Saturday, 20 January 2018

साल 2018 में पाँच ग्रहण घटित होंगे जिनमें 3 सूर्य ग्रहण और 2 चंद्र ग्रहण हैं।

साल 2018 में पाँच ग्रहण घटित होंगे
जिनमें 3 सूर्य ग्रहण और 2 चंद्र ग्रहण हैं।

इस साल होने वाले दोनों चंद्र ग्रहण पूर्ण होंगे जिनकी दृश्यता भारत सहित विश्व के अन्य देशों में होगी।
वहीं तीनों सूर्य ग्रहण आंशिक होंगे जो भारत में नहीं दिखाई देंगे,
हालाँकि विश्व के अन्य देशों में इन्हें देखा जा सकेगा।
साल का पहला चंद्र ग्रहण 31 जनवरी 2018 में होगा
जिसका सूतक काल का समय प्रता 8:21मिनिट से प्रारंभ होगा
ग्रहण स्पर्श काल :शाम  5:21मिनिट पर होगा
ग्रहण का मध्य काल  शाम 7:03 से 8:45 मिनिट पर मोक्ष
पर्वकाल अवधि  :3घंटे 24 मिनिट होगा
पर्वकाल समय :शाम 5 :21मिनिट से रात्रि 8:45मिनिट तक
किन किन राशियों को हानिकारक
मेष
सिंह
कर्क
धनु
किन किन राशियों को अशुभ
बृषभ
कन्या
तुला
कुम्भ
किन किन राशियों को सामान्य
मिठुन
बृश्चिक
मकर

मीन

////////////////////////////////////////////////////////////

जबकि दूसरा चंद्र ग्रहण 27-28 जुलाई 2018 में घटित होगा।

चंद्र ग्रहण 2018 भारत में दिखाई देने के कारण यहाँ पर ग्रहण का सूतक काल मान्य होगा।

वहीं 2018 में पहला सूर्य ग्रहण 16 फरवरी 2018 में होगा

और दूसरा 13 जुलाई 2018 को दिखाई देगा।

जबकि तीसरा और अंतिम सूर्य ग्रहण 11 अगस्त 2018 में दृश्य होगा।

भारत में सूर्य ग्रहण के नहीं दिखाई देने के कारण यहाँ ग्रहण का सूतक काल शून्य रहेगा।

ग्रहण खगोलीय विज्ञान एवं ज्योतिश शास्त्र के लिए एक महत्वपूर्ण घटना होती है इसलिए ग्रहण पर वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय समाज अपनी दृष्टि जमाए रहता है।

इसका प्रभाव आम लोगों के जीवन पर भी पड़ता है। ग्रहण के दौरान कई कार्यों को वर्जित माना गया है

इसलिए ग्रहण के बारे में हमें विस्तार से जानना आवश्यक है।

2018 में सूर्य ग्रहण वर्ष 2018 में 3 सूर्य ग्रहण घटित होंगे,

हालांकि ये तीनों ग्रहण भारत में दिखाई नहीं देंगे।

इसलिए भारत में इनका धार्मिक सूतक मान्य नहीं होगा।

:1. ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्‍याग करना,
सोना, केश विन्‍यास करना, रति क्रीडा करना, मंजन करना, वस्‍त्र नीचोड़्ना,
ताला खोलना, वर्जित किए गये हैं ।

2. ग्रहण के समय सोने से रोग पकड़ता है, लघुशंका करने से घर में दरिद्रता आती
है, मल त्यागने से पेट में कृमि रोग पकड़ता है, स्त्री प्रसंग करने से सूअर की
योनि मिलती है और मालिश या उबटन किया तो व्यक्ति कुष्‍ठ रोगी होता है।

क्या नही करना चाहिए

3. देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला
मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास
करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और
दंतहीन होता है।

4. सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण में तीन प्रहर
पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए (1 प्रहर = 3 घंटे) । बूढ़े, बालक और रोगी एकप्रहर पूर्व खा सकते हैं ।

5. ग्रहण के दिन पत्‍ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए

6. 'स्कंद पुराण' के अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षो
का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है ।

7. ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।

मंत्र सिद्धि करे

चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण के समय संयम रखकर जप-ध्यान करने से कई गुना फल होता है।

श्रेष्ठ साधक उस समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके 'ॐ नमो नारायणाय' मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहणशुद्ध होने पर उस घृत को पी ले।

ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त कर लेता है।

देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास करता है।
फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है
फिर गुल्मरोगी, काना और दंतहीन होता है।
अतः सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर (12 घंटे) पूर्व और चन्द्र ग्रहण में तीन प्रहर ( 9 घंटे) पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए।
बूढ़े, बालकक और रोगी डेढ़ प्रहर (साढ़े चार घंटे) पूर्व तक खा सकते हैं।
ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब देखकर भोजन करना चाहिए।
ग्रहण वेध के पहले जिन पदार्थों में कुश या तुलसी की पत्तियाँ डाल दी जाती हैं, वे पदार्थ दूषित नहीं होते।

जबकि पके हुए अन्न का त्याग करके उसे गाय, कुत्ते को डालकर नया भोजन बनाना चाहिए।

ग्रहण के स्पर्श के समय स्नान, मध्य के समय होम, देव-पूजन और श्राद्ध तथा अंत में सचैल(वस्त्रसहित) स्नान करना चाहिए।
स्त्रियाँ सिर धोये बिना भी स्नान कर सकती हैं।
ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।

ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्न, जररूतमंदों को वस्त्र और उनकी आवश्यक वस्तु दान करने से अनेक गुना पुण्य प्राप्त होता है।

ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।

ग्रहण के समय सोने से रोगी, लघुशंका करने से दरिद्र, मल त्यागने से कीड़ा, स्त्री प्रसंग करने से सूअर और उबटन लगाने से व्यक्ति कोढ़ी होता है।

गर्भवती महिला को ग्रहण के समय विशेष सावधान रहना चाहिए।
भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- सामान्य दिन से चन्द्रग्रहण में किया गया पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना
और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना फलदायी होता है। यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस करोड़ गुना फलदायी होता है।
ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें, न करने से मंत्र को मलिनता प्राप्त होती

0
ग्रहणकाल के समय कई कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाया गया है जिसमें से एक है गर्भवती स्त्रियों द्वारा चन्द्र ग्रहण को देखना|
उन्होंने बताया है कि जिस वक्त चन्द्र ग्रहण पड़ रहा हो उस समय गर्भवती स्त्रियों को घर के बाहर नहीं निकलना चाहिए
क्योंकि ग्रहण के समय जो किरणें चन्द्रमा से निकलती है वह गर्भवती स्त्रियों और गर्भ में पल रहे शिशु के लिए बहुत अधिक खतरनाक साबित हो सकती हैं।

यह भी बताते हैं कि चन्द्र ग्रहण के समय वातावरण में नकारात्मक ऊर्जा सक्रिय रहती है जो कि कमजोर लोगों पर बुरा प्रभाव डालती है।
गर्भावस्था के दौरान स्त्री का शरीर बहुत कमजोर हो जाता है।
ऐसे में इन बुरे प्रभावों से बचने के लिए स्त्रियों का घर में ही रहना जरूरी है।

0
सामान्यत: ऐसी मान्यता है कि ग्रहण के समय किसी भी गर्भवती महिला को अकेले घर से बाहर नहीं निकलना चाहिए।
पुराने समय में इस बात का सख्ती से पालन कराया जाता था और ग्रहण के समय खासतौर पर महिलाओं को घर से बाहर निकलने से मना किया जाता था।

ग्रहण के समय नकारात्मक शक्तियां अधिक सक्रिय रहती हैं जो कि गर्भवती स्त्री को बहुत ही जल्द अपने प्रभाव में ले लेती हैं।
जिससे गर्भ में पल रहे शिशु पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
यहां नकारात्मक शक्ति से अभिप्राय है कि आसुरी प्रवृत्तियां।
ग्रहण के समय में बुरी शक्तियां अपने पूरे बल में होती हैं।
यह शक्तियां को लड़कियां से बहुत ही जल्द प्रभावित होती हैं।
जिससे वे उन्हें अपने प्रभाव में लेने की कोशिश करती हैं।
इन शक्तियों के प्रभाव में आने के बाद गर्भवती स्त्री का मानसिक स्तर व्यवस्थित नहीं रह पाता और उनके पागल होने का खतरा बढ़ जाता है।
विज्ञान के अनुसार चंद्र ग्रहण के दौरान चंद्र न दिखाई देने के कारण हमारे शरीर पर भी प्रभाव पड़ता है।
हमारे शरीर में 70 प्रतिशत पानी है जिसे चंद्रमा सीधे-सीधे प्रभावित करता है।

ज्योतिष में चंद्र को मन का देवता माना गया है। ग्रहण के समय चंद्र दिखाई नहीं ऐसे में जो लोग अति भावुक होते हैं उन पर इस बात का सर्वाधिक प्रभाव पड़ता है। गर्भवती स्त्रियां उस समय में बेहद संवेदनशील और कोमल हो जाती हैं।
छोटी-छोटी बातों का भी उन पर गहरा प्रभाव पड़ता है। जब चंद्र नहीं दिखाई देता तो ऐसे में हमारे शरीर के पानी में हलचल अधिक बढ़ जाती है।
जो व्यक्ति नकारात्मक सोच वाला होता है उसे नकारात्मक शक्ति अपने प्रभाव में ले लेती है।
इन्हीं कारणों से ग्रहण काल में गर्भवती स्त्रियों को अकेले बाहर जाने के लिए मना किया जाता था।
चंद्रमा हमारे शरीर के जल को किस प्रकार प्रभावित करता है इस बात का प्रमाण है समुद्र का ज्वारभाटा।
पूर्णिमा और अमावस के दिन ही समुद्र में सबसे अधिक हलचल दिखाई देती है क्योंकि चंद्रमा पानी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

0
गर्भवती स्त्री को सूर्य – चन्‍द्रग्रहण नहीं देखना चाहिए, क्‍योकि उसके
दुष्‍प्रभाव से शिशु अंगहीन होकर विकलांग बन जाता है । गर्भपात की संभावनाबढ़ जाती है ।
इसके लिए गर्भवती के उदर भाग में गोबर और तुलसी का लेप लगा
दिया जाता है, जिससे कि राहू केतू उसका स्पर्श न करें।

ग्रहण के दौरान गर्भवती स्त्री को कुछ भी कैंची, चाकू आदि से काटने को मना कियाजाता है,
और किसी वस्‍त्र आदि को सिलने से मना किया जाता है ।
क्‍योंकि ऐसी मान्‍यता है कि ऐसा करने से शिशु के अंग या तो कट जाते हैं या फिर सिल
(जुड़) जाते हैं ।

1. ग्रहण के समय “ ॐ ह्रीं नमः” मंत्र का 10 माला जप करें इससे ये मंत्र्
सिध्‍द हो जाता है ।
फिर अगर किसी का स्‍वभाव बिगड़ा हुआ है, बात नहीं मान रहा है, इत्‍यादि । 
तो उसके लिए हम
संकल्‍प करके इस मंत्र् का उपयोग कर सकते हैं ।

2. ग्रहण के समय उपवासपूर्वक ब्राह्मी घृत का स्पर्श करके 'ॐ नमो
नारायणाय' मंत्र का आठ हजार जप करने के पश्चात ग्रहण शुद्ध होने पर उस घृत को
पी ले। ऐसा करने से वह मेधा (धारणाशक्ति), कवित्वशक्ति तथा वाकसिद्धि प्राप्त
कर लेता है।

1. ग्रहण की अवधि में तेल लगाना, भोजन करना, जल पीना, मल-मूत्र त्‍याग करना,
सोना, केश विन्‍यास करना, रति क्रीडा करना, मंजन करना, वस्‍त्र नीचोड़्ना,
ताला खोलना, वर्जित किए गये हैं ।

2. ग्रहण के समय सोने से रोग पकड़ता है, लघुशंका करने से घर में दरिद्रता आती
है, मल त्यागने से पेट में कृमि रोग पकड़ता है, स्त्री प्रसंग करने से सूअर की
योनि मिलती है और मालिश या उबटन किया तो व्यक्ति कुष्‍ठ रोगी होता है।

3. देवी भागवत में आता हैः सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के समय भोजन करने वाला
मनुष्य जितने अन्न के दाने खाता है, उतने वर्षों तक अरुतुन्द नामक नरक में वास
करता है। फिर वह उदर रोग से पीड़ित मनुष्य होता है फिर गुल्मरोगी, काना और
दंतहीन होता है।

4. सूर्यग्रहण में ग्रहण से चार प्रहर पूर्व और चंद्रग्रहण में तीन प्रहर
पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए (1 प्रहर = 3 घंटे) । बूढ़े, बालक और रोगी एक
प्रहर पूर्व खा सकते हैं ।

5. ग्रहण के दिन पत्‍ते, तिनके, लकड़ी और फूल नहीं तोड़ना चाहिए

6. 'स्कंद पुराण' के अनुसार ग्रहण के अवसर पर दूसरे का अन्न खाने से बारह वर्षो
का एकत्र किया हुआ सब पुण्य नष्ट हो जाता है ।

7. ग्रहण के समय कोई भी शुभ या नया कार्य शुरू नहीं करना चाहिए।

0
1. ग्रहण लगने से पूर्व स्‍नान करके भगवान का पूजन, यज्ञ, जप करना चाहिए ।

2. भगवान वेदव्यास जी ने परम हितकारी वचन कहे हैं- चन्द्रग्रहण में किया गया
पुण्यकर्म (जप, ध्यान, दान आदि) एक लाख गुना और सूर्य ग्रहण में दस लाख गुना
फलदायी होता है।

यदि गंगा जल पास में हो तो चन्द्रग्रहण में एक करोड़ गुना और सूर्यग्रहण में दस
करोड़ गुना फलदायी होता है।

3. ग्रहण के समय गुरुमंत्र, इष्टमंत्र अथवा भगवन्नाम जप अवश्य करें, न करने से
मंत्र को मलिनता प्राप्त होती है।

4. ग्रहण समाप्‍त हो जाने पर स्‍नान करके ब्राम्‍हण को दान करने का विधान है

5. ग्रहण के बाद पुराना पानी, अन्‍न नष्‍ट कर नया भोजन पकाया जाता है, और ताजा
भरकर पीया जाता है।

6. ग्रहण पूरा होने पर सूर्य या चन्द्र, जिसका ग्रहण हो, उसका शुद्ध बिम्ब
देखकर भोजन करना चाहिए।

7. ग्रहणकाल में स्पर्श किये हुए वस्त्र आदि की शुद्धि हेतु बाद में उसे धो
देना चाहिए तथा स्वयं भी वस्त्रसहित स्नान करना चाहिए।

8. ग्रहण के समय गायों को घास, पक्षियों को अन्‍न, जरूरत मंदों को वस्‍त्र् दान
देने से अनेक गुना पुण्‍य प्राप्‍त होता है।

Thursday, 18 January 2018

आली सांवरे की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है।। लागत बेहाल भ तनकी सुध बुध ग तन मन सब व्यापो प्रेम मानो मतवारी है।। सखियां मिल दोय चारी बावरी सी भ न्यारी हौं तो वाको नीके जानौं कुंजको बिहारी।। चंदको चकोर चाहे दीपक पतंग दाहै जल बिना मीन जैसे तैसे प्रीत प्यारी है।। बिनती करूं हे स्याम लागूं मैं तुम्हारे पांव मीरा प्रभु ऐसी जानो दासी तुम्हारी है।।६।।

आली सांवरे की दृष्टि मानो प्रेम की कटारी है।।
लागत बेहाल भ तनकी सुध बुध ग तन मन सब व्यापो प्रेम मानो मतवारी है।।
सखियां मिल दोय चारी बावरी सी भ न्यारी हौं तो वाको नीके जानौं कुंजको बिहारी।।
चंदको चकोर चाहे दीपक पतंग दाहै जल बिना मीन जैसे तैसे प्रीत प्यारी है।।
बिनती करूं हे स्याम लागूं मैं तुम्हारे पांव मीरा प्रभु ऐसी जानो दासी तुम्हारी है।।६।।

यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए.)

~ परमपिता नारायण ने सृष्टि उत्पति के उद्देश्य से ब्रह्मा जी को उत्पन्न किया. ब्रह्मा से अत्रि का प्रादुर्भाव हुआ. , अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से ययाति, ययाति से यदु उत्पन्न हुए. यदु से यादव वंश चला. यदु की कई पीढ़ियों के बाद यदुकुल शिरोमणि भगवान श्री कृष्ण मानव रूप में अवतरित हुए.) ▼ 8. यदु यदु यदुवंश के संस्थापक यदु, महाराजा ययाति के पुत्र थे। उनका जन्म देवयानी के गर्भ से हुआ। यदु के वन्शज यादव कहलाए। महाराज ययाति के दो रानियाँ थी एक का नाम था देवयानी और दूसरी का शर्मिष्ठा । देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र तथा शर्मिष्टा के गर्भ से दुह्यु,अनु और पुरू नामक तीन पुत्र हुए। ययाति के पुत्रो से जो वंशज चले वे इस प्रकार है;- १. यदु से यादव, २. तुर्वसु से यवन, ३. दुह्यु से भोज, ४. अनु से म्लेक्ष, ५. पुरु से पौरव। यदु के नाना शुक्राचार्य ने उनके पिता ययाति को श्राप दे दिया था, जिससे वे असमय (भरी जवानी में) वृद्ध हो गए । राजा अपने बुढ़ापे से बहुत दुखी था। यदि कोई उन्हें अपनी जवानी देकर उनका बुढ़ापा ले लेता तो वे पुनः जवान हो सकते थे । राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को जवानी देकर बुढ़ापा लेने को कहा। किन्तु यदु ने इंकार कर दिया। तब उन्होंने दुसरे पुत्र तुर्वसु को कहा तो उसने भी इंकार कर दिया। इसी प्रकार महाराज के तीसरे और चौथे पुत्र ने भी इंकार कर दिया। तब राजा ने अपने कनिष्ठ पुत्र पुरु से पुछा तो वह सहर्ष जवानी के बदले बुढ़ापा लेने को सहमत हो गया। पुरु की जवानी प्राप्त कर ययाति पुनः तरुण हो गए। तरुणावस्था मिल जाने से वे बहुत काल तक यथावत विषयों को भोग करते रहे। उस समय की परम्परा के अनुसार ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण पिता के सन्यास लेने के बाद सिंहासन का असली हकदार यदु था। किन्तु यदु द्वारा अपनी जवानी न दिये जाने के कारण महाराजा ययाति उससे रुष्ट हो गये थे । इसलिये यदु को राज्य नही दिया। वे अपने छोटे बेटे पुरू को बहुत चाहते थे और उसी को राज्य देना चाहते थे। राजा के सभासदो ने जयेष्ठ पुत्र के रहते इस कार्य का विरोध किया। किन्तु यदु ने अपने छोटे भाई का समर्थन किया और स्वयम राज्य लेने से इन्कार कर दिया और । इस प्रकार ययाति ने अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को प्रतिष्ठान की मुख्य शाखा का शासक बनाया। अन्य पुत्रों को दूर-दराज के छोटे छोटे प्रदेश सौंप दिये। यदु को दक्षिण दिशा में चर्मणवती वर्तमान चम्बल क्षेत्र , वेववती (वेतवा) और शुक्तिमती (केन) का तटवर्ती प्रदेश मिला। वह अपने सब भाइयो मे श्रेष्ठ एवं तेजस्वी निकला। यदु का विवाह धौमवर्ण की पाँच कन्यायों के साथ हुआ था। श्रीमद भागवत महापुराण के अनुसार यदु के चार देवोपम पुत्र हुए जिनके नाम -सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु थे। इनमे से सहस्त्रजित और क्रोष्टा के वंशज पराक्रमी हुए तथा इस धरा पर ख्याति प्राप्त किया। यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्त्रजित के एक पौत्र का नाम था हैहय। हैहय के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाए। हैहय के हजारों पुत्र थे। उनमे से केवल पाँच ही जीवित बचे थे बाकी सब युद्ध करते हुए परशुराम के हाथों मारे गए।बचे हुए पुत्रों के नाम थे-जयध्वज, शूरसेन,वृषभ, मधु और ऊर्जित। जयध्वज के तालजंघ नामक एक पुत्र था। तालजंघ के वंशज तालजंघ क्षत्रिय कहलाये। तालजंघ के भी सौ पुत्र थे उनमें से अधिकांश को राजा सगर ने मार डाला था। तालजंघ के जीवित बचे पुत्रों में एक का नाम था वीतिहोत्र । वीतिहोत्र के मधु नामक एक पुत्र हुआ। मधु के वंशज माधव कहलाये। मधु के कई पुत्र थे। उनमें से एक का नाम था वृष्णि । वृष्णि के वंशज वाष्र्णेव कहलाये। हैहय वंश का विस्तृत परिचय इस ब्लाग की पृष्ठ संख्या 9 पर उल्लिखित है। यदु के दुसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के बाद उसकी बारहवीं पीढी में 'विदर्भ' नामक एक राजा हुए। विदर्भ के कश, क्रथ और रोमपाद नामक तीन पुत्र थे। विदर्भ के तीसरे वंशधर रोमपाद के पुत्र का नाम था बभ्रु। बभ्रु के कृति, कृति के उशिक और उशिक के चेदि नामक पुत्र हुआ।चेदि के नाम पर चेदिवंश का प्रादुर्भाव हुआ। इसी चेदिवंश में शिशुपाल आदि उत्पन्न हुए। विदर्भ के दुसरे पुत्र क्रथ के कुल में आगे चल सात्वत नामक एक प्रतापी राजा हुए। उनके नाम पर यादवों को कई जगह सात्वत वंशी भी कहा गया है। सात्वत के सात पुत्र थे। उनके नाम थे -भजमान, भजि, दिव्य, वृष्णि, देववृक्ष, महाभोज और अन्धक। इनसे अलग अलग सात कुल चले। उनमें से वृष्णि और अन्धक कुल के वंशज अन्य की अपेक्षा अधिक विख्यात हुए। वृष्णि के नाम पर वृष्णिवंश चला। इस वंश में लोक रक्षक भगवान श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया और इस धरा पर सर्वाधिक विख्यात हुआ। श्रीकृष्ण की माता देवकी का जन्म अन्धक वंश में हुआ था। इस कारण अन्धक वंश ने भी बहुत ख्याति प्राप्त की। अन्धक के वंशज अन्धकवंशी यादव कहलाये। अन्धक के कुकुर, भजमन, शुचि और कम्बलबर्हि नामक चार लड़के थे। इनमें से कुकुर के वंशज बहुत प्रसिद्द हुए। कुकुर के पुत्र का नाम था वह्नि । वह्नि के विलोमा, विलोमा के कपोतरोमा और कपोतरोमा के अनु नामक पुत्र हुआ । अनु के पुत्र का नाम था अन्धक। अन्धक के पुत्र का नाम दुन्दुभि और दुन्दुभि के पुत्र का नाम था अरिद्योत। अरिद्योत के पुनर्वसु नाम का एक पुत्र हुआ । पुनर्वसु के दो संतानें थी- पहला आहुक नाम का पुत्र और दूसरा आहुकी नाम की कन्या। आहुक के देवक और उग्रसेन नामक दो पुत्र हुए। देवक के देववान, उपदेव, सुदेव, देववर्धन नामक चार पुत्र तथा धृत, देवा, शांतिदेवा, उपदेवा, श्रीदेवा, देवरक्षिता, सहदेवा और देवकी नामक चार कन्यायें थीं। आहुक के छोटे बेटे उग्रसेन के कंस, सुनामा, न्यग्रोध, कंक, शंकु, सुहू, राष्ट्रपाल, सृष्टि और तुष्टिमान नामक नौ पुत्र और कन्सा, कंसवती, कंका, शुरभु और राष्ट्र्पालिका नामक पाँच कन्यायें। सात्वत के पुत्रो से जो वंश परंपरा चली उनमें सर्वाधिक विख्यात वंश का नाम है वृष्णि-वंश। इसमें सर्वव्यापी भगवान श्री कृष्ण ने अवतार लिया था जिससे यह वंश परम पवित्र हो गया। वृष्णि के दो रानियाँ थी -एक नाम था गांधारी और दूसरी का माद्री। माद्री के एक देवमीढुष नामक एक पुत्र हुआ। देवमीढुष के भी मदिषा और वैश्यवर्णा नाम की दो रानियाँ थी। देवमीढुष की बड़ी रानी मदिषा के गर्भ दस पुत्र हुए, उनके नाम थे -वसुदेव, देवभाग, देवश्रवा, आनक, सुजग्य, श्यामक, कंक, शमीक, वत्सक और वृक। उनमें वसुदेव जी सबसे बड़े थे। वसुदेव के जन्म के समय देवताओं ने प्रसन्न होकर आकाश से पुष्प की वर्षा की थी और आनक तथा दुन्दुभी का वादन किया था। इस कारण वसुदेव जी को आनकदुन्दु भी कहा जाता है। श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से, देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं। उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थी। उन सबका विवाह वसुदेव जी से हुआ था। देवक की छोटी कन्या देवकी के विवाहोपरांत उसका चचेरा भाई कंस जब रथ में बैठा कर उन्हें घर छोड़ने जा रहा था तो मार्ग में उसे आकाशवाणी से यह शब्द सुनाई पडे -"हे कंस! तू जिसे इतने प्यार से ससुराल पहुँचाने जा रहा है उसी के आठवे पुत्र के हाथों तेरी मृत्यु होगी।" देववाणी सुनकर कंस अत्यंत भयभीत हो गया और वसुदेव तथा देवकी को कारागार में बंद कर दिया। महायशस्वी भगवान श्रीकृष्ण का जन्म इसी कारागार में हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण ने देवकी के गर्भ से अवतार लिया और वसुदेव जी को भगवान श्रीकृष्ण के पिता होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। वसुदेव के एक पुत्र का नाम बलराम था। बलराम जी श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। उनका जन्म वसुदेव की एक अन्य पत्नी रोहिणी के गर्भ से हुआ था। रोहिणी गोकुल में वसुदेव के चचेरे भाई नन्द के यहाँ गुप्त रूप से रह रही थी। श्रीकृष्ण और बलराम की विस्तृत जीवन गाथा इस ब्लाग के पृष्ठ संख्या 10 पर वर्णित है। देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ। पर्जन्य के नन्द सहित नौ पुत्र हुए उनके नाम थे - धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद, अभिनंद, .सुनंद, कर्मानन्द , धर्मानंद , नन्द और वल्लभ । नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। नन्द और उनकी पत्नी यशोदा ने गोकुल में भगवान श्रीकृष्ण का पालन -पोषण किया। इस कारण वह आज भी परम यशस्वी और श्रद्धेय हैं। वृष्णिवंश की इस वंशावली से ज्ञात होता है कि वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों चचेरे भाई थे। यदवो ने कालान्तर मे अपने केन्द्र दशार्न, अवान्ति, विदर्भ् एवं महिष्मती मे स्थापित कर लिए। बाद मे मथुरा और द्वारिका यदवो की शक्ति के महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली केन्द्र बने। इसके अतिरिक्त शाल्व मे भी यादवो की शाखा स्थापित हो गई। मथुरा महाराजा उग्रसेन के अधीन था और द्वारिका वसुदेव के। महाराजा उग्रसेन का पुत्र कंस था और वासुदेव के पुत्र श्री कृष्ण थे। महाराज यदु से यादव वंश चला। यादव वंश मे यदु की कई पीढ़ियों के बाद भगवान् श्री कृष्ण माता देवकी के गर्भ से मानव रूप में अवतरित हुए। पुराण आदि से प्राप्त जानकारी के आधार पर सृष्टि उत्पत्ति से यदु तक और यदु से श्री कृष्ण के मध्य यादव वन्शावली (प्रमुख यादव राजवंश) इस प्रकार है:- परमपिता नारायण | ब्रह्मा | अत्रि | चन्द्रमा ( चन्द्रमा से चद्र वंश चला) | बुध | पुरुरवा | आयु | नहुष | ययाति | यदु (यदु से यादव वंश चला) | क्रोष्टु | वृजनीवन्त | स्वाहि (स्वाति) | रुषाद्धगु | चित्ररथ | शशविन्दु | पृथुश्रवस | अन्तर(उत्तर) | सुयग्य | उशनस | शिनेयु | मरुत्त | कन्वलवर्हिष | रुक्मकवच | परावृत् | ज्यामघ | विदर्भ् | कृत्भीम | कुन्ती | धृष्ट | निर्वृति | विदूरथ | दशाह | व्योमन | जीमूत | विकृति | भीमरथ | रथवर | दशरथ | येकादशरथ | शकुनि | करंभ | देवरात | देवक्षत्र | देवन | मधु | पुरूरवस | पुरुद्वन्त | जन्तु (अन्श) | सत्वन्तु | भीमसत्व भीमसत्व के बाद यदवो की मुख्य दो शाखाए बन गयी (1)-अन्धक ......और....(2)-बृष्णि | कुकुर............................देविमूढस-(देविमूढस के दो रानिया थी) | धृष्ट .............................| | कपोतरोपन......................| | विलोमान........................| | अनु................................| | दुन्दुभि...........................| | अभिजित.........................| | पुनर्वसु.............................| | आहुक..............................| | उग्रसेन/देवक ...................शूर | कन्स/देवकी ...................वासदेव | ....................................श्रीकृष्ण वृष्णि वंश भीमसत्व के बाद यादव राजवंशो की प्रधान शाखा से दो मुख्य शाखाए बन गई-पहला अन्धक वंश और दूसरा वृष्णि वंश |अन्धक वंश में कंस का जन्म हुआ तथा वृष्णि वंश में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था| वृष्णि वंश का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है :- ऊपर तालिका में बताया गया है कि देविमूढस (देवमीढ़) के दो रानिया थी पहली मदिषा और दूसरी वैश्यवर्णा| पहली रानी मदिषा के गर्भ से शूर उत्पन्न हुए| शूर की पत्नी भोज राजकुमारी से दस पुत्र तथा पांच पुत्रियाँ उत्पन्न हूई, जिनके नाम नीचे नाम नीचे लिखे गए है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:- १. वासुदेव ..वासुदेव -से श्रीकृष्ण और बलराम २. देवभाग .. देवभाग-से उद्धव नामक पुत्र ३. देवश्रवा.. देवश्रवा-से शत्रुघ्न(एकलव्य) नामक पुत्र ४. अनाधृष्टि.. अनाधृष्टि-से यशस्वी नामक पुत्र हुआ ५. कनवक .. कनवक -से तन्द्रिज और तन्द्रिपाल नामक दो पुत्र ६. वत्सावान .. वत्सावान-के गोद लिए पुत्र कौशिक थे. ७. गृज्जिम.. गृज्जिम- से वीर और अश्वहन नामक दो पुत्र हुए ८. श्याम.. श्याम -अपने छोटे भाई शमीक को पुत्र मानते थे| ९. शमीक-के कोइ संतान नही थी। १०. गंडूष .. गंडूष -के गोद लिए हुए चार पुत्र थे. इनके अतिरिक्त शूर के पांच कन्याए भी उत्पन्न हुई थी जिनके नाम नीचे लिखे है| उनके नामो के आगे उनसे उत्पन्न प्रसिद्द पुत्रो के नाम भी लिखे गए है:- १. पृथुकी .. पृथुकी -से दन्तवक्र नामक पुत्र २. पृथा (कुंती ) पृथा (कुंती) की कोख से कर्ण, युधिषिठर, भीम और अर्जुन नमक चार पुत्र हुए। .. ३. श्रुतदेवा .. श्रुतदेवा - से जगृहु नामक पुत्र ४. श्रुतश्रवा .. श्रुतश्रवा - से चेदिवंशी शिशुपाल नामक पुत्र ५. राजाधिदेवी राजाधिदेवी - से विन्द और अनुविन्द नामक दो पुत्र हुए देविमूढस (देवमीढ़) की दूसरी रानी वैश्यवर्णा से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ| पर्जन्य के नौ पुत्र हुए जिनके नाम इस प्रकार है:- १.धरानन्द २. ध्रुवनन्द ३. उपनंद ४. अभिनंद ५. सुनंद ६. कर्मानन्द ७. धर्मानंद ८. नन्द .९. वल्लभ इसे यों समझे: (इस तालिका में कुछ नाम छोड़ दिए गए है केवल महत्वपूर्ण नामो का उल्लेख है) प्रकार है:- देवमीढ की दो रानिया ॥ १- मदिषा.........................................................२-वैश्यवर्णा से........................................................................से शूरसेन................................................................ पर्जन्य से ..........................................................................से ..वसुदेव..देवभाग....पृथा...श्रुतश्रवा-------------------धरानन्द...ध्रुव...उप...अभि...सुनन्द ..v.........v..........v.......--.--.--.-.-....................--कर्मा...धर्मा...नन्द...बल्लभ् ..से .......से ......से ......से.. श्रीकृष्ण...उद्धव..पाण्डव..शिशुपाल । प्रदुम्न । अनिरुद्ध । ब्रजनाभि श्रीकृष्ण आठ भाई थे| उनके नाम इस प्रकार है:-१.कीर्तिमान, २.सुषेण,३.भद्रसेन, ४. भृगु, ५.सम्भवर्दन, ६. भद्र,७. बलभद्र और ८. श्रीकृष्ण | इनमे से छः पुत्रो को कंस ने जन्म के तुरंत बाद मार दिया था| अन्धकवंशी मथुरा के तथा वृष्णिवंशी द्वारिकापुरी के शासक हुए| मथुरा में जिस समय उग्रसेन और कंस थे उस समय द्वारिका में शूर के पुत्र वासुदेव जी राजा थे|

श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है

श्रीहरिवंश पुराण में वसुदेव के चौदह पत्नियों होने का वर्णन आता है
उनमें रोहिणी, इंदिरा, वैशाखी, भद्रा और सुनाम्नी नामक पांच पत्नियाँ पौरव वंश से,
देवकी आदि सात पत्नियाँ अन्धक वंश से
तथा सुतनु तथा वडवा नामक, वासूदेव की देखभाल करने वाली, दो स्त्रियाँ अज्ञात अन्य वंश से थीं।
उग्रसेन के बड़े भाई देवक के देवकी सहित सात कन्यायें थी।
उ देवमीढुष की दूसरी रानी वैश्यवर्णा  के गर्भ से पर्जन्य नामक पुत्र हुआ।
पर्जन्य के नन्द सहित नौ  पुत्र हुए उनके नाम थे -
धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद, अभिनंद,  .सुनंद, कर्मानन्द , धर्मानंद , नन्द और वल्लभ ।
नन्द से  नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
नन्द और उनकी पत्नी यशोदा  ने गोकुल में  भगवान श्रीकृष्ण का   पालन -पोषण किया।
इस  कारण  वह आज भी  परम  यशस्वी और  श्रद्धेय हैं।
वृष्णिवंश  की  इस वंशावली से ज्ञात होता है कि  वसुदेव और नन्द वृष्णि-वंशी यादव थे और दोनों  चचेरे भाई थे।

Wednesday, 17 January 2018

भक्त सुदामा ब्रह्मण थे, रहते थे देश विदर्भ नगर, मीत प्रभु के सच्चे थे, पत्नि भी पतिव्रता थी घर |


भक्त सुदामा ब्रह्मण थे, रहते थे देश विदर्भ नगर,
मीत प्रभु के सच्चे थे, पत्नि भी पतिव्रता थी घर |

कुछ किस्सा उनका बयां करू, छांया दारिद्र की घर पर थी,
वो भगवत रूप परायण थे, आशा उन्हीं पर निर्भर थी |

थी बुद्धिमती पतिव्रता वाम, गुणवान चतुर सुन्दर नारी, पति इच्छा अनुकूल चले, थी श्रीपति को अतिशय प्यारी |

वो दुःख सुख सभी भोगती थी, पर बात न जिह्वा पर आती,
नित मीठे बैन बोलती थी, नहीं ध्यान बुरा दिल पर लाती |

इक रोज कहा कर जोर दोऊ, पति भूख से प्राण निकलते हैं,
छोटे-छोटे छौना मोरे, बिन अन जल के कर मलते हैं |

यह दशा देख अकुलाय रही, नहीं बच्चों को भी रोटी है, रह सकते नहीं प्राण इनके, अति कोमल है, वे छोटी हैं |

इसलिए कृपा कर प्राणनाथ, तुम नमन करो अविनाशी को,
मत करो देर, बस जाय कहो, सब हाल द्वारिका वासी को |

वह सखा आपके प्रेमी हैं, देखत ही सनमान करें,
सब दूर व्यथा हो जावेगी, कर कृपा तुम्हे धनवान करें |

बतियाँ पत्नि की सुनी ब्राह्मण, भयभीत हुआ घबराय गया,
बोल व्यथा के सुन श्रवणा, चुप चाप रहा बोला न गया |

कुछ देर बाद समझाने को, बोला तू सच तो कहती है,
मगर हुआ क्या आज प्रिये, हर रोज हरष से रहती है |

ये अश्रु बिंदु किसलिए आज, दुखमयी बात क्यों बोल रही,
क्यों तुली कोटि पर माया की, शुभ सुखद ज्ञान को तोल रही |

हैं कृष्ण सखा मेरे प्रेमी, धन लाने को कैसे जाऊं,
निष्काम भक्ति की अब तक तो, किस भांति स्वार्थ अब अपनाऊँ |

है दूर द्वारिका पास नहीं, मैं वृद्ध हुआ अकुलाता हूँ,
मग चलने की सामर्थ्य नहीं, इसलिए तुझे समझाता हूँ |

है दया देव की अपने पर, इसलिए नहीं धनवान किया,
सात्विक भाव ही रहा सदा, प्रिय दिल में कब अरमान किया |

सुदामा- द्वारपाल से महाराज कृष्ण क्या करते है,
है उनसे काम मेरा भाई।
हम बचपन के सखा मित्र, वह होते परम गुरू भाई।।
जाकर के उनसे खबर करो, यह हाल बता देना सारा।
मैं ब्राह्मण द्रविड़ देश का हूं, दिल ख्याल करा देना सारा।।

द्वारपाल- कृष्ण से जा करके द्वारपाल ने जब श्रीकृष्ण चन्द्र से हाल कहा।
इक दुर्बल ब्राह्मण खड़ा खड़ा कहता है श्री गोपाल कहां।

चाहता है प्रभु से मिलने को प्रभु दर्शन का अनुरागी है। है मस्त गृहस्थ में रह करके जानो सच्चा वैरागी है।।

वस्त्र फटे अरु दीन दशा, इक ब्राह्मण दीन पुकारत है।
द्वार खड्यो चहुं ओर लखे वह निर्मल नेक कहावत है।।

पास नहीं कछु भी धन दौलत बौलत ही मन भावत है।
कृष्ण रटे मुख से निशि-वासर नाम सुदामा बतावत है।।
आप सिवा न चहे अरु को, हम को वह दीखत है अति ज्ञानी।
हर्ष विषाद नहीं कछु व्यापत, कृष्ण सिवा कछु लाभ न हानी।।

है मति शु़द्ध पवित्र महा अति सार सुधामय बोलत बानी।
कौन पता किस ग्राम बसे अरु दीख रहा मति सात्विक प्रानी।।

बहुत मुद्दतों बाद कृष्ण पाया, पाया प्रेमी का ठीक पता।
उठ दौड़े, चौके, प्रभु बोले, है कहां सुदामा बता बता।

सुनते ही नाम सुदामा का, अति उर में प्रेम उमंग आया।
प्रेम प्रभु तो खुद ही थे, हद प्रेम जिन्होंने बरसाया।

हाल सुने करुणानिधि ने करुणेश करी करुणा अति भारी,
मीत सखा अरु प्रीत सखा सच आवत यों बहु याद तिहारी।

मीत बड़े सब जानत आप, बड़े हमसे सुधि लीन हमारी,
यों उठ दौरि न ढ़ील करी कित रंक सुदामा व कृष्ण मुरारी।

उठ दौडे पैर पयादे ही, झट पट से प्रभु बाहर आये।
बोले शुभ दिवस आज का है, हम प्रेमी के दर्शन पाये।

प्रीती व रीति न छानी छुपे झट प्रीतम कृष्ण सखा ढिग आये।
देखत ही उपज्यो सुख आनन्द वो कविता कवि कौन बनाये।

अंग व अंग मिलाकर नैनन, नैनन से प्रभु नीर बहाये।
नेह निबाहन हार प्रभो अति स्नेह सुधामय बोल सुनाये।

प्रभु मिले गले से गला लगा चरणोदक लीनो धो धोकर।
बोले प्रेम भरी वाणी पुछे हरि बतियां रो-रो कर।

निज आसन पे बैठा करके सब सामग्री कर में लीनी।
चित प्रसन्नता से कृष्ण चन्द्र विविध भांति पूजा कीनी।
बोले न मिले अब तक न सखा तुम रहे कहां सुध भूल गये।

आनन्द से क्षेम कुशल पूछी प्रभु प्रेम हिंडोले झूल गये।
रुक्मणि स्वयं सखियां मिलकर सब प्रेम से पूजन करती थी।

स्नान कराने को उनको निज हाथों पानी भरती थी।
चंवर मोरछल करते थे सेवा से दिल न अघाते थे।

निज प्रेमी के काम कृष्ण सब खुद ही करना चाहते थे।
यह आनन्द अद्भुत देख देख, द्विज जाने यह जाने न मुझे |

करते हैं स्वागत धोके में, प्रभु शायद पहचाने न मुझे |
भक्त की कल्पना सभी, उर अंतर्यामी जान गये |

भक्त सुदामा के दिल की, बाते सब ही पहचान गये |
बोले घनश्याम याद है कछु, जब तुम हम दोनों पढ़ते थे |
थी कृपा गुरु की अपने पर, पढ़ पढ़ के आगे बढ़ते थे |