ज्योतिष समाधान

Monday, 31 January 2022

शिव के 19 अवतार हुए थे। आइए जानें शिव के 19 अवतारों के बारे में।

भगवान शिव के 19 अवतार 
🔸🔸🔹🔸🔸🔹🔸🔸
शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। आइए जानें शिव के 19 अवतारों के बारे में।

1- वीरभद्र अवतार
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वारा
आयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग
किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो
उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे
रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

2- पिप्पलाद अवतार
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से
पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व
ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की
दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर
बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का
श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।

3- नंदी अवतार
🔸🔸🔹🔸🔸
भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का
अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने
अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव
की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

4. भैरव अवतार
🔸🔸🔹🔸🔸
शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप
बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से
प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने
लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा 
🔸🔸🔹🔸🔸
महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र
अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार
थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की
लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान
दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मेें अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6- शरभावतार 
🔸🔸🔹🔸🔸
भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था।
लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसके
अनुसार-हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात
भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता
शिवजी के पास पहुंचे। तब भगवान शिव ने शरभावतार
लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की, लेकिन नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत
नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा
याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7- गृहपति अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा
इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक
नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने
के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर
तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की।
एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई
दिया। मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी
पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से
अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति
गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्मा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8- ऋषि दुर्वासा 
🔸🔸🔹🔸🔸
भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का
अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी
सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता
का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।

9- हनुमान 
🔸🔹🔸
भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ
माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और
दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को
देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना
वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10- वृषभ अवतार 
🔸🔸🔹🔸🔸
भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार
लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का
संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु
दैत्यों को मारने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी
चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11- यतिनाथ अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि
बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण
भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के
अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल
आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का
मार डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12- कृष्णदर्शन अवतार
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों
के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म
का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय
श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ।
विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण
द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्ण दर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा- वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13- अवधूत अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14- भिक्षुवर्य अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर
प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य
अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ
नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती
पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची।
तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को
बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का
निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ
नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप
दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक
का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने
शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना
राज्य प्राप्त किया।

15- सुरेश्वर अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ।
उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर
शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा
क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया।
उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का
पद भी दिया।

16- किरात अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की
वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार
कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व
पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान
जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मारने के लिए शूकर( सुअर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा।
अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय
भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17- सुनटनर्तक अवतार 
🔸🔸🔹🔸🔹🔸🔸
पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ
मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था।
हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए।
जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो
नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस
पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज
वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं
चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान
हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय
किया।

18- ब्रह्मचारी अवतार 
🔸🔸🔹🔹🔸🔸
दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय
के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए
घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए
शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे।
पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की।
जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और
जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी
व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध
हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें
अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति
प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार 
🔸🔸🔹🔸🔸
यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या
अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था। धर्म
ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा मांगी!
Gurudev
Bhubneshwar
पर्णकुटी गुना
9893946810

नवग्रह दोष दूर करने के उपाय


पीपल द्वारा नवग्रह दोष दूर करने के उपाय वैदिक दृष्टिकोण से:-

भारतीय संस्कृतिमें पीपल देववृक्ष है, इसके सात्विक प्रभाव के स्पर्श से अन्त: चेतना 
पुलकित और प्रफुल्लित होती है।स्कन्द पुराणमें वर्णित है कि अश्वत्थ (पीपल) के मूल 
में विष्णु, तने में केशव, शाखाओं में नारायण, पत्तों में श्रीहरि और फलों में सभी देवताओं 
के साथ अच्युत सदैव निवास करते हैं।पीपल भगवान विष्णु का जीवन्त और पूर्णत:
मूर्तिमान स्वरूप है। भगवानकृष्णकहते हैं- समस्त वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूँ।
स्वयं भगवान ने उससे अपनी उपमा देकर पीपल के देवत्व और दिव्यत्व को व्यक्त 
किया है। शास्त्रों में वर्णित है कि पीपल की सविधि पूजा-अर्चना करने से सम्पूर्ण देवता 
स्वयं ही पूजित हो जाते हैं।पीपल का वृक्ष लगाने वाले की वंश परम्परा कभी विनष्ट 
नहीं होती। पीपल की सेवा करने वाले सद्गति प्राप्त करते हैं।
अश्वत्थ सुमहाभागसुभग प्रियदर्शन। 
इष्टकामांश्चमेदेहिशत्रुभ्यस्तुपराभवम्॥ 

प्रत्येक नक्षत्र वाले दिन भी इसका विशिष्ट गुण भिन्नता लिए हुए होता है।
भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कुल मिला कर 28 नक्षत्रों कि गणना है, तथा प्रचलित 
केवल 27 नक्षत्र है उसी के आधार पर प्रत्येक मनुष्य के जन्म के समय नामकरण होता है।
अर्थात मनुष्य का नाम का प्रथम अक्षर किसी ना किसी नक्षत्र के अनुसार ही होता है।
तथा इन नक्षत्रों के स्वामी भी अलग अलग ग्रह होते है।विभिन्न नक्षत्र एवं उनके स्वामी 
निम्नानुसार है यहां नक्षत्रों के स्वामियों के नाम कोष्ठक में है जिससे आपको जनलाभार्थ
ज्ञान वृद्धि हो-:-

(१)अश्विनी(केतु), (१०)मघा(केतु), (१९)मूल(केतु),
(२)भरणी(शुक्र), (११)पूर्व फाल्गुनी(शुक्र), (२०)पूर्वाषाढा(शुक्र),
(३)कृतिका(सूर्य), (१२)उत्तराफाल्गुनी(सूर्य), (२१)उत्तराषाढा(सूर्य),
(४)रोहिणी(चन्द्र), (१३)हस्त(चन्द्र), (२२)श्रवण(चन्द्र), 
(५)मृगशिर(मंगल), (१४)चित्रा(मंगल), (२३)धनिष्ठा(मंगल),
(६)आर्द्रा(राहू), (१५)स्वाति(राहू), (२४)शतभिषा(राहू), 
(७)पुनर्वसु(वृहस्पति), (१६)विशाखा(वृहस्पति), (२५)पूर्वाभाद्रपद(वृहस्पति),
(८)पुष्य(शनि), (१७)अनुराधा(शनि), (२६)उत्तराभाद्रपद(शनि)
(९)आश्लेषा(बुध), (१८)ज्येष्ठा(बुध), (२७)रेवती(बुध)

ज्योतिष शास्त्र अनुसार प्रत्येक ग्रह 3, 3 नक्षत्रों के स्वामी होते है।
कोई भी व्यक्ति जिस भी नक्षत्र में जन्मा हो वह उसके स्वामी ग्रह से सम्बंधित दिव्य 
पीपल के प्रयोगों को करके लाभ प्राप्त कर सकता है।
अपने जन्म नक्षत्र के बारे में अपनी जन्मकुंडली को देखें या अपनी जन्मतिथि और 
समय व् जन्म स्थान लिखकर भेजे,या अपने विद्वान ज्योतिषी से संपर्क कर जन्म का 
नक्षत्र ज्ञात कर के यह सर्व सिद्ध प्रयोग करके लाभ उठा सकते है।

    सूर्य:-

जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान सूर्य देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है।
(अ) रविवार के दिन प्रातःकाल पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा करें।
(आ) व्यक्ति का जन्म जिस नक्षत्र में हुआ हो उस दिन (जो कि प्रत्येक माह में अवश्य 
आता है) भी पीपल वृक्ष की 5 परिक्रमा अनिवार्य करें।
(इ) पानी में कच्चा दूध मिला कर पीपल पर अर्पण करें।
(ई) रविवार और अपने नक्षत्र वाले दिन 5 पुष्प अवश्य चढ़ाए। साथ ही अपनी कामना 
की प्रार्थना भी अवश्य करे तो जीवन की समस्त बाधाए दूर होने लगेंगी।

   चन्द्र:-

जिन नक्षत्रों के स्वामी भगवान चन्द्र देव है, उन व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है।
(अ) प्रति सोमवार तथा जिस दिन जन्म नक्षत्र हो उस दिन पीपल वृक्ष को सफेद 
पुष्प अर्पण करें लेकिन पहले 4 परिक्रमा पीपल की अवश्य करें।
(आ) पीपल वृक्ष की कुछ सुखी टहनियों को स्नान के जल में कुछ समय तक रख 
कर फिर उस जल से स्नान करना चाहिए।
(इ) पीपल का एक पत्ता सोमवार को और एक पत्ता जन्म नक्षत्र वाले दिन तोड़ कर 
उसे अपने कार्य स्थल पर रखने से सफलता प्राप्त होती है और धन लाभ के मार्ग 
प्रशस्त होने लगते है।
(ई) पीपल वृक्ष के नीचे प्रति सोमवार कपूर मिलकर घी का दीपक लगाना चाहिए।

   मंगल:-

जिन नक्षत्रो के स्वामी मंगल है. उन नक्षत्रों के व्यक्तियों के लिए निम्न प्रयोग है.... 
(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और प्रति मंगलवार को एक ताम्बे के लोटे में जल लेकर 
पीपल वृक्ष को अर्पित करें।
(आ) लाल रंग के पुष्प प्रति मंगलवार प्रातःकाल पीपल देव को अर्पण करें।
(इ) मंगलवार तथा जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 8 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।
(ई) पीपल की लाल कोपल को (नवीन लाल पत्ते को) जन्म नक्षत्र के दिन स्नान के 
जल में डाल कर उस जल से स्नान करें।
(उ) जन्म नक्षत्र के दिन किसी मार्ग के किनारे १ अथवा 8 पीपल के वृक्ष रोपण करें।
(ऊ) पीपल के वृक्ष के नीचे मंगलवार प्रातः कुछ शक्कर डाले।
(ए) प्रति मंगलवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन अलसी के तेल का दीपक पीपल 
के वृक्ष के नीचे लगाना चाहिए।

    बुध:-

जिन नक्षत्रों के स्वामी बुध ग्रह है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग 
करने चाहिए।
(अ) किसी खेत में जंहा पीपल का वृक्ष हो वहां नक्षत्र वाले दिन जा कर, पीपल के 
नीचे स्नान करना चाहिए।
(आ) पीपल के तीन हरे पत्तों को जन्म नक्षत्र वाले दिन और बुधवार को स्नान के 
जल में डाल कर उस जल से स्नान करना चाहिए।
(इ) पीपल वृक्ष की प्रति बुधवार और नक्षत्र वाले दिन 6 परिक्रमा अवश्य करनी चाहिए।
(ई) पीपल वृक्ष के नीचे बुधवार और जन्म, नक्षत्र वाले दिन चमेली के तेल का दीपक 
लगाना चाहिए।
(उ) बुधवार को चमेली का थोड़ा सा इत्र पीपल पर अवश्य लगाना चाहिए अत्यंत 
लाभ होता है।

वृहस्पति:-

जिन नक्षत्रो के स्वामी वृहस्पति है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग 
करने चाहियें।
(अ) पीपल वृक्ष को वृहस्पतिवार के दिन और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन पीले पुष्प 
अर्पण करने चाहिए।
(आ) पिसी हल्दी जल में मिलाकर वृहस्पतिवार और अपने जन्म नक्षत्र वाले दिन 
पीपल वृक्ष पर अर्पण करें।
(इ) पीपल के वृक्ष के नीचे इसी दिन थोड़ा सा मावा शक्कर मिलाकर डालना या 
कोई भी मिठाई पीपल पर अर्पित करें।
(ई) पीपल के पत्ते को स्नान के जल में डालकर उस जल से स्नान करें।
(उ) पीपल के नीचे उपरोक्त दिनों में सरसों के तेल का दीपक जलाएं।

    शुक्र:'

जिन नक्षत्रो के स्वामी शुक्र है. उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग 
करने चाहियें-:-

(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष के नीचे बैठ कर स्नान करना।
(आ) जन्म नक्षत्र वाले दिन और शुक्रवार को पीपल पर दूध चढाना।
(इ) प्रत्येक शुक्रवार प्रातः पीपल की 7 परिक्रमा करना।
(ई) पीपल के नीचे जन्म नक्षत्र वाले दिन थोड़ासा कपूर जलाना।
(उ) पीपल पर जन्म नक्षत्र वाले दिन 7 सफेद पुष्प अर्पित करना।
(ऊ) प्रति शुक्रवार पीपल के नीचे आटे की पंजीरी सालना।

    शनि:'

जिन नक्षत्रों के स्वामी शनि है. उस नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए..
शनिवार के दिन पीपल पर थोड़ा सा सरसों का तेल चडाना।
 शनिवार के दिन पीपल के नीचे तिल के तेल का दीपक जलाना।
 शनिवार के दिन और जन्म नक्षत्र के दिन पीपल को स्पर्श करते हुए उसकी 
एक परिक्रमा करना।
 जन्म नक्षत्र के दिन पीपल की एक कोपल चबाना।
 पीपल वृक्ष के नीचे कोई भी पुष्प अर्पण करना।
पीपल के वृक्ष पर मोलि बंधन।

     राहू:-

जिन नक्षत्रों के स्वामी राहू है उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न प्रयोग करने चाहिए...
(अ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल वृक्ष की 21 परिक्रमा करना।
(आ) शनिवार वाले दिन पीपल पर शहद चडाना।
(इ) पीपल पर लाल पुष्प जन्म नक्षत्र वाले दिन चडाना।
(ई) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल के नीचे गौमूत्र मिले हुए जल से स्नान करना।
(उ) पीपल के नीचे किसी गरीब को मीठा भोजन दान करना।

    केतु:-

जिन नक्षत्रों के स्वामी केतु है, उन नक्षत्रों से सम्बंधित व्यक्तियों को निम्न उपाय 
कर अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहिए।
(अ) पीपल वृक्ष पर प्रत्येक शनिवार मोतीचूर का एक लड्डू या इमरती चडाना।
(आ) पीपल पर प्रति शनिवार गंगाजल मिश्रित जल अर्पित करना।
(इ) पीपल पर तिल मिश्रित जल जन्म नक्षत्र वाले दिन अर्पित करना।
(ई) पीपल पर प्रत्येक शनिवार सरसों का तेल चडाना।
(उ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की एक परिक्रमा करना।
(ऊ) जन्म नक्षत्र वाले दिन पीपल की थोडीसी जटा लाकर उसे धूप दीप दिखा कर 
अपने पास सुरक्षित रखना।

अथर्ववेदके उपवेद आयुर्वेद में पीपल :-

के औषधीय गुणों का अनेक असाध्य रोगों में उपयोग वर्णित है। पीपल के वृक्ष के नीचे 
मंत्र, जप और ध्यान तथा सभी प्रकार के संस्कारों को शुभ माना गया है। श्रीमद्भागवत् 
में वर्णित है कि द्वापर युग में परमधाम जाने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण इस दिव्य पीपल 
वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान में लीन हुए। यज्ञ में प्रयुक्त किए जाने वाले 'उपभृत पात्र' 
(दूर्वी, स्त्रुआ आदि) पीपल-काष्ट से ही बनाए जाते हैं। पवित्रता की दृष्टि से यज्ञ में 
उपयोग की जाने वाली समिधाएं भी आम या पीपल की ही होती हैं। यज्ञ में अग्नि 
स्थापना के लिए ऋषिगण पीपल के काष्ठ और शमी की लकड़ी की रगड़ से अग्नि 
प्रज्वलित किया करते थे।ग्रामीण संस्कृति में आज भी लोग पीपल की नयी कोपलों 
में निहित जीवनदायी गुणों का सेवन कर उम्र के अंतिम पडाव में भी सेहतमंद बने रहते हैं।
आयु: प्रजांधनंधान्यंसौभाग्यंसर्व संपदं। 
देहिदेवि महावृक्षत्वामहंशरणंगत:॥


Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti guna
9893946810

Thursday, 20 January 2022

लक्ष्मीपूजन सामग्री लिस्ट ऐबं लक्ष्मी पूजन मुहूर्त

महा लक्ष्मीपूजन सामग्री लिस्ट 
अगर पण्डित जी से पूजन  करवांना  हो तो पण्डित जी से पूछ कर ही सामग्री आव्यशकतानुसार   कम या ज्यादा ला सकते है 
  
पाना लक्ष्मी व श्री गणेश की मूर्तियां (बैठी हुई मूर्ति

१】हल्दी
२】चंदन
३】 कपूर 
४】केसर 
५】यज्ञोपवीत 5 
६】रोली (कुंकु)
७】चावल 
८】अबीर 
९】गुलाल, 
१०】बडी गोल सुपारी 
११】लौंग
१२】इलायची
१३】सिन्दूर
१४】यग्नोपवीत(जनेऊ)
१५】कलावा(मौली)
१६】माचिस
१७】इत्र
१८】रुई 
१९】बताशे
 २०】 बदाम 
२१】काजू
२२】पिस्ता
२३】चिरोंजी 
२४】मिश्री
२५】खीले 
२६】 परमल
२७ )गुलाव जल
२८】गंगाजल

पंचामृत के लिये
२९】शहद (मधु) 
३०】शकर
३१】 घृत (शुद्ध घी) 
३२】दही 
३३】दूध 

३४】ऋतुफल(गन्ना, सीताफल, सिंघाड़े इत्यादि) 
३५】नैवेद्य या मिष्ठान्न (पेड़ा, मालपुए इत्यादि)
 ३६】पूजा के लिये पैसे 
३७】फूल कमल के ऐबं अन्य फूल भी
३८】दूर्वा(दूवा या दरवा)
३९】शमी पत्र
४०】तुलसी दल 
४१】पंच पल्लव
४२】(बड़, गूलर, पीपल, आम और पाकर के पत्ते)  सम्भब हो तो

४३】 लक्ष्मीजी का पाना (अथवा मूर्ति) 
४४】गणेशजी की मूर्ति सरस्वती का चित्र 
४५】चाँदी का सिक्का  श्रद्धानुसार 
४६】लक्ष्मीजी को अर्पित करने हेतु वस्त्र  श्र्द्धा अनुसार 
४७】सौभाग्य सामग्री 
48】दीपक  के लिये तेल और  घी 
४९】जल कलश (ताँबे और  मिट्टी के) 
५०】सफेद कपड़ा (आधा मीटर)
५१】लाल कपड़ा (आधा मीटर) 
५२】दीपक बड़े  2 और  छोटे दिपक परम्परा अनुसार
५३】 ताम्बूल (लौंग लगा पान का बीड़ा) 
५४】ऐक लाल रंग की  कुबेर पोटली 
५५】सप्तधान्य
 (चावल, गेहूँ,मूँग, कन्ग्नी,मक्का, चना , उड़द,)

५६】लेखनी (कलम)  महाकाली पूजन के लिये
५७】बही-खाता, सरस्वती पूजन के लिये
५८】स्याही की दवात 
५९】तुला (तराजू)  अगर संभव हो तो अगर व्य्पारि है तो
६०】सरस्वती पूजा के लिये ऐक डायरी 

६१】 कुबेर पोटली (बसनी)मे रखने का सामान 
हल्दी की गाँठ, खड़ा धनिया , पीली कोडी,गोमती चक्र, रक्त गुंजा वीज, कमल गट्टा,  मजीठ , पीली सरसो, आवला फ़ल, काली हल्दी, सिन्दूर , श्रंगेरि, दूर्वा ,आदि

लक्ष्मी पूजा को 
प्रदोष काल के दौरान किया जाना चाहिये, 
जो कि सूर्यास्त के बाद प्रारम्भ होता है 
और लगभग 2 घण्टे 24 मिनट तक रहता है।
कुछ स्त्रोत लक्ष्मी पूजा के लिए महानिशिता काल का सुझाव भी देते हैं। 
हमारे विचार में महानिशिता काल तांत्रिक समुदायों और पण्डितों, जो इस विशेष समय के दौरान लक्ष्मी पूजा के बारे में अधिक जानते हैं, 
के लिए अधिक उपयुक्त होता है। 
सामान्य लोगों के लिए प्रदोष काल मुहूर्त ही उपयुक्त है।
लक्ष्मी पूजा को करने के लिए हम चौघड़िया मुहूर्त को देखने की सलाह नहीं देते हैं,
क्यूँकि वे मुहूर्त यात्रा के लिए उपयुक्त होते हैं। लक्ष्मी पूजा के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रदोष काल के दौरान ही होता है,
जब स्थिर लग्न प्रचलित होती है। 
ऐसा माना जाता है, कि अगर स्थिर लग्न के दौरान लक्ष्मी पूजा की जाये 
तो लक्ष्मीजी घर में ठहर जाती है। 
इसीलिए लक्ष्मी पूजा के लिए यह समय सबसे उपयुक्त माना जाता है। 
वृषभ लग्न को स्थिर माना जाता है
और दीवाली के त्यौहार के दौरान यह अधिकतर प्रदोष काल के साथ अधिव्याप्त होते है 
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

लक्ष्मी पूजा के लिये स्थिर लग्न 

 प्रात:
वृश्चिक लग्न :07:29 से 09 :46 तक 
मंदिर, हॉस्पिटल, होटल्स, स्कूल, कॉलेज में पूजा होती है. राजनैतिक, टीवी फ़िल्मी कलाकार वृश्चिक लग्न में ही लक्ष्मी पूजा करते है.

व्यापारियों के लिए शुभ मुहूर्त

व्यापारिक प्रतिष्ठानों में व्यापार में प्रयोग किए जाने वाले कल, पुर्जे, गद्दी, लक्ष्मी कुबेरादि सरस्वती पूजन हेतु शुभ मुहूर्त 
प्रालेपन गादी स्थापना-स्याही भरना-कलम दवात सबारने के लिये  ब्र्श्चीक लग्न मे कर सकते है 
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

कुम्भ लग्न :दोपहार 01:36 से 3:07 तक 

यह दिवाली के दिन दोपहर का समय होता है. जिन पर शनि की दशा ख़राब चल रही होती है, जिनको व्यापार में बड़ी हानि होती है. उनको इस लग्न मे पूजा करना चाहीए
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

वृषभ लग्न  :शाम:06:15 से रात्रि 08:13 तक

दीपावली के दिन शाम का समय होता है. यह लक्ष्मी पूजा का सबसे अच्छा समय होता है.
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

सिंह लग्न – मध्य रात्रि 12:44 से 2:44 तक 

दिवाली की मध्य रात्रि का समय होता है. 
संत, तांत्रिक लोग इस दौरान लक्ष्मी पूजा करते है.
महानिशिता काल में तांत्रिक और पंडित लोग पूजा करते है, 
ये वे लोग होते है, जिन्हें लक्ष्मी पूजा के बारे में अच्छे से जानकारी होती है.

 लक्ष्मी पूजा के लिए हम यथार्थ समय उपलब्ध कराते हैं।
 हमारे दर्शाये गए मुहूर्त के समय में
 अमावस्या, प्रदोष काल और स्थिर लग्न सम्मिलित होते हैं। 
हम स्थान के अनुसार मुहूर्त उपलब्ध कराते हैं, इसीलिए आपको लक्ष्मी पूजा का शुभ समय देखने से पहले अपने शहर का चयन कर लेना चाहिये।
----------------------------------------------------------
----------------------------------------------------------

04 नबम्बर 2021

व्यापारियों के चोघड़िया मूहूर्त

दिन का चोघड़िया मुहूर्त 

शुभ=प्रात:        06:14 - 08:53=शुभ
चर =दोपहर       10:59 से- 12:21 =शुभ
अभिजित =दोपहर 11:59 से 12:43 
लाभ=दोपहार   12:21=से - 01:30 =शुभ
शुभ=शाम =4:28 से 05:50 =शुभ
गौ धूली बेला ऐबं प्रदोष बेला =05:50 से 08:27 तक 
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
अमावस्या तिथि प्रारम्भ - 
04 नवम्बर  2021 को
प्रात: 06:03 बजे

अमावस्या तिथि समाप्त -
 05 नवम्बर  2021 को 
रात्रि 02:44  बजे

::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

यह मुहूर्त निर्णय सागर पंचांग द्वारा  तैयार किया गया है 
हमारे यहा दीपावली पूजन ऐबं लक्ष्मी जी के अर्चन के लिये  सम्पर्क करे 

सम्पर्क सूत्र 
Gurudev
 bhubneshwar 
Parnkuti guna 
9893946810/ 9893983084 
संपर्क
पंडित =भुबनेश्वर 
कस्तूरवानगर पर्णकुटी गुना 
मोबाइल =०९८९३९४६८१०

Thursday, 13 January 2022

गणेश पूजा के नियम और सावधानियां

श्रीगणेश पूजा के नियम और सावधानियां 
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
श्रीगणेश एक ऐसे देवता हैं जो सुख -समृद्धि -मंगल तो देते ही हैं सुरक्षा और शत्रु को पराजित भी करते हैं। भावना और श्रद्धा अपनी जगह है पर हर देवता की आकृति ,रूप ,गुण ,विशेषता और मन्त्र पूजन पद्धति की भिन्नता के पीछे गंभीर रहस्य होता है जो उस शक्ति के विशेष गुणों के कारण बनाया गया होता है इसलिए किसी भी देवता की पूजा -आराधना में उसके अनुकूल ही तरीके और नियम अपनाने चाहिए विपरीत गुणों और ऊर्जा प्रकृति से पूजा करने पर देवता की शक्ति अनियमित ,असंतुलित और विकृत हो सकती है जो गंभीर परेशानियां भी दे सकती है या फिर पूजा बिना किसी लाभ के हो सकती है भले आप मानते हों की देवता है भगवान् हैं सबकुछ देख रहे हैं सब माफ़ करते हैं पर वास्तव में ऐसा कम ही होता है अगर ऐसा होता तो हर देवता की पूजा पद्धति अलग नहीं होती, सबको चढ़ाए जाने वाले पदार्थ अलग नहीं होते, सबके मन्त्र अलग नहीं होते।

सबसे पहले हम आपको बताते हैं कि किस तरह के गणेश जी कहां स्थापित करने से वे प्रसन्न होते हैं हम आपको बताते हैं कि कहां किस तरह के गणेश स्थापित करना चाहिए और गणेश जी कैसे आपके घर का वास्तु सुधार सकते हैं, आपको सुखी कर सकते हैं कैसे आपको समृद्धि दे सकते हैं।

👉 सुख, शांति, समृद्धि की चाह रखने वालों को सफेद रंग के विनायक की मूर्ति लाना चाहिए। साथ ही, घर में इनका एक स्थाई चित्र भी लगाना चाहिए।

👉 सर्व मंगल की कामना करने वालों के लिए सिंदूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। घर में पूजा के लिए गणेश जी की शयन या बैठी मुद्रा में हो तो अधिक शुभ होती है। यदि कला या अन्य शिक्षा के प्रयोजन से पूजन करना हो तो नृत्य गणेश की प्रतिमा या तस्वीर का पूजन लाभकारी है।

👉 घर में बैठे हुए और बाएं हाथ के गणेश जी विराजित करना चाहिए। दाएं हाथ की ओर घुमी हुई सूंड वाले गणेशजी हठी होते हैं और उनकी साधना-आराधना कठीन होती है। वे देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं।

👉 कार्यस्थल पर गणेश जी की मूर्ति विराजित कर रहे हों तो खड़े हुए गणेश जी की मूर्ति लगाएं। इससे कार्यस्थल पर स्फूर्ति और काम करने की उमंग हमेशा बनी रहती है।

👉 कार्य स्थल पर किसी भी भाग में वक्रतुण्ड की प्रतिमा या चित्र लगाए जा सकते हैं, लेकिन यह ध्यान जरूर रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुंह दक्षिण दिशा या नैऋय कोण में नहीं होना चाहिए। 

👉 मंगल मूर्ति को मोदक और उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। इसलिए मूर्ति स्थापित करने से पहले ध्यान रखें कि मूर्ति या चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा जरूर होना चाहिए।

👉 गणेश जी की मूर्ति स्थापना भवन या वर्किंग प्लेस के ब्रह्म स्थान यानी केंद्र में करें। ईशान कोण और पूर्व दिशा में भी सुखकर्ता की मूर्ति या चित्र लगाना शुभ रहता है।

👉 यदि घर के मुख्य द्वार पर एकदंत की प्रतिमा या चित्र लगाया गया हो तो उसके दूसरी तरफ ठीक उसी जगह पर दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे इस प्रकार से दूसरी प्रतिमा या चित्र लगाने से वास्तु दोषों का शमन होता है।  

👉 यदि भवन में द्वारवेध हो यानी दरवाजे से जुड़ा किसी भी तरह का वास्तुदोष हो (भवन के द्वार के सामने वृक्ष, मंदिर, स्तंभ आदि के होने पर द्वारवेध माना जाता है)। ऐसे में घर के मुख्य द्वार पर गणेश जी की बैठी हुई प्रतिमा लगानी चाहिए लेकिन उसका आकार 11 अंगुल से अधिक नहीं होना चाहिए।

👉 भवन के जिस भाग में वास्तु दोष हो उस स्थान पर घी मिश्रित सिन्दूर से स्वस्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है।

👉 स्वस्तिक को गणेश जी का रूप माना जाता है। वास्तु शास्त्र भी दोष निवारण के लिए स्वस्तिक को उपयोगी मानता है। स्वस्तिक वास्तु दोष दूर करने का महामंत्र है। यह ग्रह शान्ति में लाभदायक है। इसलिए घर में किसी भी तरह का वास्तुदोष होने पर अष्टधातु से बना पिरामिड यंत्र पूर्व की तरफ वाली दीवार पर लगाना चाहिए।

👉 रविवार को पुष्य नक्षत्र पड़े, तब श्वेतार्क या सफेद मंदार की जड़ के गणेश की स्थापना करनी चाहिए। इसे सर्वार्थ सिद्धिकारक कहा गया है। इससे पूर्व ही गणेश को अपने यहां रिद्धि-सिद्धि सहित पदार्पण के लिए निमंत्रण दे आना चाहिए और दूसरे दिन, रवि-पुष्य योग में लाकर घर के ईशान कोण में स्थापना करनी चाहिए।

👉 श्वेतार्क गणेश की प्रतिमा का मुख नैऋत्य में हो तो इष्टलाभ देती है। वायव्य मुखी होने पर संपदा का क्षरण, ईशान मुखी हो तो ध्यान भंग और आग्नेय मुखी होने पर आहार का संकट खड़ा कर सकती है।

👉 शत्रु बाधा ,विवाद विजय ,वाशिकरण आदि में नीम की जड़ से बने गणेश का भी प्रयोग होता है किन्तु यह पूजन तांत्रिक होती है और इसमें विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है।

👉 पूजा के लिए गणेश जी की एक ही प्रतिमा हो। गणेश प्रतिमा के पास अन्य कोई गणेश प्रतिमा नहीं रखें। एक साथ दो गणेश जी रखने पर रिद्धि और सिद्धि नाराज हो जाती हैं।

👉 गणेश को रोजाना दूर्वा दल अर्पित करने से इष्टलाभ की प्राप्ति होती है। दूर्वा चढ़ाकर समृद्धि की कामना से ऊं गं गणपतये नम: का पाठ लाभकारी माना जाता है। वैसे भी गणपति विघ्ननाशक तो माने ही गए हैं।

👉 गणपति की पूजा में यह ध्यान देना चाहिए की इनकी पूजा सुबह ही करें ,दोपहर अथवा रात्री में दैनिक पूजन से बचें ,अनुष्ठान और एक दिवसीय मंगल पूजन में शुभ मुहूर्त अनुसार कभी भी पूजन किया जा सकता है।

👉 गणेश गौरी की जब भी एक साथ पूजा करें तो ध्यान रखें की गौरी के बाएं तरफ गणेश हों अर्थात गणपति की दाहिनी ओर उनकी माँ गौरी हों।

👉 दैनिक पूजन और मंगल की कामना एक अलग बात है किन्तु जब भी उद्देश्य विशेष के लिए मंत्र जप करें तो किसी योग्य गुरु द्वारा मंत्र लेकर ही जप करें ,सीधे किताबों से मंत्र लेकर जप न करें।

👉 पूजन में पुष्प आदि चढ़ाए जाने वाले पदार्थो वनस्पतियों का भी बहुत महत्त्व होता है अतः उनके रंग ,गुण ,शुद्धता का भी उद्देश्य विशेष के अनुसार पूरा ध्यान दें।

पूरी सावधानी और पूर्ण जानकारी के बाद पूजन करें गणपति आपका उद्देश्य सफल करेंगे
〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️🌼〰️〰️
Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti guna
9893946810

नाराज ग्रह को कैसे पहचाने

ग्रह अच्‍छे या बुरे प्रभाव कुंडली में अपने स्‍थान के अनुसार देते हैं। यदि जीवन में कुछ परेशानियां हैं और उसका ज्‍योतिषीय समाधान चाहते हैं तो ये जानना बहुत जरूरी है कि आपकी परेशानी किस ग्रह के कारण है। जिससे उस ग्रह को प्रसन्‍न करने के उपाय कर सकें। आइए जानते हैं ग्रह और उसके अशुभ प्रभावों के बारे में:

सूर्य के अशुभ प्रभाव-
अहंकार इतना अधिक होना कि स्‍वयं का नुकसान करते जाना, पिता के घर से अलग होना, कानूनी विवादों में फंसना और संपति विवाद होना, पत्‍नी से दूरी, अपने से बड़ों से विवाद, दांत, बाल, आंख व हृदय रोग होना। सरकार की ओर से नोटिस मिलना व सरकारी नौकरी में परेशानी आना भी सूर्य के दुष्‍प्रभाव हैं।

चंद्र के अशुभ प्रभाव-
घर-परिवार के सुख और शांति की कमी,मानसिक रोगों का होना, बिना कारण ही भय व घबराहट की स्थिति बनी रहना, माता से दूरियां, सर्दी-जुखाम रहना, छाती सम्बंधित रोगों का बना रहना और कार्य तथा धन में अस्थिरता रहना।

मंगल के अशुभ प्रभाव-
अत्‍यधिक क्रोध व चिड़चिड़पन मंगल के अशुभ प्रभावों में से एक है। भाइयों से मनमुटाव और आपसी विरोध मंगल के कारण ही होता है। रक्‍त में विकार होना और शरीर में खून की कमी मंगल के कमजोर होने की निशानी है। जमीन को लेकर तनाव व झगड़ा, आग में जलना और चोट लगते रहना, छोटी-छोटी दुर्घटनाओं का होता रहना मंगल के अशुभ प्रभावों के कारण ही होता है।

बुध के अशुभ प्रभाव-
बोलने-सुनने में परेशानी, बुद्धि का कम इस्‍तेमाल, आत्‍मविश्‍वास की कमी, नपुंसकता, व्‍यापार में हानि, माता का विरोध और शिक्षा में बाधाएं बुध के अशुभ प्रभाव के कारण होता है। बुध यदि अशुभ हो अच्‍छे मित्र भी नहीं मिलते।

गुरु के अशुभ प्रभाव-
जिनका सम्‍मान करना चाहिए उनसे ही अनबन हो, समाज के सामने बदनामी हो और मान-सम्‍मान न हो तो समझ लीजिए गुरू आपसे नाराज है। बड़े अधिकारियों से विवाद हाो धर्मिक ढोंग के साथ अधर्म के काम करना, अनैतिक कार्य करना, पाखंड से धन कमाना, स्त्रियों से अनैतिक संबंध बनाना, संतान दोष, मोटापा और सूजन गुरू के अशुभ प्रभाव हैं।

शुक्र के अशुभ प्रभाव-
शुक्र यदि अशुभ प्रभाव दे तो यौन सुख को कम करता है। गुप्‍त रोग, विवाह में रूकावट, प्रेम में असफलता, हृदय का अत्‍यधि‍क चंचल हो जाना, प्रेम में धोखे की प्रवृतिशुक्र में अशुभ होने के लक्षण हैं।

शनि के अशुभ प्रभाव-
अशुभ शनि जातक को झगडालूं, आलसी, दरिद्र, अधिक निद्रा वाला, वैराग्य से युक्तबनाता है। यह पांव में या नसों से रोग देता है। स्‍टोन की समस्‍या शनि के अशुभ होने पर ही होती है। लोगों से उपेक्षा, विवाह में समस्‍या और नपुंसकता शनि के ही अशुभ प्रभाव हैं।

राहु के अशुभ प्रभाव-
नशा व मांस-मदिरा का लती, गलत कार्यों को करने का शौक, शेयर मार्केट से हानि होना, घर-गृहस्‍थी से दूर होकर अनैतिक कार्यो में जुड़ना, अपराधों में संलिप्‍त होना और फोड़े-फुंसी जैसे घृणित रोगों का होना राहु के अशुभ प्रभाव है।

केतु के अशुभ प्रभाव-
इसके अशुभ प्रभाव राहू और मंगल का मिलाजुला रूप होता है। अत्यधिक क्रोधी, शरीर में अधिक अम्लता होना जिस कारण पेट में जलन का रहना, चेहरे पर दाग धब्बे का होना केतु के अशुभ प्रभाव हैं। केतु जब रूष्‍ट हो तो व्‍यक्ति किसी न किसी प्रकार के ऑपरेशन से गुजरता है।
Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti 
9893946810

Monday, 10 January 2022

मंत्र सिद्ध कैसे करे

किसी मन्त्र को सिद्ध करने के लिए उस मन्त्र का जब किसी निश्चित संख्यां तक मन्त्र को आत्म-सात करते हुए विशेष विधि-विधान के साथ 'जप' किया जाता है, तो उसे 'पुरश्चरण' कहते हैं।
गुरुदेव से दीक्षा द्वारा मन्त्र-प्राप्ति के बाद 'पुरश्चरण' करना आवश्यक है। जबतक पुरश्चरण नही किया जाता, तबतक मन्त्र उसी प्रकार निरर्थक है, जिस प्रकार जीव से रहित देह अर्थात  जैसे हम जीव-रहित शरीर से कोई काम नही ले सकते, वैसे ही बिना 'पुरश्चरण' किए हम गुरु-कृपा द्वारा प्राप्त मन्त्र से भी कोई काम नही ले सकते।
1- मन्त्र का जप, 2-हवन, 3-तर्पण, 4-अभिषेक (मार्जन) 5-ब्राह्मण-कुमारी भोजन --इस पन्चांग उपासना को 'पुरश्चरण' कहते हैं। 'जप' का दशांश हवन होता है, हवन का दशांश तर्पण , तर्पण का दशांश मार्जन और मार्जन का दशांश ब्रह्म-कुमारी-भोजन ।
पुरश्चरण के दश अंग भी हैं। उपर पांच अंग उल्लिखित हैं। अन्य पांच अंग के नाम निम्नलिखित हैं।
1-पटल, 2- पद्धति, 3-कवच, 4-सहस्त्रानाम, और 5- स्त्रोत ।
इनमें से 'पटल' देवता का शिर, 'सहस्त्रानाम' देवता का मूख, 'कवच' देवता का शरीर  'पद्धति' देवता के हाथ हैं। 'पद्धति' का अर्थ 'पूजा-पद्धति' है। 'पद्धति' के स्थान पर मात्र पूजा होता, तो केवल पंचोपचारादि सामान्य पूजा का ही बौध होता और पुरश्चरण-कर्ता शीघ्रता के लिए पंचोपचार-पूजा मात्र कर लेता, किन्तु "पद्धति' शब्द से स्पष्ट है कि पद्धति-पुर्वक ही पूजा होनी चाहिए। 'स्त्रोत' (स्तुति) देवता के पैर हैं।
इस प्रकार दौनों पंचांग मिलाकर पुरश्चरण के दस अंग होते हैं। तात्पर्य यह है कि पुरश्चरण करनेवाला पहले वैदिक (तांत्रिक) सन्ध्या-वंदन करे। तब अपने इष्ट-देवता की पद्धति-पुर्वक पूजा कर सहस्त्रानाम आदि कवच, पटल और स्त्रोतों का पाठ करे। यह सब कर चूकने पर पुरश्चरण के अंग-भुत 'जप' के लिए बैठे।
पुरश्चरण में साधारण-तया जिस मन्त्र के जितने अक्षर हों, उस मन्त्र के उतने ही लक्ष 'जप' किए जाते हैं। जैसे पन्चाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके पांच लाख और नवाक्षरी मन्त्र हो, तो उसके नौ लाख जप किए जाते हैं। पुरश्चरण करनेवाले साधक को फलाहार, शाकाहार या दुग्धाहार करना चाहिए। वह कन्द,मूल,दही, तथा हविष्यान्न ( घी,दुध,शक्कर के साथ पके हुए चावल) भी ले सकते हैं। 
पवित्र नदी के तट पर, पहाड़ों के शिखर या गुहाओं में, पावन सघन वनों में, अश्वस्थ वृक्ष के नीचे तथा किसी भी तीर्थ-स्थान में पुरश्चरण करना अत्युत्तम है। यदि ऐसा स्थान न मिले  तो साधक अपने घर में भी 'पुरश्चरण' कर सकता है। साधना  के लिए समुचित स्थान का चयन करना पहला कर्तव्य है। साधना स्थान दो प्रकार के होते हैं-1 -प्राकृतिक 2- मानव निर्मित। जिस स्थान पर बैठने से मन को शान्ति एवं प्रसन्नता का अनुभव हो, वह स्थान साधना के लिए सर्वोत्तम होता है ।प्राकृतिक स्थान- प्रकृति के खुले प्रदेश में साधना का उपयोगी स्थान यदि सुलभ हो  तो वहाँ बैठकर साधना करने से सहज ही मन्त्र चैतन्य होता है। जो निम्नवत हैं--
1-पर्वत का शिखर-भाग, 2-पर्वत का तटीय प्रदेश ,(तराई) 3- पर्वत की गुफा, 4- पवित्र वन (तपोवन), 5- तुलसी-वन, 6-प्रशस्त वृक्ष (वट,बिल्व पिप्पल,आंवला आदि कुल वृक्ष के नीचे), 7-पवित्र नदी, सरोवर सागर का तट, 8- पवित्र निर्जन प्रदेश, 9- जल के मध्य में, 10, नदी-संगम प्रदेश, 11-तीर्थ-क्षेत्र।
प्राकृतिक 'स्थान' में बैठने से मन स्वाभाविक रुप से उल्लासित होता है। पर्वत,  वन, नदी, निर्जन प्रदेश आदि स्थानों में शान्त वातावरण सहज ही सुलभ रहता है, जिससे बिना किसी विघ्न-बाधा के शान्ति के साथ साधना संपन्न होती है। विभिन्न 'तीर्थ-स्थानों ' में ऐसे स्थान अधिकता से दृष्टिगत होती हैं, जहां प्राचीन काल से आजतक लोग साधना कर सफलता प्राप्त करते आ रहे हैं। इसी से शास्त्रोक्ति है कि-- वाराणसी में  'जप' करने से उसका पुरा फल मिलता है। पुरुषोत्तम-क्षेत्र में उससे दूना फल, द्वारका में उससे दूना, विन्ध्य, प्रयाग और पुष्कर में उससे सौ गुणा  करतोया नदी के जल में इन सब की अपेक्षा चार गूना, नंदी कुण्ड में उसका चार गूना, सिद्धेश्वरी-महामूद्रा में उसका दूना, ब्रह्म-पुत्र नदि में उसका चार गूना, काम-रुप के जल -स्थल में उसी के समान, नीलांचल पर्वत के शिखर पर उसका दूना और कामाख्या-महामूद्रा-पीठ में उसका सौ गूना फल होता है। 
उक्त तीर्थों के उत्तरोत्तर गुण-वर्णन का आशय यही है कि साधना में 'स्थान' का विशेष महत्व है। उपर वर्णित तीर्थ-क्षेत्र सबको उपलब्ध (सुलभ) नही हो सकते, इसी से अन्य प्रकार के स्थानों का उल्लेख शास्त्रों में ऋषियों द्वारा किया गया है। इन उल्लिखित स्थानों में से किसी भी स्थान का उपयोग करके पुरश्चरण में अभीष्ट फल पाई जा सकती है।
2-मानव-द्वारा निर्मित स्थान- 1- शून्य गृह, 2-गुरु-देव का गृह, 3- उपवन (उद्यान), 4-गौ-शाला, 5-एक-लिंग शिवालय ( जिस शिव-मन्दिर के पांच कोस-दस मील तक दुसरा शिव-लिंग न हो) , 6-वृष -शून्य शिव-स्थान(मन्दिर), 7- देवी-मन्दिर, देवालय या शक्ति-पीठ, 8- चतुष्पथ, 9- भू-गर्भ ( पृथ्वी के नीचे बना कमरा, ढंकी हुई गुफा आदि), 10-राज-महल, 11- छिद्र-रहित मण्डप के नीचे, 12- पंच-वटी, 13-श्मशान।
त्याज्य स्थान- जहां दुष्ट लोग और हिंसक पशु, सर्पादि का निवास हो, उस स्थान पर पुरश्चरण साधना न करें। जहां लोगों का आवागमन अधिक हो, धर्म-कर्म की निन्दा होती हो, दुर्भिक्ष की अवस्था अर्थात खाने-पीने की वस्तुओं का अभाव हो , उपद्रव अर्थात झगडे-झंझट आदि होते रहते हों, शासकीय वर्ग अर्थात मन्त्री, अधिकारी, प्रभाव-शाली लोग आते-जाते हों, वहाँ पुरश्चरण साधना का स्थान न चुनें, जीर्ण (टूटे-फुटे) देवालय, जीर्ण उद्यान-गृह, जीर्ण वृक्ष के नीचे, जीर्ण नदी-तट, जीर्ण गुफा या जीर्ण भू-गर्भस्त कक्ष आदि स्थानों को छोड़ दें ।पुरश्चरण में कुर्म-चक्र या दीप-स्थान का भी विचार वृहद है। आसन का भी वृहद वर्णन है। आसन में सजीव और निर्जीव आसन का भी वृहद वर्णन है।मन्त्र देव-देवी के अनुसार पुष्प का भी वृहद वर्णन है। जप माला का भी देवी-देवता के अनुसार वृहद वर्णन है। जप में मातृका वर्ण-मयी माला का जप का विशेष महत्व है। माला के शौधन, मन्त्र के संस्कार, वर्णोषधि तथा दिव्यौषधि का भी वृहद वर्णन है। न्यास का भी वृहद वर्णन है। संकल्प भी अत्यंत जरुरी है। तिथि के ध्यान पुजनादि का भी महत्व है। भुत-शुद्धि भी जरुरी है। प्राणायामविधि भी जरुरी है। आशय ये है की साधना की सभी पद्धति नियम आचार का विधिवत पालन पुरश्चरण काल में आत्यावश्यक है। साधना की सभी अंगों को "पुरश्चरण" अपने में पुर्णत: समाहित किए है ,अब ये कितने भागों में पुर्ण होगी इसकी अन्दाजा लगाना कठिन है ,
Gurudev
Bhuvaneshvar
Parnkuti
9893947810

रिस्तेदारो से भी भाग्य में अड़चन आती है

कुंडली के बारह भावों मे छुपे रिश्ते :

कुंडली के बारह भावों की विवेचना कर आप जान सकते हैं कि प्रत्येक भाव किसी न किसी रिश्ते का प्रतिनिधित्व करता है तथा प्रत्येक ग्रह इंसानी रिश्तों से संबंध रखता है और यदि कुंडली में कोई विशेष ग्रह कमजोर हो तो उस ग्रह से संबंधित रिश्तों को मजबूत करके भी ग्रह को दुरुस्त किया जा सकता है। आइए देखें कैसे - 

1. सूर्य : यह‍ पिता का प्रतिनिधि है। यह राज्य का भी प्रतिनिधि है। सूर्य की स्थिति मजबूत करने के लिए पिता, ताऊ से रिश्ते मजबूत रखना चाहिए। 

2. चंद्र : यह माँ का प्रतिनिधि है। माँ से रिश्ते मजबूत होने पर चंद्रमा स्वयं मजबूत होता है और जीवन में संघर्ष कम हो जाता है। 

3. मंगल : यह भाई-बहनों का प्रतीक है। यह ऊर्जा व आत्मविश्वास का ग्रह है। अत: इसका प्रबल होना जरूरी है। अत: भाई-बहनों से संबंध दुरुस्त रखें। 

4. बुध : यह मामा, मौसी, नानी (ननिहाल) का प्रतिनिधि है। बुध अभिव्यक्ति का कारक है। अत: जिन लोगों को ननिहाल का स्नेह मिलता है, उनका बुध मजबूत होता है। बहन,भुवा,बेटी,मौसी,साली भी बुद्ध ही है 

5. गुरु : यह शिक्षक, बुज़ुर्ग, ताऊ, चाचा, गुरु का प्रतिनिधि है। गुरु ज्ञान का कारक है अत: शिक्षक का स्नेह जीवन की दिशा बदल सकता है। यह गुरु स्त्री की कुंडली में पति का भी कारक होता है। 

6. शुक्र : शुक्र से स्त्री का विचार किया जाता है। कला में वृद्धि के लिए शुक्र की प्रबलता जरूरी है। अत: स्त्री का मान-सम्मान करने से शुक्र मजबूत होता है। 

7. शनि : यह सेवकों-नौकरों का प्रतिनधि है। शनि का प्रबल होना जीवन में सफलता दिलाता है। अत: नौकरों अधीनस्थों से योग्य व्यवहार रखना चाहिए। 

8. राहु-केतु : राहु से दादा, नानी  व केतु से नाना, दादी का विचार किया जाता है। 

विशेष : यदि बचपन से ही रिश्तों में स्नेह सौहार्द्र बनाकर रखा जाए तो ग्रह स्वयं ही मजबूती पाने लगते हैं।

ग्रह नक्षत्र हमारे आपसी रिश्पर क्या प्रभाव डालते हैं, इस संबंध में लाल किताब में बहुत ‍कुछ लिखा हुआ है। लाल किताब अनुसार प्रत्येक ग्रह हमारे एक रिश्तेदार से जुड़ा हुआ है अर् कुंडली में जो भी ग्रह जहाँ भी स्थित है तो उस खाने अनुसार वह हमारे रिश्तेदार की स्थिति बताता है। 

1. सूर्य : पिता, ताऊ और पूर्वज। 
2. चंद्र : माता और मौसी। 
3. मंगल : भाई और मित्र। 

4. बुध : बहन, बुआ, बेटी, साली और ननिहाल पक्ष। 

5. गुरु : पिता, दादा, गुरु, देवता। स्त्री की कुंडली में इसे पति का प्रतिनिधित्व प्राप् 
6. शुक्र : पत्नि या स्त्री। 

7. शनि : काका, मामा, सेवक और नौकर। 
8. राहु : साला और ससुर। हालाँकि राहु को दादा का प्रतिनि‍धित्व प्राप्त है। 
9. केतु : संतान और बच्चे। हालाँकि केतु को नाना का प्रतिनि‍धी माना जाता है। 

ठीक इसके विपरीत लाल किताब का विशेषज्ञ रिश्तेदारों की स्थिति जानकर भी ग्रहों की स्थिति जान सकता है। ग्रहों को सुधारने के लिए रिश्तों को सुधारने की बात कही जाती है अर्थात् अपने रिश्ते प्रगाढ़ करें। 

प्रथम भाव :  
स्वयं, नाना, दादी, 

द्वितीय भाव: 
, पिता की बड़ी भाभी (बड़ी ताई), पिता की बड़ीबहन के पति (बड़ेफूफा),माँ के बड़े भाई(बड़ेमामा)या माँ की बड़ी बहन(बड़ी मौसी),

तृतीया भाव :  छोटे भाई बहन, पिता की चाची,

चतुर्थ भाव :  माता,ससुर,

पंचमभाव :  संतान, बड़ी बहन के पति, बड़े भाई की पत्नी भाभी, पिता की बड़ीमामी, माता के बड़े मामा,बड़े साले जी 

छठा भाव : 
ननिहाल, माँ के छोटे भाई (छोटे मामा), शत्रु, या माँ की छोटी बहन (छोटी मौसी), चाची,  छोटे फूफा जी 

साँतवा भाव :  पत्नी, दादा, नानी, दूसरी संतान 

आंठवा भाव :  बड़े मामा की पत्नी (बडी मामी), पत्नी के बड़े मामा, , पिता की बड़ी बहन या भाई, ,माँ के बड़े भाई की पत्नी य या माँ की बड़ी बहन के पति (बड़ेमौसाजी)

नवम भाव:  परदादा, छोटे भाई की पत्नी, छोटी बेहेन का पति, छोटा साला, तीसरी संतान, 

दशम भाव :  पिता, सास 

एकादश भाव :  बड़ी बहन, बड़ा भाई, पिता के बड़े मामा, 

द्वादश भाव:  पिता से छोटे भाई बहन (चाचा और बुवा) छोटी मामी, छोटे मौसा, 

अंतत: यह माना जा सकता है कि कुंडली का प्रत्येक भाव किसी न किसी रिश्ते का प्रतिनिधित्व करता है तथा प्रत्येक ग्रह मानवीय रिश्तों से संबंध रखता है। यदि कुंडली में कोई ग्रह कमजोर हो तो उस ग्रह से संबंधित रिश्तों को मजबूत करके भी ग्रह को दुरुस्त किया जा सकता है। 

दूसरी ओर ग्रहों को मजबूत करके भी किसी रिश्तों को मजबूत तो किया ही जा सकता है। साथ ‍ही वे रिश्तेदार भी खुशहाल हो सकते हैं, जैसे कि बहन को किसी भी प्रकार का दुख-दर्द है तो आप अपने बुध ग्रह को दुरुस्त करने का उपाय करें।
Gurudev
Bhubneshwar
Parnkuti guna
9893946810

विष्णु भगवान के 16 नाम

भगवान श्री विष्णु के १६ नाम के एक छोटासा  श्लोक भेज रहे है 
. इससे मनुष्याके जीवन की अनेक बधाए कष्ट कोई भी परिस्तिथी से निपटने का निवारण है ,ऐंसी अनेको  स्थिती से भगवान  विष्णु को अनेक प्रकार के नमो से स्मरण करना चाहिए इसके  उल्लेख किये गए है   :--

*औषधे चिंतयते विष्णुं ,*
*भोजन  च जनार्दनम |*
*शयने पद्मनाभं च*
*विवाहे च प्रजापतिं ||*

*युद्धे चक्रधरं देवं*
*प्रवासे च त्रिविक्रमं |*
*नारायणं तनु त्यागे*
*श्रीधरं प्रिय संगमे ||*

*दु:स्वप्ने स्मर गोविन्दं*
*संकटे मधुसूदनम् |*
*कानने नारसिंहं च*
*पावके जलशायिनाम ||*

*जल मध्ये वराहं च*
*पर्वते रघुनन्दनम् |*
*गमने वामनं चैव*
*सर्व कार्येषु माधवम् |*

*षोडश एतानि नामानि*
*प्रातरुत्थाय य: पठेत ।*
*सर्व पाप विनिर्मुक्ते,*
*विष्णुलोके महियते ।।*

(१) औषध  लेते समय    -       *विष्णु* ;
(२) भोजन करते समय  - *जनार्दन* ;
(३) सोते समय  - *पद्मनाभ* :
(४) विवाहा समय पर  - *प्रजापति* ;
(५) युद्ध समय पर - *चक्रधर* ; 
(६) यात्रा समय - *त्रिविक्रम* ;
(७) शरीर त्याग करते या अंत समय मे - *नारायण;* 
(८) पत्नी के साथ रहने पर  - *श्रीधर ;*
(९) नींद अथवा सैय्या पर बुरे स्वप्न  आने पर -   *गोविंद*  ;
(१०) अन्य संकट  समयी   - *मधुसूदन* ;
(११) जंगल में संकट आने पर   - *नृसिंह* ;
(१२) अग्नि के संकट  समय  - *जलाशयी* ;
(१३) जल   संकटा के समय    -    वराह* ;
(१४)  पर्वत या शिखर पर संकट समय पर  --  *रघुनंदन;*
(१५) यात्रा के समय  --    *वामन;* 
(१६)  कोई भी संकट से बचाव के लिये  - *
Gurudev
Bhubaneswar
Parnkuti guna
9893946810

Sunday, 9 January 2022

तिलक कितने प्रकार के होती है

#तिलक

#तिलक का अर्थ है भारत में पूजा के बाद माथे पर लगाया जानेवाला निशान। 
तिलक  नहीँ लगाने से विनाश सुनिश्चित है। 

शास्त्रानुसार यदि द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य) तिलक नहीं लगाते हैं तो उन्हें "चाण्डाल" कहते हैं। 
तिलक हमेंशा दोनों भौहों के बीच
 "आज्ञाचक्र" पर भ्रुकुटी पर किया जाता है। 
इसे चेतना केंद्र भी कहते हैं।
पर्वताग्रे नदीतीरे रामक्षेत्रे विशेषतः| 
सिन्धुतिरे च वल्मिके तुलसीमूलमाश्रीताः||

मृदएतास्तु संपाद्या वर्जयेदन्यमृत्तिका| 
द्वारवत्युद्भवाद्गोपी चंदनादुर्धपुण्ड्रकम्||

चंदन हमेशा पर्वत के नोक का, 
नदी तट की मिट्टी का,
 पुण्य तीर्थ का,
 सिंधु नदी के तट का,
 चिंटी की बाँबी व तुलसी के मूल की मिट्टी का 
या चंदन वही उत्तम चंदन है। 
तिलक हमेंशा चंदन या कुमकुम का ही करना चाहिए। कुमकुम हल्दी से बना हो तो उत्तम होता हैं।

★#मूल★
स्नाने दाने जपे होमो देवता पितृकर्म च|
तत्सर्वं निष्फलं यान्ति ललाटे तिलकं विना|| 

तिलक के बीना ही यदि तिर्थ स्नान, 
जप कर्म, दानकर्म, यग्य होमादि, पितर हेतु श्राध्धादि कर्म तथा देवो का पुजनार्चन कर्म ये सभी कर्म तिलक न करने से कर्म निष्फल होता है |

पुरुष को चंदन व स्त्री को कुंकुंम भाल में लगाना मंगल कारक होता है|

तिलक स्थान पर धन्नजय प्राण का रहता है| 
उसको जागृत करने तिलक लगाना ही चाहीए | 
जो हमें आध्यात्मिक मार्ग की ओर बढाता है|

नित्य तिलक करने वालो को शिर पीडा नही होती...व ब्राह्मणो में तिलक के विना लिए शुकुन को भी अशुभ मानते हैै..| 
शिखा, धोती, भस्म, तिलकादि चिजों में भी भारत की गरीमा विद्यमान है…||

●#तिलक हिंदू संस्कृति में एक पहचान चिन्ह का काम करता है। 
तिलक केवल धार्मिक मान्यता नहीं है बल्कि कई वैज्ञानिक कारण भी हैं इसके पीछे। 
तिलक केवल एक तरह से नहीं लगाया जाता। 
हिंदू धर्म में जितने संतों के मत हैं, जितने पंथ है, संप्रदाय हैं उन सबके अपने अलग-अलग तिलक होते हैं। 
आइए जानते हैं कितनी तरह के होते हैं तिलक। 
सनातन धर्म में ji
 शैव, शाक्त, वैष्णव और अन्य मतों के अलग-अलग तिलक होते हैं।
शैव- शैव परंपरा में ललाट पर चंदन की आड़ी रेखा या त्रिपुंड लगाया जाता है।

●#शाक्त- शाक्त सिंदूर का तिलक लगाते हैं। 
सिंदूर उग्रता का प्रतीक है। 
यह साधक की शक्ति या तेज बढ़ाने में सहायक माना जाता है।
●#वैष्णव- वैष्णव परंपरा में चौंसठ प्रकार के तिलक बताए गए हैं। 
इनमें प्रमुख हैं-
●#लालश्री_तिलक- इसमें आसपास चंदन की व बीच में कुंकुम या हल्दी की खड़ी रेखा बनी होती है।

●#विष्णुस्वामी_तिलक- यह तिलक माथे पर दो चौड़ी खड़ी रेखाओं से बनता है।
 यह तिलक संकरा होते हुए भोहों के बीच तक आता है।

●#रामानंद_तिलक- विष्णुस्वामी तिलक के बीच में कुंकुम से खड़ी रेखा देने से रामानंदी तिलक बनता है।

●#श्यामश्री_तिलक- इसे कृष्ण उपासक वैष्णव लगाते हैं। इसमें आसपास गोपीचंदन की तथा बीच में काले रंग की मोटी खड़ी रेखा होती है।

●#अन्य_तिलक- गाणपत्य, तांत्रिक, कापालिक आदि के भिन्न तिलक होते हैं।
 साधु व संन्यासी भस्म का तिलक लगाते हैं।
●#चंदन_का_तिलक : चंदन का तिलक लगाने से पापों का नाश होता है, व्यक्ति संकटों से बचता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहती है, ज्ञानतंतु संयमित व सक्रिय रहते हैं। चंदन का तिलक ताजगी लाता है और ज्ञान तंतुओं की क्रियाशीलता बढ़ाता है।
 चन्दन के प्रकार : हरि चंदन, गोपी चंदन, सफेद चंदन, लाल चंदन, गोमती और गोकुल चंदन।  
 
●#कुमकुम_का_तिलक:- कुमकुम का तिलक तेजस्विता प्रदान करता है।
 
●#मिट्टी_का_तिलक:- विशुद्ध मिट्टी के तिलक से बुद्धि-वृद्धि और पुण्य फल की प्राप्ति होती है।

 
●#केसर_का_तिलक:-  केसर का तिलक लगाने से सात्विक गुणों और सदाचार की भावना बढ़ती है। इससे बृहस्पति ग्रह का बल भी बढ़ जाता है और भाग्यवृद्धि होती है।
 
●#हल्दी_का_तिलक:- हल्दी से युक्त तिलक लगाने से त्वचा शुद्ध होती है।
 
●#दही_का_तिलक:- दही का तिलक लगाने से चंद्र बल बढ़ता है और मन-मस्तिष्क में शीतलता प्रदान होती है।
 
●#इत्र_का_तिलक:- इत्र कई प्रकार के होते हैं। अलग अलग इत्र के अलग अलग फायदे होते हैं। इत्र का तिलक लगाने से शुक्र बल बढ़ता हैं और व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में शांति और प्रसन्नता रहती है।
 
●#तिलकों_का_मिश्रण:- अष्टगन्ध में आठ पदार्थ होते हैं- कुंकुम, अगर, कस्तुरी, चन्द्रभाग, त्रिपुरा, गोरोचन, तमाल, जल आदि। पंचगंध में गोरोचन, चंदन, केसर, कस्तूरी और देशी कपूर मिलाया जाता है। गंधत्रय में सिंदूर, हल्दी और कुमकुम मिलाया जाता है। यक्षकर्दम में अगर, केसर, कपूर, कस्तूरी, चंदन, गोरोचन, हिंगुल, रतांजनी, अम्बर, स्वर्णपत्र, मिर्च और कंकोल सम्मिलित होते हैं।
 
●#गोरोचन:- गोरोचन आज के जमाने में एक दुर्लभ वस्तु हो गई है। गोरोचन गाय के शरीर से प्राप्त होता है। कुछ विद्वान का मत है कि यह गाय के मस्तक में पाया जाता है, किंतु वस्तुतः इसका नाम 'गोपित्त' है, यानी कि गाय का पित्त। हल्की लालिमायुक्त पीले रंग का यह एक अति सुगंधित पदार्थ है, जो मोम की तरह जमा हुआ सा होता है। अनेक औषधियों में इसका प्रयोग होता है। यंत्र लेखन, तंत्र साधना तथा सामान्य पूजा में भी अष्टगंध-चंदन निर्माण में गोरोचन की अहम भूमिका है। गोरोचन का नियमित तिलक लगाने से समस्त ग्रहदोष नष्ट होते हैं। आध्यात्मिक साधनाओं के लिए गारोचन बहुत लाभदायी है।
Gurudev
Bhubaneswar
Par kuti guna
9893946810