ज्योतिष समाधान

Saturday, 5 August 2023

पच भीकम

     प्रथम अध्याय

सूजी बोले सोनक मैं एक पुरातन धर्म कहता हूं सुनो।
कार्तिक शुक्ल पक्ष में एकादशी तिथि से लेकर पंच भीष्म नाम व्रत कहा है ।  एक बार इसी व्रत को ब्रह्मा ने श्री कृष्ण से पूछा था ।  ब्रह्मा  जी बोले कि हे भगवान मेरे ऊपर दया करके पंच भीष्म व्रत का फल मुझसे कहो। क्योंकि आप संपूर्ण जगत मैं श्रेष्ठ हो।  हे भगवान प्रथम तो यह कहो कि पहले यह व्रत किसने किया। मैंने सुना है की यह व्रत अन्य संपूर्ण ब्रतो में उत्तम है। इसमें किए स्नान आदि संपूर्ण तीर्थों के स्नानादि फलों को देने वाला है ।श्री कृष्ण बोले यह श्रेष्ठ व्रत थोड़ा कठिन व्रत है । लेकिन जो कोई इस व्रत को करता है । वह संपूर्ण फलों को प्राप्त होता है। शौनक ऋषियों से सूत जी बोले  । श्रेष्ठ जगत गुरु ब्रह्मा को । श्री कृष्ण भगवान के द्वारा जो व्रत बतलाया गया । वह मैं आपको कहता हूं।
कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी से प्रारंभ करके यह पांच दिन का पंच भीष्म नाम करके ब्रत है ।और यह व्रत पहले भीष्म जी ने और राजा युधिष्ठिर ने किया है ।




हे सोनक ऋषि एक वर्ष के एकादशी के व्रत करने से मनुष्य  जिस पुन्य को प्राप्त होता है ।उसी पुण्य को पंच भीष्मक व्रत करने से प्राप्त होता है । धर्म  को जानने वाले भीष्म जी ने यह पांच दिन का व्रत राजा युधिष्ठिर से कहा है। इसलिए इसका पंच भीष्म नाम हुआ है। विष्णु जी बोले हे राजन युधिष्ठिर यह व्रत बड़ा पवित्र और गुप्त है । इसलिए व्यतिपात अमावस्या और चंद्र सूर्य ग्रहण इनमें दान पुण्य आदि करने से मनुष्य जिस फल को प्राप्त होता है ।उसी फल को पंचभीष्म  व्रत करने से प्राप्त होता है ।
सतयुग में तो यह व्रत । वशिष्ठ  गर्ग  भृगु आदि मुनियों ने सदा किया है ।और त्रेतायुग में अंबरीश आदि राजाओं ने किया है। और कलयुग में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य स्त्री और शूद्र यह संपूर्ण काम अर्थ की सिद्धि के लिए इस व्रत को करेंगे ।
ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य जप होम में पारायण हुए ब्रम्हचर्य से व्रत करें । और शुद्र मंत्र वर्जित व्रत करें। व्रत करने वाला मनुष्य पृथ्वी में शयन  करें । और घी का अखंड दीपक रखें और पैरों में जूते चप्पल आदि का त्याग करें। और नवीन वस्त्र धारण करें। भीष्म जी बोले पहले सतयुग में
ब्रम्हांड पुर में वसले वाला एकअंबरीश नाम का राजा हुआ ।
यह बड़ा बुद्धिमान प्रजा पालन में तत्पर हुआ। पुत्र के तुल्य प्रजा की पालन करने से प्रजा उसको पिता मानती थी ।और राजाओं में शिरोमणि वह राजा ब्राह्मणों का भक्त था। संपूर्ण धर्मों को जानने वाला था ।वह राजा कुमार्ग में चलने वालों को दंड देने वाला और समुचित साधुओं का सेवक था । एक समय में उसके राजकुमार ने दूसरे के घर में चोरी की उस चोरी के प्रभाव से राजा पाप भागी हो गया।  अंबरिस राजा के  मन में एक समय में यज्ञ कार्य के लिए इच्छा हुई और ब्राह्मणों को निमंत्रण किया ।तब ब्राह्मण बोले हे राजन किस कारण आपने ब्राह्मणों को निमंत्रण किया है।राजा बोला मैं आपके कृपा सेअग्निहोत्र यज्ञ करने की इच्छा करता हूं । क्योंकि मेरे घर में होने वाला विघ्न अग्निहोत्र यज्ञ ही शांत कर सकता है।तब ब्राह्मण राजा का ऐसा वचन सुनकर राजा को दीक्षा देते हुए अग्नि को प्रज्वलित करने लगे । परंतु अग्नि देव कुंड में प्रकट नहीं हुए ।उस काल में अग्नि देव प्रगट नहीं होने के कारण ब्राह्मणों को बड़ी चिंता हुई।  ब्राह्मण कहने लगे। हे राजन तेरे जन्म को धिक्कार है। इस प्रकार कहकर संपूर्ण ब्राह्मण वहां से अपने अपने घर को चले गए। राजा पाप के प्रभाव से क्षण मात्र में महा कष्ट को प्राप्त हुआ ।

और अपने राज्य को त्याग कर गोदावरी ,गंगा, यमुना, ताप्ती ,आदि तीर्थों पर भ्रमण किया । जब तीर्थों पर भ्रमण करते हुये राजा वृंदावन आया । वृंदावन की शोभा को देखकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया । वहां किसी ब्राह्मण की कृपा से इतिहास सुना तो उसमें पंचभीष्म व्रत की महिमा बहुत वर्णन हुआ ।और सुना कि जो बुद्धिमान पंच भीष्म ब्रत ब्रह्मचर्य से करें वह मांस और मैथुन आदि को त्याग देवें  । तो उसके समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे। अंबरीश राजा ब्राह्मण का ऐसा वचन सुनकर ,जैसे कहा था वैसे ही विधिपूर्वक पंच भीष्म नाम का व्रत किया । उस व्रत के प्रभाव से राजा निर्मलता को प्राप्त हुआ । और कालिंदी मैं स्नान करके ब्राह्मणों को दान देकर प्रसन्न हो । राजा अपने घर में आया। और संपूर्ण पुर वासियों को यह सब वृतांत कहकर सुनाया । प्रेम से कहा हुआ उस राजा का वचन सुनकर वे संपूर्ण पुरबासी विधान से यथा योग व्रत करने लगे । जो मनुष्य इस कथा को सुनता है और जो इस  कथा को सुनाता है यह दोनों ही पापों से मुक्त होकर ब्रह्मलोक में निवास करते हैं । इतिश्री पदमपुराणने पंच भीष्म व्रत कथा प्रथम अध्याय समाप्त हुआ

                                द्वितीय अध्याय
        
भीष्म जी बोले हे युधिष्ठिर एकाग्र चित्त से और सुनो कि मनुष्य को दूसरे दिन क्या करना चाहिए। पुरुष और स्त्रियों को यह व्रत धर्म को बढ़ाने वाला है ।थोड़े पुण्य की लिए इसका विधान ना करें अर्थात इसको निष्काम करें।
एक समय राजा पृथु ने सब कर्मों की समृद्धि के लिए इसी व्रत को स्वयं किया था । और अपनी प्रजा से भी करवाया था। जो मनुष्य भक्ति भाव से यह पंचभीष्म ब्रत करता है वह इस लोक में समृद्धि को प्राप्त होता है। और परलोक में सुख को प्राप्त होता है । ब्रतो में अति श्रेष्ठ यह निर्मल पूर्ण रूप कार्तिक मास करने से और भीष्म जी को प्रसन्न करने वाला होने से पंचभीष्मनाम वाला व्रत हुआ। श्री कृष्ण कहते हैं।  सब ब्रतो में श्रेष्ठ महा पवित्र यह पांच दिन का व्रत भीष्म जी ने जैसे प्राप्त किया । वह आपको कहूंगा ।देवता और ब्राह्मणों के पूजने से बड़ी  और दूसरी इससे बड़ी वास्तु नहीं है । इस महा पुण्य के प्रभाव से इंद्र राज्य करता है ।एक समय इंद्र की अमरावती में रंभा नृत्य कर रही थी । उस काल में स्वभाविक अंगिरा ऋषि की पुत्री इंद्र के पास आ गई ।

उस समय में इंद्र ने गुरु की पुत्री को पाप दृष्टि से देखा ।तो देखते ही उसी क्षण में पाप के प्रभाव से इंद्र का श्याम रंग हो गया ।  उस समय इंद्र शीघ्र अमरावती पूरी को त्याग कर पृथ्वी तल में आया ।और पृथ्वी तल में काशी प्रयाग और मथुरा इनकी यात्रा करते हुए वृंदावन पहुंचे ।जहां हरि भगवान कृष्ण निवास करते हैं । वृंदावन में संपूर्ण शास्त्रों का पार गामी कोई विद्वान ब्राह्मण कथा कह रहा था।
कथा को इंद्र ने सुना और सुन कर के ब्राह्मण को कहने लगा हे भूदेव मैं पिशाच रूप से पृथ्वी तल में भ्रमण रहा हूं। ऐसा इंद्र का वचन सुनकर ब्राह्मण वचन कहने लगा ।ब्राह्मण बोला , जो बुद्धिमान पंचभीष्म को ब्रत करता है। व्रत के प्रभाव से संपूर्ण पापों से छूट कर निर्मल शरीर बाला हो जाता है। ऐसा कहकर ब्राह्मण ने उस स्थान में इंद्र से पांच दिनों का पंचभिष्म  व्रत करवाया ।  इस व्रत के प्रभाव से इंद्र निर्भयता को प्राप्त हुआ । उसके बाद में संपूर्ण देवता वहां आकर  इंद्र को यह बोले । अब मनुष्य लोक में आपको क्षण मात्र भी नहीं रहना है ।ऐसा कहने पर देवताओं के साथ इंद्र अपनी अमरावती को प्राप्त हुए ।और वहां जाकर सबसे भीष्म व्रत का महत्तम वर्णन किया।  इंद्र ने कहा हे देवताओं कहां तक कहूं में समर्थ नहीं हूं। यह पंचदीनात्मक ब्रत सबको करना चाहिए।
इंद्र का ऐसा वचन सुनकर देवता यह व्रत करने लगे।
और उत्तम फल को प्राप्त हुए ।भीष्म जी बोले । हे राजन युधिष्ठिर  तुमने मुझसे इस व्रत की महिमा पूछी।और  इस व्रत की महिमा मैंने तुमसे कहीं । हे राजन ,यह मेरा व्रत मनुष्यों को यथावत विधि से करना चाहिए। हे राजन लोगों के हित के लिए इस व्रत का महत्तम मैंने तुमसे कहा है। क्योंकि व्रत का करना तो दूर रहा इसके महत्तम के  पड़ने सुनने से ही मनुष्य के सब पाप नष्ट हो जाएंगे ।
  इति   पदमपुराने पंच भीष्म  महात्म  द्वितीय अध्याय समाप्त हुआ












                  तृतीय अध्याय



युधिष्ठिर बोले  व्रत के तीसरे दिन का  कर्तव्य  बताओ कि मनुष्य को क्या करना चाहिए ।क्योंकि आपको मैं सब जानता हूं ।भीष्म जी बोले हे राजन पहले त्रेतायुग में जैसे  यह ब्रत काम का और सिद्धि का देने वाला हुआ है।वह पापनाशिनी और सिद्धि दायिनी विचित्र कथा तुमसे कहता हूं । हे राजन पहले त्रेता युग में प्रजा के पालन में तत्पर अयोध्यापुरी में रहने  वाला असमंजा नाम का एक राजा हुआ। असमंजा राजा ने एक समय वेदपारगामी ब्राह्मणों को बुलाकर प्रसन्न हो विधि से विष्णु यज्ञ किया ।तब त्रिकाल के जानने वाले ब्राह्मण राजा को कहने लगे। ब्राह्मण बोले हे ।राजन तुम्हारे अज्ञान से यह यज्ञ किया है। क्योंकि पहले तुम्हारे पिता ने अज्ञान से कन्या का धन हरा था। उस पाप के प्रभाव से तुम्हारा पिता नरक को प्राप्त हुआ। पापों से मोहित हुए जो मनुष्य कन्या के द्रव्य से जीते हैं वह पुण्य क्षीण होकर नरक में जाते हैं ।और वहां की पीड़ा को भोगते हैं
इसलिए सब प्रकार से कन्या का धन ग्रहण नहीं करना चाहिए ।ऐसे ब्राह्मणों को कहे हुए वचन से राजा असमंजा चिंता से अत्यंत दुख हो गए । इस प्रकार राजा को दुखी देखकर वेदपार गामी ब्राह्मणों में जो  विद्वान अगस्त मुनि थे उन्होंने ऐसा वचन कहा ।अगस्त मुनि बोले हे राजन एक पापों की नष्ट करने वाली कथा सुनो। कि मैंने एक समय में पंचभिष्म नाम का व्रत किया था । उस व्रत के प्रभाव से मैंने समुद्र पान कर लिया था। इस प्रकार सुनकर राजा कहने लगा। उस पंचभीष्म व्रत की विधि मुझसे कहो। राजा असमंजाअगस्त मुनि से यथावत शास्त्र विधि सुनकर। कुटुंब सहित यह व्रत तीर्थ  पर किया। उस पंच भीष्म ब्रत के प्रभाव से असमंजा का पिता राजा नर्क से निकलकर दिव्य विमान पर चडकर बैकुंठ मंदिर में गए। ।राजा असमंजा पंच भीष्म ब्रत के प्रभाव से बैकुंठ को जाते हुए अपने पिता को देखकर बड़े हर्ष को प्राप्त हुआ। हे वीर उसके बाद राजा असमंजा ने अपने घर आकर यज्ञ का आरंभ किया ।और इसी प्रकार विधान से यथाशक्ति इस प्रकार यह राज शिरोमणि गांव भूमि स्वर्ण और सब वस्त्रों ब्राह्मणों को दान देकर । स्वयं यज्ञ स्नान किया यज्ञांति स्नान किया। उसके बाद ब्राह्मण आशीर्वाद देकर राजा को कहने लगे । हे राजन आपको धन्य है
क्योंकि आप ने यह बड़ा कर्म किया है ।जो देवताओं को दुर्लभ है। इस प्रकार राजा को ब्राह्मण कहकर अपने स्थान को चले गए ।हे राजन युधिष्ठिर वह राजा असमंजा अपने आप ही बैकुंठ को प्राप्त हुए ।भीष्म जी बोले हे राजन युधिष्ठिर इस प्रकार संपूर्ण में उत्तम यह व्रत आपसे कहा कि जिसके करने से मनुष्य संपूर्ण पापों से छूट जाता है। इसमें कोई संदेह नहीं है। माघ मास में प्रयाग में स्नान करने का फल है और बैसाख में ताप्ती के फल है ।और कार्तिक मास में गदाधर भगवान के आगे गया में पिंड दान में को करने का जो फल है । वही फल इस व्रत के महात्म  सुनने का फल है।
इति पदम पुराणे  पंचभीष्मक ब्रत कथा  तृतीय अध्याय  समाप्त हुआ









                               चतुर्थ अध्याय


राजा  युद्धिष्टर बोले की  चतुर्थ दशी का ब्रत और पुराणों में कही हुई उसकी कथा मुझको सुनाओ ।क्योंकि जिसके श्रवण मात्र से ही पुरुष नर्क छूट जाता है ।भीष्म जी बोले हे राजन सुनो ।पापों को हरने वाली बह कथा तुमसे कहता हु । जिसके करने से मनुष्य कर्म बंधन से छूट जाता है ।पहले सतयुग में बुद्धिमान  नारद मुनि ने महा घोर तप करके वशीभूत कर लिया। तब  इंद्र को अति चिंता हुई। और उसने रंभा को नारद मुनि के पास भेजा। रंभा ने  बहा आकर  पांच बाणों को धारण किया  हाव, भाव, कटाक्ष, द्वारा नाच गान करने लगी ।और गेंद क्रीड़ा से नारद मुनि को मोहित करने प्रयास  करने लगी।  लेकिन रंभा सफल नहीं हुई ।उसके वाद रंभा इंद्र के पास गई और  नारद मुनि का सारा   हाल सुनाया । इधर नारद जी ब्रह्मा जी के पास गए। और अपने तप का प्रभाव कहकर सुनाया। नारद मुनि बोले  । हे पिता मेने उग्र तप किया है।  और  बारह वर्ष पर्यन्त  तिलो का होम किया है।

पुत्र नारद का ऐसा वचन सुनकर ब्रह्मा ने कहा। कि हे पुत्र  अभिमान का वचन मेरे आगे कह दिया अब किसी और के सम्मुख नही कहना,। क्योंकि यह  अहंकार युक्त वचन  यदि शिव ने सुन लिया तो तुम्हारा  उपहास होगा।लेकिन नारद जी ने ब्रह्मा जी की बात नही मानी और कैलाश को चले गए। और शिव जी के पास जब नारद जी पहुंचे तो शिव जी ने उनका बहुत सत्कार किया। शिव बोले आओ नारद मुनि आप धन्य है ।आपने मेरा कैलाश पवित्र किया ।  आपका आगमन किस कार्य के लिए हुआ है ।में सुना चाहता हूं।क्योंकि प्रयोजन के बिना तो आपका आना हो नही सकता । शिव जी का वचन सुनकर   नारद बोले । हे महादेव एक ब्रत  जो मेने किया है। आपको सुनाता हूं की  जिस ब्रत को हर कोई नहीं कर सकता क्योंकि बह ब्रत कामराग से वर्जित है ।बारह वर्ष का व्रत कामदेव के मद को भंजन करने बाला है ।शिव जी बोले नारद आप का कहना सत्य है आप समान जितेंद्रिय दूसरा नही है  हे तात विष्णू के आगे आप ऐसा वृतांत कभी न का कहना ऐसा शिव का वचन सुनकर नारद मुनि वैकुंठ लोक को गए वहा विष्णू ने नारद मुनि का आधार पूर्वक स्वागत किया और श्री भगवन बोले आप धन्य है और मेरे भक्तो में शिरोमणि है। हे मुनी आपने कैसा तप किया है सुनाइए
नारद बोले हे प्रभु जो तप मैने किया है। वह तप बहुत कठिन है हे विष्णु तप के कारण मेने कामदेव का मान भंग कर दिया ऐसा सुनकर विष्णु भगवान बोले हे नारद  यहा समीप में ही एक सरोवर है उसमे से थोड़ा जल ले आओ। क्युकी जल लाने पर में तुमको चार भुजा दूंगा। इस प्रकार नारद जल लाने का एक पात्र लेकर उस सरोवर में गए वहा गंधर्व नगर के समान एक सुन्दर पुर है ।वहा नारद ने सुंदर मुख बाली सोलह वर्ष की एक कन्या देखी। वह कन्या कामदेव राजा के पुत्री थी उसको देखकर ही नारद मुनि कामदेव के  वाणों से पीड़ित हो गए ।और नारद मुनि उससे विवाह करने की इच्छा करके राजा कामदेव से उसकी याचना करने लगे ।नारद मुनि बोले हे राजन अपनी कन्या मुझे दो। आप की कन्या को मेरे समान अन्य वर नही मिलेगा। इस तरह नारद के वचन सुनकर राजा ने वचन कहा हे मुनी में तो अपनी कन्या चार भुजा वाले को दूंगा। ऐसा राजा के वचन सुनकर नारद मुनि विष्णू भगवान के  पास आए ।और विष्णु भगवान से बोले मुझको आप चतुर्भुज बना दो । ऐसा वचन को सुनकर विष्णु भागवान ने नारद को  बंदर का रूप बना दिया । ऐसे रूप लेकर नारद मुनि फिर वही शीघ्र आ गए और स्त्रियों के झुंड को ताकने लगे ।
स्त्रियां देखकर कहने लगी यह बंदर कहा से आ गया। ऐसा सुनते ही नारद मुनि ने अपने चेहरे को जल में देखा ।देखते क्या है की, बंदर का मुख है ऐसा देखकर नारद मुनि सम्पूर्ण तीर्थो पर भ्रमण करते हुए भगवन के वैकुंठ लोक को गए है। युधिष्ठिर ,नारद जीवन से निराश होकर लंबे लंबे स्वास लेता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। और संकल्प लेकर कहने लगा में निश्चय ही अपने प्राणों का त्याग करूंगा दुखित हुआ नारद वृक्ष के पास चिता लगाकर  तैयार हुए जैसे ही उसपे बैठने को तैयार हुआ ।तब विष्णु देव आकर प्रकट हो गए और नारद मुनि का दाहिना हाथ पकड़ कर चिता पर बैठने से रोक दिया। और दिव्य नर नारियों से युक्त अपनी पूरी का दर्शन कराया और उसके बाद भगवान ने अपना ऐसा रुप दिखाया की जो शंख चक्र गदा से शोभायान कोस्तुभ मढ़ी से विराजमान था ।जैसा कि नारद के प्रति अपना रुप वर्णन कर रखा था ।ऐसा ही रूप दिखाया नारद मुनि भगवान का रूप देखकर  स्तुति करने लगे कहने लगे आज मेरा जन्म सफल हुआ। नारद के ऐसे वचन सुनकर विष्णु भगवान बोले ।हे नारद फिर कभी तुम ऐसा गर्भ नही करना हे प्रतापवान अब तुम एक भीष्मक का व्रत करो नारद मुनि ने भगवान का वचन सुनकर पंच भीष्मक नाम का व्रत किए
उस व्रत के प्रभाव से शारीर निर्मल हो गया भीष्म जी बोले हे युधिष्ठिर जो तुमने व्रत का महात्म तुमने मुझसे पूछा था वह व्रत मेने तुमसे कहा जो इस व्रत को करता है वह विष्णु के परम पद को प्राप्त होता है
  इति श्री पदम पुराण उतराखंडे चतुर्थ अध्ययन समाप्त



                               पांचवा अध्याय

युधिष्ठिर बोले  हे भीष्म  जी संपूर्ण ब्रतो में कोन सा ब्रत श्रेष्ठ है  ।और कोन  से देवता हमेशा पूजा करने योग्य है। और संपूर्ण धर्मों में कोन धर्म सबसे उत्तम है । मुझे आप समझा कर कहो । भीष्म जी बोले  । संपूर्ण पापों को हरने वाली  कथा मुझसे सुनो। की संपूर्ण व्रतों में जिसके सुनने से श्रेष्ठ  व्रत और  संपूर्ण देवों में श्रेष्ठ देव निश्चित होता है। हे नृप श्रेष्ठ वह कथा  प्रारंभ से तुमको सुनाता हुं।की जिसके सुनने मात्र से ही संकट से छूट जाता है । हे राजन संपूर्ण  व्रतों में तो पंच भीष्म व्रत सबसे श्रेष्ठ है ।और संपूर्ण देवों में विष्णु भगवान सबसे श्रेष्ठ हैं।और तिथियां में एकादशी तिथि सबसे श्रेष्ठ है ।और वर्णों में ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ

पहले सतयुग में एक सुशर्मा नामक ब्राह्मण हुआ । बह प्रभावती नागपुरी में रहता था । सदा पाप कर्मों में तत्पर रहता था। यह सुशर्मा स्नान संध्या आदि कर्मों से रहित वेदा ध्यान में आलसी सदा दुष्ट स्वभाव चित को उद्वेग करने वाला और द्विज होकर भी यह महाकामी दासी के साथ रमण करता था। और कुटुंब सहित कृषि करता था। तथा वृक्षों का छेदन करता था ।वृक्ष छेदन प्रभाव से यह अंधा और पंगुला हो गया था ।हे राजन उस पाप के प्रभाव से वह सुशर्मा ब्राह्मण पुत्र सहित अंधा हो गया ।उसके अनंतर यह कुटुंब सहित सुशर्मा ब्राह्मण अपनी पु री को त्याग कर सदा तीर्थ तीर्थ पर भ्रमण करता हुआ बद्री नारायण को प्राप्त हुआ। और वहां भगवान नर नारायण के दर्शन कर फिर अपने देश को ही आ गया ।उसे काल में चिंता से व्याकुल सुशर्मा ब्राह्मण को देखकर  ब्राह्मण के ऊपर दया करके ब्रह्मा जी वहां आए ।और दुखित ब्राह्मण को वहां देखकर ब्रह्माजी वचन कहने लगे ।ब्रह्मा बोले, हैं ब्राह्मण कौन चिंता से तुम व्याकुल हो रहे हो। और किस कारण से तुम दीन मुख हो रहे हो ।और कौन कर्म के फल करके कुटुंब सहित तुम अंधे और पांगले हुए हो । हे विप्र यह अपने दुख का कारण मुझसे यथावत कहो ।
ऐसे ब्रह्मा के वाक्य सुनकर ब्राह्मण वचन कहने लगा। ब्राह्मण बोला, हे ब्रह्मा यह मेरा वचन सुनकर मेरे ऊपर दया करनी योग्य है । क्योंकि संपूर्ण कर्मों के फल से अंधापन तथा पंगुल जो मुझको प्राप्त हुआ है यह दुख है। अर्थात मुझसे सहा नहीं जाता। हे देवेश आपके प्रसाद से जो मेरा कल्याण हो जाए तो निश्चय मेरा यह अंधापन नष्ट हो जाए। इसमें संदेह नहीं है, वेद मंत्र, व्रत, तप ,दान ,संपूर्ण प्राणियों पर दया ,और श्रेष्ठ  शास्त्रों का श्रवण ,विष्णु भगवान की पूजा, और सज्जनों की संगति, यह सब अंधापन और पांगलपन नष्ट करने वाले हैं। ऐसा मैंने सुना है ,इसलिए हे ब्रह्मा देव वह व्रत मुझसे कहो। कि जिससे अंधापन और पांगुलापन नष्ट हो जाए । ऐसा सुनकर ब्रह्मा बोले हैं, द्विजोत्तम तुम इंद्रियों को रोक कर पांच भीष्म नाम व्रत करो । परंतु पुराणों में जैसी विधि कही है ,वैसी ही विधि से करो। वह विधि हम तुमसे कहते हैं ,एक बुद्धिमान मनुष्य प्रथम सुवर्ण की (सोना)  ,चांदी की ,अथवा तांबा की, यथाशक्ति लक्ष्मी और विष्णु भगवान की मूर्ति बनावे ।
और उसको स्थापन करके विधि पूर्वक उसका पूजन करें। बुद्धिमान मनुष्य द्वादश अक्षर मंत्र    ओम नमो भगवते वासुदेवाय    से केशर चढ़ा कर ,लक्ष्मी नारायण पूजन करें, पश्चात
पहले दिन ही ,भगवान के हृदय का,  कमल के फूल   से पूजन करे    
दूसरे दिन बिल्व पत्रों से, भगवान के घुटनों का, पूजन करें।

तीसरे दिन केत की पुष्पों से, भगवान के जंघा का, पूजन करें।

चौथे दिन चंपा के पुष्पों से, हरि भगवान के चरणों का, पूजन करें ।

पांचवें दिन अत्यंत भक्ति भाव से तुलसी की मंजरियों से, विष्णु भगवान के संपूर्ण अंगों का पूजन करें ।

और लक्ष्मी की सोने की मूर्ति बनवाकर बहा भगवान के समीप स्थान पर रख दें ।वह मूर्ति चार तोले की, अथवा दो तोले की, अथवा एक ही तोले की, जैसे अपनी शक्ति हो वैसी बनवावे । धन की कंजूसी कतई ना करें ,और पंचामृत से उसका स्नान कराकर पूजन करें ।उसके अनंतर लोभ रहित सदाचार से युक्त ,मन को जीतने वाला ,और इंद्रियों को जीतने वाला, ऐसा आचार्य ब्राह्मण को बुलवाकर शास्त्र अनुसार पूजा करावे। फिर बुद्धिमान मनुष्य आचार्य के वचन से यथा विधि स्वयं पूजा करे एकाग्रचित होकर ऋतु फल में होने वाले पुष्पों से उन मंत्र और नाम से अथवा पौराणिक वाक्य से यथा विधि सोडसो उपचार पूजन करें। और ऐसा कहें कि, हे महा विष्णु लक्ष्मी के सहित में आपका पूजन करता हूं ।आपको नमस्कार है ,है नारायण, हे रामेश्वर हे लक्ष्मीपति ,आपकी प्रसन्नता के लिए मैं शीतल दिव्य और कपूर केसर मिला हुआ यह चंदन आपको अर्पण करता हूं ।   हे प्रभु इस काल में होने वाले सुंदर पुष्प में आपको अर्पण करता हूं,। आपको नमस्कार है , हे महा विष्णु यह काली अगर का धूप सब देबोको प्रिय है  ,इसलिए संपूर्ण काम समृद्धि के लिए मैं आपको अर्पण करता हूं । हे अंधकार  को नष्ट करने वाले यह दीपक पापों को नष्ट करने वाला  है ,और जिससे दीप दान करके तेज प्राप्त होता है ,इसलिए  यह दीप अर्पण करता हूं। रमानाथ यह सुंदर नैवेद्य सुखों को देने वाला ,और भक्ष्य भोज्य से युक्त है ,इसलिए मैं आपको अर्पण करता हूं ।आप मेरे संपूर्ण पापों का क्षय करो। हे नारायण लक्ष्मीकांत आपको नमस्कार है ।हे जगत पते इस अर्घ  को देने से मेरे मनोरथ सफल हो जावे । ऐसा भगवान का पूजन कर के पश्चात गीत बाजा आदि से रात्रि में भगवान के समीप बैठकर जागरण करना और पुराणों का पठन तथा नृत्य करना और पुराणों की शुभ कथा श्रवण करनी उसके अनंतर जितेंद्रिय हुआ व्रती पुरुष प्रातः काल स्नान कर पूर्व में कहे हुए विधान करके ही फिर यत्न पूर्वक पूजन करें। हे नारद ऐसे इस मेंरे कहे  हुए विधान करके पाच दिनों में पूजन करें । उसके वाद पांचवे दिन बुद्धिमान मनुष्य इस व्रत का उद्यापन करें। परंतु पहले पांच वर्षों तक व्रत करके फिर उद्यापन करें । हे मुनि व्रत की संपूर्णता के लिए विधान से इस प्रकार पूजन आदि करें। हे ब्राह्मण इस विधि के करने से वह फल प्राप्त होता है। कि जो सहस्त्र एकादशी व्रत उसे फल प्राप्त होता है ।यह हमारे वचन असत्य नहीं हैं, किंतु सत्य ही है, परंतु व्रतों के संपूर्ण फल की इच्छा करता हुआ प्रति पुरुष पापी पुरुषों की संगति ना करें ।और सत्य भाषण ना करें     ,व्रती पुरुष स्त्रियों के साथ आलाप ,जुआ खेलना, इनको भी त्याग दें व्रत के पांचों ही दिनों में केवल भगवान नाम का स्मरण करें ।और दंत धवन करना आदि से सब नियम करके प्रथम दिन से लेकर पांच दिन पर्यंत  निर्विघ्नंतापूर्वक व्रत को समाप्त करें। भीष्म जी कहते हैं ,हे राजन युधिष्ठिर ब्रती पुरुष प्रात काल उठकरऔर जल का पात्र लेकर ,नैऋत्य कोण में जाकर मोन होकर प्रथम विष्ठा मूत्र का त्याग करें। पश्चात जल के समीप जावे । वहां हाथ पांव की शुद्धि करने के पश्चात मुख शुद्ध करें ।इस प्रकार से निर्गुण्डी  ,दूध वाले ,वृक्ष कांटो वाले वृक्ष, ऐसे पवित्र तथा सुगंधित वृक्ष, से बारह अंगुल की दातुन लेवे।और यह आगे कहा हुआ मंत्र पड़े ।   

आयुर्बलं यशो वर्च: प्रजाः पशुवसूनि च |
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ||

हे वनस्पति, आयु, बल, यश, तेज ,संतति ,पशु, द्रव्य ,ज्ञान, बुद्धि ,और धारण शक्ति मुझको दो । उसके वाद बुद्धिमान  मनुष्य के बनाए हुए तालाब आदि के, अथवा देव खात ,नदी आदि के निर्मल जल में वैदिक मंत्रों से स्नान करके, संपूर्ण पापों के हरने वाले सुंदर मृतिका, गोमय आंवला, और तिल, इनसे विधि पूर्वक स्नान करें। पश्चात पवित्र हो, श्वेत वस्त्र धारण करके, अपना नित्य कर्म करें। और बुद्धिमान मनुष्य पूर्व उक्त विधान से भगवान का पूजन करें। ही विप्र इस प्रकार की विधि से तुम पंच भीष्म व्रत करो ।हे ब्राह्मण यह  महाव्रत देवताओं को भी दुर्लभ है। । ब्राह्मण को मारने वाला, गुरु भार्या से गमन करने वाला ,मदिरा पीने वाला, द्रव्य को चुराने वाला ,और महापातकी,एक बार इस पूजन मात्र के करने से ही सब पापों से छूट जाता है ।फिर व्रत के करने से छूटे इसको कहना ही क्या है ।इससे अधिक श्रेष्ठ व्रत तीनों लोको में और नहीं है । क्या कुल से हो सकता है ,क्या आचार से ,क्या सील से, और क्या गुण से हो सकता है।  अर्थात यह सहायक नहीं हो सकते हैं ।महा पवित्र जंबूद्वीप में जन्म पाकर जो बुद्धिमान मनुष्य हरि भगवान का पूजन करता है। स्मरण करता है ,वही कुलीन आदि गुणों से युक्त इस व्रत को नहीं करके ही, मनुष्य अधोगति को प्राप्त होता है ।करने से कभी नहीं होता, धर्म हीन मनुष्य के दिन वैसे ही आते हैं, और चले जाते हैं ,कोई सुकृत नहीं करता ,जो यह व्रत पूजन नहीं करता है ,उसका जीना ऐसे निरर्थक है की जैसे लोहार की धमनी । इसलिए बारंबार प्रभु विष्णु का पूजन करें ,और ब्राह्मणों का पूजन करें ,माघ कार्तिक चैत्र आषाढ़ और श्रावण इन मासो में तथा अन्य पवित्र मासो में इस व्रत को करें, कार्तिक मास में तो इस व्रत के करने से मनुष्य विशेषकर के फल को प्राप्त होता है ।वह इस प्रकार से व्रती मनुष्य प्रातकाल उठकर, शौच को जाकर दंत धावन पूर्वक स्नान करें। इस प्रकार से ब्रह्मा के वचन सुनकर ब्राह्मण वचन कहने लगा। ब्राह्मण बोला है, प्रभु इस व्रत के उद्यापन की विधि विस्तार पूर्वक मुझसे कहो ।ब्रह्मा जी बोले कि, हे विप्र विशेष करके कार्तिक शुक्ल पक्ष में एकादशी को इस व्रत को करें। और पूर्णिमा को समाप्ति कर देवें। अब विष्णुधर्मोत्तर पंच भीष्म व्रत के उद्यापन की विधि कहते हैं ।श्री कृष्ण भगवान बोले पंच भीष्म  ब्रत  होने पर ,पंचगव्य से अपने शरीर को पवित्र करें। और   अपने संपूर्ण पाप उच्चारण कर, संकल्प करें ।उसके वाद सावधान हुआ जितेंद्रीय व्रती पुरुष इस प्रकार से ब्रह्मा के वचन सुनकर ब्राह्मण वचन कहने लगा । ब्राह्मण बोला हे प्रभु इस व्रत के उद्यापन की विधि विस्तार से मुझसे कहो ।

ब्रह्माजी बोले, विशेष करके कार्तिक के शुक्ल पक्ष में एकादशी को इस व्रत को प्रारंभ करें ।और पूर्णिमा को समाप्ति कर देवें। अब विष्णु धर्मोत्तर से पंच भीष्म व्रत के उद्यापन की विधि कहते हैं। श्री कृष्ण भगवान बोले ,प्रथम पंच भीष्म प्राप्त होने पर पंचगव्य से अपने शरीर को पवित्र करें ।और अपने संपूर्ण पाप उच्चारण करें संकल्प करें। उसके वाद सावधान हुआ ,जितेंद्रिय  व्रती पुरुष कार्तिक की पूर्णिमा में व्रत को समाप्त करके उद्यापन करें ।वह इस प्रकार से की प्रथम विद्वान ब्राह्मण आचार्य को बुलावे ।और पश्चात रित्विक ब्राह्मणों को बरण करे ।
वह स्वस्तिवाचन करावे । और काल रूप जनार्दन भगवान की सोने की मूर्ति बनवावे। ऐसी की सोलह मासे की हो, अथवा आठ मासे की हो ,अथवा एक ही मासे की हो, यथाशक्ति मूर्ति बनवा दे ,पैसे की कमी ना करें, पश्चात वस्त्र लपेटकर उस मूर्ति को षोडशोपचार से पूजन करें ।और रात्रि में जागरण करें ,और प्रातः काल सूर्योदय होने पर अपना नित्य नियम करके प्रति मंत्र स्वाहा शब्द उच्चारण करके पुरुष सूक्त से हवन करें । उसके वाद पीपल की समिधा प्रज्वलित करें । एक सो आठ आहुतियां खीर से विष्णु भगवान के दस अवतारों के निमित्त देवें ।पश्चात वस्त्र से लपेटी हुई और पूजन की हुई वह भगवान की मूर्ति और सबत्सा गौ अर्थात बछड़े वाली आचार्य को देवें ।
इसके अनंतर एकाग्र चित से ब्राह्मणों एवं ब्राह्मणी सहित पांच ब्राह्मण को भोजन करावे ।और बंधुओं के साथ आप भोजन करें ।पापों को नष्ट करने वाली यह पवित्र व्रत, पूर्व कई हुई इस विधि से मनुष्य करें ,तो पूर्व जन्म, वर्तमान जन्म, और आगे होने वाला जन्म ,इन तीनों जन्मों के पापों से छूट जाता है। इस प्रकार के यह वाक्य ब्राह्मण सुनकर विधि पूर्वक इस व्रत को किया ।और इस पंच भीष्म व्रत के प्रभाव से पापों से छूट कर शुद्ध हो कुटुंब सहित दिव्य चक्षु हो गया। यह  सुशर्मा ब्राह्मण उत्तम पंच भीष्म व्रत का महत्व इस प्रकार सुनाया ।और सर्वथा तो पंच भीष्म व्रत का महात्मय कहने को ब्रह्मा भी समर्थ नहीं है। भीष्म जी बोले राजन  युधिष्ठिर भक्ति भाव से यह पंच भीष्म व्रत तुमको करना योग्य है। क्योंकि जिससे यह व्रत संपूर्ण पापो को दूर करने वाला और पाप के समूह को नष्ट करने वाला है ।इस व्रत की विधि और महात्मय को जो उत्तम मनुष्य श्रवण करेंगे ।वह इस लोक में संपूर्ण कामनाओं को भोग कर अंत में अपने कुल कोटीयों सहित स्वर्ग में प्राप्त होंगे
इतिश्री पद्म  पुराण पंच भीष्म पंचम अध्याय समाप्त हुआ 

Wednesday, 2 August 2023

महामृत्युंज अनुष्ठान पूजन सामग्री पर्णकुटी गुना {【9893946810】

हल्दीः--------------------------50 ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------10गोले ग
३】गुलावजल--------    100ग्राम
४】कपूर---------------------   50 ग्राम
५】केसर-------------------------   1डिव्वि
६】चंदन पेस्ट ------------------ 50 ग्राम
७】यज्ञोपवीत -----------------   2 मुुठा
८】चावल---------------------- 15 किलो
९】अबीर-------------------------50 ग्राम
१०】गुलाल,------1000ग्राम,{पांच प्रकार की }
११】अभ्रक-------------------100 ग्राम
१२】सिंदूर --------------------100 ग्राम
१३】रोली, --------------------100ग्राम
१४】सुपारी, ( बड़ी)--------  200 ग्राम
१५】नारियल -----------------  21 नग्
१६】सरसो पीली---------------50 ग्राम
१७】पंच मेवा--------------100 ,100 ग्राम ({अलग ,अलग}
१८】शहद (मधु)--------------- 100 ग्राम
१९】शकर-----------------------0 3 किलो
२०】घृत (शुद्ध घी)------------  03 किलो
२१】इलायची (छोटी)-----------10ग्राम
२२】लौंग मौली-------------------10ग्राम
२३】इत्र की शीशी----------------1 नग्
२४】रंग लाल----------------------20ग्राम
२५】रंग काला --------------------20ग्राम
२६】रंग हरा -----------------------20ग्राम
२७】रंग पिला ---------------------20ग्राम
२८】चंदन मूठा--------------------1 नग्
२९】धुप बत्ती -----------------2 पैकिट

30】तिल का तेल -------------2 लीटर 
(31)दाख {बड़ी}-----------------50 ग्राम
32】आँवला --------------------50ग्राम
(32)मूँग बडी--------------------200ग्राम
(33)पापाड़थेली------------------01थैली
34 पीताम्बरी बर्तन साफ करने के लिए 500ग्राम 
नागफनी किले 04नग
कच्चा सूत  गोले 05   नग 

Gurudev Bhubaneswar:
Parnkuti ashram guna
9893946810
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३०】सप्तमृत्तिका
1】 हाथी के स्थान की मिट्टि-------50ग्राम
२】घोड़ा बांदने के स्थान की मिटटी--50ग्राम
३】बॉबी की मिटटी--------------50ग्राम
४】तुलसी की मिटटी-------------50ग्राम
५】नदी संगम की मिटटी---------------50ग्राम
६】तालाब की मिटटी-------------------50ग्राम
७】गौ शाला की मिटटी-----------------50ग्राम
राज द्वार की मिटटी-----------------------50ग्राम
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३१】पंचगव्य
१】 गाय का गोबर --------------50 ग्राम
२】गौ मूत्र-------------------------50ग्राम
३】गौ घृत-------------------------50ग्राम
4】गाय दूध-----------------------50ग्राम
५】गाय का दही -----------------50ग्राम
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३२】सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम
१】 जौ-----------
२】गेहूँ-
३】चावल-
४】तिल-
५】काँगनी-
६】उड़द-
७】मूँग
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३३】कुशा 
३४】दूर्वा
35】पुष्प कई प्रकार के 
३६】गंगाजल
३७】ऋतुफल पांच प्रकार के -----1 किलो
38】पंच पल्लव
१】बड़,
२】 गूलर,
३】पीपल,
४】आम 
५】पाकर के पत्ते)
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३९】बिल्वपत्र
४०】शमीपत्र
४१】सर्वऔषधि 
४२】अर्पित करने हेतु पुरुष बस्त्र
४३】मता जी को अर्पित करने हेतु  
सौ भाग्यवस्त्र 

बर्तन
44】

(1)जल कलश तांबे के
मिट्टी के कलश ढक्कन सहित 5 नग
खप्पर 5 


१】सफेद कपड़ा 3मीटर
२】लाल कपड़ा 2मीटर
(3)पीला कपड़ा3मीटर
४】हरा कपड़ा 1मीटर
(5) काला कपडा 1मीटर
पीला चद्दर 1
छींट का कपड़ा 2मीटर

 Gurudev Bhubaneswar: 

पान के पत्ते ------------11 नग
रुई मेडिकल वाली 500 ग्राम
भस्म 100 ग्राम
बन्दनवार
पान के पत्ते ------------11


 ब्राह्मणों के लिए उपयोगी 


सावुन नहाने के---------------10
सावुन कपड़े धोने के --------10
सर्फ कपडे धोने का ---------1 किलो
मंजन -------------------------100ग्राम
तेल ----------------------------100ग्राम

Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti aashram
Guna
9893946810