Friday, 14 June 2024

व्यास पीठ और अधिकार

व्यास पीठ पर बैठने की पात्रता

कथावाचक या उपदेशक के लिए व्यासपीठ वह स्थान है, जिसके माध्यम से वह किसी भी संदेश या उपदेश को समाज तक सहजता से प्रेषित करता है।
दुर्भाग्य से यह माध्यम अनेक प्रकार से प्रदूषित होता जा रहा है। इस प्रदूषण का कारण है इस माध्यम का उपयोग ब्राह्मणेतर और सदाचार - हीन लोगों द्वारा करना ।
व्यास पद पर बैठने का कौन पात्र माना गया है,
इसका स्पष्ट विवेचन शास्त्रों में मिलता है।
वास्तव में व्यासपीठ पर बैठने के अधिकारी सच्चरित्र, वेद-धर्मशास्त्रज्ञ, भगवद्भक्त ब्राह्मण को ही माना गया हैं। 
इस विषय में श्रीमद्भागवत माहात्म्य का श्लोक प्रमाण के रूप में उद्धृत है-

विरक्तो वैष्णवो विप्रो वेदशास्त्र विशुद्धिकृत् ।
दृष्टान्त - कुशलो धीरो वक्ता कार्यो ऽतिनिस्पृहः ॥

1. विरक्तः - अर्थात 'धनाद्यभिलाषशून्य : ' यानी जो सांसारिक प्रपंचों से विरक्त और भगवत्प्रेम में अनुरक्त हो, उसी विद्वान ब्राह्मण को विरक्त कहा गया है। इसी बात का समर्थन करते हुए पद्मपुराण में लिखा है कि-

आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
ब्राह्मणो वीतरागश्च क्रोधलोभ विवर्जितः ॥

2. वैष्णवः - पद्मपुराण के वृंदावन माहात्म्य में विभिन्न सम्प्रदायों के साथ समस्त ब्राह्मणों को वैष्णव कहा गया है। विष्णुदीक्षाविहीनानांनाधिकारः कथाश्रवे का तात्पर्य है कि वैष्णव को ही कथा सुनने - सुनाने का अधिकार है-

ब्राह्मणावैष्णवामुख्यायतो विष्णुमुखोद्भवाः ।
अंगेषु देवताः सर्वाः मुखे वेदाः व्यवस्थिताः ॥
विप्रैः कृता वैष्णवास्तु त्रयो वर्णा भवन्ति हि ॥

3. विप्रः - यद्यपि विप्र शब्द त्रैवर्णिक में घटित हो सकता है, तथापि यहाँ पुराणवक्ता के रूप में केवल वेद-शास्त्रज्ञ सद्गृहस्थ ब्राह्मण ही ग्राह्य हैं, गृहस्थेतर में श्रोत्रिय या विप्र शब्द का व्यवहार  अमान्य है-

श्रोत्रियो ब्राह्मणो ज्ञेयो न वैश्यो नैव बाहुजः ।
वेदाध्ययन साम्येऽपि पुरुषोत्तम शब्दवत्॥

पद्मपुराण में भी यही बात स्पष्ट रूप से कही है- वक्तारं ब्राह्मणं कुर्यान्नान्यवर्णजमादरात् जन्मना ब्राह्मण को ही वक्ता के रूप में पवित्र व्यासपीठ पर बैठाना चाहिए।हेमाद्रि में उद्धृत नन्दिपुराण का भी वचन देखें- वाचको ब्राह्मणः प्राज्ञः श्रुतशास्त्रो महामनाः वेदज्ञ गृहस्थ ब्राह्मण ही कथावाचक के रूप में व्यासपीठ पर विराजमान हो सकते हैं। कौशिकसंहिता के भागवत माहात्म्य के अनुसार- विप्र से अतिरिक्त वर्णों में शास्त्र का शास्त्रत्व ही विनष्ट हो जाता है-

यावद्विप्रगतं शास्त्रं शास्त्रत्वं तावदेव हि ।
विप्रेतरगतं शास्त्रम् अशास्त्रत्वं विदुर्बुधाः ॥

4. वेदशास्त्रविशुद्धकृत्- वेदादिशास्त्रों में टंकण आदि दोषों को दूर कर अपनी विद्या से शुद्ध कर व्याख्यान देनेवाला वक्ता हो सकता है।

5. अतिनिस्पृहः- यानी धन आदि संग्रह से रहित विरक्त गृहस्थ ब्राह्मण ही कथाव्यास हो सकते हैं।

Gurudev bhubneshwar
Parnkuti guna
९८९३९४६८१०

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