ज्योतिष समाधान

Sunday, 17 September 2023

कुशा का मूल्य

#कुशोत्पाटनम्—

*#कुशशब्दव्याख्या*-
कशः/कुशम्, क्ली /पुं, (कु पापं श्यति नाशयति । कु + शो + डः । यद्वा कौ भूमौ शेते राजते शोभते इत्यर्थः ।) 

*#श्रेष्ठकुशाके_लक्षण*

पुष्ट, हरित ,गायके कान के बराबर तथा बिना टूटी फटी कुशा सर्वोत्तम मानी गई है-

*सपिञ्जलाश्च हरिताः पुष्टाः स्निग्धाःसमाहिताः।*
 *गोकर्णमात्राश्च कुशाः सकृच्छिन्नाः समूलकाः।।*

*गोकर्णमात्रा विस्तृताङ्गुष्ठानामिकापरिमिताः।।*
                                (विष्णुः)

*यद्यपि कुश और दर्भमें कोई अंतर विशेष नहीं है फिर भी विद्वानोंने दोनों की अलग-अलग परिभाषाएं की हैं* -

1. *अप्रसूताः स्मृतादर्भाः प्रसूतास्तु कुशाः स्मृताः।*
*समूलाः कुतपाः प्रोक्ताश्छिन्नाग्रास्तृणसंज्ञताः।।*
                       (हेमाद्रौ कौशिकेनोक्तम्) 
*#अप्रसूता=असंजातप्रसवाः_अपुष्पिता इत्यर्थः।।*

#अर्थ - जब तक पुष्प (बाल)नहीं निकलती तब तक उसे *#दर्भ* कहते हैं । पुष्पित होने पर या गर्भित होने पर *#कुश* कहलाता है। जड़ सहितको  *#कुतप* कहते हैं। तथा अग्रभाग तोड़ देने पर उसे *#तृण* कहा जाता है।

2. *प्रादेशमात्रं दर्भः स्यात् द्विगुणं कुशमुच्यते।*

दूसरे आचार्यके मतमें प्रादेश मात्र (10 या 12 अंगुल) तक का *#दर्भ* कहलाता है तथा एक हाथ के बराबर वालेको *#कुश*  कहते हैं। 

3. *समूलस्तु भवेद्दर्भः पितॄणां श्राद्धकर्मणि।*
                                        (यमः)

*#कुशोंकेभेद*-

कुश ,काश ,शर( सरकण्डा मूज) ,दूर्वा ,यव ,गेहूँ, धान, समा, बल्वज,कमल, उशीर, कुंदक, सुवर्ण, चाँदी तथा ताँबा ये सभी दर्भ कहे गये हैं

1. *कुशाः काशाः शरा दूर्वा यवगोधूमबल्वजाः।*
*सुवर्णं रजतं ताम्रं दश दर्भाः प्रकीर्तिताः।।*

2. *कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।*
*गोधूमा व्रीहयो मौञ्जा दश दर्भा: सबल्वजा:॥*
                                  (धर्मसिन्धौ) 

3. *कुशा: काशास्तथा दूर्वा यवपत्राणि व्रीहय:।*
*बल्वजा: पुण्डरीकाश्च कुशा: सप्त प्रकीर्त्तिता:।।*
                       (पद्मपुराण सृ.४६/३४)

4. *काशाः कुशाः वल्वजाश्च तथा ये तीक्ष्णशूककाः।*
*मौञ्जलाः शाद्वलाश्चैव षड्दर्भाः परिकीर्तिताः।।*
                               (ब्रह्मपुराण)

5. *पितृतीर्थेन देयाः स्युर्दूर्व्वा श्यामाक एव च।* 
*काशाः कुशा बल्वजाश्च तथान्ये तीक्ष्णरोमशाः।*
*मौञ्जाश्च शाद्वलाश्चैव षड्दर्भाः परिकीर्त्तिताः।।*
 तीक्ष्णरोमशा इति वल्वजानां विशेषणं तेन तेषामलाभे।

*#कुशमें_त्रिदेवोंका_निवास_है*

*दर्भमूले वसेद्ब्रह्मा मध्यदेवो जनार्दनः।*
*दर्भाग्रे तु महादेवस्तस्माद्दर्भेन मार्जयेत् ॥*
दर्भके मूलभागमें ब्रह्माजी, दर्भके मध्यमें विष्णुका , दर्भके अग्रभागमें उमानाथ महादेवजीका वास है। 

*#कुशाओंके_न_मिलनेपर*-

1. *कुशाः काशाःशरो गुन्द्रो यवा दूर्वाऽथ बल्वजाः।*  *गोकेशमुञ्जकुन्दाश्च पूर्वाभावे परः परः।।*
                           (अपरार्के सुमन्तुः)

2. *कुशाभावे तु काशाः स्युः काशाः कुशसमाः स्मृताः।* *काशाभावे ग्रहीतव्या अन्ये दर्भा यथोचिताः।।*
 *दर्भाभावे स्वर्ण्णरूप्यताम्रैः कर्म्मक्रियाः सदा।* 

3. *श्राद्धे वर्ज्यानि प्रयत्नेन ह्यनूपाः सगवेधुकाः।*
*पुनश्च दूर्वाद्याः कुशाभावे प्रतिनिधित्वेनोक्ताः।।*

*#सोनेके_पवित्रककी_महिमा*-

*अन्यानि च पवित्राणि कुशदूर्वात्मकानि च।*
*हेमात्मक-पवित्रस्य ह्येकां नार्हन्ति वै कलाम्।।*

*#पवित्रकका_लक्षण*-

1. *अनन्तर्गर्भिणं साग्रङ्कौशं द्विदलमेव च।* 
*प्रादेशमात्रं विज्ञेयं पवित्रं यत्र कुत्रिचित्।।*
                            (हारीतः)

ब्राह्मण की पवित्री चार कुशोंकी, क्षत्रिय की तीन की, वैश्य की दो की एवं शूद्रोंकी एक कुशाकी पवित्री होनी चाहिए-

2. *पवित्रं ब्राह्मणस्यैव चतुर्भिर्दर्भपिञ्जलैः।*
*एकैकं न्यूनमुद्दिष्टं वर्णेवर्णे यथाक्रमम्।।*
                        ( स्मृत्यर्थसारे)
अथवा सभी वर्णों के लिए 2--2 कुशोंकी पवित्री हो-

3. *सर्वेषां वा भवेद्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं नवम्।*
                                    (रत्नावल्याम्)

4. *समूलाग्रौ विगर्भौ तु कुशौ द्वौ दक्षिणे करे।*
*सव्येचैव तथा त्रीन्वै बिभृयात् सर्वकर्मसु।।*
                                ( बौधायनः)
जड़ और अग्रभाग से युक्त  मध्यमें स्थित शल्यसेरहित  दो कुशोंकी पवित्रीको दाएं हाथमें तथा तीन कुशोंकी पवित्रीको बाएं हाथमें सभी कर्मोंमें धारण करना चाहिए , यह मत सर्वमान्य है।

अथवा दोनों हाथों में दो दो कुशोंकी पवित्री धारण करें।
5. *हस्तयोरुभयोर्द्वौद्वावासनेऽपि तथैव च।*

 *#पवित्री_अनामिकाके_मध्यपर्वमें_या_मूलमें_धारणकरें* -

1 *द्वयोस्तु पर्वणोर्मध्ये पवित्रं धारयेद्बुधः।*
*अनामिकाधृता दर्भाह्येकानामिकयापि वा।*
*द्वाभ्यामनामिकाभ्यां तु धार्ये दर्भपवित्रके।।*
                      (हेमाद्रौ स्कान्दे)

2 *अनामिकामूलदेशे पवित्रं धारयेद्विजः।*
     (अत्रिस्मृति आह्निकसूत्रावल्याम्)

*#पवित्रीकी_आवश्यकता*- 

जप, होम ,दान, स्वाध्याय  श्राद्ध आदि कर्मोंमें कुशकी पवित्री या स्वर्ण अथवा चांदी की पवित्री को अवश्य धारण करें ,रिक्त हाथोंसे कोई भी शुभ कर्म नहीं करना चाहिए-

1. *अशून्यं करं न कुर्यात् सुवर्णरजतकुशैः।*
*जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृ कर्मणिः।*

2. *स्नाने होमेतथा दाने स्वाध्याये पितृतर्पणे।*
 *सपवित्रौ सदर्भौ वा करौकुर्व्वीत नान्यथा।!*
 *सर्वेषां वा भवेद्द्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं न वा।।*

3. *पूजाकाले सर्व्वदैवे कुशहस्तो भवेच्छुचिः।*
*कुशेनरहिता पूजा विफला कथिता मया।।*

4. *पवित्राः परमादर्भा दर्भहीना वृथाक्रियाः।*

*#वर्ज्यकुशा:*-

1. *चितौ दर्भाः पथि दर्भाः ये दर्भा यज्ञभूमिषु।* 
*स्तरणासनपिण्डेषु षड्दर्भान् परिवर्जयेत्।।*
                               (हारीतः)

2. *पिण्डार्थं ये स्तृता दर्भा यैः कृतंपिवृतर्पणम्।*
 *मूत्रोच्छिष्टप्रलेपे तु त्यागस्तेषां विधीयते।।*
                       (छन्दोगपरिशिष्टम्)

3. *धृतैः कृते च विण्मूत्रे त्यागस्तेषां विधीयते।*
*नीवीमध्ये च ये दर्भा ब्रह्मसूत्रे च ये धृताः।।*
*पवित्रांस्तान् विजानीयाद्घथा कायस्तथा कुशाः।।*
 
4. *ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे।* *हतामूत्रपुरीषाभ्यान्तेषां व्यागो विधीयते।।*
                              (हेमाद्रौ)

*#पवित्रीधारण_करके_आचमन_करनेसे_पवित्री_उच्छिष्ट_नहीं_होती ,परंतु भोजन करने पर पवित्री उच्छिष्ट हो जाती है, तब उसका त्याग कर देना चाहिए*-

1. *सपवित्रः सदर्भो वा कर्माङ्गाचमनं चरेत्।*
*नोच्छिष्टं तत् सदर्भं च भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।*

2. *सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्।*
*नोच्छिष्टं तत्पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।*
     (श्राद्धचिंतामणिमें मार्कंडेयजीका वजन)

3. *आचम्य प्रयतो नित्यं पवित्रेण द्विजोत्तमः।*
*नोच्छिष्टन्तु भवेत्तत्र भुक्तशेषं विवर्जयेत्।।*

*#दूर्वा_और_काशकीपवित्री_पहनकर_आचमन_नहीं_करना_चाहिए* -

काशादौ विशेषमाह शङ्खः-
*काशहस्तस्तु नाचामेत्कदाचिद्विधिशङ्कया।* 
*प्रायश्चित्तेन युज्येत दूर्वाहस्तस्तथैव च।।*

*#कुशऔरकाशसे_दन्तधावनभी_नहीं_करें* -

कुश, काश, पलाश और अशोक वृक्ष की दातुन करनेसे व्यक्ति चांडाल हो जाता है और वह चांडालत्त्व को तब तक प्राप्त रहता है जब तक गंगाजीके दर्शन नहीं कर लेता-

*कुशं कासं पलासं च शिशपं यस्तु भक्षयेत्।*
*तावत् भवति चाण्डालो यावद्गंगां न पश्यति।।*
                     (आचारमयूखे गर्गः)

*#सधवास्त्रीको_कुश_और_तिलका_प्रयोग_नहीं_करना_चाहिए*-

सधवायास्तद्धारणनिषेधमाह ब्राह्मणसर्व्वस्वे -

*न स्पृशेत्तिलदर्भांश्च सधवा तु कथञ्चन।*
 

*#कुशोत्पाटनका_मंत्र*

दर्भग्रहणेमन्त्रमाहशङ्खः-
*विरिञ्चिना सहोत्पन्न! परमेष्ठिनिसर्गज!।*
 *नुद सर्वाणि पापानि दर्भ! स्वस्तिकरोभव।।*
            (धर्मसिन्धौ स्मृत्यर्थसारे च) 

*हुम्फट्कारेण मन्त्रेण सकृच्छित्त्वा समुद्धरेत्।*

*#कुशोत्पाटनका_समय_मुख्यप्रातःकाल*

अत्र विशेषः निर्ण्णयसिन्धौपृथ्वीचन्द्रोदये तद्ग्रहणकालमाह दक्षः-

*समित्पुष्पकुशादीनां द्वितीयः परिकीर्तितः।*

( अष्टधा विभक्तदिनस्य द्वितीयोभाग इत्यर्थः।)

*#पितरोंकेलिए_दक्षिणाभिमुख_कुशा_उखाड़नेका_विशेषनियम*-

*प्रेतक्रियार्थं पित्रर्थमभिचारार्थमेव च।* *दक्षिणाभिमुखश्छिन्द्यात् प्राचीनावीतिकोद्विजः।।*

 
*#अन्यअमावस्याओंमें उखाड़ा गया कुश 1 महीने तक तथा भाद्रपदकी अमावस्याको उत्पाटित कुश 1 वर्षतक पवित्र रहता है।*-

*मासि मास्युत्द्धृता दर्भा मासि मास्येव चोदिताः।*
                         ( षड्त्रिंशन्मते)

*मासे मासे त्वमावास्यां दर्मो ग्राह्यो नवः स्मृतः।*

भाद्रामावास्यागृहीतदर्भस्यायातयामतामाह हेमा॰श्रा॰ ख॰ हारीतः-
*मासे नभस्यमावास्या तस्या दर्भोच्चयो मतः।*
*अयातयामास्ते दर्भां विनियोज्याःपुनः पुनः।।*

*#कुशब्रह्मा_और_विष्टर_बनानेका_नियम*

*पंचाशत् कुशोद्भवेत्ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टर।*
 *ऊर्द्ध्वकेशो भवेद्ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः।*
*दक्षिणावर्त्तको ब्रह्मा वामावर्त्तस्तु विष्टरः।।*
यथा संभवं वा। (कुशकंडिका पद्धतौ) 
 Gurudev
Bhubneshwar
,९८९३९४६८१०

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