Monday, 28 August 2017

श्रीरामचरितमानस में संस्कृत में प्रयुक्त छन्द मानस में कुल मिलाकर ४७ संस्कृत के श्लोक हैं

श्रीरामचरितमानस में संस्कृत में प्रयुक्त छन्द मानस में कुल मिलाकर ४७ संस्कृत के श्लोक हैं

जिनके छन्द इस प्रकार हैं –

१. अनुष्टुप् यह मानस का पहला छन्द है। वाल्मीकि रामायण मुख्यतः इसी छन्द में लिखी हुई है। इसे श्लोक भी कहते हैं। यह छन्द न पूर्णतयः मात्रिक है, न ही पूर्णतयः वार्णिक। इसमें चार चरण होते हैं। हर चरण में आठ वर्ण होते हैं – पर मात्राएँ सबमें भिन्न भिन्न। प्रत्येक चरण में पाँचवा वर्ण लघु और छठा वर्ण गुरु होता है। पहले और तीसरे चरण में सातवाँ वर्ण गुरु होता है, और दूसरे और चौथे में सातवाँ वर्ण लघु होता है।प्रत्येक चरण के बाद यति होती है। मानस में ७ अनुष्टुप् छन्द हैं –

पाँच बालकाण्ड के प्रारंभ में

(मङ्गलाचरण श्लोक १ से ५), एक युद्धकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण श्लोक ३) और एक उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टकम् के अन्त में (७.१०८.९)। उदाहरण – मानस का पहला छन्द (१.१.१) – वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि । मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ २. शार्दूलविक्रीडित इस मनोरम छन्द में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १९ वर्ण होते हैं। १२ वर्णों के पश्चात् तथा चरण के अन्त में यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – म स ज स त त ग। मानस में यह छन्द सभी काण्डों में प्रयुक्त है (दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका भी सभी काण्डों में प्रयुक्त हैं )। मानस में १० शार्दूलविक्रीडित छन्द हैं – बालकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य ६), अयोध्याकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १), सुन्दरकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १) और युद्धकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य २) के प्रारम्भ में एक-एक, अरण्यकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १ और २) और किष्किन्धाकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १ और २) के प्रारम्भ में दो-दो, और उत्तरकाण्ड के (और मानस के) अन्तिम दो पद्य (७.१३१.१, ७.१३१.२)। उदाहरण – मानस का अन्तिम पद्य (७.१३१.२) – पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् । श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ ३. वसन्ततिलका इसे उद्धर्षिणी या सिंहोन्नता भी कहते हैं। यह बड़ा ही मधुर छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १४ वर्ण होते हैं, ८ वर्णों के बाद यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – त-भ-ज-ज-ग-ग। “उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः”। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है – १) बालकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य ७) नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि । स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥ २) सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य २) नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा । भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ ४. वंशस्थ इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है – ज त ज र। प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में केवल एक वंशस्थ छन्द का प्रयोग है अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य २) – प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदुःखतः । मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदाऽस्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा ॥ ५. उपजाति इन्द्रवज्रा (चार चरण, ११ वर्ण – त त ज ग ग) और उपेन्द्रवज्रा (चार चरण, ११ वर्ण – ज त ज ग ग) के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं। साधारणतः उपजाति छन्द संस्कृत के काव्यों में सबसे अधिक प्रयुक्त होता है, परन्तु मानस में यह एक ही स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। अयोध्याकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण पद्य ३) – नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् । पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥ ६. प्रमाणिका इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ८-८ वर्ण होते हैं। चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है। गणों में लिखे तो ज-र-ल-ग। मानस में १३ प्रमाणिकाएँ हैं। अरण्यकाण्ड में अत्रि मुनि कृत स्तुति (३.४.१ से ३.४.१२) में १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त हैं जिनमें से प्रथम है – नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम् । भजामि ते पदाम्बुजम् अकामिनां स्वधामदम् ॥ गुरुदेव के अनुसार १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त होने का कारण है कि प्रभु राम ने १२ वर्षों तक चित्रकूट में निवास किया था। उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद में एक प्रमाणिका है, छन्द संख्या ७.१२२(ग) – विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे । हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ ७. मालिनी इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में पन्द्रह (१५) वर्ण होते हैं – दो नगण, एक मगण और दो यगण ( न-न-म-य-य ) होते हैं। आठवे वर्ण पर और चरण के अंत में यति होती है। मानस में केवल एक मालिनी छन्द है जो सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में हनुमान जी की स्तुति में आता है (मङ्गलाचरण पद्य ३) – अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌ । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥ ८. स्रग्धरा स्रग्धरा मानस में प्रयुक्त संस्कृत छन्दों में सबसे लम्बा है। इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में वर्ण २१ होते हैं, और ७-७-७ के क्रम से यति। गणों का क्रम इस प्रकार है – म-र-भ-न-य-य-य। तदनुसार लघु(।)-गुरु(ऽ) का क्रम इस प्रकार है – ऽऽऽऽ।ऽऽ (यति) ।।।।।।ऽ (यति) ऽ।ऽऽ।ऽऽ (यति)। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है – १) युद्धकाण्ड का पहला पद्य (मङ्गलाचरण पद्य १) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ २) उत्तरकाण्ड का पहला छन्द (मङ्गलाचरण पद्य १) केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम् । पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥ ९. रथोद्धता इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ११-११ वर्ण होते हैं। गणों का क्रम है र-न-र-ल-ग। हर चरण में तीसरे/चौथे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में उत्तरकाण्ड के प्रारंभ में दो रथोद्धता छन्द हैं (मङ्गलाचरण पद्य २ और ३) – कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ॥ कुन्द इन्दुदरगौरसुन्दरम् अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम् । कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥ गुरुवचन के अनुसार उपरिलिखित दूसरे पद्य के प्रारंभ में “कुन्दः मन्दबुद्धिः इन्दुदरगौरसुन्दरम्” विग्रह समझना चाहिए। कुन्दः अहम् तुलासीदासः शंकरं नौमि इति। सन्धि के कारण कुन्दः के विसर्ग का लोप हो गया है। १०. भुजङ्गप्रयात इसके चार चरण होते हैं। हर चरण में चार यगण होते हैं (य-य-य-य)। उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टक (७.१०८.१-७.१०८.८) में ब्राह्मण द्वारा की गयी शिवजी की स्तुति में आठ भुजङ्गप्रयात छन्दों का प्रयोग है, जिनमें से प्रथम है – नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्‌ । निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

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