Saturday, 27 August 2016

जबआचार्य रावण के यजमान बने श्री राम

शिवलिंग स्थापना के लिए श्रीराम के आग्रह पर रावण बना आचार्य, आचार्य ने यजमान को दिया था विजय का आशीर्वाद प्रभु श्रीराम और रावण से जुड़ा एक प्रसंग सुनाने जा रहे हैं जो महर्षि कंब द्वारा लिखी रामायण में है. यह कथा बाल्मीकि रामायण या रामचरितमानस में नहीं है. सत्य क्या-असत्य क्या, प्रभु की लीला तो प्रभु ही जानें. हम तो बस आपके सामने दक्षिण भारत का एक प्रचलित प्रसंग रख रहे हैं. रावण केवल शिवभक्त, विद्वान एवं वीर ही नहीं ज्योतिष का भी प्रकांड विद्वान था. उसे भविष्य का पता था औऱ वह जानता था कि श्रीराम से जीत पाना उसके लिए संभव ही नहीं. लंका विजय के लिए श्रीराम ने शिवलिंग स्थापना की निर्णय लिया लेकिन संकट यह आया कि विधिपूर्वक शिवलिंग पूजन के लिए आचार्य कहां से आएं. रावण से बेहतर शिवभक्त और कर्मकंडी कोई नजर नहीं आता था. श्रीराम ने हृदय की विशालता का परिचय देते हुए रावण को ही आचार्य बनाने का निर्णय किया. आचार्य को निमंत्रण देकर बुलाया जाता है लेकिन श्रीराम स्वयं नहीं जा सकते थे क्योंकि वह राजा थे. राजा युद्ध से पूर्व स्वयं नहीं जा सकता. फिर श्रीराम का प्रतिनिधि बनाकर किसे भेजा जाए. हनुमानजी लंका जला आए हैं, अंगद भी रावण का अपमान कर आए हैं. सबसे समझदार और वयोवृद्ध जामवंतजी को इसके लिए चुना गया. जामवंतजी रावण को आचार्यत्व का निमंत्रण देने लंका गए. जामवन्त जी विशालकाय आकार के थे. आकार में वह कुम्भकर्ण से तनिक से ही ही छोटे थे. पहले हनुमान, फिर अंगद और अब जामवन्त. यह समाचार लंका में मन की गति से फैला. जामवंतजी के आकार भय से सब राक्षस अपनी जगह छुप गए. जामवंतजी निर्विघ्न रावण के राजदरबार के द्वार तक पहुंच गए. रावण स्वयं उनकी अगवानी करने बाहर आया. रावण को अभिवादन का उपक्रम करते देख जामवन्तजी ने मुस्कराते हुए कहा कि मैं श्रीराम का दूत बनकर आया हूं. उन्होंने तुम्हें सादर अभिवादन भेजा है. रावण ने जामवंतजी से कहा- आप हमारे पितामह के भाई हैं. इस नाते आप हमारे पूज्य हैं. आप कृपया आसन ग्रहण करें. जामवन्तजी ने आसन ग्रहण किया और बोले वनवासी श्रीराम ने तुम्हें प्रणाम कहा है. सागर पर सेतु बांध लेने के बाद अब महेश्वर लिंग-विग्रह की स्थापना करना चाहते हैं. इस अनुष्ठान को सम्पन्न कराने के लिए उन्होंने ब्राह्मण, वेदज्ञ और शैव रावण को आचार्य पद पर वरण करने की इच्छा प्रकट की है. मैं उनकी ओर से आपको आमंत्रित करने आया हूं. रावण मुस्कुराने लगा फिर पूछा- क्या राम द्वारा महेश्वर-लिंग-विग्रह स्थापना लंकाविजय की कामना से किया जा रहा है? जामवंतजी ने हामी भरी. वहां मौजूद प्रहस्त आंखे तरेरते हुए गुर्राया– राम अत्यंत धूर्त और निर्लज्ज है. लंकेश्वर ऐसा प्रस्ताव स्वीकार नहीं करेंगे. लंकेश ने प्रहस्त को चुप कराया. उसने कहा-जीवन में प्रथम बार किसी ने रावण को ब्राह्मण माना और आचार्य बनने योग्य जाना है. क्या रावण महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई महर्षि वशिष्ठ के यजमान का आमंत्रण और अपने आराध्य की स्थापना हेतु आचार्य पद अस्वीकार करके मूर्ख नाम से जाना जाए. जब वनवासी राम ने इतना बड़े आचार्य पद पर पदस्थ होने हेतु आमंत्रित किया है तब वह भी यजमान पद हेतु उचित अधिकारी है भी अथवा नहीं इसकी मुझे भी जांच करनी होगी. जामवंतजी यदि हम आपको यहां बंदी बना लें और आपको लौटने न दें तो आप क्या करेंगे? जामवंत खुलकर हंसे और बोले- लंका के समस्त दानवों में इतनी शक्ति नहीं कि वे मिलकर भी मुझे बंदी बना लें. मुझे अपनी शक्ति का परिचय कराने की न तो अनुमति है और न ही आवश्यकता. तुम्हें बता दूं कि मैं अभी एक ऐसे उपकरण के साथ यहां विद्यमान हूं, जिसके माध्यम से धनुर्धारी लक्ष्मण यह दृश्यवार्ता स्पष्ट रूप से देख-सुन रहे हैं. जब मैं वहां से चलने लगा था तभी धनुर्वीर लक्ष्मण ने आचमन करके अपने त्रोण से पाशुपतास्त्र निकालकर संधान कर लिया है. उन्होंने मुझसे कहा है कि रावण से कह देना कि यदि किसी ने भी मेरा विरोध करने या उद्दंडता की चेष्टा की तो यह पाशुपतास्त्र समस्त दानव कुल के संहार का संकल्प लेकर तुरन्त छूट जाएगा. आप मुझे अविलम्ब उत्तर देकर शीघ्र प्रस्थान की व्यवस्था करें ताकि लक्ष्मणजी मुझे देखकर निश्चिंत हों. उपस्थित दानव भयभीत हो गए. प्रहस्थ पसीने से लथपथ हो गया. लंकेश भी कांप उठा. पाशुपतास्त्र महेश्वर का अमोघ अस्त्र है.सृष्टि में एक साथ दो धनुर्धर प्रयोग ही नहीं कर सकते. भले ही मेघनाद के पास भी पाशुपतास्त्र है लेकिन जब लक्ष्मण ने उसे संधान स्थिति में ला ही दिया है, तब स्वयं भगवान शिव भी उसे उठा नहीं सकते. उसका तो कोई प्रतिकार है ही नहीं. रावण यह सोचकर बेचैन हो गया. उसने जामवंतजी से कहा-आप अपने शिविर को लौटें. मैं आचार्यत्व स्वीकार करता हूं. जामवंत को विदा कर लंकेश ने सेवकों को शिवलिंग स्थापना के लिए आवश्यक सामग्री जमा करने का आदेश दिया और स्वयं अशोक वाटिका पहुँचा. पूजन का विधान है कि जो सामग्री यजमान नहीं जुटा सकता उसकी व्यवस्था आचार्य का परम कर्त्तव्य होता है. अशोक वाटिका पहुंचकर रावण ने सीताजी से कहा-राम लंका विजय की कामना से समुद्रतट पर महेश्वर लिंग विग्रह की स्थापना करने जा रहे हैं और रावण को आचार्य वरण किया है. यजमान का अनुष्ठान पूर्ण हो यह दायित्व आचार्य का होता है. तुम जानती हो कि अर्द्धांगिनी बिना गृहस्थ के अनुष्ठान अधूरे रहते हैं. विमान आ रहा है, उसपर बैठ जाना. ध्यान रहे कि तुम वहां भी रावण के अधीन ही रहोगी. अनुष्ठान समापन के बाद यहां आने के लिए विमान में पुनः बैठ जाना. स्वामी ने जिसे आचार्य स्वीकारा है वह स्वयं का भी आचार्य हुआ यह समझते हुए जानकीजी ने दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुका दिया. रावण ने भी सौभाग्यवती भव कहते हुए आशीर्वाद देकर आचार्य का दायित्व निभाया. सीता और अन्य आवश्यक उपकरण सहित रावण आकाश मार्ग से समुद्र तट पर उतरा. उसने सीताजी को कहा कि जब आदेश मिले तब आना. सीताजी को विमान में ही छोड़कर स्वयं श्रीराम के सम्मुख पहुंचा. श्रीराम स्वागत सत्कार हेतु पहले से ही तत्पर थे. सम्मुख होते ही वनवासी श्रीराम ने आचार्य दशग्रीव को हाथ जोड़कर प्रणाम किया. आचार्य ने आशीर्वाद दिया- दीर्घायु भव! लंकाविजयी भव! दशग्रीव के आशीर्वचन के शब्दों ने सबको चौंका दिया. फिर रावण ने सुग्रीव और विभीषण की ऐसी उपेक्षा कर दी जैसे वे उसके लिए अस्तित्व ही नहीं रखते. भूमि शोधन के उपरान्त रावणाचार्य ने कहा- यजमान! अर्द्धांगिनी कहाँ है? उन्हें यथास्थान आसन दें. श्रीराम ने मस्तक झुकाते हुए हाथ जोड़कर विनम्र स्वर से प्रार्थना की कि यदि यजमान असमर्थ हो तो योग्य आचार्य अन्य समकक्ष विकल्प से भी तो अनुष्ठान पूर्ण करा सकते हैं. रावण ने कहा- अवश्य किन्तु अन्य विकल्प के अभाव में ऐसा संभव है, प्रमुख विकल्प के अभाव में नहीं. यदि तुम अविवाहित, विधुर अथवा परित्यक्त होते तो संभव था. तुम सन्यासी भी नहीं हो और पत्नीरहित वानप्रस्थ का तुमने व्रत नहीं लिया है. इन परिस्थितियों में पत्नीरहित अनुष्ठान कैसे हो? श्रीराम ने पूछा- कोई उपाय आचार्य? रावण ने कहा-अनुष्ठान के उपरांत आचार्य आवश्यक साधन, उपकरण वापस ले जाते हैं. यदि स्वीकार हो तो किसी को भेज दो, सागर के पास पुष्पक विमान में यजमान की पत्नी विराजमान हैं. श्रीराम ने हाथ जोड़कर मौनभाव से इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार किया. श्रीराम का आदेश पाते ही विभीषण मंत्रियों सहित पुष्पक विमान तक गए और सीताजी के साथ लौटे. रावण ने सीताजी से कहा- अर्द्ध यजमान के बगल में बैठो अर्द्ध यजमान. आचार्य के इस आदेश का वैदेही ने पालन किया.गणपति पूजन, कलश स्थापना और नवग्रह पूजन उपरान्त आचार्य ने पूछा लिंग विग्रह कहां हैं? श्रीराम ने कहा उसे लेने हनुमानजी रात्रि के प्रथम प्रहर से कैलाश गए हुए हैं. अभी तक लौटे नहीं हैं. आते ही होंगे. आचार्य ने आदेश दे दिया विलम्ब नहीं किया जा सकता. उत्तम मुहूर्त बीत रहा है. इसलिए अविलम्ब यजमान की पत्नी बालुका-लिंग विग्रह स्वयं बना लें. सीताजी ने आचार्य के निर्देश पर बालुका लिंग विग्रह बनाया. श्रीसीताराम ने वही महेश्वर लिंगविग्रह स्थापित किया. आचार्य ने पूर्ण विधि-विधान से अनुष्ठान सम्पन्न कराया. दक्षिणा की बारी आई तो विभीषण आदि चिंतित हुए कि कहीं रावण दक्षिणा में श्रीराम से अयोध्या लौटने को न कह दे. भगवान श्रीराम ने पूछा- आचार्य आपकी दक्षिणा? आचार्य के शब्दों ने फिर से सबको चौंका दिया- घबराओ नहीं यजमान. जो स्वयं स्वर्ण से बनी नगरी का स्वामी है उसे एक वनवासी यजमान क्या संपत्ति दक्षिणा में दे सकता है. श्रीराम ने कहा- अपने आचार्य कि जो भी मांग हो मैं उसे पूर्ण करने की प्रतिज्ञा करता हूं.रावण ने मांगा- जब आचार्य मृत्यु शैय्या ग्रहण करे तब यजमान सम्मुख उपस्थित रहे. मैं यही दक्षिणा मांगता हूं. श्रीराम ने कहा- ऐसा ही होगा आचार्य. यजमान ने वचन दिया और समय आने पर निभाया भी. यह दृश्य वार्ता देख-सुनकर सभी उपस्थित जन समुदाय के नेत्र भर गए. सभी ने एक साथ इस अद्भुत आचार्य को प्रणाम किया. रावण जैसे भविष्यदृष्टा ने जो दक्षिणा माँगी, उससे बड़ी दक्षिणा क्या हो सकती थी? जो रावण यज्ञकार्य पूरा करने हेतु राम की बंदी पत्नी को शत्रु के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, वह राम से लौट जाने की दक्षिणा कैसे मांग सकता है? रावण शापित होकर पृथ्वी पर आया था और उसे मुक्ति नारायण के हाथों ही हो सकती थी. पाप का दंड मिलना ही है चाहे आप कितने भी विचारवान और ज्ञानी क्यों न हो. इसलिए रावण जैसा पापी लंका का स्वामी तो हो सकता है देवलोक का नहीं. देवलोक के लिए देवत्व चाहिए. अधर्म बलवान हो सकता लेकिन उसका बल एक न एक दिन धराशाई होता ही जिस प्रकार रावण जैसे त्रिलोकविजयी का हुआ. (रामेश्वरम में लिखा हुआ है कि इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना श्रीराम ने रावण द्वारा करवाई थी. बाल्मीकि रामायण और तुलसीकृत रामायण में इस कथा का वर्णन नहीं है पर तमिल भाषा में लिखी महर्षि कम्बन की ‘इरामावतारम्’ में यह कथा

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