ज्योतिष समाधान

Friday, 26 March 2021

कार्य सिध्द होगा या नही 9893946810

कार्य सिद्ध होगा या नही
प्रश्न कर्ता के मुख से निकाले शब्द
मे 6 से गुणा उसमे 8 जोडना
उसमे नो का भाग
1 मे नही होगा
2 मे होगा
3 मे मरण समान
4 मे आनन्द से होगा
5:6 मे होगा
7:8:9: मे नही होगा
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रोग प्रश्न
तिथी संख्याऔर
तिथी की घड़ी
को दुगनी करके उसमे चार जोडना तीन से भाग देना
1 बचे तो तुरंत ठीक
0 बचे तो तुरंत मरण
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 जन्म नक्षत्र से,
जिस नक्षत्र में कार्य का आरंभ होना हो,
वह नक्षत्र ले।
जन्म नक्षत्र से अमुक नक्षत्र को गिन ले।

जो संख्या आए,
उसमें 9 से भाग दें।
शेष के अनुसार फलकथन निम्न होगा।
यदि-
1 शेष आए तो शारीरिक कष्ट।
2 शेष आए तो उन्नति।
3 शेष आए तो नुकसान
4 शेष आए तो विशेष उन्नति।
5 शेष आए तो बाधा।
6 शेष आए तो कार्य सिद्धि।
7 शेष आए तो अत्यंत अशुभ।
8 शेष आए तो मिलन तथा
9 शेष आए तो अत्यंत शुभ होता है।
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प्रेत बाधा केसे दूर करे 9893946810


प्रेत बाधा निवारक मंत्र- ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ऊँ नमो भगवते महाबल पराक्रमाय भूत-प्रेत पिशाच शाकिनी डाकिनी यक्षणी पूतना मारी महामारी, यक्ष राक्षस भैरव बेताल ग्रह राक्षसादिकम् क्षणेन हन हन भंजय भंजय मारय मारय शिक्षय शिक्षय महामारेश्वर हुं फट् स्वाहा। इस हनुमान मंत्र का पांच बार जाप करने से कभी भूत निकट नहीं आ सकते।

आप ऊपरी बाधा हटाने के उपाय के अंतर्गत ये उपाय करना न भूलें| काली सरसों, काले बकरे का दायाँ सींग, सर्प की केंचुली, गुग्गुल, नीम के पत्ते, अपामार्ग के पत्ते और बच को लेकर अच्छे से कूट पीस लें| इस चूर्ण को जलते कंडे पर डालकर धूनी करें और पीड़ित व्यक्ति को धूनी दें| ऐसा करने से प्रेत बाधा से मुक्ति मिलती है|

| आप 5 ग्राम कपूर, 5 ग्राम काली मिर्च और 5 ग्राम हींग ले लें| इसको पीसकर इसका पाउडर बनायें और फिर इसकी छोटी छोटी गोलियां बना लें| इन गोलियों को 2 बराबर भागों में बाँट दें और फिर एक हिस्से को सुबह और दूसरे को शाम को घर में जलाएं|

शनिवार के दिन इस प्रयोग को करें| इस दिन काले धतूरे की जड़ लेकर आयें और पीड़ित की भुजा पर बांध दें| ऐसा करने से भूत, प्रेत और पिशाच उसका पीछा करना छोड़ देंगे| यदि पीड़ित स्त्री है तो जड़ को उसकी बायीं भुजा में बांधना चाहिए, यदि वह पुरुष है तो उसे उसकी दाहिनी भुजा में बांधना चाहिए

रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति।।

तू है वीर बड़ा हनुमान |
लाल लंगोटी मुख में पान |
ऐर भगावै |
बैर भगावै |
अमुक में शक्ति जगावै |
रहे इसकी काया दुर्बल |
तो माता अंजनी की आन |
दुहाई गौरा पार्वती की |
दुहाई राम की |
दुहाई सीता की |
ले इसके पिण्ड की खबर |
ना रहे इसमें कोई कसर |

यदि कोई अकारण ही दुर्बल होता जा रहा हो और कारण समझ में नहीं आये तो इस मंत्र का 7 बार जाप करते हुए प्रत्येक मंत्र के बाद रोगी पर फूँक लगाए और यही रोगी स्वयं करता है तो रोगी खुद को फूक लगाए इसके साथ ही रोगी को हनुमान जी के मंदिर में हनुमान जी की प्रतिमा से उनके चरणों का सिन्दूर लाकर तिलक भी करें | रोगी किसी भी रोग से पीड़ित हो उसे स्वास्थ्य लाभ अवश्य मिलेगा ||

चोरि की दिशा का ज्ञान केसे करे


1. मेष लग्न मेष वस्तु चोरी हुई हो प्रश्नकाल में मेष लग्न हो तो चोरी गई वस्तु पूर्व दिशा में होती है। चोर ब्राह्मण वर्ग का व्यक्ति होता है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम में दो या तीन अक्षर होते हैं।

होता है
1. मेष लग्न मेष वस्तु चोरी हुई हो प्रश्नकाल में मेष लग्न हो तो चोरी गई वस्तु पूर्व दिशा में होती है। चोर ब्राह्मण वर्ग का व्यक्ति होता है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम में दो या तीन अक्षर होते हैं।

2. वृषभ लग्न में वस्तु चोरी हुई हो तो वस्तु पूर्व दिशा में होती है और चोर क्षत्रिय वर्ण का होता है। उसके नाम में आदि अक्षर म रहता है तथा नाम चार अक्षरों वाला होता है।

3. मिथुन लग्न में चोरी गई वस्तु आग्नेय कोण में होती है। चोरी करने वाला व्यक्ति वैश्य वर्ण का होता है और उसका नाम क ककार से प्रारंभ होता है। नाम में तीन अक्षर होते हैं।


4. कर्क लग्न में वस्तु चोरी होने पर दक्षिण दिशा में मिलती है और चोरी करने वाला शूद्र होता है। उसका नाम त अक्षर से प्रारंभ होता है और नाम में तीन वर्ण होते हैं।


वस्तु नैऋत्य कोण में होती है
5. सिंह लग्न में चोरी हो तो वस्तु नैऋत्य कोण में होती है। चोरी करने वाला नौकर, सेवक होता है। चोर का नाम न से प्रारंभ होता है और नाम तीन या चार अक्षरों का होता है।

6. प्रश्नकाल या चोरी के समय कन्या लग्न हो तो चोरी गई वस्तु पश्चिम दिशा में होती है। चोरी करने वाली कोई स्त्री होती है और उसका नाम म से प्रारंभ होता है। नाम में कई वर्ण हो सकते हैं।

7. चोरी के समय तुला लग्न हो तो वस्तु पश्चिम दिशा में जानना चाहिए। चोरी करने वाला पुत्र, मित्र, भाई या अन्य कोई संबंधी होता है। इसका नाम म से प्रारंभ होता है और नाम में तीन वर्ण होते हैं। तुला लग्न में गई वस्तु बड़ी कठिनाई से प्राप्त होती है।


वस्तु नैऋत्य कोण में होती है
8. वृश्चिक लग्न में चोरी गई वस्तु पश्चिम दिशा में होती है। चोर घर का नौकर ही होता है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम चार अक्षरों वाला होता है। चोरी करने वाला उत्तम वर्ण का होता है।

9. प्रश्नकाल या चोरी के समय धनु लग्न हो तो चोरी गई वस्तु वायव्य कोण में होती है। चोरी करने वाली कोई स्त्री होती है और उसका नाम स अक्षर से प्रारंभ होता है। नाम में चार वर्ण पाए जाते हैं।

10. चोरी के समय मकर लग्न हो तो चोरी गई वस्तु उत्तर दिशा में समझनी चाहिए। चोरी करने वाला वैश्य जाति का होता है। नाम चार अक्षरों का होता है और वह स से प्रारंभ होता है।

11. प्रश्नकाल या चोरी के समय कुंभ लग्न हो तो चोरी गई वस्तु उत्तर या उत्तर-पश्चिम दिशा में होती है। इस प्रश्न लग्न के अनुसार चोरी करने वाला व्यक्ति कोई मनुष्य नहीं होता बल्कि चूहों या अन्य जानवरों के द्वारा इधर-उधर कर दी जाती है।

12. मीन लग्न में वस्तु चोरी हुई हो तो वस्तु ईशान कोण में होती है। चोरी करने वाला निम्न जाति का व्यक्ति होता है। वह व्यक्ति चोरी करके वस्तु को जमीन में छुपा देता है। ऐसे चोर का नाम व अक्षर से प्रारंभ होता है और उसके नाम में तीन अक्षर रहते हैं। चोर कोई परिचित महिला या नौकरानी भी हो सकती है।

देवी ऋण

देवी ऋण
लालकिताब में
 देवी ऋण का विशेष उल्लेख मिलता है,
उसके अन्दर तो केवल इतना कहा गया है कि 

"बुरी नियत के कारण दूसरे के बेटे या कुत्ते को मारने का प्रयास किया जाय या मार दिया जाय तो देवी ऋण जातक के लिये अपना असर चालू कर देता है",

इस ऋण का खुलासा कुण्डली का छठा भाव कर देता है,

इस भाव में चन्द्र या मंगल अगर विराजमान हैं, 
तो समझ लीजिये कि पिछले जन्म की इसी करतूत के कारण देवी ऋण प्रभावी है,

इसके असर के लिये लिखा है कि अगर जातक के जीवन में देवी ऋण चल रहा है,तो जातक की नर संतान का नास होता है,

पहले तो उसके नर संतान पैदा ही नही होती है,अगर होती भी तो रहती नही,रहती भी है तो लूली लंगडी या अपंग बन कर किसी काम की नही होती है,

जीवन में केवल लडकियां पैदा हो जाती है,और वे स्वेच्छाचारी की तरह से जीवन को व्यतीत करती है और अपना हिसाब चुकाकर चली जाती हैं।

केतु की संसार में श्रेणियां
कहावत है जो पूंछ रखता है उसकी ही पूंछ होती है,सांप के शरीर में पूंछ का ही आकार होता है,हाथी की पूंछ तो छोटी होती है और मुंह लम्बी पूंछ का रूप होता है,

जानवर,कीडे मकोडे जिनके भी पूंछ होती है,वह केतु की श्रेणी में आजाते है,यह तो जीव जगत में माना जा सकता है,लेकिन मानव के अन्दर भी केतु की श्रेणी होती है,लेकिन वह बिना पूंछ का होता है,जब पूंछ ही नही होती है तो केतु की उपाधि किस प्रकार से दी जा सकती है,केतु का काम अपनी पहिचान सीधे रूप में नही देना होता है,वह अगर पूंछ के रूप में है तो किसी के अन्दर ही लगी होगी,अकेली पूंछ तो नही रह सकती है,छिपकली की पूंछ अगर टूट भी जाती है,तो कुछ समय के लिये तो फ़ुदकती है,लेकिन वह फ़िर से मर कर ठंडी हो जाती है,सांप की पूंछ की लम्बाई नापी ही नही जा सकती है,

फ़न के बाद पूंछ का ही नम्बर आजाता है,यानी नाम के पीछे ही पूंछ होती है,चिडिया की पूंछ,केवल कुछ पंख से ही जानी जाती है,पंख हटा दिये जाते है तो वह बंडी कहलाती है,इसी तरह से जिसके नाम का बखान प्रमुख हो उसी का नाम पहले चलता है,मानव केतु की उपाधि में जब आ जाता है जब वह किसी अन्य के नाम से जाना जावे,सर्व प्रथम संसार के सभी कामों और कारणों का कारक गणेशजी को माना जाता है,सभी काम उनके नाम से ही चलते है,सबसे पहले उनका ही नाम लिया जाता है,तो गणेशजी का काम है,तो वह गणेशजी के साथ जुडा है,यानी हर काम का कारक गणेशजी है,राहु से एक सौ अस्सी अंश की फ़िक्स दूरी पर केतु की स्थिति हमेशा मिलती है,यानी हर काम के आगे आने वाला ही राहु है अगर केतु पूंछ है तो,सही भी है,ज्योतिष भी कहती है,राहु अनन्त है,जिसका कहीं अन्त नही है,पूर्वज को राहु कहा जाता है,पूर्वज का कोई अन्त नही है,
किसी न किसी तरह से जब पीढियों को देखा जाता है,तो आखिर में जाकर कांटा एक ही जगह इकट्टा हो जाता है,और मानना पडता है कि सभी एक ही तराजू के चटरे बटरे है,सही भी है,देवी ऋण की बात कर रहे थे,एक संकुचित विचार का काम करना था,चल दिये एक बहुत बडे काम को करने के लिये,सीधे रूप से जाना जाता है कि बहिन का लडका अगर मामा के घर आ जाता है तो उसके बाप का नाम कोई नही लेती है,केवल बहिन का ही नाम लिया जाता है और कहा जाता है कि फ़लां की लडकी का लडका है,उसी तरह से जब भाई अपनी बहिन के घर जाता है तो वहां पर भी बहिन का नाम लेकर ही कहा जाता है कि अमुक की बहू का भाई है,और जब मामा के लिये कहा जाता है तो कहा जाता है कि अमुक का मामा है,पुत्र के लिये भी कहा जाता है कि अमुक का लडका है,इस प्रकार से जो किसी नाम के पीछे चले वह केतु कहा जाता है,फ़िर इस संसार में बचा ही कौन है जो केतु की श्रेणी में नही आता है,और जब हम किसी भी प्रकार से किसी भी जीव को परेशान करेंगे तो हम भी किसी केतु को ही परेशान कर रहे है,और हम पर देवी ऋण चालू हो गया, उसी प्रकार से अगर पिता को पुत्र परेशान करता है तो वह भी किसी के पुत्र को परेशान कर रहा है,किसी के पति को परेशान कर रहा है,किसी के भाई को परेशान कर रहा है,उसका पिता भी किसी का भांजा तो होगा ही,किसी का मामा तो होगा ही,इसलिये पुत्र भी परेशान होगा,और जब पुत्र परेशान होता है तो पिता को दुख भी होता है,यह सब लालकिताब की एक संकुचित कल्पना के अलावा और कुछ नही माना जा सकता है,देवी का रूप समझ कर ही किसी प्रकार का देवी ऋण बताने की कोशिश करनी चाहिये,केवल केतु को परेशान करने से देवी ऋण नही माना जा सकता है|

देवी ऋण को उतारने का वैदिक तरीका
रुद्रयामल महातन्त्र के अन्तर्गत चण्डिका शाप विमोचन मन्त्र

श्रीदुर्गा-पाठ को करने से पहले अगर इन बीस श्लोकों को पढ लिया जावे तो किसी प्रकार से देवी की पूजा के प्रति की गयी भूल से मिला श्राप खत्म हो जाता है,अक्सर श्रीदुर्गा पूजा में किसी न किसी प्रकार का विघ्न तभी पडता है ,जब जानबूझ कर या किसी कारण वश पूजा में अशुद्धि या किसी कन्या को बेकार में परेशान किया जाता है।

शाप-विमोचन संकल्प
ऊँ अस्य श्रीचण्डिकाया ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापविमोचन मन्त्रस्य वसिष्ठनारदसंवादसामवेदाधिपतिब्रह्माण ऋषय: सर्वैश्वर्यकारिणी श्रीदुर्गा देवता चरित्रत्रयं बीजं ह्रीं शक्ति: त्रिगुणात्मस्वरूपचण्डिकाशापविमुक्तो मम संकल्पितकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोग:।

शापविमोचन मन्त्र
ऊँ (ह्रीं) रीं रेत:स्वरूपिण्यै मधुकैटभमर्दिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१॥
ऊँ रं रक्तस्वरूपिण्यै महिषासुरमर्दिन्यै,ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥२॥
ऊँ क्षुं क्षुधास्वरूपिण्यै देववन्दितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥३॥
ऊँ छां छायास्वरूपिण्यै दूतसंवादिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥४॥
ऊँ शं शक्तिस्वरूपिण्यै धूम्रलोचनघातिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥५॥
ऊँ तं तृषास्वरूपिण्यै चण्डमुण्डवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥६॥
ऊँ क्षां क्षान्तिस्वरूपिण्यै रक्तबीजवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥७॥
ऊँ जां जातिरूपिण्यै निशुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥८॥
ऊँ लं लज्जास्वरूपिण्यै शुम्भवधकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥९॥
ऊँ शां शान्तिस्वरूपिण्यै देवस्तुत्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१०॥
ऊँ श्रं श्रद्धास्वरूपिण्यै सकलफ़लदात्र्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥११॥
ऊँ श्रीं बुद्धिस्वरूपिण्यै महिषासुरसैन्यनाशिन्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१२॥
ऊँ कां कान्तिस्वरूपिण्यै राजवरप्रदायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१३॥
ऊँ माँ मातृस्वरूपिण्यै अनर्गलमहिमासहितायै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१४॥
ऊँ ह्रीं श्रीं दुं दुर्गायै सं सर्वैश्वर्यकारिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१५॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं नम: शिवायै अभेद्यकवचस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१६॥
ऊँ क्रीं काल्यै कालि ह्रीं फ़ट स्वाहायै ऋग्वेदस्वरूपिण्यै ब्रह्मवसिष्ठविश्वामित्रशापाद विमुक्ताभव॥१७॥
ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं महाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वतीस्वरूपिण्यै त्रिगुणात्मिकायै दुर्गादेव्यै नम:॥१८॥
इत्येवं हि महामन्त्रान पठित्वा परमेश्वर,चण्डीपाठं दिवा रात्रौ कुर्यादेव न संशय:॥१९॥
एवं मन्त्रं न जानाति चण्डीपाठं करोति य:,आत्मानं चैव दातारं क्षीणं कुर्यान्न संशय:॥२०॥

Tuesday, 16 March 2021

यज्ञादी कार्य के लिये बृक्ष काटने का मुहूर्त एबं हवन के लिए कौन सी लकड़ी का चयन करें

यज्ञादि कर्मोंमें आमकी समिधासे हवन नहीं करना चाहिए।

परंतु लोगोंको न जाने कहांसे यह भ्रम हो गया है कि हवनमें आमकी समिधा अत्यंत उपयोगी है।

*#प्रमाण*-

*#यज्ञीयवृक्ष*- 

*1 पलाशफल्गुन्यग्रोधाः प्लक्षाश्वत्थविकंकिताः।*
*उदुंबरस्तथा बिल्वश्चंदनो यज्ञियाश्च ये।।*

*सरलो देवदारुश्च शालश्च खदिरस्तथा।* 
*समिदर्थे प्रशस्ताः स्युरेते वृक्षा विशेषतः।।*
    (#आह्निकसूत्रावल्यां_वायुपुराणे)

*2 शमीपलाशन्यग्रोधप्लक्षवैकङ्कितोद्भवाः।*
*वैतसौदुंबरौ बिल्वश्चंदनः सरलस्तथा।।*
*शालश्च देवदारुश्च खदिरश्चेति याज्ञिकाः।।*
     (#संस्कारभास्करे_ब्रह्मपुराणे)

*#अर्थ*-
1पलाश /ढाक/छौला 
2फल्गु 
3वट 
4पाकर 
5पीपल 
6विकंकत /कठेर 
7गूलर 
8बेल
9चंदन 
10सरल 
11देवदारू 
12शाल 
13खैर 
14शमी
15बेंत

उपर्युक्त ये सभी वृक्ष यज्ञीय हैं, यज्ञोंमें इनका इद्ध्म (काष्ठ) तथा इनकी समिधाओंका उपयोग करना चाहिए। 

शमी व बेल आदि वृक्ष कांँटेदार होने पर भी वचनबलात् यज्ञमें ग्राह्य हैं।

*परंतु इन वृक्षोंमें आमका नाम नहीं है।*

*#यज्ञीयवृक्षोंके_न_मिलनेपर*-

यदि उपर्युक्त वृक्षोंकी समिधा संभव न होसके तो, शास्त्रोंमें बताया गया है कि, और सभी वृक्षोंसे भी हवन कर सकते हैं-

*एतेषामप्यलाभे तु सर्वेषामेव यज्ञियाः।।*
                (#यम:,#शौनकश्च) 

*तदलाभे सर्ववनस्पतीनाम्*
         (#आह्निकसूत्रावल्याम्) 

परंतु निषिद्ध वृक्षोंको छोड़ करके अन्य सभी वृक्ष ग्राह्य हैं।

 तो निषिद्ध वृक्ष कौन से हैं देखिए-

*#हवनमें_निषिद्धवृक्ष*-

*#तिन्दुकधवलाम्रनिम्बराजवृक्षशाल्मल्यरत्नकपित्थकोविदारबिभीतकश्लेष्मातकसर्वकण्टकवृक्षविवर्जितम्।।*
         (#आह्निकसूत्रावल्याम्) 

*#अर्थ*-
1 तेंदू 
2 धौ/धव
*3 #आम*
4 नीम 
5 राजवृक्ष 
6 सैमर 
7 रत्न 
8 कैंथ
9 कचनार
10बहेड़ा 
11लभेरा/लिसोडा़ और 
12सभी प्रकारके कांटेदार वृक्ष यज्ञमें वर्जित है।

*#विशेष*-

*1 #उत्तम_यज्ञीयवृक्ष*- शास्त्रोंमें जिन वृक्षोंका ग्रहण किया गया है, उन सभी वृक्षोंका प्रयोग सर्वश्रेष्ठ है। 

*2 #मध्यम_यज्ञीयवृक्ष*- शास्त्रोंमें जिन वृक्षोंका ग्रहण भी नहीं किया गया है, और ना ही जिनका निषेध किया गया है ऐसे सभी वृक्षोंका उपयोग मध्यम है।

*3 #अधम_यज्ञीयवृक्ष*-
जिन वृक्षोंका शास्त्रोंमें निषेध किया गया है, उन वृक्षोंको यज्ञमें कभी भी उपयोगमें नहीं लाना चाहिए,ये सभी वृक्ष यज्ञमें अधम/त्याज्य हैं।

#यज्ञीयवृक्षका_मतलब है— जिन वृक्षोंका यज्ञमें हवन/ पूजन संबंधित सभी कार्योंमें पत्र ,पुष्प ,समिधा आदिका ग्रहण करना शास्त्रोंमें विहित बताया गया है ।

और निषिद्ध वृक्षोंका ये सब त्यागना चाहिए।

*जहां यज्ञीयवृक्ष बताए गए हैं वहां आमके वृक्षका ग्रहण नहीं किया गया है*

*और जहां निषेध वृक्षोंकी गणना है वहां आमकी गणना है। इससे आप लोग विचार कर सकते हैं।*

आमकी समिधा तो यज्ञकर्ममें सर्वथा त्याज्य है, जिसका लोग जानबूझकरके संयोग करते हैं, कितनी दुखद और विचारणीय बात है। 

*#नोट*-  इस लेखमें शुद्ध वैदिक एवं स्मार्त यज्ञोंमें शान्तिक , पौष्टिक सात्विक हवनकी विधिका उल्लेख किया गया है।

 तांत्रिक विधिमें और उसमें भी षडभिचार - मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटनादिमें तो बहुत ऐसी चीजोंका हवन लिखा हुआ है जिनकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते

#जैसे- मिर्चीसे, लोहेकी कीलोंसे, विषादिसे भी हवन करना लिखा हुआ है।
 तो वहां कई निषिद्ध वृक्षोंका भी ग्रहण हो सकता है, उसकी यहां चर्चा नहीं है।

*#होमीयसमिल्लक्षण*-

*प्रादेशमात्राः सशिखाः सवल्काश्च पलासिनीः।*
*समिधः कल्पयेत् प्राज्ञः सर्व्वकर्म्मसु सर्व्वदा॥* 

 *नाङ्गुष्ठादधिका न्यूना समित् स्थूलतया क्वचित्।*
*न निर्म्मुक्तत्वचा चैव न सकीटा न पाटिता॥*
 
*प्रादेशात् नाधिका नोना न तथा स्याद्विशाखिका।*
*न सपत्रा न निर्वीर्य्या होमेषु च विजानता ॥*
            (#छन्दोगपरिशिष्टम्)
 

#निषिद्ध_समिधा-

*विशीर्णा विदला ह्रस्वा वक्राः स्थूला द्विधाकृताः।*
*कृमिदष्टाश्च दीर्घाश्च समिधो नैव कारयेत्॥*
                 (#संस्कारतत्त्वम्)

#अशास्त्रीय_समिधाके_दुष्परिणाम- 

*विशीर्णायुःक्षयं कुर्य्याद्बिदला पुत्त्रनाशिनी।*
*ह्रस्वा नाशयते पत्नीं वक्रा बन्धुविनाशिनी॥*

*कृमिदष्टा रोगकरी विद्वेषकरणी द्विधा।* 
*पशून् मारयते दीर्घा स्थूला चार्थविनाशिनी॥*
                    (#इतितन्त्रम्)

#नवग्रहसमिधा -
*अर्कः पलाशः खदिरस्त्वपामार्गोऽथ पिप्पलः।* 
*उदुम्बरः शमी दूर्व्वाः कुशाश्च समिधः क्रमात्॥*
 (#संस्कारतत्त्वे_याज्ञवल्क्यवचनम्)

नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव। 
*राजेश राजौरिया वैदिक वृन्दावन*

प्रसंगवश अब काष्ठछेदन की बात करते हैं-

विश्वकर्मप्रकाश,
वास्तुरत्नाकर,
वृहत्संहिता 

आदि ग्रन्थों में पेड़ कब और कैसे काटा जाय- 
इस विषय की भी चर्चा है-

द्व्यङ्गराशिगते सूर्ये माघे भाद्रपदे तथा।
वृक्षाणां छेदनं कार्यं सञ्चयार्थं न कारयेत्।।
सिंहे नक्ते च दारुणां छेदनं नैव कारयेत्।
ये मोहाच्च प्रकुर्वन्ति तेषां गेहेऽग्नितो भयम्।।

अर्थात्
 द्विस्वभाव
(मिथुन,कन्या,धनु,मीन)राशियों में
 सूर्य के रहने पर 
(विशेषकर भाद्र और माघ मास में) वृक्ष काटना चाहिए,
किन्तु संचय के लिए काटना उचित  नहीं है।
यानी शीघ्र प्रयोग के लिए काटा जा सकता है।
पुनः कहते हैं कि
 सिंह और मकर के सूर्य रहने पर उक्त महीनों में भी गृहकार्यार्थ वृक्षछेदन नहीं करना चाहिए।
अज्ञान,या स्वार्थ वश यदि ऐसा करता है
 तो उसे अग्नि का कोपभाजन बनना पड़ता है।
यानी अग्निभय की आशंका रहती है।

सौम्यं पुनर्वसुं मैत्रं करं मूलोत्तरात्रये।
स्वाती च श्रवणं चैव वृक्षाणां छेदने शुभम्।।

अर्थात् मृगशिरा,पुनर्वसु,अनुराधा,हस्ता,मूल,
उत्तराफाल्गुनी,उत्तराषाढ़,उत्तरभाद्रपद, स्वाती,
और श्रवण- 
इन दस नक्षत्रों में पेड़ काटना उत्तम होता है।

  चन्द्रमा के दस नक्षत्रों की चर्चा करके अब अगले
 श्लोक में सूर्य के नक्षत्रों की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं-

 सूर्यभाद्वेदगोतर्कदिग्विश्वनखसम्मिते।
चन्द्रर्क्षे दारुकाष्ठानां छेदनं शुभदायकम्।।

अर्थात् 
सूर्य के नक्षत्र से
(जहाँ सूर्य हों)
चौथे,नौवें,छठे,दशवें,तेरहवें और बीसवेंनक्षत्र
पर चन्द्रमा के रहने पर वृक्षछेदन उत्तम होता है।

नोटः- यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि उक्त दिन चन्द्रमा का नक्षत्र,
 वृक्षछेदन हेतु ग्राह्य नक्षत्र-सूची में होना चाहिए।
अन्यथा ग्राह्य नहीं होगा।

अब एक अति विशिष्ट योग को इंगित करते हैं-

कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रेवतीरोहिणीयुते।
यदा तदा गुरौ लग्ने गृहार्थं तु हरेद्रुमान्।

अर्थात्
 कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को
 यदि रेवती या रोहिणी नक्षत्र पर चन्द्रमा का
 संक्रमण हो, 
तो वृहस्पति जहाँ बैठे हों उस लग्न का चयन करके वृक्षछेदन करना अति उत्तम होता है।

  इसी प्रसंग में तृणादि से 
गृहछादन का भी निर्देश कर रहे हैं।
(भले ही आजकल ज्यादातर कंकरीट-सरिया की ढ़लाई,पत्थर की पट्टिकाओं,या टीन और सीमेंट की चादरों का प्रयोग करके मकान का छादन(छावनी) करते है,
फिर भी ऐसे मकान भी काफी मात्रा में बन रहे हैं,
जिन्हें तृणादि से छावनी करनी पड़ती है।
उनके लिए इस मुहूर्त का औचित्य और महत्त्व जरुर है।)कहते हैं-

लग्ने शुक्रे गुरौ केन्द्रेष्वगराशौ गृहोपरि।
तृणादिभिः समाच्छाद्यो न चैवाग्निभयं भवेत्।।

 अर्थात् 
लग्न में 
शुक्र,केन्द्र(१,४,७,१०)में गुरु,
और स्थिर राशि का 
लग्न-वृष,सिंह,वृश्चिक,कुम्भ हो तो 
तृणादि से गृहछादन करने पर अग्नि-भय नहीं रहता।

अन्य प्रसंग में कहा गया है कि धनिष्ठा,शतभिष,पूर्वभाद्र,उत्तरभाद्र,एवं रेवती इन पांच नक्षत्रों की पंचक संज्ञा है।
इसमें काष्ठसंचय और गृहछादन वर्जित है।

(नोट- पंचक में सिर्फ पांच कर्म ही वर्जित हैं- काष्टसंचय,
गृहछादन,
खटिया बुनना,
शवदाह,
और दक्षिण दिशा की यात्रा।
कुछ विद्वान अन्यान्य शुभ कार्यों की भी वर्जना करते हैं।)

वृक्षछेदन मुहूर्त-चर्चा के बाद अब छेदन और रक्षण का विचार किया जा रहा है-

रात्रौ कृतबलिंपूजं प्रदक्षिणं छेदयेद्दिवा वृक्षम्।
धन्यमुदक्प्राग्वदनं न ग्राह्योऽन्यथापतितः

(वृहत्संहिता५२/११९)

अर्थात् 
रात्रि में वृक्ष के समीप 
बलि(दधिमाष)विधान करके,
अगले प्रातः
 पुनः प्रार्थना पूर्वक दक्षिणावर्त रीति से 
वृक्ष को काटे।
पूर्व-उत्तर में गिरे तो उत्तम अन्यथा अग्राह्य होता है।

अब अन्यत्र प्रसंग में
 (वृहत्संहिता५८/११९)
वृक्ष की प्रार्थना की विधि कहते हैं-

यानीह भूतानि वसन्ति तानि बलिं गृहीत्वा विधिवत्प्रयुक्तम्।
अन्यत्र वासं परिकल्पयन्तु क्षमन्तु ते चाऽद्य नमोऽस्तुतेभ्यः।।

वृक्षं प्रभाते सलिलेन सिक्त्वा मध्वाज्यलिप्तेन कुठारकेण
पूर्वोत्तरस्यां दिशि सन्ति कृत्य प्रदक्षिणं शेषमतो विहन्यात्।।

अर्थात् "हे भूतगण(प्राणीगण) जो इस वृक्ष पर निवास करते हों,उनको मैं प्रणाम करता हूँ।वे मेरे द्वारा विधिवत् दी गयी बलि को ग्रहण करके अन्यत्र अपना निवास स्थान बनावें,और मेरी इस धृष्टता को क्षमा करें।"- रात्रि में इस प्रार्थना और बलि के पश्चात् ,अगले प्रातः काल वृक्ष को जल से सिंचित करके,कुल्हाड़ी में मधु और घी का लेपन करके,पूरब या उत्तर की ओर से काटना प्रारम्भ करे, और दक्षिणावर्त ही कर्तन करे।

  वृक्ष को कैसे काटे और काटने के बाद वृक्ष किस दिशा में गिरता है,

इस पर विश्वकर्मप्रकाश(१०३५) का मत है-

छेदयेद्वर्तुलाकारं पतनञ्चोपकल्पयेत्।
प्राग्दिशि पतने कुर्याद्धनधान्यसमर्चितम्।।
आग्नेयामग्निदाहः स्याद्दक्षिणे मृत्युमादिशेत्।
नैऋत्यां कलहं कुर्यात्पश्चिमे पशुवृद्धिदम्।
वायव्ये चौरभीतिः स्यादुत्तरे च धनागमः।
ईशाने च महच्छ्रेष्ठं नानाश्रेष्ठं तथैव च।।

(वास्तुरत्नाकर ६/७०-७२)

अर्थात्
 वृक्ष को वर्तुलाकार(गोलाकार) काटे। 
काटने पर पूर्व दिशा में गिरे तो धनधान्य की वृद्धि,
अग्निकोण में गिरे तो अग्निभय,
दक्षिण में गिरे तो मृत्यु
 (अति अशुभ),
नैऋत्य में गिरे तो कलह,
पश्चिम में गिरे तो पशुवृद्धि,
वायव्य में गिरे तो चौरभय,
उत्तर में गिरे तो धनप्राप्ति,
और 
ईशान में गिरे तो 
अनेक प्रकार के उत्तम फल प्राप्त होते हैं।

    कटे हुए वृक्ष की लकड़ियों को तत्काल उपयोग में नहीं लाना चाहिए,
बल्कि कुछ दिनों(दो-तीन सप्ताह)तक जल और कीचड़ के संयोग में गाड़ देना चाहिए।
इससे लकड़ी में कीड़े नहीं लगते;
किन्तु ध्यान रहे 
महानिम्ब(बकाईन), 
सागवान,
गम्भारी 
जैसे कोमल लकड़ियों को सिर्फ जल में ही  
डुबोकर रखे,
और अपेक्षाकृत कम दिनों तक,अन्यथा काष्ठ की गुणवत्ता में कमी आजायेगी।
इस सम्बन्ध में 
विश्वकर्मप्रकाश-


और वास्तुरत्नाकर ६/७३ में कहा गया है-

काष्ठं नो भक्ष्यते कीटैर्यदि पक्षं धृतं जले ।
यहीं पुनः ध्यान दिलाते हैं –
कृष्णपक्षे छेदनश्च न शुक्ले कारयेद्बुधः –

 शुक्लपक्ष में वृक्ष काटने का काम कदापि न किया जाय।

गुरुदेव
Bhubneshwar 
Parnkuti 
9893946810

Wednesday, 3 March 2021

यज्ञ ऐबं प्रतिष्ठा मे आवश्यक मुहूर्त


Gurudev bhuvaneshvar
Par n kuti guna
9893946810

तिथि फल - एक गुणा 
नक्षत्र फल - चार गुणा
वार फल - आठ गुणा 
करण फल - सोलह गुणा 
योग फल - बत्तीस गुणा 
तारा फल - एक सौ आठ गुणा 
चंद्र फल - सौ गुणा 
लग्न फल - एक हजार गुणा

अथर्व वेद जैसे हमारे आदि ग्रंथों में भी शुभ काल के बारे में अनेक निर्देश प्राप्त होते हैं जो जीवन के समस्त पक्षों की शुभता सुनिश्चित करते हैं।

देव स्थापना के विशेष लग्न्: 

स्थाप्यों हिरिर्दिन करो मिथुने महैर्शो।
नारायणश्च युवतौ घटके विधाता।।
देव्यो द्विमृत्तं भवनेषु नि वेशंनीयाः।
क्षुद्राश्चरे स्थिरगृहै निलिखलाश्चः देवाः।।

मिथुन लग्न में विष्णु, महादेव 

तथा सूर्य की स्थापना करनी चाहिए। 

कन्या लग्न में कृष्ण की, 

कुंभ लग्न में ब्रह्मा की, 

द्विस्वभाव लग्नों में देवियों की स्थापना करनी चाहिए। 

चार लग्नों में योगिनियों की और स्थिर लग्नों में सर्व देवताओं की स्थापना करना शुभ है।

लिंग स्थापन तु कत्र्तव्यं शिशिरादावृतुत्रये।

 प्रावृषि स्थापित लिंग भवेद् वरयोगदम्।

हैमंते ज्ञानदं चैव शिशिरे सर्वभूतिदम्।
लक्ष्मीप्रदं वसंते च ग्रीष्मे च लिंगसयारोपणंमतम्।।

यतीनां सर्वकाले च लिंगसयारोपणंमतम्।। 

श्रेष्ठोत्तरे प्रतिष्ठा स्याउयनेमुक्ति मिच्छताम्।।
दक्षिणे तु मुमुक्षूणां मलमासे न सा द्वयोः।।

माघ, फाल्गुन-वैशाख-ज्येष्ठाषाढेषु पंचसु। 

प्रतिष्ठा शुभदाप्रोक्ता सर्वसिद्धिः प्रजायते।।

श्रावणे च नभस्ये च लिंग स्थापनमुत्तमम्।
देव्याः माघाश्विने मासेअव्युत्तमा सर्वकामदा।।


माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ तथा आषाढ़ 

महीनों में शिव जी की प्रतिष्ठा 

सब प्रकार से सिद्धि देने वाली कही गयी है।

श्रावण महीना भी शुभ है। 

ऋतुओं की दृष्टि से हेमंत ऋतु में शिव लिंग की स्थापना से यजमान और भक्तों को विशेष ज्ञान की प्राप्ति होती है। 

शिशिर में शुभ, किंतु बसंत ऋतु में शिव मंदिर की प्रतिष्ठा विशेष धनदायक साबित होती है,

 जबकि ग्रीष्म ऋतु में यह प्रतिष्ठा शांति, शीतलता और विजयप्रदाता कही गयी है।
इस प्रकार भगवती जगदम्बा की प्रतिष्ठा माघ एवं अश्विन में सर्वश्रेष्ठ फल देने वाली उत्तम कही गयी है।

चैत्रे वा फाल्गुने मासे ज्येष्ठे वा माधवे तथा।
माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा सिते।
रिक्तान्य तिथिषु स्यात्सवारे भौमान्यके तथा।।

हेमाद्रि के कथनानुसार
: विष्णु प्रतिष्ठा माघे न भवति।
माघे कर्तुः विनाशः स्यात्।
फाल्गुने शुभदा सिता।।

देवी प्रतिष्ठा मुहूर्तः

सर्व देवताओं की प्रतिष्ठा चैत्र,

 फाल्गुन, ज्येष्ठ, वैशाख और माघ मास में करना शुभ है।


श्राविणे स्थापयेल्लिंग आश्विनै जगदंबिकाम्। मार्गशीर्ष हरि चैव, सर्वान् पौषेअपि केचन्।। -


मुहूर्तगणपति श्रावण में शंकर की स्थापना करना, आश्विन में जगदंबा की स्थापना करना, 

मार्गशीर्ष में विष्णु की स्थापना करना

हस्त्र, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, ज्येष्ठ, मूल, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती, अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, तीनों उत्तरा, 

रोहिणी एवं मार्गशीर्ष में सभी देवताओं की, 

खास कर देवी की, प्रतिष्ठा शुभ है।

यद्दिनं यस्य देवस्य तद्दिने संस्थितिः। -


वशिष्ठ संहिता जिस देव की जो तिथि हो, 

उस दिन उस देव की प्रतिष्ठा करनी चाहिए।

शुक्ल पक्ष की तृतीया, पंचमी, चतुर्थी, षष्ठी, सप्तमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी एवं पूर्णिमा

तथा कृष्ण पक्ष की अष्टमी एवं चतुर्दशी दैवी कार्य के लिए सब मनोरथों को देने वाली है।

शुक्ल पक्ष में और कृष्ण पक्ष की दसवीं तक प्रतिष्ठा शुभ रहती है।

इसी प्रकार,

 शनि, रवि और मंगल को छोड़ कर, 

अन्य सभी वारों में यज्ञ कार्य एवं देव प्रतिष्ठा शुभ कहे गये है।

मंदिर में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के लिए 

शुभ मुहूर्त इस प्रकार हैं-


शुभ वार- देव प्रतिष्ठा मुहूर्त के लिए सोमवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार, शुभ हैं।


शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की 1, 2, 5,10, 13, 15 वीं तिथि शुभ हैं।


मतांतर से कृष्णपक्ष 1, 2, 5वीं तिथि भी शुभ मानी गई है।


शुभ नक्षत्र- पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, हस्त, रेवती, रोहिणी, अश्विनी, मूला, श्रवण, धनिष्ठा व पुनर्वसु नक्षत्र शुभ हैं।


इसके अतिरिक्त उत्तरायण के सूर्य में गुरु, शुक्र और मंगल भी बली होना चाहिए।


लग्न शुद्धि- स्थिर व द्विस्वभाव लग्न हो केंद्र व त्रिकोण में शुभ ग्रह एवं 3,6,11वें पाप ग्रह हों।

अष्टम में कोई पाप ग्रह हो।


देवशयन, मलमास, गुरु-शुक्र अस्त व निर्बल चंद्र कदापि नहीं होना चाहिए।


शिवलिंग स्थापना के लिए शिववास भी देखना शुभ होता है।