Thursday, 28 March 2024

संख्याओं का विशेष महत्व है -

हिन्दू धर्म में कुछ संख्याओं का विशेष महत्व है -

1) एक ओम्कार् (ॐ)

2) दो लिंग - नर और नारी ।

दो पक्ष - शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

दो पूजा - वैदिकी और तांत्रिकी।

दो अयन- उत्तरायन और दक्षिणायन।

3) तीन देव - ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।

तीन देवियाँ - सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती।

तीन लोक - पृथ्वी, आकाश, पाताल।

तीन गुण - सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।

तीन स्थिति - ठोस, द्रव, गैस।

तीन स्तर - प्रारंभ, मध्य, अंत।

तीन पड़ाव - बचपन, जवानी, बुढ़ापा।

तीन रचनाएँ - देव, दानव, मानव।

तीन अवस्था - जागृत, मृत, बेहोशी।

तीन काल - भूत, भविष्य, वर्तमान।

तीन नाड़ी - इडा, पिंगला, सुषुम्ना।

तीन संध्या - प्रात:, मध्याह्न, सायं।

तीन शक्ति - इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

4) चार धाम - बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।

चार मुनि - सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।

चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।

चार नीति - साम, दाम, दंड, भेद।

चार वेद - सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

चार स्त्री - माता, पत्नी, बहन, पुत्री।

चार युग - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।

चार समय - सुबह, शाम, दिन, रात।

चार अप्सरा - उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।

चार गुरु - माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।

चार प्राणी - जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।

चार जीव - अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।

चार वाणी - ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।

चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।

चार भोज्य प्रकार - खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।

चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

चार वाद्य - तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

5) पाँच तत्व - पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।

पाँच देवता - गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ - आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।

पाँच कर्म - रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।

पाँच - उंगलियां - अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।

पाँच पूजा उपचार -गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।

पाँच अमृत - दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।

पाँच प्रेत - भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।

पाँच स्वाद - मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।

पाँच वायु - प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।

पाँच इन्द्रियाँ - आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।

पाँच वटवृक्ष - सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (इलाहाबाद), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।

पाँच पत्ते - आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।

पाँच कन्या - अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

6) छ: ॠतु - शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।

छ: ज्ञान के अंग - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।

छ: कर्म - देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।

छ: दोष - काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच),  मोह, आलस्य।

7) सात छंद - गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।

सात स्वर - सा, रे, ग, म, प, ध, नि।

सात सुर - षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।

सात चक्र - सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।

सात वार - रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।

सात मिट्टी - गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।

सात महाद्वीप - जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।

सात ॠषि - वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।

सात ॠषि 2 - वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।

सात धातु (शारीरिक) - रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग - बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।

सात पाताल - अतल, वितल, सुतल, तलातल,महातल, रसातल, पाताल।

सात पुरी - मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।

सात धान्य - उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

8) आठ मातृका - ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।

आठ लक्ष्मी  - आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।

आठ वसु - अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।

आठ सिद्धि - अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।

आठ धातु - सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

9) नवदुर्गा - शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।

नवग्रह - सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।

नवरत्न - हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।

नवनिधि - पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।

10) दस महाविद्या - काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।

दस दिशाएँ - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।

दस दिक्पाल - इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।

दस अवतार (विष्णुजी) - मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।

दस सती - सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।

Thursday, 21 March 2024

संतान प्राप्ति कैसे हो

√●स्त्री को अग्नि और पुरुष का सोम मिलने से सन्तति का अंकुर फूटता है। इस अंकुर सृष्टि का क्या स्वरूप है, इस पर मैं विचार करता हूँ। जिस अनादि ज्ञान को ऋषियों ने हमें दिया है, उसी ज्ञान को अधिक स्पष्टता के साथ नव्यरूप देते हुए मैं यहाँ प्रस्तुत करता हूँ। विराट् पुरुष एक है। उसने सृष्टि की इच्छा की। अपने को दो भागों में विभक्त किया। उसका बाँया भाग स्त्री तथा दायाँ भाग पुरुष हो गया। इस मिथुन से सृष्टि का क्रम चल पड़ा। 
         उपनिषद् कहता है...

 "स वै नैव रेमे तस्मादेकाकी न रमते द्वितीयमैच्छत् ।स हैतावानास यथा स्त्रीपुमांसौ सम्परिष्वक्तौ स इममेवात्मानं द्वेधाऽपातयत्ततः पतिश्व पत्नी चाभवतां। तस्मादिदमर्धबृगलमिव स्व इति मा याज्ञवल्क्यस्तस्मादयमाकाशः स्त्रिया पूर्यत एव तां समभवत्ततो मनुष्या अजायन्त ।" 
( बृहदारण्यक उपनिषद् १ । ४ । ३)

√●इस श्रुति प्रमाण से सिद्ध है कि मनुष्य स्त्री-पुरुष रूप द्वैधा है। प्रत्येक पुरुष में स्त्री विद्यमान है तथा प्रत्येक स्त्रो में पुरुष वर्तमान है। मानव देह खोपुरुषमय है। नाक के शीर्ष बिन्दु को नाभि के मध्य बिन्दु से मिलाने वाली रेखा शरीर को दो समान भागों में विभक्त करती है। इस प्रकार समविभाजित बाँया भाग स्त्री तथा दाँया भाग पुरुष होता है। इतना ही नहीं, अपितु शरीर का प्रत्येक अंग भी स्त्रीपुरुषमय है। एक-एक अंग का वाम भाग स्त्री तथा दक्षिण भाग पुरुष क्षेत्र है। इसमें कोई सन्देह नहीं। अब हम अपने अभीष्ट प्रतिपाद्य गर्भाशय पर आते हैं। स्त्री का गर्भाशय भी स्त्रीपुरुषमय है।

【★★★गर्भाशय में तीन छिद्र हैं★★★】

√●(क) छिंद्र से वाम अण्डकोश जुड़ा है।

√● (ख) छिद्र से दक्षिण अण्डकोश जुड़ा है।

√● (ग) गर्भाशय का एकमात्र मुख है जो नीचे की ओर है। इस प्रकार यह गर्भाशय तपोवन त्रिनेत्र है। त्रिनेत्राय नमः ।

√● प्राचीन पद्धति से बनी कुण्डलियों में यह लिखा हुआ होता है-अमुक भार्यायां दक्षिणकुक्षौ पुत्ररत्नमजीजनत/ वामकुक्षौ कन्यारत्नमजीजनत। इसका अर्थ हुआ- गर्भाशय (कुक्षि) के दक्षिण भाग से पुत्र तथा वाम भाग से कन्या की उत्पत्ति होती है। यह अकाट्य, अमोद्य एवं निस्संदिग्ध सत्य है। इस सूत्र में बहुत बड़ा दर्शन है। याम गवीनिका / अण्डवाहिनी से आने वाले अण्ड में स्वी तत्व का बाहुल्य होता है। दक्षिण अण्डवाहिनी/गवीनी से निकलने वाले अण्ड में पुरुष तत्व का प्राचुर्य होता है। दायें भाग से निकले अण्ड + पुरुष का शुक्रा= पुमान् संतति =पुत्ररत्न । बायें भाग से निकले अण्ड + पुरुष का शुक्राणु स्त्री संतति = कन्यारत्न। यह ध्रुव तथ्य है।  पुरुष का सूर्य स्वर चलता है तो उसके शुक्राणु से पुत्र तथा चन्द्र स्वर चलता है तो उसके शुक्राणु से पुत्री का जन्म होता है। यह भी ध्रुव सत्य है। स्त्री के मासिक धर्म को समरात्रियों एवं चन्द्रस्वर में पुत्र पैदा होता है। स्त्री के मासिक की विषम रात्रियों एवं उसके सूर्य स्वर में कन्या की उत्पत्ति होती है। यह अनुभूत सत्य है तथा शास्त्र सम्मत है। स्त्री का दोनों स्वर गर्भाधान काल में चहता है तो नपुंसक कन्या एवं पुरुष का दोनों स्वर गर्भाधान के समय चलता है तो नपुंसक पुत्र का जन्म होता है। पल के बाम भाग से जब कलल जुड़ता है तो पुत्री पैदा होती है। यही कलल जब उसके दायें गर्भाशय के क्षेत्र से जुड़ता है तो पुत्र की उत्पत्ति होती है।

√●●सामान्यतः एक रात में एक बार गर्भाधान क्रिया सम्पन्न की जाती है। स्त्री १६ से २२ वर्ष के बीच तथा पुरुष १९ से २५ वर्ष के बीच की अवस्था का होता है तो एक से अधिक बार एक ही रात में गर्भाधान हो जाता है। दक्षिण स्वर से २ बार गर्भाधान करने पर जुड़वाँ पुत्र तथा वाम स्वर से २ बार गर्भाधान करने पर जुड़वाँ कन्याएँ पैदा होती हैं। स्त्री और पुरुष जब अत्यन्त कामावेग में होते हैं तो पूरी रात रह-रह कर मैथुन करते रहते हैं। एक रात में जितनी बार गर्भाधान क्रिया की जाती है, उतनी संताने एक साथ गर्भ में से पैदा होती हैं। पुत्र व पुत्री पैदा करना पुरुष के अपने हाथ में है। हाथ में होते हुए भी देव विरुद्ध होता है तो उसके प्रयत्न को निष्फल कर देता है। यह सत्य है और स्वानुभूत है। किस प्रकार के गुण / दोष वा शील वाला पुत्र पैदा किया जाय, यह भी पुरुष के हाथ में है किन्तु दैव नियन्त्रित है। गर्भाशय क्षेत्र की वाम दीवार पर जो बीज पड़ता है उससे कन्या ही जन्मेगी। गर्भाशय की दक्षिण भित्ति पर पड़े बीज से पुत्र ही पैदा होगा। गर्भाशय क्षेत्र के मध्य में जो बीज पड़ेगा, उससे नपुंसक का होना अनिवार्य है। सम्भोग का एक ढर्रा होता है। उस ढर्रे से सम्भोग करने से एक बार पुत्र पैदा हुआ तो बार-बार पुत्र ही पैदा होगा तथा एक बार पुत्री हुई तो बार-बार पुत्री ही उत्पन्न हुआ करेगी, जब तक कि दरें में परिवर्तन न किया जाय।

√●बहुप्रजा दरिद्रायते। अधिक संतति का होना दरिद्रता को निमन्त्रण देना है। संतति का न होना भी ठीक नहीं है। एक संतति पुत्र वा पुत्री अशुभ है। कम से कम दो सन्तान हो दो सन्तान द्विबाहु है। तीन संतान त्रिविक्रम है। चार सन्तान चतुर्मुख हैं। पाँच सन्तान पञ्चानन है। छः सन्तान षडानन है। अब बहुत हो गया। अधिक संतति अभिशाप है। कौरव दल के गठन का अर्थ है, सम्पूर्ण वंश का नाश। फिर, गान्धारी और धृतराष्ट्र क्यों बना जाय ? जो स्त्री आँख पर पट्टी बाँध लेती आँख मूँद कर संतति हेतु रति में लीन रहती है, वह गान्धारी है। जिसके पास विवेक दृष्टि नहीं है, सतत संतति विस्तार हेतु भोग में लीन है, वह धृतराष्ट्र है। ये दोनों ही मानवता एवं शांति के शत्रु हैं। गर्भाशय त्रिकोण है। इसलिये तीन संतति बहुत है। इस सीमा का उल्लंघन सुखपालक है। संततिनिरोध के कृत्रिम साधनों को अपनाना अज्ञता एवं पागलपन है। सम्भोग से दो वस्तुएँ मिलती हैं-१. आधिव्याधि २. समाधि वीर्य का क्षय आधिव्याधि का कारक एवं सुखशांति का बाधक है। वीर्य का स्तम्भन / अक्षयन समाधि का हेतु एवं आनन्द का कारक है। स्तम्भन एवं आनन्द की सृष्टि मन्त्रजाप से होती है। यह ऋषिपद्धति है। इस पद्धति में स्त्री-पुरुष संभोग रत रहते हुए इष्ट मन्त्र का जप करते रहते हैं। इससे पूर्ण रति तुष्टि तथा युगल समाधिजन्य आनन्द की प्राप्ति होती है। शुक्रस्तम्भन एवं रज का अस्खलन इसका मूल सूत्र है। यह सब मेरा अनुभूत प्रयोग है।

√●●जिसके पुत्र ही पुत्र हैं, कन्या नहीं है, वे कन्यादान न कर पाने से अगले जन्म में स्त्रीसुख से वञ्चित रहते हैं। स्त्री जाति के प्रति आदर का भाव रखने से इस दोष (पुत्री विहीनता) का निवारण होता है। जिसके कन्या ही कन्या है पुत्र नहीं है, वह वंशलोप की ग्लानि से ग्रस्त होता है। जिन माताओं को केवल पुत्रियों ही हैं, उन्हें पुत्र पाने के लिये ये उपाय करना चाहिये...

√●१. तीन मोरपंख लें। इनमें से चन्द्रमा वाला नीला भाग निकाल लें। इन्हें अलग-अलग पीस कर गुड मिला कर गोलियाँ बना लें। तीन गोलियाँ बनेंगी। गर्भ के दूसरे महीने के अन्त में जब स्त्री का सूर्यस्वर चल रहा हो, नित्य प्रातः १ एक गोली तीन दिनों तक बिना किसी व्यवधान के दायें हाथ से जीवित बछड़े वाली गाय के दूध के साथ खायें। इन तीन दिनों में गो दुग्ध का ही कल्प करें, अन्न न खायें तो निश्चित रूप से पुत्र उत्पन्न होता है।

√● २. पुत्र की इच्छुक जीवती हट्टीकट्टी पुष्टका माताएं वसीय एवं निष्ट पदार्थों को ग्रहण करना बन्द कर दें। अपने शरीर को व्रत उपवास से क्षीण करें। इतना करने मात्र से पुत्र की उपलब्धि होती है। 1 रबड़ी, मलाई, खोवा, मेवा, अण्डा, मिठाई खाते रहने से पुणे ही जन्मती है। शाक एवं लवणीय पदार्थों से पुत्र होता है। यहीं कारण है कि धनियों के यहाँ कन्या तथा दरिद्रों के घर पुत्र की बहुतायत होती है।

√●३. ऋतुकालपर्यन्त एक-एक पलाशपत्र गोदुग्ध के साथ पीस कर पीने से पुत्र की प्राप्ति होती है। सन्तानहीन दम्पत्ति के दुःख को कैसे कहा जाय ? स्त्री के बाँझपन को दूर करने के ये उपाय हैं- 

√●१क. किसी स्त्री को मासिक धर्म होता है, किन्तु गर्भ नहीं ठहरता तो मासिक धर्म के दिनों में तुलसी का बीज पानी में पीस कर लेने (पीने) से या उसका काढ़ा बना कर पीने से गर्भ ठहरता है।

√● २ख. बन्ध्यास्त्री आधी मुट्ठी सौंप का चूर्ण गोघृत के साथ प्रतिदिन तीन मास तक खाये तो उसका गर्भ ठहरता है।

 √●३ग. पानी में भीगे रूई के फोये में फिटकरी की एक डली लपेट कर रात को सोते समय योनि में रखें। प्रातः जब उसे निकालेंगे तो उस पर रुई के चारों ओर दूध की खुरचन सी जमी होगी। फोन तब तक रखते रहें, जब तक खुरचन आती रहे। जब खुरचन न आये तो समझाना चाहिये कि बन्ध्यात्व  समाप्त हो गया। पश्चात् गर्भ ठहरना ही है। 

√●४घ. गोमूत्र का सेवन करते रहने से बन्ध्यापन का पूर्णतः नाश होता है और गर्भ ठहरता है। बछड़े वाली गाय के मूत्र से पुत्र तथा बछिया वाली गाय के मूत्र से पुत्री की प्राप्ति होती है।

√●● गर्भ ठहराने के लिये पुरुष की अशक्तता को दूर करने के ये उपाय हैं- 

√★१. एक मुट्ठी अंकुरित गेहूं खूब बारीक पीस कर गोदुग्ध के साथ सेवन करने से तथा पाँच कली लहसुन की गोघृत के साथ खाने से पौरुष शक्ति मिलती है। 

√★२. पुनर्नवा के सेवन से नव यौवन को प्राप्ति होती है। 

√★३. दूर्वादल चरने वाली गाय के पञ्चगव्य का पान करने से नपुंसकता कारक पापों का चयन होता है। 

√●विष्णु विराट रूप से स्वयं अच्छी तरह स्थित है। उस विष्णु का उल्ब (गर्भ को ढकने वाली झिल्ली)) सुमेरु है, पर्वत समुदाय जरायु (गर्भाशय) है, समुद्रों का जल गर्भाशयस्थ रस है। यह वचन है...

" विष्णुब्रह्मस्वरूपेण स्वयमेव व्यवस्थितः ॥
 मेरुरुल्बमभूत्तस्य जरायुश्च महीधराः। गर्भोदकं समुद्राश्व तस्यासन्महात्मनः ॥"
(विष्णु पुराण १। २। ५६-५७ )

【मेरुः उल्बम् अभूत् तस्य जरायुः च महीधराः ।
 गर्भ-उदकम् समुद्राः च तस्य आसन् सुमहात्मनः ॥ 】

√◆माता के गर्भ में जो जीव प्रवेश करता है, वह वहीं विराट् विष्णु है। जीव गर्भ में समाधिस्थ होता है। समाधिस्थ जीव स्वयमेव ब्रह्म है। गर्भ में जीव के चारों और तीन झिल्लियाँ होती हैं-उल्प, जरायु. तथा पाती । उल्ब तथा जरायु भ्रूण झिल्लियाँ है तथा ये निषेचित अण्डाणु से बनती है। पाती झिल्ली एक मातृ झिल्ली है, क्योंकि यह गर्भाशयी श्लेष्मिका से बनती है। पाती झिल्लियों जरायु के बाहर होती हैं।

√★गर्भ जब बाहर निकलता है तो इसके साथ तीनों झिल्लियाँ भी बाहर आ जाती हैं। गर्भ का उदक मानो समुद्र है। उसमें लेटा पड़ा हुआ जीव मानो क्षीरशायी विष्णु है। इस विष्णु को मेरा प्रणाम !

√★ गर्भ के बाहर आने के बाद यह जीव लोक सत्य का अनुभव करता है, अन्न तेज बल प्रभुत्व रस मधु सोम को पाता है। यह वेद मन्त्र है...

" रेतो मूत्रं वि जहाति योनिं प्रविशदिन्द्रियम्।
गर्भो जरायुणाऽऽवृत उल्बं जहाति जन्मना । ऋतेन सत्यामिन्द्रियं विपानं शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु।।"
         ( यजुर्वेद १९।७६ )

√★ प्रविशत् = सर्वत्र घुसा हुआ, व्यापन करता हुआ, विद्यमान।

√★ इन्द्रियम् = ज्ञान बल। 

√★योनिम् = मूलस्थान जननात्मक कारण गर्भाशय कोटर ।

√★ मूत्रम् = बन्धन। [मू (बन्धने मावते बाँधना) + त्रन्= मूत्रा]

√★ रेतः = दुःखदायक स्थान वस्तु काल परिस्थिति। [री (रेषणयोः पीड़ा देना दुःख देना) + असुन्=रेतस्]

√★विजहाति = छोड़ता/ त्यागता है। 

√★जरायुणा आवृत = जरायु झिल्ली से ढका हुआ।

√★ जन्मना = जन्म के समय। 

√★गर्भः = भ्रूण उदरस्थ जीव । 

√★ऋतेन= शाश्वत् व्यवस्था से युक्त ।

√★सत्यम् = सत्य को ।

√★ इन्द्रियम् = बल को।

 √★विपानम् = विविध पेयों/रसों को। 

√★अन्धसः== अन्न से प्राप्त।

 √★शुक्रम्= तेज को।

 √★इन्द्रस्य= परमेश्वर के।

 √★इन्द्रियम्= ज्ञान को।

 √★पयः = दूध।

√★ मधु = शब्द ।

√★अमृतम् = अमृत को। 

√★मधुपयः अमृततम् = शहद मीठे दूध रूपी अमृत को ।

√●मन्त्रार्थ- गर्भस्थ जीव को व्यापक ज्ञान होता है। उसमें पूर्व जन्मों की सभी स्मृतियाँ रहती हैं। जब वह गर्भ से बाहर निकलने लगता है तो यह विद्यमान ज्ञान (प्रविशत् इन्द्रियम्) उससे छूट जाता है। वह मूलस्थान (योनि) को छोड़ देता है। वह गर्भ के बन्धन (मूत्र) को छोड़ देता है। वह गर्भ के दुःखदायक स्थान (रेत) को छोड़ देता है। गर्भ से बाहर आने के बाद वह जीव (गर्भ) जिस आवरण से ढका होता है, वह जरायु छूट जाता है। उसका दूसरा आवरण उल्ब भी छूट जाता है। अब शिशु अपने परिजनों के अंक में होता है। बड़ा होकर यह जीव प्राकृतिक संसाधनों से सत्य को पाता है, बल को पाता है, विविध रसों / आनन्द सुखों को भोगता है, अन्न से प्राप्त तेज को ग्रहण करता है, परमेश्वर के ज्ञान (इन्द्रस्य-इन्द्रियम्) को ग्रहण करता है तथा वह मधुर दुग्ध रूप अमृत को पाकर अन्ततः धन्य होता है।

√●जीवन में जिसने अनुपयोगी का त्याग करते हुए उपयोगी को ग्रहण करते हुए ज्ञान रूप अमृत को पी लिया- आत्म तत्व का साक्षात्कार कर लिया, वह जीव धन्य है। ऐसे ब्रह्मज्ञानी को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ, अपना हृदय देता हूँ।
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Sunday, 17 March 2024

रजस्वला धर्म

#संभाल_कर बोलिऐ शास्त्र को पढ़ कर बोलिए जान कर बोलिए वरन् शास्त्र अगर शस्त्र बनगया तो फिर भगवान भी नहीं बचा पायेगा,,,,,,,

#रजोधर्म_व_उसके_बाद

 रजोधर्म स्त्रीयों को त्रेता युग से माना जाता है -- 
 " त्रेताप्रभृति नारीयां मासि मास्यार्तवं द्विजाः। " 
कारण की जब वृत्रासुर  की हत्या के बाद इन्द्र को ब्रह्महत्या लगी तो ब्रह्म जी ने और कल्प भेद से इन्द्र ने उस ब्रह्महत्या को चार भागों में बांट दिया जिसमें से एक भाग जल को - एक भाग भूमी को - एक भाग वृक्षों को - एक भाग स्त्रियों को दिया ---

          जल में काई ब्रह्महत्या का दोष है - पृथ्वी में ऊसर भूमी ब्रह्महत्या का दोष है - वृक्षों में गोंद ब्रह्महत्या का दोष है अतः  पुरूषों को प्रयास कर गोंद के सेवन से बचना चाहिए -- स्त्रीयों को रजोधर्म ब्रह्महत्या का दोष है --
          साथ ही इनको ब्रह्मा जी ने वरदान भी दिये -- जल को कोई कितना भी दूषित कर ले कुछ समय बाद वह निर्मल हो जाता है -- भूमी में किये गढ्ढे कुछ समय पश्चात् स्वतः भर जाते हैं - वृक्षों को काटने के पश्चात् कुछ समय बाद वे पहले से भी अधिक अंकूर वाला हो जाता है -- स्त्री को सदैव कोई रक्षक व पालक मिल जायेगा - संतानवान होगी - व आयु बढने के बाद भी काम की इच्छा बनी रहेगी --- ये इनको वरदान दिये ---

           युग की प्रवृति के अनुसार सत्ययुग में लोग स्त्रियों के साथ एक बार सहवास करते थे और संतान उत्पन्न हो जाती थी - अब की तरह पशुओं  के समान मैथुन नहीं करते थे --
" कृते सकृद्युगवशाज्जायन्ते वै सहैव तु । 
  प्रयान्ति च महाभागा भार्याभिः----    ।। "

तो बात करते हैं स्त्री के रजोधर्म की -----
" प्रथमेऽहनि चाण्डाली यथा वर्ज्या तथाङ्गना। 
  द्वितियेऽहनि विप्रा ही यथा वै ब्रह्मघातिनी ।। 
  तृतीयेऽह्नि तदर्धेन चतुर्थेऽहनि सुव्रताः । 
  स्नात्वार्धमासात्संशुद्धा ततः शुद्धिर्भविष्यति।। " 
            रजस्वला स्त्री पहले दिन चाण्डाली की भांति वर्ज्य होती है -- हे विप्रो! दूसरे दिन ब्रह्मघातनी और तीसरे दिन उसके आधे पाप से युक्त रहती है -- हे सुव्रतो! चौथे दिन स्नान करके वह आधे महिने तक देवपूजन आदि के लिए शुद्ध रहती है -- पाँचवें दिन से सोलहवें दिन तक रजोदोष रहने के कारण स्त्रीस्पर्श आदि की शुद्धि मूत्रोत्सर्ग की शुद्धि की तरह कही गई है -- इसके बाद ही उसकी पूर्ण शुद्धि होगी ।

       रजस्वला 

         रजोधर्म के चौथे दिन स्त्री गमन के योग्य नहीं होती -- चौथे दिन के समागम से अल्पायु वाले पुत्र को जन्म देती है - वह विद्या रहित - व्रत से च्युत - पतित - दूसरों की स्त्रियों के साथ दुराचार करने वाले तथा दरिद्रता के समुद्र में डुबे रहने वाले पुत्र को उत्पन्न करती है ।। वशिष्ठ ।।
" चतुर्थ्यां स्त्री न गम्या तु गतोऽल्पायुः प्रसूयते ।
  विद्याहीनं व्रतभ्रष्टं पतितं पारदारिकम् ।।
  दारिद्रयार्णवमग्नं च तनयं सा प्रसूयते ।। "

       पुत्री की कामना वाले को पाँचवें दिन स्त्री के साथ गमन करना चाहिए -- रक्त का आधिक्य होने पर कन्या होती है - शुक्र का आधिक्य होने पर पुत्र होता है -- और दोनों समान होने पर नपुंसक संतान उत्पन्न होती है - पाँचवे दिन या विषम दिन में सहवास से कन्या उत्पन्न होती है - सम दिन में पुत्र ।
" कन्यार्थिनैव गन्तव्या पञ्चम्यां विधिवत्पुनः। 
  रक्ताधिक्याद्भवेन्नारी शुक्राधिक्ये भवेत्पुमान्।।
  समे नपुंसकं चैव पञ्चम्यां कन्यका भवेत् ।।

          छठें दिन यदि स्त्रि सहवास किया जाये तो वह महाभाग्यवती स्त्री उत्तम पुत्र को जन्म देती है वह पुत्र महातेजस्वी होता है - वह 
  '  पुम् ' नामक नरक से से उद्धार करने वाला होता है -- वह स्त्री पुम् ( नरक ) से त्राण ( रक्षा ) करने वाले पुत्र को जन्म देती है ।
" पुमिति नरकस्याख्या दुःख च नरकं विदुः। 
  पुंसस्त्राणान्वितं पुत्रं तथा भूतं प्रसूयते ।। "
       
        कन्या की इच्छा वाले सातवीं रात्री में गमने करे - किन्तु वह कन्या बन्ध्या होती है --
      
        आठवीं रात्री में स्त्री सर्वगुण सम्पन्न पुत्र को जन्म देती है -- कन्या की इच्छा वाले व्यक्ति नौवीं रात में सहवास करना चाहिए -- दसवीं रात में संभोग करने पर विद्वान पुत्र उत्पन्न होता है -- ग्यारहवीं रात में सहवास करने पर वह पुत्री पूर्व की कन्या उत्पन्न करती है ---

       बारहवें दिन स्त्री धर्मतत्त्व के ज्ञाता तथा श्रुति - स्मृति के धर्मों को चलाने वाले पुत्र को उत्पन्न करती है --
" द्वादश्यां धर्मतत्त्वज्ञं श्रौतस्मातृप्रवर्तकम् ।"

        तेरहवीं रात में गमन करने पर मूर्ख तथा वर्णसंकर दोष फैलाने वाली कन्या उत्पन्न होती है - अतः पूरे प्रयत्न से उस तेरहवें दिन को सहवास नहीं करना चाहिए--
" त्रयोदश्यां जडां नारीं सर्वसङ्करकारिणीम्। 
  जनयत्यङ्गना यस्मान्न गच्छेत्सर्वयत्नतः।। "

यदि चौदहवीं रात में गमन किया जाये - तो वह स्त्री पुत्र उत्पन्न करने वाली होती है -- पन्द्रहवीं रात में गमन करने पर वह धर्मनिष्ठ कन्या को तथा सोलहवीं रात में गमन करने पर ज्ञान में पारंगत पुत्र को उत्पन्न करती है ---

       मैथुन के समय यदि स्त्रियों के बायें पार्श्व में वायु प्रवाहित होता हो - तो कन्या होती है और दक्षिण पार्श्व में प्रवाहित हो तो पुत्र प्राप्त होता है ।
" स्त्रीणां मैथुनकाले तु पापग्रहविवर्जिते ।। " 

 

Tuesday, 5 March 2024

होलीका दहन पर बन रहा विशेष योग सर्वार्थसिद्धि, और रवि योग में होगा दहन

 होलीका दहन पर बन रहा विशेष योग सर्वार्थसिद्धि, और रवि योग में होगा दहन
 होलिका दहन रविवार, 24 मार्च  2024 को
 बही दिन घोड़ी ,बही दिन गाय,
 बही दिन होली दियो जलाये
 गुरुदेव भुवनेश्वर जी महाराज पर्णकुटी आश्रम  ने बताया हिंदू पंचांग के अनुसार, इस साल फाल्गुन पूर्णिमा तिथि 24 मार्च को सुबह 9 बजकर 54 मिनट से प्रारंभ होगी और 25 मार्च को दोपहर 12 बजकर 29 मिनट पर इसका समापन होगा. इसलिए होलिका दहन 24 मार्च दिन रविवार को होगा और रंग वाली होली 25 मार्च को खेली जाएगी.
होलिका दहन का समय 24 मार्च रविवार को रात्रि 11बजकर 14 मिनिट से 12बजकर 20मिनिट तक श्रेष्ठ है
होलिका दहन की अग्नि की लपटों की दिशा से अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरा साल व्यापार, शिक्षा, वित्त, कृषि, रोजगार आपदा, विपत्ति आदि के लिए कैसा रहने वाला है. क्योंकि होलिका दहन के समय हवा की दिशा से ही भविष्य में घटित होने वाली अच्छी-बुरी घटनाओं से संकेत मिल जाते हैं.

गुरुदेव भुवनेश्वर  पर्णकुटी वालो ने बताया कि जब होलिका की अग्नि सीधे आकाश की ओर उठे तो इसे सबसे अच्छा माना जाता है. इसका अर्थ यह होता है कि पूरा साल बढ़िया रहने वाला है. कुछ फेर-बदलाव देखने को मिल सकते हैं. लेकिन प्राकृतिक आपदा या जानमाल की हानि वाली घटनाएं कम होती है.
पूर्व दिशा: होलिका की लपटे यदि पूर्व दिशा की ओर चल रही हवा की ओर उठे तो ऐसा माना जाता है कि, इस साल धर्म, अध्यात्म, शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में उन्नति होने वाली है. स्वास्थ्य के लिहाज से भी इस दिशा में लपटों का उठना अच्छा माना जाता है.

पश्चिम दिशा: होलिका दहन की लपटे यदि पश्चिम दिशा की ओर उठे तो इससे पशुधन में लाभ, आर्थिक प्रगति का संकेत माना जाता है. लेकिन इससे कुछ प्राकृतिक आपदाओं के भी संकते मिलते हैं.

उत्तर दिशा: होलिका दहन की अग्नि अगर उत्तर दिशा की हवा की ओर उठे तो इसे बहुत ही शुभ माना जाता है. यह इस बात का संकेत है कि देश में आर्थिक प्रगति और सुख-शांति रहेगी. क्योंकि इस दिशा में भगवान कुबेर और अन्य देवी-देवताओं का वास होता है.

दक्षिण दिशा: इस दिशा में होलिका दहन की अग्नि का रुख करना बहुत ही अशुभ माना गया है. यदि होलिका की लपटे दक्षिण की हवा की ओर उठती है तो इससे अशांति, वाद-विवाद, लड़ाई-झगड़े, आपराधिक मामले आदि बढ़ने की संभावना होती है.
आग्नेय दिशा में आगजनी कारक
नैऋत्य दिशा में फसल हानि
वायव्य- चक्रवात, पवनवेग
ईषान दिशा में अच्छी वर्षा की सूचक।
चारों दिशाओं में घूमने पर- संकट की परिचायक है

 गुरुदेव 

भुवनेश्वर 
पर्णकुटी आश्रम गुना 
9893946810