Friday, 26 August 2016

=========मन्त्र साधना=========

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=======जप करने की विधियाँ =======
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वैदिक मन्त्र का जप करने की चार विधियाँ
1. वैखरी
2. मध्यमा
3. पष्चरी
4. परा
शुरू शुरू में उच्च स्वर से जो जप किया जाता है, उसे वैखरी मन्त्र जप कहते हैं।

दूसरी है, मध्यमा। इसमें होंठ भी नहीं हिलते एवं दूसरा कोई व्यक्ति मन्त्र को सुन भी नहीं सकता।

तीसरी, पष्यन्ती। जिस जप में जिव्हा भी नहीं हिलती, हृदयपूर्वक जप होता एवं जप के अर्थ में हमारा चित्त तल्लीन होता जाता है उसे पष्यन्ती मन्त्र जप कहते हैं।

चैथी है परा। मन्त्र के अर्थ में हमारी वृत्ति स्थिर होने की तैयारी हो, मन्त्र जप करते-करते आनन्द आने लगे एवं बुद्धि परमात्मा में स्थिर होने लगे, उसे परा मन्त्र जप कहते हैं।

वैखरी जप है तो अच्छा लेकिन वैखरी से भी दसगुना ज्यादा प्रभाव मध्यमा में होता बैखरी उसे कहते हैं जो व्यक्त हो जाय। नाम का इस प्रकार उच्चारण हो कि आप सुनेँ और बाहर कोई बैठा हो तो उसे भी सुनायी पड़े।
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मन्त्र-जप, देव-पूजन तथा उपासना के संबंध में प्रयुक्त होने वाले कतिपय विषिष्ट षब्दों का अर्थ नीचे लिखे अनेसार समझना चाहिए।

1. पंचोपचार- गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा नैवेद्य द्वारा पूजन करने को “पंचोपचार“ कहते हैं

2. पंचामृत- दूध, दही, घृत, मधु(षहद) तथा षक्कर इनके मिश्रण को “पंचामृत“ कहते हैं।

3. पंचगव्य- गाय के दूध, घृत, मूत्र तथा गोबर इन्हें सम्मिलित रूप में “पंचगव्य“ कहते है।

4. षोडषोपचार- आव्हान, आसन, पाद्य, अध्र्य, आचमन, स्नान, वस्त्र, अलंकार, सुगन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, अक्षत, ताम्बुल, तथा दक्षिणा इन सबके द्वारा पूजन करने की विधि को “षोडषोपचार“ कहते है।

5. दषोपचार- पाद्य, अध्र्य, आचमनीय, मधुपक्र, आचमन, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, तथा, नैवेद्य द्वारा पूजन करने की विधि को “दषोपचार“ कहते है।

6. त्रिधातु- सोना, चाँदी, लोहा। कुछ आचार्य सोना, चांदी और तांबे के मिश्रण को भी त्रिधातु कहते हैं।

7. पंचधातु-
सोना,
चाँदी,
लोहा,
तांबा,
और जस्ता।

8. अष्टधातु-
सोना,
चांदी,
लोहा,
तांबा,
जस्ता,
रांगा,
कांसा और पारा।

9. नैवेद्य-खीर, मिष्ठान आदि मीठी वस्तुएँ।
10. नवग्रह- सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, षुक्र, षनि, राहु और केतु।
11. नवरत्न- माणिक्य, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद, और वैदूर्य।
12. अष्टगन्ध- 1. अगर, तगर, गोरोचन, केसर, कस्तूरी, ष्वेत चन्दन लाल चन्दन और सिन्दूर
(देव पूजन हेतु)।
2. अगर लालचन्दन, हल्दी, कुंकुम, गोरोचन, जटामांसी, षिलाजीत और कपूर (देवी पूजन हेतु)।
13. गन्धत्रय- सिन्दूर, हल्दी, कुंकुम।
14. पड्चांग- किसी वनस्पति के पुष्प, पत्र, फल, छाल, और जड़।
15. दषांष- दसवा भाग।
16. सम्पुट- मिट्टी के दो षकोरों को एक- दूसरे के मुँह से मिला कर बन्द करना।
17. भोजपत्र- एक वृक्ष की छाल (यह पंसारियो के यहाँ मिलती है)
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18. मन्त्र धारण-

किसी भी मन्त्र को स्त्री पुरूष दोनों ही कण्ठ में धारण कर सकते हैं, परन्तु यदि भुजा में धारण करना चाहे तो पुरूष को अपनी दायीं भुजा में और स्त्री को बायीं भुजा में धारण करना चाहिए।

19. ताबीज- यह तांबे के बने हुए बाजार में बहुतायत से मिलते हैं। ये गोल तथा चपटे दो आकारों में मिलते हैं। सोना, चांदी, त्रिधातु तथा अष्टधातु आदि के ताबीज सुनारों से कहकर बनवाये जा सकते हैं।

20. मुद्राएँ- हाथों की अंगुलियों को किसी विषेष स्थिति में लाने की क्रिया को “मुद्रा“ कहा जाता है। मुद्राएं अनेक प्रकार की होती हैं।

21. स्नान-यह दो प्रकार का होता है। बाह्य तथा आन्तरिक, बाह्य स्नान जल से तथा आन्तरिक स्नान मन्त्र जप द्वारा किया जाता है।

22. तर्पण- नदी, सरोवर आदि के जल में घुटनों तक पानी में खड़े होकर, हाथ की अड्जलि द्वारा जल गिराने की क्रिया को “तर्पण“ कहा जाता है। जहाँ नदी, सरोवर आदि न हो, वहाँ किसी पात्र में पानी भरकर भी “तर्पण“ की क्रिया सम्पन्न कर ली जाती है।

23. आचमन- हाथ में जल लेकर उसे अपने मुँह में डालने की क्रिया को “आचमन“ कहते है।

24. करन्यास- अंगूठा, अंगुली, करतल तथा करपृष्ठ पर मन्त्र जपने को “करन्यास“ कहा जाता है।

25. हृदययविन्यास- हृदय आदि अंगों को स्पर्ष करते हुए मन्त्रोच्चारण को “हृदयाविन्यास“ कहते हैं।

26. अंगन्यास- हृंदय, षिर, षिखा, कवच, नेत्र, एवं करतल- इन छः अंगो से मन्त्र का न्यास करने की क्रिया को “अंगन्यास“ कहते है।

27. अध्र्य- षंख, अंजलि आदि द्वारा जल छोड़ने को अध्र्य देना कहा जाता है। घड़ा या कलष में पानी भरकर रखने को अध्र्य-स्थापन कहते है। अध्र्यपात्र में दूध, तिल, कुषा के टुकड़े, सरसौं, जौ, पुष्प, चावल एवं कुंकुम इन सबको डाला जाता है।

28. पंचायतन पूजा- पंचायतन पूजा में पाँच देवताओं-विष्णु, गणेष, सूर्य, षक्ति तथा षिव का पूजन किया जाता है।

29. काण्डानुसमय- एक देवता के पूजाकाण्ड को समाप्त कर, अन्य देवता की पूजा करने का “कण्डानुसमय“ कहते हैं।

30. उद्वर्तन- उबटन।
31. अभिषेक- मन्त्रोच्चारण करते हुए षंख से सुगन्धित जल छोड़ने को अभिषेक कहते हैं।

32. उत्तरीय- वस्त्र।
33. उपवीत- यज्ञोपवीत (जनेऊ)।
34. समिधा- जिन लकडि़यों में अग्नि प्रज्ज्वलित कर होम किया जाता है, उन्हें समिधा कहते हैं। समिधा के लिए आक, पलाष, खदिर, अपामार्ग, पीपल, उदुम्बर, षमी, कुषा तथा आम की लकडि़यों को ग्राह्य माना गया है।

35. प्रणव- ऊँ।
36. मन्त्र ऋषि- जिस व्यक्ति ने सर्वप्रथम षिवजी के मुख से मन्त्र सुनकर उसे विधिवत् सिद्ध किया था, वह उस मन्त्र का ऋषि कहलाता है। उस ऋषि को मन्त्र का आदि गुरू मानकर श्रद्धपूर्वक उसका मस्तक में न्यास किया जाता है।
37. छन्द- मन्त्र को सर्वतोभावेन आच्छादित करने की विधि को “छन्द“ कहते है। यह अक्षरों अथवा पदों से बनता है। मन्त्र का उच्चारण चूंकि मुख से होता है अतः छनद का मुख से न्यास किया जाता है।

38. देवता- जीवमात्र के समस्त क्रिया-कलापों को प्रेरित, संचालित एवं नियंत्रित करने वाली प्राणषक्ति को देवता कहते हैं। यह षक्ति व्यक्ति के हृदय में स्थित होती है, अतः देवता का न्यास हृदय में किया जाता है।

39. बीज- मन्त्र षक्ति को उद्भावित करने वाले तत्व को बीज कहते हैं। इसका न्यास गुह्यागं में किया जाता है।

40. षक्ति- जिसकी सहायता से बीज मन्त्र बन जाता है, वह तत्व षक्ति कहलाता है। उसका न्यास पाद स्थान में करते है।

41. विनियोग- मन्त्र को फल की दिषा का निर्देष देना विनियोग कहलाता है।

42. उपांषु जप- जिह्ना एवं होठ को हिलाते हुए केवल स्वयं को सुनायी पड़ने योग्य मन्त्रोच्चारण को उपांषु जप कहते हैं।

43. मानस जप- मन्त्र, मन्त्रार्थ एवं देवता में मन लगाकर म नही मन मन्त्र का उच्चारण करने को मानस जप कहते हैं।

44. अग्नि की जिह्नाएँ- अग्नि की 7 जिह्नएँ मानी गयी हैं।
उसके नाम है-
1. हिरण्या,
2. गगना,
3. रक्ता,
4. कृष्णा,
5. सुप्रभा,
6. बहुरूपा एवं
7. अतिरिक्ता।
कतिपय आचार्याें ने अग्नि की सप्त जिह्नाओं के नाम इस प्रकार बताये हैं-
1. काली,
2. कराली,
3. मनोभवा,
4. सुलोहिता,
5. धूम्रवर्णा,
6. स्फुलिंगिनी तथा
7. विष्वरूचि।
45. प्रदिक्षणा- देवता को साष्टांग दण्डवत् करने के पष्चात इष्टदेव की परिक्रमा करने को प्रदक्षिणा कहते हैं।
विष्णु, षिव, षक्ति, गणेष और सूर्य आदि देवताओं की 4, 1, 2, 1, 3 अथवा 7 परिक्रमाएँ करनी चाहिए।
46. साधना- साधना 5 प्रकार की होती है-
1. अभाविनी,
2. त्रासी
3. दोर्वोधी
4. सौतकी तथा
5. आतुरो।
1) अभाविनी- पूजा के साधना तथा उपकरणों के अभाव से, मन से अथवा जलमात्र से जो पूजा साधना की जाती है, उसे अभाविनी कहते हैं।

(2) जो त्रस्त व्यक्ति तत्काल अथवा उपलब्ध उपचारों से या मानसापचारों से पूजन करता है, उसे त्रासी कहते हैं, यह साधना समस्त सिद्धियाँ देती है।

(3) बालक, वृद्ध, स्त्री, मूर्ख अथवा ज्ञानी व्यक्ति द्वारा बिना जानकारी के की जानी वाली पूजा दाबांधी कही जाती है।

(4) सूत की व्यक्ति मानसिक सन्ध्या करा कामना होने पर मानसिक पूजन तथा निष्काम होने पर सब कार्य करें। ऐसी साधना को भौतिकी कहा जाता है।

(5) रोगी व्यक्ति स्नान एवं पूजन न करें। देव मूर्ति अथवा सूर्यमण्डल की ओर देखकर, एक बार मूल मन्त्र का जप कर उस पर पुष्प चढ़ायें। फिर रोग की समाप्ति पर स्नान करके गुरू तथा ब्राम्हणों की पूजा करके पूजा विच्छेद का दोष मुझे न लगें- ऐसी प्रार्थना करके विधि पूर्वक इष्ट देव का पूजन करे तो इस साधना को आतुर कहा जाएगा।

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