Thursday, 29 August 2024

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में अंतर..??

ऋषि, मुनि, साधु और संन्यासी में  अंतर..??

भारत में प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों का बहुत महत्त्व रहा है। ऋषि मुनि समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे और वे अपने ज्ञान और साधना से हमेशा ही लोगों और समाज का कल्याण करते आये हैं।

1. ऋषि (Rishi): - परिभाषा:,
ऋषि वे व्यक्ति होते हैं जिन्होंने गहन ध्यान, तपस्या और अध्ययन के माध्यम से दिव्य ज्ञान प्राप्त किया होता है। उन्हें वेदों के मन्त्रद्रष्टा कहा जाता है, अर्थात् वेदों के मंत्रों को साक्षात अनुभव करने वाले।
विशेषताएँ: ऋषि वे होते हैं जिन्होंने अपने ज्ञान से समाज को दिशा दी है। उदाहरण के लिए, सप्तऋषि (अत्रि, भारद्वाज, कश्यप, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ) जिन्होंने वेदों का संकलन किया।
प्रमुख गुण: दिव्य दृष्टि, तपस्वी, समाज का कल्याण करने वाला।

2. मुनि (Muni): - परिभाषा:,
मुनि वह व्यक्ति होता है जिसने मौन धारण कर लिया हो और जो अपने विचारों और इंद्रियों पर पूर्ण नियंत्रण रखता हो। मुनि शब्द "मौन" से उत्पन्न हुआ है।
विशेषताएँ: मुनि अपनी साधना और तपस्या के माध्यम से उच्च आध्यात्मिक स्थिति प्राप्त करते हैं। वे गहन ध्यान और आत्मचिंतन में लीन रहते हैं।
प्रमुख गुण: मौन, ध्यान, आत्मसंयम।

3. साधु (Sadhu): - परिभाषा:,
साधु एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसने सांसारिक जीवन को त्याग कर पूर्णतः भगवान की भक्ति, साधना और धर्म के मार्ग पर चलने का निर्णय लिया हो।
विशेषताएँ: साधु आमतौर पर घुमक्कड़ जीवन जीते हैं, वे भिक्षा पर निर्भर रहते हैं और समाज को धर्म और नैतिकता का संदेश देते हैं। वे विभिन्न धार्मिक आयोजनों और तीर्थ स्थलों पर पाए जाते हैं।
प्रमुख गुण: भक्ति, समर्पण, तपस्वी जीवनशैली।

4 संत (Saint): - परिभाषा:,
संत वे व्यक्ति होते हैं जिन्होंने ईश्वर की भक्ति, धर्म और सेवा में अपना जीवन समर्पित किया हो और जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया हो। संत समाज के प्रति परोपकार और आध्यात्मिकता का प्रसार करते हैं।
विशेषताएँ: संत समाज में रहते हुए भी अपनी आत्मा को उच्च आध्यात्मिक स्थिति में रखते हैं। वे दूसरों को भी ईश्वर के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं। तुलसीदास, कबीर, और संत ज्ञानेश्वर कुछ प्रसिद्ध संत हैं।
प्रमुख गुण: परोपकार, आत्मज्ञान, धर्म का प्रसार।

5. सन्यासी (Sanyasi): - परिभाषा:,
सन्यासी वह व्यक्ति होता है जिसने जीवन के सभी भौतिक और सांसारिक बंधनों को त्याग कर संन्यास ग्रहण किया हो। वह चारों आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास) में अंतिम अवस्था में प्रवेश कर चुका होता है।
विशेषताएँ: सन्यासी समाज से दूर एकांत में रहते हैं और केवल भगवान की साधना में लीन रहते हैं। वे किसी भी प्रकार के भौतिक सुखों से मुक्त होते हैं।
प्रमुख गुण: वैराग्य, त्याग, आत्मानुशासन।

6. योगी (Yogi): - परिभाषा:,
योगी वह व्यक्ति होता है जो योग की साधना के माध्यम से अपने शरीर, मन और आत्मा का संतुलन बनाए रखता है। योग का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार और परमात्मा के साथ एकत्व की स्थिति प्राप्त करना होता है।
विशेषताएँ: योगी विभिन्न योग प्रणालियों (जैसे हठ योग, भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग) का पालन करता है और अपने जीवन को संयमित और आध्यात्मिक बनाता है। पतंजलि को योग शास्त्र का जनक माना जाता है।
प्रमुख गुण: ध्यान, प्राणायाम, आत्मसंयम, संतुलित जीवनशैली।
जयति जयति जय पुण्य सनातन संस्कृति,
जयति जयति जय पुण्य भारतभूमि,
सदासुमङ्गल जयति सनातन,

🚩जय जय श्रीराम,🙏

Wednesday, 28 August 2024

#गर्भ और _ग्रह

गर्भ 

1. गर्भ से पहले महीने तक शुक्र का प्रभाव रहता है अगर गर्भावस्था के समय शुक्र कमजोर है तो शुक्र को मजबूत करना चाहिए। अगर शुक्र मजबूत होगा तो बच्चा बहुत सुंदर होगा। और उस समय स्त्री को चटपटी चीजे खानी चाहिए शुक्र का दान न करे अगर दान किया तो शुक्र कमजोर हो जाएगा। दान सिर्फ उसी ग्रह का करे जो पापी और क्रूर हो और उसके कारण गर्भपात का खतरा हो।

2. दूसरे महीने मंगल का प्रभाव रहता है। मीठा खा कर मंगल को मजबूत करे तथा लाल वस्त्र ज्यादा धारण करें।

3. तीसरे महीने गुरु का प्रभाव रहता है। दूध और मीठे से बनी मिठाई या पकवान का सेवन करे तथा पीले वस्त्र ज्यादा धारण करें।

4. चौथे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है। रसों का सेवन करे तथा महरून वस्त्र ज्यादा धारण करें।

5. पांचवे महीने चंद्र का प्रभाव रहता है। दूध और दही तथा चावल तथा सफ़ेद चीजों का सेवन करे तथा सफ़ेद ज्यादा वस्त्र धारण करें।

6. छटे महीने शनि का प्रभाव रहता है। कसैली चीजों केल्शियम और रसों के सेवन करे तथा आसमानी वस्त्र ज्यादा धारण करें।

7. सातवे महीने बुध का प्रभाव रहता है जूस और फलों का खूब सेवन करे तथा हरे रंग के वस्त्र ज्यादा धारण करें।

8. आठवे महीने फिर चंद्र का तथा नौवे महीने सूर्य का प्रभाव रहता है। इस दौरान अगर कोई ग्रह नीच राशि गत भ्रमण कर रहा है तो उसका पूरे महीने यज्ञ करन चाहिए। जितना गर्भ ग्रहों की किरणों से तपेगा उतना ही बच्चा महान और मेधावी होगा जैसी एक मुर्गी अपने अंडे को ज्यादा हीट देती है तो उसका बच्चा मजबूत पैदा होता है। अगर हीट कम देगी तो उसका चूजा बहुत कमजोर होगा। उसी प्रकार माँ का गर्भ ग्रहों की किरणों से जितना तपेगा बच्चा उतना ही मजबूत होगा। जैसे गांधारी की आँ खों की किरणों के तेज़ से दुर्योधन का शरीर वज्र का हो गया था।

ASTRO NEHA BHALLA

Sunday, 25 August 2024

#रामायण जानकारी

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में
हनुमत हनुमंत हनुमान हनुमंता हनुमाना हनुमानु आदि(हनुमान् जी) के नाम का *९५ बार* उल्लेख किया है।

*(१)हनुमत* जन्म सुफल करि माना। चलेउ हृदयं धरि कृपानिधाना ।। कि.22.12।। 
अंगद *(२)हनुमत* अनुचर जाके । रन बाँकुरे बीर अति बाँके ।। लं 36.4।।

हनुमदादि (हनुमान् आदि)

प्रात होत प्रभु सुभट पठाए । *(३)हनुमदादि* अंगद सब धाए ।। लं.84.4।। 
*(४)हनुमदादि* मुरुछित करि बंदर । पाइ प्रदोष हरष दसकंधर ।। लं.97.11।।

*(५)हनुमदादि* सब बानर बीरा । धरे मनोहर मनुज सरीरा ।। उ.7.211

भरतादि अनुज बिभीषनांगद *(६)हनुमदादि* समेत ते । गहें छत्र चामर व्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते ।। उ.11.10छं ।।

हनुमंत (हनुमन्त, हनुमान् जी)

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ *(७)हनुमंत* । मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ।। कि.3।। 
तब *(८)हनुमंत* उभय दिसि की सब कथा सुनाइ । पावक साखी देइ करि जोरी प्रीति दृढ़ाइ ।। कि.4।। 
तब (९)हनुमंत* बोलाए दूता । सब कर करि सनमान बहूता ।। कि.18.6।। 
सुनु *(१०)हनुमंत* संग लै तारा । करि बिनती समुझाउ कुमारा ।। कि.19.3।। 
बचन सुनत सब बानर जाँ तहँ चले तुरंत । तब सुग्रीवँ बोलाए अंगद नल *(११)हनुमंत* ।। कि 22।। 
जामवंत के बचन सुहाए । सुनि *(१२)हनुमंत* हृदय अति भाए ।। सुं.0.1।। 
तब *(१३)हनुमंत* कही सब राम कथा निज नाम । सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम ।। सुं.6।। 
तब *(१४)हनुमंत* कहा सुनु भ्राता । देखी चहउँ जानकी माता ।। सुं.7.4।। 
तब *(१५)हनुमंत* निकट चलि गयऊ । फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ।। सुं.12.8।। 
कह *(१६)हनुमंत* विपति प्रभु सोई । जब तव सुमिरन भजन न होई ।। सुं.31.3।। 
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि *(१७)हनुमंत* । चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ।। सुं 32।। 
कह *(१८)हनुमंत* सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास । तव मूरति विधु उर वसति सोइ स्यामता अभास ।। लं.12क ।। 
अंगद अरु *(१९)हनुमंत* प्रवेसा । कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा ।। लं.44.7।। 
तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयसु पाइ पद बंदि चलेउ *(२०)हनुमंत* ।। लं. 60क ।।

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरंत अनंत ।

अंगद नील मयंद नल संग सुभट *(२१)हनुमंत* ।। लं.75 ।। 
*(२२)हनुमंत* संकट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले ।

रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचंड भुज बल दलमले ।। लं.94.10छ ।।

*(२३)हनुमंत* अंगद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे ।

मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अंकुरे ।। लं.95.10छं ।। तब *(२४)हनुमंत* नगर महुँ आए। सुनि निसिचरी निसाचर धाए ।। लं. 106.3।।

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदय बसहुँ *(२५)हनुमंत*

सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत ।। लं.107।।

तब *(२६)हनुमंत* नाइ पद माथा। कहे सकल रघुपति गुन गाथा ।। 3.1.15 ।।

अस कहि चलेउ बालिसुत फिरि आयउ *(२७)हनुमंत* ।

तासु प्रीति प्रभु सन कही मगन भए *(२८)भगवंत* ।। उ.19ख ।।

हनुमंतहि (हनुमान् जी को)

आगें कै *(२९)हनुमंतहि* लीन्हा । पैठे बिबर बिलंबु न कीन्हा ।। कि.23.8।।

प्रभु *(३०)हनुमंतहि* कहा बुझाई । धरि बटु रूप अवधपुर जाई ।। लं.120.1।।

हनुमंता (दे. हनुमंत)

जेहिं गिरि चरन देइ *(३१)हनुमंता* । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ।। सुं.0.7।।

अब मोहि भा भरोस *(३२)हनुमंता* । बिनु हरिकृपा मिलहि नहि संता ।। सुं 6.4।। 
पावक जरत देखि *(३३)हनुमंता* । भयउ परम लघुरूप तुरंता ।। सुं 24.8।। 
कोउ कह कहँ अंगद *(३४)हनुमंता*। कहँ नल नील दुविद बलवंता ।। ल.42.2।। 
धरि लघु रूप गयउ *(३५)हनुमंता* । आनेउ भवन समेत तुरंता ।। लं.54.8।। 
पुनिः उठि तेहिं मारेउ *(३६)हनुमंता* । घुर्मित भूतल परेउ तुरंता ।। लं.64.8।। 
अस कहि कपि सब चले तुरंता । अंगद कहइ सुनहु *(३७)हनुमंता* ।। उ.18.10।। 
जोरि पानि कह तब *(३८)हनुमंता* । सुनहु दीनदयाल भगवंता ।। उ.35.5।।

हनुमान (हनुमान् जी, श्रीराम के महान् भक्त, वानर जाति के योद्धा 'केसरी' और

माता 'अंजना/अंजनी' के पुत्र, इन्द्र के वज्र से इनका हनु अर्थात् ठोड़ी भंजन होने से हनुमान् नामकरण, जन्म कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को अर्थात् दीपावली के एक दिन  पूर्व हुआ था, सुग्रीव के मंत्री थे, श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता के सेतु बने, सीता की खोज की, संजीवनी लाकर लक्ष्मण की प्राणरक्षा की, हनुमान् जी ब्रह्मचर्य, ज्ञान, शक्ति, कर्मठता और राम-भक्ति के महान् आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित है)

मन *(३९)हनुमान* कीन्ह अनुमाना। मरन चहत सब बिनु जल पाना ।। कि 23.4।।

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान ।

आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ *(४०)हनुमान* ।। सुं 2।।

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि *(४१)हनुमान* हरषि हियँ लाए ।। सुं 29.711

सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि ।

कस रे सठ *(४२)हनुमान)* कपि गयउ जो तव सुत मारि ।। लं 26।।

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर ।

आइ गयउ *(४३)हनुमान* जिमि करुना महँ बीर रस ।। लं.61सो ।। 
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।

धन्य धन्य तव जननी कह अंगद *(४४)हनुमान* ।। लं.76।।

बिनु प्रयास *(४५)हनुमान* उठायो । लंका द्वार राखि पुनि आयो ।। लं.76.1।।

उत पचार दसकंधर इत अंगद *(४६)हनुमान* ।

लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन ।। लं.80ग ।।

प्रगटेसि बिपुल *(४७)हनुमान* । धाए गहे पाषान ।। लं.100.13छ ।।

तब *(४८)हनुमान* राम पहिं जाई । जनकसुता कै कुसल सुनाई ।। लं.107.211

कपिपति नील रीछपति अंगद नल *(४९)हनुमान* ।

सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान ।। लं.118ख ।।

बूझहिं बैठि राम गुन गाहा । कह *(५०)हनुमान* सुमति अवगाहा ।। उ.25.5।।

हनुमाना (दे. हनुमान)
महाबीर बिनवउँ *(५१)हनुमाना*। राम जासु जस आप बखाना ।। बा 16.10 ।। 
अति सभीत कह सुनु *(५२)हनुमाना*। पुरुष जुगल बल रूप निधाना ।। कि.0.3।। 
तारा सहित जाइ *(४३)हनुमाना*। चरन बंदि प्रभु सुजस बखाना ।। कि.19.4।। 
सुनहु नील अंगद *(५४)हनुमाना*। जामवंत मतिधीर सुजाना ।। कि 22.1।। 
कहइ रीछपति सुनु *(५५)हनुमाना*। का चुप साधि रहेहु बलवाना ।। कि 29.3।। 
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ *(५६)हनुमाना* ।। सुं.0.811 
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ *(५७)हनुमाना* ।। सुं 1.6।। 
अति लघु रूप धरेउ
*(५८)हनुमाना*। पैठा नगर सुमिरि भगवाना ।। सु.4.4।। 
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ *(५९)हनुमाना* ।। सु.12.411 
बूड़त बिरह जलधि *(६०हनुमाना*। भयहु तात मो कहुँ जलजाना ।। सुं 13.2।। 
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन *(६१)हनुमाना* ।। सु. 16.4।। 
सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ *(६२)हनुमाना* ।। सु.175।। 
उलटा होइहि कह *(६३)हनुमाना*। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना ।। सुं 23.4।। 
हरषे सब बिलोकि *(६४)हनुमाना*। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना ।। सुं 27.3।। 
नाथ काजु कीन्हेउ *(६५)हनुमाना*। राखे सकल कपिन्ह के प्राना ।। सुं 28.5।। 
प्रभु प्रसन्न जाना *(६६)हनुमाना*। बोला बचन विगत अभिमाना ।। सुं 32.6।। सुनि प्रभु बचन हरष *(६७)हनुमाना*। सरनागत बच्छल भगवाना ।। सु. 42.9।। बड़भागी अंगद *(६८)हनुमाना*। चरन कमल चापत विधि नाना ।। लं.10.7।।

निज दल विकल सुना *(६९)हनुमाना*। पच्छिम द्वार रहा बलवाना ।। लं.42.3।। गए जानि अंगद *(७०)हनुमाना*। फिरे भालु मर्कट भट नाना ।। लं.45.3।। 
सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद *(७१)हनुमाना* ।। लं.46.1।।
 बार बार पचार *(७२)हनुमाना*। निकट न आव मरमु सो जाना ।। लं.50.4।। 
तब लगि लै आयउ *(७३)हनुमाना*। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना ।। लं. 54.6।। 
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ *(७४)हनुमाना* ।। लं .57.611 
हरषि राम भेटेउ *(७५)हनुमाना*। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना ।। लं.61.1।। 
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद *(७६)हनुमाना* ।। लं.81.6।। 
गहिसि पूँछ कपि सहित उड़ाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल *(७७)हनुमाना* ।। लं.94.5।। 
पुनि प्रभु बोलि लियउ *(७८)हनुमाना*। लंका जाहु कहेउ भगवाना ।। लं.106.1।। 
मारुत सुत मैं कपि *(७९)हनुमाना*। नामु मोर सुनु कृपानिधाना ।। उ.1.8।। 
तब सुग्रीव चरन गहि नाना। भाँति बिनय कीन्हे *(८०)हनुमाना* ।। उ.18.7।। 
अंतरजामी प्रभु सभ जाना। बूझत कहहु काह *(८१)हनुमाना* ।। 3.35.411

हनुमानू (दे. हनुमान)

किएहुँ कुवेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत *(८२)हनुमानू* ।। बा.6.7।। 
कालनेमि कलि कपट निधानू । नाम सुमति समरथ *(८३)हनुमानू* ।। बा 26.8।।

हनू (दे. हनुमान)

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत । जय कृपाल कहि कपि चले अंगद *(८४)हनू* समेत ।। सुं 44।।

हनूमंत (दे. हनुमान)

कहें नल नील दुबिद सुग्रीवा। अंगद *(८५)हनूमंत* बल सीवा ।। लं. 49.2।।

हनूमान (दे. हनुमान)

*(८६)हनूमान* तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम ।

राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ विश्राम ।। सुं. 1।।
सोइ छल *(८७)हनूमान* कहें कीन्हा । तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा ।। सुं 2.4।। 
*(८८)हनूमान* अंगद रन गाजे । हाँक सुनत रजनीचर भाजे ।। लं.46.6।। 
है दससीस मनुज रघुनायक । जाके *(८९)हनूमान* से पायक ।। लं.62.3।। 
देखा श्रमित विभीषनु भारी। धायउ *(९०)हनूमान* गिरि धारी ।। लं.94.1।।(*९१)हनूमान* अंगद के मारे । रन महि परे निसाचर भारे ।। लं.118.10।। 
देखत *(९२)हनूमान* अति हरषेउ । पुलक गात लोचन जल बरषेउ ।। उ.1.1।। 
करहिं बिनय अति बारहि बारा। *(९३)हनूमान* हिय हरष अपारा ।। उ.41.2।। 
*(९४)हनूमान* भरतादिक भ्राता । संग लिए सेवक सुखदाता ।। 3.49.211 
*(९५)हनूमान* सम नहिं बड़भागी। नहिं कोउ राम चरन अनुरागी ।। उ.49.8।।
[25/8, 8:53 am] Devi Lal Ji Sadora: *रामचरितमानस में तुलसी द्वारा शत्रुघ्न, शब्द की केवल* *सात* बार आवृत्ति की गई है
*सत्रुघुन* (शत्रुघ्न, श्रीराम के छोटे भाई, दशरथ और सुमित्रा के छोटे पुत्र, लक्ष्मण इनके जुड़वाँ भाई थे, इनकी पत्नी श्रुतिकीर्ति थीं, यह भरत के अनुगामी रहे) 

सुनि *(१)सत्रुघुन* मातु कुटिलाई । जरहिं गात रिस कछु न बसाई ।। अ.162.1।।

लखनु *(२)सत्रुसूदनु* एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ।। बा.310.7||

जाके सुमिरन तें रिपु नासा । नाम *(३)सत्रुहन* बेद प्रकासा ।। बा.196.8।।

भरत *(४)सत्रुहन* दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई ।। बा.197.4।।

कहहु तात केहि भाँति कोउ करिहि बड़ाई तासु ।

राम लखन तुम्ह *(५)सत्रुहन* सरिस सुअन सुचि जासु ।। अ.173।।

पुनि प्रभु हरषि *(६)सत्रुहन* भेंटे हृदय लगाइ ।

लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ ।। उ।उ.5।।

भरत *(७)सत्रुहन* दोनउ भाई । सहित पवनसुत उपबन जाई ।। उ.25.4।।


 मारुतसुत मारुति (पवनपुत्र, पवनसुत, हनुमान्)आदि नाम का रामचरितमानस में *१३ बार* उल्लेख किया है

अब *(१)मारुतसुत* दूत समूहा। पठवहु जहँ तहें बानर जूहा ।। कि.18.4।। 
ताहि मारि *(२)मारुतसुत* बीरा । बारिधि पार गयउ मतिधीरा ।। सुं 25॥ *(३)मारुतसुत* देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौ जाइ श्रम ।। ल. 56.2।। 
तब *(४)मारुतसुत* मुठिका हन्यो । परये धरनि व्याकुल सिर धुन्यो ।। ल 64.7।। 
मुरुछा गइ *(५)मारुतसुत* जागा । सुग्रीवहि तब खोजन लागा ।। ल.65.4।। *(६)मारुतसुत* अंगद नल नीलाः । कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला ।। ल.72.8।। 
बुधि बल निसिचर परइ न पारये। तब मारुतसुत प्रभु संभारये ।। ल.94.8।। *(७)मारुतसुत* के संग सिधावहु । सादर जनकसुतहि लै आवहु ।। ल.107.4।। 
पूछत प्रभुहि सकल सकुचाहीं । चितवहि सब *(८)मारुतसुत* पाहीं ।। उ.35.2।। 
*(९)मारुतसुत* तब मारुत करई। पुलक बपुष लोचन जल भरई ।। उ.49.7।।

मारुति (हनुमान्, पवनसुत)

उठि बहोरि *(१०)मारुति* जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ।। लं.75.8।। 
बालितनय *(११)मारुति* नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला ।। लं.97.3।। तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत *(१२)मारुति* नयसोला ।। लं.105 2।। 
प्रभु नारद संबाद कहि *(१३)मारुति* मिलन प्रसंग । पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग ।। 3.66 क ।।
[25/8, 8:53 am] Devi Lal Ji Sadora: रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने पवन पुत्र या पवन कुमार के नाम का प्रयोग *पांच बार* किया है।

*पवनकुमार* (वायु के पुत्र, हनुमान्

प्रनवउँ *(१)पवनकुमार* खल बन पावक ग्यानघन । जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ।। बा.17॥ 

पवनसुत (वायु के पुत्र, हनुमान् सुमिरि *(२)पवनसुत* पावन नामू । अपने बस करि राखे रामू ।। बा 25.6।।देखि *(३)पवनसुत* पति अनुकूला । हृदय हरष बीती सब सूला ।। कि 3.1॥

इहाँ *(४)पवनसुत* हृदय बिचारा । राम काजु सुग्रीवं बिसारा ।। कि 18.1।।
 गिरि ते उतरि *(५)पवनसुत* आवा । सब कहुँ लै सोइ बिबर देखावा ।। कि 23.7।।

Thursday, 22 August 2024

# जन्माष्टमी निर्णय

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत पुराणों वा शास्त्रों द्वारा निर्णय किस दिन करना शास्त्रों के अनुकूल, सही तिथि

श्रीमद्भागवत् पुराण, श्रीभविष्य पुराण, अग्नि, विष्णु सहित सभी धर्मग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि, बुधवार, रोहिणी, नक्षत्र एवं वृष राशिस्थ चन्द्रमाकालीन अर्धरात्रि के समय हुआ था।

भविष्यपुराण में लिखा है-

 'सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले। 

मासि भाद्रपदे अष्टम्यां कृष्णपक्षेअर्धरात्रिके। 

वृषराशि स्थिते चन्द्रे, नक्षत्रे रोहिणी युते।।

निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने ।

देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहाशय: ॥

( श्रीमद्भागवत महापुराण* (10/03/08)

शास्त्र विचार

शास्त्रों में स्मार्त, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य आदि अनेक आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत अर्थात् सिद्धान्त हैं । इनमें, जो जिनका उपासक है तथा जिस पथ का पथिक है, वह अपने उन आचार्य ( गुरु ) के दिये गये शास्त्रसम्मत मतों ( सिद्धान्तों ) को मानकर उनका अनुगमन करते हैं । मुख्य रूप से हम यहाँ दो मतों की चर्चा करते हैं । स्मार्त तथा वैष्णव मत ।

कृष्ण जन्माष्टमी दो अलग-अलग दिनों पर हो जाती है। जब-जब ऐसा होता है, तब पहले दिन वाली जन्माष्टमी स्मार्त सम्प्रदाय के लोगो के लिये और दूसरे दिन वाली जन्माष्टमी वैष्णव सम्प्रदाय के लोगो के लिये होती है।

स्मार्त मत के अनुसार:-राज्यराष्ट्रीयदुनियाभोजपुरी कहानियाव्यंग ही व्यंगलेखसंपादकीयमनोरंजनराजनीती

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत पुराणों वा शास्त्रों द्वारा निर्णय किस दिन करना शास्त्रों के अनुकूल, सही तिथि

Update: 2020-08-09 01:50 GMT
श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत पुराणों वा शास्त्रों द्वारा निर्णय किस दिन करना शास्त्रों के अनुकूल, सही तिथि

सच्चिदानंद रूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे,

तापत्रय विनाशाय श्री कृष्णाय वयं नम: ॥

श्री कृष्ण जन्माष्टमी का व्रत पुराणों वा शास्त्रों द्वारा निर्णय किस दिन करना शास्त्रों के अनुकूल, सही तिथि

श्रीमद्भागवत् पुराण, श्रीभविष्य पुराण, अग्नि, विष्णु सहित सभी धर्मग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म भाद्रपद कृष्ण अष्टमी तिथि, बुधवार, रोहिणी, नक्षत्र एवं वृष राशिस्थ चन्द्रमाकालीन अर्धरात्रि के समय हुआ था।

भविष्यपुराण में लिखा है- 'सिंहराशिगते सूर्ये गगने जलदाकुले। मासि भाद्रपदे अष्टम्यां कृष्णपक्षेअर्धरात्रिके। वृषराशि स्थिते चन्द्रे, नक्षत्रे रोहिणी युते।।

निशीथे तमउद्भूते जायमाने जनार्दने ।

देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णु: सर्वगुहाशय: ॥

( श्रीमद्भागवत महापुराण* (10/03/08)

शास्त्र विचार

शास्त्रों में स्मार्त, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य आदि अनेक आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत अर्थात् सिद्धान्त हैं । इनमें, जो जिनका उपासक है तथा जिस पथ का पथिक है, वह अपने उन आचार्य ( गुरु ) के दिये गये शास्त्रसम्मत मतों ( सिद्धान्तों ) को मानकर उनका अनुगमन करते हैं । मुख्य रूप से हम यहाँ दो मतों की चर्चा करते हैं । स्मार्त तथा वैष्णव मत ।

कृष्ण जन्माष्टमी दो अलग-अलग दिनों पर हो जाती है। जब-जब ऐसा होता है, तब पहले दिन वाली जन्माष्टमी स्मार्त सम्प्रदाय के लोगो के लिये और दूसरे दिन वाली जन्माष्टमी वैष्णव सम्प्रदाय के लोगो के लिये होती है।

स्मार्त मत के अनुसार:-

स्मार्त मतानुसार वे चन्द्रोदय को स्वीकारते हुए पर्व के समय उस तिथि के होने को महत्त्व देते हैं – 'अष्टमी चन्द्रोदयव्यापिनी यदा तदा जयन्ती व्रतम्' ( कृत्यसार समुच्चय )

तद्युत्तरदिने चन्द्रोदयव्यापिनी नाष्टमी तदा सप्तमीसंयुता ग्राह्या । ( कृत्यसार समुच्चय )

अर्थात् वे चन्द्रोदय के अनुसार रात्रि के समय अष्टमी तिथि होने पर जन्माष्टमी पर्व मनाते हैं – 'निशीथव्यापिनी अष्टम्याम्' ।

स्मार्त – वे सभी जो वेद-पुराणों के पाठक, आस्तिक, पंच देवों (गणेश, विष्णु, शिव, सूर्य व दुर्गा) के उपासक व गृहस्थ हैं, स्मार्त के अंतर्गत आते हैं। इस मत को मानने वाले 11अगस्त 2020 मंगलवार को जन्माष्टमी मनाएंगे व्रत भी रखेंगे।

वैष्णव मत के अनुसार:-

वैष्णव मतानुसार वे सूर्योदय के समय की तिथि को महत्त्व देते हैं ।

 'उदयव्यापिनी अष्टम्यमलम्बिनां वैष्णवानाम्' 

अर्थात् सूर्योदय में यदि अष्टमी है, तो रात्रि में अष्टमी न होने पर भी सूर्योदय के अनुसार उसे अष्टमी तिथि के रूप में ही ग्राह्य करते हैं और श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व को मनाते हैं ।

कलाकाष्ठामुहूर्तापि यदा कृष्णाष्टमीतिथि: ।

नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात्सप्तमीसंयुता नहि ॥

Sunday, 18 August 2024

ज्योतिष दोहे

> *ज्योतिषीय Poem* 

सूर्य देव तो पिता तुल्य हैं,चंद्र हैं मात समान ।
मंगल बनकर छोटे भ्राता,करें सेनापति का काम।
बुध,बहन, बुआ,व्यापार,करते वारे न्यारे ।
गुरु देव ज्ञान के दाता,होते सबके प्यारे ।
शुक्र दान कर वैभव का , जग में सम्मान बढ़ाते ।
शनि की बात ना पूछे कोई,वो हैं सबसे निराले ।
कर्मों का लेखा जोखा ,होता सब उनके पास ।
बनकर सबके न्यायाधीश,वह करते हैं इंसाफ ।
राहु केतु तो छाया ग्रह हैं,बैठें जिसके साथ ।
कर देते हैं वारे न्यारे यदि संग हो शुभ ग्रह वास ।
जब कोई जीवन में अपने ,पिता का सम्मान घटाता ।
मान ,सम्मान वो खोता अपना, नेत्र रोग हो जाता ।
हड्डी के भी हैं वह कारक, आभामंडल दायक ।
जो पूजे उनको नित होता, जीवन भी सुखदायक ।
बात करें अब चंद्र देव की, जल के हैं वह कारक ।
मन भी उनके ही वश रहता, चंचल हो या नीरव ।
करने को एकाग्र स्वयं को, पूर्ण चंद्र(पूर्णिमा)सुखदाई ।
देकर धूप,दीप और अर्पण कर,जल को भी भाई ।
माता का सम्मान सदा ही, भरता सुख जीवन में ।
शांत रहे मन,रहे ना दुविधा,और किसी के मन में ।
शक्ति ,पराक्रम ,साहस देते ,मंगल देव अपार ।
भूमि पुत्र भौम की महिमा होती अपरम्पार ।
जब होते कमजोर किसी के, दुर्घटना से डरता ।
जीवन में रहता ना साहस, पग पग हौले भरता ।
बुध देव की कमजोरी से, बुद्धिमत्ता है जाती ।
वाणी पर रहता ना संयम, स्थूल प्रज्ञा हो जाती ।
शिक्षा, गणित, तर्क,अभिव्यक्ति,ज्योतिष के हैं कारक।
चर्म रोग का नाश करें ,जब स्थिति हो उनकी सम्यक ।
धर्म के रास्ते पर होकर ,जब गुरु देव ले जाते ।
पुत्र संतान, विवेक, बुद्धिमत्ता,अच्छे गुण हैं आते ।
जब यदि हों जीवन में दूषित, रहता ना फिर ज्ञान ।
धन, सम्पदा,त्याग ,निष्ठा का ,हो जाता अभिमान ।
अपने बड़े सभी हैं गुरु सम,आदर जो कोई करता ।
जीवन में सदा ही उनका, आशीर्वाद झलकता ।
प्रेम,सौंदर्य,सौभाग्य,आकर्षण,ऐश्वर्य शुक्र से आता ।
चांदी, चावल,श्वेत वस्त्र ,जब कोई दान कराता ।
जहां होती नारी की पूजा,शुक्र देव खुश रहते ।
रजोगुणी, चर प्रकृति,विलासी,मधुर स्वभाव हैं देते ।
गीत, संगीत,गृहस्थ जीवन में, रहती ना कोई बाधा ।
पति पत्नी जहां पर सब कुछ, बांटे आधा आधा ।
शनि हैं दास्य वृत्ति के कारक,कभी ना उनको सताना ।
वरना पड़ सकता है तुमको, जीवन में पछताना ।
दुःख,बीमारी,शोक,मृत्यु , दारिद्रय के हैं कारक ।
शनि वृद्ध हैं, अनुभव समृद्ध हैं, परिपक्वता के पूरक ।
जब कोई जीवन में होता, सत्य पथ का अनुगामी ।
शनि की कृपा बरसती उसपर, बन जाता वह ज्ञानी ।
लोभ , मोह, विद्वेष, वितृष्णा ,से वह पार लगाते ।
तत्व ज्ञान को देकर वह,आध्यात्मिक पथ पर ले जाते ।
जीवन में इन सभी ग्रहों की , होती कृपा अपार ।
जो समझे जीवन में इसको ,उसका बेड़ा पार ।

#रक्षा बंधन

॥रक्षाबन्धन मात्र भाई-बहन का पर्व नहीं॥

वर्तमान समय में भी अनेक स्थानों पर श्रावणपूर्णिमा के दिन ब्राह्मणों द्वारा यजमान को रक्षासूत्र बांधा जाता हैं। रक्षाबन्धन मात्र बहन के द्वारा सम्पादित होने वाला कार्य हो ऐसा कहीं भी उल्लिखित नहीं है।भविष्योत्तरपुराण में रक्षाबन्धन से सम्बन्धित आख्यायिका में इन्द्रपत्नी शची द्वारा देवासुरसंग्राम में इन्द्र को रक्षासूत्र बांधा गया यह वर्णन है-

अजेयः सर्वशत्रूणां कृतः शच्या शचीपतिः ।
रक्षाबन्धप्रभावेन दानवेन्द्रो जितो महान् ॥ (भविष्योत्तरपुराण १३७.४)
शुक्राचार्य कहते हैं कि- शची ने अपने पति इन्द्र को सभी शत्रुओं पर अजेय बनाया है, इस रक्षाबन्धन कर्म के प्रभाव से ही इन्द्र ने असुरराज को परास्त किया है।

रक्षाबन्धन के विधान के सम्बन्ध में कहा जाता है-
ब्राह्मणैः क्षत्रियैवैश्यैः शूद्रैश्वान्यैश्च मानवैः । 
कर्तव्योरक्षिकाबन्धो द्विजान्सम्पूज्य भक्तितः ॥ (भविष्योत्तरपुराण १३७.२१)
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों और अन्य मानवों को भी भक्ति पूर्वक ब्राह्मणों की पूजा करने के उपरांत रक्षाबन्धन करना चाहिए। 

नारदपुराण में भी 
रक्षाविधानं च तथा कर्तव्यं विधिपूर्वकम्।
सिद्धार्थाक्षतराजिकाश्च विधृता रक्तांशुकांशे सिताः 
कौसुंभेन च तंतुनाथ सलिलैः प्रक्षाल्य कांस्ये धृताः ॥
गंधाद्यैरभिपूज्य देवनिकरान्संप्रार्थ्य विष्ण्वादिकान्
बध्नीयात्द्विजहस्ततः प्रमुदितो नत्वा प्रकोष्ठे स्वके ॥ (नारदपुराण १.१२४.२८-३०)
द्विजों को उपाकर्म के दिन रक्षाविधान करना चाहिये। लाल कपड़े के एक भाग में सरसों तथा अक्षत रखकर उसे लाल रंग के सूत्र से बाँध दे, उसे जल से प्रोक्षित कर कांस्यपात्र में रखे। उस पात्र में गन्धादि उपचारों द्वारा श्रीविष्णु आदि देवताओं का प्रार्थनापूर्वक पूजन करें। तत्पश्चात् ब्राह्मण को नमस्कार कर ब्राह्मणद्वारा ही प्रसन्नतापूर्वक अपनी कलाई में उस रक्षासूत्र को धारण करवाएँ ।

अभिज्ञानशाकुन्तलम् में भी वर्णन है कि भगवानकश्यप ने जातकर्मसंस्कार के समय भरत को अपराजिता औषधि से युक्त रक्षासूत्र कलाई पर पहनाया था-
“अहो । रक्षाकरण्डकमस्य मणिबन्धे न दृश्यते ।एषाऽपराजिता नामौषधिरस्य जातकर्मसमये भगवता मारीचेन दत्ता ।”  (अभिज्ञानशाकुन्तलम्,सप्तमांक)

अतः (१) ब्राह्मण से पारम्परिक रक्षासूत्र अवश्य धारण करना चाहिए यही रक्षाबन्धन का शास्त्रीय विधान है, तत्पश्चात पति-पत्नी, भाई-बहन, पिता-पुत्र कोई भी रक्षासूत्र बांध सकता है। (२) ऐसा नहीं है कि वर्ष के अन्य दिनों में यह कार्य नहीं हो सकता, प्रत्येक अनुष्ठान से पूर्व रक्षाबन्धन कर्म होता ही है किन्तु श्रावणपूर्णिमा को इस कर्म का विशेष महत्व है। 

॥नारायण॥

Friday, 16 August 2024

ग्रहों के उच्च-नीच, मूलत्रिकोण, परमोच्च आदि का काव्यात्मक परिचय*

*ग्रहों के उच्च-नीच, मूलत्रिकोण, परमोच्च आदि का काव्यात्मक परिचय*
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            *सूर्य का परिचय*
            
*सूरज होता उच्च मेष में,*
 *नीच तुला में हो जाता है।*
 *स्वगृही और मूलत्रिकोण सब,*
 *सिंह राशि में कहलाता है।*
 *शासन सत्ता मान प्रतिष्ठा,*
 *पद मिलता सर्वोच्च।*
 *10 अंश पर हो जाता जब,*
 *मेष में रवि परमोच्च।।*

         *चंद्र का परिचय*
         

*मन के कारक चंद्रदेव हैं,*
 *2 में उच्च 8 में नीच।*
 *कर्क राशि में अपने घर के,*
 *मूल त्रिकोण हैं वृष के बीच।*
 *राशि दूसरी अंश 3 पर,*
 *परमोच्च हो जाते चंदा।*
 *धन दौलत से घर भरते पर,*
 *चंचल मन का होता बंदा।।*

           *मंगल का परिचय*
           

 *सेनापति हैं उच्च मकर में,*
 *नीच कर्क में हो जाते हैं।*
 *1और 8 में अपने घर के,*
 *मूलत्रिकोण मेष में कहलाते हैं।।*
 *अंश 28 प्राप्त करें जब,*
 *परम बली हो जाते मंगल।*
 *शत्रु नाश करते हैं महिसुत,*
 *बली होय नर जीते दंगल।।*

         *बुध का परिचय*
          

 *बुध वाणी के कारक होते,*
 *कन्या राशि बहुत पसंद है।*
 *यही उच्च व मूलत्रिकोण है,*
*अपने घर में परमानंद है।*
 *मिथुन में भी निज घर के होते,*
 *नीच मीन में हो जाते हैं।*
*पक्ष अंश पर परम उच्च हो,*
 *यह भविष्य भी बतलाते हैं।।*

        *गुरु का परिचय*
         

 *देवगुरु हैं उच्च कर्क में,*
 *नीच मकर में होते हैं।*
 *धनु मीन में अपने घर के,*
 *धनु मूलत्रिकोणी होते हैं।*
 *5 अंश पर कर्क राशि में,*
 *परम उच्च पद पाते हैं।*
 *धर्म-कर्म में मन लगता है,*
 *सुख संपत्ति भी दे जाते हैं।।*

            *शुक्र का परिचय*
             

 *निशाचरों के गुरु शुक्र हैं,*
 *उच्च मीन में हो जाते हैं।*
 *कन्या राशि में नीच के होते,*
 *मन को बहुत ये भरमाते हैं।*
 *दो और सात तो अपना घर है,*
 *मूलत्रिकोण भी तुला में है।*
 *जिनके 27 अंश में परम उच्च हों,*
 *उनके सम कौन जिला में है?*

        *शनि का परिचय*
         

 *बाप का उल्टा बेटा चलता,*
 *उच्च तुला में नीच मेष में।*
 *मकर कुंभ में अपने घर का,*
 *मूल त्रिकोणी मकर राशि में।*
 *कर्म का फल देता है रवि सुत,*
 *करता सबकी तफ्तीश।*
 *कर देता है रंक से राजा,*
 *हो तुला अंश जब बीस।।*

          *राहु का परिचय*
         

 *वृष में उच्च नीच वृश्चिक में,*
 *राहु की उल्टी चाल है।*
 *मिथुन में मूलत्रिकोण व निज घर,*
 *करते यहीं कमाल हैं।*
 *केवल सिर है जिधर देखते,*
 *उधर कराते पंगा हैं।*
 *अशुभ प्रभावी महादशा में,*
 *करवा देते दंगा हैं।।*

          *केतु का परिचय*
         

 *राहु से उल्टा केतु रहते,*
*उच्च 8 में नीच वृषभ में,*
 *धनु राशि में बैठे हों तो,*
 *मूलत्रिकोण होय स्वगृह में।*
 *धड़ केतु है यदि शुभ में हो,*
 *ध्वजा सदा फहराते हैं।*
 *व्यय भाव में बैठे हों तो,*
 *मोक्ष दायक बन जाते हैं।।*

🌹🌹👏👏💐💐