8किसी भी ग्रह दोषों के निवारण हेतु जो कर्म किया जाता है अथवा देव-प्रतिष्ठा, गृह-प्रवेश, यज्ञोपवीत जैसे सभी कर्मों में ये अनिवार्य होता है, की अग्निवास देखकर ही यज्ञ (हवन) किया जाय अन्यथा कर्म निष्फल हो जाते हैं ।।
तिथि प्रहर संयुक्ता तारकावार मिश्रिता ।
अग्निभिश्च हरेद्भागम् शेषे सत्वरजस्तमा ।।
सत्वे तात्कालिकी सिद्धी रजसा तु बिलंबकम् ।
तमसा निष्फ़लं कार्यं ज्ञातब्यं प्रश्न कोबिदै ।।
अर्थ:-- तिथि, प्रहर, नक्षत्र एवं वार को जोड़ दें, तथा इसमें तीन का भाग दे दें । शेष अगर 1. 2. 3. हो तो, 1 हो तो सत्व अर्थात कार्य तत्काल पूर्ण होगा । 2 बचे तो रजस सिद्धि अर्थात कार्य तो होगा, लेकिन बिलम्ब से । अगर शेष 3 या 0 बचे तो तमसा सिद्धि अर्थात कार्य निष्फल होगा, अर्थात पूर्ण नहीं होगा ।।
==================================================================अग्निवास देखना-----------
1- जिस दिन आपको होम करना हो , उस दिन की तिथि और वार की संख्या को जोड़कर 1 जमा (1 जोड़ ) करें फिर कुल जोड़ को 4 से भाग देवें- अर्थात् शुक्ल प्रतिपदा से वर्तमान तिथि तक गिनें तथा एक जोड़े , रविवारसे दिन गिने पुनः दोनों को जोड़कर चार का भाग दें।
-यदि शेष शुन्य (0) अथवा 3 बचे, तो अग्नि का वास पृथ्वी पर होगा और इस दिन होम करना कल्याणकारक होता है ।
-यदि शेष 2 बचे तो अग्नि का वास पाताल में होता है और इस दिन होम करने से धन का नुक्सान होता है ।
-यदि शेष 1बचे तो आकाश में अग्नि का वास होगा, इसमें होम करने से आयु का क्षय होता है ।
अतः यह आवश्यक है की होम में अग्नि के वास का पता करने के बाद ही हवन करें ।
शास्त्रीय विधान के अनुसार वार की गणना रविवार से तथा तिथि की गणना शुक्ल-पक्ष की प्रतिपदा से करनी चाहिए तदुपरांत गृह के ‘मुख-आहुति-चक्र ‘ का विचार करना चाहिए ।
मान लो आज हम कृष्ण पक्ष की चौथी तिथि मे चल रहे है तो ।
शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक 15 तिथि तो कुल योग
आया 15 + 4 + 1 = 20
आज कौन सा दिन हैं और इस दिन को रविवार से
गिने । मानलो आज बुधवार हैं तो रविवार से गिनने पर बुधवार 3
आया । कुल योग 20 + 3 = 23/4 कर दे तो शेष कितना बचा । 4 - 23 / 5
- 20 । 3 को शेष कहा जायेगा । परिणाम इस प्रकार से होंगे ।
· शेष 0 तो अग्नि का निवास पृथ्वी पर ।
· शेष 1 तो अग्नि का निवास आकाश मे ।
· शेष 2 तो अग्नि का निवास पाताल मे ।
· शेष 3 बचे तो पृथ्वी पर माने ।
पृथ्वी पर अग्नि वास सुख कारी होता हैं । आकाश मे प्राणनाश और पाताल मे धन नाश होता हैं । मतलब हमें वह तिथि चुनना हैं जिस तिथि मे शेष 3 बचे । वह तिथि ही लाभकारी होगी । प्रज्वलित अग्नि के आकार को देख कर कई नाम रखे गए हैं । पर अभी उनसे हमें सरोकार नही हैं । इस तरह से अग्नि वास का पता हमें लगाना हैं ।
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||||||||||||हवनादि कृत्ये आहुति सुद्दि|||||||||||
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1 सूर्य जिस नछत्र पर रहता है उसमे 3 नक्छत्रयो की अग्रिम गणना से दी हुई आहुति सूर्य को मिलती है।
2तद् उपरांतआगे के तीन नकछत्रो में बुध को
3में शुक्र को फिर 3 में शनि को फिर 3 में चन्द्र को फिर 3 में मंगल को फिर 3 नकछत्र गुरु तथा 3 राहु केतु को आहुति मिलती है।
पाप ग्रह वाले नकछत्रो में होम की आहुति शुभ नहीं होती अतः शुभ ग्रह वाले नकछत्रो में ही हवनादी कृत्य शुभ एवम् सामान्य रहते है।
सूर्य नकछत्र से अभिस्ट नकछत्र तक की गणना करके आहुति किर्या का ज्ञान होता है।
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भू रुदन :
- हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही लिया जाना चाहिए । यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।
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भू रजस्वला :-
इस का बहुत ध्यान रखना चाहिए ।यह तो हर व्यक्ति जानता हैं की मकरसंक्रांति लगभग कब पड़ती हैं । अगर इसका लेना देना मकर राशि से हैं तो इसका सीधा सा तात्पर्य यह हैं की हर महीने एक सूर्य संक्रांति पड़ती ही हैं और यह एक हर महीने पड़ने वाला विशिष्ट साधनात्मक महूर्त होता हैं । तो जिस भारतीय महीने आपने आहुति का मन बनाया हैं ठीक उसी महीने पड़ने वाली सूर्य संक्रांति से (हर लोकलपंचांग मे यह दिया होता हैं । लगभग 15 तारीख के आस पास यह दिन होता हैं । मतलब सूर्य संक्रांति को एक मान कर गिना जाए तो 1, 5, 10, 11, 16, 18, 19 दिन भू रजस्वला होती हैं ।
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भू शयन :- आपको सूर्य संक्रांति समझ मे आ
गयी हैं तो किसी भी महीने
की सूर्य संक्रांती से 5, 7, 9, 15, 21 या 24
वे दिन को भू शयन माना
जाया हैं । सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र
से आगे गिनने पर 5, 7,
9, 12, 19, 26 वे नक्षत्र मे पृथ्वी शयन
होता हैं । इस तरह से यह भी
काल सही नही हैं ।
अब समय हैं यह जानने का कि भू हास्य क्या है ?
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भू हास्य :– तिथि मे पंचमी ,दशमी ,पूर्णिमा ।
वार मे - गुरु वार ।
नक्षत्र मे – पुष्य, श्रवण मे पृथ्वी हसती हैं ।
अतः इन दिनों का प्रयोगकिया जाना चाहिए
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कुण्ड और मंडप कैसे हो =====
【मंडप 】
कुण्ड और मण्डपों के सम्बन्ध में इस प्रकार के उल्लेख ग्रन्थों में मिलते है:-
बड़े यज्ञों में 32 हाथ (48 फुट) 36 फुट अर्थात 16 = 24 फुट का चौकोर मण्डप बनाना चाहिये । मध्यम कोटि के यज्ञों में 14 (18 फुट) हाथ अथवा 12 हाथ (18 फुट) का पर्प्याप्त है । छोटे यज्ञों में 10 हाथ (15 फुट ) या 8 (12 फुट) हाथ की लम्बाई चौडाई का पर्याप्त है । मण्डप की चबूतरी जमीन से एक हाथ या आधा हाथ ऊँची रहनी चाहिए । बड़े मण्डपों की मजबूती के लिए 16 खंभे लगाने चाहिये । खम्भों को रंगीन वस्त्रों से लपेटा जाना चाहिए । मण्डप के लिये प्रतीक वृक्षों की लकड़ी तथा बाँस का प्रयोग करना चाहिए ।
मण्डप के एक हाथ बाहर चारों दिशाओं में 4 तोरण द्वार होते हैं, यह 7 हाथ (10 फुट 6 इंच) उँचे और 3.5 चौड़े होने चाहिए । इन तोरण द्वारों में से पूर्व द्वार पर शङ्क, दक्षिण वाले पर चक्र, पच्छिम में गदा और उत्तर में पद्म बनाने चाहिए । इन द्वारों में पूर्व में पीपल, पच्छिम में गूलर-उत्तर में पाकर, दक्षिण में बरगद की लकड़ी लगाना चाहिए, यदि चारों न मिलें तो इनमें से किसी भी प्रकार की चारों दिशाओं में लगाई जा सकती है । पूर्व के तोरण में लाल वस्त्र, दक्षिण के तोरण में काला वस्त्र, पच्छिम के तोरण में सफेद वस्त्र, उत्तर के तोरण में पीला वस्त्र लगाना चाहिए ।
[सभी दिशाओं में तिकोनी ध्वजाएँ लगानी चाहिये । पूर्व में पीली, अग्निकोण में लाल, दक्षिण में काली, नैऋत्य में नीली, पच्छिम में सफेद, वायव्य में धूमिल, उत्तर में हरी, ईशान में सफेद लगानी चाहिये । दो ध्वजाएँ ब्रह्मा और अनन्त की विशेष होती है, ब्रह्मा की लाल ध्वजा ईशान में और अनन्त की पीली ध्वजा नैऋत कोण में लगानी चाहिए । इन ध्वजाओं में सुविधानुसार वाहन और आयुध भी चित्रित किये जाते हैं । ध्वजा की ही तरह पताकाएं भी लगाई जाती है इन पताकाओं की दिशा और रङ्ग भी ध्वजाओं के समान ही हैं । पताकाएं चौकोर होती हैं । एक सबसे बड़ा महाध्वज सबसे उँचा होता है ।
मण्डप के भीतर चार दिशाओं में चार वेदी बनती हैं । ईशान में ग्रह वेदी, अग्निकोण में योगिनी वेदी, नैऋत्य में वस्तु वेदी और वायव्य में क्षेत्रपाल वेदी, प्रधान वेदी पूर्व दिशा में होनी चाहिए ।
【कुण्ड 】======
एक कुण्डी यज्ञ में मण्डप के बीच में ही कुण्ड होता है । उसमें चौकोर या कमल जैसा पद्म कुण्ड बनाया जाता हैं
। कामना विशेष से अन्य प्रकार के कुण्ड भी बनते हैं ।
पंच कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड बीच में,
चतुरस्र पूर्व में,
अर्थचन्द्र दक्षिण में,
वृत पच्छिम में
और पद्म उत्तर में होता है ।
नव कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड मध्य में
चतुररसा्र कुण्ड पूर्व में,
योनि कुण्ड अग्नि कोण में,
अर्धचन्द्र दक्षिण में,
त्रिकोण नैऋत्य में वृत पच्छिम में,
षडस्र वायव्य में, पद्म उत्तर में,
अष्ट कोण ईशान में होता है ।
प्रत्येक कुण्ड में 3 मेखलाएं होती हैं ।
ऊपर की मेखला 4 अंगुल,
बीच की 3 अंगुल,
नीचे की 2 अँगुल होनी चाहिए ।
ऊपर की मेखला पर सफेद रंग मध्य की पर लाल रंग और नीचे की पर काला रंग करना चाहिए । 50 से कम आहुतियों का हवन करना हो तो कुण्ड बनाने की आवश्यकता नहीं ।
भूमि पर मेखलाएं उठाकर स्थाण्डिल बना लेना चाहिए । 50 से 99 तक आहुतियों के लिए 21 अंगुल का कुण्ड होना चाहिए ।
100 से 999 तक के लिए 22.5 अँगुल का,
एक हजार आहुतियों के लिए 2 हाथ=(1.5)फुट का,
तथा एक लाख आहुतियों के लिए 4 हाथ (6 फुट)का कुण्ड बनाने का प्रमाण है ।
यज्ञ-मण्डप में पश्चिम द्वार से साष्टाँग नमस्कार करने के उपरान्त प्रवेश करना चाहिए । हवन के पदार्थ चरु आदि पूर्व द्वार से ले जाने चाहिए । दान की सामग्री दक्षिण द्वार से और पूजा प्रतिष्ठा की सामग्री उत्तर द्वार से ले जानी चाहिए ।
कुण्ड के पिछले भाग में योनियों बनाई जाती है । इनके सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का मत है कि वह वामार्गी प्रयोग है । योनि को स्त्री की मूत्रेन्द्रिय का आकार और उसके उपरिभाग में अवस्थित किये जाने वाले गोलकों को पुरुष अण्ड का चिह्न बना कर वे इसे अश्लील एवं अवैदिक भी बताते हैं । अनेक याज्ञिक कुण्डों में योनि-निर्माण के विरुद्ध भी हैं और योनि-रहित कुण्ड ही प्रयोग करते हैं । योनि निर्माण की पद्धति वेदोक्त है या अवैदिक, इस प्रश्न पर गम्भीर विवेचना अपेक्षणीय है ।=================================
संछिप्त कुण्ड पूजा एबम हवन विधि
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ततो यथा परिमिते तुषकेशादिरहिते हस्तमात्रचतुरंगुलोच्छ्रितसंमृद्भिः निर्मिते शास्त्रशुद्धकुण्डे स्थण्डिले वा चतुरस्रां भूमिं त्रिभिः त्रिभिः कुशेः परिसमूह्य तान्कुशानेशान्यां परित्यज्य “वं” इत्यमृतबीजमुच्चारयन् गोमयोदकेनोपलिप्य खदिरस्रुवमूलेन प्रागग्रं प्रादेशमात्रमुत्तरोत्तरक्रमेण त्रिरुल्लिख्य उल्लेखनक्रमेणैव “ह्रीं” इति मायाबीजमुच्चारयन्ननामिकांगुष्ठाभ्यां मृदमुदधृत्य उदकेन न्युब्जपाणिनाऽभ्युक्ष् सदाचारपञ्चमहायज्ञादिक्रियावतां ब्रह्मक्षत्रियविशां गृहात् कांस्यपात्रे ( नवीन शारावे वा ) सम्पुटेनाग्निमानीय कुण्डस्य स्थण्डिलस्य वाऽऽग्नेय्यां निधाय “हुं फट्” इति मन्त्रेण क्रव्यादाशं नैऋत्यां दिशि परित्यज्य,
ॐ अग्निन्दूतं पुरोदधे हव्यवाहमुपब्रुवे देवां २ ।। आसादयादिह ।
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इति अग्नि संस्थाप्य
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१. कनकायै नमः
२. रक्तायै नमः
३. कृष्णायै नमः
४. उदरिण्यायै नमः
५. सुप्रभायै नमः
६. बहुरूपायै नमः
७. अतिरिक्तायै नमः
(भविष्य पुराण, मध्यं पर्व, द्वितीय भाग मे अग्नि के नाम क्रमशः “हिरण्या कनका रक्ता आरक्ता सुप्रभा बहुरूपा सती” इत्यादि दिये गये हैं )
अग्न्यानयनपात्रे साक्षतोदकं निषिच्य ततस्तत्र प्रोक्षतेन्धनानि प्रक्षिपेत्।
ततः प्रज्वलितेऽग्नौ अग्निमुखं कृत्वा ध्यायेत् – ॐ चत्वारि श्रृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्या ँ आविवेश । ॐ भूर्भुवःस्वः अग्ने वैश्वानर शाण्डिल्यगोत्र शाण्डिलासित देवलेति त्रिप्ररान्वित भुमिमातः वरुणपितः मेषध्वज प्राङ्मुख मम सम्मुखो भव इति वरदानामानमग्निं प्रतिष्ठाप्यः ।
ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं ।
हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ।।
ॐ आवाहयाम्यहम् द
ॐ अग्निं प्रज्वलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं ।
हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखं ।।
ॐ आवाहयाम्यहम् देवं स्रुवं शेवधिमुत्तमम् ।
स्वाहाकार – स्वधाकार – वषट्कार समन्वितं ।। स्रुवं आवाहयामि
ॐ आवाह्यामि तत्कुण्डं विश्वकर्मविनिर्मितं ।
शरीरं यच्च ते दिव्यमग्न्यधिष्ठान – मद्भुतं ।
ये च कुण्डे स्थिता देवाः कुण्डान्गे याश्चदेवताः ।
ऋद्धिं यच्छन्तु ते सर्वे यज्ञसिद्धिं मुदान्विता ।।
हे कुण्ड तव निर्माण रचितं विश्वकर्मणा ।
अस्माकं वाञ्छितां सिद्धिं यज्ञसिद्धिं ददातु भोः ।।
ॐ विश्वकर्मन्हविषा वर्द्धनेन त्रातारमिन्द्रमकृणोकरवद्धय्म ।
तस्मै विशः समनमन्त पूर्वीरमुग्रो विहव्योयथासत् ।।
उपयामगृहीतो सीन्द्राय त्वा विश्वकर्मण एषते
योनिरिन्द्राय त्वा विश्वकर्मणे ।। ॐ विश्वकर्मणे नमः ।
अज्ञानाञ्ज्ञानतो वापि दोषास्युः खननोद्भवाः ।
नाशाय त्वंहि तान्सर्वान्विश्वकर्मन्नमोस्तुते ।।
योनि पूजा
ॐ जगदुत्पत्ति हेतुकायै मनोभवयुतायै योन्यै नमः ।
तत्र प्राक् दिशायां गोरीं पूजयेत ।
ॐ अम्बेअम्बिकेअम्बालिके नमानयतिकश्चन ।
ससस्त्यश्वकः सुभद्रिकां काम्पीलवासिनीं ।।
ॐ क्षत्रस्य योनिरसि क्षत्रस्यनाभिरसि मा त्वाहि ् सीन्मामा हि ् सीः ।।
योनिरित्येव विख्याता जगदुत्पत्ति हेतुका ।
मनोभवयुता देवी रतिसोख्य प्रदायिनी
मोहयित्री सुराणां च जगद्धात्री नमोस्तुते ।।
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।। अथ होमः ।।
तत्रादो घृताहुतिः
अग्नेरुत्तरभागे -- ॐ प्रजापतये स्वाहा, इति मनसा इदं प्रजापतये न मम इत्युच्चैः प्रोक्षण्यां त्यागः ।
अग्नेर्दक्षिणभागे – अग्नये स्वाहा, इदं अग्नये न मम ।
ॐ सोमाय स्वाहा, इदं सोमाय न मम । इत्याज्यभागौ ।
ॐ भूः स्वाहा , इदं अग्नये न मम ।
ॐ भुवः स्वाहा , इदं वायवे न मम ।
ॐ स्वः स्वाहा , इदं सूर्याय न मम , एता महाव्याहृतयः ।
ॐ यथा बाणप्रहाराणां कवचं वारकं भवेत् । तद्वद्देवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका ।। शान्तिरस्तु पुष्टिरस्तु यत्पापं रोगं अकल्याणम् तद्दूरे प्रतिहतमस्तु, द्विपदे चतुष्पदे सुशान्तिर्भवतु,
।। अथ सर्वप्रायश्चित्तसंज्ञक पञ्चवारुण होमः ।।
ॐ त्वन्नो अग्ने वरुणस्य विद्वान देवस्य हेडो अवियासि सीष्ठाः यजिष्ठो वह्नितमः शोशुचानो विश्वा द्वेषा ँ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत्स्वाहा। इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम ।। १ ।।
ॐ स त्वन्नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठो अस्या उषसो व्युष्टौ । अवयक्ष्व नो वरुण ँ रराणो वोहि मृडीक ँ सुहवो न एधि स्वाहा । इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम ।। २ ।।
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्य नभिशस्तिपाश्च सत्यमित्वमया असि । अयानो यज्ञं वहास्ययानो धेहि भेषज ँ स्वाहा । इदमग्नये नमः ।। ३ ।।
ॐ ये ते शतं वरुण ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः । तेभिर्नो अद्य सवितोत विष्णुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा । इदं वरुणाय सवित्रे विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भ्यः स्वर्केभ्यश्च न मम ।। ४ ।।
ॐ उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं विमध्यम ँ श्रथाय । अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा । इदं वरुणाय न मम ।। ५ ।।
अत्रोदकस्पर्शः इति पञ्च वारुणी होमः ।
नवग्रह होम
अधिदेवता होम
प्रत्यधिदेवता होम
पञ्च लोकपाल देवता होम
दश दिक्पाल होमः
१. पूर्वे इन्द्राय नमः
२. आग्नेयां अग्नि देवाय नमः
३. दक्षिणे यमाय नमः
४. नैऋत्ये नैऋत्याय नमः
५. पश्चिमे वरुणाय नमः
६. वायव्यां वायवे नमः
७. उत्तरे कुबेराय नमः
८. ईशानं ईशानाय नमः
९. आकाशे ब्रह्मणे नमः (ईशान पूर्व मध्य)
१०.पाताले अनन्ताय नमः (नैऋत्य पश्चिम मध्य)
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।। अथ पूर्णाहुति होमः ।।
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ॐ मूर्द्धानमिति मन्त्रस्य भारद्वाज ऋषिः वैश्वानरो देवता त्रिष्टुप् छन्दः पूर्णाहुति होमे विनियोगः ।
ॐ मूर्धानं दिवो अरतिं पृथिव्या वैश्वानरमृत आजातमग्निम् । कवि ँ सम्राजमतिथिञ्जनानामासान्ना पात्रं जनयन्त देवाः ।। ॐ पूर्णा दर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत वस्नेव विक्रीणा वह इषमूर्ज ँ शतक्रतो स्वाहा , इत्यग्नौ पाणिद्वयेन प्रक्षिपेत् ।
सम्पूर्ण घृताहुति – ॐ वसोः पवित्रमसि शतधारं वसोः पवित्रमसि सहस्रधारम् । देवस्त्वा सविता पुनातु वसोः पवित्रेण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः स्वाहा, इदं वाजादिभ्योऽग्नये विष्णवे रुद्राय सोमाय वैश्वानराय च न मम ।
अग्निप्रार्थना -- ॐ श्रद्धां मेधां यशः प्रज्ञां विद्यां पुष्टिं श्रियं बलम् । तेज आयुष्यमारोग्यं देहि मे हव्यवाहन ।।
भो भो अग्ने ! महाशक्ते सर्व कर्मप्रसाधन । कर्मान्तरेऽपि संप्राप्ते सान्निध्यं कुरु सर्वदा ।।
अथ भस्मवन्दनम् – ॐ त्र्यायुखं जमदग्नेरिति ललाटे । कश्यपस्य त्र्यायुखमिति ग्रीवायाम् । यद्देवेषु त्र्यायुखमिति दक्षिणबाहुमूले । तन्नो अस्तु त्र्यायुखमिति हृदि वामस्कन्धे च ।
छायापात्र दानम् ॐ आज्यं सुराणामाहारमाज्यं पापहरं परम् । आज्यमध्ये मुखं दृष्ट्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ।।
घृतं नाशयते व्याधिं घृतञ्च हरते रुजम् । घृतं तेजोधिकरणम् घृतं आयुः प्रवर्द्धते ।।
इति मुखं दृष्ट्वा हिरण्यं पञ्चरत्नानि वा प्रक्षिपेत्
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विशेष निवेदन
विद्दवान आपने विवेक अनुसार कार्य करे ज्ञान की सीमा नही है जितना पड़ा जाए उतना कम है हमने जितना समज पाया लिख दिया
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