ज्योतिष समाधान

Monday, 20 August 2018

श्रावणी उपाकर्म अनुमानित पूजन सामग्री आदरणीय  ब्राह्मण बन्धुओ ........ जैसा कि आपको विदित हो कि प्रति बर्ष की भांति इस बर्ष भी कर्मकांड एबं कथाकार एबं समस्त ब्राह्मण समाज के लिए श्रावणी उपाकर्म का आयोजन बजरंगर किले के पीछे नदी पर रख गया है अतः हम सभी को यथा स्थान को पहुंचना है । प्रात: 6बजे श्रावणी कर्म  प्रारम्भ होगा आप अपने घर से अनुमानित सामग्री ला सकते है।

आदरणीय  ब्राह्मण बन्धुओ ........
जैसा कि आपको विदित हो कि प्रति बर्ष की भांति इस बर्ष भी कर्मकांड एबं कथाकार एबं समस्त ब्राह्मण समाज के लिए श्रावणी उपाकर्म का आयोजन बजरंगर किले के पीछे नदी पर रख गया है
अतः हम सभी को यथा स्थान को पहुंचना है । प्रात: 6बजे श्रावणी कर्म  प्रारम्भ होगा आप अपने घर से अनुमानित सामग्री ला सकते है।

1】हल्दीः--------------------------
२】कलावा(आंटी)-------------
३】अगरबत्ती-------------------    
४】कपूर-------------------------  
५】तिल
६) जो
७】यज्ञोपवीत -----------------  
८】चावल------------------------
९】अबीर-------------------------
१०】गुलाल, -----------------
११ माचिस
१२】सिंदूर --------------------
१३】रोली, --------------------
१४】सुपारी, ( बड़ी)-------- 
१५】नारियल ----------------- 
१६】सरसो----------------------
१७】हवन सामग्री
१८】शहद (मधु)---------------
१९】शकर-----------------------
२०】घृत (शुद्ध घी)------------ 
२१)अगरवत्ती
२९】धुप बत्ती ---------------------
=============================

३०】सप्तमृत्तिका

1】 हाथी के स्थान की मिट्टि-----------
२】घोड़ा बांदने के स्थान की मिटटी--
३】बॉबी की मिटटी---------------------
४】दीमक की मिटटी-------------------
५】नदी संगम की मिटटी---------------
६】तालाब की मिटटी-------------------
७】गौ शाला की मिटटी-----------------
राज द्वार की मिटटी-----------------------
============================

३१】पंचगव्य

१】 गाय का गोबर -----------------
२】गौ मूत्र-----------------------------
३】गौ घृत------------------------------
4】गाय दूध----------------------------
५】गाय का दही ---------------------
=============================

३२】सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम

१】 जौ-----------
२】गेहूँ-
३】चावल-
४】तिल-
५】काँगनी-
६】उड़द-
७】मूँग
=============================

३३】कुशा
३४】दूर्वा
35】पुष्प कई प्रकार के
३६】गंगाजल
३७】ऋतुफल

38】

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---39स्वेतबस्त्र
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ब्राह्मण को अपने लिए  उपयोगी सामग्री=
1】धोती
२】दुपट्टा
३】आंगोछा
४】आसन
५】माला
६】गौमुखी
७】लोटा
८】पंचपात्र
९】चमची
१०】तष्टा
११】अर्घा
१२】 डाभ अंगूठी
13 )जनेऊ गांठ लगा हुआ
मो''''''
9893946810

अनुष्ठान पूजन सामग्री लिष्ट हमारा ब्लाग ओपन करे

1】हल्दीः--------------------------50 ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------100 ग्राम
३】अगरबत्ती-------------------     3पैकिट
४】कपूर-------------------------   50 ग्राम
५】केसर-------------------------   1डिव्वि
६】चंदन पेस्ट ------------------ 50 ग्राम
७】यज्ञोपवीत -----------------   11नग्
८】चावल------------------------ 05 किलो
९】अबीर-------------------------50 ग्राम
१०】गुलाल, -----------------10 0ग्राम
११】अभ्रक-------------------
१२】सिंदूर --------------------100 ग्राम
१३】रोली, --------------------100ग्राम
१४】सुपारी, ( बड़ी)--------  200 ग्राम
१५】नारियल -----------------  11 नग्
१६】सरसो----------------------50 ग्राम
१७】पंच मेवा------------------100 ग्राम
१८】शहद (मधु)--------------- 50 ग्राम
१९】शकर-----------------------0 1किलो
२०】घृत (शुद्ध घी)------------  01किलो
२१】इलायची (छोटी)-----------10ग्राम
२२】लौंग मौली-------------------10ग्राम
२३】इत्र की शीशी----------------1 नग्
२४】रंग लाल----------------------10ग्राम
२५】रंग काला --------------------10ग्राम
२६】रंग हरा -----------------------10ग्राम
२७】रंग पिला ---------------------10ग्राम
२८】चंदन मूठा--------------------1 नग्
२९】धुप बत्ती ---------------------2 पैकिट
=============================

३०】सप्तमृत्तिका

1】 हाथी के स्थान की मिट्टि-----------50ग्राम
२】घोड़ा बांदने के स्थान की मिटटी--50ग्राम
३】बॉबी की मिटटी---------------------50ग्राम
४】दीमक की मिटटी-------------------50ग्राम
५】नदी संगम की मिटटी---------------50ग्राम
६】तालाब की मिटटी-------------------50ग्राम
७】गौ शाला की मिटटी-----------------50ग्राम
राज द्वार की मिटटी-----------------------50ग्राम
============================

३१】पंचगव्य

१】 गाय का गोबर -----------------50 ग्राम
२】गौ मूत्र-----------------------------50ग्राम
३】गौ घृत------------------------------50ग्राम
4】गाय दूध----------------------------50ग्राम
५】गाय का दही ---------------------50ग्राम
=============================

३२】सप्त धान्य-कुलबजन--------100ग्राम

१】 जौ-----------
२】गेहूँ-
३】चावल-
४】तिल-
५】काँगनी-
६】उड़द-
७】मूँग
=============================

३३】कुशा
३४】दूर्वा
35】पुष्प कई प्रकार के
३६】गंगाजल
३७】ऋतुफल

38】

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========================
-----------------56】========ब्राह्मण बरण सामग्री=======

1】धोती
२】दुपट्टा
३】आंगोछा
४】आसन
५】माला
६】गौमुखी
७】लोटा
८】पंचपात्र
९】चमची
१०】तष्टा
११】अर्घा
१२】 डाभ अंगूठी

Gurudev
Bhubneshwar
९८९३९४६८१०
६२६२९४६८१०

Friday, 17 August 2018

बंध्यापन दूर करने की विशेष हवन सामग्री- इसमें निम्नलिखित वनौषधियां मिलाई जाती हैं :–

योनिप्रदोषान्मनसोऽभितापाच्छुक्रासृगाहारविहारदोषतत्।
अकालयोगाद्बलसंक्षयाच्च गर्भं चिराद्विन्दति सप्रजापि॥

बीस प्रकार के योनि रोगों में से किसी प्रकार के रोग होने से, अंग विशेष के दूषित होने नया विकारग्रस्त होने से, किसी प्रकार के मानसिक आघात होने से, शुक्र या आर्तव के दूषित होने से, समुचित आहार-विहार का सेवन न करने से, अकाल अर्थात् ऋतुकाल के अतिरिक्त समयम गर्भाधान होने से, रोगादि के कारण अथवा अधिक उपवास करने या कुपोषण आदि के कारण, शरीर के निर्बल हो जाने के कारण, एक बार संतान को जन्म दे चुकने वाली अबंध्या स्त्री भी देर से गर्भ धारण करती है।

बंध्यापन के कारणों का और अधिक स्पष्टीकरण करते हुए इसी में आगे कहा गया है-
विंशतिर्व्यापदो योनेर्निर्दिष्टा रोग सग्रहे।
न शुक्रं धारयत्येभिर्दोषेर्योनिरुपद्रुता तस्माद्गर्भे न गृह्वाति स्त्री...॥

आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार बंध्यापन तीन दोषों के कारण होता है-
(1) आधिदैविक,
(2) आधिभौतिक और
(3) आध्यात्मिक दोष। इनमें से अधिकाँश आधिदैविक दोषों का निराकरण यज्ञोपचार प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है,
जिसमें गायत्री महामंत्र या महामृत्युँजय का जप-अनुष्ठान भी सम्मिलित है।
यज्ञोपचार द्वारा बंध्यापन दूर करने एवं गर्भपुष्टि के लिए इसके विभिन्न कारणों,

दोषों एवं वात, पित्त, कफ आदि प्रकृति के अनुसार अलग-अलग वनौषधियां मिलाई और तदनुरूप हवन सामग्री तैयार की जाती है,
परन्तु यहाँ पर सामान्य रूप से संतानोत्पत्ति के मार्ग में उत्पन्न हुई रुकावट को दूर करने एवं बंध्यत्व दोष को मिटाने के लिए एक विशेष प्रकार की सर्वसुलभ एवं सर्वोपयोगी हवन सामग्री दी जा रही है,
जिसका हवन करने एवं खाने से मनोवाँछित सफलता मिल सकती है।

1. बंध्यापन दूर करने की विशेष हवन सामग्री- इसमें निम्नलिखित वनौषधियां मिलाई जाती हैं :–

सफेद फूलों वाली छोटी कंटकारी (लक्ष्मणा पंचाँग),
(2) जियापोता (पुत्रीजवा) के फल या मूल,
(3) शिवलिंगी के बीज,
(5) ब्रह्मदंडी पंचाँग,
(6) शरपुँखा की जड़,
(7) अपराजिता (विष्णुकाँता) पंचाँग,
(8) उलट-कंबल,
(9) अशोक छाल,
(10) लोध्र,
(11) देवदार,
(12) अश्वगंधा,
(13) जीवक,
(14) बरगद के अंकुर,
(15) चंदन,
(16) खस,
(17) पद्माख
(18) बच,
(19) दोनों सारिवा
(20) चमेली के फूल
(21) बालछड़
(22) कुमुदिनी
(23) नागबला (गंगेरन) की छाल या पत्ता
(24) नागकेशर
(25) जटामाँसी
(26) नागरमोथा
(27) पीपल के पके फल के बीज
(28) गूलर के पके फल
(29) पारस पीतल की जड़ या बीज,
(30) कौंच (केवाँच) की जड़ या बीज।

उक्त सभी 30 चीजों को बराबर मात्रा में लेकर कूट-पीसकर जौकुट चूर्ण बना लेते हैं और ‘हवन सामग्री क्र.
2’ का लेवल लगाकर एक बड़े पात्र में रख लेते हैं।
इन्हीं तीस चीजों के समग्र पाउडर की कुछ मात्रा को घोट-पीसकर, अधिक बारीक करके कपड़छन कर लिया जाता है और उसे खाने के लिए एक अलग सुरक्षित डिब्बे में रख लिया जाता है।
संतानोत्पत्ति की इच्छुक महिला को इसी बारीक पाउडर में से प्रतिदिन सुबह-शाम एक एक चम्मच चूर्ण घी-शक्कर या गोदुग्ध के साथ हवन करने के पश्चात खिलाया जाता है।
यह प्रयोग कम से कम तीन माह तक (ऋतुकाल के चौथे दिन के बाद) अपनाना होता है।
नित्य हवन करते समय उपयुक्त तैयार ‘हवन सामग्री क्र. 2’ में पहले से तैयार ‘कॉमन हवन सामग्री क्र. 1’ को भी बराबर मात्रा में मिला लेते हैं और तब हवन करते हैं।

इसे खाने के लिए उपयोग में नहीं लाते।
इस कॉमन हवन सामग्री में निम्नाँकित चीजें समभाग में मिली होती है-

अगर, तगर, देवदार, चंदन, लाल चंदन, जायफल, लौंग, गूगल, चिरायता और गिलोय। इसी में गोघृत, शक्कर जौ, और तिल मिलाकर सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं।
सूर्य गायत्री मंत्र इस प्रकार हैं- ॐ भूर्भुवः स्वः भास्कराय विद्महे दिवाकराय धीमहि तन्नः सूर्यो प्रचोदयात्।
अंत में ‘स्वाहा’ शब्द जोड़कर कम-से-कम चौबीस आहुतियाँ नित्य देते हैं।

संतति के लिए पीपल या पलाश की समिधा सबसे अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।

इसी तरह काष्ठ पात्रों में उडुँबर (गूलर) का काष्ठपात्र अधिक लाभकारी होता है।

स्त्रियों में बंध्यत्व रोग की तरह ही पुरुषों में विविध कारणों से उत्पन्न दोष या क्लैव्यता भी संतानोत्पत्ति में एक बहुत बड़ी बाधा होती है। अतः इसके लिए अलग तरह की

क्लैव्Kयतानाशक हवन सामग्री का प्रयोग किया जाता है।
(2) क्लैव्यतानाशक विशिष्ट हवन सामग्री-

इसमें निम्नलिखित चीजें समभाग में मिलाई जाती हैं और उनका जौकुट पाउडर तैयार करके सूर्य गायत्री मंत्र बोलते हुए हवन करते हैं।

(1) गोक्षुर
(2) तालमखाना
(3) अकरकरा
(4) अश्वगंधा
(5) शतावर
(6) लौंग
(7) जायफल
(8) कपूर
(9) कौंच बीज
(10) श्वेत मूसली
(11) काली मूसली
(12) मुलहठी
(13) बला (खिरैटी)
(14) वनउड़द
(15) कदंब की गोंद
(16) कायफल
(17) भिलावा गिरी (शोधित)। हवन करते समय उक्त चीजों से तैयार जौकुट पाउडर में बराबर मात्रा में पूर्व वर्णित ‘कॉमन हवन सामग्री क्र. 1’ को मिला लेते हैं।

क्र. 1 से 17 तक की उपर्युक्त वर्णित वनौषधियों को हवन करने के साथ-ही-साथ खाने में भी प्रयुक्त करते हैं।
इसके लिए इनके सम्मिलित पाउडर को अधिक बारीक कूट-पीसकर कपड़छन चूर्ण तैयार कर लेते हैँ।
इस चूर्ण की एक चम्मच मात्रा सुबह एवं एक चम्मच शाम को दूध के साथ या घी एवं शक्कर के साथ खाते हैं।

भिलावा गिरी सदैव शोधन के बाद ही प्रयोग की जाती है।
इसे हवन सामग्री में न मिलाकर अलग से भी तीन गिरी की मात्रा में प्रतिदिन अकेले ही खाया जा सकता है।

शोधन करने के लिए पके हुए काले भिलावे लेकर एक बोरी में डालते हैं और उसी में इट या खपरे के छोटे छोटे टुकड़े डाल देते हैं।

इसके बाद बोरी को उठाकर आधे घंटे तक चारों तरफ उलट-पुलटकर पटकते हैं।

इससे भिलावे का विषैला रस इट या खपरे के टुकड़े सोख लेते हैं।

इसके उपराँत भिलाव निकालकर अंदर की गिरी निकालते हैं।

अंदर सफेद गिरी मिलेगी। इस बात का यहाँ विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए कि अगर किसी कारणवश हाथ में जलन होने लगे तो नारियल का तेल लगा लें या घी चुपड़ लें।

भिलावे के विषैले रस से बचने के लिए गिरी निकालते समय हाथ में कपड़ा लपेट लेना चाहिए।

क्लैव्यता मिटाने, आँतरिक दोषों को दूर करने में इस गिरी की विशेष भूमिका होती है।

(3) गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री इसमें निम्नलिखित चीजें मिलाई जाती हैं :-

(1) सौंप
(2) कासनी
(3) धनिया
(4) खस
(5) खसखस अर्थात् पोस्त बीज
(6) इंद्र जौ मीठा
(7) पलाश गोंद
(8) मुनक्का
(9) गुलाब के फूल
(10) ब्रह्मदंडी। इन सभी दस चीजों को बराबर मात्रा में लेकर जौकुट पाउडर बना लिया जाता है और एक पात्र में ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री
क्र. 2 का लेवल लगाकर उसमें सुरक्षित रख लिया जाता है।
इन्हीं दस चीजों की सम्मिलित मात्रा का कुछ भाग बारीक कूट-पीस करके कपड़छन कर लिया जाता है और उसे नित्य हवन के साथ खाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

खाने के लिए मात्रा एक-एक चम्मच सुबह एवं शाम को गोदुग्ध अथवा घी एवं शक्कर के साथ है।
गर्भवती महिलाओं के लिए यह एक विशेष रूप से उपयोगी है।
इसको हवन करने और चूर्णरूप में खाने वाली माताओं की संतानें स्वस्थ, सुन्दर,हृष्ट पुष्ट एवं दीर्घजीवी होती है।

हवन करते समय पहले से तैयार की गई ‘कॉमन हवन सामग्री
क्र. 1 की बारबर मात्रा को उक्त ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री क्र. 2 में मिलाकर तब सूर्य गायत्री मंत्र से हवन करते हैं।

यह हवन उपचार पूरे गर्भकाल तक करते रहने से जननी एवं शिशु दोनों के लिए विशेष लाभकारी सिद्ध होता है। प्रायः देखा जाता है कि कई बार गर्भवती महिलाओं को जी मिचलाने, चक्कर आने, उल्टी होने आदि से लेकर गर्भस्राव होने तक की अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ता है।
ऐसी स्थिति में उपर्युक्त हवनोपचार के साथ वर्णित चूर्ण के स्थान पर गर्भस्थापना के तीसरे-चौथे महीने से निम्नलिखित ‘गर्भरक्षक पौष्टिक चूर्ण’ का सेवन कराना चाहिए।
इसमें निम्न चीजें मिलाई जाती हैं-
1. अकरकरा-6 ग्राम
2. जायफल-7 ग्राम
3. जावित्री-7 ग्राम
4. चित्रक-7 ग्राम
5. कपूर कचरी-7 ग्राम
6. धाय के फूल-7 ग्राम
7. तुखमलंगा-7 ग्राम
8. तज-7 ग्राम
9. बड़ी इलायची-7 ग्राम
10. अश्वगंधा-7 ग्राम
11. छोटी पीपल-10 ग्राम,
12. काली मिर्च-10 ग्राम
13. बहमन सुर्ख-10 ग्राम
14. बहमन श्वेत-10 ग्राम
15. दालचीनी-18 ग्राम
16. ढाक (पलाश) के सूखे पत्ते-24 ग्राम
17. सौंठ-27 ग्राम
18. रुमी मस्तगी-27 ग्राम
19. मोती की सीप का चूर्ण (मुक्तिशुक्ति)-12 ग्राम एवं
20. मिश्री-360 ग्राम।

इन सभी 20 चीजों को कूट-पीसकर कपड़छन करके एकसार कर लेना चाहिए और हवन करने के बाद एक-एक चम्मच सुबह-शाम गोदुग्ध के साथ गर्भिणी को खिलाते रहना चाहिए।

डायबिटीज से ग्रस्त गर्भिणी को मात्र क्र. 1 से 19 तक की चीजों से बने पाउडर को ही चौथाई चम्मच की मात्रा में दोनों समय देना चाहिए। उसमें मिश्री नहीं मिलानी चाहिए।
यह गर्भस्थ शिशु की इंद्रियों को पुष्ट कर उसे स्वस्थ, सुन्दर और गर्भावस्था के समय होने वाले सभी उपद्रवों को शाँत करता है। प्रायः देखा जाता है कि किन्हीं-किन्हीं परिवारों में मात्र कन्या शिशु ही जन्मती है।

अतः जिन्हें बालक की चाहत हो, उन्हें चाहिए कि ‘गर्भपुष्टि की विशेष हवन सामग्री’ से हवन करने के साथ ही इच्छुक महिला को जियापोता के पके हुए चार फल प्रतिदिन अथवा शिवलिंगी के सात बीज और मोरपंखी का एक चंदोवा घोट-पीसकर प्रतिदिन अथवा

शिवलिंगी के बीज-10 ग्राम,

जियापोता के 21 फल,

सफेद फूलों वाली छोटी कंटकारी की जड़ या पंचाँग-10 ग्राम
और मोरपंख का चंदोवा-7 नग लेकर सबको अच्छी तरह खरल करके 30 ग्राम पुराने गुड़ के साथ मिलाकर, 21 गोलियाँ बनाकर खिलाएं।
इन तीनों में से किसी एक को प्रतिदिन प्रातःकाल खाली पेट बछड़े वाली गाय के दूध के साथ एक-एक मात्रा या एक-एक गोली ऋतुकाल के चौथे दिन के बाद सात दिन तक इन्हें खिलाना चाहिए।

इसी तरह अगले माह भी 7-7 दिन तक एक-एक खुराक खिलानी चाहिए।

इसको सेवन करने के बाद एक घंटे तक कुछ नहीं खाना चाहिए।

उपर्युक्त सभी उपचारों के साथ अत्यंत खट्टे, तीखे, चरपरे, खारे एवं गरम पदार्थों का परहेज करना आवश्यक है।

Friday, 3 August 2018

हिंदू धर्मग्रंथों का सार, जानिए किस ग्रंथ में क्या है?

हिंदू धर्मग्रंथों का सार, जानिए किस ग्रंथ में क्या है?
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अधिकतर हिंदुओं के पास अपने ही धर्मग्रंथ को पढ़ने की फुरसत नहीं है। वेद, उपनिषद पढ़ना तो दूर वे गीता तक को नहीं पढ़ते जबकि गीता को एक घंटे में पढ़ा जा सकता है। हालांकि कई जगह वे भागवत पुराण सुनने या रामायण का अखंड पाठ करने के लिए समय निकाल लेते हैं या घर में सत्यनारायण की कथा करवा लेते हैं। लेकिन आपको यह जानकारी होना चाहिए कि पुराण, रामायण और महाभारत हिन्दुओं के धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो वेद ही है।

शास्त्रों को दो भागों में बांटा गया है:- श्रुति और स्मृति। श्रुति के अंतर्गत धर्मग्रंथ वेद आते हैं और स्मृति के अंतर्गत इतिहास और वेदों की व्याख्‍या की पुस्तकें पुराण, महाभारत, रामायण, स्मृतियां आदि आते हैं। हिन्दुओं के धर्मग्रंथ तो वेद ही है। वेदों का सार उपनिषद है और उपनिषदों का सार गीता है। आओ जानते हैं कि उक्त ग्रंथों में क्या है।

वेदों में क्या है?
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वेदों में ब्रह्म (ईश्वर), देवता, ब्रह्मांड, ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, संस्कार, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है। वेद चार है ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।

ऋग्वेद👉 ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें भौगोलिक स्थिति और देवताओं के आवाहन के मंत्रों के साथ बहुत कुछ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियां और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सौर चिकित्सा, मानस चिकित्सा और हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है।

यजुर्वेद👉 यजु अर्थात गतिशील आकाश एवं कर्म। यजुर्वेद में यज्ञ की विधियां और यज्ञों में प्रयोग किए जाने वाले मंत्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। तत्व ज्ञान अर्थात रहस्यमयी ज्ञान। ब्रम्हांड, आत्मा, ईश्वर और पदार्थ का ज्ञान। इस वेद की दो शाखाएं हैं शुक्ल और कृष्ण।

सामवेद👉  साम का अर्थ रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इस वेद में ऋग्वेद की ऋचाओं का संगीतमय रूप है। इसमें सविता, अग्नि और इंद्र देवताओं के बारे में जिक्र मिलता है। इसी से शास्त्रिय संगीत और नृत्य का जिक्र भी मिलता है। इस वेद को संगीत शास्त्र का मूल माना जाता है। इसमें संगीत के विज्ञान और मनोविज्ञान का वर्णन भी मिलता है।

अथर्वदेव👉 थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। इस वेद में रहस्यमयी विद्याओं, जड़ी बूटियों, चमत्कार और आयुर्वेद आदि का जिक्र है। इसमें भारतीय परंपरा और ज्योतिष का ज्ञान भी मिलता है।

उपनिषद् क्या है?
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उपनिषद वेदों का सार है। सार अर्थात निचोड़ या संक्षिप्त। उपनिषद भारतीय आध्यात्मिक चिंतन के मूल आधार हैं, भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के स्रोत हैं। ईश्वर है या नहीं, आत्मा है या नहीं, ब्रह्मांड कैसा है आदि सभी गंभीर, तत्व ज्ञान, योग, ध्यान, समाधि, मोक्ष आदि की बातें उपनिषद में मिलेगी। उपनिषदों को प्रत्येक हिन्दुओं को पढ़ना चाहिए। इन्हें पढ़ने से ईश्वर, आत्मा, मोक्ष और जगत के बारे में सच्चा ज्ञान मिलता है।

वेदों के अंतिम भाग को 'वेदांत' कहते हैं। वेदांतों को ही उपनिषद कहते हैं। उपनिषद में तत्व ज्ञान की चर्चा है। उपनिषदों की संख्या वैसे तो 108 हैं, परंतु मुख्य 12 माने गए हैं, जैसे- 1. ईश, 2. केन, 3. कठ, 4. प्रश्न, 5. मुण्डक, 6. माण्डूक्य, 7. तैत्तिरीय, 8. ऐतरेय, 9. छांदोग्य, 10. बृहदारण्यक, 11. कौषीतकि और 12. श्वेताश्वतर।

षड्दर्शन क्या है?
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वेद से निकला षड्दर्शन : वेद और उपनिषद को पढ़कर ही 6 ऋषियों ने अपना दर्शन गढ़ा है। इसे भारत का षड्दर्शन कहते हैं। दरअसल यह वेद के ज्ञान का श्रेणीकरण है। ये छह दर्शन हैं:- 1.न्याय, 2.वैशेषिक, 3.सांख्य, 4.योग, 5.मीमांसा और 6.वेदांत। वेदों के अनुसार सत्य या ईश्वर को किसी एक माध्यम से नहीं जाना जा सकता। इसीलिए वेदों ने कई मार्गों या माध्यमों की चर्चा की है।

गीता में क्या है?
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महाभारत के 18 अध्याय में से एक भीष्म पर्व का हिस्सा है गीता। गीता में भी कुल 18 अध्याय हैं। 10 अध्यायों की कुल श्लोक संख्या 700 है। वेदों के ज्ञान को नए तरीके से किसी ने व्यवस्थित किया है तो वह हैं भगवान श्रीकृष्ण। अत: वेदों का पॉकेट संस्करण है गीता जो हिन्दुओं का सर्वमान्य एकमात्र ग्रंथ है। किसी के पास इतना समय नहीं है कि वह वेद या उपनिषद पढ़ें उनके लिए गीता ही सबसे उत्तम धर्मग्रंथ है। गीता को बार बार पढ़ने के बाद ही वह समझ में आने लगती है।

गीता में भक्ति, ज्ञान और कर्म मार्ग की चर्चा की गई है। उसमें यम-नियम और धर्म-कर्म के बारे में भी बताया गया है। गीता ही कहती है कि ब्रह्म (ईश्वर) एक ही है। गीता को बार-बार पढ़ेंगे तो आपके समक्ष इसके ज्ञान का रहस्य खुलता जाएगा। गीता के प्रत्येक शब्द पर एक अलग ग्रंथ लिखा जा सकता है।

गीता में सृष्टि उत्पत्ति, जीव विकासक्रम, हिन्दू संदेवाहक क्रम, मानव उत्पत्ति, योग, धर्म, कर्म, ईश्वर, भगवान, देवी, देवता, उपासना, प्रार्थना, यम, नियम, राजनीति, युद्ध, मोक्ष, अंतरिक्ष, आकाश, धरती, संस्कार, वंश, कुल, नीति, अर्थ, पूर्वजन्म, जीवन प्रबंधन, राष्ट्र निर्माण, आत्मा, कर्मसिद्धांत, त्रिगुण की संकल्पना, सभी प्राणियों में मैत्रीभाव आदि सभी की जानकारी है।

श्रीमद्भगवद्गीता योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी है। इसके प्रत्येक श्लोक में ज्ञानरूपी प्रकाश है, जिसके प्रस्फुटित होते ही अज्ञान का अंधकार नष्ट हो जाता है। ज्ञान-भक्ति-कर्म योग मार्गो की विस्तृत व्याख्या की गयी है, इन मार्गो पर चलने से व्यक्ति निश्चित ही परमपद का अधिकारी बन जाता है। गीता को अर्जुन के अलावा और संजय ने सुना और उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया। गीता में श्रीकृष्ण ने- 574, अर्जुन ने- 85, संजय ने 40 और धृतराष्ट्र ने- 1 श्लोक कहा है।

उपरोक्त ग्रंथों के ज्ञान का सार बिंदूवार :
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1.ईश्वर के बारे में :
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ब्रह्म (परमात्मा) एक ही है जिसे कुछ लोग सगुण (साकार) कुछ लोग निर्गुण (निराकार) कहते हैं। हालांकि वह अजन्मा, अप्रकट है। उसका न कोई पिता है और न ही कोई उसका पुत्र है। वह किसी के भाग्य या कर्म को नियंत्रित नहीं करता। ना कि वह किसी को दंड या पुरस्कार देता है। उसका न तो कोई प्रारंभ है और ना ही अंत। वह अनादि और अनंत है। उसकी उपस्थिति से ही संपूर्ण ब्रह्मांड चलायमान है। सभी कुछ उसी से उत्पन्न होकर अंत में उसी में लीन हो जाता है। ब्रह्मलीन।

2.ब्रह्मांड के बारे में :
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यह दिखाई देने वाला जगत फैलता जा रहा है और दूसरी ओर से यह सिकुड़ता भी जा रहा है। लाखों सूर्य, तारे और धरतीयों का जन्म है तो उसका अंत भी। जो जन्मा है वह मरेगा। सभी कुछ उसी ब्रह्म से जन्में और उसी में लीन हो जाने वाले हैं। यह ब्रह्मांड परिवर्तनशील है। इस जगत का संचालन उसी की शक्ति से स्वत: ही होता है। जैसे कि सूर्य के आकर्षण से ही धरती अपनी धूरी पर टिकी हुई होकर चलायमान है। उसी तरह लाखों सूर्य और तारे एक महासूर्य के आकर्षण से टिके होकर संचालित हो रहे हैं। उसी तरह लाखों महासूर्य उस एक ब्रह्मा की शक्ति से ही जगत में विद्यमान है।

3.आत्मा के बारे में :
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आत्मा का स्वरूप ब्रह्म (परमात्मा) के समान है। जैसे सूर्य और दीपक में जो फर्क है उसी तरह आत्मा और परमात्मा में फर्क है। आत्मा के शरीर में होने के कारण ही यह शरीर संचालित हो रहा है। ठीक उसी तरह जिस तरह कि संपूर्ण धरती, सूर्य, ग्रह नक्षत्र और तारे भी उस एक परमपिता की उपस्थिति से ही संचालित हो रहे हैं।

आत्मा का ना जन्म होता है और ना ही उसकी कोई मृत्यु है। आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करती है। यह आत्मा अजर और अमर है। आत्मा को प्रकृति द्वारा तीन शरीर मिलते हैं एक वह जो स्थूल आंखों से दिखाई देता है। दूसरा वह जिसे सूक्ष्म शरीर कहते हैं जो कि ध्यानी को ही दिखाई देता है और तीसरा वह शरीर जिसे कारण शरीर कहते हैं उसे देखना अत्यंत ही मुश्लिल है। बस उसे वही आत्मा महसूस करती है जो कि उसमें रहती है। आप और हम दोनों ही आत्मा है हमारे नाम और शरीर अलग अलग हैं लेकिन भीतरी स्वरूप एक ही है।

4.स्वर्ग और नरक के बारे में :
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वेदों के अनुसार पुराणों के स्वर्ग या नर्क को गतियों से समझा जा सकता है। स्वर्ग और नर्क दो गतियां हैं। आत्मा जब देह छोड़ती है तो मूलत: दो तरह की गतियां होती है:- 1.अगति और 2. गति।

1.अगति:👉 अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता है उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।

2.गति 👉 गति में जीव को किसी लोक में जाना पड़ता है या वह अपने कर्मों से मोक्ष प्राप्त कर लेता है।

अगति के चार प्रकार है-1.क्षिणोदर्क, 2.भूमोदर्क, 3. अगति और 4.दुर्गति।

क्षिणोदर्क 👉 क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन: पुण्यात्मा के रूप में मृत्यु लोक में आता है और संतों सा जीवन जीता है।

भूमोदर्क 👉 भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली जीवन पाता है।

अगति 👉 अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता है।

दुर्गति 👉 दुर्गति में वह कीट, कीड़ों जैसा जीवन पाता है।

गति के भी 4 प्रकार :-गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं:- 1.ब्रह्मलोक, 2.देवलोक, 3.पितृलोक और 4.नर्कलोक। जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों में जाता है।

तीन मार्गों से यात्रा :
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जब भी कोई मनुष्य मरता है या आत्मा शरीर को त्यागकर यात्रा प्रारंभ करती है तो इस दौरान उसे तीन प्रकार के मार्ग मिलते हैं। ऐसा कहते हैं कि उस आत्मा को किस मार्ग पर चलाया जाएगा यह केवल उसके कर्मों पर निर्भर करता है। ये तीन मार्ग हैं- अर्चि मार्ग, धूम मार्ग और उत्पत्ति-विनाश मार्ग। अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा के लिए होता है, वहीं धूममार्ग पितृलोक की यात्रा पर ले जाता है और उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के लिए है।

5.धर्म और मोक्ष के बारे में :
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धर्मग्रंथों के अनुसार धर्म का अर्थ है यम और नियम को समझकर उसका पालन करना। नियम ही धर्म है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य होता है। हिंदु धर्म के अनुसार व्यक्ति को मोक्ष के बारे में विचार करना चाहिए। मोक्ष क्या है? स्थितप्रज्ञ आत्मा को मोक्ष मिलता है। मोक्ष का भावर्थ यह कि आत्मा शरीर नहीं है इस सत्य को पूर्णत: अनुभव करके ही अशरीरी होकर स्वयं के अस्तित्व को पूख्‍ता करना ही मोक्ष की प्रथम सीढ़ी है।

6.व्रत और त्योहार के बारे में :
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हिन्दु धर्म के सभी व्रत, त्योहार या तीर्थ सिर्फ मोक्ष की प्राप्त हेतु ही निर्मित हुए हैं। मोक्ष तब मिलेगा जब व्यक्ति स्वस्थ रहकर प्रसन्नचित्त और खुशहाल जीवन जीएगा। व्रत से शरीर और मन स्वस्थ होता है। त्योहार से मन प्रसन्न होता है और तीर्थ से मन और मस्तिष्क में वैराग्य और आध्यात्म का जन्म होता है।

मौसम और ग्रह नक्षत्रों की गतियों को ध्यान में रखकर बनाए गए व्रत और त्योहार का महत्व अधिक है। व्रतों में चतुर्थी, एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, पूर्णिमा, श्रावण मास और कार्तिक मास के दिन व्रत रखना श्रेष्ठ है। यदि उपरोक्त सभी नहीं रख सकते हैं तो श्रावण के पूरे महीने व्रत रखें। त्योहारों में मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, नवरात्रि, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी और हनुमान जन्मोत्सव ही मनाएं। पर्व में श्राद्ध और कुंभ का पर्व जरूर मनाएं।

व्रत करने से काया निरोगी और जीवन में शांति मिलती है। सूर्य की 12 और 12 चंद्र की संक्रांति होती है। सूर्य संक्रांतियों में उत्सव का अधिक महत्व है तो चंद्र संक्रांति में व्रतों का अधिक महत्व है। चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन, कार्तिक, अगहन, पौष, माघ और फाल्गुन। इसमें से श्रावण मास को व्रतों में सबसे श्रेष्ठ मास माना गया है। इसके अलावा प्रत्येक माह की एकादशी, चतुर्दशी, चतुर्थी, पूर्णिमा, अमावस्या और अधिमास में व्रतों का अलग-अलग महत्व है। सौरमास और चंद्रमास के बीच बढ़े हुए दिनों को मलमास या अधिमास कहते हैं। साधुजन चतुर्मास अर्थात चार महीने श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक माह में व्रत रखते हैं।

उत्सव, पर्व और त्योहार सभी का अलग-अलग अर्थ और महत्व है। प्रत्येक ऋतु में एक उत्सव है। उन त्योहार, पर्व या उत्सव को मनाने का महत्व अधिक है जिनकी उत्पत्ति स्थानीय परम्परा या संस्कृति से न होकर जिनका उल्लेख वैदिक धर्मग्रंथ, धर्मसूत्र, स्मृति, पुराण और आचार संहिता में मिलता है। चंद्र और सूर्य की संक्रांतियों अनुसार कुछ त्योहार मनाएं जाते हैं। 12 सूर्य संक्रांति होती हैं जिसमें चार प्रमुख है:- मकर, मेष, तुला और कर्क। इन चार में मकर संक्रांति महत्वपूर्ण है। सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ, संक्रांति और कुंभ। पर्वों में रामनवमी, कृष्ण जन्माष्टमी, गुरुपूर्णिमा, वसंत पंचमी, हनुमान जयंती, नवरात्री, शिवरात्री, होली, ओणम, दीपावली, गणेशचतुर्थी और रक्षाबंधन प्रमुख हैं। हालांकि सभी में मकर संक्रांति और कुंभ को सर्वोच्च माना गया है।

7.तीर्थ के बारे में :
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तीर्थ और तीर्थयात्रा का बहुत पुण्य है। जो मनमाने तीर्थ और तीर्थ पर जाने के समय हैं उनकी यात्रा का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं। तीर्थों में चार धाम, ज्योतिर्लिंग, अमरनाथ, शक्तिपीठ और सप्तपुरी की यात्रा का ही महत्व है। अयोध्या, मथुरा, काशी और प्रयाग को तीर्थों का प्रमुख केंद्र माना जाता है, जबकि कैलाश मानसरोवर को सर्वोच्च तीर्थ माना है। बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी ये चार धान है। सोमनाथ, द्वारका, महाकालेश्वर, श्रीशैल, भीमाशंकर, ॐकारेश्वर, केदारनाथ विश्वनाथ, त्र्यंबकेश्वर, रामेश्वरम, घृष्णेश्वर और बैद्यनाथ ये द्वादश ज्योतिर्लिंग है। काशी, मथुरा, अयोध्या, द्वारका, माया, कांची और अवंति उज्जैन ये सप्तपुरी। उपरोक्त कहे गए तीर्थ की यात्रा ही धर्मसम्मत है।

8.संस्कार के बारे में :
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संस्कारों के प्रमुख प्रकार सोलह बताए गए हैं जिनका पालन करना हर हिंदू का कर्तव्य है। इन संस्कारों के नाम है-गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अंत्येष्टि। प्रत्येक हिन्दू को उक्त संस्कार को अच्छे से नियमपूर्वक करना चाहिए। यह मनुष्य के सभ्य और हिन्दू होने की निशानी है। उक्त संस्कारों को वैदिक नियमों के द्वारा ही संपन्न किया जाना चाहिए।

9.पाठ करने के बारे में :
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वेदो, उपनिषद या गीता का पाठ करना या सुनना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है। उपनिषद और गीता का स्वयंम अध्ययन करना और उसकी बातों की किसी जिज्ञासु के समक्ष चर्चा करना पुण्य का कार्य है, लेकिन किसी बहसकर्ता या भ्रमित व्यक्ति के समक्ष वेद वचनों को कहना निषेध माना जाता है। प्रतिदिन धर्म ग्रंथों का कुछ पाठ करने से देव शक्तियों की कृपा मिलती है। हिन्दू धर्म में वेद, उपनिषद और गीता के पाठ करने की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। वक्त बदला तो लोगों ने पुराणों में उल्लेखित कथा की परंपरा शुरू कर दी, जबकि वेदपाठ और गीता पाठ का अधिक महत्व है।

10.धर्म, कर्म और सेवा के बारे में :
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धर्म-कर्म और सेवा का अर्थ यह कि हम ऐसा कार्य करें जिससे हमारे मन और मस्तिष्क को शांति मिले और हम मोक्ष का द्वार खोल पाएं। साथ ही जिससे हमारे सामाजिक और राष्ट्रिय हित भी साधे जाते हों। अर्थात ऐसा कार्य जिससे परिवार, समाज, राष्ट्र और स्वयं को लाभ मिले। धर्म-कर्म को कई तरीके से साधा जा सकता है, जैसे- 1.व्रत, 2.सेवा, 3.दान, 4.यज्ञ, 5.प्रायश्चित, दीक्षा देना और मंदिर जाना आदि।

सेव का मतलब यह कि सर्व प्रथम माता-पिता, फिर बहन-बेटी, फिर भाई-बांधु की किसी भी प्रकार से सहायता करना ही धार्मिक सेवा है। इसके बाद अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना पुण्य का कार्य माना गया है। इसके अलवा सभी प्राणियों, पक्षियों, गाय, कुत्ते, कौए, चींटी आति को अन्न जल देना। यह सभी यज्ञ कर्म में आते हैं।

11.दान के बारे में :
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दान से इंद्रिय भोगों के प्रति आसक्ति छूटती है। मन की ग्रथियां खुलती है जिससे मृत्युकाल में लाभ मिलता है। देव आराधना का दान सबसे सरल और उत्तम उपाय है। वेदों में तीन प्रकार के दाता कहे गए हैं- 1.उक्तम, 2.मध्यम और 3.निकृष्‍ट। धर्म की उन्नति रूप सत्यविद्या के लिए जो देता है वह उत्तम। कीर्ति या स्वार्थ के लिए जो देता है तो वह मध्यम और जो वेश्‍यागमनादि, भांड, भाटे, पंडे को देता वह निकृष्‍ट माना गया है। पुराणों में अन्नदान, वस्त्रदान, विद्यादान, अभयदान और धनदान को ही श्रेष्ठ माना गया है, यही पुण्‍य भी है।

12.यज्ञ के बारे में :
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यज्ञ के प्रमुख पांच प्रकार हैं- ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ और अतिथि यज्ञ। यज्ञ पालन से ऋषि ऋण, देव ऋण, पितृ ऋण, धर्म ऋण, प्रकृति ऋण और मातृ ऋण समाप्त होता है। नित्य संध्या वंदन, स्वाध्याय तथा वेदपाठ करने से ब्रह्म यज्ञ संपन्न होता है। देवयज्ञ सत्संग तथा अग्निहोत्र कर्म से सम्पन्न होता है। अग्नि जलाकर होम करना अग्निहोत्र यज्ञ है। पितृयज्ञ को श्राद्धकर्म भी कहा गया है। यह यज्ञ पिंडदान, तर्पण और सन्तानोत्पत्ति से सम्पन्न होता है। वैश्वदेव यज्ञ को भूत यज्ञ भी कहते हैं। सभी प्राणियों तथा वृक्षों के प्रति करुणा और कर्त्तव्य समझना उन्हें अन्न-जल देना ही भूत यज्ञ कहलाता है। अतितिथ यज्ञ से अर्थ मेहमानों की सेवा करना। अपंग, महिला, विद्यार्थी, संन्यासी, चिकित्सक और धर्म के रक्षकों की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। इसके अलावा अग्निहोत्र, अश्वमेध, वाजपेय, सोमयज्ञ, राजसूय और अग्निचयन का वर्णण यजुर्वेद में मिलता है।

13.मंदिर जाने के बारे में :
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प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए: घर में मंदिर नहीं होना चाहिए। प्रति गुरुवार को मंदिर जाना चाहिए। मंदिर में जाकर परिक्रमा करना चाहिए। भारत में मंदिरों, तीर्थों और यज्ञादि की परिक्रमा का प्रचलन प्राचीनकाल से ही रहा है। मंदिर की 7 बार (सप्तपदी) परिक्रमा करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह 7 परिक्रमा विवाह के समय अग्नि के समक्ष भी की जाती है। इसी प्रदक्षिण को इस्लाम धर्म ने परंपरा से अपनाया जिसे तवाफ कहते हैं। प्रदक्षिणा षोडशोपचार पूजा का एक अंग है। प्रदक्षिणा की प्रथा अतिप्राचीन है। हिन्दू सहित जैन, बौद्ध और सिख धर्म में भी परिक्रमा का महत्व है। इस्लाम में मक्का स्थित काबा की 7 परिक्रमा का प्रचलन है। पूजा-पाठ, तीर्थ परिक्रमा, यज्ञादि पवित्र कर्म के दौरान बिना सिले सफेद या पीत वस्त्र पहनने की परंपरा भी प्राचीनकाल से हिन्दुओं में प्रचलित रही है। मंदिर जाने या संध्यावंदन के पूर्व आचमन या शुद्धि करना जरूरी है। इसे इस्लाम में वुजू कहा जाता है।

14.संध्यावंदनके बारे में :
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संध्या वंदन को संध्योपासना भी कहते हैं। मंदिर में जाकर संधि काल में ही संध्या वंदन की जाती है। वैसे संधि आठ वक्त की मानी गई है। उसमें भी पांच महत्वपूर्ण है। पांच में से भी सूर्य उदय और अस्त अर्थात दो वक्त की संधि महत्वपूर्ण है। इस समय मंदिर या एकांत में शौच, आचमन, प्राणायामादि कर गायत्री छंद से निराकार ईश्वर की प्रार्थना की जाती है। संध्योपासना के चार प्रकार है- 1.प्रार्थना, 2.ध्यान, 3.कीर्तन और 4.पूजा-आरती। व्यक्ति की जिस में जैसी श्रद्धा है वह वैसा करता है।

15..धर्म की सेवा के बारे में :
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धर्म की प्रशंसा करना और धर्म के बारे में सही जानकारी को लोगों तक पहुंचाना प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य होता है। धर्म प्रचार में वेद, उपनिषद और गीता के ज्ञान का प्रचार करना ही उत्तम माना गया है। धर्म प्रचारकों के कुछ प्रकार हैं। हिन्दू धर्म को पढ़ना और समझना जरूरी है। हिन्दू धर्म को समझकर ही उसका प्रचार और प्रसार करना जरूरी है। धर्म का सही ज्ञान होगा, तभी उस ज्ञान को दूसरे को बताना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को धर्म प्रचारक होना जरूरी है। इसके लिए भगवा वस्त्र धारण करने या संन्यासी होने की जरूरत नहीं। स्वयं के धर्म की तारीफ करना और बुराइयों को नहीं सुनना ही धर्म की सच्ची सेवा है।

16.मंत्र के बारे में :
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वेदों में बहुत सारे मंत्रों का उल्लेख मिलता है, लेकिन जपने के लिए सिर्फ प्रणव और गायत्री मंत्र ही कहा गया है बाकी मंत्र किसी विशेष अनुष्ठान और धार्मिक कार्यों के लिए है। वेदों में गायत्री नाम से छंद है जिसमें हजारों मंत्र है किंतु प्रथम मंत्र को ही गायत्री मंत्र माना जाता है। उक्त मंत्र के अलावा किसी अन्य मंत्र का जाप करते रहने से समय और ऊर्जा की बर्बादी है। गायत्री मंत्र की महिमा सर्वविदित है। दूसरा मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र, लेकिन उक्त मंत्र के जप और नियम कठिन है इसे किसी जानकार से पूछकर ही जपना चाहिए।

17.प्रायश्चित के बार में
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प्राचीनकाल से ही हिन्दु्ओं में मंदिर में जाकर अपने पापों के लिए प्रायश्चित करने की परंपरा रही है। प्रायश्‍चित करने के महत्व को स्मृति और पुराणों में विस्तार से समझाया गया है। गुरु और शिष्य परंपरा में गुरु अपने शिष्य को प्रायश्चित करने के अलग-अलग तरीके बताते हैं। दुष्कर्म के लिए प्रायश्चित करना , तपस्या का एक दूसरा रूप है।   यह मंदिर में देवता के समक्ष 108 बार साष्टांग प्रणाम , मंदिर के इर्दगिर्द चलते हुए साष्टांग प्रणाम और कावडी अर्थात वह तपस्या जो भगवान मुरुगन को अर्पित की जाती है, जैसे कृत्यों के माध्यम से की जाती है। मूलत: अपने पापों की क्षमा भगवान शिव और वरूणदेव से मांगी जाती है, क्योंकि क्षमा का अधिकार उनको ही है।

18.दीक्षा देने के बारे में :
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दीक्षा देने का प्रचलन वैदिक ऋषियों ने प्रारंभ किया था। प्राचीनकाल में पहले शिष्य और ब्राह्मण बनाने के लिए दीक्षा दी जाती थी। माता-पिता अपने बच्चों को जब शिक्षा के लिए भेजते थे तब भी दीक्षा दी जाती थी। हिन्दू धर्मानुसार दिशाहीन जीवन को दिशा देना ही दीक्षा है। दीक्षा एक शपथ, एक अनुबंध और एक संकल्प है।  दीक्षा के बाद व्यक्ति द्विज बन जाता है। द्विज का अर्थ दूसरा जन्म। दूसरा व्यक्तित्व। सिख धर्म में इसे अमृत संचार कहते हैं।

यह दीक्षा देने की परंपरा जैन धर्म में भी प्राचीनकाल से रही है, हालांकि दूसरे धर्मों में दीक्षा को अपने धर्म में धर्मांतरित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। धर्म से इस परंपरा को ईसाई धर्म ने अपनाया जिसे वे बपस्तिमा कहते हैं। अलग-अलग धर्मों में दीक्षा देने के भिन्न-भिन्न तरीके हैं।
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