Wednesday, 28 February 2024

कथा वाचन से पूर्व

स्त्रियों को व्यासपीठ पर बैठने का अधिकार क्यों नही-----

१.पहली बात 
स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति—तीनों ही वेद-श्रवण के अधिकारी नहीं हैं --- स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां त्रयी न श्रुतिगोचरा (श्रीमद्भागवत १/४/२५) अब जिनका वेदों और उपनिषदों को पढने और सुनने का ही अधिकार नही है तब वे कैमुतिक न्याय से श्रीमद्भागवत की कथा बांच ही कैसे सकते है क्योंकि श्रीमद्भागवत ---निगमकल्पतरोर्गलितं फलं  अर्थात  वेदरूप कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है जिसमें ऐसे ऐसे वेदान्त के दार्शनिक रहस्य गढ़े हुए है जिसको केवल श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण ही समझा सकता है,अन्य कोई नही।विद्या की परीक्षा भी श्रीमद्भागवत से ही होती है।श्रीमद्भागवत की वंशीधरी टीका में कहा गया है--विद्यावतां भागवते परीक्षा अर्थात विद्वानों की बुद्धि की परीक्षा भागवत से होती है कि वे श्रीमद्भागवत के प्रत्येक श्लोक का सटीक अर्थ कर सकते है या नही!।श्रीमद्भागवत कोई  सामान्य ग्रंथ नही है ।उसमें वेदों का सार समाहित है । क्या ये स्त्रियां जिन्हें वेदान्त का "क ख़ ग" भी नही मालूम जिज्ञासुओं की वेदान्त सम्बन्धी शंकाओं का निवारण करने में समर्थ है!! कदापि नही । वर्तमान की कथाओं में तो श्रीमद्भागवत के दर्शन भाग को तो छोड़ ही दिया गया है (राजा चित्रकेतु की कथा , जड़भरत और रहूगण की कथा, एकादश स्कन्द आदि आदि ये सब तो सुनने को भी नही मिलता ) और कथा भाग में भी महान अशुद्धियां इन कथावचिकाओं के द्वारा होती है । बस केवल फ़िल्मी धुन पर "राधे राधे" के जयकारे लगाए जा रहे है।अश्लीलता की पराकाष्ठा भी देखने को मिल रही है जहां व्यासपीठ पर ही कथावाचिकाये ठुमके लगाती हुई नजर आ जाती है ।यही होता है जब अनाधिकृत को किसी उच्च पद पर बिठा दिया जाता है।

 अपने कर्तव्य का पालन और दूसरे के अधिकार की रक्षा करने से ही परमार्थ में सिद्धि मिलती है । किन्तु जब अपने कर्तव्य का ज्ञान ही नही रहता और दूसरे के अधिकार पाने की कामना मन मे जगने लगती है( दूसरे की थाली में लड्डू बड़ा लगने लगता है ) तब पारमार्थिक सिद्धि तो दूर की बात लौकिक उत्कर्ष को भी मनुष्य प्राप्त नही होता है ।स्त्री कथावाचकों को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि वे व्यासपीठ पर बैठकर ब्राह्मणों की जीविका का हरण भी कर रही है और ब्राह्मण धन हड़पने के कारण नरक की सीट पक्की कर रही है।
 (इस मुख्य श्लोक से ही स्त्रियों का व्यासपीठ पर बैठने का अधिकार सिद्ध नही होता)

२. दूसरी बात इसी अध्याय में कहा गया है ---

अनेकधर्मविभ्रान्ताः स्त्रैणाः पाखण्डवादिनः ।
शुकशास्त्रकथोच्चारे त्याज्यास्ते यदि पण्डिताः ॥ २१॥

अर्थात: श्रीमद्भागवत के प्रवचन में ऐसे लोगों को नियुक्त नहीं करना चाहिये जो पण्डित होने पर भी अनेक धर्मों के चक्कर में पड़े हुए, स्त्री- लम्पट एवं पाखण्ड के प्रचारक हों ॥ 

यहाँ इस स्त्री लम्पट पद से भी यही सिद्ध होता है मूलतः व्यासपीठ पर पुरुष(ब्राह्मण) का ही अधिकार है क्योंकि स्त्री लम्पट तो पुरुष ही होगा ना की स्त्री।वैसे वर्तमान घोर कलियुग में स्त्रियां भी स्त्री लम्पट हो सकती है क्योंकि इस देश में धारा ३७७ निरस्त करके शासनतंत्र ने ये मान्यता इन जैसों को दे ही दी है😏

जो मोलाड़ी भोपू और उसके जैसे पाखण्डी कथावाचक है जो व्यासपीठ से अली मौला गाते है,अल्लाह- अल्लाह करते फिरते है,हिजड़ों से शास्त्रों की आरती उतरवाते है,ओशो जैसे पाखण्डी के समर्थक है और सर्वधर्म समभाव के सुतयापे की बात करते है उनके मुँह पर ये श्लोक करारा तमाचा है।

(इस श्लोक से भी स्त्रियों का और पाखंडियों का व्यासपीठ पर बैठने का अधिकार सिद्ध नही होता)

३.तीसरी बात व्यासपीठ पर बैठने से पहले वक्ता को क्षौरकर्म(दाढ़ी बनवाना) करवाना अनिवार्य है। इसी अध्याय में कहा गया है----वक्त्रा क्षौरं प्रकर्तव्यं दिनादर्वाग्व्रताप्तये (२३) अर्थात कथा-प्रारम्भ के दिन से एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण करने के लिये वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिये।

अब प्रश्न तो ये उठता है कि विचित्र लेखा, विजया मोरी आदि आदि कथावाचिकाएं भागवत की कथा करने से पहले क्या अपनी दाढ़ी बनवाती है!😏 वैसे बहुत खोजने पर भी मुझे वो श्लोक नही मिला जिसमें वेदव्यास जी ने स्त्री कथावाचकों के लिए रिबॉन्डिंग,वैक्सिंग,ट्रिममिंग,ब्लीचिंग,फाउंडेशन आदि का विधान किया हो😏

मोलाड़ी भोपू दाढ़ी रखता है ,जो सरेआम व्यासपीठ की मर्यादा का अतिक्रमण है।

(इस श्लोक से भी स्त्रियों का व्यासपीठ पर बैठने का अधिकार सिद्ध नही होता)

४.चौथी बात
नित्यं संक्षेपतः कृत्वा सन्ध्याद्यं स्वं प्रयत्नतः ।
कथाविघ्नविघाताय गणनाथं प्रपूजयेत् ॥ २४॥

अर्थात संध्यादि अपने नित्यकर्मों को संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्रों की निवृत्ति के लिये गणेश जी का पूजन करे। 

अब जब स्त्रियों का यज्ञोपवीत संस्कार ही नही होता और गायत्री मंत्र में भी ये दीक्षित नही हो सकती, तब ये स्त्री कथावचकाएँ संध्यादि आदि नित्य कर्म कैसे कर सकती है! इससे भी यहाँ पुरुष( ब्राह्मण) का ही व्यासपीठ पर अधिकार सिद्ध हो रहा है ,ना की स्त्रियों का ।

५. पांचवी बात
मुख्य श्रोता कथा आरम्भ से पूर्व कथावाचक की स्तुति करे ये विधान इसी अध्याय में श्रीवेदव्यास जी द्वारा दिया गया है,उसमे जो संबोधन  दिया गया वक्ता के लिए श्रोता के द्वारा वो बहुत महत्वपूर्ण है-----
शुकरूप प्रबोधज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
एतत्कथाप्रकाशेन मदज्ञानं विनाशय ॥ ३३॥

अर्थात :‘शुकस्वरूप भगवन् ! आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में पारंगत हैं; कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें’ ॥ 

अब 'शुकस्वरूप भगवन' से सिद्ध है कि वक्ता पुरुष(ब्राह्मण) ही होना चाहिए क्योंकि श्रीशुकदेवजी स्वयं पुरुष थे और जन्म से ब्राह्मण थे और 'सर्वशास्त्रविशारद' पद से भी स्त्री कथावाचक का निषेध हो जाता है क्योंकि स्त्री को वेद श्रवण और अध्ययन का अधिकार ही नही है फिर वह सर्वशास्त्रविशारद कैसे होगी! स्त्री शुद्र आदि को स्मृति शास्त्र को भी केवल सुनने का अधिकार है पढ़ने का नही।इसी अध्याय में सनकादिकों के द्वारा कहा गया है

दूरे हरिकथाः केचिद्दूरे चाच्युतकीर्तनाः ।
स्त्रियः शूद्रादयो ये च तेषां बोधो यतो भवेत् ॥ ६॥

अर्थात स्त्री और शूद्रादि भगवत्कथा एवं संकीर्तन से दूर पड़ गये हैं। उनको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये ।

इससे भी स्त्री शुद्र आदि का केवल कथा श्रवण का ही अधिकार सिद्ध होता है। विद्यारण्य स्वामी जी ने सूत संहिता के भाष्य में कहा है कि,"स्त्री शूद्र आदि को लोक भाषा के ग्रंथ पढ़ने चाहिए" जैसे कि रामचरितमानस आदि। जिससे कि श्रुति (वेद)और स्मृति(पुराण,इतिहास आदि) ग्रंथ पढ़ने के अधिकार का भी खंडन हो जाता है।

श्रीपद्मपपुराण के इस अध्याय से ही स्पष्ट सिद्ध है कि केवल जन्मना श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विरक्त वैष्णव ब्राह्मण का ही व्यासपीठ पर कथा बांचने का अधिकार है ,अन्य किसी का नही।

#व्यासपीठ_की_मर्यादा_और_कथा_कहने_के_नियम_और_वर्तमान_में_होने_वाली_कथा_से_समीक्षा👇👇

 केवल जन्मना श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ विरक्त वैष्णव ब्राह्मण का ही व्यासपीठ पर कथा बांचने का अधिकार है और श्रीमद्भागवत के प्रवचन में ऐसे लोगों को नियुक्त नहीं करना चाहिये जो पण्डित होने पर भी अनेक धर्मों के चक्कर में पड़े हुए, स्त्री- लम्पट एवं पाखण्ड के प्रचारक हों। इतना कहने के बाद सनकादिक नारद जी को व्यासपीठ पर कथा करने के कुछ और नियम भी बताते है👇👇
 
 वक्तुः पार्श्वे सहायार्थमन्यः स्थाप्यस्तथाविधः ।
पण्डितः संशयच्छेत्ता लोकबोधनतत्परः ॥ २२॥

अर्थात : वक्ता के पास ही उसकी सहायता के लिये एक वैसा ही विद्वान् और स्थापित करना चाहिये। वह भी सब प्रकार के संशयों की निवृत्ति करने में समर्थ और लोगों को समझाने में कुशल हो ॥ २२ ॥

नित्यं संक्षेपतः कृत्वा सन्ध्याद्यं स्वं प्रयत्नतः ।
कथाविघ्नविघाताय गणनाथं प्रपूजयेत् ॥ २४॥

अर्थात: संध्यादि अपने नित्यकर्मों को संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्रों की निवृत्ति के लिये गणेशजी का पूजन करे ॥

अब सुनिए! व्यासपीठ से वर्तमान श्री रामानुजाचार्य पद पर विराजमान श्रीराघवाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत की कथा करते समय सरेआम व्यासपीठ से कह दिया था कि,"हम केवल भगवान विष्णु को और उनके अवतारों को ही भगवान मानते है,गणेश ,शिव जी आदि को नही क्योंकि उनमें भगवान का लक्षण ही चरितार्थ नही होता"। अब विचार कीजिये ऐसे महानुभाव जो गणेश जो को भगवान तक नही मानते वो श्रीमद्भागवत की कथा से पूर्व गणेश का पूजन क्यूँ करेंगें! और बिना गणेश जी के पूजन से एक तो व्यासपीठ की मर्यादा का अतिक्रमण होता है, दूसरा इनकी भागवत की कथा भी निर्विघ्नतापूर्ण समाप्त नही होती।जब उच्च पद पर आसीन ये लोग ही अपने सम्प्रदाय के आग्रह के चक्कर में शास्त्राज्ञा विरुद्ध कार्य कर सकते है तब जो अन्य कथावाचक है जो की स्वभाव से ही सड़कछाप है वो व्यासपीठ की मर्यादा की धज्जियाँ उड़ाए तो कहना ही क्या!

वरणं पञ्चविप्राणां कथाभङ्गनिवृत्तये ।
कर्तव्यं तैर्हरेर्जाप्यं द्वादशाक्षरविद्यया ॥ ३५॥

अर्थात: कथा में विघ्र न हो, इसके लिये पाँच ब्राह्मणों को और वरण करे; वे द्वादशाक्षर मन्त्र द्वारा भगवान् के नामों का जप करें ॥ ३५ ॥ 

लेकिन वर्तमान की कथा में आपको ये सब देखने को नही मिलेगा क्योंकि जहां कथा धंधा बन जाती है वहां कथावाचक सब कुछ स्वयं ही हड़पना चाहता है इसलिए वे कथा में ना अपना कोई सहायक बनाता है और ना अन्य पांच ब्राह्मणों को वरण करता है।स्त्री कथावाचकों का तो और भी बुरा हाल है।इनका आयोजक के साथ ६०-४० का सौदा होता है और सोने की चेन अलग से मांगी जाती है,रहने को five star होटल भी आवश्य होना चाहिए।😏

आसूर्योदयमारभ्य सार्धत्रिप्रहरान्तकम् ।
वाचनीया कथा सम्यग्धीरकण्ठं सुधीमता ॥ ३८॥
कथाविरामः कर्तव्यो मध्याह्ने घटिकाद्वयम् ।
तत्कथामनु कार्यं वै कीर्तनं वैष्णवैस्तदा ॥ ३९॥

अर्थात: बुद्धिमान् वक्ता को चाहिये कि सूर्योदय से कथा आरम्भ करके साढ़े तीन पहर तक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा बाँचे ॥ ३८ ॥ दोपहर के समय दो घड़ी तक कथा बंद रखे। उस समय कथा के प्रसङ्ग के अनुसार वैष्णवों को भगवान् के गुणों का कीर्तन करना चाहिये—व्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिये ॥ ३९  ॥ 

वर्तमान में तो कथा ही दोपहर को आरम्भ करते है क्योंकि कथावाचकों को सुबह ब्रह्ममुहूर्त में उठने का संस्कार ही नही है।शास्त्र में जिस समय कथा करने का निषेध है उस समय ये कथा के नाम पर व्यथा बांचते है।

कीर्तन का स्वरूप देखें----  जब शास्त्र ने जिस समय कथा बंद करने की आज्ञा दी है माने दोपहर को २ घड़ी --- ४८ मिंट ,उस समय श्रोताओं को भगवान के गुणों का कीर्तन करना चाहिए ।लेकिन वर्तमान में तो कथा के साथ ही फ़िल्मी धुनों पर अशास्त्रीय भजन गाए जाते है।शास्त्र ने आज्ञा दी है की लगभग सुबह ब्रह्ममुहूर्त से साढ़े तीन घण्टे तक कथा करनी है उसके बाद जितनी कथा हो चुकी है उसके अनुसार ही भगवान के गुणों का कीर्तन करना है ताकि कथा में प्रमाद ना पले,उकताहट ना हो,दाल में नमक के समान भजन का स्वरूप शास्त्र ने तय किया है।जबकि वर्तमान के कथावाचकों ने दाल में नामक के समान कथा का स्वरूप कर दिया है और हारमोनियम लेकर लोक कथाओं के भजन बनाकर बनाकर जनता को लुभा रहें है और अपने धंधा चला रहे है।एक बार स्वामी रामसुखदास जी महाराज से किसी व्यक्ति ने पूछा कि ,"शास्त्र में भागवत के श्रोता और वक्ता को दुर्लभ बता गया है ,जबकि वर्तमान समय में तो ये अत्यंत सुलभ है, इसका क्या कारण है?"
 स्वामी जी ने उत्तर दिया कि,"वर्तमान के वक्ता और श्रोता दोनों ही नकली है।"
 

#श्रोताओं के कथा सुनने के नियम और वर्तमान श्रोताओं की समीक्षा👇👇

सनकादिक नारद जी से कहते है👇👇

सप्ताहव्रतिनां पुंसां नियमाञ्छृणु नारद
विष्णुदीक्षाविहीनानां नाधिकारः कथाश्रवे ॥ ४४॥

अर्थात: नारदजी ! नियम से सप्ताह सुननेवाले पुरुषों के नियम सुनिये। विष्णुभक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथाश्रवण का अधिकारी नहीं है ॥ ४४ ॥ 

वर्तमान में तो विधर्मियों को भी कथा में बुलाया जाता है और उनसे व्यासपीठ पर आरतियां उतरवाई जाती है।जबकि इनका कथा सुनने का भी अधिकार नही है।

ब्रह्मचर्यमधःसुप्तिः पत्रावल्यां च भोजनम्
कथासमाप्तौ भुक्तिं च कुर्यान्नित्यं कथाव्रती ॥ ४५॥

अर्थात: जो पुरुष नियम से कथा सुने, उसे ब्रह्मचर्य से रहना, भूमि पर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिये ॥ ४५ ॥

स्त्री कथावाचक से कथा सुनने पर पुरुष श्रोता कैसे ब्रह्मचर्य से रहेगा ! जितना मेकअप,जितने ठुमके और जैसी अंगिमा भंगिमा बनाकर कथा ये स्त्रियां करती है।

#समाधान

इतने विस्तृत लेख के बाद जब समस्या के समाधान की बात नही की तो ये केवल कोरा श्रम रह जायेगा।भागवत कथा के संदर्भ में वर्तमान के मान्य शंकराचार्यों, वैष्णवचार्यों महामंडलेश्वरों आदि को अपनी धर्मसंसद से प्रस्ताव पारित करना चाहिए जिसमें व्यासपीठ की गरिमा और मर्यादा को अक्षुण बनाए रखने के कुछ सख्त दिशा निर्देश हो।प्रस्ताव में------👇

१.व्यासपीठ पर केवल जन्मना ब्राह्मण जो कि श्रोत्रिय हो उसका अधिकार है अन्य किसी वर्ण और स्त्रियों का नही।

२.व्यासपीठ को मनोरंजन का अड्डा ना बनाया जाएं।

३.भागवत कथा कहने स्वरूप तय किया जाएं जिसमें दर्शनभाग, कथाभाग और भजन कीर्तन का समय भी निर्धारित किया जाए कि भागवत कथा में एकादश स्कंद(दर्शन भाग) को और दशम स्कंद(कथाभाग) को अधिक से अधिक कहना अनिवार्य हो।

४.व्यासपीठ से सर्वधर्मसमभाव की बात करने वाले को,विधर्मियों के भजन गाने वाले को व्यासपीठ का अधिकार छीना जाए और उसे सनतान धर्म से बाहर किया जाएं।

५.धर्महित में, राष्ट्रहित में कथावाचक ने अपनी कथा के माध्यम से कितना योगदान दिया इसकी समीक्षा उच्च महानुभावों के द्वारा अवश्य होनी चाहिए।

ये कोई असम्भव कार्य नही है।इस प्रस्ताव को यदि मान्य शंकराचार्य पारित करते है तो इसको न्यायालय में भी चुनौती नही दी जा सकती क्योंकि कटक हाईकोर्ट का ये निर्णय है कि "शंकराचार्य धार्मिक और आध्यात्मिक जगत में सर्वोच्च न्यायाधीश है ,उनके किसी भी निर्णय को बदलने का अधिकार हाईकोर्ट के पास नही है"।

केवल इच्छाशक्ति और एकता की कमी है ,नही तो व्यासपीठ की मर्यादा की समस्या आज ही सुलझ सकती है।लेकिन इस देश में शास्त्रीय प्रमाणों से बात कोई नही रखना चाहता क्योंकि इससे बड़े बड़े पदों पर आसीन लोगों की भी पोलपट्टी खुलने का भय है😏

क्या कारण है कि सोशल मीडिया पर व्यासपीठ से अली मौला आदि का तो जमकर विरोध किया गया और माफियां भी मंगवाई गई ,लेकिन व्यासपीठ पर जन्मना श्रोत्रिय ब्राह्मण के बैठने के अधिकार की बात को उस शोर शराबे में दबा दिया गया।😏

अंत में इतना ही कहूंगा कि इस देश की, धर्म की लाख समस्याओं का केवल एक ही हल है वो है राजपीठ और व्यासपीठ का शोधन और उनमें आपसी सद्भावपूर्वक संवाद से शास्त्रीय मर्यादा का पालन दृढ़ता से जनता पर लागू करना।
Gurudev
Bhubnedhwar
9893946810

No comments:

Post a Comment