ज्योतिष समाधान

Saturday, 24 February 2018

मंगल दोष रद्द

मंगल दोष रद्द,

उदाहरण 1

मेष लग्न की कुंडली

अब इस कुंडली में मंगल पहले, चौथे, आठवें और बारवें भाव में हुआ तो मंगल दोष खुद ब खुद रद्द हो जाएगा

क्योंकि मेष राशि व वृश्चिक राशि मंगल की अपनी राशि है और अपनी राशि का मंगल मांगलिक दोष नहीं देता।

इस कुंडली में चौथे भाव में बैठा मंगल चंद्रमा की कर्क व बारहवें भाव में बैठा मंगल बृहस्पति की राशि में हैै।

लिहाजा मेष लग्न में छः में से चार घरों पर बैठे मंगल पर मागलिक दोष रद्द हो गया है।

इस लग्न में सिर्फ दूसरे व सातवें भाव में बैठे मंगल पर ही मांगलिक दोष बनता है।

उदाहरण 2

इस दूसरे उदाहरण में जातक की कुंडली चार राशि यानि कि

कर्क लग्न की है। कर्क और सिंह लग्न

में मंगल एक केंद्र और एक त्रिकोण का मालिक होकर योगा कारक ग्रह हो जाता है।

लिहाजा कर्क और सिंह लग्न की कुंडली में जातक को मांगलिक दोष नहीं लगता।

इस कुंडली में मंगल पांचवें (त्रिकोण में वृश्चिक राशि) और दसवें (केंद्र में मेष राशि) का स्वामी है लिहाजा यहां मंगल दोष नहीं लगेगा।

उदहारण 3

ये तीसरी कुंडली मीन लग्न की है और इस कुंडली में लग्न का स्वामी बृहस्पति है और बृहस्पति मजबूत हो कर अपनी राशि में लग्न में बैठा है।
लिहाजा इस लग्न में लग्न के मंगल पर मांगलिक दोष नहीं लगेगा।

मीन लग्न में दूसरे भाव में बैठा मंगल अपनी मेष राशि में आ जाएगा।

लिहाजा दूसरे घर के मंगल पर भी मांग्लिक दोष रद्द हो जाएगा।

इसी लग्न में चौथे भाव में बैठा मंगल बुद्ध की राशि मिथुन में आ गया है लिहाजा यहां भी मंगल दोष नहीं लगेगा।

सातवें घर में मंगल के साथ चंद्रमा है और मंगल पर बृहस्पति की दृष्टि भी है। लिहाजा सातवें घर के मांगल का मांगलिक दोष भी रद्द हो गया है। उदहारण 4

तुला लग्न की इस चौथी कुंडली में लग्न में बैठा मंगल सूर्य के साथ है लिहाजा लग्न का मांगलिक दोष रद्द हो गया है।

इस कुंडली में चौथे भाव में बैठा मंगल मकर राशि में जाकर उच्च का मंगल हो गया है और बुध के साथ बैठा है लिहाजा यहां चौथे भाव के मंगल से मांगलिक दोष नहीं लगेगा।

यहां आठवें भाव में मगल शनि और बारवें भाव में मंगल राहू के साथ बैठा है लिहाजा मांगलिक दोष यहां भी रद्द हो जाएगा।

ऐसे भी रद्द हो जाता है

मांगलिक दोष कुंभ लग्न की कुंडली में मंगल यदि चौथे और आठवें घर में हो तो मांगलिक दोष नहीं लगता।

लग्न में शुभ बृहस्पति या शुक्र बैठें हों तो मांगलिक दोष रद्द हो जाता है।

धनु और मीन लग्न की कुंडली में आठवें घर में बैठे मंगल से मांगलिक दोष नहीं लगता। बाहरवें घर में मंगल यदि शुक्र की राशि वृष या तुला में हो तो मंगल दोष नहीं लगता।

दूसरे घर में मिथुन या कन्या राशि में बैठा मंगल भी मांगलिक दोष नहीं देता।

भू रुदन :- हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही लिया जाना चाहिए । यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।

भू रुदन :-
हर महीने की अंतिम घडी, वर्ष का अंतिम् दिन, अमावस्या, हर मंगल वार को भू रुदन होता हैं । अतः इस काल को शुभ कार्य भी नही लिया जाना चाहिए । यहाँ महीने का मतलब हिंदी मास से हैं और एक घडी मतलब 24 मिनिट हैं । अगर ज्यादा गुणा न किया जाए तो मास का अंतिम दिन को इस आहुति कार्य के लिए न ले।

भू रजस्वला :-

इस का बहुत ध्यान रखना चाहिए ।यह तो हर व्यक्ति जानता हैं की मकरसंक्रांति लगभग कब पड़ती हैं । अगर इसका लेना देना मकर राशि से हैं तो इसका सीधा सा तात्पर्य यह हैं की हर महीने एक सूर्य संक्रांति पड़ती ही हैं और यह एक हर महीने पड़ने वाला विशिष्ट साधनात्मक महूर्त होता हैं । तो जिस भारतीय महीने आपने आहुति का मन बनाया हैं ठीक उसी महीने पड़ने वाली सूर्य संक्रांति से (हर लोकलपंचांग मे यह दिया होता हैं । लगभग 15 तारीख के आस पास यह दिन होता हैं । मतलब सूर्य संक्रांति को एक मान कर गिना जाए तो 1, 5, 10, 11, 16, 18, 19 दिन भू रजस्वला होती हैं ।

भू शयन :-

आपको सूर्य संक्रांति समझ मे आ गयी हैं तो किसी भी महीने की सूर्य संक्रांती से 5, 7, 9, 15, 21 या 24 वे दिन को भू शयन माना जाया हैं । सूर्य जिस नक्षत्र पर हो उस नक्षत्र से आगे गिनने पर 5, 7,9, 12, 19, 26 वे नक्षत्र मे पृथ्वी शयन होता हैं । इस तरह से यह भी काल सही नही हैं । अब समय हैं यह जानने का कि भू हास्य क्या है ?

भू हास्य :- तिथि मे पंचमी ,दशमी ,पूर्णिमा । वार मे – गुरु वार । नक्षत्र मे – पुष्य, श्रवण मे पृथ्वी हसती हैं । अतः इन दिनों का प्रयोगकिया जाना चाहिए । गुरु और शुक्र अस्त :- यह दोनों ग्रह कब अस्त होते हैं और कब उदित । आप लोकल पंचांग मे बहुत ही आसानी से देख सकते हैं और इसका निर्धारण कर सकते हैं । अस्त होने का सीधा सा मतलब हैं की ये ग्रह सूर्य के कुछ ज्यादा समीप हो गए और अब अपना असर नही दे पा रहे हैं ।

Monday, 19 February 2018

यज्ञ कुंड मुख्यत: आठ प्रकार के होते हैं और सभी का प्रयोजन अलग अलग होताहैं ।

॥ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
॥ यज्ञौवैश्रेष्ठतरं कर्मः स यज्ञः स विष्णुः॥ ॥ यज्ञात्भवति पर्जन्यः पर्जन्याद्अन्नसम्भवः॥ ॥

सत्यं परम धीमहि,
धरम न दूसर सत्य समाना
आगम निगम पुराण बखाना।।।

आइए जानते हैं कि यज्ञ के कुंडों की क्या महत्ता है....

यज्ञ से वर्षा होती है,
वर्षा से अन्न पैदा होता है,
जिससे संसार का जीवन चलता है।
वायुमंडल में मंत्रों का प्रभाव पड़ता है जो प्राकृतिक घटनाएं जैसे-
भूकंप, ओलावृष्टि, हिंसात्मक घटनाओं का शमन होता है, क्योंकि यज्ञ शब्दब्रह्म है।

जानिए यज्ञ के नौ कुंडों की विशेषता

* सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ति के लिए प्रधान चतुरस्त्र कुंड का महत्व होता है।

* पुत्र प्राप्ति के लिए योनि कुंड का पूजन जरूरी है।

* ज्ञान प्राप्ति के लिए आचार्य कुंड यज्ञ का आयोजन जरूरी होता है।

* शत्रु नाश के लिए त्रिकोण कुंड यज्ञ फलदाई होता है।

* व्यापार में वृद्धि के लिए वृत्त कुंड करना लाभदाई होता है।

* मन की शांति के लिए अर्द्धचंद्र कुंड किया जाता है।

* लक्ष्मी प्राप्ति के लिए समअष्टास्त्र कुंड, विषम अष्टास्त्र कुंड, विषम षडास्त्र कुंड का विशेष महत्व होत

यज्ञ कुंड मुख्यत:

आठ प्रकार के होते हैं और सभी का प्रयोजन अलग अलग होताहैं ।

1. योनी कुंड – योग्य पुत्र प्राप्ति हेतु ।

2. अर्ध चंद्राकार कुंड – परिवार मे सुख शांति हेतु । पर पतिपत्नी दोनों को एक साथ आहुति देना पड़ती हैं ।

3. त्रिकोण कुंड – शत्रुओं पर पूर्ण विजय हेतु ।

4. वृत्त कुंड – जन कल्याण और देश मे शांति हेतु ।

5. सम अष्टास्त्र कुंड – रोग निवारण हेतु ।

6. सम षडास्त्र कुंड – शत्रुओ मे लड़ाई झगडे करवाने हेतु ।

7. चतुष् कोणास्त्र कुंड – सर्व कार्य की सिद्धि हेतु ।

8. पदम कुंड – तीव्रतम प्रयोग और मारण प्रयोगों से बचने हेतु ।

मण्डपों के निर्माण में

द्वार,
खम्भे,
तोरण द्वार,
ध्वजा,
शिखर,
छादन,
रङ्गीन वस्त्र आदि वर्णन हैं ।

इनके वस्तु भेद,
रङ्ग भेद,
नाप दिशा आदि के विधान बताए गए हैं ।

मण्डपों के नाम भी अलग- अलग-प्रयोग विशेष के आधार पर लिखे गये हैं ।

कुण्डों में चतुरस्र कुण्ड,
योनि कुण्ड,
अर्ध चन्द्र कुण्ड,
अष्टास्त्र कुण्ड,
सप्तास्त्र कुण्ड,
पञ्चास्त्र कुण्ड,
आदि अनेक प्रकार के कुण्डों के खोदने के अनेक विधान हैं ।
कुण्डों के साथ में योनियाँ लगाने का वर्णन है ।

योनियों के भेद-उपभेद एवं अन्तरों का विवेचन है ।

इन सबका उपयोग बहुत बड़े यज्ञों में ही सम्भव है ।
इसी प्रकार अनेक देव-देवियाँ यज्ञ मण्डप के मध्य तथा दिशाओं में स्थापित की जाती हैं ।

साधारण यज्ञों को सरल एवं सर्वोपयोगी बनाने के लिए मोटे आधार पर ही काम करना होगा ।

मण्डप की अपने साधन और सुविधाओं की दृष्टि से पूरी-पूरी सजावट करनी चाहिये और उसके बनाने में कलाप्रियता, कारीगरी एवं सुरुचि का परिचय देना चाहिए ।

रंगीन वस्त्रों,
रंगीन कागजों,
केले के पेड़ों आम्र पल्लवों,
पुष्पों, खम्भों,
द्वारों, चित्रों, ध्वजाओं, आदर्श वाक्यों, फल आदि के लटकनों से उसे भली प्रकार सजाना चाहिए ।

वेदी का कुण्ड जो कुछ भी बनाया जाय, टेका-तिरछा न हो ।

उसकी लम्बाई-चौड़ाई तथा गोलाई सधी हुई हो ।

कुण्ड या वेदी को रंगविरंगे चौक पूर कर सुन्दर बनाना चाहिये ।

पिसी हुई मेंहदी से हरा रंग, पिसी हल्दी से पीला रंग, आटे से सफेद रंग, गुलाल या रोली से लाल रंग की रेखाएँ खींचकर, चौक को सुन्दर बनाया जा सकता है ।

सर्वतोभद्र, देव-स्थापना की चौकियाँ या वेदियाँ, कलश, जल घट, आसन आदि को बनाने या रखने में भी सौन्दर्य एवं शोभा का विशेष ध्यान रखना चाहिए ।
जिस प्रकार देव मन्दिरों में भगवान की प्रतिमा नाना प्रकार के वस्त्रों, आभूषणों, एवं श्रंङ्गारों से सजाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ भगवान की शोभा के लिए भी पूरी तत्परता दिखाई जानी चाहिये ।

कुण्ड और मण्डप-निर्माण के विधि-विधानों में जहाँ विज्ञान का समावेश है, वहाँ शोभा, सजावट, कला एवं सुरुचि प्रदर्शन भी एक महत्वपूर्ण कारण है ।

कुण्ड और मण्डपों के सम्बन्ध में इस प्रकार के उल्लेख ग्रन्थों में मिलते है

ः- बड़े यज्ञों में ३२ हाथ (४८ फुट) ३६ फुट अर्थात १६ = २४ फुट का चौकोर मण्डप बनाना चाहिये ।

मध्यम कोटि के यज्ञों में १४ (१८ फुट) हाथ अथवा १२ हाथ (१८ फुट) का पर्प्याप्त है ।

छोटे यज्ञों में १० हाथ (१५ फुट ) या ८ (१२ फुट) हाथ की लम्बाई चौडाई का पर्याप्त है ।

मण्डप की चबूतरी जमीन से एक हाथ या आधा हाथ ऊँची रहनी चाहिए ।

बड़े मण्डपों की मजबूती के लिए १६ खंभे लगाने चाहिये ।

खम्भों को रङ्गीन वस्त्रों से लपेटा जाना चाहिए । मण्डप के लिये प्रतीक वृक्षों की लकड़ी तथा बाँस का प्रयोग करना चाहिए ।

मण्डप के एक हाथ बाहर चारों दिशाओं में ४ तोरण द्वार होते हैं,

यह ७ हाथ (१० फुट ६ इंच) उँचे और ३.५ चौड़े होने चाहिए ।

इन तोरण द्वारों में से पूर्व द्वार पर शङ्क,

दक्षिण वाले पर चक्र,

पच्छिम में गदा

और उत्तर में पद्म बनाने चाहिए ।

इन द्वारों में पूर्व में पीपल,

पच्छिम में गूलर

-उत्तर में पाकर,

दक्षिण में बरगद की लकड़ी लगाना चाहिए,

यदि चारों न मिलें तो इनमें से किसी भी प्रकार की चारों दिशाओं में लगाई जा सकती है ।

पूर्व के तोरण में लाल वस्त्र,
दक्षिण के तोरण में काला वस्त्र,
पच्छिम के तोरण में सफेद वस्त्र,
उत्तर के तोरण में पीला वस्त्र लगाना चाहिए ।

सभी दिशाओं में तिकोनी ध्वजाएँ लगानी चाहिये ।

पूर्व में पीली,
अग्निकोण में लाल,
दक्षिण में काली,
नैऋत्य में नीली,
पच्छिम में सफेद,
वायव्य में धूमिल,
उत्तर में हरी,
ईशान में सफेद लगानी चाहिये ।

दो ध्वजाएँ ब्रह्मा और अनन्त की विशेष होती है,

ब्रह्मा की लाल ध्वजा ईशान में

और अनन्त की पीली ध्वजा

नैऋत कोण में लगानी चाहिए ।

इन ध्वजाओं में सुविधानुसार वाहन और आयुध भी चित्रित किये जाते हैं ।

ध्वजा की ही तरह पताकाएं भी लगाई जाती है इन पताकाओं की दिशा और रङ्ग भी ध्वजाओं के समान ही हैं ।

पताकाएं चौकोर होती हैं ।

एक सबसे बड़ा महाध्वज सबसे उँचा होता है ।

मण्डप के भीतर चार दिशाओं में चार वेदी बनती हैं ।

ईशान में ग्रह वेदी,

अग्निकोण में योगिनी वेदी,

नैऋत्य में वस्तु वेदी

और वायव्य में क्षेत्रपाल वेदी,

प्रधान वेदी पूर्व दिशा में होनी चाहिए ।

एक कुण्डी यज्ञ में मण्डप के बीच में ही कुण्ड होता है ।

उसमें चौकोर या कमल जैसा पद्म कुण्ड बनाया जाता हैं ।

कामना विशेष से अन्य प्रकार के कुण्ड भी बनते हैं ।

पंच कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड बीच में,

चतुरस्र पूर्व में,

अर्थचन्द्र दक्षिण में,

वृत पच्छिम में

और पद्म उत्तर में होता है ।

नव कुण्डी यज्ञ में आचार्य कुण्ड मध्य में

चतुररसा्र कुण्ड पूर्व में,

योनि कुण्ड अग्नि कोण में,

अर्धचन्द्र दक्षिण में,

त्रिकोण नैऋत्य में

वृत पच्छिम में,

षडस्र वायव्य में,

पद्म उत्तर में,

अष्ट कोण ईशान में होता है ।

प्रत्येक कुण्ड में ३ मेखलाएं होती हैं ।

ऊपर की मेखला ४ अंगुल,

बीच की ३ अंगुल,

नीचे की २ अँगुल होनी चाहिए ।

ऊपर की मेखला पर सफेद रङ्ग

मध्य की पर लाल रङ्ग

और नीचे की पर काला रङ्ग करना चाहिए ।

५० से कम आहुतियों का हवन करना हो तो कुण्ड बनाने की आवश्यकता नहीं ।

भूमि पर मेखलाएं उठाकर स्थाण्डिल बना लेना चाहिए ।

५० से ९९ तक आहुतियों के लिए २१ अंगुल का कुण्ड होना चाहिए ।

१०० से ९९९ तक के लिए २२.५अँगुल का,

एक हजार आहुतियों के लिए २ हाथ=(१.५)फुट का,

तथा एक लाख आहुतियों के लिए ४ हाथ (६ फुट)का कुण्ड बनाने का प्रमाण है ।

यज्ञ-मण्डप में पच्छिम द्वार से साष्टाङ्ग नमस्कार करने के उपरान्त प्रवेश करना चाहिए ।

हवन के पदार्थ चरु आदि पूर्व द्वार से ले जाने चाहिए ।

दान की सामग्री दक्षिण द्वार से और पूजा प्रतिष्ठा की सामग्री उत्तर द्वार से ले जानी चाहिए ।

कुण्ड के पिछले भाग में योनियों बनाई जाती है ।

इनके सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का मत है कि वह वामार्गी प्रयोग है ।

योनि को स्त्री की मूत्रेन्दि्रय का आकार और उसके उपरिभाग में अवस्थित किये जाने वाले गोलकों को पुरुष अण्ड का चिह्न बना कर वे इसे अश्लील एवं अवैदिक भी बताते हैं ।

अनेक याज्ञिक कुण्डों में योनि-निर्माण के विरुद्ध भी हैं

और योनि-रहित कुण्ड ही प्रयोग करते हैं ।

योनि निर्माण की पद्धति वेदोक्त है या अवैदिक, इस प्रश्न पर गम्भीर विवेचना अपेक्षणीय है ।

लम्बाई, चौड़ाई, सब दृष्टि से चौकोर कुण्ड बनाने का कुण्ड सम्बन्धी ग्रन्थों में प्रमाण है । अनेक स्थानों पर ऐसे कुण्ड बनाये जाते हैं, जो लम्बे चौड़े और गहरे तो समान लम्बाई के होते हैं, पर वे तिरछे चलते हैं और नीचे पेंदे में जाकर ऊपर की अपेक्षा चौथाई-चौड़ाई में रह जाते हैं । इसके बीच में भी दो मेखलाएं लगा दी जाती हैं ।

इस प्रकार बने हुए कुण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित करने तथा शोभा एवं सुविधा की दृष्ठि से अधिक उपयुक्त हैं ।

Thursday, 15 February 2018

चोरी गई वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी। मिलेगी तो कब तक मिलेगी इस बात तक का पता ज्योतिष शास्त्र के जरिए लगाया जा सकता है।


चोरी गई वस्तु का पता भी बताता है ज्योतिष शास्त्र


आजकल जिस तरह से आर्थिक असमानता बढ़ती जा रही है। चोरी का भय भी बढ़ता जा रहा है। लोग अपना घर सूना छोड़ने में डरने लगे हैं। किस पर विश्वास करें, किस पर न करें यह बड़ा विचारणीय प्रश्न बन गया है। कई बार लोगों को बड़ा नुकसान हो जाता है, जब उनके घर, व्यापारिक प्रतिष्ठान या यात्रा आदि के दौरान सामान चोरी हो जाता है

ज्योतिष वाकई एक शास्त्र से बढ़कर विज्ञान है, जिसमें प्रत्येक प्रश्न का उत्तर समाया हुआ है। चोरी गई वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी। मिलेगी तो कब तक मिलेगी इस बात तक का पता ज्योतिष शास्त्र के जरिए लगाया जा सकता है।


ज्योतिष के अनुसार अलग-अलग नक्षत्रों में चोरी गई वस्तुओं के मिलने या न मिलने का अलग-अलग परिणाम होता है। जिस समय हमें अपनी चोरी गई वस्तु का पता लगे उस समय के नक्षत्र या अंतिम बार आपने फलां वस्तु को किस वक्त देखा था, उस समय के नक्षत्र के अनुसार चोरी गई वस्तु का विचार किया जाता है।

1. रोहिणी, पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और रेवती को ज्योतिष में अंध नक्षत्र माना गया है। इन नक्षत्रों में चोरी होने वाली वस्तु पूर्व दिशा में जाती है और जल्दी मिल जाती है। इन नक्षत्रों में यदि कोई वस्तु चोरी हुई है तो वह अधिक दूर नहीं जाती है उसे आसपास ही तलाशना चाहिए।

2. मृगशिरा, अश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, अश्विनी ये मंद नक्षत्र कहे गए हैं। इन नक्षत्रों में यदि कोई वस्तु चोरी होती है तो वह तीन दिन में मिलने की संभावना रहती है। इन नक्षत्रों में गई वस्तु दक्षिण दिशा में प्राप्त होती है। साथ ही वह वस्तु रसोई, अग्नि या जल के स्थान पर छुपाई होती है।

3. आर्द्रा, मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, अभिजीत, पूर्वाभाद्रपद, भरणी ये मध्य लोचन नक्षत्र होते हैं। इन नक्षत्रों में चोरी गई वस्तुएं पश्चिम दिशा में मिल जाती हैं। वस्तु के संबंध में जानकारी 64 दिनों के भीतर मिलने की संभावना रहती है। यदि 64 दिनों में न मिले तो फिर कभी नहीं मिलती। इस स्थिति में वस्तु के अत्यधिक दूर होने की जानकारी भी मिल जाती है, लेकिन मिलने में संशय रहता है।

4. पुनर्वसु, पूर्वाफाल्गुनी, स्वाति, मूल, श्रवण, उत्तराभाद्रपद, कृतिका को सुलोचन नक्षत्र कहा गया है। इनमें गई वस्तु कभी दोबारा नहीं मिलती। वस्तु उत्तर दिशा में जाती है, लेकिन पता नहीं लगा पाता कि कहां रखी गई है या आप कहां रखकर भूल गए हैं।

प्रश्न: लग्न के अनुसार भी चोरी गई वस्तु के संबंध में विचार किया जाता है। यदि कोई व्यक्ति चोरी गई वस्तु के संबंध में जानने के लिए आए और प्रश्न करे तो जिस समय वह प्रश्न करे उस समय की लग्न कुंडली बना लेना चाहिए। या जिस समय वस्तु चोरी हुई है उस समय गोचर में जो लग्न चल रहा था उसके अनुसार फल कथन किया जाता है।

1. मेष लग्न मेष वस्तु चोरी हुई हो प्रश्नकाल में मेष लग्न हो तो चोरी गई वस्तु पूर्व दिशा में होती है। चोर ब्राह्मण वर्ग का व्यक्ति होता है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम में दो या तीन अक्षर होते हैं।

2. वृषभ लग्न में वस्तु चोरी हुई हो तो वस्तु पूर्व दिशा में होती है और चोर क्षत्रिय वर्ण का होता है। उसके नाम में आदि अक्षर म रहता है तथा नाम चार अक्षरों वाला होता है।

3. मिथुन लग्न में चोरी गई वस्तु आग्नेय कोण में होती है। चोरी करने वाला व्यक्ति वैश्य वर्ण का होता है और उसका नाम क ककार से प्रारंभ होता है। नाम में तीन अक्षर होते हैं।

4. कर्क लग्न में वस्तु चोरी होने पर दक्षिण दिशा में मिलती है और चोरी करने वाला शूद्र होता है। उसका नाम त अक्षर से प्रारंभ होता है और नाम में तीन वर्ण होते हैं।

5. सिंह लग्न में चोरी हो तो वस्तु नैऋत्य कोण में होती है। चोरी करने वाला नौकर, सेवक होता है। चोर का नाम न से प्रारंभ होता है और नाम तीन या चार अक्षरों का होता है।

6. प्रश्नकाल या चोरी के समय कन्या लग्न हो तो चोरी गई वस्तु पश्चिम दिशा में होती है। चोरी करने वाली कोई स्त्री होती है और उसका नाम म से प्रारंभ होता है। नाम में कई वर्ण हो सकते हैं।

7. चोरी के समय तुला लग्न हो तो वस्तु पश्चिम दिशा में जानना चाहिए। चोरी करने वाला पुत्र, मित्र, भाई या अन्य कोई संबंधी होता है। इसका नाम म से प्रारंभ होता है और नाम में तीन वर्ण होते हैं। तुला लग्न में गई वस्तु बड़ी कठिनाई से प्राप्त होती है।

8. वृश्चिक लग्न में चोरी गई वस्तु पश्चिम दिशा में होती है। चोर घर का नौकर ही होता है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम चार अक्षरों वाला होता है। चोरी करने वाला उत्तम वर्ण का होता है।

9. प्रश्नकाल या चोरी के समय धनु लग्न हो तो चोरी गई वस्तु वायव्य कोण में होती है। चोरी करने वाली कोई स्त्री होती है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम में चार वर्ण पाए जाते हैं।

10. चोरी के समय मकर लग्न हो तो चोरी गई वस्तु उत्तर दिशा में समझनी चाहिए। चोरी करने वाला वैश्य जाति का होता है। नाम चार अक्षरों का होता है और वह स से प्रारंभ होता है।

11. प्रश्नकाल या चोरी के समय कुंभ लग्न हो तो चोरी गई वस्तु उत्तर या उत्तर-पश्चिम दिशा में होती है। इस प्रश्न लग्न के अनुसार चोरी करने वाला व्यक्ति कोई मनुष्य नहीं होता बल्कि चूहों या अन्य जानवरों के द्वारा इधर-उधर कर दी जाती है।

12. मीन लग्न में वस्तु चोरी हुई हो तो वस्तु ईशान कोण में होती है। चोरी करने वाला निम्न जाति का व्यक्ति होता है। वह व्यक्ति चोरी करके वस्तु को जमीन में छुपा देता है। ऐसे चोर का नाम व अक्षर से प्रारंभ होता है और उसके नाम में तीन अक्षर रहते हैं। चोर कोई परिचित महिला या नौकरानी भी हो सकती है।

होलाष्टक के चलते नहीं होंगे विवाह: 23 फरवरी से एक मार्च तक होलाष्टक के चलते विवाह नहीं होंगे। होली के दिन शाम से मुहूर्त प्रारंभ होंगे, जो 16 जुलाई तक रहेंगे।होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है।

शुक्लाष्टमी समारभ्य फाल्गुनस्य दिनाष्टकम् | पूर्णिमामवधिम कृत्वा त्याज्यम् बुद्धे: ||
शतरुद्रा विपाशायामैरावत्यां त्रिपुषकरै | होलाष्टकम् विवाहादौ तयजयमान्यत्र शोभनम् ||

लोक मान्यता के अनुसार कुछ तीर्थस्थान,
जैसे- शतरुद्रा विपाशा, इरावती एवं पुष्कर सरोवर के अलावा बाकी सब स्थानों पर होलाष्टक का अशुभ प्रभाव नहीं होता है,

इसलिए अन्य स्थानों में विवाह इत्यादि शुभ कार्य बिना परेशानी हो सकते हैं।
फिर भी शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार होलाष्टक की अवधि में शुभ कार्य वर्जित हैं।

माना जाता है इस दौरान शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है।

विपाशेरवतीतीरे शुतुद्र्वाश्च त्रिपुष्करे|
विवाहादीशुभे नेष्टं होलिकाप्रागादिनाष्टकम् ||

मुहूर्त चिंतामणि ||
इन दिनों गृह प्रवेश, मुंडन संस्कार, विवाह संबंधी वार्तालाप, सगाई, विवाह, किसी नए कार्य, नींव आदि रखने , नया व्यवसाय आरंभ करने या किसी भी मांगलिक कार्य आदि का आरंभ शुभ नहीं माना जाता।

होलाष्टक के शुरुआती दिन में ही होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी घास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है जिसमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है।

इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऎसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूट्कर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है

होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है |

इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है

शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता, अन्यथा अमंगल फल मिलते हैं,

क्योंकि होलिका दहन की परम्परा को सनातन धर्म को मानने वाले सभी लोग मानते हैं।

इसलिए होलाष्टक की अवधि में हिंदू संस्कृति के कुछ संस्कार और शुभ कार्यो की शुरुआत वर्जित है।

लेकिन किसी के जन्म और और मृत्यु के पश्चात किए जाने वाले कृत्यों की मनाही नहीं की गई है।

तभी तो कई स्थानों पर धुलंडी वाले दिन ही अन्नप्राशन संस्कार की परम्परा है।

अत: प्रसूतिका सूतक निवारण, जातकर्म, अंत्येष्टि आदि संस्कारों की मनाही नहीं की गई है।

देश के कई हिस्सों में होलाष्टक नहीं मानते। इस मान्यता के पीछे यह कारण है कि,

भगवान शिव की तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को शिव जी ने फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने पर संसार में शोक की लहर फैल गयी थी।

कामदेव की पत्नी रति द्वारा शिव से क्षमा याचना करने पर शिव जी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनायी।

होलाष्टक का अंत दुलहंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।

होलाष्टक के दौरान शुभ कार्य प्रतिबंधित रहने के पीछे धार्मिक मान्यता के अलावा ज्योतिषीय मान्यता भी है।

ज्योतिष के अनुसार अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध, चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए हुए रहते है

दूसरा कारण  हिरण्य कश्यप ने प्रह्लाद को नारायण भक्ति से विमुख करने के सभी उपाय निष्फल होने लगे तो उन्होंने प्रह्लाद को इसी तिथि फाल्गुन शुक्ल पक्ष अष्टमी को बंदी बना लिया और मृत्यु हेतु तरह-तरह की यातनाएं देने लगे, किन्तु प्रह्लाद विचलित नहीं हुए।

इस दिन से प्रतिदिन प्रह्लाद को मारने के अनेक उपाय किए जाने लगे, किन्तु भगवतभक्ति में लीन होने के कारण प्रह्लाद हमेशा जीवित बच जाते।

इसी प्रकार सात दिन बीत गए। आठवें दिन भाई हिरण्यकश्यप की परेशानी देखकर उनकी बहन होलिका,

जिसे ब्रह्मा द्वारा अग्नि से न जलने का वरदान था, उसने प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि में भस्म करने का प्रस्ताव रखा। हिरण्यकश्यप ने इसे स्वीकार कर लिया।

लेकिन जैसे ही होलिका भतीजे प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती आग में बैठी तो वह स्वयं जलने लगी और प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ।

तब से इन आठ दिनों को होलाष्टक के रूप में मनाया जाता है।

भक्त प्रह्लाद की भक्ति पर जिस जिस तिथि-वार को आघात होता था, उस दिन और तिथियों के स्वामी भी क्रोधातुर और उग्र हो जाते थे,

इसीलिए इन आठ दिनों में क्रमश: अष्टमी को चंद्रमा, नवमी को सूर्य, दशमी को शनि, एकादशी को शुक्र, द्वादशी को गुरु, त्रयोदशी को बुध एवं चतुर्दशी को मंगल तथा पूर्णिमा को राहु उग्र रूप लिए माने जाते हैं।

इस कारण इन दिनों गर्भाधान, विवाह, पुंसवन, नामकरण, चूड़ाकरन, विद्यारम्भ, गृहप्रवेश व निर्माणआदि सोलह संस्कारों और सकाम अनुष्ठान आदि अशुभ माने गए हैं।

Gurudev
Bhubneshwar
Kasturwa nagar  parnkuti guna
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Wednesday, 14 February 2018

हवन गैस hawan Gas से रोग के कीटाणु नष्ट होते है। जो नित्य हवन करते हैं उनके शरीर व आसपास में ऐसे रोग उत्पन्न ही नहीं होते जिनमें किसी भीतरी स्थान से पीव हो। यदि कहीं उत्पन्न हो गया हो तो वह मवाद हवन गैस से शीघ्र सुख जाता है और घाव अच्छा हो जाता है।

आयुर्वेद के विभिन्न ग्रंथों के प्रयोग से जो अग्नि में औषधी डालकर धूनी से ठीक होते है वह भी यज्ञ चिकित्सा का रूप है।

नीम के पत्ते, वच, कूठ, हरण, सफ़ेद सरसों, गूगल के चूर्ण को घी में मिलाकर धूप दें इससे विषमज्वर नष्ट हो जाता है।

नीम के पत्ते, वच, हिंग, सैंधानमक, सरसों, समभाग घी में मिलाकर धूप दें उससे व्रण के कर्मी खाज पीव नष्ट होते है।

मकोय के एक फल को घृत लगाकर आग पर डालें उसकी धूनी से आँख से कर्मी निकलकर रोग नष्ट हो जाते है।

वैदिक यज्ञ चिकित्सा>>>>>>>>>

अगर, कपूर, लोवान, तगर, सुगन्धवाला, चन्दन, राल इनकी धूप देने से दाह शांत होती है।

अर्जुन के फूल बायविडंग, कलियारी की जड़, भिलावा, खस, धूप सरल, राल, चन्दन, कूठ समान मात्रा में बारीक़ कुटें इसके धूम से कर्मी नष्ट होते है।

खटमल तथा सिर के जुएं भी नष्ट हो जाते है

सहजने के पत्तों के रस को ताम्र पात्र में डालकर तांबे की मूसली से घोंटें घी मिलाकर धूप दें।

इससे आँखों की पीड़ा अश्रुस्राव आंखो का किरकिराहट व शोथ दूर होता है।

असगन्ध निर्गुन्डी बड़ी कटेरी, पीपल के धूम से अर्श (बवासीर) की पीड़ा शांत होती है।

महामारी प्लेग Pleg में भी यज्ञ से आरोग्य लाभ होता है।

हवन गैस hawan Gas से रोग के कीटाणु नष्ट होते है।
जो नित्य हवन करते हैं उनके शरीर व आसपास में ऐसे रोग उत्पन्न ही नहीं होते जिनमें किसी भीतरी स्थान से पीव हो।
यदि कहीं उत्पन्न हो गया हो तो वह मवाद हवन गैस से शीघ्र सुख जाता है और घाव अच्छा हो जाता है।
हवन hawan में शक्कर जलने से हे फीवर नहीं होता।
हवन hawan में मुनक्का जलने से टाइफाइड फीवर के कीटाणु नष्ट हो जाते है।
पुष्टिकारक वस्तुएं जलने से मिष्ठ के अणु वायु में फ़ैल कर अनेक रोगों को दूर कर पुष्टि भी प्रदान करते है।
यज्ञ सौरभ महौषधि है। यज्ञ में बैठने से ह्रदय रोगी को लाभ मिलता है।
गिलोय के प्रयोग से हवन करने से कैंसर के रोगी को लाभ होने के उदहारण भी मिलते है।
गूगल के गन्ध से मनुष्य को आक्रोश नहीं घेरता और रोग पीड़ित नहीं करते ।
गूगल, गिलोय, तुलसी के पत्ते, अतीस, जायफल, चिरायते के फल सामग्री में मिलाकर यज्ञ करने से मलेरिया ज्वर दूर होता है।
गूगल, पुराना गुड, केशर, कपूर, शीतलचीनी, बड़ी इलायची, सौंठ, पीपल, शालपर्णी पृष्ठपर्णी मिलाकर यज्ञ करने से संग्रहणी दूर होती है।
चर्म रोगों में सामग्री में चिरायता गूगल कपूर, सोमलता, रेणुका, भारंगी के बीज, कौंच के बीज, जटामांसी, सुगंध कोकिला, हाउवेर, नागरमौथा, लौंग डालने से लाभ होता है।
जलती हुई खांड के धुंए में वायु शुद्ध करने की बड़ी शक्ति होती है।
इससे हैजा, क्षय, चेचक आदि के विष शीघ्र नष्ट हो जाते है।
डा. हैफकिन फ़्रांस के मतानुसार घी जलने से चेचक के कीटाणु मर जाते है।
घी और केशर के हवन से इस महामारी का नाश हो सकता है।
शंख वृक्षों के पुष्पों से हवन करने पर कुष्ठ रोग दूर हो जाते है।
अपामार्ग के बीजों से हवन करने पर अपस्मार (मिर्गी) रोग दूर होते है।
ज्वर दूर करने के लिए आम के पत्ते से हवन करें।
वृष्टि लाने के लिए वेंत की समिधाओं और उसके पत्रों से हवन करें।
वृष्टि रोकने के लिए दूध और लवण से हवन करें।
ऋतू परिवर्तन पर होने वाली बहुत सि बीमारियां सर्दी जुकाम मलेरिया चेचक आदि रोगों को यज्ञ से ठीक किया जा सकता है।
एक नज़र कुछ रोगों और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री पर

1. सर के रोग:- सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी  आदि के लिए

ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली  सरसो

2. स्त्री रोगों, वात  पित्त, लम्बे समय से आ रहे  बुखार  हेतु

बेल, श्योनक,  अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम

3. पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु

सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने,  गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र ,  लौंग , बड़ी इलायची , गोला

4. पेट एवं लिवर  रोग हेतु

भृंगराज , आमला , बेल ,  हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची

5. श्वास  रोगों हेतु

वन तुलसी, गिलोय, हरड  , खैर  अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस

6. कैंसर नाशक हवन:-

गुलर के फूल, अशोक की छाल, अर्जन की छाल, लोध, माजूफल, दारुहल्दी, हल्दी, खोपारा, तिल, जो , चिकनी सुपारी, शतावर , काकजंघा, मोचरस, खस, म्न्जीष्ठ, अनारदाना, सफेद चन्दन, लाल चन्दन, ,गंधा विरोजा, नारवी ,जामुन के पत्ते, धाय के पत्ते, सब को सामान मात्रा में लेकर चूर्ण करें तथा इस में दस गुना शक्कर व एक गुना केसर से हवन करें |

7. संधि गत ज्वर ( जोड़ों का दर्द ) :-

संभालू ( निर्गुन्डी ) के पत्ते , गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, गुग्गल, सफ़ेद सरसों, नीम के पत्ते, रल आदि का संभाग लेकर चूरन करें , घी मिश्रित धुनी दें, हवन करें।

8. निमोनियां नाशक हवन :-

पोहकर मूल, वाच, लोभान, गुग्गल, अधुसा, सब को संभाग ले चूरन कर घी सहित हवं करें व धुनी दें |

9. जुकाम नाशक :-

खुरासानी अजवायन, जटामासी , पश्मीना कागज, लाला बुरा ,सब को संभाग ले घी सचूर्ण कर हित हवं करें व धुनी दें |

10. पीनस ( बिगाड़ा हुआ जुकाम ) :-

बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, नीम के पत्ते, वा|य्वडिंग,सहजने की छाल , सब को समभाग ले चूरन कर इस में धूप का चूरा मिलाकर हवन करें व धूनी दें।

11. श्वास – कास नाशक :-

बरगद के पत्ते, तुलसी के पत्ते, वच, पोहकर मूल, अडूसा – पत्र, सब का संभाग कर्ण लेकर घी सहित हवं कर धुनी दें |

12. सर दर्द नाशक :-

काले तिल और वाय्वडिंग चूरन संभाग ले कर घी सहित हवं करने से व धुनी देने से लाभ होगा |

13. चेचक नाशक –
खसरा गुग्गल, लोभान, नीम के पत्ते, गंधक , कपूर, काले तिल, वाय्वासिंग , सब का संभाग चूरन लेकर घी सहित हवं करें व धुनी दें।

14. जिह्वा तालू रोग नाशक:-

मुलहठी, देवदारु, गंधा विरोजा, राल, गुग्गल, पीपल, कुलंजन, कपूर और लोभान सब को संभाग ले घी सहित हवं करीं व धुनी दें |

15. टायफायड :-

यह एक मौसमी व भयानक रोग होता है | इस रोग के कारण इससे यथा समय उपचार न होने से रोगी अत्यंत कमजोर हो जाता है तथा समय पर निदान न होने से मृत्यु भी हो सकती है |  यदि ऐसे रोगी के पास नीम , चिरायता , पितपापडा , त्रिफला , आदि जड़ी बूटियों को समभाग लेकर इन से हवन किया जावे तथा इन का धुआं रोगी को दिया जावे तो लाभ होगा |

16. ज्वर :-

ज्वर भी व्यक्ति को अति परेशान करता है किन्तु जो व्यक्ति प्रतिदिन यग्य करता है , उसे ज्वर नहीं होता | ज्वर आने की अवास्था में अजवायन से यज्ञ करें तथा इस की धुनी रोगी को दें | लाभ होगा |

17. नजला :-

लगातार बना रहने वाला सिरदर्द जुकाम यह मानव को अत्यंत परेशान करता है | इससे श्रवण शक्ति , आँख की शक्ति कमजोर हो जाते हैं तथा सर के बाल सफ़ेद होने लगते हैं | लम्बे समय तक यह रोग रहने पर इससे दमा आदि भयानक रोग भी हो सकते हैं | इन के निदान के लिए मुनका से हवन करें तथा इस की धुनी रोगी को देने से लाभ होता है |

18. नेत्र ज्योति :-

नेत्र ज्योति बढ़ाने का भी हवन एक उत्तम साधन है | इस के लिए हवन में शहद की आहुति देना लाभकारी है | शहद का धुआं आँखों की रौशनी को बढ़ता है।

19. मस्तिष्क बल :-

मस्तिष्क की कमजोरी मनुष्य को भ्रांत बना देती है | इसे दूर करने के लिए शहद तथा सफ़ेद चन्दन से धूनी देना उपयोगी होता है |

20. वातरोग :-

वातरोग में जकड़ा व्यक्ति जीवन से निराश हो जाता है | इस रोग से बचने के लिए यज्ञ सामग्री में पिप्पली ,शिरीष छाल तथा हरड़ का उपयोग करना चाहिए | इस के धुएं से रोगी को लाभ मिलता है |

21. मनोविकार :-

मनोरोग से रोगी जीवित ही मृतक समान हो जाता है | इस के निदान के लिए गुग्गल तथा अपामार्ग का उपयोग करना चाहिए | इस का धुआं रोगी को लाभ देता है |

22. मधुमेह :

यह रोग भी रोगी को अशक्त करता है | इस रोग से छुटकारा पाने के लिए हवन में गुग्गल, लोबान , जामुन वृक्ष की छाल, करेला का द्न्थल, सब संभाग मिला आहुति दें व् इस की धुनी से रोग में लाभ होता है |

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