√●●कुण्डली में दहेज का विचार अष्टम भाव से करना चाहिये। सप्तम भाव जाया है जाया से दूसरा भाव अर्थात् अष्टम, जाया का घन वैभव हुआ। जाया की धन सम्पत्ति का नाम दहेज है। लोगों की लालची आँखें दहेज पर लगी रहती हैं जिसकी कुण्डली में अष्टम भाव पुष्ट, बली है, उसे अनायास बिना मांगे ही दहेज मिलेगा।
√●अष्टम भाव के अपुष्ट एवं निर्बल होने पर माँगने पर भी दहेज नहीं मिलता। यदि बलात् दहेज का दोहन किया जाता है तो वह निश्चय ही उसके लिये अनिष्टकर होगा। अष्टम भाव में स्थित मह वा अष्टम को देखने वाले ग्रह की प्रकृति के अनुरूप धन का स्वरूप होगा। व्यक्ति के लिये दहेज शुभ होगा वा अशुभ, इसका निर्णय अष्टमस्थ राशि राशि के स्वामी, अष्टमस्थ मह/ यहाँ एवं अष्टम द्रष्टा मह/ महों के शुभाशुभ प्रभाव का सम्यक् आकलन कर करना चाहिये।
√●दहेज सामाजिक कोढ़ है। राजाओं, उद्योगपतियों, अति धनाढ्य की देखा-देखी सामान्य जनता को यह शोभा नहीं देता। इसके मूल में अकर्मण्यता एवं लोभ है। स्त्री धन पर जीवन निर्वाह करने वालों को धिक्कार है। अपने मायके से प्राप्त धन का प्रयोग स्त्री स्वयं के लिये करे वर का विक्रय कर स्त्री धन/ दहेज लेने वाले अकर्मण्य धन लोलुप कुक्कुरों को मैं नमस्कार करता हूँ।
√●● अंगिरा ऋषि का वचन है...
"स्त्रिया धनन्तु ये मोहाद् उपजीवन्ति बान्धवाः ।
स्त्रिया यानानि वासांसि ते पापा यान्त्यधोगतिम् ॥"
( अंगिरास्मृति-७१)
√●स्त्री के धन (दहेज) को जो बान्धव भोगते हैं, स्त्री का यान/ वाहन (जैसे ससुराल से मिली मोटर साइकिल स्कूटर कार ) जो प्रयोग में लाते हैं, उस (स्त्री पक्ष) के वस्त्रों को जो व्यवहार में लाते हैं, वे पापी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
√●स्त्री सेवा करती है। जो सेवा करता है, वह शूद्र है। पुरुष सदैव स्त्री से अपनी सेवा कराता है। इसलिये स्त्री शूद्र हुई। मासिक धर्म के समय स्त्रियों से सेवा नहीं ली जाती। इन दिनों स्त्रिय अस्पृश्य वा अछूत होती हैं। प्रकारान्तर से शूद्र जब सेवा धर्म का त्याग कर दे तो वह अछूत होता है, किन्तु पृण्य नहीं। सेवक सबको प्रिय होता है। अतः स्त्री सदा ही पुरुष को प्रिय है। स्त्री का अन्न अर्थात् दहेज में मिला। अन्न वा अन्नोत्पादक कृषि योग्य भूमि से ब्रह्मतेज का हनन होता है। अंगिरा ऋषि कहते हैं...
"राजानं हरते तेज, शूद्रानं ब्रह्मवर्चसम्।
सूतकेषु च यो भुंक्ते स भुङ्क्ते पृथिवीमलम् ॥"
(अंगिरा स्मृति ७२ )
√● राजान्न तेज हर्ता है। शूहान्न तपहर्ता है। सूतकान्न/ अशौचान्न तो पाप ही है। इन तीन अन्नों से जो अछूता है, उसे मेरा प्रणाम । सांसारिक आसक्ति से निवृत होने के लिये भगवान्, विष्णु के चरणों में विधिवत् मन लगाना चाहिये। स्वर्ग के द्वार को खोलने में समर्थ धर्म का उपार्जन भी करना चाहिये। युवती नारी के तन के साथ कामक्रीड़ा अवश्य करना चाहिये। जो ऐसा नहीं करता वह माता के यौवनरूपी वन को काटने में कुल्हाड़ी रूप है ऐसा योगी भाईहरि कहते हैं। यह श्लोक है...
"न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत् संसारविच्छितये, स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुः धर्मोऽपि नोपार्जित।
नारीपीनपयोधरोरूयुगलं स्वप्नेऽपि नालिंगितं,
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥"
( वैराग्य शतक ११ )
√● वैराग्य के लिये ये तीन कर्म आवश्यक हैं। बिना भगवत्पूजा किये बिना धर्म (कलियुग में दान ही धर्म है) किये, बिना स्त्री सहवास किये, स्थिर वैराग्य नहीं होता। पुरुष को वास्तविक वैराग्य देने वाली स्त्री ही है (और स्त्री को पुरुष) ऐसा नित्य समझना चाहिये। स्त्री की लताड़ से पुरुष का स्त्री के प्रति मोह भंग होता है।
√● भर्तृहरि अपने अनुभव की बात करते हैं। ये तीन कर्म अनिवार्य हैं। इसका तात्पर्य है-गृहस्थाश्रम से होकर ही वैराग्य का पथ प्रशस्त होता है। मोक्ष के लिये विवाह (बन्धन) अनिवार्य है। गृहस्थ का बन्धन वास्तविक है। अगूहस्थ का बन्धन अवास्तविक वा मिथ्या है। मिथ्या की मुक्ति सम्भव नहीं। यही विवाह का महत्व है।
√●जो जीवन भर स्त्री का ध्यान करता रहा, ईश्वर का ध्यान ही न किया, उसे मुक्ति कहाँ ? एक बड़ा सुन्दर श्लोक है ...
"चिरंध्याता रामा, क्षणमपि न रामप्रतिकृतिः
परं पीतं रामाधरमधु, न रामालिंगसलिलम् ।
नवा रुष्टा रामा यदचिन रामायविनति:,
गतं मे जन्म्याय्यं न दशरथजन्मा परिगतः ।"
√●●सुन्दर स्त्री को रामा कहते हैं। आजीवन रामा का ध्यान करता रहा और क्षण भर भी राम की छवि ध्यान नहीं किया। रामा के अधरोष्ठ शहद को जी भर पिया और राम के चरणामृत का पान किया ही नहीं। रुष्ट हुई रामा के सामने बार-बार झुका और राम के सम्मुख एक बार भी नहीं। मेरा सम्पूर्ण जीवन व्यतीत हो गया और मैं दशरथजन्मा राम को न जान पाया। व्यक्ति ऐसे ही पछताता है, जब उसके जीवन का सूर्य अस्ताचल के निकट पहुँचता है।
√●●राम के बिना रामा व्यर्थ हैं। रामा के बिना जीवन नीरस है। गृहस्थ को दोनों चाहिये। राम और रामा का आगमन जिसके जीवन में है, वह धन्य है। उस सगृहस्थ संत को मेरा प्रणाम है।
"सुखतः क्रियते रामाभोग पश्चादहन्त!
शरीरे रोगः ।"
( शंकराचार्य)
√● पहले रामा का भोग सुखपूर्वक किया जाता है, बाद में शरीर रोग से त्रस्त होता है। इसलिये हे मन । राम को न भूल। राम सत्य है, रामा मिथ्या ।
"रामश्शरणं मम।"
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