये पूर्ण विकास के लिये, महान् होने के लिये, ब्रह्म के लिये।

 वाजसातये = वाजसाति शब्द चतुर्थी एक वचन ।

√● वाज = बलनाम अन्न नाम ।(निघण्टु २।७)

षण् सम्भक्तौ सेवा करना तथा षणु दाने दान करना धातुएँ क्रमशः भ्वादि तनादि गणीय हैं। सनति, सनोति। सन् + क्तिन्= सति ।सति + अण् स्वार्थे =साति। वाज + साति = वाजसाति। सति का अर्थ है- दान, उपहार, अन्त (पराकाष्ठा)। इस प्रकार, वाजसाति = बल की पराकाष्ठा / अत्यन्त बलशाली होना, अन्न का दान करना / अन्न की अधिकता का होना। गृहस्थ के लिये अन्न और शारीरिक बल दोनों अत्यावश्यक हैं। अन्नवान् बलवान् होना ही वाजसाति है। अन्न होगा तो उसका दान होगा। बल होगा तो दूसरों की सहायता के लिये उसका दान/ प्रयोग/ उपयोग होगा। इस प्रकार से वाजसातये = अन्न एवं बल प्राप्त करने के लिये अथवा अन्न और बल का दान / परहिताय लगाने के लिये ।

 √∆मन्त्रान्वय- नौ अग्रवः सुदानवः जनियन्ति पुत्रियन्ति बृहते वाजसातये अरिष्टासू सचेवहि । 

√■मन्त्रार्थ- हम दोनों सरल सज्जन श्रेष्ठ एवं सुदानी होते हुए एक दूसरे को चाहें एवं सन्तानवान् बनें। अपने पूर्ण विकास के लिये, अन्नवान् बलवान् होने के लिये तथा दूसरों को अन्न एवं बल का उपहार बाँटने के लिये, इसके द्वारा दूसरों की तथा अपनी सेवा करने के लिये एक दूसरे के प्राण/जीवन को क्षति न पहुँचाते हुए, परस्पर प्रीतिपूर्वक रहते हुए मैत्रीपूर्ण संबंध बनाये रखें, बिना झगड़ते हुए साथ-साथ रहें।

 √●दम्पत्ति को क्या इच्छा करनी चाहिये ? यही इस मंत्र का वर्ण्य विषय है। दम्पत्ति की कामना संबंधी एक अन्य मन्त्र द्रष्टव्य है ...

"आ वामगन्त्सुमतिर्वाजिनीवसू न्यश्विना हत्सुकामा अरसत अभूत गोपा मिथुना शुभस्पती प्रिया अर्वम्गे दुर्गा अशीमहि ।। " 
          ( अथर्ववेद १४।२।५ )

[आ वाम् अमन् सुमतिः वाजिनीवसू नि अश्विना हत्सु कामाः अरसत।
 अभूत गोपा मिथुना शुभस्पती प्रियाः अर्यम्णः दुर्यान् अशीमहि ।।] 

√■वाजिनीवसू = उषा और सूर्य ।प्रथमा द्विवचन।

√■वाजिनी= उषो नाम निघण्टु १। ८ वसु = सूर्य प्रमाण के लिये यह मंत्र है...

 "अग्निश्च पृथिवी च वायुश्वान्तरिक्षं च आदित्यश्च
 द्यौश्च चन्द्रमाश्च नक्षत्राणि च एते वसवः ।"
        ( शतपथ बा. १२ । ६ । ३।३)

 ये ८ वसु हैं। आदित्य = सूर्य ।

√● हत्सु= मन, बुद्धि, अहंकार में ।हृद् (पुं) सप्तमी बहुवचन ।

√◆न्यश्विना = नि + + श्वि (भ्वा. पर. श्वयति विकसित होना, बढ़ना, फलना फूलना, समुन्द सेना + ल्युट् + टाप्। श्विना= विकास वृद्धि ।अश्विना= अकारस्य वृद्धि। अकार ब्रह्मवाचक है। इसलिये अश्विना = बस वा विश्व का विकसित रूप । नि उपसर्ग होने से नि + अश्विना= न्यश्विना= पूर्ण विकसित विश्वात्मा, विराट् परमात्मा। यह विराट परमात्मा कृति-पुरुष रूप में सबका माता पिता है। अश्विना माता-पिता। इसमें यह प्रमाण है...
 "यदश्विना पृच्छमानी।"
( अथर्व १४।१ ।१४)

 √●मिथुना = मिथ् (भ्वादि उभय मेथति-ते सहकारी बनना एकत्र मिलना, मैथुन करना, जोड़ा बनाना, प्रहार करना) + वनच् + टाप् स्त्री और पुरुष का युग्म / जोड़ा जो एक दूसरे को सहारा देते, आश्रित करते, चिपकते हैं, वे दोनों एक साथ ही मिथुन / मिथुना है। यथा...
 "मिथुनौ कस्मान् मिनोति: श्रयतिकर्मा, थु इति नामकरणः।"
        (निरुक्त ७।७।२९)

 √●अर्यम्णः = अर्यमन् षष्ठ एक वचन। सूर्य (परमेश्वर) के। जिसकी सबके हृदय में संतत गति है, वह अर्यमन (ऋगती है। सर्वत्र गति होने से सबके के मन के विचार वह जानता है। 

√●दुर्यान् =द्वितीया बहुवचन घरों को। "दुर्याः गृहनाम्।"( निघण्टु ३ । ४)

 √●अशीमहि= अश् भ्वादि आ/ कर्माणि विधिलिङ् उत्तम पुरुष बहुवचन उपभोग करें, रस लें, प्राप्त करें। 

√●अरंसत= रम् रमणे क्रीडायाम् भ्वादि आत्मने लुट्लकार प्रथम पुरुष, बहुवचन। क्रीडा किये। 

√●अभूतम् = भू धातु लुङ्लकार मध्यम पुरुष द्विवचन हुए। 

√●गोपा =गोप्त( गुप् + तृच्) का प्रथमा एकवचन। रक्षक, संधारक, अभिभावक । 

√●आ अगन् = आ + गम् + लुङ् प्रथम पुरुष बहुवचन में आ + अगमन्। अगमन के म का लोप होकर अगन् पद प्रतिष्ठित हुआ है। इसका अर्थ- आयें प्राप्त होएँ।

√● प्रियाः = स्नेह भाजन हो। 

√●शुभस्पती =प्रथमा विभक्ति द्विवचन समस्त शुभों के स्वामी/ रक्षक / पालक ।

√● सुमति = सुन्दर मति, सद्बुद्धि, विवेक ।

√●कामाः= कामनाएँ, इच्छाएँ, अभिलाषाएँ । 

√●वाम् = युष्मद् पष्ठी द्विवचन। युवयोः। तुम दोनों की। 

अन्वय...

 वा वाजिनीवसू शुभस्पती गोपा (गोपौ)

न्यश्विना अभूतम् ।
 मिथुना हत्सु प्रियाः कामाः अरंसत । अर्यम्णः सुमतिः आ अगन् । दुर्यान् अशीमहि। 

√◆अर्थ- तुम दोनों समस्त शुभों के स्वामी, रक्षक, उषा और सूर्य रूप न्यश्विना (प्रकृति-पुरुष /पति-पत्नी/ माता-पिता) हुए हो, पहले से हो, अनादिकाल से हो। हम दोनों स्त्री-पुरुष के मन में, बुद्धि में, अहं में प्रिय लगने वाले सुन्दर विचार विद्यमान रहें। हम प्रिय कामनाओं वाले हों। परमेश्वर सूर्य को श्रेष्ठ मति हमें प्राप्त हो। हम घरों को प्राप्त करें एक दूसरे के घरों हृदयों में हमारा प्रवेश हो परस्पर हार्दिक प्रेम हो।

स्त्री को किस स्थिति में रखकर पुरुष उसके साथ मैथुन क्रिया करे ? इसके उत्तर में वेद कहता है...

 "आ रोहोरुमुप धत्स्व हस्तं परिष्वजस्व जायां सुमनस्यमानः ।
 प्रजां कृण्वाथामिह एमोदमानौ दीध्रं वामायुः सविता कृणोतु ॥" 
      (अथर्ववेद १४।२।३९)

◆आरोह = आ + ह् + लोट् मधु एक वचन। ऊपर चढ़ो, सवारी करो, पकड़ लो।

 ◆उरुम्= (स्त्री) की दोनों जांघों को एक व. = द्विव. ।

 ◆उपयत्स्व = उप + था + आत्मने लोट् मपु. एक वचन रखो, उठाओ, नीचे रखो, निकट रखो, ऊपर डालो, सम्हालो, तकिये के स्थान में रखो।

 ◆हस्तम् = हाथ को (अपने दोनों हाथों को एक व. द्विव. । 

◆परिष्वजस्व =परि + स्वन (भ्वादि) आत्मने लोट् मधु एक वचन आलिंगन करो। 

◆जायाम् = स्त्री को। 

सुमनस्यमानः= प्रसन्नचित्त होकर। सु+मनस् + शानच् ।

√◆  प्रजां कृण्याथाम् = प्रजनन क्रिया करें। प्र + जन + टाप्= प्रजा। प्रजा का अर्थ उत्पादन / जनन है। कृ विकरणार्थक आत्मने विधिलिङ् मपु, द्विवचन कुर्वीयाथाम् =कृण्वायाम्। स्त्री और पुरुष दोनों मिलकर जनन कर्म / प्रजनन क्रिया/संभोग करें।

◆ इह = यहाँ, इस एकान्त स्थान में, इस भोग शय्या पर । 

◆मोदमानौ= दोनों प्रसन्नमन से, स्त्री और पुरुष दोनों प्रहर्षाविष्ट होकर।

 दीर्घम् लम्बी। 

◆ आयुः = जीवनावधि ।

 √●वाम् = तुम दोनों को, युवाम्। युष्मद् शब्द द्वितीया विभक्ति द्विवचन का रूप वाम् / युवाम् है। 

●सविता= सवितृ प्रथमा एक वचन । सर्वोत्पादक परमश्वर/ सूर्य ।

 ●कृणोतु =करे। लोट् प्र.पु. एक वचन कृषि आत्मनेपदी ।

√★ मन्त्रान्वय- सुमन्यमानः जायाम् आ-रोह (तस्याः) उरुम् उप धत्स्व हस्तम् परिष्वजस्व इह मोदमानी प्रजाम् कृण्वाथाम् । सविता वाम् दीर्घ आयुः कृणोतु ।

√★ मन्त्रार्थ - ऋषि, सम्भोगेच्छु पुरुष को सम्भोग की प्रक्रिया समझाता है-प्रसन्नचित्त होकर, स्त्री को नीचे कर उसके ऊपर होओ। उसके बाद उसके जांघों को ऊपर उठाओ। हाथों को आलिंगन में लगाओ। इस संसार में तुम दोनों मुदित मन से मैथुन कर प्रजोत्पत्ति करो। सविता तुम दोनों को दीर्घायु करे।

 √★गर्भाधान की इस विधि में ४ बातें कही गई हैं ...

१. आरोहण । 
२. उपधानन।
 ३. परिष्वञ्जन ।
४. प्रजाकरण / शेपप्रहारण | संसेचन ] |

 √●१. प्रथम क्रम में पुरुष को चाहिये कि वह प्रसन्नचित्त होकर स्त्री पर आरोहण करे। आरोहण की क्रिया में स्त्री नीचे तथा पुरुष उसके ऊपर होता है, किन्तु अपना पूरा भार उस पर नहीं डालता केवल उसे ऊपर से आच्छादित करता/ ढकता है। 

√●२. द्वितीय क्रम में पुरुष स्त्री के नितम्ब प्रदेश को ऊपर उठाता और उसे सम्हाले रहता है। नितम्ब भाग का ऊपर उठा होना गर्भाधान की सुनिश्चितता के लिये अनिवार्य है। इसके लिये यदि स्त्री का जंघा क्षेत्र बृहद् पृथुल एवं भारी हो तो उसके नीचे उपधान ( तकिया) रख लेना चाहिये। अन्यथा, बायें हाथ से काम चल जाये तो उसी को उपधान का रूप (कर्म) देना चाहिये।

√●३. तृतीय क्रम में पुरुष को अपने दोनों बाहुओं वा केवल दाहने बाहु से स्त्री के ऊर्ध्व प्रदेश (पृष्ठ स्कन्ध भाग) को घेर कर आलिंगन / परिष्वजन करना चाहिये। इस क्रिया में स्त्री की परिपूर्णता में स्त्री का वक्ष एवं कुक्षि क्रमशः पुरुष के वक्ष एवं कुद्धि के सन्निकट होता है।

 √●४. चतुर्थ क्रम में पुरुष अपना शेप स्त्री के भग में डाल कर प्रहारण करता है। बार-बार के प्रहारण से वीर्य स्खलन होता है। इससे योनि की सिंचाई सम्पन्न होती है। यही संसेचन है, गर्भाधान है, प्रजाकरण है।

√◆वैदिक ऋषि के अनुसार सन्तानोत्पादन ही संभोग का लक्ष्य है। इसीलिये इस सरल किन्तु अमोद्य मैथुनासन का वर्णन इस मंत्र में किया है। ऐसा करने वालों को (स्त्री और पुरुष दोनों) के लिये ऋषि परम पुरुष परमात्मा से दीर्घायु की प्रार्थना करता है। आगे के मन्त्र में सहवासी, सहभोगी स्त्री और पुरुष दोनों के मंगल की कमाना की गई है ...

"आ वां प्रजां जनपतु प्रजापतिरहोरात्राभ्यां समनकृत्यर्यमा । अदुमंगली पतिलोकमाविशेमं शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे ।” 
    (अथर्ववेद १४ । २ । ४०)

√●काल ही द्विपदा तथा चतुष्पदा नाम से जाना जाता है। द्विपदा दो पैरों वाला। रात और दिन इसके दो पैर हैं। चतुष्पदा = चार पैरों वाला। प्रातः संध्या, मध्यान्ह, सायं संध्या तथा निशीथ (अर्द्धरात्रि) इसके चार पैर हैं। द्विपदे चतुष्पदे पद सम्बोधन एक वचन हैं। द्विपदे = हे रात्रि दिवस नामक दो पैरों वाले काल देवता ।

 ●चतुष्पदे = हे प्रात: सायं, रात्रि-दिवस नामक चार पैरों वाले काल देवता।

●नः = अस्मद् चतुर्थी बहुवचन। हम लोगों के लिये ।यहाँ नः अस्मभ्यम् = पति + पत्नी + देवता । गर्भस्थ शिशु के लिये।

 ●शम् भव = कल्याण हो, शुभ हो, अच्छा हो।

● प्रजापतिः = प्रजानां पतिः । अर्थात् सूर्य ।

 ●अर्यमा= ऋ + यत्+मा+कनिन् =अर्यमन् का प्रथमा एक व. जो चलता है तथा आकाश को मापता है अर्थात् सूर्य हो अर्यमा है। ऋॠ गतौ। मा मिमीते मापने।

●अ-दुर-मंगली= बुरे लक्षणों से रहित, नितान्त शुभ ।

●पतिलोकम् = पति का घर आवासस्थल / आँख / दृष्टि / हृदय / मन । 

●इमम् = इस। 'पतिलोक' का विशेषण है। 

●आ जनयतु = आ + जन् (प्रादुर्भावे) + णिच् + लोट् प्र.पु. एक वचन जन्म दे। प्रजाम्= सन्तान  को।

सम्-अनक्तु = सम् + अन् (जीवने) अदादि गण + लोट् प्र.पु. एक वचन जीवन दे, जीवित किये रखे।

आ-विश = आ + विश् + लोट् मपु. एक वचन प्रवेश कर, स्वामित्व स्थापित कर ।

 वाम् = तुम दोनों के लिये। चतुर्थी ।

√★ मन्त्रार्थ- प्रजापति, तुम दोनों के लिये उत्तम सन्तान को जन्म दे। अर्यमा, रात-दिन द्वारा सम्यक् प्रकार से उसे कान्तियुक्त करे। बुरे लक्षणों राहत तू पति के हृदय में प्रवेश कर अर्थात् पति की स्नेहभाजन बन । रात / चन्द्र एवं दिन / सूर्य रूप दो पैरों वाले कालदेव । हम लोगों का शुभ हो। पुनः रात-दिन, सायं प्रातः रूप चार पैरों वाले कालदेव ! हमारा शुभ हो।

√●वैदिक साहित्य में सर्वत्र सन्तानोत्पादन के लिये विवाह तथा विवाह का उद्देश्य सन्तानोत्पादन कहा गया है सन्तानोत्पत्ति मैथुन धर्म से होती है। मैथुन धर्म का स्वरूप एक दम्पत्ति के लिये कैसा होना चाहिये ? यह भी बताया गया है। इसकी सरल, सहज एवं सशक्त प्रविधि का निदेशन भी किया गया है। स्वानुभव एवं धर्म बुद्धि से मैने इसकी व्याख्या में संक्षिप्तता एवं समग्रता का सूत्र प्रयुक्त किया। गृहस्थ का परम धर्म मैथुन है। दोनों (स्त्री-पुरुष) के बीच मैथुन धर्म का भलीभाँति पालन न करने से दाम्पत्य जीवन में तिक्तता का समावेश होता है। इस तिक्तता से सुख और शान्ति का वृक्ष सूखने लगता है। इसे सूखने से बचाने के लिये उसके मूल में राम नाम का रस डाला जाय। राम नाम अमृत है। यह अवर्ण्य है। मैं इसकी शरण में हूँ, मेरी रसना पर यह सतत विद्यमान रहता है।
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Saturday, 20 July 2024

कन्याओं को भी बालकोंकी तरह अपने माता-पिता व जेष्ठ भ्रातादिको अभिवादन करना शास्त्रसम्मत है।

हां कन्याओंका भी बालकोंकी तरह अपने माता-पिता व जेष्ठ भ्रातादिको अभिवादन करना शास्त्रसम्मत है।

परंतु मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं पश्चिमीउत्तर प्रदेश आदि क्षेत्रोंमें प्रणामादिकी स्थिति शास्त्र सम्मत न होकर उलटी है, देखिए -

1. माता- पिताका — पुत्रीको प्रणाम करना।
 
2. बड़ेभाईका — छोटी बहनको प्रणाम करना।

3. मामाका — भांजेको प्रणाम करना ।

4. सास - ससुरका — दामादको प्रणाम करना।

*जबकि शास्त्रकी सम्मति इसके बिल्कुल विपरीत है।*

*#शास्त्रसम्मत_देखिए* -

1. पुत्रीको ही माता-पिताको प्रणाम करना चाहिए।

2. छोटी बहनको ही बड़े भाईके लिए प्रणाम करना उचित है। 

3. भांजेका मामाको प्रणाम करना ही शास्त्र सम्मत है।

4. दामादके द्वारा सास-ससुर वंदनीय हैं।

*#प्रमाण*-

*3अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः*
*चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्या यशो बलम्।।*
                             (#मनुस्मृति- 2/121)

अपनेसे बड़ोंको प्रणाम/ अभिवादन करना चाहिए, यह जो सर्व सामान्य विधि है वह सभीके लिए है, चाहे वह बालिका /स्त्री हो या बालक/पुरुष, सभीको अपनेसे जेष्ठोंको वृद्धोंको नित्य अभिवादन करना चाहिए।

  वृद्ध/ ज्येष्ठ व्यक्तिके आने पर, यदि छोटे लोग खड़े होकरके अभिवादन नहीं करते,  तो छोटोंके प्राण ऊपर उठने लगते हैं। यदि वे उठकर प्रणाम कर लेते हैं, तो प्राण पुनः वास्तविक स्थितिमें आजाते हैं-

*ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्कामन्ति यूनः स्थविर आयति।*
*प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते* 
(मनुस्मृति 2/120, महाभारत उद्योग.38/1, महाभारत अनुशा. 104/ 65)

यह विधि भी सर्व सामान्य होनेसे स्त्री, कन्या और बालक, पुरुष सभीके ऊपर समान रूपसे लागू होती है।

*#विधिरत्यन्तमप्राप्तौ*

*#विशेष*-
धर्मशास्त्रोंका नियम है कि पहले सर्व सामान्य विधि कहते हैं ,और सामान्य लोगोंसे विशेष लोगोंको यदि पृथक करना हो तो सामान्य विधिका फिर निषेध वचन देते हैं , और निषेधोंमें से भी  फिर दोबारा  किसी समय विशेषमें या व्यक्ति विशेषके लिए छूट देनी हो तो, फिर प्रतिप्रसववचन (निषेधका निषेध अर्थात् विधि) वचन फिर देते हैं।

तो यहां प्रकृत प्रसंगमें कन्या(बेटी), भांजा, छोटी बहन और दामादादिके लिए अलगसे कोई निषेध वचन या प्रतिप्रसव वचन धर्मशास्त्रोंमें  उपलब्ध नहीं होते, इस दृष्टिसे इन सभीके ऊपर भी सामान्य विधि ही लागू होती है, अर्थात् इन्हें भी अपने जेष्ठोंको, वृद्धों  (माता-पिता, बड़े भाई, मामा और सासु- ससुरादि) को प्रणाम /अभिवादन करना ही  चाहिए ,यह शास्त्रोंसे सिद्ध है।

*मातरं पितरं चोभौ दृष्ट्वा पुत्रस्तु धर्मवित्।*
*प्रणम्य मातरं पश्चात् प्रणमेत् पितरं ततः।।*

 इति स्मृतिवर्णनात् पुत्रपदस्य कोषे तथा व्याकरणे कन्यापुत्रयोः युगपद् बोधनात् कन्यापि पितरौ प्रणमेत्।
 किन्तु  काश्यपादिस्मृतिषु रजस्वलास्पर्शनार्हत्वात् स्पर्शे च प्रायश्चित्तविधानात् रजस्वलायाः दैवादिकार्ये अनधिकारदर्शनात्
 रजस्वला कन्या पितरौ चरणं स्पृष्ट्वा न नमेत् उत दूरात् एव अभिवादयेत्।

*#शङ्का* -
1 कन्याओंको तो भगवतीका स्वरूप बताया गया है फिर हम उनसे कैसे प्रणाम करा सकते हैं।
*अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी।*
इत्यादि वचन भी हैं।

2 फिर हमारे क्षेत्रोंमें यह उल्टी परंपरा कैसे बन गई?

*#समाधान*-

1 *अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी।*
इत्यादि जो बचन हैं बे वचन नवरात्रादिमें कन्या पूजनके महत्वको और शीघ्रविवाह करनेके महत्वको दर्शाते हैं।

 ये अभिवादनके व्यावर्तक वचन नहीं है अर्थात् यह नियम यहां लागू नहीं होता।

2 धर्म शास्त्रोंने पुत्री, छोटी बहन ,भांजा और दामाद के पूजन और अभिवादन की छूट समय विशेष पर ही दी गई है ।
 कुछ क्षेत्रोंमें उसीका अतिदेश करके इस नियमको सार्वकालिक / हरसमयमें नित्य लागू कर दिया है, वस यहीं चूक हुई है -
*#जैसे*-

1. *#पुत्री_व_छोटीबहन*-
 कन्यापूजनके समय और कन्यादानके समय अपनी पुत्री अथवा अपनी छोटी बहनका भी पूजन, अभिवादन करनेका शास्त्र निर्देश करते हैं, सर्वदा नहीं।
परंतु इसी नियमका आतिदेश करके लोगोंने हर समय पर लागू कर दिया ।

2. *#भागिनेय(भांजा)* -
श्राद्धमें भांजेको निमंत्रित करना उत्तम बताया गया है। श्राद्धमें आए हुए सभी ब्राह्मणोंका भले ही वह भांजा ही क्यों ना हो उसका भी पूजन, अभिवादन करनेका शास्त्र विधान करते हैं, नित्य करनेका नहीं ।
यही नियम नित्य लागू कर दिया जो कि गलत है ।

क्योंकि श्राद्धमें तो लिखा हुआ है गुरु भी अपने योग्य शिष्यको निमंत्रित कर सकता है ।
निमंत्रित शिष्यको भी गुरु पादप्रक्षालन करके और अभिवादन पूजन करें यह श्राद्धकी विधि है ,यदि गुरु नित्य शिष्यको प्रणाम करने लग जाए तो कितना उल्टा हो जाएगा इस बातसे आप विचार कर सकते हैं।

3. *#जामाता_दामाद*-
द्वार पर आए हुए विष्णुस्वरूप वरका कन्याके माता- पिता अभिवादन और मधुपर्कविधिसे पूजन पूर्वक स्वागत सत्कार करें, ऐसा शास्त्र वचन है। नित्य नहीं। 
क्योंकि शास्त्रोंमें 5 माताएं बताईं गईं हैं उनमें सासको भी माता बताया गया है।

*राजपत्नी गुरुपत्नी मित्रपत्नी तथैव च।*
*पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चमाता च संस्मृताः।।*
                                    (#चाणक्यनीति)

उपर्युक्त शास्त्रीय लेखपर विद्वज्जन और विचार करें—

*#निवेदक*-
आचार्य राजेश राजौरिया वैदिक
पं.श्रीराजवंशी द्विवेदी वेदवेदाङ्ग विद्यालय वृन्दावन। 
नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव!!!!!!!!!!!!

यज्ञ क्या है

यज्ञ प्रेमियों के लिए यज्ञ के उत्कृष्ट सूक्तियां प्रस्तुत है ।

१. यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म ।। ( शतपथ ब्राह्मण )
यज्ञ दुनिया का सर्वश्रेष्ठ कर्म है ।

२. यज्ञो वै कल्पवृक्षः ।।
यज्ञ कामनाओं को पूर्ण करनेवाला है ।

३. ईजानाः स्वर्गं यन्ति लोकम् ।। ( अथर्ववेद १८.४.२)
यज्ञकर्त्ता स्वर्ग ( सुख ) को प्राप्त करते है ।

४. अग्निहोत्रं जुहूयात् स्वर्गकामः ।।
स्वर्ग की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति यज्ञ करें ।

५. होतृषदनम् हरितम् हिरण्यम् ।।
यज्ञ वाले घर धन - धान्य से पूर्ण होता है ।

६. यज्ञात् भवति पर्जन्यः ।।
यज्ञ से वर्षा होती है ।

७. इयं ते यज्ञियाः तनू ।।
ये तेरा शरीर यज्ञादि शुभ कर्मों के लिए है ।

८ . स्वर्ग कामो यजेत् , पुत्र कामो यजेत् ।।
स्वर्ग और पुत्र की कामना करनेवाले व्यक्ति यज्ञ करें ।

९. यज्ञं जनयन्त सूरयः ।। ( ऋग्वेद १०.६६.२)
हे विद्वान् ! संसार में यज्ञ का प्रचार करो ।

१०. यज्ञो वै देवानामात्मा ।। ( शतपथ ०)
यज्ञ देवताओं की आत्मा है ।

११. यज्ञेन दुष्यन्तो मित्राः भवन्ति ।। ( तै ० उप० )
यज्ञ करने वाले व्यक्ति के शत्रु भी मित्र बन जाते है ।

१२ . प्राचं यज्ञं प्रणयता सखायः ।। ( ऋग्वेद १०.१०१.२ )

 १३. अयज्वानः सनका प्रेतमीयुः ( ऋग्वेद १.३३.४)
यज्ञ न करनेवाले  उन्मत्त का सर्वनाश हो जाता है ।

१४. न मर्धन्ति स्वतवसो हविष्कृतम् ।। ( ऋग्वेद १. १६६ .२)
याज्ञिक को महाबली भी नहीं मार सकता ।

१५. सजोषसो यज्ञमवन्तु देवाः ।। ( ऋग्वेद ३.८.८)
विद्वान् परस्पर प्रीतिपूर्वक यज्ञ  की रक्षा करें ।

१७. यज्ञस्य प्राविता भव ।। ( ऋग्वेद ३.२१.३)
तू यज्ञ का रक्षक बन ।

१८. यज्ञो हित इन्द्र वर्धनो भूत् ।। ( ऋग्वेद ३.३२.१२)
हे जीव ! यज्ञ ही तुझे बढ़ानेवाला है ।

१९. यज्ञस्ते वज्रमहिहत्य आवत् ।। ( ऋग्वेद ३.३२.१२)
यज्ञरूपी वज्र पाप नाश में सफलता दिलाता है ।

२०. अयज्ञियो हतवर्चा भवति ।। ( अथर्ववेद १२.२.३७)
यज्ञ न करनेवाला का तेज नष्ट हो जाता है ।

२१. यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः ।। ( अथर्ववेद ९.१०.१४)
यज्ञ विश्व व ब्रह्माण्ड का केन्द्र है ।

२२.  ईच्छन्ति देवाः सुन्वन्तम् ।। ( ऋग्वेद ८.२.१८)
यज्ञकर्त्ता को देवगण भी चाहते है ।

२३. अतमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात् ।। ( यजुर्वेद १.२३)
हे ईश्वर ! यजमान की संतान संतापरहित हो ।

२४. स यज्ञेन वनवद् देव मर्तान् ।। ( ऋग्वेद ५.३.५)
प्रभु यज्ञकर्त्ता मनुष्य को देव बनाकर शक्तियुक्त कर देता है ।

२५. विश्वायुर्धेधि यजथाय देव ।। ( ऋग्वेद १०.७.१)
हे देव ! हमें सम्पूर्ण आयु यज्ञ के लिए दो ।

२६. यजस्व वीर ।। ( ऋग्वेद २.२६.२)
हे वीर ! तू यज्ञ कर ।