Wednesday, 14 June 2017

हे राम! हे मर्यादा पुरूषोत्तम राम, सदियों से एक सवाल मेरे मानसपटल पर, रह-रह कर उठाता है फन अपना, और कोंचता है मुझको, जानना चाहता है तुमसे, कि त्याग किया था तुमने मेरा, अपना राजधर्म निभाने को, या छोड़ दिया मुझको तुमने, अपनी राजगद्दी बचाने को ? तुम भूल गए राम, राजा बनने से पहले तुम पति थे मेरे, लिए थे सात फेरे, भरे थे वचन, क्या मन में एक बार न आया, अपना पतिधर्म निभाने को?

हे राम! हे मर्यादा पुरूषोत्तम राम,
सदियों से एक सवाल मेरे मानसपटल पर, रह-रह कर उठाता है

फन अपना, और कोंचता है मुझको,

जानना चाहता है तुमसे, कि त्याग किया था तुमने मेरा,

अपना राजधर्म निभाने को,
या छोड़ दिया मुझको तुमने, अपनी राजगद्दी बचाने को ?
तुम भूल गए राम,
राजा बनने से पहले तुम पति थे मेरे,
लिए थे सात फेरे, भरे थे वचन,
क्या मन में एक बार न आया, अपना पतिधर्म निभाने को?

मैंने तो निभाया था पत्निधर्म,
संग चली थी तुम्हारे, काँटों की डगर पर,
वहां भी तुम रक्षा न कर सके मेरी,
पहुँचा दिया मुझे रावण के घर।
फिर भी तुम्हें ही हृदय में बसाया,
नज़रों से अपनी नहीं, तुमको गिराया,
तुम आए मुझे लेने,
मैं चल दी पीछे-पीछे, छोड़ दिया यहाँ लाकर तुमने, एक धोबी के लिए!

मैं, तुम्हारी अर्धांगिनी,
हर सुख-दुःख में तुम्हारे साथ,
इतना भी हक़ न दिया तुमने की जान सकूं,
क्यों हुआ मेरे साथ ये विश्वासघात!

और फिर बिना कुछ कहे-सुने,
एक काली, खामोश रात,
भेज दिया जंगल में लक्ष्मण के साथ।
क्यों हुआ मेरे संग ये अन्याय,
तुम मेरी फरियाद भी न सुन पाये,
आज तक अपनी फरियाद सुनाने को तड़पती हूँ,
और अपने पति से ही नहीं,
एक राजा से भी, न्याय पाने को तरसती हूँ।

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