Tuesday, 2 August 2016

विषकन्या योग का मतलव कुलनाशिनी कन्या

ज्योतिष शास्त्र में पूर्वजन्म कृत फलों का स्पष्ट विवरण शामिल किया गया है। जिस प्रकार किसी स्त्री की जन्मकुण्डली में गजकेसरी योग, उसके दाम्पत्य की खुशहाली तथा सामंजस्य वृद्धि के साथ उसकी समृद्ध स्थिति की गारंटी देता है, ठीक इसके विपरीत विषकन्या योग पति-पुत्रहीना, सम्पत्ति हीना, सुख की न्यूनता आदि की गारंटी देता है।भारतीय ज्योतिष के अनुसार कुंडली में विद्यमान शुभाशुभ योग वार, तिथि, नक्षत्रों व ग्रहों के संयोगों से बनते हैं।
जहां एक तरफ शुभ संयोग के कारण कुंडली में
हंस
, भद्र,
मालव्य
व गजकेशरी जैसे शुभ योग बनते हैं।

वहीं दूसरी ओर कुंडली में अशुभ संयोग के कारण
अल्पायु,
ज्वालामुखी,
वंशनाशक
व विषकन्या जैसे अति अशुभ योग भी बनते हैं।
जीवन में इन शुभाशुभ योगों का प्रभाव इनके नाम के अनुसार ही पड़ता है।
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योगश्लोक निम्न प्रकार है -
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भौजंगे कृत्तिकायां शतभिषजि सूर्यमंदारवारे,
भद्रासंज्ञके तिथौ या किल जननमियात्सा कुमारी विषाख्या।
लग्नस्थौ सौम्यखेटावशुभगगनगश्चैक आस्ते ततो द्वौ,
वैरिक्षेत्रानुयातौ यदि जनुषि तदा सा कुमारी विषाख्या।।"
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इसका यदि अन्वय (Prose Order) करे तो .....

"आश्लेषायां कृत्तिकायां तथा शततारकासु नक्षत्रेषु रविशनिभौमवारेषु भद्रासंज्ञके तिथौ द्वितीया सप्तमी द्वादशीसंज्ञक तिथौ या कन्या जननं इयात जन्म प्राप्नुयात् सा विषाख्या विषकन्या भवति।
अथ नक्षत्रवारतिथीनां प्रत्येक क्रमेण यो योगः यथा आश्लेषा रविर्द्वितीया प्रथमो योगः।।
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कृत्तिका शनिः सप्तमी द्वितीयो योगः।
शततारका भौमद्वादशी तृतीयो योगः।
एषु योगेषु जाता कन्या विशाख्येत्यर्थः।
द्वौ शुभग्रहो लग्नगौ एकः पापो दशमस्थः द्वौ पापौ शत्रुमास्थितौ यदि तत्र कन्या जायते तदा सा कन्या विष कन्या भवति।।
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इसका भावार्थ यह हुआ कि
आश्लेषा,
कृत्तिका,
शतभिषा नक्षत्रो में
रवि-
शनि-
मंगलवार
में द्वितीया,
सप्तमी
और द्वादशी भद्रासंज्ञक तिथियों में जिस कन्या का जन्म हो तो वह कन्या विषकन्या के नाम से प्रसिद्द होती है और वह सबका नाश करने वाली होती है.
प्रत्येक नक्षत्र, वार आदि के क्रम से जो जो योग होते है वे (१)- अश्लेषा, रवि-द्वितीया
(२)- कृत्तिका-शनि-सप्तमी
(३)- शतभिषा-मंगल-द्वादशी।
इन योगो में जो उत्पन्न हुई कन्या है वह विषकन्या है. यदि लग्न में दो शुभ ग्रह और दशम में एक पाप ग्रह , दो पाप ग्रह शत्रु भाव में होने पर जो कन्या उत्पन्न होती है वह भी विषकन्या होती है.  इनके इस कथन से प्रत्येक 100 कन्या जातको में 9 कन्यायें विषकन्या हो जायेगी।
आचार्य वराह एवं महर्षि पाराशर ने अपने कथनो में स्पष्ट कर दिया है. आचार्य वशिष्ठ के अनुसार -

"नंदा भद्रा नन्दिकाख्या जया च रिक्ता भद्रा पूर्ण संज्ञा मृतार्कात। या कन्यका जायते एषु काले साभिज्ञते कन्यकाविष प्रमाणम्।।"

अर्थात शुक्ल प्रतिपदा से लेकर अमावश्या तक क्रमशः रविवार,
सोमवार से
लेकर शनिवार तक पड़ता जाय और उसी क्रम से अश्लेषा,
कृत्तिका,
शतभिषा,
आर्द्रा एवं
श्रवण नक्षत्र पड़े तो ऐसे तीनो योग एकत्र होने पर जिसका जन्म हो वह कन्या विषकन्या कहलाती है. इस प्रकार प्रत्येक 1200485वीं कन्या विषकन्या होगी
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स्त्री की कुण्डली में विषकन्या योग के सृजन के लिए निम्नलिखित छः परिस्थितियां ज़िम्मेदार है:
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1.अश्लेषा तथा शतभिषा नक्षत्र, दिन रविवार, द्वितीया तिथि
2.कृतिका अथवा विशाख़ा अथवा शतभिषा नक्षत्र दिन रविवार, द्वादशी तिथि
3.अश्लेषा अथवा विशाखा अथवा शतभिषा नक्षत्र, दिन मंगलवार, सप्तमी तिथि
4.अश्लेषा नक्षत्र, दिन शनिवार, द्वितीया तिथि
5.शतभिषा नक्षत्र, दिन मंगलवार, द्वादशी तिथि
6.कृतिका नक्षत्र, दिन शनिवार, सप्तमी या द्वादशी तिथि

इसके अलावा यदि स्त्री की कुण्डली में सप्तम स्थान में पापी व क्रूर ग्रहों की बैठकी हो साथ ही क्रूर अथवा पापी ग्रहों की उन पर दृष्टि भी पड़ रही हो, तो ऐसे में विषकन्या योग जैसा प्रभाव ही दिखाई देता है

वस्तुतः

विषकन्या योग इसे नाम ही इसलिए दिया गया कि ऐसी कन्या के सम्पर्क में आने वाले लोगों को दुर्भाग्य समेट लेता है। उसके पिता-माता-भाई को कष्ट सहित उसके ससुराल वालों को समस्याएं घेर लेती हैं। जब तक ऐसी कन्या का विवाह नहीं हो जाता तब तक इस योग का असर कम रहता है किंतु जैसे ही वह विवाह बंधन में बंधती है, तो सर्वप्रथम वह दाम्पत्य में खटपट की शिकार होती है, तत्पश्चात पति और फिर संतान से हाथ धोती है। इसके साथ ही इस कुयोग का एक परिणाम अप्रत्याशित लांक्षन के रूप में भी सामने आता है। यानि ऐसी स्त्री को समय-समय पर कलंक का भी सामना करना पड़ता है।
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विषकन्या योग खंडन:

यदि ऐसी जातिका जिसकी कुण्डली में विषयोग निर्मित हुआ हो, उसके जन्मचक्र में सप्तम स्थान को शुभ ग्रह देख रहे हों अथवा सप्तमेश सप्तम भाव में ही बैठा हो तो इस कुयोग का प्रभाव सीमित हो जाता है। इसके अलावा यदि जातिका की कुण्डली में विषकन्या योग के साथ ही गजकेसरी योग भी बन गया हो तो ऐसी दशा में विषकन्या योग का प्रभाव उसकी जिंदगी को प्रभावित नहीं करेगा।
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विषकन्या योग शोधन रीति:

जब भी कुण्डली में ऐसा योग दृष्टिगत हो तो सर्वप्रथम उस कन्या से वटसावित्री व्रत रखवाएं, विवाह पूर्व कुम्भ, श्रीविष्णु या फिर पीपल/समी/बेर वृक्ष के साथ विवाह सम्पन्न करवाएं। इसके साथ सर्वकल्याणकारी विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ आजीवन करवाएं। वृहस्पति देव की निष्ठापूर्वक आराधना भी कल्याणकारी सिद्ध होती है। ध्यान रहे कि तंत्रशास्त्र की गोपनीय रीति से विषकन्या योग का पूर्ण परिमार्जन संभव है किंतु ये विधा सामान्य साधक के लिए अनुमन्य नहीं है

ज्योतिष् मे विषकन्या का अर्थ है की वे गुस्सैल तथा बुरे वार्ताव वाली होंगी और उनके पति उन्हें पसंद नहीं करेंगे ! और इनके पति की मृत्यु कम आयु में अवश्य होगी और ये बार बार विवाह करेंगी !

ज्योतिषीय योग (इसे पुरुषों पर भी लागू कर सकते हैं )

- एक औरत जो भद्रा तिथि में रविवार मंगलवार या शनिवार को कृतिका, असलेषा या षटशिभा पैदा हुई हो "विषकन्या" होती हैं ! ऐसी स्थिति मे पति की मृत्यु हो जाती है और महिला बार बार काई बार विवाह करती है !

-द्वादशी के रविवार तथा षटशीभा नक्षत्र या सप्तमी के मंगलवार को विशाखा नक्षत्र में तथा द्वितीया को रविवार पड़े तथा आशलेषा लक्षत्र मे पैदा हुई महिला "विषकन्या" होगी ! यह महिला भी पति की मृत्यु के बाद काई बार विवाह करेगी !

- जस्ब सूर्य और शनि लग्न मे हो और चंद्रमा पाँचवें या नवें घर मे हो तब भी विषकन्या योग बनता है !
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वैधव्य योग:

स्त्री के जीवन में वैधव्य जीवन काटना बड़ा ही मुश्किल हो जाते है। यदि कम उम्र में पति की मृत्यु हो जाए और स्त्री तो दो-तीन बच्चे हों, तो उसका जीवन बड़ा ही कष्टदायक होता है। यदि इन वैधव्य ग्रहों के संबंध बनने पर संतान न हो, तो उसके जीवन में ऐसा अभिशाप जल्द देखने को नहीं मिलेगा। वैधव्य योग के लिए सप्तमभाव स्त्री की कुंडली में पति का व पति की आयु का भाव लग्न से द्वितीय होता है। यदि ये भाव व ग्रह दूषित हो तो उपाय करना ही श्रेष्ठ होगा। यदि विवाह हो गया है तब भी उपाय कर वैधव्य योग से बचा जा सकता है।

1. जिस कन्या की जन्म कुंडली में सप्तम भाव में मंगल पाप ग्रहों से युक्त हो तथा पापग्रह सप्तम भाव में स्थित मंगल को देखते हों तो ऐसी कन्या युवावस्था में पहुँचने से पूर्व ही बाल विधवा हो जाती है!
2. चन्द्रमा से सातवें या आठवें भाव में पापग्रह हो तो मेष या वृश्चिक राशिगत राहु और आठवें या बारहवें स्थान में तो ऐसी कन्या निश्चय ही विधवा होती हैं! यह योग वृष, कन्या एवं धनु लग्नों में लागु होती है!
3. मकर लग्न हो तो सप्तम भाव में कर्क राशिगत सूर्य मंगल के साथ हो तथा चन्द्रमा पाप पीड़ित हो तो यह योग बनता है! ऐसी स्त्री विवाह के सात – आठ वर्ष के अन्दर ही विधवा हो जाती हैं!
4. लग्न एवं सप्तम दोनों स्थानों में पापग्रह हो, तो विवाह के सातवें वर्ष पति का देहांत हो जाता हैं!
5. सप्तम भाव में पापग्रह हों तथा चन्द्रमा छठे या सातवें भाव पर हो तो विवाह के आठवें वर्ष स्त्री विधवा हो जाती हैं!
6. यदि अष्टमेश सप्तम भाव में हो, सप्तमेश को पापग्रह देखते हों एवं सप्तम भाव पाप पीड़ित हो तो नव विवाहिता स्त्री शीघ्र विधवा हो जाती है!
7. षष्टम व अष्टम भाव के स्वामी यदि षष्टम या व्यय भाव में पापग्रहों के सात हो तो नव विवाहिता शीघ्र ही वैधव्य को प्राप्त होती हैं!
8, जन्म लग्न से सप्तम, अष्टम स्थानों के स्वामी पाप पीड़ित होकर छठे या बाहरवें भाव में चले जाये तो निसंदेह वैधव्य योग होता हैं!
9. पापग्रह से दृष्ट पापग्रह यदि अष्टम भाव में हो और शेष ग्रह चाहें उच्च के ही क्यों न हो, ऐसी स्त्री विधवा अवश्य होती है!
==============================================परिहार ==========

वैधव्य योग के परिहार: वट सावित्री कथा, वट वृक्ष के सात विवाह, वटवृक्ष की लकड़ी से बनी सुवर्ण युक्त विष्णु प्रतिमा अथवा कुम्भ(घट) के सात पहले विवाह करके ही अन्य के सात विवाह करने से वैधव्य दोष का परिहार हो जाता हैं!

पुरुषों के लिए अर्क विवाह: जिस प्रकार विषकन्या योग स्त्री को होता है उसी प्रकार पुरुषों की कुंडली में भी मृतपत्नी योग, विधुर योग या विश्योग होता है! सप्तम भाव दूषित होने पर या जिस पुरुष की स्त्री जीवित नहीं रहती, दो-तीन विवाह होने पर भी जिसे स्त्रीसुख नहीं मिलता, ऐसे पुरुष को अर्क के सात विवाह कर तत्पश्चात अन्य कन्या के साथ विवाह कराया जाता है! घट विवाह की भांति अर्का विवाह भी शास्त्रसम्मत सप्तमभाव जन्यदोष व् अरिष्ट निवारण का उत्तमोत्तम परिहार है!

लोक कथाओं एवं वैदिक ग्रंथों के अनुसार प्राचीन युग में विषकन्या का प्रयोग राजा अपने शत्रु का छलपूर्वक अंत करने के लिए किया करते थे। इसकी प्रक्रिया में किसी रूपवती बालिका को बचपन से ही विष की अल्प मात्रा देकर पाला जाता था और विषैले वृक्ष तथा विषैले प्राणियों के संपर्क से उसको अभ्यस्त किया जाता था। इसके अतिरिक्त उसको संगीत और नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी, एवं सब प्रकार की छल विधियाँ सिखाई जाती थीं। अवसर आने पर इस विषकन्या को युक्ति और छल के साथ शत्रु के पास भेज दिया जाता था। इसका श्वास तो विषमय होता ही था, परंतु यह मुख में भी विष रखती थी, जिससे संभोग करनेवाला पुरुष रोगी होकर मर जाता था।
पंडित =भुबनेश्वर
कस्तूरवानगर पर्णकुटी गुना
0993946810

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