Wednesday, 28 June 2017

येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ! ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!

षड् दोषाः पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता !
निद्रा तद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रता !!

हिन्दी अर्थ : किसी व्यक्ति के बर्बाद होने के 6 लक्षण होते है – नींद, गुस्सा, भय, तन्द्रा, आलस्य और काम को टालने की आदत.

द्वौ अम्भसि निवेष्टव्यौ गले बद्ध्वा दृढां शिलाम् !
धनवन्तम् अदातारम् दरिद्रं च अतपस्विनम् !!

हिन्दी अर्थ : दो प्रकार के लोगो के गले में पत्थर बांधकर उन्हें समुद्र में फेंक देना चाहिए. पहले वे व्यक्ति जो अमीर होते है पर दान नहीं करते और दूसरे वे जो गरीब होते है लेकिन कठिन परिश्रम नहीं करते.

 येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः !
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति !!

हिन्दी अर्थ : जिन लोगो के पास विद्या, तप, दान, शील, गुण और धर्म नहीं होता. ऐसे लोग इस धरती के लिए भार है और मनुष्य के रूप में जानवर बनकर घूमते है.

गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार. गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..

गुरु को नित वंदन करो, हर पल है गुरूवार.
गुरु ही देता शिष्य को, निज आचार-विचार..

* विधि-हरि-हर, परब्रम्ह भी, गुरु-सम्मुख लघुकाय. अगम अमित है गुरु कृपा, कोई नहीं पर्याय.

. * गुरु है गंगा ज्ञान की, करे पाप का नाश.
ब्रम्हा-विष्णु-महेश सम, काटे भाव का पाश.

. * गुरु भास्कर अज्ञान तम्, ज्ञान सुमंगल भोर.
शिष्य पखेरू कर्म कर, गहे सफलता कोर..

* गुरु-चरणों में बैठकर, गुर जीवन के जान.
ज्ञान गहे एकाग्र मन, चंचल चित अज्ञान..

* गुरुता जिसमें वह गुरु, शत-शत नम्र प्रणाम.
कंकर से शंकर गढ़े, कर्म करे निष्काम..

* गुरु पल में ले शिष्य के, गुण-अवगुण पहचान.
दोष मिटा कर बना दे, आदम से इंसान..

* गुरु-चरणों में स्वर्ग है, गुरु-सेवा में मुक्ति.
भव सागर-उद्धार की, गुरु-पूजन ही युक्ति.

. * माटी शिष्य कुम्हार गुरु, करे न कुछ संकोच.
कूटे-साने रात-दिन, तब पैदा हो लोच..

* कथनी-करनी एक हो, गुरु उसको ही मान.
चिन्तन चरखा पठन रुई, सूत आचरण जान..

* शिष्यों के गुरु एक है, गुरु को शिष्य अनेक.
भक्तों को हरि एक ज्यों, हरि को भक्त अनेक..

* गुरु तो गिरिवर उच्च हो, शिष्य 'सलिल' सम दीन.
गुरु-पद-रज बिन विकल हो, जैसे जल बिन मीन.

. * ज्ञान-ज्योति गुरु दीप ही, तम् का करे विनाश.
लगन-परिश्रम दीप-घृत, श्रृद्धा प्रखर प्रकाश..

* गुरु दुनिया में कम मिलें, मिलते गुरु-घंटाल.
पाठ पढ़ाकर त्याग का, स्वयं उड़ाते माल..

* गुरु-गरिमा-गायन करे, पाप-ताप का नाश.
गुरु-अनुकम्पा काटती, महाकाल का पाश..

* विश्वामित्र-वशिष्ठ बिन, शिष्य न होता राम.
गुरु गुण दे, अवगुण हरे, अनथक आठों याम..

* गुरु खुद गुड़ रह शिष्य को, शक्कर सदृश निखार.
माटी से मूरत गढ़े, पूजे सब संसार..

* गुरु की महिमा है अगम, गाकर तरता शिष्य.
गुरु कल का अनुमान कर, गढ़ता आज भविष्य..

* मुँह देखी कहता नहीं, गुरु बतलाता दोष.
कमियाँ दूर किये बिना, गुरु न करे संतोष..

* शिष्य बिना गुरु अधूरा, गुरु बिन शिष्य अपूर्ण.
सिन्धु-बिंदु, रवि-किरण सम, गुरु गिरि चेला चूर्ण..

* गुरु अनुकम्पा नर्मदा,रुके न नेह-निनाद.
अविचल श्रृद्धा रहे तो, भंग न हो संवाद..

* गुरु की जय-जयकार कर, रसना होती धन्य.
गुरु पग-रज पाकर तरें, कामी क्रोधी वन्य..

* गुरुवर जिस पर सदय हों, उसके जागें भाग्य.
लोभ-मोह से मुक्ति पा, शिष्य वरे वैराग्य..

* गुरु को पारस जानिए, करे लौह को स्वर्ण.
शिष्य और गुरु जगत में, केवल दो ही वर्ण..

* संस्कार की सान पर, गुरु धरता है धार.
नीर-क्षीर सम शिष्य के, कर आचार-विचार..

* माटी से मूरत गढ़े, सद्गुरु फूंके प्राण.
कर अपूर्ण को पूर्ण गुरु, भव से देता त्राण..

* गुरु से भेद न मानिये, गुरु से रहें न दूर.
गुरु बिन 'सलिल' मनुष्य है, आँखें रहते सूर.

* टीचर-प्रीचर गुरु नहीं, ना मास्टर-उस्ताद.
गुरु-पूजा ही प्रथम कर, प्रभु की पूजा बाद

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई। जों बिरंचि संकर सम होई।। भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है।

गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई।
जों बिरंचि संकर सम होई।।

भले ही कोई ब्रह्मा, शंकर के समान क्यों न हो, वह गुरु के बिना भव सागर पार नहीं कर सकता। धरती के आरंभ से ही गुरु की अनिवार्यता पर प्रकाश डाला गया है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, रामायण, गीता, गुरुग्रन्थ साहिब आदि सभी धर्मग्रन्थों एवं सभी महान संतों द्वारा गुरु की महिमा का गुणगान किया गया है। गुरु और भगवान में कोई अन्तर नहीं है।

संत शिरोमणि तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते हैं –

बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबिकर निकर।।

अर्थात् गुरू मनुष्य रूप में नारायण ही हैं। मैं उनके चरण कमलों की वन्दना करता हूँ। जैसे सूर्य के निकलने पर अन्धेरा नष्ट हो जाता है, वैसे ही उनके वचनों से मोहरूपी अन्धकार का नाश हो जाता है। किसी भी प्रकार की विद्या हो अथवा ज्ञान हो, उसे किसी दक्ष गुरु से ही सीखना चाहिए।
जप, तप, यज्ञ, दान आदि में भी गुरु का दिशा निर्देशन जरूरी है कि इनकी विधि क्या है? अविधिपूर्वक किए गए सभी शुभ कर्म भी व्यर्थ ही सिद्ध होते हैं जिनका कोई उचित फल नहीं मिलता। स्वयं की अहंकार की दृष्टि से किए गए सभी उत्तम माने जाने वाले कर्म भी मनुष्य के पतन का कारण बन जाते हैं।

भौतिकवाद में भी गुरू की आवश्यकता होती है। सबसे बड़ा तीर्थ तो गुरुदेव ही हैं जिनकी कृपा से फल अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। गुरुदेव का निवास स्थान शिष्य के लिए तीर्थ स्थल है। उनका चरणामृत ही गंगा जल है। वह मोक्ष प्रदान करने वाला है। गुरु से इन सबका फल अनायास ही मिल जाता है।ऐसी गुरु की महिमा है।

तीरथ गए तो एक फल, संत मिले फल चार।
सद्गुरु मिले तो अनन्त फल, कहे कबीर विचार।।

मनुष्य का अज्ञान यही है कि उसने भौतिक जगत को ही परम सत्य मान लिया है और उसके मूल कारण चेतन को भुला दिया है जबकि सृष्टि की समस्त क्रियाओं का मूल चेतन शक्ति ही है। चेतन मूल तत्व को न मान कर जड़ शक्ति को ही सब कुछ मान लेनाअज्ञानता है।

इस अज्ञान का नाश कर परमात्मा का ज्ञान कराने वाले गुरू ही होते हैं। किसी गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रथम आवश्यकता समर्पण की होती है।

समर्पण भाव से ही गुरु का प्रसाद शिष्य को मिलता है। शिष्य को अपना सर्वस्व श्री गुरु देव के चरणों में समर्पित कर देना चाहिए।

इसी संदर्भ में यह उल्लेख किया गया है कि

यह तन विष की बेलरी, और गुरू अमृत की खान,
शीश दियां जो गुरू मिले तो भी सस्ता जान।

गुरु ज्ञान गुरु से भी अधिक महत्वपूर्ण है। प्राय: शिष्य गुरु को मानते हैं पर उनके संदेशों को नहीं मानते। इसी कारण उनके जीवन में और समाज में अशांति बनी रहती है। गुरु के वचनों पर शंका करना शिष्यत्व पर कलंक है। जिस दिन शिष्य ने गुरु को मानना शुरू किया उसी दिन से उसका उत्थान शुरू शुरू हो जाता है और जिस दिन से शिष्य ने गुरु के प्रति शंका करनी शुरू की, उसी दिन से शिष्य का पतन शुरू हो जाता है।

सद्गुरु एक ऐसी शक्ति है जो शिष्य की सभी प्रकार के ताप-शाप से रक्षा करती है। शरणा गत शिष्य के दैहिक, दैविक, भौतिक कष्टों को दूर करने एवं उसे बैकुंठ धाम में पहुंचाने का दायित्व गुरु का होता है।आनन्द अनुभूति का विषय है। बाहर की वस्तुएँ सुख दे सकती हैं किन्तु इससे मानसिक शांति नहीं मिल सकती। शांति के लिए गुरु चरणों में आत्म समर्पण परम आवश्यक है।

सदैव गुरुदेव का ध्यान करने से जीव नारायण स्वरूप हो जाता है। वह कहीं भी रहता हो, फिर भी मुक्त ही है। ब्रह्म निराकार है। इसलिए उसका ध्यान करना कठिन है। ऐसी स्थिति में सदैव गुरुदेव का ही ध्यान करते रहना चाहिए। गुरुदेव नारायण स्वरूप हैं। इसलिए गुरु का नित्य ध्यान करते रहने से जीव नारायणमय हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गुरु रूप में शिष्य अर्जुन को यही संदेश दिया था

– सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्याि माम शुच: ।।

(गीता 18/66) अर्थात् सभी साधनों को छोड़कर केवल नारायण स्वरूप गुरु की शरणगत हो जाना चाहिए। वे उसके सभी पापों का नाश कर देंगे। शोक नहीं करना चाहिए। जिनके दर्शन मात्र से मन प्रसन्न होता है, अपने आप धैर्य और शांति आ जाती हैं, वे परम गुरु हैं। जिनकी रग-रग में ब्रह्म का तेज व्याप्त है, जिनका मुख मण्डल तेजोमय हो चुका है, उनके मुख मण्डल से ऐसी आभा निकलती है कि जो भी उनके समीप जाता है वह उस तेज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।

उस गुरु के शरीर से निकलती वे अदृश्य किरणें समीपवर्ती मनुष्यों को ही नहीं अपितु पशु पक्षियों को भी आनन्दित एवं मोहित कर देती है।

उनके दर्शन मात्र से ही मन में बड़ी प्रसनन्ता व शांति का अनुभव होता है। मन की संपूर्ण उद्विग्नता समाप्त हो जाती है। ऐसे परम गुरु को ही गुरु बनाना चाहिए।

Tuesday, 27 June 2017

दान पर सुविचार


*वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्।*
*वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवाऽपि *
*भावार्थ -* समुद्र में हुई वर्षा का कोई लाभ नहीं होता, भरपेट भोजन करके तृप्त हुए व्यक्ति को भोजन कराने का कोई लाभ नहीं होता, धनाढ्य व्यक्ति को दान देने से कोई लाभ नहीं होता और सूर्य के प्रकाश में दिया जलाने का कोई लाभ नहीं होता।

स्वर वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि विवेकपूर्ण और स्थायी कार्य चंद्र स्वर बांया (उल्टा) में किए जाने चाहिए, जैस विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि ऐसे कार्य हैं कि जिनमें अधिक गंभीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता होती है।

श्वास ही जीव का प्राण है और इसी श्वास को स्वर कहा जाता है। स्वर के चलने की क्रिया को उदय होना मानकर स्वरोदय कहा गया है तथा विज्ञान, जिसमें कुछ विधियाँ बताई गई हों और विषय के रहस्य को समझने का प्रयास हो, उसे विज्ञान कहा जाता है।

स्वरोदय विज्ञान एक आसान प्रणाली है, जिसे प्रत्येक श्वास लेने वाला जीव प्रयोग में ला सकता है। स्वरोदय अपने आप में पूर्ण विज्ञान है।

इसके ज्ञान मात्र से ही व्यक्ति अनेक लाभों से लाभान्वित होने लगता है। इसका लाभ प्राप्त करने के लिए आपको कोई कठिन गणित, साधना, यंत्र-जाप, उपवास या कठिन तपस्या की आवश्यकता नहीं होती है।

आपको केवल श्वास की गति एवं दिशा की स्थिति ज्ञात करने का अभ्यास मात्र करना है। यह विद्या इतनी सरल है कि अगर थोड़ी लगन एवं आस्था से इसका अध्ययन या अभ्यास किया जाए तो जीवनपर्यन्त इसके असंख्य लाभों से अभिभूत हुआ जा सकता है।

सूर्य, चंद्र और सुषुम्ना स्वर =

सर्वप्रथम हाथों द्वारा नाक के छिद्रों से बाहर निकलती हुई श्वास को महसूस करने का प्रयत्न कीजिए। देखिए कि कौन से छिद्र से श्वास बाहर निकल रही है।

स्वरोदय विज्ञान के अनुसार अगर श्वास दाहिने

छिद्र से बाहर निकल रही है तो यह सूर्य स्वर होगा।

इसके विपरीत यदि श्वास  बांया (उल्टा) छिद्र से निकल रही है तो यह चंद्र स्वर होगा

एवं यदि जब दोनों छिद्रों से निःश्वास निकलता महसूस करें तो यह सुषुम्ना स्वर कहलाएगा।

श्वास के बाहर निकलने की उपरोक्त तीनों क्रियाएँ ही स्वरोदय विज्ञान का आधार हैं।

सूर्य स्वर पुरुष प्रधान है।

इसका रंग काला है। यह शिव स्वरूप है,

इसके विपरीत चंद्र स्वर स्त्री प्रधान है एवं इसका रंग गोरा है,

यह शक्ति अर्थात्‌ पार्वती का रूप है।

इड़ा नाड़ी शरीर के बाईं तरफ स्थित है तथा पिंगला नाड़ी दाहिनी तरफ अर्थात्‌ इड़ा नाड़ी में चंद्र स्वर स्थित रहता है और पिंगला नाड़ी में सूर्य स्वर।

सुषुम्ना मध्य में स्थित है, अतः दोनों ओर से श्वास निकले वह सुषम्ना स्वर कहलाएगा।

स्वर को पहचानने की सरल विधियाँ =

(1) शांत भाव से मन एकाग्र करके बैठ जाएँ। अपने दाएँ हाथ को नाक छिद्रों के पास ले जाएँ। तर्जनी अँगुली छिद्रों के नीचे रखकर श्वास बाहर फेंकिए। ऐसा करने पर आपको किसी एक छिद्र से श्वास का अधिक स्पर्श होगा। जिस तरफ के छिद्र से श्वास निकले, बस वही स्वर चल रहा है।

(2) एक छिद्र से अधिक एवं दूसरे छिद्र से कम वेग का श्वास निकलता प्रतीत हो तो यह सुषुम्ना के साथ मुख्य स्वर कहलाएगा।

(3) एक अन्य विधि के अनुसार आईने को नासाछिद्रों के नीचे रखें। जिस तरफ के छिद्र के नीचे काँच पर वाष्प के कण दिखाई दें, वही स्वर चालू समझें।

जीवन में स्वर का चमत्कार =

स्वर विज्ञान अपने आप में दुनिया का महानतम ज्योतिष विज्ञान है जिसके संकेत कभी गलत नहीं जाते। शरीर की मानसिक और शारीरिक क्रियाओं से लेकर दैवीय सम्पर्कों और परिवेशीय घटनाओं तक को प्रभावित करने की क्षमता रखने वाला स्वर विज्ञान दुनिया के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण है।

स्वर विज्ञान का सहारा लेकर आप जीवन को नई दिशा दृष्टि डे सकते है.

दिव्य जीवन का निर्माण कर सकते हैं, लौकिक एवं पारलौकिक यात्रा को सफल बना सकते हैं। यही नहीं तो आप अपने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति और क्षेत्र की धाराओं तक को बदल सकने का सामर्थ्य पा जाते हैं।

अपनी नाक के दो छिद्र होते हैं। इनमें से सामान्य अवस्था में एक ही छिद्र से हवा का आवागमन होता रहता है।

कभी दायां तो कभी बांया। जिस समय स्वर बदलता है उस समय कुछ सैकण्ड के लिए दोनों नाक में हवा निकलती प्रतीत होती है।

इसके अलावा कभी - कभी सुषुम्ना नाड़ी के चलते समय दोनों नासिक छिद्रों से हवा निकलती है। दोनों तरफ सांस निकलने का समय योगियों के लिए योग मार्ग में प्रवेश करने का समय होता है।

बांया (उल्टा) तरफ सांस आवागमन का मतलब है आपके शरीर की इड़ा नाड़ी में वायु प्रवाह है।

इसके विपरीत दांयी नाड़ी पिंगला है। दोनों के मध्य सुषुम्ना नाड़ी का स्वर प्रवाह होता है।

अपनी नाक से निकलने वाली साँस को परखने मात्र से आप जीवन के कई कार्यों को बेहतर बना सकते हैं। सांस का संबंध तिथियों और वारों से जोड़कर इसे और अधिक आसान बना दिया गया है।

जिस तिथि को जो सांस होना चाहिए, वही यदि होगा तो आपका दिन अच्छा जाएगा।

इसके विपरीत होने पर आपका दिन बिगड़ा ही रहेगा।

इसलिये साँस पर ध्यान दें और जीवन विकास की यात्रा को गति दें।

मंगल, शनि और रवि का संबंध सूर्य स्वर से है

जबकि शेष का संबंध चन्द्र स्वर से।

आपके दांये नथुने से निकलने वाली सांस पिंगला है।

इस स्वर को सूर्य स्वर कहा जाता है। यह गरम होती है।

जबकि बांयी  बांया (उल्टा) ओर से निकलने वाले स्वर को इड़ा नाड़ी का स्वर कहा जाता है। इसका संबंध चन्द्र से है और यह स्वर ठण्डा है।

शुक्ल पक्ष:- •

प्रतिपदा, द्वितीया व तृतीया बांया (उल्टा) •

चतुर्थी, पंचमी एवं षष्ठी -दांया (सीधा) •

सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी बांया (उल्टा) •

दशमी, एकादशी एवं द्वादशी –दांया (सीधा) •

त्रयोदशी, चतुर्दशी एवं पूर्णिमा – बांया (उल्टा)

कृष्ण पक्ष:- •

प्रतिपदा, द्वितीया व तृतीया दांया (सीधा) •

चतुर्थी, पंचमी एवं षष्ठी बांया (उल्टा) •

सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी दांया(सीधा) •

दशमी, एकादशी एवं द्वादशी बांया(उल्टा) •

त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावास्या --दांया(सीधा)

सवेरे नींद से जगते ही नासिका से स्वर देखें। जिस तिथि को जो स्वर होना चाहिए, वह हो तो बिस्तर पर उठकर स्वर वाले नासिका छिद्र की तरफ के हाथ की हथेली का चुम्बन ले लें और उसी दिशा में मुंह पर हाथ फिरा लें।

यदि बांये स्वर का दिन हो तो बिस्तर से उतरते समय बांया पैर जमीन पर रखकर नीचे उतरें, फिर दायां पैर बांये से मिला लें और इसके बाद दुबारा बांया पैर आगे निकल कर आगे बढ़ लें।

यदि दांये स्वर का दिन हो और दांया स्वर ही निकल रहा हो तो बिस्तर पर उठकर दांयी हथेली का चुम्बन ले लें और फिर बिस्तर से जमीन पर पैर रखते समय पर पहले दांया पैर जमीन पर रखें और आगे बढ़ लें।

यदि जिस तिथि को स्वर हो, उसके विपरीत नासिका से स्वर निकल रहा हो तो बिस्तर से नीचे नहीं उतरें और जिस तिथि का स्वर होना चाहिए उसके विपरीत करवट लेट लें।

इससे जो स्वर चाहिए, वह शुरू हो जाएगा और उसके बाद ही बिस्तर से नीचे उतरें।

स्नान, भोजन, शौच आदि के वक्त दाहिना स्वर रखें। पानी, चाय, काफी आदि पेय पदार्थ पीने, पेशाब करने, अच्छे काम करने आदि में बांया स्वर होना चाहिए।

जब शरीर अत्यधिक गर्मी महसूस करे तब दाहिनी करवट लेट लें और बांया स्वर शुरू कर दें।

इससे तत्काल शरीर ठण्ढक अनुभव करेगा। जब शरीर ज्यादा शीतलता महसूस करे तब बांयी करवट लेट लें, इससे दाहिना स्वर शुरू हो जाएगा और शरीर जल्दी गर्मी महसूस करेगा।

जिस किसी व्यक्ति से कोई काम हो, उसे अपने उस तरफ रखें जिस तरफ की नासिका का स्वर निकल रहा हो। इससे काम निकलने में आसानी रहेगी। जब नाक से दोनों स्वर निकलें, तब किसी भी अच्छी बात का चिन्तन न करें अन्यथा वह बिगड़ जाएगी।

इस समय यात्रा न करें अन्यथा अनिष्ट होगा। इस समय सिर्फ भगवान का चिन्तन ही करें। इस समय ध्यान करें तो ध्यान जल्दी लगेगा।

दक्षिणायन शुरू होने के दिन प्रातःकाल जगते ही यदि चन्द्र स्वर हो तो पूरे छह माह अच्छे गुजरते हैं।

इसी प्रकार उत्तरायण शुरू होने के दिन प्रातः जगते ही सूर्य स्वर हो तो पूरे छह माह बढ़िया गुजरते हैं।

कहा गया है - कर्के चन्द्रा, मकरे भानु।

रोजाना स्नान के बाद जब भी कपड़े पहनें, पहले स्वर देखें और जिस तरफ स्वर चल रहा हो उस तरफ से कपड़े पहनना शुरू करें और साथ में यह मंत्र बोलते जाएं -

ॐ जीवं रक्ष।

इससे दुर्घटनाओं का खतरा हमेशा के लिए टल जाता है। आप घर में हो या आफिस में, कोई आपसे मिलने आए और आप चाहते हैं कि वह ज्यादा समय आपके पास नहीं बैठा रहे।

ऎसे में जब भी सामने वाला व्यक्ति आपके कक्ष में प्रवेश करे उसी समय आप अपनी पूरी साँस को बाहर निकाल फेंकियें, इसके बाद वह व्यक्ति जब आपके करीब आकर हाथ मिलाये, तब हाथ मिलाते समय भी यही क्रिया गोपनीय रूप से दोहरा दें।

आप देखेंगे कि वह व्यक्ति आपके पास ज्यादा बैठ नहीं पाएगा, कोई न कोई ऎसा कारण उपस्थित हो जाएगा कि उसे लौटना ही पड़ेगा।

इसके विपरीत आप किसी को अपने पास ज्यादा देर बिठाना चाहें तो कक्ष प्रवेश तथा हाथ मिलाने की क्रियाओं के वक्त सांस को अन्दर खींच लें।

आपकी इच्छा होगी तभी वह व्यक्ति लौट पाएगा। कई बार ऐसे अवसर आते हैं, जब कार्य अत्यंत आवश्यक होता है, लेकिन स्वर विपरीत चल रहा होता है। ऐसे समय में स्वर की प्रतीक्षा करने पर उत्तम अवसर हाथों से निकल सकता है, अत: स्वर परिवर्तन के द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि के लिए प्रस्थान करना चाहिए या कार्य प्रारंभ करना चाहिए। स्वर विज्ञान का सम्यक ज्ञान आपको सदैव अनुकूल परिणाम प्रदान करवा सकता है।

कब करें कौन सा काम =

ग्रहों को देखे बिना स्वर विज्ञान के ज्ञान से अनेक समस्याओं, बाधाओं एवं शुभ परिणामों का बोध इन नाड़ियों से होने लगता है, जिससे अशुभ का निराकरण भी आसानी से किया जा सकता है।

क्यू चंद्रमा एवं सूर्य की रश्मियों का प्रभाव स्वरों पर पड़ता है। चंद्रमा का गुण शीतल एवं सूर्य का उष्ण है।

शीतलता से स्थिरता, गंभीरता, विवेक आदि गुण उत्पन्न होते हैं

और उष्णता से तेज, शौर्य, चंचलता, उत्साह, क्रियाशीलता, बल आदि गुण पैदा होते हैं।

किसी भी काम का अंतिम परिणाम उसके आरंभ पर निर्भर करता है। शरीर व मन की स्थिति, चंद्र व सूर्य या अन्य ग्रहों एवं नाड़ियों को भलीभांति पहचान कर यदि काम शुरु करें तो परिणाम अनुकूल निकलते हैं।

स्वर वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि विवेकपूर्ण और स्थायी कार्य चंद्र स्वर में किए जाने चाहिए,

जैस विवाह, दान, मंदिर, जलाशय निर्माण, नया वस्त्र धारण करना, घर बनाना, आभूषण खरीदना, शांति अनुष्ठान कर्म, व्यापार, बीज बोना, दूर प्रदेशों की यात्रा, विद्यारंभ, धर्म, यज्ञ, दीक्षा, मंत्र, योग क्रिया आदि ऐसे कार्य हैं कि जिनमें अधिक गंभीरता और बुद्धिपूर्वक कार्य करने की आवश्यकता होती है।

इसीलिए चंद्र स्वर के चलते इन कार्यो का आरंभ शुभ परिणामदायक होता है।

उत्तेजना, आवेश और जोश के साथ करने पर जो कार्य ठीक होते हैं, उनमें सूर्य स्वर उत्तम कहा जाता है।

दाहिने नथुने से श्वास ठीक आ रही हो अर्थात सूर्य स्वर चल रहा हो तो परिणाम अनुकूल मिलने वाला होता है।

दबाए मानसिक विकार =

कुछ समय के लिए दोनों नाड़ियां चलती हैं अत: प्राय: शरीर संधि अवस्था में होता है। इस समय पारलौकिक भावनाएं जागृत होती हैं।

संसार की ओर से विरक्ति, उदासीनता और अरुचि होने लगती है। इस समय में परमार्थ चिंतन, ईश्वर आराधना आदि की जाए, तो सफलता प्राप्त हो सकती है।

यह काल सुषुम्ना नाड़ी का होता है, इसमें मानसिक विकार दब जाते हैं और आत्मिक भाव का उदय होता है।

अन्य उपाय =

यदि किसी क्रोधी पुरुष के पास जाना है तो जो स्वर नहीं चल रहा है, उस पैर को आगे बढ़ाकर प्रस्थान करना चाहिए तथा अचलित स्वर की ओर उस पुरुष या महिला को लेकर बातचीत करनी चाहिए।

ऐसा करने से क्रोधी व्यक्ति के क्रोध को आपका अविचलित स्वर का शांत भाग शांत बना देगा और मनोरथ की सिद्धि होगी।

गुरु, मित्र, अधिकारी, राजा, मंत्री आदि से वाम स्वर से ही वार्ता करनी चाहिए।

कई बार ऐसे अवसर भी आते हैं, जब कार्य अत्यंत आवश्यक होता है लेकिन स्वर विपरीत चल रहा होता है।ऐसे समय स्वर बदलने के प्रयास करने चाहिए।

स्वर को परिवर्तित कर अपने अनुकूल करने के लिए कुछ उपाय कर लेने चाहिए। जिस नथुने से श्वास नहीं आ रही हो, उससे दूसरे नथुने को दबाकर पहले नथुने से श्वास निकालें। इस तरह कुछ ही देर में स्वर परिवर्तित हो जाएगा।

घी खाने से वाम स्वर और शहद खाने से दक्षिण स्वर चलना प्रारंभ हो जाता है।

शास्त्र ज्ञान- इन 5 कामों से घर-परिवार और समाज में होता है अपमान रामायण, महाभारत, गरुड़ पुराण आदि ग्रंथों में कई ऐसे काम बताए गए हैं जो हमें करना नहीं चाहिए। जो लोग वर्जित किए गए काम करते हैं, उन्हें कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

शास्त्र ज्ञान- इन 5 कामों से घर-परिवार और समाज में होता है अपमान रामायण, महाभारत, गरुड़ पुराण आदि ग्रंथों में कई ऐसे काम बताए गए हैं जो हमें करना नहीं चाहिए। जो लोग वर्जित किए गए काम करते हैं, उन्हें कई प्रकार की परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

यहां जानिए पांच काम ऐसे बताए गए हैं, जिनकी वजह से घर-परिवार और समाज में मान-सम्मान नहीं मिलता है, अपयश यानी अपमान का सामना करना पड़ता है।

1. संतान की अनदेखी करना यदि कोई व्यक्ति संतान के पालन-पोषण में अनदेखी करता है तो संतान बिगड़ जाती है। संतान संस्कारी नहीं है और गलत काम करती है तो इससे अपमान ही प्राप्त होता है। जब घर के बड़ों की अनदेखी होती है तो संतान असंस्कारी हो सकती है। अत: माता-पिता को संतान के अच्छे भविष्य के लिए उचित देखभाल करनी चाहिए। संतान को अच्छे संस्कार मिले इस बात का ध्यान रखना चाहिए। महाभारत में महाराज धृतराष्ट्र इस बात का श्रेष्ठ उदाहरण है कि संतान संस्कारी नहीं होती है तो पूरे परिवार का भी नाश हो सकता है। दुर्योधन अधर्म के मार्ग पर चल रहा था, लेकिन धृतराष्ट्र ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। परिणाम सामने है। कौरव वंश का नाश हुआ और धृतराष्ट्र को भी अपमान का सामना करना पड़ा।

2. लालच करना जो लोग धनी हैं, लेकिन घर-परिवार की जरुरतों पर खर्च नहीं करते हैं, धन के लिए लालच करते हैं, उन्हें समाज में सम्मान प्राप्त नहीं हो पाता है। धन को जरूरतों पर भी खर्च न करने या कंजूस होने पर धन की लालसा और अधिक बढ़ती है। इससे व्यक्ति और अधिक पैसा कमाने के लिए गलत काम कर सकता है। लालच बुरी बला है। ये बात सभी जानते हैं। बड़ी-बड़ी मछलियां भी छोटे से मांस टुकड़े के लालच में फंसकर अपने प्राण गवां देती है। इसी प्रकार इंसान भी धन के लोभ में फंसकर कई परेशानियों का सामना करता है।

3. धन अभाव होने पर अधिक दान करना जो लोग अपनी आय से अधिक खर्च करते हैं, अत्यधिक दान करते हैं, वे कई प्रकार की परेशानियों का सामना करते हैं। आय से अधिक दान करते हैं, आमदनी कम होने या धन अभाव होने पर भी शौक पूरे करना, मौज-मस्ती करना, फिजूलखर्च करना पूरे परिवार को संकट में फंसा सकता है। इस काम से अपमान ही मिलता है। दान करना चाहिए, लेकिन इस बात का ध्यान रखें कि बहुत अधिक मात्रा में या अपनी आय से अधिक दान न करें। पुराने समय में राजा हरिशचंद्र का प्रसंग इस बात का उदाहरण है। राजा हरिशचंद्र ने अपनी संपत्ति विश्वामित्र को दान कर दी थी। इस कारण राजा की पत्नी और पुत्र को भी भयंकर परेशानियों का सामना करना पड़ा था।

4. दुष्ट लोगों के साथ रहना अच्छी या बुरी संगति का असर हमारे जीवन पर होता है। यदि हमारी संगत गलत लोगों के साथ है तो कुछ समय तो सुख की अनुभूति होगी, लेकिन परिणाम बहुत बुरा हो सकता है। बुरी संगत से बचना चाहिए। इस बात के कई उदाहरण है, जहां दुष्टों की संगत में लोग बर्बाद हुए हैं। दुर्योधन के साथ कर्ण, रावण के साथ कुंभकर्ण और मेघनाद श्रेष्ठ उदाहरण है। हमें दुष्ट लोगों का साथ छोड़ देना चाहिए।

5. दूसरों का अहित करना जो लोग स्वयं के स्वार्थ को पूरा करने के लिए दूसरों का अहित करते हैं, वे लोग इस काम के भयंकर फल प्राप्त करते हैं। इस काम से व्यक्ति के साथ ही परिवार को भी नुकसान, अपमान का सामना करना पड़ सकता है। राजा कंस ने श्रीकृष्ण को मारने के लिए कई प्रयास किए, लेकिन अंत में वह स्वयं ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। शास्त्रों में बताया गया है कि जो व्यक्ति जैसा करेगा, उसे वैसा ही फल प्राप्त होगा। हम अच्छे काम करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा और बुरे काम करेंगे तो बुरा।