Thursday, 28 September 2023

शिव जी की आधी परिक्रमा क्यों की जाती है

 क्यों की जाती है भगवान की परिक्रमा, जानिए

शिवजी की आधी परिक्रमा करने का विधान है, वह इसलिए कि शिव के सोमसूत्र को लांघा नहीं जाता है। जब व्यक्ति आधी परिक्रमा करता है तो उसे चंद्राकार परिक्रमा कहते हैं। शिवलिंग को ज्योति माना गया है और उसके आसपास के क्षेत्र को चंद्र। आपने आसमान में अर्ध चंद्र के ऊपर एक शुक्र तारा देखा होगा। यह शिवलिंग उसका ही प्रतीक नहीं है बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड ज्योतिर्लिंग के ही समान है।
'
अर्द्ध सोमसूत्रांतमित्यर्थ: शिव प्रदक्षिणीकुर्वन सोमसूत्र 
न लंघयेत इति वाचनान्तरात।'

सोमसूत्र : शिवलिंग की निर्मली को सोमसूत्र भी कहा जाता है। शास्त्र का आदेश है कि शंकर भगवान की प्रदक्षिणा में सोमसूत्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है। सोमसूत्र की व्याख्या करते हुए बताया गया है कि भगवान को चढ़ाया गया जल जिस ओर से गिरता है, वहीं सोमसूत्र का स्थान होता है।

तब लांघ सकते हैं : 
शास्त्रों में अन्य स्थानों पर मिलता है कि तृण, काष्ठ, पत्ता, पत्थर, ईंट आदि से ढंके हुए सोमसूत्र का उल्लंघन करने से दोष नहीं लगता है, लेकिन ‘शिवस्यार्ध प्रदक्षिणा’ का मतलब शिव की आधी ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
किस ओर से परिक्रमा : भगवान शिवलिंग की परिक्रमा हमेशा बाईं ओर से शुरू कर जलाधारी के आगे निकले हुए भाग यानी जलस्रोत तक जाकर फिर विपरीत दिशा में लौटकर दूसरे सिरे तक आकर परिक्रमा पूरी करें।

किस देवता की कितनी प्रदक्षिणा करनी चाहिए, इस संदर्भ में ‘कर्म लोचन’ नामक ग्रंथ में लिखा गया है कि- ‘एका चण्ड्या रवे: सप्त तिस्र: कार्या विनायके। हरेश्चतस्र: कर्तव्या: शिवस्यार्धप्रदक्षिणा।’ अर्थात दुर्गाजी की एक, सूर्य की सात, गणेशजी की तीन, विष्णु भगवान की चार एवं शिवजी की आधी प्रदक्षिणा करनी चाहिए।
*तिलक लगाने के बाद यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) लगानी चाहिए। ये तीन प्रदक्षिणा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश हेतु तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाई जाती है।
*श्री गणेश की तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए जिससे गणेशजी भक्त को रिद्ध-सिद्धि सहित समृद्धि का वर देते हैं।
*पुराण के अनुसार श्रीराम के परम भक्त पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। भक्तों को इनकी तीन परिक्रमा ही करनी चाहिए।
*माता दुर्गा मां की एक परिक्रमा की जाती है। माता अपने भक्तों को शक्ति प्रदान करती है।
*भगवान नारायण अर्थात् विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।
*एकमात्र प्रत्यक्ष देवता सूर्य की सात परिक्रमा करने पर सारी मनोकामनाएं जल्द ही पूरी हो जाती हैं।
*प्राय: सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। हालांकि सभी देववृक्षों की परिक्रमा करने का विधान है।
* जिन देवताओं की प्रदक्षिणा का विधान नही प्राप्त होता है, उनकी तीन प्रदक्षिणा की जा सकती है। लिखा गया है कि-

 ‘यस्त्रि: प्रदक्षिणं कुर्यात् साष्टांगकप्रणामकम्। 
दशाश्वमेधस्य फलं प्राप्रुन्नात्र संशय:॥'

* काशी ऐसी ही प्रदक्षिणा के लिए पवित्र मार्ग है जिसमें यहां के सभी पुण्यस्थल घिरे हुए हैं और जिस पर यात्री चलकर काशीधाम की प्रदक्षिणा करते हैं। ऐसे ही प्रदक्षिणा मार्ग मथुरा, अयोध्या, प्रयाग, चित्रकूट आदि में ह

मनु स्मृति में विवाह के समक्ष वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार प्रदक्षिणा करने का विधान बतलाया गया है जबकि दोनों मिलकर 7 बार प्रदक्षिणा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।
* पवित्र धर्मस्थानों- अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन पूजा की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली इस प्रकार की विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत लेटकर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति करके वर्षों में समाप्त होती है।

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क्यों की जाती है भगवान की परिक्रमा, जानिए


धार्मिक महत्व : भगवान की परिक्रमा का धार्मिक महत्व तो है ही, विद्वानों का मत है भगवान की परिक्रमा से अक्षय पुण्य मिलता है, सुरक्षा प्राप्त होती है और पापों का नाश होता है। पग-पग चलकर प्रदक्षिणा करने से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। सभी पापों का तत्क्षण नाश हो जाता है। प्रदक्षिणा करने से तन-मन-धन पवित्र हो जाते हैं व मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है। जहां पर यज्ञ होता है वहां देवताओं साथ गंगा, यमुना व सरस्वती सहित समस्त तीर्थों आदि का वास होता है।
प्रदक्षिणा या परिक्रमा करने का मूल भाव स्वयं को शारीरिक एवं मानसिक रूप से भगवान के समक्ष समर्पित कर देना भी है।
परिक्रमा करने का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष वास्तु और वातावरण में फैली सकारात्मक ऊर्जा से जुड़ा है। दरअसल, भगवान की पूजा-अर्चना, आरती के बाद भगवान के उनके आसपास के वातावरण में चारों ओर सकारात्मक ऊर्जा एकत्रित हो जाती है इस सकारात्मक ऊर्जा के घेरे के भीतर चारों और परिक्रमा करके व्यक्ति के भीतर भी सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता और नकारात्मकता घटती है। इससे मन में विश्वास का संचार होकर जीवेषणा बढ़ती है।
परिक्रमा करने का नियम जानना जरूरी
परिक्रमा प्रारंभ करने के पश्चात बीच में रुकना नहीं चाहिए। परिक्रमा वहीं पूर्ण करें, जहां से प्रारंभ की गई थी। परिक्रमा बीच में रोकने से वह पूर्ण नहीं मानी जाती। परिक्रमा के दौरान किसी से बातचीत न करें। जिस देवता की परिक्रमा कर रहे हैं, उनका ही ध्यान करें। इस प्रकार परिक्रमा करने से अभीष्ट एवं पूर्ण लाभ की प्राप्ति होती है
परिक्रमा पूर्ण करने के पश्चात भगवान को दंडवत प्रणाम करना चाहिए। जो लोग तीन प्रदक्षिणा साष्टांग प्रणाम करते हुए करते हैं, वे दश अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करते हैं। जो लोग सहस्रनाम का पाठ करते हुए प्रदक्षिणा करते हैं, वे सप्त द्वीपवती पृथ्वी की परिक्रमा का पुण्य प्राप्त करते हैं।
बृहन्नारदीय में लिखा गया है कि जो भगवान विष्णु की तीन परिक्रमा करते हैं, वे सभी प्रकार के पापों से विमुक्त हो जाते हैं। इसका मतलब यह समझ में आता है कि कामना के अनुसार भी प्रदक्षिणा की संख्या का विचार किया गया है। विष्णु स्मृति में कहा गया है कि एक हाथ से प्रणाम करना, एक प्रदक्षिणा एवं अकाल में विष्णु का दर्शन पूर्व में किए गए पुण्य की हानि करता

Gurudev
Bhubneshwar
९८९३९४६८१०

Wednesday, 27 September 2023

श्राद्ध पक्ष 2023

श्राद्व पक्ष 2023 .

तारीख - दिन  - तिथि  - श्राद्ध .

( 1 ) 29 सितंबर 2023 - शुक्रवार - पूर्णिमा तिथि - पूर्णिमा श्राद्ध  .
( 2 ) 30 सितंबर 2023 - शनिवार - प्रतिपदा तिथि - प्रतिपदा श्राद्ध  .
( 3 ) 1 अक्टूबर 2023 - रविवार  - द्वितीया तिथि / तृतीया तिथि - द्वितीय श्राद्ध ( 0 9 : 4 2 Am तक ) / तृतीय श्राद्ध  .
( 4 ) 2 अक्टूबर 2023 - सोमवार - चतुर्थी तिथि - चतुर्थी श्राद्व .
( 5 ) 3 अक्टूबर 2023 - मंगलवार - पंचमी तिथि - पंचमी श्राद्ध .
( 6 ) 4 अक्टूबर 2023 - बुधवार - षष्टी  तिथि  - षष्टी श्राद्ध  .
( 7 ) 5 अक्टूबर 2023 - गुरुवार - सप्तमी तिथि - सप्तमी श्राद्ध .
( 8 ) 6 अक्टूबर 2023 - शुक्रवार - अष्टमी तिथि - अष्टमी श्राद्ध / जीवित्पुत्रिका श्राद्ध ( श्री महालक्ष्मी व्रत एवं  श्री महालक्ष्मी का धागा ) .
( 9 ) 7 अक्टूबर 2023 - शनिवार - नवमी तिथि  - नवमी श्राद्ध ( 0 8 : 0 9 Am ) के बाद  / सौभाग्यवती महिला का श्राद्ध  .
( 1 0 ) 8 अक्टूबर 2023 - रविवार - नवमी तिथि / दशमी तिथि - नवमी श्राद्ध ( 1 0 : 1 3 Am तक ) / दशमी श्राद्ध .
( 11 ) 9 अक्टूबर 2023 - सोमवार - दशमी तिथि - दशमी श्राद्ध  .
( 12 ) 10 अक्टूबर 2023 - मंगलवार - एकादशी तिथि - एकादशी श्राद्ध  ( इंदिरा एकादशी व्रत ) .
( 13 ) 11 अक्टूबर 2023 - बुधवार - द्वादशी तिथि - द्वादशी श्राद्ध ( सन्यासी श्राद्ध ) .
( 14 ) 12 अक्टूबर 2023 - गुरुवार - त्रयोदशी तिथि - त्रयोदशी श्राद्ध ( प्रदोष व्रत / मासिक शिवरात्रि व्रत ) .
( 15 ) 13 अक्टूबर 2023 - शुक्रवार - चतुर्दशी तिथि - चतुर्दशी श्राद्व ( अकाल मृत्यु श्राद्ध ) .
( 16 ) 14 अक्टूबर 2023 - शनिवार - अमावस्या तिथि - अमावस्या श्राद्ध ( शनि अमावस्या / पितृ विदा ) .

Gurudev
Bhubneshwar

Tuesday, 26 September 2023

श्राद्ध में तर्पण कैसे करे

(देव, ऋषि और पितृ सम्पूर्ण तर्पण विधि )
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।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।

पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारंबार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।

क्या है तर्पण
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पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध कहते हैं तथा तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण कहते हैं।

श्राद्ध पक्ष का माहात्म्य उत्तर व उत्तर-पूर्व भारत में ज्यादा है। तमिलनाडु में आदि अमावसाई, केरल में करिकडा वावुबली और महाराष्ट्र में इसे पितृ पंधरवडा नाम से जानते हैं।

'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञ को संपन्न करने वाले पितरों ने जैसे देहांत होने पर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्ग को प्राप्त किया है वैसे ही यज्ञों में इन ऋचाओं का पाठ करते हुए और समस्त साधनों से यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्ग को प्राप्त करें।'- यजुर्वेद

ऋषि और पितृ तर्पण विधि
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तर्पण के प्रकार
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पितृतर्पण, 
मनुष्यतर्पण, 
देवतर्पण, 
भीष्मतर्पण, 
मनुष्यपितृतर्पण, 
यमतर्पण

तर्पण विधि
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सर्वप्रथम पूर्व दिशा की और मुँह कर,दाहिना घुटना जमीन पर लगाकर,सव्य होकर(जनेऊ व् अंगोछे को बांया कंधे पर रखें) गायत्री मंत्र से शिखा बांध कर, तिलक लगाकर, दोनों हाथ की अनामिका अँगुली में कुशों का  पवित्री (पैंती) धारण करें । फिर हाथ में त्रिकुशा ,जौ, अक्षत और जल लेकर संकल्प पढें—

ॐ विष्णवे नम: ३। हरि: ॐ तत्सदद्यैतस्य श्रीब्रह्मणो द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे आर्यावर्तैकदेशे अमुकसंवत्सरे अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे अमुकगोत्रोत्पन्न: अमुकशर्मा (वर्मा, गुप्त:) अहं श्रीपरमेश्वरप्रीत्यर्थं देवर्पिमनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये । 

तीन कुश ग्रहण कर निम्न मंत्र को तीन बार कहें- 

ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमोनमः। 

तदनन्तर एक ताँवे अथवा चाँदी के पात्र में श्वेत चन्दन, जौ, तिल, चावल, सुगन्धित पुष्प और तुलसीदल रखें, फिर उस पात्र में तर्पण के लिये जल भर दें । फिर उसमें रखे हुए त्रिकुशा को तुलसी सहित सम्पुटाकार दायें हाथ में लेकर बायें हाथ से उसे ढँक लें और  देवताओं का आवाहन करें ।

आवाहन मंत्र : ॐ विश्वेदेवास ऽआगत श्रृणुता म ऽइम, हवम् । एदं वर्हिनिषीदत ॥

‘हे विश्वेदेवगण  ! आप लोग यहाँ पदार्पण करें, हमारे प्रेमपूर्वक किये हुए इस आवाहन को सुनें और इस कुश के आसन पर विराजे ।

इस प्रकार आवाहन कर कुश का आसन दें और त्रिकुशा द्वारा दायें हाथ की समस्त अङ्गुलियों के अग्रभाग अर्थात् देवतीर्थ से ब्रह्मादि देवताओं के लिये पूर्वोक्त पात्र में से एक-एक अञ्जलि तिल चावल-मिश्रित जल लेकर दूसरे पात्र में गिरावें और निम्नाङ्कित रूप से उन-उन देवताओं के नाममन्त्र पढते रहें—

1.देवतर्पण:
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ॐ ब्रह्मास्तृप्यताम् ।

ॐ विष्णुस्तृप्यताम् ।

ॐ रुद्रस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रजापतिस्तृप्यताम् ।

ॐ देवास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ छन्दांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ वेदास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ऋषयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पुराणाचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ गन्धर्वास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ इतराचार्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ संवत्सररू सावयवस्तृप्यताम् ।

ॐ देव्यस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ अप्सरसस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ देवानुगास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ नागास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सागरास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ पर्वतास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सरितस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ मनुष्यास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ यक्षास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ रक्षांसि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पिशाचास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ सुपर्णास्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतानि तृप्यन्ताम् ।

ॐ पशवस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ वनस्पतयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ ओषधयस्तृप्यन्ताम् ।

ॐ भूतग्रामश्चतुर्विधस्तृप्यताम् ।

2.ऋषितर्पण
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इसी प्रकार निम्नाङ्कित मन्त्रवाक्यों से मरीचि आदि ऋषियों को भी एक-एक अञ्जलि जल दें—

ॐ मरीचिस्तृप्यताम् ।

ॐ अत्रिस्तृप्यताम् ।

ॐ अङ्गिरास्तृप्यताम् ।

ॐ पुलस्त्यस्तृप्यताम् ।

ॐ पुलहस्तृप्यताम् ।

ॐ क्रतुस्तृप्यताम् ।

ॐ वसिष्ठस्तृप्यताम् ।

ॐ प्रचेतास्तृप्यताम् ।

ॐ भृगुस्तृप्यताम् ।

ॐ नारदस्तृप्यताम् ॥

3.मनुष्यतर्पण
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उत्तर दिशा की ओर मुँह कर, जनेऊ व् गमछे को माला की भाँति गले में धारण कर, सीधा बैठ कर  निम्नाङ्कित मन्त्रों को दो-दो बार पढते हुए दिव्य मनुष्यों के लिये प्रत्येक को दो-दो अञ्जलि जौ सहित जल प्राजापत्यतीर्थ (कनिष्ठिका के मूला-भाग) से अर्पण करें—

ॐ सनकस्तृप्यताम् -2

ॐ सनन्दनस्तृप्यताम् – 2

ॐ सनातनस्तृप्यताम् -2

ॐ कपिलस्तृप्यताम् -2

ॐ आसुरिस्तृप्यताम् -2

ॐ वोढुस्तृप्यताम् -2

ॐ पञ्चशिखस्तृप्यताम् -2

4.पितृतर्पण
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दोनों हाथ के अनामिका में धारण किये पवित्री व त्रिकुशा को निकाल कर रख दे ,

अब दोनों हाथ की तर्जनी अंगुली में नया पवित्री धारण कर मोटक नाम के कुशा के मूल और अग्रभाग को दक्षिण की ओर करके  अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखे, स्वयं दक्षिण की ओर मुँह करे, बायें घुटने को जमीन पर लगाकर अपसव्यभाव से (जनेऊ को दायें कंधेपर रखकर बाँये हाथ जे नीचे ले जायें ) पात्रस्थ जल में काला तिल मिलाकर पितृतीर्थ से (अंगुठा और तर्जनी के मध्यभाग से ) दिव्य पितरों के लिये निम्नाङ्कित मन्त्र-वाक्यों को पढते हुए तीन-तीन अञ्जलि जल दें—

ॐ कव्यवाडनलस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ सोमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ यमस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अर्यमा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

ॐ अग्निष्वात्ता: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ सोमपा: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

ॐ बर्हिषद: पितरस्तृप्यन्ताम् इदं सतिलं जलं गङ्गाजलं वा) तेभ्य: स्वधा नम: – 3

5.यमतर्पण
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इसी प्रकार निम्नलिखित मन्त्रो को पढते हुए चौदह यमों के लिये भी पितृतीर्थ से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल सहित जल दें—

ॐ यमाय नम: – 3

ॐ धर्मराजाय नम: – 3

ॐ मृत्यवे नम: – 3

ॐ अन्तकाय नम: – 3

ॐ वैवस्वताय नमः – 3

ॐ कालाय नम: – 3

ॐ सर्वभूतक्षयाय नम: – 3

ॐ औदुम्बराय नम: – 3

ॐ दध्नाय नम: – 3

ॐ नीलाय नम: – 3

ॐ परमेष्ठिने नम: – 3

ॐ वृकोदराय नम: – 3

ॐ चित्राय नम: – 3

ॐ चित्रगुप्ताय नम: – 3

6.मनुष्यपितृतर्पण

इसके पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र से पितरों का आवाहन करें—

ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहन्तु जलान्जलिम'  

ॐ हे पितरों! पधारिये तथा जलांजलि ग्रहण कीजिए। 

‘हे अग्ने ! तुम्हारे यजन की कामना करते हुए हम तुम्हें स्थापित करते हैं । यजन की ही इच्छा रखते हुए तुम्हें प्रज्वलित करते हैं । हविष्य की इच्छा रखते हुए तुम भी तृप्ति की कामनावाले हमारे पितरों को हविष्य भोजन करने के लिये बुलाओ ।’

तदनन्तर अपने पितृगणों का नाम-गोत्र आदि उच्चारण करते हुए प्रत्येक के लिये पूर्वोक्त विधि से ही तीन-तीन अञ्जलि तिल-सहित जल इस प्रकार दें—

अस्मत्पिता अमुकशर्मा  वसुरूपस्तृप्यतांम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामह: (दादा) अमुकशर्मा रुद्ररूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामह: (परदादा) अमुकशर्मा आदित्यरूपस्तृप्यताम् इदं सतिलं जलं (गङ्गाजलं वा) तस्मै स्वधा नम: – 3

अस्मन्माता अमुकी देवी वसुरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्पितामही (दादी) अमुकी देवी  रुद्ररूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जलं तस्यै स्वधा नम: – 3

अस्मत्प्रपितामही परदादी अमुकी देवी आदित्यरूपा तृप्यताम् इदं सतिलं जल तस्यै स्वधा नम: – 3

इसके बाद नौ बार पितृतीर्थ से जल छोड़े।

इसके बाद सव्य होकर पूर्वाभिमुख हो नीचे लिखे श्लोकों को पढते हुए जल गिरावे—

देवासुरास्तथा यक्षा नागा गन्धर्वराक्षसा: ।  पिशाचा गुह्यका: सिद्धा: कूष्माण्डास्तरव: खगा: ॥

जलेचरा भूमिचराः वाय्वाधाराश्च जन्तव: । प्रीतिमेते प्रयान्त्वाशु मद्दत्तेनाम्बुनाखिला: ॥

नरकेषु समस्तेपु यातनासु च ये स्थिता: । तेषामाप्ययनायैतद्दीयते सलिलं मया ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: । ते सर्वे तृप्तिमायान्तु ये चास्मत्तोयकाङ्क्षिण: ॥

अर्थ : ‘देवता, असुर , यक्ष, नाग, गन्धर्व, राक्षस, पिशाच, गुह्मक, सिद्ध, कूष्माण्ड, वृक्षवर्ग, पक्षी, जलचर जीव और वायु के आधार पर रहनेवाले जन्तु-ये सभी मेरे दिये हुए जल से भीघ्र तृप्त हों । जो समस्त नरकों तथा वहाँ की यातनाओं में पङेपडे दुरूख भोग रहे हैं, उनको पुष्ट तथा शान्त करने की इच्छा से मैं यह जल देता हूँ । जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में बान्धव रहे हों, अथवा किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सब तथा इनके अतिरिक्त भी जो मुम्कसे जल पाने की इच्छा रखते हों, वे भी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हों ।’

ॐ आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवषिंपितृमानवा: । तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय: ॥

अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम् । आ ब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम् ॥

येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा: ।ते सर्वे तृप्तिमायान्तु मया दत्तेन वारिणा ॥

अर्थ : ‘ब्रह्माजी  से लेकर कीटों तक जितने जीव हैं, वे तथा देवता, ऋषि, पितर, मनुष्य और माता, नाना आदि पितृगण-ये सभी तृप्त हों मेरे कुल की बीती हुई करोडों पीढियों में उत्पन्न हुए जो-जो पितर ब्रह्मलोकपर्यम्त सात द्वीपों के भीतर कहीं भी निवास करते हों, उनकी तृप्ति के लिये मेरा दिया हुआ यह तिलमिश्रित जल उन्हें प्राप्त हो जो मेरे बान्धव न रहे हों, जो इस जन्म में या किसी दूसरे जन्म में मेरे बान्धव रहे हों, वे सभी मेरे दिये हुए जल से तृप्त हो जायँ ।

वस्त्र-निष्पीडन करे तत्पश्चात् वस्त्र को चार आवृत्ति लपेटकर जल में डुबावे और बाहर ले आकर निम्नाङ्कित मन्त्र : “ये के चास्मत्कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृतारू । ते गृह्णन्तु मया दत्तं वस्त्रनिष्पीडनोदकम् ” को पढते हुए अपसव्य होकर अपने बाएँ भाग में भूमिपर उस वस्त्र को निचोड़े । पवित्रक को तर्पण किये हुए जल मे छोड दे । यदि घर में किसी मृत पुरुष का वार्षिक श्राद्ध आदि कर्म हो तो वस्त्र-निष्पीडन नहीं करना चाहिये ।

7.भीष्मतर्पण :
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इसके बाद दक्षिणाभिमुख हो पितृतर्पण के समान ही अनेऊ अपसव्य करके हाथ में कुश धारण किये हुए ही बालब्रह्मचारी भक्तप्रवर भीष्म के लिये पितृतीर्थ से तिलमिश्रित जल के द्वारा तर्पण करे । उनके लिये तर्पण का मन्त्र निम्नाङ्कित श्लोक है–

“वैयाघ्रपदगोत्राय साङ्कृतिप्रवराय च । गङ्गापुत्राय भीष्माय प्रदास्येऽहं तिलोदकम् । अपुत्राय ददाम्येतत्सलिलं भीष्मवर्मणे ॥”

अर्घ्य दान:
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फिर शुद्ध जल से आचमन करके प्राणायाम करे । तदनन्तर यज्ञोपवीत सव्य कर एक पात्र में शुद्ध जल भरकर उसमे श्वेत चन्दन, अक्षत, पुष्प तथा तुलसीदल छोड दे । फिर दूसरे पात्र में चन्दन् से षडदल-कमल बनाकर उसमें पूर्वादि दिशा के क्रम से ब्रह्मादि देवताओं का आवाहन-पूजन करे तथा पहले पात्र के जल से उन पूजित देवताओं के लिये अर्ध्य अर्पण करे ।

अर्ध्यदान के मन्त्र निम्नाङ्कित हैं—
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ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमत: सुरुचो व्वेन ऽआव:। स बुध्न्या ऽउपमा ऽअस्य व्विष्ठा: सतश्च योनिमसतश्व व्विव:॥ ॐ ब्रह्मणे नम:। ब्रह्माणं पूजयामि ॥

ॐ इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम् । समूढमस्यपा, सुरे स्वाहा ॥ ॐ विष्णवे नम: । विष्णुं पूजयामि ॥

ॐ नमस्ते रुद्र मन्यव ऽउतो त ऽइषवे नम: । वाहुब्यामुत ते नम: ॥ ॐ रुद्राय नम: । रुद्रं पूजयामि ॥

ॐ तत्सवितुर्व रेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि । धियो यो न: प्रचोदयात् ॥ ॐ सवित्रे नम: । सवितारं पूजयामि ॥

ॐ मित्रस्य चर्षणीधृतोऽवो देवस्य सानसि । द्युम्नं चित्रश्रवस्तमम् ॥ ॐ मित्राय नम:। मित्रं पूजयामि ॥

ॐ इमं मे व्वरूण श्रुधी हवमद्या च मृडय ।   त्वामवस्युराचके ॥ ॐ वरुणाय नम: । वरूणं पूजयामि ॥

फिर भगवान सूर्य को अघ्र्य दें –
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एहि सूर्य सहस्त्राशों तेजो राशिं जगत्पते। अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणाघ्र्य दिवाकरः। 
हाथों को उपर कर उपस्थान मंत्र पढ़ें –

चित्रं देवाना मुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरूणस्याग्नेः। आप्राद्यावा पृथ्वी अन्तरिक्ष सूर्यआत्माजगतस्तस्थुशश्च।

फिर परिक्रमा करते हुए दशों दिशाओं को नमस्कार करें।

ॐ प्राच्यै इन्द्राय नमः। ॐ आग्नयै अग्नयै नमः। ॐ दक्षिणायै यमाय नमः। ॐ नैऋत्यै नैऋतये नमः। ॐ पश्चिमायै वरूणाय नमः। ॐ वायव्यै वायवे नमः। ॐ उदीच्यै कुवेराय नमः। ॐ ऐशान्यै ईशानाय नमः। ॐ ऊध्र्वायै ब्रह्मणै नमः। ॐ अवाच्यै अनन्ताय नमः।

इस तरह दिशाओं और देवताओं को नमस्कार कर बैठकर नीचे लिखे मन्त्र से पुनः देवतीर्थ से तर्पण करें।

ॐ ब्रह्मणै नमः। ॐ अग्नयै नमः। ॐ पृथिव्यै नमः। ॐ औषधिभ्यो नमः। ॐ वाचे नमः। ॐ वाचस्पतये नमः। ॐ महद्भ्यो नमः। ॐ विष्णवे नमः। ॐ अद्भ्यो नमः। ॐ अपांपतये नमः। ॐ वरूणाय नमः। 

फिर तर्पण के जल को मुख पर लगायें और तीन बार ॐ अच्युताय नमः मंत्र का जप करें।

समर्पण- उपरोक्त समस्त तर्पण कर्म भगवान को समर्पित करें।

ॐ तत्सद् कृष्णार्पण मस्तु।

नोट- यदि नदी में तर्पण किया जाय तो दोनों हाथों को मिलाकर जल से भरकर गौ माता की सींग जितना ऊँचा उठाकर जल में ही अंजलि डाल दे
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Gurudev
Bhubneshwar
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Wednesday, 20 September 2023

एकादशी निर्णय कैसे करे

Gurudev Bhubaneswar: एकादशी को हरिवासर कहा गया है। भविष्यपुराण का वचन है—
शुक्ले वा यदि वा कृष्णे विष्णुपूजनतत्परः। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ॥

अर्थात्, विष्णुपूजा परायण होकर दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण) की ही एकादशी में उपवास करना चाहिये। लिङ्गपुराण में तो और भी स्पष्ट कहा है—
गृहस्थो ब्रह्मचारी च आहिताग्निस्तथैव च। एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि॥

अर्थात्, गृहस्थ, ब्रह्मचारी, सात्त्विकी किसी को भी एकादशी [दोनों पक्षों (शुक्ल और कृष्ण)] के दिन भोजन नहीं करना चाहिये। अब प्रश्न उठता है कि एकादशी व्रत का निर्धारण कैसे हो? वशिष्ठस्मृति के अनुसार दशमी विद्धा एकादशी संताननाशक होता है और विष्णुलोकगमन में बाधक हो जाता है। यथा—
दशम्येकादशी यत्र तत्र नोपवसद्बुध:। अपत्यानि विनश्यन्ति विष्णुलोकं न गच्छति॥

अतः यह परमावश्यक है कि एकादशी दशमीविद्धा (पूर्वविद्धा) न हो। हाँ द्वादशीविद्धा (परविद्धा) तो हो ही सकती है क्योंकि ‘पूर्वविद्धातिथिस्त्यागो वैष्णवस्य हि लक्षणम्’ (नारदपाञ्चरात्र)। लेकिन वेध-निर्णय का सिद्धान्त भी सर्वसम्मत नहीं है। निम्बार्क सम्प्रदाय में स्पर्शवेध प्रमुख है।उनके अनुसार यदि सूर्योदय में एकादशी हो परन्तु पूर्वरात्रि में दशमी यदि आधी रात को अतिक्रमण करे अर्थात् दशमी यदि सूर्योदयोपरान्त ४५ घटी से १ पल भी अधिक हो तो एकादशी त्याग कर महाद्वादशी का व्रत अवश्य करे। यथा—
अर्धरात्रमतिक्रम्य दशमी दृश्यते यदि। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥

(कूर्मपुराण)। परन्तु कण्व स्मृति के अनुसार अरुणोदय के समय दशमी तथा एकादशी का योग हो तो द्वादशी को व्रत कर त्रयोदशी को पारण करना चाहिये। यथा—
अरुणोदयवेलायां दशमीसंयुता यदि । तत्रोपोष्या द्वादशी स्यात्त्रयोदश्यां तु पारणम्॥

यहाँ पुराण और स्मृति के निर्देश में भिन्नता पायी जा रही है अतः शास्त्र-सिद्धान्त से स्मृति-वचन ही बलिष्ठ होता है। अतः यही सिद्धान्त बहुमान्य है। अपने रामानन्द-सम्प्रदाय का मत है कि वैष्णवों को वेध रहित एकादशी का व्रत रखना चाहिये।यदि अरुणोदय-काल में एकादशी दशमी से विद्धा हो तो उसे छोड़कर द्वादशी का व्रत करना चाहिये—
एकादशीत्यादिमहाव्रतानि कुर्याद्विवेधानि हरिप्रियाणि। विद्धा दशम्या यदि साऽरुणोदये स द्वादशीन्तूपवसेद्विहाय ताम्॥
Gurudev Bhubaneswar: कृष्ण पक्ष को यदि वञ्जुली हो तो एकादशी को भोजन कर द्वादशी का व्रत करें। ब्रह्मवैवर्तपुराण में भी यह वर्णन आया है। यथा—
एकादशी भवेत्पूर्णा परतो द्वादशी भवेत्। तदा ह्येकादशीं त्यक्त्वा द्वादशीं समुपोषयेत्॥ पर्वाच्युतजयावृद्धौ ईश दुर्गान्तकक्षये। शुद्धाष्येकादशी त्याज्या द्वादश्यां समुपोषणम् ॥ इनमें चार तिथिजन्य और चार नक्षत्रजन्य हैं जो इस प्रकार हैं-

१. उन्मीलनी अरुणोदय काल में सम्पूर्ण एकादशी अगले दिन प्रातः द्वादशी में वृद्धि को प्राप्त हो परन्तु द्वादशी की वृद्धि किसी भी दशा में न हो। २. वञ्जुली:- एकादशी की वृद्धि न होकर द्वादशी की वृद्धि हो अर्थात् त्रयोदशी में मुहुर्तार्ध द्वादशी हो। (पारण द्वादशी मध्य होनी चाहिये)। उदाहरणार्थ आश्विन कृष्ण ११ सोमवार २०७० को एकादशी रहते हुए भी द्वादशी की वृद्धि परिलक्षित हो रही है अतः इन्दिरा एकादशी व्रत को सोमवार को त्यागकर मंगलवार को वञ्जुली महाद्वादशी के रुप में की जायेगी।ध्यान रहे कि पारण द्वादशी मध्य विहित होने के कारण इसे ०६:०४ तक कर लेनी चाहिए। ३. त्रिस्पर्शा:- अरुणोदय काल में एकादशी, सम्पूर्ण दिन-रात्रि में द्वादशी तथा पर दिन त्रयोदशी हो, किन्तु किसी भी दशामें दशमीयुक्त नहीं हो। ४. पक्षवर्द्धिनी:- अमावस्या अथवा पूर्णिमा की वृद्धि ।यथा वैशाख कृष्ण ११ रविवार २०७० को एकादशी वर्तमान होते हुये भी अमावस्या की वृद्धि होने के कारण वैशाख कृष्ण १२ सोमवार (पक्षवर्द्धिनी महाद्वादशी) को वरुथिनी एकादशी का उपवास विहित है। चार नक्षत्रयुक्त महाद्वादशी व्रत ये हैं यदि शुक्लपक्षीय द्वादशी १.पुनर्वसुयुता (जया) २. श्रवणयुता (विजया) ३. रोहिणीयुता (जयन्ती) तथा ४. पुष्ययुता (पापनाशिनी)। एकादशी (महाद्वादशी) व्रतोपवास का अन्त पारण के साथ होता है। कूर्मपुराणानुसार एकादशी को व्रत एवं द्वादशी को पारण होना चाहिए। किन्तु त्रयोदशी को पारण नहीं होना चाहिए, क्योंकि वैसा करने से १२ एकादशियों के पुण्य नष्ट हो जाते हैं ।
Gurudev Bhubaneswar: द्वादशी तिथि की अप्राप्ति में त्रयोदशी को ही पारण होगा।जैसा कि वायुपुराण में कहा है-
कलाप्येकादशी यत्र परतो द्वादशी न चेत्। पुण्यं क्रतुशतस्योक्तं त्रयोदश्यां तु पारणम्॥

एक और भी बात। पारण में आचार्य-चरण ने यह भी आदेश किया है कि
आषाढ़भाद्रोर्जसितेषु संगता मैत्रश्रवोऽन्त्यादिगताद्व्युपान्त्यैः। चेद्द्वादशी तत्र न पारणं बुधः पादैः प्रकुर्याद्व्रतवृंदहारिणी॥

(श्रीवैष्णवमताब्जभास्कर, ७८)। अर्थात् यदि द्वादशी आषाढ़, भाद्र और कार्तिक मास शुक्ल पक्ष में अनुराधा, श्रवण, रेवती के आदि चरण, द्वितीय चरण और तृतीय चरण के साथ संयुक्त हो तो उसमें विद्वान् पारण न करे, क्योंकि वह समस्त व्रतों का नाशक है। अतः व्रतोपवास हेतु एकादशी-निर्णय एवं व्रत-समाप्ति के लिए उसके पारण-काल का निर्णय एकादशी का परमावश्यक अङ्ग है।

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Monday, 18 September 2023

गणेश जी की सूंड किस तरफ शुभ होती है


दक्षिणाभिमुखी होते हैं दाईं सूंड वाले गणेश
दाईं दिशा में सूंड वाले गणेश जी को दक्षिणाभिमुखी गणेश कहा जाता है, जिनके दुर्लभ होने की खास वजह है.  दक्षिणाभिमुखी गणेश जी की पूजा काफी कठिन होती है, क्योंकि ये जागृत व क्रोधित माने जाते हैं. उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठिन साधना करनी होती है. मान्यता है कि यदि इनकी सही विधि विधान से पूजा नहीं की जाए तो ये रुष्ट हो जाते हैं. ऐसे में आमतौर पर दक्षिणाभिमुख गणेश जी की पूजा नहीं की जाती है.

तेज बढ़ाते हैं दाईं दिशा वाले गणेश जी
दक्षिण दिशा में सूंड वाले गणेश जी की पूजा भले ही बहुत कम की जाती है, लेकिन जो भी विधि-विधान से उनकी पूजा करे तो उसकी हर मनोकामना पूरी होकर मृत्यु का भय तक खत्म हो जाता है. दक्षिण दिशा में यमलोक होता है, वहीं शरीर की दाईं नाड़ी सूर्य नाड़ी होती है. ऐसे में दक्षिणाभिमुखी गणेश जी की पूजा यमराज के भय से मुक्त कर आयु, ओज व तेज बढ़ाने वाली होती है.

दाईं दिशा में सूंड वाले गणेश जी को दक्षिणाभिमुखी गणेश कहा जाता है, जिनके दुर्लभ होने की खास वजह है.  दक्षिणाभिमुखी गणेश जी की पूजा काफी कठिन होती है, क्योंकि ये जागृत व क्रोधित माने जाते हैं. उन्हें प्रसन्न करने के लिए कठिन साधना करनी होती है. मान्यता है कि यदि इनकी सही विधि विधान से पूजा नहीं की जाए तो ये रुष्ट हो जाते हैं. ऐसे में आमतौर पर दक्षिणाभिमुख गणेश जी की पूजा नहीं की जाती है.

तेज बढ़ाते हैं दाईं दिशा वाले गणेश जी
दक्षिण दिशा में सूंड वाले गणेश जी की पूजा भले ही बहुत कम की जाती है, लेकिन जो भी विधि-विधान से उनकी पूजा करे तो उसकी हर मनोकामना पूरी होकर मृत्यु का भय तक खत्म हो जाता है. दक्षिण दिशा में यमलोक होता है, वहीं शरीर की दाईं नाड़ी सूर्य नाड़ी होती है. ऐसे में दक्षिणाभिमुखी गणेश जी की पूजा यमराज के भय से मुक्त कर आयु, ओज व तेज बढ़ाने वाली होती ह

Gurudev 

Bhubneshwar

Guna 

९८९३९४६८१०

Sunday, 17 September 2023

कुशा का मूल्य

#कुशोत्पाटनम्—

*#कुशशब्दव्याख्या*-
कशः/कुशम्, क्ली /पुं, (कु पापं श्यति नाशयति । कु + शो + डः । यद्वा कौ भूमौ शेते राजते शोभते इत्यर्थः ।) 

*#श्रेष्ठकुशाके_लक्षण*

पुष्ट, हरित ,गायके कान के बराबर तथा बिना टूटी फटी कुशा सर्वोत्तम मानी गई है-

*सपिञ्जलाश्च हरिताः पुष्टाः स्निग्धाःसमाहिताः।*
 *गोकर्णमात्राश्च कुशाः सकृच्छिन्नाः समूलकाः।।*

*गोकर्णमात्रा विस्तृताङ्गुष्ठानामिकापरिमिताः।।*
                                (विष्णुः)

*यद्यपि कुश और दर्भमें कोई अंतर विशेष नहीं है फिर भी विद्वानोंने दोनों की अलग-अलग परिभाषाएं की हैं* -

1. *अप्रसूताः स्मृतादर्भाः प्रसूतास्तु कुशाः स्मृताः।*
*समूलाः कुतपाः प्रोक्ताश्छिन्नाग्रास्तृणसंज्ञताः।।*
                       (हेमाद्रौ कौशिकेनोक्तम्) 
*#अप्रसूता=असंजातप्रसवाः_अपुष्पिता इत्यर्थः।।*

#अर्थ - जब तक पुष्प (बाल)नहीं निकलती तब तक उसे *#दर्भ* कहते हैं । पुष्पित होने पर या गर्भित होने पर *#कुश* कहलाता है। जड़ सहितको  *#कुतप* कहते हैं। तथा अग्रभाग तोड़ देने पर उसे *#तृण* कहा जाता है।

2. *प्रादेशमात्रं दर्भः स्यात् द्विगुणं कुशमुच्यते।*

दूसरे आचार्यके मतमें प्रादेश मात्र (10 या 12 अंगुल) तक का *#दर्भ* कहलाता है तथा एक हाथ के बराबर वालेको *#कुश*  कहते हैं। 

3. *समूलस्तु भवेद्दर्भः पितॄणां श्राद्धकर्मणि।*
                                        (यमः)

*#कुशोंकेभेद*-

कुश ,काश ,शर( सरकण्डा मूज) ,दूर्वा ,यव ,गेहूँ, धान, समा, बल्वज,कमल, उशीर, कुंदक, सुवर्ण, चाँदी तथा ताँबा ये सभी दर्भ कहे गये हैं

1. *कुशाः काशाः शरा दूर्वा यवगोधूमबल्वजाः।*
*सुवर्णं रजतं ताम्रं दश दर्भाः प्रकीर्तिताः।।*

2. *कुशा: काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।*
*गोधूमा व्रीहयो मौञ्जा दश दर्भा: सबल्वजा:॥*
                                  (धर्मसिन्धौ) 

3. *कुशा: काशास्तथा दूर्वा यवपत्राणि व्रीहय:।*
*बल्वजा: पुण्डरीकाश्च कुशा: सप्त प्रकीर्त्तिता:।।*
                       (पद्मपुराण सृ.४६/३४)

4. *काशाः कुशाः वल्वजाश्च तथा ये तीक्ष्णशूककाः।*
*मौञ्जलाः शाद्वलाश्चैव षड्दर्भाः परिकीर्तिताः।।*
                               (ब्रह्मपुराण)

5. *पितृतीर्थेन देयाः स्युर्दूर्व्वा श्यामाक एव च।* 
*काशाः कुशा बल्वजाश्च तथान्ये तीक्ष्णरोमशाः।*
*मौञ्जाश्च शाद्वलाश्चैव षड्दर्भाः परिकीर्त्तिताः।।*
 तीक्ष्णरोमशा इति वल्वजानां विशेषणं तेन तेषामलाभे।

*#कुशमें_त्रिदेवोंका_निवास_है*

*दर्भमूले वसेद्ब्रह्मा मध्यदेवो जनार्दनः।*
*दर्भाग्रे तु महादेवस्तस्माद्दर्भेन मार्जयेत् ॥*
दर्भके मूलभागमें ब्रह्माजी, दर्भके मध्यमें विष्णुका , दर्भके अग्रभागमें उमानाथ महादेवजीका वास है। 

*#कुशाओंके_न_मिलनेपर*-

1. *कुशाः काशाःशरो गुन्द्रो यवा दूर्वाऽथ बल्वजाः।*  *गोकेशमुञ्जकुन्दाश्च पूर्वाभावे परः परः।।*
                           (अपरार्के सुमन्तुः)

2. *कुशाभावे तु काशाः स्युः काशाः कुशसमाः स्मृताः।* *काशाभावे ग्रहीतव्या अन्ये दर्भा यथोचिताः।।*
 *दर्भाभावे स्वर्ण्णरूप्यताम्रैः कर्म्मक्रियाः सदा।* 

3. *श्राद्धे वर्ज्यानि प्रयत्नेन ह्यनूपाः सगवेधुकाः।*
*पुनश्च दूर्वाद्याः कुशाभावे प्रतिनिधित्वेनोक्ताः।।*

*#सोनेके_पवित्रककी_महिमा*-

*अन्यानि च पवित्राणि कुशदूर्वात्मकानि च।*
*हेमात्मक-पवित्रस्य ह्येकां नार्हन्ति वै कलाम्।।*

*#पवित्रकका_लक्षण*-

1. *अनन्तर्गर्भिणं साग्रङ्कौशं द्विदलमेव च।* 
*प्रादेशमात्रं विज्ञेयं पवित्रं यत्र कुत्रिचित्।।*
                            (हारीतः)

ब्राह्मण की पवित्री चार कुशोंकी, क्षत्रिय की तीन की, वैश्य की दो की एवं शूद्रोंकी एक कुशाकी पवित्री होनी चाहिए-

2. *पवित्रं ब्राह्मणस्यैव चतुर्भिर्दर्भपिञ्जलैः।*
*एकैकं न्यूनमुद्दिष्टं वर्णेवर्णे यथाक्रमम्।।*
                        ( स्मृत्यर्थसारे)
अथवा सभी वर्णों के लिए 2--2 कुशोंकी पवित्री हो-

3. *सर्वेषां वा भवेद्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं नवम्।*
                                    (रत्नावल्याम्)

4. *समूलाग्रौ विगर्भौ तु कुशौ द्वौ दक्षिणे करे।*
*सव्येचैव तथा त्रीन्वै बिभृयात् सर्वकर्मसु।।*
                                ( बौधायनः)
जड़ और अग्रभाग से युक्त  मध्यमें स्थित शल्यसेरहित  दो कुशोंकी पवित्रीको दाएं हाथमें तथा तीन कुशोंकी पवित्रीको बाएं हाथमें सभी कर्मोंमें धारण करना चाहिए , यह मत सर्वमान्य है।

अथवा दोनों हाथों में दो दो कुशोंकी पवित्री धारण करें।
5. *हस्तयोरुभयोर्द्वौद्वावासनेऽपि तथैव च।*

 *#पवित्री_अनामिकाके_मध्यपर्वमें_या_मूलमें_धारणकरें* -

1 *द्वयोस्तु पर्वणोर्मध्ये पवित्रं धारयेद्बुधः।*
*अनामिकाधृता दर्भाह्येकानामिकयापि वा।*
*द्वाभ्यामनामिकाभ्यां तु धार्ये दर्भपवित्रके।।*
                      (हेमाद्रौ स्कान्दे)

2 *अनामिकामूलदेशे पवित्रं धारयेद्विजः।*
     (अत्रिस्मृति आह्निकसूत्रावल्याम्)

*#पवित्रीकी_आवश्यकता*- 

जप, होम ,दान, स्वाध्याय  श्राद्ध आदि कर्मोंमें कुशकी पवित्री या स्वर्ण अथवा चांदी की पवित्री को अवश्य धारण करें ,रिक्त हाथोंसे कोई भी शुभ कर्म नहीं करना चाहिए-

1. *अशून्यं करं न कुर्यात् सुवर्णरजतकुशैः।*
*जपे होमे तथा दाने स्वाध्याये पितृ कर्मणिः।*

2. *स्नाने होमेतथा दाने स्वाध्याये पितृतर्पणे।*
 *सपवित्रौ सदर्भौ वा करौकुर्व्वीत नान्यथा।!*
 *सर्वेषां वा भवेद्द्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं न वा।।*

3. *पूजाकाले सर्व्वदैवे कुशहस्तो भवेच्छुचिः।*
*कुशेनरहिता पूजा विफला कथिता मया।।*

4. *पवित्राः परमादर्भा दर्भहीना वृथाक्रियाः।*

*#वर्ज्यकुशा:*-

1. *चितौ दर्भाः पथि दर्भाः ये दर्भा यज्ञभूमिषु।* 
*स्तरणासनपिण्डेषु षड्दर्भान् परिवर्जयेत्।।*
                               (हारीतः)

2. *पिण्डार्थं ये स्तृता दर्भा यैः कृतंपिवृतर्पणम्।*
 *मूत्रोच्छिष्टप्रलेपे तु त्यागस्तेषां विधीयते।।*
                       (छन्दोगपरिशिष्टम्)

3. *धृतैः कृते च विण्मूत्रे त्यागस्तेषां विधीयते।*
*नीवीमध्ये च ये दर्भा ब्रह्मसूत्रे च ये धृताः।।*
*पवित्रांस्तान् विजानीयाद्घथा कायस्तथा कुशाः।।*
 
4. *ब्रह्मयज्ञे च ये दर्भा ये दर्भाः पितृतर्पणे।* *हतामूत्रपुरीषाभ्यान्तेषां व्यागो विधीयते।।*
                              (हेमाद्रौ)

*#पवित्रीधारण_करके_आचमन_करनेसे_पवित्री_उच्छिष्ट_नहीं_होती ,परंतु भोजन करने पर पवित्री उच्छिष्ट हो जाती है, तब उसका त्याग कर देना चाहिए*-

1. *सपवित्रः सदर्भो वा कर्माङ्गाचमनं चरेत्।*
*नोच्छिष्टं तत् सदर्भं च भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।*

2. *सपवित्रेण हस्तेन कुर्यादाचमनक्रियाम्।*
*नोच्छिष्टं तत्पवित्रं तु भुक्तोच्छिष्टं तु वर्जयेत्।।*
     (श्राद्धचिंतामणिमें मार्कंडेयजीका वजन)

3. *आचम्य प्रयतो नित्यं पवित्रेण द्विजोत्तमः।*
*नोच्छिष्टन्तु भवेत्तत्र भुक्तशेषं विवर्जयेत्।।*

*#दूर्वा_और_काशकीपवित्री_पहनकर_आचमन_नहीं_करना_चाहिए* -

काशादौ विशेषमाह शङ्खः-
*काशहस्तस्तु नाचामेत्कदाचिद्विधिशङ्कया।* 
*प्रायश्चित्तेन युज्येत दूर्वाहस्तस्तथैव च।।*

*#कुशऔरकाशसे_दन्तधावनभी_नहीं_करें* -

कुश, काश, पलाश और अशोक वृक्ष की दातुन करनेसे व्यक्ति चांडाल हो जाता है और वह चांडालत्त्व को तब तक प्राप्त रहता है जब तक गंगाजीके दर्शन नहीं कर लेता-

*कुशं कासं पलासं च शिशपं यस्तु भक्षयेत्।*
*तावत् भवति चाण्डालो यावद्गंगां न पश्यति।।*
                     (आचारमयूखे गर्गः)

*#सधवास्त्रीको_कुश_और_तिलका_प्रयोग_नहीं_करना_चाहिए*-

सधवायास्तद्धारणनिषेधमाह ब्राह्मणसर्व्वस्वे -

*न स्पृशेत्तिलदर्भांश्च सधवा तु कथञ्चन।*
 

*#कुशोत्पाटनका_मंत्र*

दर्भग्रहणेमन्त्रमाहशङ्खः-
*विरिञ्चिना सहोत्पन्न! परमेष्ठिनिसर्गज!।*
 *नुद सर्वाणि पापानि दर्भ! स्वस्तिकरोभव।।*
            (धर्मसिन्धौ स्मृत्यर्थसारे च) 

*हुम्फट्कारेण मन्त्रेण सकृच्छित्त्वा समुद्धरेत्।*

*#कुशोत्पाटनका_समय_मुख्यप्रातःकाल*

अत्र विशेषः निर्ण्णयसिन्धौपृथ्वीचन्द्रोदये तद्ग्रहणकालमाह दक्षः-

*समित्पुष्पकुशादीनां द्वितीयः परिकीर्तितः।*

( अष्टधा विभक्तदिनस्य द्वितीयोभाग इत्यर्थः।)

*#पितरोंकेलिए_दक्षिणाभिमुख_कुशा_उखाड़नेका_विशेषनियम*-

*प्रेतक्रियार्थं पित्रर्थमभिचारार्थमेव च।* *दक्षिणाभिमुखश्छिन्द्यात् प्राचीनावीतिकोद्विजः।।*

 
*#अन्यअमावस्याओंमें उखाड़ा गया कुश 1 महीने तक तथा भाद्रपदकी अमावस्याको उत्पाटित कुश 1 वर्षतक पवित्र रहता है।*-

*मासि मास्युत्द्धृता दर्भा मासि मास्येव चोदिताः।*
                         ( षड्त्रिंशन्मते)

*मासे मासे त्वमावास्यां दर्मो ग्राह्यो नवः स्मृतः।*

भाद्रामावास्यागृहीतदर्भस्यायातयामतामाह हेमा॰श्रा॰ ख॰ हारीतः-
*मासे नभस्यमावास्या तस्या दर्भोच्चयो मतः।*
*अयातयामास्ते दर्भां विनियोज्याःपुनः पुनः।।*

*#कुशब्रह्मा_और_विष्टर_बनानेका_नियम*

*पंचाशत् कुशोद्भवेत्ब्रह्मा तदर्धेन तु विष्टर।*
 *ऊर्द्ध्वकेशो भवेद्ब्रह्मा लम्बकेशस्तु विष्टरः।*
*दक्षिणावर्त्तको ब्रह्मा वामावर्त्तस्तु विष्टरः।।*
यथा संभवं वा। (कुशकंडिका पद्धतौ) 
 Gurudev
Bhubneshwar
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