"विवाह-मुहूर्त में वर्जित तारा (नक्षत्र)"
✓•भूमिका: भारतीय वैदिक परम्परा में विवाह केवल सामाजिक अनुबन्ध नहीं, अपितु धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की समन्वित साधना का प्रारम्भिक संस्कार है। इसी कारण विवाह को षोडश संस्कारों में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।
गृह्यसूत्र, स्मृतियाँ तथा ज्योतिष-ग्रन्थ स्पष्ट करते हैं कि विवाह कालविशेष में सम्पन्न होना चाहिए, क्योंकि काल स्वयं दैव-शक्ति का मूर्त रूप है। इसी काल का सूक्ष्म विभाजन नक्षत्र (तारा) द्वारा किया गया है। अतः विवाह-मुहूर्त में तारा-शुद्धि का विशेष विचार अनिवार्य माना गया है।
✓•तारा (नक्षत्र) का शास्त्रीय स्वरूप:
ऋग्वेद से लेकर सिद्धान्त ज्योतिष तक नक्षत्रों को दैवी शक्तियों के अधिष्ठान के रूप में स्वीकार किया गया है।
तैत्तिरीय ब्राह्मण (१.५.१) में कहा गया है—
“नक्षत्राणि वै देवानां गृहाः।”
अर्थात् नक्षत्र देवताओं के निवास-स्थल हैं।
अतः जिस नक्षत्र में विवाह होता है, उसी के अनुरूप दैव-फल दाम्पत्य जीवन में प्रकट होता है।
✓•विवाह में तारा-विचार का आधार:
विवाह में नक्षत्रों का विचार निम्न आधारों पर किया जाता है—
•१. स्वभाव (उग्र, मृदु, ध्रुव आदि)
•२. दोषजनक प्रवृत्ति (मृत्यु, संघर्ष, शोक)
•३. गृहस्थ-धर्म के अनुकूलता-विरोध
•४. सन्तान, आयु एवं सौभाग्य पर प्रभाव
✓•शास्त्रों में विवाह हेतु वर्जित नक्षत्र:
•१. आर्द्रा नक्षत्र
स्वभाव – उग्र
अधिदेवता – रुद्र
बृहत्संहिता (मुहूर्ताध्याय) कहती है—
“आर्द्रायां विवाहः शोक-कलहप्रदः।”
आर्द्रा का रुद्रात्मक स्वरूप अश्रु, वेदना, विछोह और मानसिक अस्थिरता उत्पन्न करता है।
अतः विवाह जैसे सौम्य संस्कार के लिए यह नक्षत्र वर्जित है।
•२. आश्लेषा नक्षत्र:
स्वभाव – दारुण, विषद
अधिदेवता – नाग
मुहूर्तचिन्तामणि में कहा गया है—
“आश्लेषायां कृतो विवाहो दम्पत्ये विषसदृशः।”
आश्लेषा का प्रभाव छल, अविश्वास, दाम्पत्य विषाद एवं षड्यन्त्र की प्रवृत्ति उत्पन्न करता है।
विशेषतः स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में यह नक्षत्र अत्यन्त घातक माना गया है।
•३. ज्येष्ठा नक्षत्र:
स्वभाव – उग्र
अधिदेवता – इन्द्र
नारदसंहिता में उल्लेख है—
“ज्येष्ठायां न विवाहः कार्यः, ज्येष्ठत्वात् कलहप्रदा।”
‘ज्येष्ठ’ का अर्थ ही है प्रधानता और अहंकार।
इस नक्षत्र में विवाह होने पर दाम्पत्य में अधिकार-संघर्ष, स्वाभिमान-टकराव और वर्चस्व-युद्ध उत्पन्न होता है।
•४. मूल नक्षत्र:
स्वभाव – तीक्ष्ण, विध्वंसक
अधिदेवता – निर्ऋति
बृहत्संहिता (८७.२८)—
“मूले न विवाहो नोपनयनं च।”
मूल नक्षत्र को सर्वाधिक अशुभ माना गया है।
यह नक्षत्र वंश-नाश, आयु-क्षय, अकाल वैधव्य और सन्तान-दोष से सम्बन्धित है।
•५. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र:
स्वभाव – उग्र
अधिदेवता – आपः
यद्यपि कुछ ग्रन्थ इसे सामान्यतः शुभ कहते हैं, किन्तु विवाह हेतु—
मुहूर्तमार्तण्ड स्पष्ट करता है—
“पूर्वाषाढायां विवाहे दम्पत्ये पराभवः।”
यह नक्षत्र दाम्पत्य में पराजय-भाव, वैचारिक संघर्ष और परस्पर असन्तोष उत्पन्न करता है।
•६. कृत्तिका नक्षत्र (विशेष परिस्थितियों में वर्जित):
स्वभाव – तीक्ष्ण
अधिदेवता – अग्नि
कृत्तिका में विवाह करने पर—
अग्नि-तत्त्व की अधिकता से क्रोध, ताप और दाम्पत्य दहन की सम्भावना मानी गई है।
विशेषतः यदि मंगल, सूर्य अथवा शनि का प्रभाव हो, तो कृत्तिका पूर्णतः वर्ज्य मानी जाती है।
✓•विवाह में ग्राह्य नक्षत्र (संक्षेप):
तुलनात्मक दृष्टि से शास्त्रों ने निम्न नक्षत्रों को विवाह के लिए श्रेष्ठ बताया है—
•रोहिणी
•मृगशिरा
•उत्तराफाल्गुनी
•हस्त
•स्वाति
•अनुराधा
•उत्तराषाढ़ा
•रेवती
✓•तारा-दोष का दाम्पत्य जीवन पर प्रभाव:
शास्त्रों के अनुसार विवाह में वर्जित तारा होने पर—
वैवाहिक जीवन में अकाल कलह
सन्तान-विघ्न
आर्थिक अस्थिरता
मानसिक असन्तुलन
वैधव्य अथवा दाम्पत्य विच्छेद
जैसे परिणाम प्रकट हो सकते हैं।
✓•गृह्यसूत्रीय दृष्टिकोण:
पारस्कर गृह्यसूत्र (१.४.१४) कहता है—
“शुभे नक्षत्रे विवाहः कार्यः।”
यह सूत्र स्पष्ट करता है कि विवाह केवल शुभ नक्षत्र में ही सम्पन्न होना चाहिए; अन्यथा संस्कार निष्फल हो जाता है।
✓•निष्कर्ष:
विवाह-मुहूर्त में तारा-विचार कोई गौण या लोकाचार नहीं, बल्कि वैदिक, स्मार्त और ज्योतिषीय परम्परा का मूल स्तम्भ है।
आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा तथा परिस्थितिजन्य कृत्तिका जैसे नक्षत्रों में विवाह करने से दाम्पत्य जीवन में शोक, संघर्ष, अस्थिरता और क्लेश की सम्भावना शास्त्रसम्मत रूप से स्वीकारी गई है।
अतः विवेकपूर्ण ज्योतिषीय दृष्टि से कहा जा सकता है कि—
“विवाह का काल जितना शुद्ध, दाम्पत्य उतना ही स्थिर और सौभाग्यपूर्ण होता है.
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