Friday, 1 September 2017

5 सितम्बर2017 प्रारंभ "एबम श्राद्ध के लिये योग्य कौन? एबम कोंन सी तिथि कब- पिता का श्राद्ध पुत्र करता है। पुत्र के न होने पर, पत्नी को श्राद्ध करना चाहिये। -पत्नी न होने पर, सगा भाई श्राद्ध कर सकता है। - एक से ज्य़ादा पुत्र होने पर, बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिये। अगर  परिवार या कुटुम्ब कोई  न हो तो पत्नी का श्राद्ध पति कर सकता हैं। अनाथ लोगो का श्राद्ध कोई भी कर सकता है ।

पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और कृतज्ञता ज्ञापित करने का विशिष्ट अवसर होता है.

श्राद्ध का अर्थ है
श्रद्धापूर्ण व्यवहार और तर्पण का अर्थ है तृप्त करना. इन दिनों में किये जाने वाले तर्पण से पितर घर-परिवार को आशीर्वाद देते हैं.

इस दौरान शुभ कार्य या नये कपड़ों की खरीदारी नहीं की जाती.

शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के लिए तीन ऋण कहे गये हैं.

देव,
ऋषि
और पितृ ऋण.
इनमें से पितृ ऋण को श्राद्ध करके उतारना आवश्यक होता है.
वर्ष में केवल एक बार श्राद्ध सम्पन्न करने और कौवा, श्वान (कुत्ता), गाय और ब्राह्मण को भोजन कराने से यह ऋण कम हो जाता है.

Pandit "bhubneshwar"बताते हैं कि पितृपक्ष में देवताओं के उपरांत मृतकों के नामों का उच्चारण कर उन्हें भी जल देना चाहिए.
ब्राह्मणपुराण में लिखा है कि आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में यमराज यमपुरी से पितरों को मुक्त कर देते हैं और वे संतों और वंशजों से पिण्डदान लेने को धरती पर आ जाते हैं.
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किस तारीख में  या तिथि में करना चाहिए श्राद्ध?

सरल शब्दों में समझा जाए तो श्राद्ध दिवंगत परिजनों को उनकी मृत्यु की तिथि पर श्रद्धापूर्वक याद किया जाना है।

अगर किसी परिजन की मृत्यु प्रतिपदा को हुई हो तो उनका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन ही किया जाता है।

इसी प्रकार अन्य दिनों में भी ऐसा ही किया जाता है।

इस विषय में कुछ विशेष मान्यता भी है जो निम्न हैं:

*पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन और माता का नवमी के दिन किया जाता है।

* जिन परिजनों की अकाल मृत्यु हुई जो यानि किसी दुर्घटना या आत्महत्या के कारण हुई हो उनका श्राद्ध चतुर्दशी के दिन किया जाता है।

* साधु और संन्यासियों का श्राद्ध द्वाद्वशी के दिन किया जाता है।
जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन किया जाता है।

इस दिन को सर्व पितृ श्राद्ध कहा जाता है।

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किस तिथि  को कौन सा श्राद्ध
०५ सितम्बर(मंगलवार)पूर्णिमा श्राद्ध
०६ सितम्बर(बुधवार)प्रतिपदा श्राद्ध
०७ सितम्बर(बृहस्पतिवार)द्वितीया श्राद्ध
०८ सितम्बर(शुक्रवार)तृतीया श्राद्ध
०९ सितम्बर(शनिवार)चतुर्थी श्राद्ध
१० सितम्बर(रविवार)महा भरणी, पञ्चमी श्राद्ध
११ सितम्बर(सोमवार)षष्ठी श्राद्ध
१२ सितम्बर(मंगलवार)सप्तमी श्राद्ध
१३ सितम्बर(बुधवार)अष्टमी श्राद्ध
१४ सितम्बर(बृहस्पतिवार)नवमी श्राद्ध
१५ सितम्बर(शुक्रवार)दशमी श्राद्ध
१६ सितम्बर(शनिवार)एकादशी श्राद्ध
१७ सितम्बर(रविवार)द्वादशी श्राद्ध, त्रयोदशी श्राद्ध १८ सितम्बर(सोमवार)मघा श्राद्ध, चतुर्दशी श्राद्ध १९ सितम्बर(मंगलवार)सर्वपित्रू अमावस्या

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श्राद्ध के लिये कौन सा पहर श्रेष्ठ?

-श्राद्ध के लिये दोपहर का कुतुप और रौहिण मुहूर्त श्रेष्ठ है।

-कुतुप मुहूर्त दोपहर 11:36AM से 12:24PM तक।

-रौहिण मुहूर्त दोपहर 12:24PM से दिन में 1:15PM तक।

-कुतप काल में किये गये दान का अक्षय फल मिलता है। -

पूर्वजों का तर्पण, हर पूर्णिमा और अमावस्या पर करें।

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श्राद्ध में जल से तर्पण ज़रूरी क्यों? -

श्राद्ध के 15 दिनों में, कम से कम जल से तर्पण ज़रूर करें। -
चंद्रलोक के ऊपर और सूर्यलोक के पास पितृलोक होने से, वहां पानी की कमी है।

-जल के तर्पण से, पितरों की प्यास बुझती है वरना पितृ प्यासे रहते हैं।

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श्राद्ध के लिये योग्य कौन? -

पिता का श्राद्ध पुत्र करता है।
पुत्र के न होने पर,
पत्नी को श्राद्ध करना चाहिये।
-पत्नी न होने पर, सगा भाई श्राद्ध कर सकता है। -
एक से ज्य़ादा पुत्र होने पर, बड़े पुत्र को श्राद्ध करना चाहिये।
अगर  परिवार या कुटुम्ब कोई  न हो तो पत्नी का श्राद्ध पति कर सकता हैं।
अनाथ लोगो का श्राद्ध कोई भी कर सकता है ।

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अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है।
इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति,

वंश-वृद्धि में रूकावट,
आकस्मिक बीमारी,
संकट,
धन में बरकत न होना,
सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं।

यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ।
अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें।
प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें।
यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें।

वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है।
इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

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मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध प्रमुख बताये गए है |
त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते के अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है,

जिन्हें नित्य,
नैमित्तिक
एवं काम्य श्राद्ध कहते हैं।

यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है।

जिन्हें नित्य,
नैमित्तिक,
काम्य,
वृद्धि
और पार्वण के नाम से श्राद्ध है।

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1- श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।
2- श्राद्ध में चांदी के बर्तनों का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।
3- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।
4- ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं जब तक ब्राह्मण मौन रहकर भोजन करें।
5- जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पहने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।
6- श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।
7- श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर और सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।
8- दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।
9- चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।
10- जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।
11- श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।
12- शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।
13- श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।
14- रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।
15- श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोने, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16- तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17- रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18- चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

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19- भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं,

जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य,
2- नैमित्तिक,
3- काम्य,
4- वृद्धि,
5- सपिण्डन,
6- पार्वण,
7- गोष्ठी,
8- शुद्धर्थ,
9- कर्मांग,
10- दैविक,
11- यात्रार्थ,
12- पुष्टयर्थ

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- श्राद्ध के प्रमुख अंग इस प्रकार हैं-
तर्पण-
इसमें दूध,
तिल,
कुशा,
पुष्प,
गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है। भोजन व पिण्ड दान- पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है।
श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।

वस्त्रदान- वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है। दक्षिणा दान- यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

– श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें।

श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

तैयार भोजन में से

गाय,
कुत्ते,
कौए,
देवता
और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें।

इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।
कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं।
इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।
- ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं।

ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

अधिक जानकारी के लिऐ संपर्क करे
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गुरुदेव bhubneshwar
Kasturwanagar पर्णकुटी गुना

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