Thursday, 10 October 2024

#गरबा

वैसे तो "गरबा" के नाम पर सिर्फ और सिर्फ स्वछंद रूप से उघाड़ी गई पीठ और कमर मटका रहे देश को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा। लेकिन जिन्हें गरबा का असली मतलब जानना है ये लेख उनके लिए है :- 

मूल गरबो शब्द एक पात्र (मिट्टी के बर्तन) के लिए उपयोग किया गया। यह शब्द संस्कृत के "गर्भदीप" से बना। गर्भ शब्द का अर्थ "घड़ा" होता है। छेद वाले घड़े को गरबो कहा जाता है। मिट्टी के छोटे घड़े या हाँडी में 84 या 108 छिद्र करके उसमें दीपक रखा जाता है। घड़े में छेद करने की इस क्रिया को ‘‘गरबो कोराववो’’ कहा जाता है। 

84 छिद्र वाला गरबो 84 लाख योनियों का प्रतीक है जबकि 108 छिद्र वाला गरबो ब्रह्मांड का प्रतीक है। इस घड़े में 27 छेद होते हैं - 3 पंक्तियों में 9 छेद - ये 27 छेद 27 नक्षत्रों का प्रतीक होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण होते हैं (27 × 4 = 108)। नवरात्रि के दौरान, मिट्टी का घड़ा बीच में रखकर उसके चारों ओर गोल घूमना ऐसा माना जाता है जैसे हम ब्रह्मांड के चारों ओर घूम रहे हों। यही 'गरबा' खेलने का महत्व है।

यह हाँडी या तो मध्यभूमि में रखी जाती है या किस महिला को बीच में खड़ा करके उसके सिर पर रखी जाती है। जिसके चारों ओर अन्य महिलाएँ गोलाई में घूम कर गरबो गाती हैं। दीप को देवी अथवा शक्ति का प्रतीक मान कर उसकी प्रदक्षिणा (परिक्रमा) की जाती है। 

कालान्तर में इस नृत्य और गीत का नाम भी गरबो पड़ गया। इस प्रकार गरबो का अर्थ वह पद्य हो गया, जो गोलाई में घूम-घूम कर गाया जाता है।

गर्भदीप शब्द ने, गरबो तक का सफर शब्द अनेक सांस्कृतिक भूमिकाओं से होकर तय किया। और अब गरबो से गरबा तक की यात्रा विकृत्ति, वासना, अश्लीलता, फूहड़ता को समेटे हुए चल रही है।

गरबो के प्रथम लेखक गुजराती कवि वल्लभ भट्ट मेवाड़ा माने गये हैं। (1640 ई. से 1751)। गरबे का वर्णन उन्होंने अपने गरबे "मां ए सोना नो गरबो लीधो, के रंग मा रंग ता़डी" में किया है। 

सौ. चैतन्य बाला मजूमदार ने प्रक्रिया बताई कि नवरात्रि में अखण्ड ज्योति बिखेरता हुआ गरबा स्थापित हुआ। इस गरबे को मध्य में स्थापित कर सुहागिनों ने उसमें स्थित ज्योति स्वरूप शक्ति का पूजन किया एवं परिक्रमा आरम्भ की। इस प्रकार पूजित गरबो को भक्तिभाव में वृद्धि होने से उसे श्रृद्धा से माथे पर रख कर घूमने लगी और अन्य सुन्दरियाँ भी अपने गरबे को सिर पर रख कर गोलाई में घूमने लगीं।

भक्ति भाव की वृद्धि हुई, तो उनके कंठ से देवी माता की स्तुति में मधुर फूटे, वो माता की स्तुति में मधुर गीत गाने लगीं, परन्तु इतने से ही उनकी अभिव्यक्ति और हृदय का आवेश पूरा व्यक्त न हुआ तो सिर पर गरबा रख कर गीत गाते-गाते घूमते हुए हाथ, पैर, नेत्र, वाणी सभी को एक लय कर नृत्य करने लगीं।

गीत, संगीत और नृत्य में एक सामंजस्य स्थापित हुआ और इस प्रकार एक नयी विधा का जन्म हुआ, जो गुजरात का प्रतिनिधि लोकनृत्य बन गया नाम "गरबा"।
अब सोचिए कि आजकल गरबा के नाम पर जो हो रहा है वो सब क्या है?? अब तो देश में सब नाच रहे हैं। सिर्फ नाच रहे हैं! इन नचईयों और नाच आयोजकों से कोई गरबा का असली मतलब पूछे तो वो शायद बता भी नहीं पाएंगे।

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