Monday, 28 August 2017

डोल ग्यारस के उपलक्ष मे एक और कथा कही जाती हैं : इस दिन भगवान कृष्ण के बाल रूप का जलवा पूजन किया गया था अर्थात सूरज पूजा. इस दिन माता यशोदा ने अपने कृष्ण को सूरज देवता के दर्शन करवाकर उन्हें नये कपड़े पहनायें एवं उन्हें शुद्ध कर धार्मिक कार्यो में सम्मिलित किया.इस प्रकार इसे डोल ग्यारस भी कहा जाता हैं.

डोल ग्यारस के उपलक्ष मे एक और कथा कही जाती हैं :

इस दिन भगवान कृष्ण के बाल रूप का जलवा पूजन किया गया था अर्थात सूरज पूजा. इस दिन माता यशोदा ने अपने कृष्ण को सूरज देवता के दर्शन करवाकर उन्हें नये कपड़े पहनायें एवं उन्हें शुद्ध कर धार्मिक कार्यो में सम्मिलित किया.इस प्रकार इसे डोल ग्यारस भी कहा जाता हैं.

इस दिन भगवान कृष्ण के आगमन के कारण गोकुल में जश्न हुआ था. उसी प्रकार आज तक इस दिन मेले एवम झांकियों का आयोजन किया जाता हैं. माता यशोदा की गोद भरी जाती हैं. कृष्ण भगवान को डोले में बैठाकर झाँकियाँ सजाई जाती हैं. कई स्थानो पर मेले एवम नाट्य नाटिका का आयोजन भी किया जाता ह

ग्यारस हिन्दू धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। इस दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं, इसीलिए यह 'परिवर्तनी एकादशी' भी कही जाती है। इसके अतिरिक्त यह एकादशी 'पद्मा एकादशी' और 'जलझूलनी एकादशी' के नाम से भी जानी जाती है। इस तिथि को व्रत करने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।

श्रीरामचरितमानस में प्राकृत (अवधी) में प्रयुक्त छन्द ११. सोरठा (सौराष्ट्र) यह मानस में प्राकृत में पहला छन्द है। यह मात्रिक छन्द है।

श्रीरामचरितमानस में प्राकृत (अवधी) में प्रयुक्त छन्द ११. सोरठा (सौराष्ट्र) यह मानस में प्राकृत में पहला छन्द है। यह मात्रिक छन्द है।

इसमें चार चरणों में ११-१३ ११-१३ मात्राएँ होती हैं। हर चरण के अन्त में यति होती है।

पहले और तीसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है।

११ मात्राएँ ६-४-१ और १३ मात्राएँ को ६-४-३ में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है। हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है।

उदाहरणतः देखें बालकाण्ड के मङ्गलाचरण का आठवाँ पद्य –

जेहि सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन । करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन ॥

दोहा में १३-११ १३-११ का क्रम रहता है और तुक दूसरे और चौथे चरण में बनता है – बाकी सब सोरठे जैसा ही है।

वैसे यहाँ भी दूसरे और चौथे चरण में तुक है लेकिन यह दोहा नहीं है क्योंकि बदन और सदन में तुक में गुरु-लघु का क्रम नहीं है,

और दूसरे पंक्ति में १३ मात्राओं के बाद यति (शब्द का अंत) नहीं है, “करउ अनुग्रह सोइ” में “बुद्धि” जोड़ने से ११ से सीधे १४ मात्राएँ हो जायेंगी और क्रम १४-१० हो जायेगा।

मानस में ८७ सोरठे हैं

– बालकाण्ड में ३६,
अयोध्याकाण्ड में १३ (हर पच्चीसवे चौपाई समूह के बाद – २.२५, २.५०, २.७५, २.१००, २.१२६, २.१५१,इत्यादि),

अरण्यकाण्ड में ८,

किष्किन्धाकाण्ड में ३,
सुन्दरकाण्ड में १,
युद्धकाण्ड में ९
और उत्तरकाण्ड में १७।

१२. चौपाई इस मात्रिक छन्द के दो चरण होते हैं, प्रत्येक में १६-१६ मात्राएँ होती हैं।

हर चरण में ८ मात्राओं के बाद यति होती है। केवल एक चरण हों तो उसे अर्धाली कहते हैं। यह मानस का प्रमुख छन्द है।

प्रथम और द्वितीय चरण के अन्त में तुक होता है। उदाहरण

(५.४०.६)- जहाँ सुमति तहँ संपति नाना ।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ॥

हनुमान चालीसा में भी यही छंद है,

और वहाँ ४० चौपाइयाँ हैं।

मानस में कुल ९३८८ चौपाइयाँ हैं,

जिनकी उपमा इस अर्धाली (१.३७.४) में गोस्वामी जी ने मानससरोवर के घने कमल के पत्तों से दी है – पुरइनि सघन चारु चौपाई ।

१३. दोहा (द्विपाद) यह भी एक मात्रिक छंद है। इसमें चार चरणों में १३-११ १३-११ मात्राएं होती हैं। हर चरण के अन्त में यति होती है। दूसरे और चौथे चरण के अन्त में तुक होता है, और तुक में गुरु-लघु का क्रम रहता है। १३ मात्राएँ ६-४-३ और ११ मात्राएँ को ६-४-१ में विभाजित होती हैं, परन्तु इस विभाजन में यति या शब्द सीमा का कोई नियम नहीं है। हर चरण के अन्त पर शब्द सीमा होती है।

उदाहरण

(१.१) – जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान । कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान ॥

श्रीरामचरितमानस में ११७२ दोहे हैं

– जिनमें बालकाण्ड में ३५९,
अयोध्याकाण्ड में ३१४,
अरण्यकाण्ड में ५१,
किष्किन्धाकाण्ड में ३१,
सुन्दरकाण्ड में ६२,
युद्धकाण्ड में १४८
और उत्तरकाण्ड में २०७ दोहे सम्मिलित हैं।

१४. हरिगीतिका यदि मानस कि चौपाइयाँ के पत्ते हैं और दोहा सोरठा आदि अन्य छन्द बहुरंगी कमल हैं, तो निश्चित रूप से हरिगीतिका उत्तुङ्ग शिखरों पे दीखने वाला “ब्रह्मकमल” है।

यह छन्द गाने में अत्यन्त मनोहर है, और इसमें गोस्वामीजी के भाव ऐसे निखर के सामने आते हैं कि इस छन्द की शोभा सुनते ही बनती है। इसमें चार चरण होते हैं।

प्रत्येक चरण में २८ मात्राएँ होती हैं, जोकि ७-७-७-७ (२-२-१-२, २-२-१-२, २-२-१-२, २-२-१-२) के क्रम से होती हैं।

प्रत्येक सातवीं मात्रा के बाद यति होती है। पहले और दूसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है।
तुक में क्रम लघु-गुरु होता है।

मानस में हरिगीतिका चौपाइयों और दोहा/सोरठा के बीच आता है।

और इसके प्रारम्भ के २-३ शब्द प्रायः इसके पहले की चौपाई के अंत के २-३ शब्द अथवा उन शब्दों के पर्याय होते है।

ध्यान देने योग्य है कि शिव विवाह में ११ स्थानों पर (१ सोरठा

और १० दोहों के पहले) और राम विवाह में १२ स्थानों पर (१२ दोहों के पहले) हरिगीतिका छन्द है

– स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती के अनुसार इसका कारण है कि रुद्र (शिव) ११ हैं और आदित्य (विष्णु) १२ हैं।

उदाहरण

(५.३५.११) – चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल पावक खरभरे ।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे । कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं । जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं ॥

मानस में केवल पाँच छन्द हैं जो प्रत्येक काण्ड में हैं –

चौपाई,
दोहा,
हरिगीतिका,
सोरठा
और शार्दूलविक्रीडित।
हरिगीतिकाओं की सङ्ख्या १३९ है –

बालकाण्ड में ४७,
अयोध्याकाण्ड में १३,
अरण्यकाण्ड में १४,
किष्किन्धाकाण्ड में ३,
सुन्दरकाण्ड में ६,
युद्धकाण्ड में ३८
और उत्तरकाण्ड में १८।
१५. चौपैया चार चरण, हर चरण में ३० मात्राएँ (१०-८-१२) , १० और १८ मात्राओं के बाद यति, हर चरण के अंत में गुरु। पहले और दूसरे चरणों के अन्त में तुक, तीसरे और चौथे चरणों के अंत में तुक। और साथ ही हर चरण के अन्दर १० और १८ मात्राओं के अन्त पे भी तुक।
ध्यान रहे – त्रिभङ्गी में १०-८-१४ मात्राओं का क्रम है, और यहाँ १०-८-१२। मानसजी में बालकाण्ड में १० चौपैया छन्दों का प्रयोग है – १.१८३.९, १.१८४.९, १.१८६.१ से १.१८६.४, १.१९२.१ से १.१९२.४। इनमें देवताओं द्वारा श्रीरामचन्द्र की स्तुति (१.१८६.१ से १.१८६.४,) और श्रीराम का आविर्भाव (१.१९२.१ से १.१९२.४) तो मानस प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय हैं।

उदाहरण –

१) देवताओं की स्तुति

(१.१८६.१) जय जय सुरनायक (१०) + जन सुखदायक (८) + प्रनतपाल भगवंता (१२) = ३० । गो द्विज हितकारी (१०) + जय असुरारी (८) + सिंधुसुता प्रिय कंता (१२) = ३० । पालन सुर धरनी (१०) अद्भुत करनी (८) मरम न जानई कोई (१२) = ३० । जो सहज कृपाला (१०) + दीनदयाला (८) करउ + अनुग्रह सोई (१२) = ३० ॥ २) श्रीराम जी का आविर्भाव (१.१९२.१) भए प्रगट कृपाला (१०) + दीनदयाला (८) + कौसल्या हितकारी (१२) = ३० । हरषित महतारी (१०) + मुनि मन हारी (८) + अद्भुत रूप निहारी (१२) = ३० । लोचन अभिरामा (१०) + तनु घनश्यामा (8) + निज आयुध भुज चारी (१२) = ३० । भूषन बनमाला (१०) + नयन बिशाला (८) शोभासिन्धु खरारी (१२) = ३० ॥ १६. त्रिभङ्गी त्रिभङ्गी के एक चरण में ३२ मात्राएँ होती हैं। इसमें एक चरण के अन्दर भी तुक होता है और चरणों के बीच मैं भी। प्रथम और द्वितीय चरणों में, और तृतीय और चतुर्थ चरणों में तुक होता है – और हर चरण का अन्तिम वर्ण गुरु होता है। ३२ मात्राएँ १०-८-१४ में विभाजित हैं, १० और ८ के बीच यति है, और ८ और १४ के बीच यति है। साथ में १० मात्राओं के अन्तिम वर्ण और ८ मात्राओं के अन्तिम वर्ण में भी तुक बनता है। ऐसे त्रिभंगी को १०-८-८-६ में भी बाँटते हैं, पर मानस में सर्वत्र अन्तिम ८ और ६ के बीच यति न होने के कारण १०-८-१४ का क्रम दिया गया है।

मानस में बालकाण्ड में अहल्योद्धार के प्रकरण में चार (४) त्रिभङ्गी छन्द प्रयुक्त हुए हैं –

१.२११.१ से १.२११.४। गुरुवचन के अनुसार इसका कारण है कि अपने चरण से अहल्या माता को छूकर प्रभु श्रीराम ने अहल्या के पाप, ताप और शाप को भङ्ग (समाप्त) किया, अतः गोस्वामी जी की वाणी में सरस्वतीजी ने त्रिभङ्गी छन्द को प्रकट किया।

उदाहरण

(१.२११.१) – परसत पद पावन (१०) + शोक नसावन (८) + प्रगट भई तपपुंज सही (१४) = ३२ । देखत रघुनायक (१०) + जन सुखदायक (८) + सनमुख होइ कर जोरि रही (१४) = ३२ । अति प्रेम अधीरा (१०) + पुलक शरीरा (८) + मुख नहिं आवइ बचन कही (१४) = ३२ । अतिशय बड़भागी (१०) + चरनन लागी (८) + जुगल नयन जलधार बही (१४) = ३२ ॥ १७. तोमर तोमर एक मात्रिक छन्द है जिसके प्रत्येक चरण में १२ मात्राएँ होती हैं।

पहले और दुसरे चरण के अन्त में तुक होता है, और तीसरे और चौथे चरण के अन्त में भी तुक होता है। मानस में तीन स्थानों पर आठ-आठ (कुल २४) तोमर छन्दों का प्रयोग है।

ये तीन स्थान हैं – १) अरण्यकाण्ड में खर, दूषण, त्रिशिरा और १४००० राक्षसों की सेना के साथ प्रभु श्रीराम का युद्ध (३.२०.१ से ३.२०.८) तब चले बान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल । कोपेउ समर श्रीराम । चले बिशिख निशित निकाम ॥

२) युद्धकाण्ड में रावण का मायायुद्ध (६.१०१.१ से ६.१०१.८) जब कीन्ह तेहिं पाषंड । भए प्रगट जंतु प्रचंड । बेताल भूत पिशाच । कर धरें धनु नाराच ॥

३) युद्धकाण्ड में वेदवतीजी के अग्निप्रवेश और सीताजी के अग्नि से पुनरागमन के पश्चात् इन्द्रदेव द्वारा राघवजी की स्तुति (६.११३.१ से ६.११३.८) जय राम शोभा धाम । दायक प्रनत बिश्राम । धृत तूण बर शर चाप । भुजदंड प्रबल प्रताप ॥ १८. तोटक तोटक में चार चरण होते हैं। हर चरण में १२-१२ वर्ण होते हैं और सारे छंद में केवल “सगण” (लघु-लघु-गुरु अथवा ॥ऽ) का क्रम रहता है (“वद तोटकमब्धिसकारयुतम्” )। प्रत्येक चरण में ४ सगण होते हैं। मानस जी में ३१ तोटक छन्द हैं जो कि इन स्थानों पर हैं –

१. युद्धकाण्ड में रावण वध के बाद ब्रह्माजी कृत राघवस्तुति में ग्यारह छन्द (६.१११.१ से ६.१११.११) – जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे । भव बारन दारन सिंह प्रभो । गुन सागर नागर नाथ बिभो ॥

२. उत्तरकाण्ड में वेदों द्वारा की गयी स्तुति में दस छन्द (७.१४.१ से ७.१४.१०) जय राम रमा रमणं शमनम् । भवताप भयाकुल पाहि जनम् । अवधेश सुरेश रमेश बिभो । शरणागत माँगत पाहि प्रभो ॥

३. उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि जी के पूर्वजन्म की कथा में विकराल कलियुग वर्णन के प्रकरण में दस छन्द (७.१०१.१ से ७.१०१.५, और ७.१०२.१ से ७.१०२.५) – बहु दाम सँवारहिं धाम जती । विषया हरी लीन्ह गई बिरती । तपसी धनवंत दरिद्र गृही । कलि कौतुक तात न जात कही ॥

श्रीरामचरितमानस में संस्कृत में प्रयुक्त छन्द मानस में कुल मिलाकर ४७ संस्कृत के श्लोक हैं

श्रीरामचरितमानस में संस्कृत में प्रयुक्त छन्द मानस में कुल मिलाकर ४७ संस्कृत के श्लोक हैं

जिनके छन्द इस प्रकार हैं –

१. अनुष्टुप् यह मानस का पहला छन्द है। वाल्मीकि रामायण मुख्यतः इसी छन्द में लिखी हुई है। इसे श्लोक भी कहते हैं। यह छन्द न पूर्णतयः मात्रिक है, न ही पूर्णतयः वार्णिक। इसमें चार चरण होते हैं। हर चरण में आठ वर्ण होते हैं – पर मात्राएँ सबमें भिन्न भिन्न। प्रत्येक चरण में पाँचवा वर्ण लघु और छठा वर्ण गुरु होता है। पहले और तीसरे चरण में सातवाँ वर्ण गुरु होता है, और दूसरे और चौथे में सातवाँ वर्ण लघु होता है।प्रत्येक चरण के बाद यति होती है। मानस में ७ अनुष्टुप् छन्द हैं –

पाँच बालकाण्ड के प्रारंभ में

(मङ्गलाचरण श्लोक १ से ५), एक युद्धकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण श्लोक ३) और एक उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टकम् के अन्त में (७.१०८.९)। उदाहरण – मानस का पहला छन्द (१.१.१) – वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि । मङ्गलानां च कर्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ ॥ २. शार्दूलविक्रीडित इस मनोरम छन्द में चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १९ वर्ण होते हैं। १२ वर्णों के पश्चात् तथा चरण के अन्त में यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – म स ज स त त ग। मानस में यह छन्द सभी काण्डों में प्रयुक्त है (दोहा, सोरठा, चौपाई और हरिगीतिका भी सभी काण्डों में प्रयुक्त हैं )। मानस में १० शार्दूलविक्रीडित छन्द हैं – बालकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य ६), अयोध्याकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १), सुन्दरकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १) और युद्धकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य २) के प्रारम्भ में एक-एक, अरण्यकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १ और २) और किष्किन्धाकाण्ड (मङ्गलाचरण पद्य १ और २) के प्रारम्भ में दो-दो, और उत्तरकाण्ड के (और मानस के) अन्तिम दो पद्य (७.१३१.१, ७.१३१.२)। उदाहरण – मानस का अन्तिम पद्य (७.१३१.२) – पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम् । श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः ॥ ३. वसन्ततिलका इसे उद्धर्षिणी या सिंहोन्नता भी कहते हैं। यह बड़ा ही मधुर छन्द है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १४ वर्ण होते हैं, ८ वर्णों के बाद यति होती है। गणों का क्रम इस प्रकार है – त-भ-ज-ज-ग-ग। “उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः”। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है – १) बालकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य ७) नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि । स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथाभाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति ॥ २) सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य २) नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा । भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां में कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥ ४. वंशस्थ इसे वंशस्थविल अथवा वंशस्तनित भी कहते हैं । इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में १२ वर्ण होते हैं और गणों का क्रम होता है – ज त ज र। प्रत्येक चरण में पाँचवे और बारहवे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में केवल एक वंशस्थ छन्द का प्रयोग है अयोध्याकाण्ड के प्रारम्भ में (मङ्गलाचरण पद्य २) – प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लौ वनवासदुःखतः । मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदाऽस्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा ॥ ५. उपजाति इन्द्रवज्रा (चार चरण, ११ वर्ण – त त ज ग ग) और उपेन्द्रवज्रा (चार चरण, ११ वर्ण – ज त ज ग ग) के चरण जब एक ही छन्द में प्रयुक्त हों तो उस छन्द को उपजाति कहते हैं। साधारणतः उपजाति छन्द संस्कृत के काव्यों में सबसे अधिक प्रयुक्त होता है, परन्तु मानस में यह एक ही स्थान पर प्रयुक्त हुआ है। अयोध्याकाण्ड के प्रारंभ में (मङ्गलाचरण पद्य ३) – नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्गं सीतासमारोपितवामभागम् । पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम् ॥ ६. प्रमाणिका इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ८-८ वर्ण होते हैं। चरण में वर्णों का क्रम लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु-लघु-गुरु (।ऽ।ऽ।ऽ।ऽ) होता है। गणों में लिखे तो ज-र-ल-ग। मानस में १३ प्रमाणिकाएँ हैं। अरण्यकाण्ड में अत्रि मुनि कृत स्तुति (३.४.१ से ३.४.१२) में १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त हैं जिनमें से प्रथम है – नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशीलकोमलम् । भजामि ते पदाम्बुजम् अकामिनां स्वधामदम् ॥ गुरुदेव के अनुसार १२ प्रमाणिकाएँ प्रयुक्त होने का कारण है कि प्रभु राम ने १२ वर्षों तक चित्रकूट में निवास किया था। उत्तरकाण्ड में काकभुशुण्डि-गरुड़ संवाद में एक प्रमाणिका है, छन्द संख्या ७.१२२(ग) – विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे । हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ ७. मालिनी इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में पन्द्रह (१५) वर्ण होते हैं – दो नगण, एक मगण और दो यगण ( न-न-म-य-य ) होते हैं। आठवे वर्ण पर और चरण के अंत में यति होती है। मानस में केवल एक मालिनी छन्द है जो सुन्दरकाण्ड के प्रारम्भ में हनुमान जी की स्तुति में आता है (मङ्गलाचरण पद्य ३) – अतुलितबलधामं स्वर्णशैलाभदेहं दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌ । सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिवरदूतं वातजातं नमामि ॥ ८. स्रग्धरा स्रग्धरा मानस में प्रयुक्त संस्कृत छन्दों में सबसे लम्बा है। इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में वर्ण २१ होते हैं, और ७-७-७ के क्रम से यति। गणों का क्रम इस प्रकार है – म-र-भ-न-य-य-य। तदनुसार लघु(।)-गुरु(ऽ) का क्रम इस प्रकार है – ऽऽऽऽ।ऽऽ (यति) ।।।।।।ऽ (यति) ऽ।ऽऽ।ऽऽ (यति)। मानस में दो स्थानों पर यह छन्द प्रयुक्त है – १) युद्धकाण्ड का पहला पद्य (मङ्गलाचरण पद्य १) रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं योगीन्द्रज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम् । मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम् ॥ २) उत्तरकाण्ड का पहला छन्द (मङ्गलाचरण पद्य १) केकीकण्ठाभनीलं सुरवरविलसद्विप्रपादाब्जचिह्नं शोभाढ्यं पीतवस्त्रं सरसिजनयनं सर्वदा सुप्रसन्नम् । पाणौ नाराचचापं कपिनिकरयुतं बन्धुना सेव्यमानं नौमीड्यं जानकीशं रघुवरमनिशं पुष्पकारूढरामम् ॥ ९. रथोद्धता इसके चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में ११-११ वर्ण होते हैं। गणों का क्रम है र-न-र-ल-ग। हर चरण में तीसरे/चौथे वर्ण के बाद यति होती है। मानस में उत्तरकाण्ड के प्रारंभ में दो रथोद्धता छन्द हैं (मङ्गलाचरण पद्य २ और ३) – कोसलेन्द्रपदकञ्जमञ्जुलौ कोमलावजमहेशवन्दितौ । जानकीकरसरोजलालितौ चिन्तकस्य मनभृङ्गसङ्गिनौ ॥ कुन्द इन्दुदरगौरसुन्दरम् अम्बिकापतिमभीष्टसिद्धिदम् । कारुणीककलकञ्जलोचनं नौमि शङ्करमनङ्गमोचनम् ॥ गुरुवचन के अनुसार उपरिलिखित दूसरे पद्य के प्रारंभ में “कुन्दः मन्दबुद्धिः इन्दुदरगौरसुन्दरम्” विग्रह समझना चाहिए। कुन्दः अहम् तुलासीदासः शंकरं नौमि इति। सन्धि के कारण कुन्दः के विसर्ग का लोप हो गया है। १०. भुजङ्गप्रयात इसके चार चरण होते हैं। हर चरण में चार यगण होते हैं (य-य-य-य)। उत्तरकाण्ड में रुद्राष्टक (७.१०८.१-७.१०८.८) में ब्राह्मण द्वारा की गयी शिवजी की स्तुति में आठ भुजङ्गप्रयात छन्दों का प्रयोग है, जिनमें से प्रथम है – नमामीशमीशाननिर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्‌ । निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम्‌ ॥

“ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल तारणा के अधिकारी” और हमने इसे कर दिया है “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” राम चरित मानस में चौपाई आती है :- ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल तारणा के अधिकारी

“ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल तारणा के अधिकारी” और हमने इसे कर दिया है “ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी” राम चरित मानस में चौपाई आती है :- ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल तारणा के अधिकारी
1. ढोल (वाद्य यंत्र)– ढोल को हमारे सनातन संस्कृति में उत्साह का प्रतीक माना गया है इसके थाप से हमें नयी ऊर्जा मिलती है. इससे जीवन स्फूर्तिमय, उत्साहमय हो जाता है. आज भी विभिन्न अवसरों पर ढोलक बजाया जाता है. इसे शुभ माना जाता है.
2. गंवार (गांव के रहने वाले लोग )– गाँव के लोग छल-प्रपंच से दूर अत्यंत ही सरल स्वभाव के होते हैं. गाँव के लोग अत्यधिक परिश्रमी होते है जो अपने परिश्रम से धरती माता की कोख अन्न इत्यादि पैदा कर संसार में सबकी भूख मिटाते हैं आदि-अनादि काल से ही अनेकों देवी-देवता और संत महर्षि गण गाँव में ही उत्पन्न होते रहे हैं। सरलता में ही ईश्वर का वास होता है।
3. शुद्र (जो अपने कर्म व सेवाभाव से इस लोक की दरिद्रता को दूर करे)– सेवा व कर्म से ही हमारे जीवन व दूसरों के जीवन का भी उद्धार होता है और जो इस सेवा व कर्म भाव से लोक का कल्याण करे वही ईश्वर का प्रिय पात्र होता है। कर्म ही पूजा है।
4. पशु (जो एक निश्चित पाश में रहकर हमारे लिए उपयोगी हो) – प्राचीन काल और आज भी हम अपने दैनिक जीवन में भी पशुओं से उपकृत होते रहे हैं। पहले तो वाहन और कृषि कार्य में भी पशुओं का उपयोग किया जाता था। आज भी हम दूध, दही। घी विभिन्न प्रकार के मिष्ठान्न इत्यादि के लिए हम पशुओं पर ही निर्भर हैं। पशुओ के बिना हमारे जीवन का कोई औचित्य ही नहीं. वर्षों पहले जिसके पास जितना पशु होता था उसे उतना ही समृद्ध माना जाता था। सनातन में पशुओं को प्रतीक मानकर पूजा जाता है।
5. नारी ( जगत -जननी, आदि-शक्ति, मातृ-शक्ति )– नारी के बिना इस चराचर जगत की कल्पना ही मिथ्या है नारी का हमारे जीवन में माँ, बहन बेटी इत्यादि के रूप में बहुत बड़ा योगदान है। नारी के ममत्व से ही हम हम अपने जीवन को भली-भाँती सुगमता से व्यतीत कर पाते हैं। विशेष परिस्थिति में नारी पुरुष जैसा कठिन कार्य भी करने से पीछे नहीं हटती है. जब जब हमारे ऊपर घोर विपत्तियाँ आती है तो नारी दुर्गा, काली, लक्ष्मीबाई बनकर हमारा कल्याण करती है। इसलिए सनातन संस्कृति में नारी को पुरुषों से अधिक महत्त्व प्राप्त है।

सकल तारणा के अधिकारी से यह तात्पर्य है-

1. सकल= सबका
2. तारणा= उद्धार करना
3. अधिकारी = अधिकार रखना उपरोक्त सभी से हमारे जीवन का उद्धार होता है इसलिए इसे उद्धार करने का अधिकारी कहा गया है.
अब यदि कोई व्यक्ति या समुदाय विधर्मियों या पाखंडियों के कहने पर अपने ही सनातन को माध्यम बनाकर।
उसे गलत बताकर अपना स्वार्थ सिद्ध करता है तो ऐसे विकृत मानसिकता वालों को भगवान् सद्बुद्धि दे, तथा सनातन पर चलने की प्ररेणा दे।
ज्ञात रहे सनातन सबके लिए कल्याणकारी था कल्याणकारी है और सदा कल्याणकारी ही रहेगा। सनातन सरल है इसे सरलता से समझे कुतर्क पर न चले। अपने पूर्वजों पर सदेह करना महापाप है।
इसलिए जो भी रामचरितमानस सुन्दरकाण्ड के चौपाई का अर्थ गलत समझाए तो उसे इसका अर्थ जरूर समझाए