ज्योतिष समाधान

Saturday, 30 August 2025

वायु धारणी पूर्णिमा

गुरुदेव भुवनेश्वर पर्णकुटी वाले ज्योतिषाचार्य बताते हैं कि आषाढ़ पूर्णिमा की शुरुआत 10 जुलाई रात 02 बजकर 06 मिनट पर हो रही है और समाप्ति अगले दिन यानी 11 जुलाई रात 02 बजकर 15 मिनट पर हो रही है. उदयातिथि के अनुसार 10 जुलाई को ही गुरु पूर्णिमा मनाई जाएगी. 

इस बार गुरु पूर्णिमा और खास होने वाली है, क्युकि इस दिन इंद्र योग बन रहा है. इंद्र योग सुबह से लेकर रात 9 बजकर 38 के लगभग तक रहेगा.

साल में कई पूर्णिमा आती हैं. उन्हीं पूर्णिमा में से आषाढ़ मास की पूर्णिमा का विशेष महत्व है. इस दिन गुरु के महत्व का विशेष रूप से वर्णन किया गया है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, गुरु पूर्णिमा पर गुरुजनों का आशीर्वाद प्राप्त करने से जीवन में सुख एवं समृद्धि की प्राप्ति होती है. गुरु पूर्णिमा के दिन गुरुपूजन का विधान है | शिष्य अपने गुरु की प्रत्यक्ष या उनके चरण पादुका की चन्दन , धूप , दीप , नैवेद्य द्वारा पूजा करते हैं | इस दिन अपने गुरु द्वारा प्रदत मंत्र का जप करने का विधान है |

इसके साथ इस दिन को व्यास पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसी दिन महर्षि वेदव्यास जी का जन्म हुआ था, जिन्होंने महाकाव्य महाभारत की रचना की थी इस दिन से चार महीने तक परिव्राजक साधु-सन्त एक ही स्थान पर रहकर ज्ञान की गंगा बहाते हैं। शास्त्र के अनुसार, इस तिथि पर परमेश्वर शिव ने दक्षिणामूर्ति का रूप धारण किया और ब्रह्मा के चार मानसपुत्रों को वेदों का अंतिम ज्ञान प्रदान किया।

 इस वार गुरु पूर्णिमा के दिन  इंद्र नाम का शुभ योग बन रहा है. इस योग में आप जो भी शुभ कार्य करते हैं. वह सफल सिद्ध होता है.



पूर्णिमाको सूर्यास्तके समय गणेशादिका पूजन करके सुदीर्घ शंकुके अग्रभागमें मन्दवायुके संचालनमात्रसे संचालित होनेवाले तूलिकापुष्प (रूईके फोये) को लटकाकर सीधा खड़ा करे और जिस दिशाकी हवा हो उसके अनुसार शुभाशुभ निश्चित करे । अक्षय-तृतीयाके अनुसार इस पूर्णिमाको भी कलशस्थापन करके अनेक प्रकारकी वनौषधि, धान्य, प्रख्यात देश और उनके अधिपति एवं विख्यात व्यक्तियोंके नाम पृथक् पृथक् तौलकर कपड़ेकी अलग-अलग पोटलियोंमें बाँधकर कलशके समीप स्थापन करते हैं और दूसरे दिन उसी प्रकार फिर तौलकर उनके न्यून, सम और अधिक होनेपर अन्नादिके मँहगे, सस्ते एवं देशविशेष और व्यक्तियोंके ह्रास यथावत् और वृद्धि होनेका ज्ञान प्राप्त करते हैं।

(१६) व्यासपूजा पूर्णिमा

चंद्र ग्रहण और श्राद्ध पक्ष 2025

 7 सितंबर से शुरू होकर 21 सितंबर तक चलेगा.पितृ पक्ष ओर पितृ पक्ष के प्रारंभ में चंद्र ग्रहण लगने वाला है ग्रहण 07सितंबर को रात 9:58 मिनट से शुरू होगा, जो कि 08सितंबर रात 1:26 तक चलेगा। ग्रहण 3 घंटे 28 मिनट और 2 सेकेंड तक प्रभावी रहेगा। खग्रास चंद्र ग्रहण कुंभ राशि और भाद्रपद नक्षत्र पर लगेगा। गुरुदेव भुवनेश्वर जी पर्णकुटी वालो के अनुसार
ग्रहण स्पर्श.. रात्रि ०9_59
ग्रहण का मध्य.. रात्रि 11_43
ग्रहण मोक्ष का समय .. रात्रि ०1_29 
ग्रहण का पर्वकाल>> ०3 घंटा 30 मिनट 
ग्रहण वेध से ग्रहण मोक्ष समय तक शास्त्रीय मतानुसार.. मूर्ति स्पर्श,, शयन,, भोजन आदि नहीं करना चाहिए..!!
बालक वृद्ध एवं रोगी को एक प्रहर पूर्व कर लेना चाहिए!!
( वेध प्रारंभ होने से पहले अपने देवकार्य और पितृकार्य सम्पादित कर लेना चाहिए)
चंद्र ग्रहण के  9 घंटे पहले से सूतक काल शुरू हो जाएगा है. क्योंकि सूतक काल को लेकर सनातन संस्कृति में स्पष्ट रूप से तीन तरह के सूतक बताए गए हैं. इसमें जन्म, मृत्यु और ग्रहण सूतक शामिल है. जन्म-मृत्यु से संबंधित सूतक मानव जीवन को प्रभावित करता है. सूर्य और चंद्र ग्रहण के दौरान लगने वाला सूतक सीधे ईश्वर को प्रभावित करता है. यह सूतक दो तरह का होता है,  जो मानव नहीं देवताओं पर लगता है. सूतक का नियम है सूर्य ग्रहण से 12 घंटे पहले और चंद्र ग्रहण से 9 घंटे पहले मतलब 07 सितंबर को दोपहर 12:58 बजे से सूतक काल प्रारंभ हो जाएगा है. सूतक काल में मंदिरों को बंद कर दिया जाता है और पूजा-पाठ इत्यादि रोक दी जाती है. क्योंकि यह सूतक मुख्य रूप से मानव जीवन को प्रभावित करने वाला सूतक है, सूतक काल में देव स्पर्श करने मात्र से ही देवताओं की प्रतिमाओं का क्षरण तो होता है. साथ ही साथ देव उस स्थान को छोड़कर चले भी जाते हैं गुरुदेव भुवनेश्वर जी पर्णकुटी वालो के अनुसार
ऐसे में 7 सितंबर को दोपहर 12 बजकर 58 मिनट से पहले तक का ही समय श्राद्ध और तर्पण करना उचित रहेगा. अन्त्यकर्म श्राद्ध प्रकाश ग्रंथ के अनुसार, श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान के लिए सुबह 11:30 से दोपहर 12 के बीच का समय सबसे उत्तम होता है। इसे कुतप काल कहते हैं। इस समय किए गए श्राद्ध, पिंडदान से पितरों का आत्मा को शांति मिलती है। यह चंद्र ग्रहण 2 बड़े दोषों से मुक्ति दिला सकता है, ज्योतिष के अनुसार, पितृदोष और कालसर्प दोष से निजात पाने के लिए ये घड़ी बहुत अच्छी है।मान्यता है कि इस दिन पूजा-पाठ, मंत्र जाप, तर्पण और दान-पुण्य करने से पितरों की आत्मा की शांति के साथ-साथ पितृदोष और कालसर्प जैसे दोष से भी मुक्ति मिलती है।चंद्र ग्रहण में मंत्र जाप करना भी बेहद शुभ होता है, मंत्रों का जाप करने से ग्रहण के नकारात्मक प्रभाव कम होते हैं।इस दिन हनुमान जी की आराधना करना, हनुमान चालीसा का पाठ करना और उनके मंत्रों का जाप करना भी विशेष लाभदायक होता है। ग्रहण समाप्त होने के बाद दान-पुण्य करना बेहद फलदायी माना गया है, गरीबों और जरूरतमंदों को भोजन, कपड़े या अनाज दान करने से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है व जातक को सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
जिन_ जिन राशि वालों को अनिष्ट,,अशुभ,, एवं मध्यम लिखा है उनको ग्रहण नहीं देखना चाहिए!अनिष्ट शांति के लिए हवन,, जप,, पाठ, गोदान,, तुलादान व अन्न वस्त्रादि का दान  सोने या चांदी का नाग (सर्प) बनवाकर  दान करना चाहिए!! गुरुदेव भुवनेश्वर जी ने बताया कि ग्रहण के समय कब क्या करे धर्म शास्त्र अनुसार
 "ग्रहस्पर्शकाले स्नानं मध्ये होमः सुरार्चनं श्राद्धम् च मुच्छ "स्पर्शे स्नानं भवेद्दोमो पतियोर्मुच्यमानयोः। 
ग्रहण के स्पर्शकाल में स्नान, मध्यकाल में होम (अग्नि में आहुति देना) और समाप्ति के समय देवताओं का पूजन करना चाहिए, जबकि दान ग्रहण समाप्त होने पर किया जाता है। यह धार्मिक अनुष्ठान ग्रहण के दौरान किए जाने वाले विभिन्न कर्मों का क्रम बताता है, जिसमें स्नान पहले, फिर होम और अंत में देवताओं का पूजन शामिल है। क्योंकि योग वसिष्ठ में लिखा है- पुत्रजन्मनि यज्ञे च तथा सक्रमणे रवेः। रहोश्च दर्शने कार्य प्रशस्तं नान्यथा निशि।। यानी संतान के जन्म पर, यज्ञ, सूर्य और चंद्र संक्रांति यदि रात में भी हो तो स्नान करके शुद्ध होना चाहिए। इसकी वजह यह है कि इन सभी घटनाओं के बाद शरीर अपवित्र हो जाता है और इसे फिर से देव पितृ कार्य के लिए शुद्ध करना जरूरी होता है।
ग्रहण से पूर्व भी स्नान करना जरूरी कहा गया है क्योंकि यह साधना का समय भी होता है। ग्रहण के दौरान चन्द्र देव के मंत्रों का जप, गुरु मंत्र का जप, नारायण कवच का जप एवं विभिन्न ग्रहों के मंत्रों का जप करना शुभ और प्रभावशाली होता है 
अनिष्ट राशि 
शतभिषा नक्षत्र कुंभ राशि 
अशुभ राशि
 मिथुन,,कर्क,,सिंह तुला,, वृश्चिक,, मकर,,मीन राशि 
शुभ राशि
 मेष वृष कन्या धनु राशि वालों को शुभ रहेगा।

क्या न करें _______

भगवान का पूजा पाठ न करें. उनकी तस्‍वीरों, मूर्तियों को हाथ न लगाएं भोजन न पकाएं, ग्रहण के कारण भोजन अशुद्ध हो सकता है.कोई भी नया काम करने से बचें.सूतक लगने के बाद ग्रहण खत्‍म होने तक भोजन खाने से परहेज करें. प्रेगनेंट महिलाएं, बच्‍चे, बीमार और बुजुर्गों के लिए ये नियम लागू नहीं है.सूतक लगने के बाद गर्भवती महिलाएं घर से बाहर न निकलें.प्रेगनेंट महिलाएं सिलाई-कढ़ाई का काम न करें. सूतक लगने के बाद ग्रहण समाप्‍त होने तक किसी धारदार वस्तु जैसे कैंची, चाकू, ब्लेड आदि का प्रयोग न करें. इससे गर्भस्‍थ शिशु के अंग में विकार आ सकता है

गुरुदेव भुवनेश्वर जी महाराज 
पर्णकुटी आश्रम 
गुना 
9893946810

ग्रहण फलादेश________
. इस बार का चन्द्रमा कुम्भ राशि में बैठकर विष योग का निर्माण करते हुए राहु के साथ युति कर रहा है. जिसके फलस्वरूप बड़ी शक्तियों के टकराव, लोगों के संबंधों में तनाव और मानसिक पीड़ा देखने को मिलेगी. चंद्रग्रहण के दुष्प्रभाव के कारण मानव और जीवों में किसी तरह की संक्रामक बीमारी और साथ ही साथ जल से संबंधित समस्याएं हो सकती हैं. ग्रहण का भारतीय राजनीति पर भी गहरा प्रभाव देखने को मिलेगा. आगामी चुनावों में यह चंद्रग्रहण सत्ता परिवर्तन का कारण भी बन सकता है. 

Thursday, 7 August 2025

श्रावण मास की पूर्णिमा और श्रवण नक्षत्र दोनों साथ पड़ेंगे. सौभाग्य योग और सर्वार्थ सिद्धि योग इस वर्ष रक्षाबंधन का पर्व भद्रा से मुक्त है.

गुरुदेव भुवनेश्वर जी पर्णकुटी वालो के अनुसार इस साल श्रावण शुक्ल चतुर्दशी, शुक्रवार यानि दिनांक 08 अगस्त 2025 को पूर्णिमा  02:12 बजे प्रारंभ हो जाएगी और दूसरे दिन 09 अगस्त 2025, शनिवार को दोपहर 01:24 बजे तक रहेगी. 

इसी तरह श्रवण नक्षत्र भी दिनांक 08 अगस्त 2025, शुक्रवार को  दोपहर 02:27 बजे से प्रारंभ होकर दूसरे दिन 09 अगस्त 2025, शनिवार को दिन में 02:30 मिनट तक रहेगा. 

ऐसे में इस बार यह उत्तम संयोग बन रहा है कि श्रावण मास की पूर्णिमा और श्रवण नक्षत्र दोनों साथ पड़ेंगे. इस वर्ष रक्षाबंधन का पर्व भद्रा से मुक्त है.

 रक्षा बन्धन पर राखी बाँधने का शुभ मुहूर्त के बारे में गुरुदेव ने बताया कि वैसे तो  यह पर्व पूरे दिन मनाया जाना चाहिए फिर भी चौघड़िया मुहूर्त के अनुसार प्रातः 07:31 से प्रातः 09:09 तक शुभ का और मध्यान्ह 12:00 बजे  अभिजित मुहूर्त के साथ ही क्रमशः चर,लाभ, अमृत, का चौघड़िया सायंकाल 05:21 तक रहेगा 

मुख्य रूप से यह त्यौहार यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये  अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। 
गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत।

इस त्यौहार को श्रावणी पर्व भी कहते हैं। 
 ब्राह्मणों का यह सर्वोपरि त्यौहार माना जाता है। वृत्तिवान् ब्राह्मण अपने यजमानों को यज्ञोपवीत तथा राखी देकर दक्षिणा लेते हैं।भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नज़र आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन, शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है। गुरुदेव भुवनेश्वर पर्णकुटी वालो के अनुसार रक्षाबंधन पर्व का सीधा संदेश है कि जिसके प्रति रक्षा की भावना हो आप उसे राखी बांध सकती हैं. शास्त्रों के अनुसार जो व्यक्ति रक्षित होगा, वह हमारी भी रक्षा करेगा. हालांकि रक्षाबंधन के पर्व के दिन बहन के द्वारा अपने भाई के हाथ में रक्षा पोटली बांधने की परंपरा रही है. वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। उसमें
(१) दूर्वा
(२) अक्षत (साबूत अरुणाक्षत)
(३) केसर या हल्दी
(४) शुद्ध चंदन
(५) सरसों के साबूत दाने
इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी  आदि बांधकर भाई की कलाई में बांधा जाता रहा है. यदि आपके परिवार में कोई भी भाई नहीं है तो आपको भगवान श्रीकृष्ण को राखी बांधनी चाहिए. सनातन परंपरा में भी पहली राखी अपने आराध्य देवता को अर्पित करने का विधान बताया गया है. ऐसे में आप यदि आप पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ बांके बिहारी या फिर अपने घर में रखे हुए गणेश, शिव ,लड्डू, गोपाल को राखी बांध सकते हैं. ऐसा करने पर पूरे साल वे आपकी रक्षा करते हुए सुख-सौभाग्य प्रदान करेंगे. 

राखी बांधने का सबसे पहला अधिकार ईश्वर को माना गया है. कई बहनें सबसे पहले भगवान कृष्ण, शिव या गणेश को राखी बांधती हैं और फिर अपने भाई को. 

यदि किसी स्त्री का भाई न हो या वह बहनों के साथ ही पली-बढ़ी हो, तो वह अपनी बड़ी बहन को राखी बांध सकती है. यह बहनत्व, प्रेम और साथ निभाने का प्रतीक होता है.

कई स्थानों पर महिलाएं साधु-संतों या मंदिर के पुजारियों को राखी बांधती हैं. 

जिन लोगों की कोई बहन नहीं होती है, उनके लिए भी रक्षासूत्र बांधने का उपाय शास्त्रों में बताया गया है. यदि आपकी कोई बहन नहीं है तो आप अपने गुरु अथवा किसी मंदिर के पुजारी से 'ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः. तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल' मंत्र का उच्चारण करते हुए रक्षासूत्र बंधवा सकते हैं. 

पुरोहित और यजमान (जो पूजा करवाता है) का रिश्ता बहुत गहरा होता है। पुराने समय में रक्षाबंधन पर पंडित अपने यजमान को राखी बांधते थे और उनके कल्याण की कामना करते थे। यह परंपरा आज भी जिंदा रहनी चाहिए।रक्षाबंधन के अवसर पर बहनें भारतीय सेना, पुलिस और अर्धसैनिक बलों के जवानों को राखी भेजती हैं या स्वयं जाकर बांधती हैं. यह समाज की रक्षा करने वाले रक्षक के प्रति श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक है. पर्यावरण संरक्षण की भावना को बढ़ावा देने के लिए कई लोग वृक्षों को राखी बांधते हैं. यह संकल्प होता है कि हम पेड़ों की रक्षा करेंगे और पर्यावरण को सुरक्षित रखेंगे.



रक्षा बंधन हमेशा से भाई-बहन के रिश्ते का का पर्व रहा है। पुराने समय में भी इसको लेकर यही जिक्र मिलता है। साथ ही हर पर्व-त्योहार को मनाने के धार्मिक नियम होते हैं जिसको उसी अनुरूप मनाया जाना चाहिए। इस आधार पर कहा जा सकता है कि पत्नी पति को राखी नहीं बांध सकती है। हां, वो रक्षा के लिए पति की कलाई पर कलावा जैसे पवित्र धागा को जरूर बांध सकती है।


आरती गणेश जी की

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,
नित नित शीश झुकाऊँ,
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,,,

तुम एक दन्त गणराया,
मैं शरण तिहारी आया।
अब राखो लाज हमारी ,
मेरे गणराज बिहारी ।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ ,,,,,,

तुम ऋद्धि सिद्धि के दाता ,
भक्तो के भाग्य विधाता ।
मैं आया शरण तिहारी,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,

तुम माँ गोरा घर जाये ,
और शिव के मन को भाये।
अब मेरे घर भी आओ,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,


कोई छप्पन भोग लगाये,
कोई मोदक भोग जिमाये.
मैं तो दूर्वा ले आया,
जीमो गणराज बिहारी,
मैं आरती तेरी गाऊँ मेरे गणराज बिहारी

Wednesday, 6 August 2025

आरती गणेश जी की

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,

मैं आरती तेरी गाऊँ,
मेरे गणराज विहारी,
नित नित शीश झुकाऊँ,
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,,,

तुम एक दन्त गणराया,
मैं शरण तिहारी आया।
अब राखो लाज हमारी ,
मेरे गणराज बिहारी ।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ ,,,,,,

तुम ऋद्धि सिद्धि के दाता ,
भक्तो के भाग्य विधाता ।
मैं आया शरण तिहारी,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,,,

तुम माँ गोरा घर जाये ,
और शिव के मन को भाये।
अब मेरे घर भी आओ,
मेरे गणराज बिहारी।।।
मैं आरती तेरी गाऊँ,,,,,


कोई छप्पन भोग लगाये,
कोई मोदक भोग जिमाये.
मैं तो दूर्वा ले आया,
जीमो गणराज बिहारी,
मैं आरती तेरी गाऊँ मेरे गणराज बिहारी

Monday, 4 August 2025

रक्षा सूत्र कैसे बनाए

#वैदिक_रक्षासूत्र____|| रक्षाबंधन.रक्षासूत्र.राखी विशेष!!
रक्षासूत्र मात्र एक धागा नहीं बल्कि शुभ भावनाओं व शुभ संकल्पों का पुलिंदा है। यही सूत्र जब वैदिक रीति से बनाया जाता है और भगवन्नाम व भगवद्भाव सहित शुभ संकल्प करके बाँधा जाता है तो इसका सामर्थ्य असीम हो जाता है।
#कैसे_बनायें_वैदिक_राखी
वैदिक राखी बनाने के लिए एक छोटा-सा ऊनी, सूती या रेशमी पीले कपड़े का टुकड़ा लें। उसमें
(१) दूर्वा
(२) अक्षत (साबूत अरुणाक्षत)
(३) केसर या हल्दी
(४) शुद्ध चंदन
(५) सरसों के साबूत दाने
इन पाँच चीजों को मिलाकर कपड़े में बाँधकर सिलाई कर दें । फिर कलावे से जोड़कर राखी का आकार दें। सामर्थ्य हो तो उपरोक्त पाँच वस्तुओं के साथ स्वर्ण भी डाल सकते हैं।
कुछ विशिष्ठ पवित्र पदार्थ का प्रयोग करने के लिये अपने आचार्य या पुरोहित से सम्पर्क कर समझे||
#वैदिक_राखी_का_महत्त्व
वैदिक राखी में डाली जानेवाली वस्तुएँ हमारे जीवन को उन्नति की ओर ले जानेवाले संकल्पों को पोषित करती हैं।
(१) #दूर्वा
जैसे दूर्वा का एक अंकुर जमीन में लगाने पर वह हजारों की संख्या में फैल जाती है, वैसे ही ‘हमारे भाई या हितैषी के जीवन में भी सद्गुण फैलते जायें, बढ़ते जायें...’ इस भावना का द्योतक है दूर्वा । दूर्वा गणेशजी की प्रिय है अर्थात् हम जिनको राखी बाँध रहे हैं उनके जीवन में आनेवाले विघ्नों का नाश हो जाय ।
(२) #अरुणाक्षत (साबूत लालचावल)
हमारी भक्ति और श्रद्धा भगवान के, गुरु के चरणों में अक्षत हो, अखंड और अटूट हो, कभी क्षत-विक्षत न हो - यह अक्षत का संकेत है । अक्षत पूर्णता की भावना के प्रतीक हैं । जो कुछ अर्पित किया जाय, पूरी भावना के साथ किया जाय ।
(३) #केसर या #हल्दी
केसरकेसर की प्रकृति तेज होती है अर्थात् हम जिनको यह रक्षासूत्र बाँध रहे हैं उनका जीवन तेजस्वी हो । उनका आध्यात्मिक तेज, भक्ति और ज्ञान का तेज बढ़ता जाय । केसर की जगह पिसी हल्दी का भी प्रयोग कर सकते हैं । हल्दी पवित्रता व शुभ का प्रतीक है । यह नजरदोष व नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करती है तथा उत्तम स्वास्थ्य व सम्पन्नता लाती है 
(४) #चंदन
चंदनचंदन दूसरों को शीतलता और सुगंध देता है । यह इस भावना का द्योतक है कि जिनको हम राखी बाँध रहे हैं, उनके जीवन में सदैव शीतलता बनी रहे, कभी तनाव न हो । उनके द्वारा दूसरों को पवित्रता, सज्जनता व संयम आदि की सुगंध मिलती रहे । उनकी सेवा-सुवास दूर तक फैले ।
(५) #सरसों_पीत
सरसोंसरसों तीक्ष्ण होती है । इसी प्रकार हम अपने दुर्गुणों का विनाश करने में, समाज-द्रोहियों को सबक सिखाने में तीक्ष्ण बनें ।
अतः यह वैदिक रक्षासूत्र वैदिक संकल्पों से परिपूर्ण होकर सर्व-मंगलकारी है। 

रक्षासूत्र बाँधते समय यह श्लोक बोला जाता है :-
#येन_बद्धो_बली_राजा_दानवेन्द्रो_महाबलः ।
#तेन_त्वाम_नुबध्नामि_रक्षे_मा_चल_मा_चल ।।

यहां वैदिक मन्त्र का भी उपयोग किया जा सकता है||
यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्यं, शतानीकाय सुमनस्यमाना:। तन्मSआबध्नामि शतशारदाय, आयुष्मांजरदृष्टिर्यथासम्।।

इस मंत्रोच्चारण व शुभ संकल्प सहित वैदिक राखी बहन अपने भाई को, माँ अपने बेटे को, दादी अपने पोते को बाँध सकती है । यही नहीं, शिष्य भी यदि इस वैदिक राखी को अपने सद्गुरु को प्रेमसहित अर्पण करता है तो उसकी सब अमंगलों से रक्षा होती है  भक्ति बढ़ती है।
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 यज्ञोपवीतः आभूषणं च,शिखा धर्मस्तम्भयः ।
जयतु ब्राह्मणेऽनन्तशक्तये ----------
-------/आपको इसे पढ़कर निर्माण विधि का ज्ञान हो गया ,लेकिन इसमें रक्षा शक्ति का संचार कैसे करेंगे उन मन्त्रो से  इसे अभिमंत्रित करें जिससे आप इस रक्षासूत्र से स्वयं की एव जिसे यह बांधे उसकी भी रक्षा यह करे।
इसके लिए आचार्य ,पुरोहित से मार्गदर्शन अवश्य लीजिये।।
 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
रक्षा सूत्रों के विभिन्न प्रकार
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विप्र रक्षा सूत्र- रक्षाबंधन के दिन किसी तीर्थ अथवा जलाशय में जाकर वैदिक अनुष्ठान करने के बाद सिद्ध रक्षा सूत्र को विद्वान पुरोहित ब्राह्मण द्वारा स्वस्तिवाचन करते हुए यजमान के दाहिने हाथ मे बांधना शास्त्रों में सर्वोच्च रक्षा सूत्र माना गया है।

गुरु रक्षा सूत्र- सर्वसामर्थ्यवान गुरु अपने शिष्य के कल्याण के लिए इसे बांधते है।

मातृ-पितृ रक्षा सूत्र- अपनी संतान की रक्षा के लिए माता पिता द्वारा बांधा गया रक्षा सूत्र शास्त्रों में  "करंडक" कहा जाता है।

भातृ रक्षा सूत्र- अपने से बड़े या छोटे भैया को समस्त विघ्नों से रक्षा के लिए बांधी जाती है देवता भी एक दूसरे को इसी प्रकार रक्षा सूत्र बांध कर विजय पाते है।

स्वसृ-रक्षासूत्र- पुरोहित अथवा वेदपाठी ब्राह्मण द्वारा रक्षा सूत्र बांधने के बाद बहिन का पूरी श्रद्धा से भाई की दाहिनी कलाई पर समस्त कष्ट से रक्षा के लिए रक्षा सूत्र बांधती है। भविष्य पुराण में भी इसकी महिमा बताई गई है। इससे भाई दीर्घायु होता है एवं धन-धान्य सम्पन्न बनता है।

गौ रक्षा सूत्र- अगस्त संहिता अनुसार गौ माता को राखी बांधने से भाई के रोग शोक दूर होते है। यह विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है।

वृक्ष रक्षा सूत्र - यदि कन्या को कोई भाई ना हो तो उसे वट, पीपल, गूलर के वृक्ष को रक्षा सूत्र बांधना चाहिए पुराणों में इसका विशेष उल्लेख है।।


 
विशेष>>> यदि सूत्र अभिमंत्रित नहीं है तो उसकी उपयोगिता मात्र एक सूत्र की रहेगी उस सूत्र से किसी रक्षा या सुरक्षा की कल्पना नहीं करें.. बाजार से निर्मित सूत्र राखी आदि खरीदने से बचना चाहिए..!!


Sunday, 3 August 2025

#श्रावणी_उपाकर्म-> (साभार 🚩 #सन्मार्ग )
>>> उपाकर्म का अर्थ है प्रारंभ करना। उपाकरण का अर्थ है आरंभ करने के लिए निमंत्रण या निकट लाना। यह वेदों के अध्ययन के लिए विद्यार्थियों का गुरु के पास एकत्रित होने का काल है । इसके आयोजन काल के बारे में धर्मगंथों में लिखा गया है कि - जब वनस्पतियां उत्पन्न होती हैं, श्रावण मास के श्रवण व चंद्र के मिलन (पूर्णिमा) या हस्त नक्षत्र में श्रावण पंचमी को उपाकर्म होता है। इस अध्ययन सत्र का समापन, उत्सर्जन या उत्सर्ग कहलाता था। यह सत्र माघ शुक्ल प्रतिपदा या पौष पूर्णिमा तक चलता था। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के शुभ दिन रक्षाबंधन के साथ ही श्रावणी उपाकर्म का पवित्र संयोग बनता है। विशेषकर यह पुण्य दिन ब्राह्मण समुदाय के लिए बहुत महत्व रखता है। जीवन की वैज्ञानिक प्रक्रिया:- जीवन के विज्ञान की यह एक सहज, किन्तु अति महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । जन्मदात्री माँ चाहती है कि हर अण्डा विकसित हो । इसके लिए वह उसे अपने उदर की ऊर्जा से ऊर्जित करती है, अण्डे को सेती है । माँ की छाती की गर्मी पाकर उस संकीर्ण खोल में बंद जीव पुष्ट होने लगता है । उसके अंदर उस संकीर्णता को तोड़कर विराट् प्रकृति, विराट् विश्व के साक्षात्कार का संकल्प उभरता है । उसे फिर उस सुरक्षित संकीर्ण खोल को तोड़कर बाहर निकलने में भय नहीं लगता । वह दूसरा-नया जन्म ले लेता है । यह प्रक्रिया प्रकृति की सहज प्रक्रिया है, किन्तु पुरुषार्थसाध्य है । पोषक और पोषित; दोनों को इसके अंतर्गत प्रबल पुरुषार्थ करना पड़ता है । इसीलिए युगऋषि ने लिखा है- 'मनुष्य जन्म तो सहजता से हो जाता है, किन्तु मनुष्यता विकसित करने के लिए कठोर पुरुषार्थ करना पड़ता है ।' जैसे अण्डा माता की छाती की ऊष्मा से पकता है, वैसे ही मनुष्यता गुरु-अनुशासन में वेदमाता की गर्मी (शुद्ध ज्ञान की ऊर्जा) से धीरे-धीरे परिपक्व होती है । परिपक्व होने पर साधक अपने संकल्प से उस संकीर्णता के घेरे को तोड़ डालता है । तब उसे अपने तथा जन्मदात्री माता के स्वरूप का बोध होता है । तब वह भी माँ की तरह विराट् आकाश में उड़ने की चेष्टा करता है । तब माँ ऊँची उड़ानें भरने के उसके प्रयासों को शुद्ध-सही बनाती है । यही मर्म है- 'पावमानी द्विजानाम्' का । जो संकीर्णता के खोल में बंद है, उसे माँ विकसित करने के लिए अपनी ऊर्जा तो देती रहती है, किन्तु नया जन्म लेने के पहले उसके लिए अपने अन्य कौशलों का प्रयोग नहीं कर सकती । जिसने दूसरा जन्म ले लिया, वह 'द्विज' । नये दुर्लभ जन्म की प्रक्रिया को पूरा करने की प्रवृत्ति-साधना है 'द्विजत्व' । जब द्विज के चिंतन, चरित्र, व्यवहार पवित्र हो जाते हैं, तो वह ब्रह्म के अनुशासन में सिद्ध ब्राह्मण हो जाता है । जब उसकी कामनाएँ ब्रह्म के अनुरूप ही हो जाती हैं, तो ब्राह्मी चेतना-आदिशक्ति उसके लिए कामधेनु बन जाती है । जिसकी कामनाएँ-प्रवृत्तियों अनगढ़ हैं, उन्हें पूरा करने से तो संसार में अनगढ़ता ही बढ़ेगी । इसलिए माता सुगढ़-शुद्ध कामना वालों के लिए ही कामधेनु का रूप धारण करती है । भारतीय संस्कृति में द्विजत्व और ब्राह्मणत्व का संबंध किसी जाति या वर्ग विशेष में जन्म लेने से नहीं है, बल्कि वह साधना की उच्च कक्षा से जुड़े सम्बोधन हैं । इसीलिए संस्कारों से द्विजत्व की प्राप्ति की बात कही जाती रही है । संगीत के द्वार सभी के लिए खुले हैं, किन्तु संगीताचार्य अपनी बारीकियाँ उन्हीं के सामने खोलते हैं, जिनकी संगीत साधना उच्च स्तरीय हो गई है । खेल सभी खेल सकते हैं, किन्तु खेल प्रशिक्षक खेल तकनीक की बारीकियाँ उसी को समझाता है, जिनके कौशल और दमखम की साधना उच्च स्तरीय है । जिसकी साधना विकसित नहीं हुई है, उसे आगे की बात बताने से बतलाने वाले का प्रयास निरर्थक तो जाता ही है, कई बार उसका विपरीत प्रभाव भी भोगना पड़ जाता है । तिथि:- श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये।'भद्रायां ग्रहणं वापि पोर्णिमास्या यदा भवेत। उपाकृतिस्तु पंचम्याम कार्या वाजसेनयिभ:' संक्रांति व पूर्णिमा युति या ग्रहण पूर्णिमा युति में वाजसेनी आदि सभी शाखा के ब्राह्मणों को उपाकर्म (श्रावणी) पंचमी को कर लेनी चाहिये। शास्त्र सम्मत श्रावण उपाकर्म भद्रा दोष, ग्रहण युक्त पूर्णिमा, संक्राति युक्त पूर्णिमा में नहीं किया जाता तब उससे पूर्व श्रावण शुक्ल पंचमी नागपंचमी में श्रावणी स्नान उपाकर्म करने के शास्त्रोक्त निर्देश हैं। हेमाद्रिकल्प, स्कंद पुराण, स्मृति महार्णव, निर्णय सिंधु, धर्म सिंधु आदि योतिष व धर्म के निर्णय ग्रंथों में इसके प्रमाण हैं। कुछ ग्रंथों के प्रमाण इस प्रकार हैं- 'श्रावण शुक्लया: पूर्णिमायां ग्रहणं संक्रांति वा भवेतदा। यजुर्वेदिभि: श्रावण शुक्ल पंचम्यामुपाकर्म कर्तव्यं॥' अर्थात श्रावण पूण्रिमा में यदि ग्रहण या संक्रांति हो तो श्रावणी उपाकर्म श्रावण शुक्ल पंचमी को करना चाहिये। एक अन्य श्लोक के उल्लेख के अनुसार भद्रा में दो कार्य नहीं करना चाहिये एक श्रावणी अर्थात उपाकर्म, रक्षाबंधन, श्रवण पूजन आदि और दूसरा फाल्गुनि होलिका दहन। भद्रा में श्रावणी करने से राजा की मृत्यु होती है तथा फाल्गुनी करने से नगर ग्राम में आग लगती है तथा उपद्रव होते हैं। श्रावणी अर्थात उपाकर्म रक्षाबंधन, श्रवण पूजन भद्रा के उपरांत ही की जा सकती है। लेकिन ग्रहण युक्त पूर्णिमा भी श्रावणी उपाकर्म में निषिध्द है|ब्राह्मणों का यह अतिमहत्वपूर्ण कर्म हैं| 

#श्रावणी_पर्व:- श्रावणी पर्व द्विजत्व की साधना को जीवन्त, प्रखर बनाने का पर्व है । जो इस पर्व के प्राण-प्रवाह के साथ जुड़ते हैं, उनका द्विजत्व-ब्राह्मणत्व जाग्रत् होता जाता है तथा वे आदिशक्ति, गुरुसत्ता के विशिष्ठ अनुदानों के प्रामाणिक पात्र बन जाते हैं । द्विजत्व की साधना को इस पर्व के साथ विशेष कारण से जोड़ा गया है । युगऋषि ने श्रावणी पर्व के सम्बन्ध में लिखा है कि यह वह पर्व है जब ब्रह्म का 'एकोहं बहुस्यामि' का संकल्प फलित हुआ । पौराणिक उपाख्यान सबको पता है । भगवान की नाभि से कमलनाल निकली, उसमें से कमल पुष्प विकसित हुआ । उस पर स्रष्टा ब्रह्मा प्रकट हुए, उन्होंने सृष्टि की रचना की । युगऋषि इस अंलकारिक आख्यान का मर्म स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ''संकल्पशक्ति क्रिया में परिणित होती है और उसी का स्थूल रूप वैभव एवं घटनाक्रम बनकर सामने आता है । नाभि (संकल्प) में से अन्तरंग बहिरंग बनकर विकसित होने वाली कर्म-वल्लरी को ही पौराणिक अलंकरण में कमलबेल कहा गया है । पुष्प इसी बेल का परिपक्व परिणाम है । सृष्टि का सृजन हुआ, इसमें दो तत्व प्रयुक्त हुए-१ ज्ञान, २ कर्म । इन दोनों के संयोग से सूक्ष्म चेतना, संकल्प शक्ति स्थूल वैभव में परिणत हो गई और संसार का विशाल कलेवर बनकर खड़ा हो गया । उसमें ऋद्धि-सिद्धियों का आनन्द-उल्लास भर गया । यही कमल-पुष्प की पखुड़ियाँ हैं । इसका मूल है ज्ञान और कर्म, जो ब्रह्म की इच्छा और प्रत्यावर्तन प्रक्रिया द्वारा सम्भव हुआ । ज्ञान और कर्म के आधार पर ही मनुष्य की गरिमा का विकास हुआ है ।'' मनुष्य की महान गरिमा के अनुरूप जीवन जीने के अभ्यास को द्विजत्व की साधना कहा गया है । द्विजत्व की साधना सहज नहीं है । मन की कमजोरियों और परिस्थितियों की विषमताओं के कारण प्रयास करने पर भी साधकों से चूकें हो जाती हैं । समय-समय पर आत्म समीक्षा द्वारा उन भूल-चूकों को चिन्हित करके उन्हें ठीक करना, अपने अन्दर सन्निहित महान सम्भावनाओं को जाग्रत्-साकार करने के प्रयास करना जरूरी होता है । इस सदाशयतापूर्ण संकल्प को पूरा करने के लिए श्रावणी पर्व-ब्राह्मी संकल्प के फलित होने वाले पर्व से श्रेष्ठ और कौन-सा समय हो सकता है? इसलिए ऋषियों ने द्विजत्व के परिमार्जन-विकास के लिए श्रावणी पर्व को ही चुना है । 

#विधि :- श्रावणी उपाकर्म के तीन पक्ष है- प्रायश्चित्त संकल्प, संस्कार और स्वाध्याय। सर्वप्रथम होता है- प्रायश्चित्त रूप में हेमाद्रि स्नान संकल्प। गुरु के सान्निध्य में ब्रह्मचारी गोदुग्ध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र तथा पवित्र कुशा से स्नानकर वर्षभर में जाने-अनजाने में हुए पापकर्मों का प्रायश्चित्त कर जीवन को सकारात्मकता से भरते हैं। स्नान के बाद ऋषिपूजन, सूर्योपस्थान एवं यज्ञोपवीत पूजन तथा नवीन यज्ञोपवीत धारण करते हैं। यज्ञोपवीत या जनेऊ आत्म संयम का संस्कार है। आज के दिन जिनका यज्ञोपवित संस्कार हो चुका होता है, वह पुराना यज्ञोपवित उतारकर नया धारण करते हैं और पुराने यज्ञोपवित का पूजन भी करते हैं । इस संस्कार से व्यक्ति का दूसरा जन्म हुआ माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि जो व्यक्ति आत्म संयमी है, वही संस्कार से दूसरा जन्म पाता है और द्विज कहलाता है। उपाकर्म का तीसरा पक्ष स्वाध्याय का है। इसकी शुरुआत सावित्री, ब्रह्मा, श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, स्मृति, सदसस्पति, अनुमति, छंद और ऋषि को घृत की आहुति से होती है। जौ के आटे में दही मिलाकर ऋग्वेद के मंत्रों से आहुतियां दी जाती हैं। इस यज्ञ के बाद वेद-वेदांग का अध्ययन आरंभ होता है। इस सत्र का अवकाश समापन से होता है। इस प्रकार वैदिक परंपरा में वैदिक शिक्षा साढ़े पांच या साढ़े छह मास तक चलती है। वर्तमान में श्रावणी पूर्णिमा के दिन ही उपाकर्म और उत्सर्ग दोनों विधान कर दिए जाते हैं। प्रतीक रूप में किया जाने वाला यह विधान हमें स्वाध्याय और सुसंस्कारों के विकास के लिए प्रेरित करता है। यह जीवन शोधन की एक अति महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक-आध्यात्मिक प्रक्रिया है । उसे पूरी गम्भीरता के साथ किया जाना चाहिए । श्रावणी पर्व शरीर, मन और इन्द्रियों की पवित्रता का पुण्य पर्व माना जाता है । इस पर्व पर की जाने वाली सभी क्रियाओं का यह मूल भाव है कि बीते समय में मनुष्य से हुए ज्ञात-अज्ञात बुरे कर्म का प्रायश्चित करना और भविष्य में अच्छे कार्य करने की प्रेरणा देना। द्विज और द्विजत्व:- द्विज सम्बोधन यहाँ किसी जाति-वर्ग विशेष के लिए नहीं है, यह एक गुणवाचक सम्बोधन है । जीवन साधना की उच्चतम कक्षा के सफल साधक का पर्याय है । द्विज का अर्थ होता है-दुबारा जन्म लेने वाला । संस्कृत साहित्य में पक्षियों को भी द्विज कहा जाता है । माँ जन्म देती है अण्डे को । माँ के गर्भ से जन्म ले लेने की प्रक्रिया पूरी हो जाने पर भी बच्चे का स्वरूप जन्मदात्री के स्वरूप के अनुरूप नहीं होता । परन्तु अण्डे के अंदर जो जीव है, उसमें जन्मदात्री के अनुरूप विकसित होने की सभी संभावनाएँ होती हैं । प्रकृति के अनुशासन का पालन किये जाने पर उसका समुचित विकास हो जाता है और वह अण्डे में बँधी अपनी संकीर्ण सीमा को तोड़कर अपने नये स्वरूप में प्रकट हो जाता है । इस प्रक्रिया को उसका दूसरा जन्म कहना हर तरह से उचित है । यह प्रक्रिया पूरी होने पर ही उसे प्रकृति की विराटता का बोध होता है । तभी माँ उसे उड़ने का प्रशिक्षण देती है । ऋषियों ने अनुभव किया कि मनुष्य स्रष्टा की अद्भुत कृति है । उसमें दिव्य शक्तियों, क्षमताओं के विकास की अनंत सँभावनाएँ हैं । सामान्य रूप से तो माँ के गर्भ से जन्म लेने के बाद भी वह पशुओं जैसी आहार, निद्रा, भय, मैथुन की संकीर्ण प्रवृत्तियों के घेरे में ही कैद रहता है । मनुष्य की अंतःचेतना जब पुष्ट होकर संकीर्णता के उस अण्डे जैसे घेरे को तोड़कर बाहर आने का पुरुषार्थ करती है, तब उसका दूसरा जन्म होता है । तभी माता (आदिशक्ति) उसे सदाशयता और सत्पुरुषार्थ (सद्ज्ञान एवं सत्कर्म) के पंख फैलाकर जीवन की ऊँचाइयों में उड़ने का प्रशिक्षण देती है । तैयारी करें:- जो साधक वास्तव में इसका यथेष्ट लाभ उठाना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए कम से कम एक दिन पूर्व से विचार मंथन करना चाहिए । गुरुदीक्षा के समय अथवा अगले चरण के साधना प्रयोगों में जो नियम-अनुशासन स्वीकार किये गये थे, उन पर ध्यान दिया जाना चाहिए । भूलों को समझे और स्वीकार किए बिना उनका शोधन संभव नहीं । आत्मसाधना में समीक्षा के बाद ही शोधन, निर्माण एवं विकास के कदम बढ़ाये जा सकते हैं । जो भुल-चूकें हुई हों, उन्हें गुुरुसत्ता के सामने सच्चे मन से स्वीकार किया जाना चाहिए । क्षति पूर्ति के लिए अपने र्कत्तव्य निश्चित करके गुुरुसत्ता से उसमें समुचित सहायता की प्रार्थना करनी चाहिए । 

श्रावणी उपाकर्म के सामूहिक क्रम में जो शामिल हों, उन्हें सामूहिक कर्मकाण्ड का लाभ तभी मिलेगा, जब वे उसके लिए व्यक्तिगत मंथन कर चुके होंगे । उसके बाद शिखा सिंचन उच्च विचार-ज्ञान साधना को तेजस्वी बनने के लिए किया जाता है । यज्ञोपवीत परिवर्तन यज्ञीय कर्म अनुशासन को अधिक प्रखर-प्रामाणिक बनाने के लिए किया जाता है । ब्रह्मा का, वेद का और ऋषियों का आवाहन, पूजन उनकी साक्षी में संकल्प करने तथा उनके सहयोग से आगे बढ़ते रहने के भाव से किया जाता है । रक्षाबंधन प्रगति के श्रेष्ठ संकल्पों को पूरा करने के भाव से किया-कराया जाता है । प्रकृति के अनुदानों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के साथ उसके ऋण से यथाशक्ति उऋण होने के भाव से वृक्षारोपण करने का नियम है । श्रावणी पर हर दीक्षित साधक को साधना का परिमार्जन करने के साथ उसको श्रेष्ठतर स्तरों पर ले जाने के संकल्प करने चाहिए । ऐसा करने वाले साधक ही इष्ट, गुरु या मातृसत्ता के उच्च स्तरीय अनुदानों को प्राप्त करने की पात्रता अर्जित कर सकते हैं । यदि सामूहिक पर्व क्रम में शामिल होने का सुयोग न बने तथा विशेष कर्मकाण्डों का करना-कराना संभव न हो, तो भी अपने साधना स्थल पर भावनापूर्वक पर्व के आवश्यक उपचारों द्वारा श्रावणी के प्राण-प्रवाह से जुड़कर उसका पर्याप्त लाभ प्राप्त किया जा सकता है । इसके लिए सभी को एक दिन पहले से ही जागरूकतापूर्वक प्रयास करने-कराने चाहिए । भूलों के सुधार तथा विकास के लिए निर्धारित नियमों को लिखकर पूजा स्थल पर रख लेना चाहिए । उपासना के समय उन पर दृष्टि पड़ने से होने वाली भूलों, विसंगतियों से बचना संभव होता है । हमारे सार्थक प्रयास हमें उच्च स्तरीय प्रगति का अधिकारी बना सकते हैं|

।। जय श्री राम ।।
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