Sunday, 6 November 2016

अगर आप मंगली है तो मंगल और दाम्पत्य सुख जानने के लिए

ज्योतिष शास्त्र के प्रमाणों को आधार मानकर हर एक भाव एवं राशि मंगल के भाव में विभिन्नता होती है| जिस कारण कुण्डलीगत मंगल की परिस्थितियां ही बदल जाती हैं| इस प्रकार कुंडली के अनुसार मंगल के नैसर्गिक प्रभावों का आंकलन करने से सहूलियत होती है| विचारणीय विषय हैं :

१. मंगल ग्रह की प्रकृति क्या है?
२. यह किस भाव में स्थित है और वह भाव शुभ है या अशुभ?
३. मंगल अपने उंच-नींच स्वराशी में तो नहीं है? अगर है तो इसके प्रभाव में क्या परिवर्तन होता है|
४.क्या मंगल सभी राशियों या भावों में एक जैसा ही पाप ग्रह होने के नाते पाप फल देता है? ५. मंगल चर-स्थिर-द्वीस्वभाव राशि हो तो क्या परिणाम एवं प्रभाव एक ही जैसे होंगे?
६. मंगल दोष केवल पति/पत्नी की मृत्यु तक ही सीमित है या दाम्पत्य जीवन में अन्य क्षेत्रों को भी प्रभावित करता है? उपयुक्त तथ्यों का सही सही ज्ञान कर ही कुण्डली को मांगलिक दावे से युक्त या मुक्त कर सकते हैं|

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार परिहार- यह शब्द पुलिंग है| बल पूर्वक छिनने की क्रिया अन्य या छुट माफ़ी आदि परिहार में आते है| अर्थात जो मंगल दोष पूर्ण भावों में रहते हुए भी अनिष्ट फल देने में रियायत या छुट फल देता हो उसे ही मांगलिक परिहार कहते हैं| इस तरह के निर्णय से कुण्डली में अन्य कोई दोष रह ही नहीं जाता और वह कुण्डली पूर्ण शुद्ध अर्थात निर्दोष हो जाती है| संक्षेप परिहार- मंगल दोष परिहार संबंधित जो भी प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं वह सभी विभिन्न ग्रंथों में दिया जा चूका है| ये सर्वथा उपयुक्त तथा प्रमाणित है|

इन निम्नलिखित परिहों का उपयोग कर मांगलिक दोषजन्य उलझन से बहुत हद तक छुटकारा पाया जा सकता है|

१】स्त्रीणां वैधव्यदोयोगः पुंसां जन्मनिच्चेभ्वेत्|
तदा पत्नी विनाशः स्यादुभयोच्स्रेछुभं स्मृतम्|| ~बृहदपराशर स्त्रीजातक फलाध्याय श्लोक ५०-

अर्थ- स्त्रियों का वैधव्य योग कारक ग्रह पुरुष की कुण्डली में (१,४,७,८,१२)हो तो स्त्री का मरण होता है| अगर वर वधू दोनों की कुण्डली में यह स्थिति हो तो दोनों मांगलिक दोष से मुक्त होता है, तथा दोनों का कल्याण होता है|

२】कुज दोषवती देया कुजदोषवते किल| नास्तिदोषो न चानिष्टं दम्पत्योः सुख वर्धनम्| ~महूर्त चिंतामणि परिशिष्ट ५०-

अर्थ- मंगल दोष वाली कन्या, मंगल दोष वाले वर को देने से मंगल का दोष नहीं होता और कोई अनिष्ट भी नहीं होता| साथ ही वर वधू का दाम्पत्य सुख बढ़ता है|

३】भौमेन सदृशो भौमः पापो वा तादृशो भवेत्| विवाहः शुभदः प्रोक्ताञ्चिरायुः पुत्रपौत्रदः|| ~वृहद् ज्यौतिष पि. प्र. श्लोक १२

अर्थ- लड़का/लड़की की कुण्डली में मंगल या अन्य पापग्रह समान (दोनों कुण्डली के) भाव में स्थित हो तो विवाह शुभ तथा पुत्र पौत्रादि को देने वाला होता है|

४】शनि भौमोअथवा कश्चित्पापो वा तादृशो भवेत| तेष्वेव भवनेष्वेव भौमदोष विनाशकृत||
~मु. चि. न. सं. परिशिष्ट

अर्थ- किसी एक की कुण्डली में अनिष्ट (१/४/७/८/१२) स्थानस्थित शनि मंगल अथवा अन्य पाप ग्रह हो और दूसरे की कुण्डली में उसी स्थान में पापग्रह हो तो मांगलिक दोष नहीं होता| वैधव्य दोष का नाश होता है|

५】जन्म लग्ने यदा सौरी सप्तमे हिबुकेअथवा| अष्टमे द्वादशे वापि भौम दोष विनाशकृत|| ~चमत्कार चि. पृ. १८२ टीका

अर्थ- बड़े-बड़े आचार्यों का मत है कि वर वधू की किसी एक की कुण्डली में मंगल अनिष्ट स्थान में बैठा हो और दूसरी कुण्डली में शनि भी उक्त अनिष्ट में ही स्थित हो तो मांगलिक दोष नहीं होता|

६】सप्तमे च यदा सौरिर्लाग्ने वापि चतुर्थके|
अष्टमे द्वादशे चैव तदा भौमो न दोष कृत||
~बृहद ज्योतिष वि. प्र. श्लोक १३

अर्थ- यदि वर वधू में से किसी एक कुण्डली में मंगल सप्तम लग्न चतुर्थ अष्टम एवं द्वादश भावों में से किसी एक स्थान में हो और दूसरी कुण्डली में उक्त स्थान (१/४/७/८/१२) में से किसी भी स्थान में मंगल न हों किन्तु शनि हो तो परस्पर मंगल का दोष नहीं होता है|

७】उक्तस्थानेषु चन्द्राच्च गणयेत् पापखेचरान्| पापधिक्ये वरे श्रेष्ठं विवाहं प्रवदेद् बुधः||
~वृहद् ज्योतिष पि.प्र. श्लोक १४-

अर्थ- जिस तरह लग्न से (१/४/७/८/१२) वें भाव में मंगल या अन्य पाप ग्रह को अनिष्ट कहा गया है उसी तरह चन्द्र से भी उक्त स्थान में पाप ग्रह अनिष्ट होते हैं| इसलिए वर की कुण्डली में लग्न और चन्द्र से युक्त स्थान में पाप ग्रह की संख्या गिने और कन्या की कुण्डली में भी लग्न एवं चन्द्र से युक्त स्थानों में पाप ग्रह की संख्या समझें| यदि कन्या से वर की पाप ग्रह संख्या अधिक हो तो विवाह सम्बन्ध श्रेष्ठ होता है किन्तु कन्या की पाप संख्या अधिक होने पर अशुभ होता है|

८】वक्रिणी निचारिस्थे वार्कस्थे वा न कुजदोषः नीचराशिगतः सोअयं शत्रुक्षेत्रगतोअपि वा| शुभाशुभ फ़लं नैवं दद्यास्तंगतोअपि च|| ~ मु.चि.परि. प्र.पृ.१९६

अर्थ- जन्म समय में कुण्डलीगत मंगल नीच का कर्क राशि में या शत्रु राशि (मिथुन-कन्या में या वक्री अस्त वृद्धावस्था अथवा मृत अवस्था (२५ से ३० अंश पर) में हो तो शुभ या अशुभ फल देने में असमर्थ होता है| इस प्रकार मांगलिक दोष नहीं होता|

९】शुभ योगादिकर्तृत्वेअशुभं कुरुते कुजः ~मु.चि.परिशिष्ट प्र.पृ.१९५

अर्थ- शुभ ग्रहों के साथ शुभ सम्बन्ध करने वाला मंगल अशुभ कारक नहीं होता| लड़का/लड़की की कुण्डली में चन्द्र और शुक्र द्वितीय स्थान में हो या मंगल वृहस्पति के साथ में हो या वृहस्पति मंगल एवं राहू को पूर्ण दृष्टि से देखता हो या राहू केन्द्रस्थ होकर शुभ ग्रह के साथ हो या मंगल और राहू एक साथ किसी अनिष्ट स्थान में योग करता हो तो मांगलिक दोष नहीं होता है|

१०】लग्नाद्विधोर्वा यदि जन्म काले शुभग्रहो वा मदनाधिपश्च| द्युनस्थितो हन्त्यनपत्यदोषं वैधव्यदोषं च विषांगनाख्यम्||
~बृहत्पराशर स्त्री जातक फलाध्याय श्लोक ४६

अर्थ- यदि जन्म समय जातक/जातिका की कुण्डलीगत जन्म में चन्द्रमा हो तो सप्तम स्थान में शुभ ग्रह बैठें हों अथवा सप्तमेश सप्तम स्थान में ही बैठा हो तो ऐसी स्थिति में मंगलादि पापग्रहों की स्थिति किसी भी अनिष्ट स्थान में होने पर वैधव्ययोग और विष कन्या जन्य दोष नहीं होता है|

११】 बुधार्ययुक्तेअप्यथवा निरीक्षिते तद्योषनाशं प्रवदन्तिसन्तः|
~विवाह विमर्श द्वितीयाध्याय श्लोक १३

अर्थ- यदि मंगल बुध और वृहस्पति के साथ बैठा हो तो मंगल दोष नहीं होता अथवा मंगल बुध और वृहस्पति से दृष्ट हों तो भी मंगल दोष नहीं होता| उक्त परिहार में भाव इंगित नहीं किया गया है| इस हेतु द्वादश लग्न विमर्श का अध्ययन कर बुध एवं गुरु से मंगल का विचार करें-

१२】कुजः कर्क लग्नस्थो न कदाचन दोषकृत| ~मु.ची. परिषिष्ट प्र.पृ.१९६

अर्थ- यदि मंगल स्वग्रिहि (मेष-वृश्चिक) राशि का हो उच्चराशि (मकर) का हो अथवा मित्र गृही हो तो दोष कारक नहीं होता | उपरोक्त स्थिति द्वादश लग्न विमर्श में स्पस्ट किया गया है| इस कथन में भाव स्पस्ट नहीं है लग्नवश उक्त स्थिति में परिवर्तन हो सकता है |

१३】अजेलग्ने, व्ययेचापे पातालेव्रिश्चिके कुजे| द्यूनेमिने घटेचाष्टौ भौमदोषो न विद्दते ~मु.चि.परिषिष्त प्र.पृ.१९६ श्लोक ७

अर्थ- जातक/जतिका की कुण्डलीगत मेष राशि का मंगल लग्न में धनु राशि का मंगल द्वादश स्थान में वृश्चिक का मंगल चतुर्थ स्थान में मीन का मंगल सप्तम स्थान में और कुम्भ राशि का मंगल अष्टम स्थान में हो तो मंगल का दोष नहीं होता|

१४】कुजो जीवसमायुक्तो युक्तो वा शशिना यदा| चन्द्रःकेन्द्रगतो वापि तस्य दोषो न मङ्गली|| ~मु.चि.परिशिष्ट प्र.पृ१९६

अर्थ- जिस जातक/जातिका की कुण्डली में चौथे, सप्तम, अष्टम एवं बारहवें आदि अरिष्ट कारक स्थानों में से किसी एक स्थान में मंगल वृहस्पति के साथ अथवा चन्द्रमा के साथ बैठा हो किंवा चन्द्रमा केंद्र में स्थित हो तो वह कुण्डली मांगलिक नहीं होती|

१५】चतुः सप्तमगे भौमे मेष कर्कालिनक्रगे|
कुजदोषो न तत्र स्यात्स्वोच्चादिराशियोगतः| ~मु. चि.परिषिष्त प्र.पृ.१९६

अर्थ- लड़का/लड़की की कुण्डली गत केंद्र (१,४,७,१०) स्थान और त्रिकोण (९/५)स्थान में यदि शुभ ग्रह हों तथा (३/६/११) स्थान में पाप ग्रह हो और सप्तमेश सप्तम भाव में ही बैठे हो तो मांगलिक दोष नहीं होता है |

१६】 द्वितीये भौमदोषस्तु युग्मकन्यक योर्विना|| ~विवाह विमर्श श्लोक-२२

अर्थ- द्वीतीय भावास्थित मंगल मिथुन एवं कन्या राशि का हो तो मंगल दोष नहीं होता है |
द्वादशे भौमदोषस्तु मेशवृश्चिकयोर्विना| ~मु.चि.हिंदी टीका

अर्थ- स्वगृही (मेष-वृश्चिक)का मंगल कुण्डली में चतुर्थ भाव में हो तो मांगलिक नहीं होता |

१७】सप्तमे भौमदोषस्तु न कर्कटयोविना| ~मु.चि.हिंदी टिका

अर्थ- कुण्डलीगत मंगल कर्क और मकर राशि का होकर सप्तम भाव में बैठा हो तो मंगल का दोष नहीं होता |

१८】कुम्भे सिंहे न दोषः स्याद्विशेषेण कुजस्य च| ~मु.चि.हिंदी टीका

अर्थ- यदि जन्म कुण्डलीगत मंगल कुम्भ एवं सिंह राशि का होकर अनिष्ट स्थान (१/४/७/८/१२)में बैठा हो तो अनिष्ट फल नहीं देता है |

१९】सिंहे लग्ने व्ययेचापे पाताले वृश्चिके कुजः|
द्यूने मृगेकर्किणाष्टो भौम दोषो न विद्यते|| ~मु.चि. हिन्दी टीका

अर्थ- जातक/जातिका की कुण्डली में मंगल सिंह राशि का होकर लग्न में धनु राशि का द्वादश स्थान में वृश्चिक राशि का मंगल चतुर्थ स्थान में मकर राशि का सप्तम भाव में कर्क राशि का मंगल अष्टम में हो तो कुण्डली मांगलिक नहीं होती

मंगलदोष का अन्य परिहार
(१) चर राशि (मेष, कर्क, तुला और मकर) में स्थित होकर मंगल (१/२/४/८/१२) भावों में से किसी भी भाव में बैठा हो तो मांगलिक नहीं होता| परन्तु सप्तम में होता है| देखें लग्न विमर्श--

(२) मेष लग्न स्थित कुण्डली में मंगल किसी भी भाव में हो मांगलिक नहीं होता| कुण्डली शुद्ध होती है|

(३) सिंह लग्न की कुण्डली में मंगल किसी भी भाव में हो फिर भी मंगल का दोष नहीं होता है|

(४) मंगल कुण्डली में २२ अंश से ऊपर का होकर किसी अनिष्ट भाव में बैठा हो तो दोष नहीं होता|

(५) किसी भी अनिष्ट (१/४/७/८/१२)भाव में मंगल और शुक्र की युति हो अथवा शुक्र की दृष्टि अनिष्ट स्थित मंगल पर हो तो मंगल दोष नहीं होता|

(६) शुक्र और गुरु बलवान होकर सातवें स्थान में बैठे हों तो अनिष्ट स्थानिस्त मंगल का दोष नहीं होता|

(७) शुक्र अशुभ स्थान में पाप ग्रहों युक्त और पाप ग्रहों से दृष्ट न हो तो अनिष्ट स्थानस्थिति मंगल दोष नहीं होता|

(८) सातवें भाव में शुक्र और शनि की युति हो तो मंगल दोष नहीं होता|

(९) सातवें घर का स्वामी कोई भी ग्रह शुक्र के साथ हो और मंगल अनिष्ट स्थानास्थिति हो तो मंगल दोष नहीं होता|

(१०) सातवें घर का स्वामी वृहस्पति हो आयर केंद्र में स्थित हो तो मंगल का दोष नहीं होता| यह परिहार केवल सप्तमस्थ मंगल का है|

(११) मंगल जिस राशि में बैठा हो उसका स्वामी यदि कुण्डलीगत केन्द्र (१/४/७/१०) या त्रिकोण (५/९) में स्थित हो तो मंगल का दोष नहीं होता| इस तरह परिहार के अनेकों मत अपनायें गए हैं| इन में कहीं कहीं कुछ अधिक कह दिया गया है जो नहीं होना चाहिए ये विद्वानों का मानना है| उचित एवं सही परिहार जानने हितु पाठकगण पूर्ण लिखित द्वादश लग्न विमर्श से मिलान कर लेंगे| लग्न के आधार पर की गयी समीक्षा के अतिरिक्त अन्य स्थान स्थित मंगल दोष का परिहार भी यथोचित ही है| इसलिए अभिभावकों को कुण्डलीगत मंगल दोष उत्पन्न होने से निराश नहीं होना चहिये| मंगल दोष यदि बाधक हो तो स्थितिवश वही मंगलसाधक भी होता है| इससे सम्बन्धित अनेको उदहारण एवं प्रमाण प्रस्तुत किये जा चुके हैं|

सम्पर्क सूत्र
०९८९३९४६८१०
०९८९३३९७८३५
०९८९३९८३०८४

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