Monday, 21 November 2016

पंचामृत और पञ्चगव्य और पंजीरी (कसार) बनाने की शास्त्रीय बिधि क्या है

पंचामृत का महत्व पंचामृत क्या हैंपंचामृत का
मतलब हैं पांच तरह के अमृत का मिश्रण

पंचामृत को घी + दुध + दही + शहद + शक्कर मिला कर बनता हैं।

तो कहीं पंचामृत को घी + दुध + दही + शहद + गुड मिला कर बनाते हैं।

आध्यात्मिक द्रश्टि कोण से देखे तो जो व्यक्ति पंचामृत से देवमूर्ति (प्रतिमा) का अभिषेक करता हैं, उसे मुक्ति प्रदान हो जाती हैं।

भारतीय सभ्यता में पंचामृत का जो महत्व बताय गया हैं वह हैं, श्रद्धापूर्वक पंचामृत का पान करने वाले व्यक्ति को जीवन में सभी प्रकार की सुख समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती हैं, एवं उसका शरीर मृत्यु के पश्च्यात जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता हैं।

आवश्यक सामग्री - की मात्रा 

स्कन्द पुराण द्वारा प्र माणित्  निर्णय सिंधु

  पेज नंबर  ६९६पर 

दूध से दस गुणा  दही ,

दही से सौ गुणा  घृत ,

 घृत से दस गुणां मधु ,

 मधु से दस गुणा ईख का रस (या  शकर )


पंजीरी  या कसार बनाने की विधि

चरणामृ्त के साथ पंजीरी भी प्रसाद में बनायी जाती है. तो आइये वह पंजीरी भी बनाना शुरू करते हैं.

आवश्यक सामग्री -

गेहूं का आटा - 150 ग्राम (1 कप)

घी - 50 ग्राम (1/4 कप)

बूरा (पिसी चीनी) -

100 ग्राम(आधा कप) मखाने -

10 - 12 इलाइची - 2 (छील कर कूट लीजिये)

विधि - How to make Panjeeri

आटे को किसी बर्तन में छान कर निकालिये. भारे तले की कढाई गैस फ्लेम पर रखिये और कढाई में घी डालकर गरम कीजिये, गरम घी में आटा डालिये और मीडियम गैस फ्लेम पर करछी से चला चला कर भूनिये, जब आटे में महक आने लगे और कलर ब्राउन हो जाय तब गैस फ्लेम बन्द कर दीजिये. भुने आटे को ठंडा होने दीजिये. एक मखाने को 4-5 टुकड़े करते हुये काट लीजिये, छोटी कढ़ाई में 2 छोटी चम्मच घी डाल कर गरम कीजिये, कतरे हुये मखाने गरम घी में डालिये और ब्राउन होने तक चमचे से चलाते हुये भून लीजिये. इलाइची को छील कर पाउडर बना लीजिये. भुने हुये मखाने, बूरा, इलाइची पाउडर को आटे में मिलाइये, आह ये स्वादिष्ट पंजीरी तैयार है

पञ्चगव्य

.
तीन भाग देसी गांय का शकृत (गोबर) ,

तीन ही भाग देसी गांय का कच्चा दूध,

दो भाग देसी गांय के दूध की दधि,

एक भाग देसी गांय का घृत इन्हें मिश्रित कर लें

विष्णु धर्म में कहा गया है जितना पंचगव्य बनाना हो उसका आधा अंश गौमूत्र का होना चाहिए |

अर्थात उक्त मिश्रण जितनी मात्र में हो उतने ही मात्र में गौमूत्र होना चाहिए, शेष कुशाजल होना चाहिए ।

गोमूत्रं गोमय क्षीरं दधि सर्पि कुशोदकम् । पंचचगव्य मिदम् प्रोक्तम्महापातक नाशनम् ॥

पंडित
bhubneshwar
Parnkuti ksturwanagar 
Gunaa m.p
Mo. ९८९३९४६८१०

Friday, 18 November 2016

हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं

हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं जो गर्भाधान से शुरू होकर अंत्येष्टी पर खत्म होते हैं।

व्यक्ति पर प्रभाव संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावित होता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चरण आदि होता है उसका वैज्ञानिक महत्व साबित किया जा चुका है।

कुछ जगह ४८ (48) संस्कार भी बताए गए हैं।

महर्षि अंगिरा ने २५ (25) संस्कारों का उल्लेख किया है।

वर्तमान में महर्षि वेद व्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार १६ (16) संस्कार प्रचलित हैं।

विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है,

लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में

१】गर्भाधान,

२】पुंसवन,

२】सीमन्तोन्नयन,

३】जातकर्म,

४】नामकरण,

५】निष्क्रमण,

६】अन्नप्राशन,

७】चूडाकर्म,

८】कर्णवेध,

९】विद्यारंभ,

१०】यज्ञोपवीत,

११】वेदारम्भ,

१२】केशान्त,

१३】समावर्तन,

१४】विवाह तथा

१५】अन्त्येष्टि ही मान्य है।

मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, असामाजिकता या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं। आज के समय में काफी अधिक ऐसे लोग हैं जो इन संस्कारों के विषय में जानते नहीं हैं। तो आइए जानते हैं कि जीवन में इन सोलह संस्कारों को अनिवार्य बनाए जाने का क्या कारण था?

1. गर्भाधान संस्का

Garbhdharan Sanskar : –यह ऐसा संस्कार है जिससे योग्य, गुणवान और आदर्श संतान प्राप्त होती है। शास्त्रों में मनचाही संतान के लिए गर्भधारण किस प्रकार करें? इसका विवरण दिया गया है। हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम क‌र्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गृहस्थ जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था। शास्त्रों के अनुसार गर्भाधान संस्कार को अति महत्वपूर्ण माना गया है, क्योकि न केवल अपने कुल अपितु यह पूरे समाज व राष्ट्र के लिए भविष्य का निर्माण करने में सहायक है दम्पत्ति को अपना दायित्व बहुत साबधानी पूर्ण करना चाहिये . इस संस्कार में माता-पिता का तन व मन पूर्ण रूप से स्वस्थ व शुद्ध होना, शुभ समय,उचित स्थान, स्वस्थ आहार-विहार आवश्यक है। यहाँ पर क्लिक करके जाने! फैमिली प्लानिंग कैसे करे ?

2. पुंसवन संस्कार –

Punsvan Sanskar : गर्भ ठहर जाने पर भावी माता के आहार, आचार, व्यवहार, चिंतन, भाव सभी को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास किया जाय ।हिन्दू धर्म में, संस्कार परम्परा के अंतर्गत भावी माता-पिता को यह तथ्य समझाए जाते हैं कि शारीरिक, मानसिक दृष्टि से परिपक्व हो जाने के बाद, समाज को श्रेष्ठ, तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ ही संतान पैदा करने की पहल करें । उसके लिए अनुकूल वातवरण भी निर्मित किया जाता है। गर्भ के तीसरे माह में विधिवत पुंसवन संस्कार सम्पन्न कराया जाता है, क्योंकि इस समय तक गर्भस्थ शिशु के विचार तंत्र का विकास प्रारंभ हो जाता है ।

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार –

Simantonnyan Sanskar : सीमन्तोन्नयन संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में तृतीय संस्कार है | यह संस्कार पुंसवन का ही विस्तार है | इसका शाब्दिक अर्थ है- "सीमन्त" अर्थात् 'केश और उन्नयन' अर्थात् 'ऊपर उठाना' | संस्कार विधि के समय पति अपनी पत्नी के केशों को संवारते हुए ऊपर की ओर उठाता था, इसलिए इस संस्कार का नाम 'सीमंतोन्नयन' पड़ गया | यह संस्कार गर्भ के छठे या आठवें महीने में किया जाता है | इस संस्कार का फल भी गर्भ की शुद्धि ही है | इस समय गर्भ में पल रहा बच्चा सीखने के काबिल हो जाता है | उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए माँ उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है | महाभक्त प्रह्लाद को देवर्षि नारद का उपदेश तथा अभिमन्यु को चक्रव्यूह प्रवेश का उपदेश इसी समय में मिला था | अतः माता-पिता को चाहिए कि वे इन दिनों विशेष सावधानी के साथ योग्य आचरण करें | सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं | सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना | गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है | इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं | सनातन धर्म में स्त्रियों को शिक्षित होना अनिवार्य है इसी समय गर्भिणी को वेद एवं शास्त्रों का अध्ययन कराया जाता है | जब गर्भिणी शिक्षित, मानसिक बल एवं सकारात्मक विचारों से युक्त होगी तभी शिशु भी शक्तिशाली व् विद्वान होगा क्योंकि शिशु का लगभग 90 % बौद्धिक विकास गर्भ में हो जाता है | इसमें कोई संदेह नहीं की गर्भस्थशिशु बहुत ही संवेदनशील होता है | सती मदालसा के बारे में कहा जाता है की वह अपने बच्चे के गुण, कर्म और स्वभाव की पूर्व घोषणा कर देती थी, फिर उसी प्रकार निरंतर चिंतन, क्रिया-कलाप, रहन-सहन, आहार-विहार और बर्ताव अपनाती थी, जिससे बच्चा उसी मनोभूमि ढल जाता है, जैसा कि वह चाहती थी | उदाहरण :- (क) भक्त प्रह्लाद की माता कयाधू को देवर्षि नारद भगवदभक्ति के उपदेश दिया करते थे, जो प्रहलाद ने गर्भ में ही सुने थे | (ख) व्यासपुत्र शुकदेव ने अपनी माँ के गर्भ में सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया था | (ग) अर्जुन ने अपनी गर्भवती पत्नी सुभद्रा को चक्रव्यूहभेदन की जो शिक्षा दी थी, वह सब गर्भस्थशिशु अभिमन्यु सीख ली थी | उसी शिक्षा के आधार पर सोलह वर्ष की आयु में ही अभिमन्यु ने अकेले सात महारथियों से युद्ध कर चक्रव्यूह-भेदन किया | अलग अलग जगह इसे अलग अलग नाम से जाना जाता है जैसे छत्तीसगढ़ में इसे " सधौरी खवाना " कहते है।

4. जातकर्म –

Jatkarm Sanskar : जन्म के बाद नवजात शिशु के नालच्छेदन (यानि नाल काटने) से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधाoh, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत गुरु मंत्र के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है। ( यह स्तनपान विज्ञान के अनुसार जन्म होने के आधे घंटे अन्तर्गत कराये जाने वाला स्तनपान है, जिसको हिन्दू धर्म में हजारो वर्ष पहले से बताया जा चूका है। )

5. नामकरण संस्कार –

Namkaran Sanskar : कई जगह इसे "छठ्ठी" के नाम से जाना जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य को जिस तरह के नाम से पुकारा जाता है, उसे उसी प्रकार की छोटी सी अनुभूति होती रहती है | यदि किसी को कूड़ेमल, घूरेमल, नकछिद्दा, नत्थो, घसीटा आदि नामों से पुकारा जायेगा, तो उसमें हीनता के भाव ही जाएगी | नाम सार्थक बनाने की कई हलकी, अभिलाषाएँ मन में जगती रहती है | पुकारने वाले भी किसी के नाम के अनुरूप उसके व्यक्तित्व की हल्की या भारी कल्पना करते हैं | इसलिए नाम का अपना महत्त्व है | उसे सुन्दर ही चुना और रखा जाए | बालक का नाम रखते समय निम्न बातों का ध्यान रखें | गुणवाचक नाम रखे जाएँ, पुत्र एवं पुत्री के नामों की एक बड़ी सूची बनाई जा सकती है | उसी में से छाँटकर लड़के और लड़कियों के उत्साहवर्धक, सौम्य एवं प्रेरणाप्रद नाम रखने चाहिए | समय-समय पर बालकों को यह बोध भी कराते रहना चाहिए कि उनका यह नाम है, इसलिए गुण भी अपने में वैसे ही पैदा करने चाहिए | नक्षत्र या राशियों के अनुसार नाम रखने से लाभ यह है कि इससे जन्मकुंडली बनाने में आसानी रहती है | नाम भी बहुत सुन्दर और अर्थपूर्ण रखना चाहिये | अशुभ तथा भद्दा नाम कदापि नहीं रखना चाहिये | शिशु कन्या है या पुत्र, इसके भेदभाव को स्थान नहीं देना चाहिए । भारतीय संस्कृति में कहीं भी इस प्रकार का भेद नहीं है । शीलवती कन्या को दस पुत्रों के बराबर कहा गया है । ‘दश पुत्र-समा कन्या यस्य शीलवती सुता ।’ इसके विपरीत पुत्र भी कुल धर्म को नष्ट करने वाला हो सकता है । ‘जिमि कपूत के ऊपजे कुल सद्धर्म नसाहिं ।’ आमतौर से यह संस्कार जन्म के दसवें दिन किया जाता है । उस दिन जन्म सूतिका का निवारण-शुद्धिकरण भी किया जाता है । यह प्रसूति कार्य घर में ही हुआ हो, तो उस कक्ष को लीप-पोतकर, धोकर स्वच्छ करना चाहिए । शिशु तथा माता को भी स्नान कराके नये स्वच्छ वस्त्र पहनाये जाते हैं । यदि दसवें दिन किसी कारण नामकरण संस्कार न किया जा सके । तो अन्य किसी दिन, बाद में भी उसे सम्पन्न करा लेना चाहिए । घर पर, प्रज्ञा संस्थानों अथवा यज्ञ स्थलों पर भी यह संस्कार कराया जाना उचित है । कई कर्मकांडी का मानना है कि जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं। नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है।

6. निष्क्रमण् –

Nishkraman Sanskar : निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।

7. अन्नप्राशन संस्कार –

Annaprashan Sanskar : सनातन धर्म संस्कारों में अन्नप्राशन संस्कार सप्तम संस्कार है | इस संस्कार में बालक को अन्न ग्रहण कराया जाता है | अब तक तो शिशु माता का दुग्धपान करके ही वृद्धि को प्राप्त होता था, अब आगे स्वयं अन्न ग्रहण करके ही शरीर को पुष्ट करना होगा, क्योंकि प्राकृतिक नियम सबके लिये यही है | अब बालक को परावलम्बी न रहकर धीरे-धीरे स्वावलम्बी बनना पड़ेगा | केवल यही नहीं, आगे चलकर अपना तथा अपने परिवार के सदस्यों के भी भरण-पोषण का दायित्व संम्भालना होगा | यही इस संस्कार का तात्पर्य है | हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है | गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं | अन्न से ही मन बनता है | इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्तव है | बच्चों को सफेद चीनी व् तामसिक भोजन नहीं खिलानी चहिए क्योंकि यह स्वास्थ के लिए हानि कारक है | यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात 6 –7 महीने की उम्र में किया जाता है अलग अलग जगह इसे अलग अलग नाम से जाना जाता है , जैसे छत्तीसगढ़ में इसे " मुँह जुठारना " कहते है।

8 मुंडन/चूड़ाकर्म संस्कार –

Mundan/ Chudakarm Sanskar : चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है। यह समारोह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि मस्तिष्कीय विकास एवं सुरक्षा पर इस सयम विशेष विचार किया जाता है और वह कार्यक्रम शिशु पोषण में सम्मिलित किया जाता है, जिससे उसका मानसिक विकास व्यवस्थित रूप से आरम्भ हो जाए

9. कर्णवेध संस्कार –

Karnvedh Sanskar : इसका अर्थ है – कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। इसके दो कारण हैं, एक – आभूषण पहनने के लिए। दूसरा कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि ( बीमारी ) से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां ( बीमारी ) दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है। यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।

10.विद्यारंभ संस्कार –

Vidyarambh Sanskar : विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।

11.यज्ञोपवीत/उपनयन संस्कार –

Yagyopavit/ Upnayan Sanskar : यज्ञोपवीत (संस्कृत संधि विच्छेद= यज्ञ+उपवीत) उप यानी पास और नयन यानी ले जाना, गुरू के पास ले जाने का अर्थ है – उपनयन संस्कार। उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है । मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियां लगायी जाती हैं । ब्राम्हणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्मग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।

12. वेदारम्भ संस्कार –

Vedarambh Sanskar : इसके अंतर्गत व्यक्ति को वेदों का ज्ञान दिया जाता है। ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।

13.केशान्त संस्कार –

Keshant Sanskar : केशांत संस्कार का अर्थ है – केश यानी बालों का अंत करना, गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।

14.समावर्तन संस्कार –

Samavartan Sanskar : समावर्तन संस्कार का अर्थ है – फिर से लौटना। आश्रम में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रहमचारी को फिर सांसारिक जीवन में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रहमचारी मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षों के लिए तैयार है। गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।

15.विवाह संस्कार –

Vivah Sanskar : प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था। यह भी पढ़े :- 7 फेरो के सातो वचन और महत्व हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। सद्गृहस्थ ही समाज को अनुकूल व्यवस्था एवं विकास में सहायक होने के साथ श्रेष्ठ नई पीढ़ी बनाने का भी कार्य करते हैं । वहीं अपने संसाधनों से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमों के साधकों को वाञ्छित सहयोग देते रहते हैं । ऐसे सद्गृहस्थ बनाने के लिए विवाह को रूढ़ियों-कुरीतियों से मुक्त कराकर श्रेष्ठ संस्कार के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करना आवश्क है । युग निर्माण के अन्तर्गत विवाह संस्कार के पारिवारिक एवं सामूहिक प्रयोग सफल और उपयोगी सिद्ध हुए हैं ।

16. अन्त्येष्टि संस्कार/श्राद्ध संस्कार –

Antyeshti/ Shraddha Sanskar : हिंदूओं में किसी की मृत्यु हो जाने पर उसके मृत शरीर को वेदोक्त रीति से चिता में जलाने की प्रक्रिया को अन्त्येष्टि क्रिया अथवा अन्त्येष्टि संस्कार कहा जाता है। यह हिंदू मान्यता के अनुसार सोलह संस्कारों में से एक संस्कार है।

हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार

हिंदू संस्कृति में प्रमुख रूप से 16 संस्कार माने गए हैं जो गर्भाधान से शुरू होकर अंत्येष्टी पर खत्म होते हैं।
व्यक्ति पर प्रभाव संस्कारों से हमारा जीवन बहुत प्रभावित होता है। संस्कार के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों में जो पूजा, यज्ञ, मंत्रोच्चरण आदि होता है उसका वैज्ञानिक महत्व साबित किया जा चुका है।
कुछ जगह ४८ संस्कार भी बताए गए हैं। महर्षि अंगिरा ने २५ संस्कारों का उल्लेख किया है।

वर्तमान में महर्षि वेद व्यास स्मृति शास्त्र के अनुसार १६ संस्कार प्रचलित हैं।

ये है भारतीय संस्कृति के 16 संस्कार

गर्भाधान संस्कार,
पुंसवन संस्कार,
सीमन्तोन्नयन संस्कार,
जातकर्म संस्कार,
नामकरण संस्कार,
निष्क्रमण संस्कार,
अन्नप्राशन संस्कार,
मुंडन संस्कार,
कर्णवेध संस्कार
, उपनयन संस्कार,
विद्यारंभ संस्कार,
केशांत संस्कार,
समावर्तन संस्कार,
विवाह संस्कार,
विवाहाग्नि संस्कार,
अंत्येष्टि संस्कार।

आइये अपने 16 संस्कारों के बारे में जानें ...
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1.गर्भाधान संस्कार -

ये सबसे पहला संस्कार है l बच्चे के जन्म से पहले माता -पिता अपने परिवार के साथ गुरुजनों के साथ यज्ञ करते हैं और इश्वर को प्रार्थना करते हैं की उनके घर अच्छे बचे का जन्म हो, पवित्र आत्मा, पुण्यात्मा आये l जीवन की शुरूआत गर्भ से होती है। क्योंकि यहां एक जिन्दग़ी जन्म लेती है। हम सभी चाहते हैं कि हमारे बच्चे, हमारी आने वाली पीढ़ी अच्छी हो उनमें अच्छे गुण हो और उनका जीवन खुशहाल रहे इसके लिए हम अपनी तरफ से पूरी पूरी कोशिश करते हैं। ज्योतिषशास्त्री कहते हैं कि अगर अंकुर शुभ मुहुर्त में हो तो उसका परिणाम भी उत्तम होता है। माता पिता को ध्यान देना चाहिए कि गर्भ धारण शुभ मुहुर्त में हो। ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि गर्भधारण के लिए उत्तम तिथि होती है मासिक के पश्चात चतुर्थ व सोलहवीं तिथि (Fourth and Sixteenth Day is very Auspicious for Garbh Dharan)। इसके अलावा षष्टी, अष्टमी, नवमी, दशमी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमवस्या की रात्रि गर्भधारण के लिए अनुकूल मानी जाती है। गर्भधारण के लिए उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, मृगशिरा, अनुराधा, हस्त, स्वाती, श्रवण, घनिष्ठा और शतभिषा नक्षत्र बहुत ही शुभ और उत्तम माने गये हैं l ज्योतिषशास्त्र में गर्भ धारण के लिए तिथियों पर भी विचार करने हेतु कहा गया है। इस संस्कार हेतु प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, द्वादशी, त्रयोदशी तिथि को बहुत ही अच्छा और शुभ कहा गया है l गर्भ धारण के लिए वार की बात करें तो सबसे अच्छा वार है बुध, बृहस्पतिवार और शुक्रवार। इन वारों के अलावा गर्भधारण हेतु सोमवार का भी चयन किया जा सकता है, सोमवार को इस कार्य हेतु मध्यम माना गया है। ज्योतिष सिद्धान्त के अनुसार गर्भ धारण के समय लग्न शुभ होकर बलवान होना चाहिए तथा केन्द्र (1, 4 ,7, 10) एवं त्रिकोण (5,9) में शुभ ग्रह व 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रह हो तो उत्तम रहता है। जब लग्न को सूर्य, मंगल और बृहस्पति देखता है और चन्द्रमा विषम नवमांश में होता है तो इसे श्रेष्ठ स्थिति माना जाता है। ज्योतिषशास्त्र कहता है कि गर्भधारण उन स्थितियों में नहीं करना चाहिए जबकि जन्म के समय चन्द्रमा जिस भाव में था उस भाव से चतुर्थ, अष्टम भाव में चन्द्रमा स्थित हो। इसके अलावा तृतीय, पंचम या सप्तम तारा दोष बन रहा हो और भद्रा दोष लग रहा हो। ज्योतिषशास्त्र के इन सिद्धान्तों का पालन किया जाता तो कुल की मर्यादा और गौरव को बढ़ाने वाली संतान घर में जन्

2. पुंसवन संस्कार

- पुंसवन संस्कार के दो प्रमुख लाभ- पुत्र प्राप्ति और स्वस्थ, सुंदर गुणवान संतान है। पुंसवन संस्कार गर्भस्थ बालक के लिए किया जाता है, इस संस्कार में गर्भ की स्थिरता के लिए यज्ञ किया जाता है l

3. सीमन्तोन्नयन संस्कार-

यह संस्कार गर्भ के चौथे, छठवें और आठवें महीने में किया जाता है। इस समय गर्भ में पल रहा बच्च सीखने के काबिल हो जाता है। उसमें अच्छे गुण, स्वभाव और कर्म आएं, इसके लिए मां उसी प्रकार आचार-विचार, रहन-सहन और व्यवहार करती है। भक्त प्रह्लाद और अभिमन्यु इसके उदाहरण हैं। इस संस्कार के अंतर्गत यज्ञ में खिचडी की आहुति भी दी जाती है l

4. जातकर्म संस्कार-

बालक का जन्म होते ही इस संस्कार को करने से गर्भस्त्रावजन्य दोष दूर होते हैं। नालछेदन के पूर्व अनामिका अंगूली (तीसरे नंबर की) से शहद, घी और स्वर्ण चटाया जाता है। जब नवजात शिशु जन्म लेता है तब 1% घी, 4% शहद से शिशु की जीभ पर ॐ लिखते हैं ..

5. नामकरण संस्कार-

जन्म के बाद 11वें या सौवें या 101 वें दिन नामकरण संस्कार किया जाता है। सपरिवार और गुरुजनों के साथ मिल कर यज्ञ किया जाता है तथा ब्राह्मण द्वारा ज्योतिष आधार पर बच्चे का नाम तय किया जाता है। बच्चे को शहद चटाकर सूर्य के दर्शन कराए जाते हैं। उसके नए नाम से सभी लोग उसके स्वास्थ्य व सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। वेद मन्त्रों में जो भगवान् के नाम दिए गए हैं, जैसे नारायण, ब्रह्मा, शिव - शंकर, इंद्र, राम - कृष्ण, लक्ष्मी, देव - देवी आदि ऐसे समस्त पवित्र नाम रखे जाते हैं जिससे बच्चे में इन नामों के गुण आयें तथा बड़े होकर उनको लगे की मुझे मेरे नाम जैसा बनना है l

6. निष्क्रमण संस्कार-

जन्म के चौथे महीने में यह संस्कार किया जाता है। हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश जिन्हें पंचभूत कहा जाता है, से बना है। इसलिए पिता इन देवताओं से बच्चे के कल्याण की प्रार्थना करते हैं। निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकालना ... बच्चे को पहली बार घर से बाहर खुली और शुद्ध हवा में लाया जाता है

7. अन्नप्राशन संस्कार-

गर्भ में रहते हुए बच्चे के पेट में गंदगी चली जाती है, उसके अन्नप्राशन संस्कार बच्चे को शुद्ध भोजन कराने का प्रसंग होता है। बच्चे को सोने-चांदी के चम्मच से खीर चटाई जाती है। यह संस्कार बच्चे के दांत निकलने के समय अर्थात ६-७ महीने की उम्र में किया जाता है। इस संस्कार के बाद बच्चे को अन्न खिलाने की शुरुआत हो जाती है, इससे पहले बच्चा अन्न को पचाने की अवस्था में नहीं रहता l

8. चूडाकर्म या मुंडन संस्कार

- बच्चे की उम्र के पहले वर्ष के अंत में या तीसरे, पांचवें या सातवें वर्ष के पूर्ण होने पर बच्चे के बाल उतारे जाते हैं और यज्ञ किया जाता है जिसे वपन क्रिया संस्कार, मुंडन संस्कार या चूड़ाकर्म संस्कार कहा जाता है। इससे बच्चे का सिर मजबूत होता है तथा बुद्धि तेज होती है।

9. कर्णभेद या कर्णवेध संस्कार-

कर्णवेध संस्कार इसका अर्थ है- कान छेदना। परंपरा में कान और नाक छेदे जाते थे। यह संस्कार जन्म के छह माह बाद से लेकर पांच वर्ष की आयु के बीच किया जाता था। यह परंपरा आज भी कायम है। इसके दो कारण हैं, एक- आभूषण पहनने के लिए। दूसरा- कान छेदने से एक्यूपंक्चर होता है। इससे मस्तिष्क तक जाने वाली नसों में रक्त का प्रवाह ठीक होता है। वर्तमान समय में वैज्ञानिकों ने भी कर्णभेद संस्कार का पूर्णतया समर्थन किया है और यह प्रमाणित भी किया है की इस संस्कार से कान की बिमारियों से भी बचाव होता है l सभी संस्कारों की भाँती कर्णभेद संस्कार को भी वेद मन्त्रों के अनुसार जाप करते हुए यज्ञ किया जाता है l

10. उपनयन संस्कार -

उप यानी पास और नयन यानी ले जाना। गुरु के पास ले जाने का अर्थ है उपनयन संस्कार। उपनयन संस्कार बच्चे के 6 - 8 वर्ष की आयु में किया जाता है, इसमें यज्ञ करके बच्चे को एक पवित्र धागा पहनाया जाता है, इसे यज्ञोपवीत या जनेऊ भी कहते हैं l बालक को जनेऊ पहनाकर गुरु के पास शिक्षा अध्ययन के लिए ले जाया जाता था। आज भी यह परंपरा है। जनेऊ में तीन सूत्र होते हैं। ये तीन देवता- ब्रह्मा, विष्णु, महेश के प्रतीक हैं। फिर हर सूत्र के तीन-तीन सूत्र होते हैं। ये सब भी देवताओं के प्रतीक हैं। आशय यह कि शिक्षा प्रारंभ करने के पहले देवताओं को मनाया जाए। जब देवता साथ होंगे तो अच्छी शिक्षा आएगी ही। अब बच्चा द्विज कहलाता है, द्विज का अर्थ होता है जिसका दूसरा जन्म हुआ हो, अब बच्चे को पढाई करने के लिए गुरुकुल भेजा जाता है l पहला जन्म तो हमारे माता पिता ने दिया लेकिन दूसरा जन्म हमारे आचार्य, ऋषि, गुरुजन देते हैं, उनके ज्ञान को पाकर हम एक नए मनुष्य बनते हैं इसलिए इसे द्विज या दूसरा जन्म लेना कहते हैं l यज्ञोपवीत पहनना गुरुकुल जाने, ज्ञानी होने, संस्कारी होने का प्रतीक है l कुछ लोगों को ग़लतफहमी है की यज्ञोपवीत का धागा केवल ब्राह्मण लोग ही धारण अक्र्ते हैं, वास्तब में आज कल केवल ब्राह्मण ही रह गए हैं जो सनातन परम्पराओं को पूर्णतया निभा रहे हैं, जबकि पुराने समय में सभी लोग गुरुकुल में प्रवेश के समय ये यज्ञोपवीत पवित्र धागा पहनते थे..... यानी की जनेऊ धारण करते थे l

11. वेदाररंभ या विद्यारंभ संस्कार

जीवन को सकारात्मक बनाने के लिए शिक्षा जरूरी है। शिक्षा का शुरू होना ही विद्यारंभ संस्कार है। गुरु के आश्रम में भेजने के पहले अभिभावक अपने पुत्र को अनुशासन के साथ आश्रम में रहने की सीख देते हुए भेजते थे। ये संस्कार भी उपनयन संस्कार जैसा ही है, इस संस्कार के बाद बच्चों को वेदों की शिक्षा मिलना आरम्भ किया जाता है गुरुकुल में वर्तमान समय में हम जैसा अधिकाँश लोगों ने गुरुकुल में शिक्षा नहीं पायी है इसलिए हमे अपने ही धर्म के बारे में बहुत बड़ी ग़लतफ़हमियाँ हैं, और ना ही वर्तमान समय में हमारे माता-पिता को अपनी संस्कृति के बारे में पूर्ण ज्ञान है की वो हमको हमारे धर्म के बारे में बता सकें, इसलिए हमारे प्रश्न मन में ही रह जाते हैं l अधिकाँश अभिभावक तो बस कभी कभी मन्दिर जाने को ही "धर्म" कह देते हैं ये हमारा 11वां संस्कार है, अब जब गुरुकुल में बच्चे पढने जा रहे हैं और वो वहां पर वेदों को पढ़ना आरम्भ करेंगे तो बहुत ही आश्चर्य की बात है की हम वेदों को सनातन धर्म के धार्मिक ग्रन्थ मानते हैं और गुरुकुल में बच्चों को यदि धार्मिक ग्रन्थ की शिक्षा दी जाएगी तो वो इंजीनियर, डाक्टर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि कैसे बनेंगे ? वास्तव में हम लोगों को यह नहीं पता की जैसे अंग्रेजी डाक्टर होते हैं वैसे ही हमारे भारत वर्ष में भी वैद्य हैं l जैसे आजकल के डाक्टर रसायनों के अनुसार दवाइयां देते हैं खाने के लिए उसी प्रकार हमारे आचार्य और वैद्य शिरोमणी जड़ी बूटियों की औषधियां बनाते थे, जो की विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा पद्धति है..... आयुर्वेद हमारे वेदों का ही एक अंश है l ऐसे ही वेद के अनेक अंश हैं जैसे ... "शस्त्र-शास्त्र" ...जो भारत की युद्ध कलाओं पर आधारित हैं l गन्धर्व-वेद ... संगीत पर आधारित है l ये सब उपवेद कहलाते हैं l हम सबको थोड़े अपने सामान्य ज्ञान या व्यवहारिक ज्ञान के अनुसार भी सोचना चाहिए की भारत में पुरानी संस्कृति जो भी थीं.... क्या वो बिना किसी समाज, चिकित्सक, इंजिनियर, वैज्ञानिक, अध्यापक, सैनिक आदि के बिना रह सकती थी क्या ...? बिलुल भी नहीं .... वेदों में समाज के प्रत्येक भाग के लिए ज्ञान दिया गया है l केशांत संस्कार- केशांत संस्कार का अर्थ है केश यानी बालों का अंत करना, उन्हें समाप्त करना। विद्या अध्ययन से पूर्व भी केशांत किया जाता है। मान्यता है गर्भ से बाहर आने के बाद बालक के सिर पर माता-पिता के दिए बाल ही रहते हैं। इन्हें काटने से शुद्धि होती है। शिक्षा प्राप्ति के पहले शुद्धि जरूरी है, ताकि मस्तिष्क ठीक दिशा में काम करे।

12. समवर्तन संस्कार -

समवर्तन का अर्थ है फिर से लौटना। आश्रम
में शिक्षा प्राप्ति के बाद ब्रह्मचारी को फिर दीन-दुनिया में लाने के लिए यह संस्कार किया जाता था। इसका आशय है ब्रह्मचारी को मनोवैज्ञानिक रूप से जीवन के संघर्षो के लिए तैयार करना। जब बच्चा (लडका या लड़की ) गुरुकुल में अपनी शिक्षा पूरी कर लेते हैं, अर्थान उनको वेदों के अनुसार विज्ञान, संगीत, तकनीक, युद्धशैली, अनुसन्धान, चिकित्सा और औषधी, अस्त्रों शस्त्रों के निर्माण, अध्यात्म, धर्म, राजनीति, समाज आदि की उचित और सर्वोत्तम शिक्षा मिल जाती है उसके बाद यह संस्कार किया जाता है l समवर्तन संस्कार में ऋषि, आचार्य, गुरुजन आदि शिक्षा पूर्ण होने के पच्चात अपने शिष्यों से गुरु दक्षिणा भी मांगते हैं l वर्तमान समय में इस संस्कार का एक विदूषित रूप देखने को मिलता है जिसे Convocation Ceremony कहा जाता है

l13. विवाह संस्कार-

विवास का अर्थ है पुरुष द्वारा स्त्री को विशेष रूप से अपने घर ले जाना। सनातन धर्म में विवाह को समझौता नहीं संस्कार कहा गया है। यह धर्म का साधन है। दोनों साथ रहकर धर्म के पालन के संकल्प के साथ विवाह करते हैं। विवाह के द्वारा सृष्टि के विकास में योगदान दिया जाता है। इसी से व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है। ये संस्कार बहुत ही महत्वपूर्ण संस्कार है, ये भी यज्ञ करते हुए और वेदों पर आधारित मन्त्रों को पढ़ते हुए किया जाता है, वेद-मन्त्रों में पति और पत्नी के लिए कर्तव्य दिए गए हैं और इन को ध्यान में रखते हुए अग्नि के 7 फेरे लिए जाते हैं l जैसे हमारे माता पिता ने हमको जन्म दिया वैसे ही हमारा कर्तव्य है की हम कुल परम्परा को आगे बाधाएं, अपने बच्चों को सनातन संस्कार दें और धर्म की सेवा करें l विवाह संस्कार बहुत आवश्यक है ... हमारे समस्त ऋषियों की पत्नी हुआ करती थीं, ये महान स्त्रियाँ आध्यात्मिकता में ऋषियों के बराबर थीं l

14. वानप्रस्थ संस्कार

अब 50 वर्ष की आयु में मनुष्य को अपने परिवार की सभी जिम्मेदारियों से मुक्त होकर जंगल में चले जाना चाहिए और वहां पर वेदों की 6 दर्शन यानी की षट-दर्शन में से किसी 1 के द्वारा मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए, ये संस्कार भी यज्ञ करते हुए किया जाता है और संकल्प किया जाता है की अब मैं इश्वर के ज्ञान को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे l

15. सन्यास संस्कार-

वानप्रस्थ संस्कार में जब मनुष्य ज्ञान प्राप्त कर लेता है उसके बाद वो सन्यास लेता है, वास्तव में सन्यास पूरे समाज के लिए लिया जाता है , प्रत्येक सन्यासी का धर्म है की वो सारे संसार के लोगों को भगवान् के पुत्र पुत्री समझे और अपना बचा हुआ समय सबके कल्याण के लिए दे दे l सन्यासी को कभी 1 स्थान पर नही रहना चाहिए उसे घूम घूम कर साधना करते हुए लोगो के काम आना चाहिए, अब सारा विश्व ही सन्यासी का परिवार है, कोई पराया नही है l सन्यास संस्कार 75 की वर्ष की आयु में होता है पर अगर इस संसार से वैफाग्य हो जाए तो किसी भी आयु में सन्यास लिया जा सकता है l सन्यासी का धर्म है की वो धर्म के ज्ञान को लोगों को बांटे, ये उसकी सेवा है, सन्यास संस्कार करते समय भी यज्ञ किया जाता है वेद मन्त्र पढ़ते हुए और सृष्टि के कल्याण हेतु बाकी जीवन व्यतीत करने की प्रतिज्ञा की जाती है l

16. अंत्येष्टि संस्कार-

इसका अर्थ है अंतिम यज्ञ। आज भी शवयात्रा के आगे घर से अग्नि जलाकर ले जाई जाती है। इसी से चिता जलाई जाती है। आशय है विवाह के बाद व्यक्ति ने जो अग्नि घर में जलाई थी उसी से उसके अंतिम यज्ञ की अग्नि जलाई जाती है। मृत्यु के साथ ही व्यक्ति स्वयं इस अंतिम यज्ञ में होम हो जाता है। हमारे यहां अंत्येष्टि को इसलिए संस्कार कहा गया है कि इसके माध्यम से मृत शरीर नष्ट होता है। इससे पर्यावरण की रक्षा होती है। अन्त्येष्टी संस्कार के समय भी वेद मन्त्र पढ़े जाते हैं, पुराने समय में "नरमेध यज्ञ" जिसका वास्तविक अर्थ अन्त्येष्टी संस्कार था.. उसका गलत अर्थ निकाल कर बलि मान लिया गया था l

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल-

विभिन्न लग्नों में शनि की स्थिति के शुभाशुभ फल-

मेष:

इस लग्न में शनि कर्मेश तथा लाभेश होता है। इस लग्न वालों के लिए यह नैसर्गिक रूप से अशुभ है, लेकिन आर्थिक मामलों में लाभदायक होता है।

वृष:

इस लग्न में केंद्र शनि तथा त्रिकोण का स्वामी होता है। उसकी इस स्थिति के फलस्वरूप जातक को राजयोग एवं संपŸिा की प्राप्ति होती है।

मिथुन:

इस लग्न में यदि शनि अष्टमेश या नवमेश होता है। यह जातक को दीर्घायु बनाता है।

कर्क:

इस लग्न में शनि अति अकारक होता है।

सिंह:

इस लग्न में यह षष्ठ एवं सप्तम घर का स्वामी होता है। इस स्थिति में यह रोग एवं कर्ज देता है तथा धन का नाश करता है।

कन्या:

इस लग्न में शनि पंचम् तथ षष्ठ स्थान का स्वामी होकर सामान्य फल देता है। यदि इस लग्न में अष्टम स्थान में नीच राशि का हो तो व्यक्ति को करोड़पति बना देता है।

तुला:

इस लग्न के लिए शनि चतुर्थेश तथा पंचमेश होता है। यह अत्यंत योगकारक होता है।

वृश्चिकः

इस लग्न में शनि तृतीयेश एवं चतुर्थेश होकर अकारक होता है, किंतु बुरा फल नहीं देता।

धनु:

इस लग्न के लिए शनि निर्मल होने पर धनदायक होता है, लेकिन अशुभ फल भी देता है।

मकर:

इस लग्न के लिए शनि अति शुभ होता है।

कुंभ:

इस लग्न के लिए भी यह अति शुभ होता है।

मीनः

शनि मीन लग्न वालों को धन देता है, लेकिन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।

भाव के अनुसार शनि का फल-

प्रथम भाव में शनि तांत्रिक बनाता है, किंतु शारीरिक कष्ट देता है और पत्नी से मतभेद कराता है।

द्वितीय भाव में शनि संपŸिा देता है, लेकिन लाभ के स्रोत कम करता है तथा वैराग्य भी देता है।

तृतीय भाव में शनि पराक्रम एवं पुरुषार्थ देता है। शत्रु का भय कम होता है।

चतुर्थ भाव में शनि हृदय रोग का कारक होता है, हीन भावना से युक्त करता है और जीवन नीरस बनाता है

पंचम भाव में शनि रोगी संतान देता है तथा दिवालिया बनाता है।

षष्ठ भाव में शनि होने पर चोर, शत्रु या सरकार जातक का कोई नुकसान नहीं कर सकता है। उसे पशु-पक्षी से धन मिलता है।

सप्तम भाव में स्थित शनि जातक को अस्थिर स्वभाव का तथा व्यभिचारी बनाता है। उसकी स्त्री झगड़ालू होती है।

अष्टम भाव में स्थित शनि धन का नाश कराता है। इसकी इस स्थिति के कारण घाव, भूख या बुखार से जातक की मृत्यु होती है। दुर्घटना की आशंका रहती है।

नवम् भाव में शनि जातक को संन्यास की ओर प्रेरित करता है। उसे दूसरों को कष्ट देने में आनंद मिलता है। 36 वर्ष की उम्र में उसका भाग्योदय होता है।

दशम स्थान का शनि जातक को उन्नति के शिखर तक पहुंचाता है। साथ ही स्थायी संपŸिा भी देता है।

एकादश भाव में स्थित शनि के कारण जातक अवैध स्रोतों से धनोपार्जन करता है। उसकी पुत्र से अनबन रहती है।

द्वादश भाव में शनि अपनी दशा-अतंर्दशा में जातक को करोड़पति बनाकर दिवालिया बना देता है। लघु कल्याणी या ढैया जब शनि गोचर में जन्म राशि से चतुर्थ भाव में भ्रमण करता है तो इस अवधि को लघु कल्याणी ढैया कहा जाता है। दो वर्ष छः माह की इस अवधि में जातक को अधिक कष्ट नहीं होता है। थोड़ी मानसिक परेशानी होती है। किंतु यदि शनि तुला, धनु, मकर, कुंभ या मीन का हो तो भवन और वाहन देता है। ढैया के अन्य शुभाशुभ फल: जब शनि गोचर में जन्म राशि से अष्टम भाव में जाता है तो व्यक्ति वात रोग से ग्रस्त होता है। उसके पैरों में दर्द की संभावना होती है, लेकिन दशा एवं महादशा अच्छी हो तो दर्द का अनुभव नहीं होता है।
कन्या लग्न वाले को यह ढैया अपार संपŸिा देती है, क्योंकि द्वितीय भाव पर शनि की उच्च दृष्टि होती है।

शनि की साढ़े साती: दीर्घायु लोगों के जीवन में साढ़े साती तीन बार आती है।

प्रथमबार की साढे़ साती जातक के शरीर एवं मां-बाप को प्रभावित करती है।

द्वितीय साढ़े साती कार्य, रुचि, आर्थिक स्थिति एवं पत्नी पर प्रभाव डालती है।

तृतीय साढ़े साती जातक के स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव डालती है। किसी-किसी जातक की मृत्यु भी हो जाती है।

साढ़े साती का भी अनुकूल प्रभाव: शनि की साढ़े साती हमेशा अशुभ ही हो, यह जरूरी नहीं।

अपने विभिन्न चरणों में यह शुभ फल भी देती है। विभिन्न राशियांे में इसके शुभ प्रभाव का विश्लेषण यहां प्रस्तुत है।

मेष:

इस राशि के लोगों को अंतिम ढाई वर्षों के दौरान शुभ फल मिलता है।

वृष:

इस राशि वालों के लिए मध्य तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं। इस दौरान जातक की उन्नति होती है और उस संपŸिा की प्राप्ति होती है।

मिथुन:

इस राशि के लिए आरंभ के ढाई वर्ष अनुकूल होते हैं। इस दौरान जातक की तीर्थ यात्रा होती है एवं शुभ कार्य पर धन खर्च होता है।

कर्क:

आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

सिंह:

अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

कन्या:

अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हैं, आर्थिक कष्ट नहीं होता है।

तुला:

मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हंै।

वृश्चिक:

आरंभ के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

धनु:

मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हैं।

मकर:

आरंभ तथा अंत के ढाई वर्ष शुभ होते हंै।

कुंभ:

मध्य एवं अंत के ढाई वर्षों के दौरान सुख-शांति मिलती है।

मीन:

इस राशि के लिए मध्य के ढाई वर्ष शुभ होते हंै।
विशेष: इस तरह ढैया एवं साढ़े साती शुभ तथा अशुभ दोनों फल प्रदान करती हैं। लेकिन जब गोचर में शनि तृतीय, षष्ठ या एकादश भाव में प्रवेश करता है तो पूर्ण अनुकूल फल प्रदान करता है। शनि की कुछ अन्य स्थितियों के शुभाशुभ फल- तृतीय भाव का शनि स्वास्थ्य लाभ, आराम तथा शांति प्रदान करता है। साथ ही, शत्रु पर विजय दिलाता है। षष्ठ भाव का शनि सफलता, भूमि भवन, संपŸिा एवं राज्य लाभ कराता है। एकादश भाव का शनि पदोन्नति, लाभ तथा मान सम्मान में वृद्धि कराता है। साथ ही भूमि तथा मशीनरी का लाभ देता है। जिन जातकों के जन्म काल में शनि वक्री होता है वे भाग्यवादी होते हैं। उनके क्रिया-कलाप किसी अदृश्य भक्ति से प्रभावित होते हंै। वे एकांतवासी होकर प्रायः साधना में लगे रहते हैं। धनु, मकर, कुंभ और मीन राशि में शनि वक्री होकर लग्न में स्थित हो, तो जातक राजा या गांव का मुखिया होता है और राजतुल्य वैभव पाता है। द्वितीय स्थान का शनि वक्री हो तो जातक को प्रदेश तथा विदेश से धन की प्राप्ति होती है। तृतीय भाव का वक्री शनि जातक को गूढ़ विद्याओं का ज्ञाता बनाता है, लेकिन माता के लिए अच्छा नहीं होता है। चतुर्थ भावस्थ शनि मातृ हीन, भवन हीन बनाता है। ऐसा व्यक्ति घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी नहीं निभाता और अंत में संन्यासी बन जाता है। लेकिन, चतुर्थ में शनि तुला, मकर या कुंभ राशि का हो तो जातक को पूर्वजों की संपŸिा प्राप्त होती है। पंचम भाव का वक्री शनि प्रेम संबंध देता है। लेकिन जातक प्रेमी को धोखा देता है। वह पत्नी एवं बच्चे की भी परवाह नहीं करता है। षष्ठ भाव का वक्री शनि यदि निर्बल हो तो रोग, शत्रु एवं ऋण कारक होता है। सप्तम भाव का वक्री शनि पति या पत्नी वियोग देता है। यदि शनि मिथुन, कन्या, धनु या मीन का हो तो एक से अधिक विवाहों अथवा विवाहेतर संबंधों कारक होता है। अष्टम भाव में शनि हो तो जातक ज्योतिषी दैवज्ञ, दार्शनिक एवं वक्ता होता है। ऐसा व्यक्ति तांत्रिक, भूतविद्या, काला जादू आदि से धन कमाता है। नवमस्थ वक्री शनि जातक की पूर्वजों से प्राप्त धन में वृद्धि करता है। उसे धर्म परायण एवं आर्थिक संकट आने पर धैर्यवान बनाता है। दशमस्थ शनि वक्री हो तो जातक वकील, न्यायाधीश, बैरिस्टर, मुखिया, मंत्री या दंडाधिकारी होता है। एकादश भाव का शनि जातक को चापलूस बनाता है। व्यय भावस्थ वक्री शनि निर्दयी एवं आलसी बनाता है। शनि दोष निवारण के सरल उपाय शनिवार को सूर्योदय से पूर्व स्नानादि से निवृŸा होकर गुड़ मिश्रित जल पीपल के वृक्ष की जड़ में दें एवं शाम को तिल के तेल का दीप पीपल के नीचे जलाएं। अगर जातक को कष्ट बहुत हो, तो उसे शनिवार को भोजन में नमक नहीं लेना चाहिए और आचरण पवित्र रखना चाहिए घर में दशरथ कृत शनि स्तोत्र का पाठ श्रद्धापूर्वक करें। जब तक शनि की महादशा अंतर्दशा, साढ़े साती अथवा ढैया का प्रकोप हो, तब तक मांस, मछली, शराब आदि का सेवन न करें। कौए एवं काले कुŸो को प्रति दिन एक बार भोजन दें। स काले घोड़े की नाल की अंगूठी सप्ताह भर गोबर में रखकर पवित्र करें और फिर उसे बायें हाथ की मध्यमा में शनिवार को धारण करें। यथाशक्ति काले उड़द, काले तिल, कुलथी, लोहा, काले कपड़े, जूते और छाते दक्षिणा सहित दान करें। शनिवार को ब्रह्मचर्य का पालन करें।

Thursday, 17 November 2016

विबाह के लिए लगने वाली आबश्यक सामग्री लिस्ट लिंक ओपन करे

पिली पत्रिका भेजनेका सामान
१】दो पीली पत्रिका
२】पांच हल्दी की गाँठ
३】पांच गोलसुपारि
४】 पिले चावल
५】गोबर के गणेश जी
६】बतासे
७】  दूर्वा
८】कलश एक मिटटी का
९】दीपक
१०】रुई
११】माचिस
पूजा की थाली सामग्री सहित 
नाई(खबॉस )को किराया बतौर दक्षिणा
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बत्तीसी की सामग्री-

32 लड़डू,
32 रुपया
मेवा,
शकर,
चावल,
गुड़ की भेली,
लाल कपड़ा,
हार,
फुल,
बताशा,
नारियल
और जवारी का रुपया।

विधि-

इसमे भाई पटिये पर बैठता है और बहन उसकी गोद मे पूरा सामान रख़कर आरती उतारती है सभी भाई अपनी बहन को साड़ी और जीजाजी को जवारी देकर बिदा करते है।

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सभी प्रकार की जटिल समस्याओ के समाधान हेतु   शीघ्र सम्पर्क करे एबम  अपनी कुंडली दिखाकर  उचित मार्ग दर्शन प्राप्त करे । 

सम्पर्क सूत्र

पंडित जी श्री परमेस्वर दयाल जी शास्त्री 

तिलकचोक मधुसुदनगण

मोबाइल नंबर 09893397835

(पूजन समग्री कम  और  ज्यादा कर  सकते है )

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श्री गणेश पूजन  सहित अन्य पूजन के लिए
सभी पूजन में उपयोग के लिए यही सामग्री में से ले सकते है
०】आटा चोक पुरने के लिए
1】हल्दीः--------------------------50 ग्राम
२】कलावा(आंटी)-------------100 ग्राम
३】अगरबत्ती-------------------     3पैकिट
४】कपूर-------------------------  - 50 ग्राम
५】केसर-------------------------   -1डिव्वि
६】चंदन पेस्ट --------------------- 50 ग्राम
७】यज्ञोपवीत ---------------------   11नग्
८】चावल-------------------------- 05 किलो
९】अबीर-----------------------------50 ग्राम
१०】गुलाल, ----------------------10 0ग्राम
११】अभ्रक---------------------------10ग्राम
१२】सिंदूर ------------------------100 ग्राम
१३】रोली, -------------------------100ग्राम
१४】सुपारी, ( बड़ी)-----------  200 ग्राम
१५】नारियल ----------------------  11 नग्
१६】सरसो--------------------------50 ग्राम
१७】पंच मेवा---------------------100 ग्राम 
१८】शहद (मधु)------------------ 50 ग्राम
१९】शकर-------------------------0 1किलो
२०】घृत (शुद्ध घी)--------------  01किलो
२१】इलायची (छोटी)--------------10ग्राम
२२】लौंग मौली---------------------10ग्राम
२३】इत्र की शीशी--------------------1 नग्
२४】तिली--------------------------२००ग्राम
२५】जौ-----------------------------१००ग्राम
२६】माचिस -------------------------१पैकिट
२७】रुई-------------------------------२०ग्राम
२८】नवग्रह समिधा------------------१पैकेट
२९】धुप बत्ती ------------------------२पैकिट
३०】लाल कपड़ा --------------------२मीटर
३१】सफेद कपडा-------------------२मीटर
३२】समिधा हवन के लिए ---------५किलो
=============================

                     अन्य सामग्री

१】पान
२】 पुष्प
३】पुष्पहार
४】दूर्वा
५】विल्वपत्र
६】दोना गड्डी
७】बताशे या प्रशाद
८】फल
९】आम के पत्ते
१०】समिधा
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           माता पूजन सामग्री

१】झंडियां लाल
२】पूड़ी
३】ताव
४】खारक
५】बदाम
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               मंडप पूजन सामग्री

१】मानक खम्भ
२】पटली लकड़ी की
३】नींव में रखने का सामान
४】जैसे  लाख का टुकड़ा
५】सर के वाल
६】कोयला
=============================     तोरण लड़की वालो यहां लगेगा   बढई

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गंगाजली पूजन 

कही कही होती है ऊपर दी गयी पूजा  सामग्री में से लेबे 

१】खाजा
२】खारक
३】वादाम
४】लाल कपड़ा 3 मीटर
५】श्री फल (नारियल)
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          जनेऊ (यज्ञनोपवित) संस्कार

१】मूँज की जनेऊ
२】खड़ाऊ
३】डण्डा(दंड)
४】भिक्षा पात्र
५】गुरुपूजन की सामग्री
६】जैसे =बस्त्र नारियल जनेऊ गोलसुपारी आदि
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कन्या पक्ष द्वारा  द्वार पूजन सामग्री  (बारोटा)

१】बर के निमित्त बस्त्र
२】फल
३】नारियल
४】आभूषण आदि
५】जनेऊ
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गनाना 
पूजन सामग्री ऊपर दी गयी  उसी में से पूजन थाली तैयार होगी
लड़के वालो की तरफ से दुल्हन के निमित्त 
१】 बस्र
२】आभूषण
३】कुलदेवी प्रतिमा
४】मोहर दुल्हन के सर पर बाँधने का
५】पिछौड़ा 
६】सिंधोडा
७】सिंधोड़ि
८】कंकण
९】 बतासे
१०】नारियल या नारियल गोला
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फेरे के समय पूजन सामग्री ऊपर दी है उसके
अलावा

१】लाजा
२】सूप
३】मधुपर्क
४】हथलेवा
५】सिंदुर्दानी
६】डाभ
७】मधुपर्क 
८】गुड़
९】बतासे
१०】हल्दी पिसी पॉब पुजाई के लिए
११】समिधा हवन के लिए फेरे के समय
११】विछुड़ी

संपर्क
कस्तूरवानगर पर्णकुटी गुना
मो।९८९३९४६८१०

Monday, 14 November 2016

हिन्दू पर्बो पर तिथियों का निर्णय करने हेतु शास्त्रीय नियम क्या है

प्रश्नः हिंदू पर्वों के निर्णय हेतु कौन-कौन से शास्त्र प्रामाणिक हैं

निष्कर्ष यह है कि विद्यमान देश, काल और परिस्थिति में विषयान्तर्गत प्रामाणिकता की दृष्टि से सर्वधर्मशास्त्रों में ‘निर्णयसिंधु’ ही श्रेयस्कर है।

जन्माष्टमी पद्मपुराण-

उत्तराखंड श्रीकृष्णावतार की कथा में वर्णन मिलता है कि ‘‘दसवां महीना आने पर भादों मास की कृष्णा अष्टमी को आधी रात के समय श्री हरि का अवतार हुआ।’’

महाभारत खिलभाग हरिवंश-

विष्णु पर्व - 4/17 के अनुसार जब भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हुए, उस समय अभिजित नामक मुहूत्र्त था, रोहिणी नक्षत्र का योग होने से अष्टमी की वह रात जयंती कहलाती थी और विजय नामक विशिष्ट मुहूत्र्त व्यतीत हो रहा था।’’

श्रीमद्भागवत- 10/3/1 के अनुसार

भाद्रमास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि, रोहिणी नक्षत्र और अर्द्ध रात्रि के समय भगवान् विष्णु माता देवकी के गर्भ से प्रकट हुए।

गर्ग संहिता गोलोकखंड-11/22-24 के अनुसार

‘‘भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष, रोहिणी नक्षत्र, हर्षण-योग, अष्टमी तिथि, आधी रात के समय, चंद्रोदय काल, वृषभ लग्न में माता देवकी के गर्भ से साक्षात् श्री हरि प्रकट हुए।’’

ब्रह्मवैवर्त पुराण- श्रीकृष्ण जन्मखंड-7 के अनुसार

आधी रात के समय रोहिणी नक्षत्र और अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग संपन्न हो गया था।

जब अर्ध चंद्रमा का उदय हुआ तब भगवान श्रीकृष्ण दिव्य रूप धारण करके माता देवकी के हृदय कमल के कोश से प्रकट हो गए।

ब्रह्मवैवर्त पुराण- श्रीकृष्ण जन्मखंड-8 के अनुसार

सप्तमी तिथि के दिन व्रती पुरुष को हविष्यान्न भोजन करके संयम पूर्वक रहना चाहिए।
सप्तमी की रात्रि व्यतीत होने पर अरुणोदय की बेला में उठकर व्रती पुरुष प्रातः कालिक कृत्य पूर्ण करने के अनंतर स्नानपूर्वक संकल्प करें। उस संकल्प में यह उद्देश्य रखना चाहिये कि आज मैं श्री कृष्ण प्रीति के लिये व्रत एवं उपवास करूंगा। मन्वादि तिथि प्राप्त होने पर स्नान और पूजन करने से वही फल कोटिगुना अधिक होता है। उस तिथि को जो पितरों के लिये जल मात्र अर्पण करता है, वह मानो लगातार सौ वर्षों तक पितरों की तृप्ति के लिये गया श्राद्ध का संपादन कर लेता है, इसमें संशय नहीं है।
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अतएव स्पष्ट है कि सप्तमीयुक्त अष्टमी को त्याग देना चाहिए और अष्टमी युक्त नवमी को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रतोपवास करना चाहिये।

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निर्णय सिंधु में रचनाकार
श्री कमलाकर भट्टजी ने
वन्ही पुराण,
गरुड़ पुराण,
स्कंद पुराण,
भविष्य पुराण,
ब्रह्म पुराण,
ब्रह्मांड पुराण,
ब्रह्मवैवर्त पुराण,
पद्मपुराण,
विष्णु धर्म,
वशिष्ठ संहिता,
कल्पतरू,
हेमाद्रि,
व्यास,
माधव,
मदन-रत्न,
निर्णयामृत,
अनन्तभट्ट,
गौड़,मैथिल आदि ग्रंथों का परस्पर विरोधी मतों ने उल्लेख किया है। यहां भी और अन्यत्र भी साधारणतः इस व्रत के विषय में दो मत विद्यमान हैं।

स्मात्र्त लोग अर्द्ध रात्रि के समय रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी के दिन भी व्रतोपवास करते हैं।

लेकिन वैष्णवों को सप्तमी का किंचित मात्र भी स्पर्श मान्य नहीं।

उनके यहां सप्तमी का स्पर्श होने पर द्वितीय दिवस ही व्रतोत्सव हेतु मान्य है।

चाहे उस दिन अष्टमी क्षण मात्र के लिये ही क्यों न हो।

वल्लभाचार्य,
चैतन्यमहाप्रभु,
निम्बार्काचार्य और रामानंद सम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्व दिन अर्द्ध रात्रि से कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो, तो भी अष्टमी को उपवास न करके नवमी को ही उपवास करते हैं।

रामानुज संप्रदाय वाले नक्षत्र को ही प्रधानता देते हैं।
उनके यहां तिथि का कोई महत्व नहीं।

शिव रात्रि:

शिव पुराण-विद्येश्वरसंहिता खंड-10 में भगवान ब्रह्मा और भगवान विष्णु के प्रश्न के उत्तर में भगवान महेश्वर के आदेश विद्यमान हैं कि ‘‘मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथ व्यापिनी अथवा प्रदोष व्यापिनी (अर्द्धरात्रि व्यापिनी अथवा संध्याकाल व्यापिनी) लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है।’’

‘‘निशीथसंयुता या तु कृष्णपक्षे च चतुर्दशी। उपोष्या सा तिथिः सर्वेः शिवसायुज्यकारिका।।’’

-स्कन्दपुराण- माहेश्वरखंड-केदारखंड-33/92

‘‘कृष्ण पक्ष में चतुर्दशी अर्धरात्रि व्यापिनी हो, उसमें सबको उपवास करना चाहिये।
वह भगवान् शिव का सायुज्य प्रदान करने वाली है।’
’ स्कंद पुराण- नागर खंड-उत्तरार्द्ध-221 में पृष्ठांकित है

कि ‘‘माघ मास के कृष्ण पक्ष में जो चतुर्दशी तिथि आती है, उसकी रात्रि ही शिव रात्रि है।’’ यहां अमावास्यान्त मास की दृष्टि से माघ मास कहा गया है। जहां कृष्ण पक्ष में मास का आरंभ और पूर्णिमा पर उसकी समाप्ति होती है, उसके अनुसार फाल्गुन कृष्ण पक्ष चतुर्दशी में यह शिवरात्रि का व्रत होता है।

निर्णय सिंधु में उद्धृत नारद संहिता और ईशान संहिता का उदाहरण भी यही समझना चाहिए। लिंगपुराण में भगवान् शिव का स्पष्ट कथन है

कि फाल्गुन के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को सावधान होकर कृत्तिवासेश्वर लिंग में जो महादेव की पूजा करते हैं; उनको मैं सदैव मुक्त और रोगरहित परमस्थान देता हूं। निष्कर्ष यह है कि फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अर्द्धरात्रिव्यापिनी चतुर्दशी ही मान्य है।

उदाहरणार्थ

दीपावली: ‘‘

कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को यदि अमावस्या भी हो और उसमें स्वाती नक्षत्र का योग हो तो उसी दिन दीपावली होती है।’’

यह निर्णय स्कंद पुराण-वैष्णवखंड कार्तिक मास-माहात्म्य-

त्रयोदशी से लेकर दीपावली तक के उत्सव कृत्य का वर्णन’

पद्मपुराण- उत्तरखंड-124 के अनुसार

कार्तिक कृष्णाचतुर्दशी को रात्रि के आरंभ में भिन्न-भिन्न स्थानों पर मनोहर दीप लगाने चाहिये। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि मंदिरों में, गुप्त गृहों में, देववृक्षों के नीचे, सभाभवन में, नदियों के किनारे, चहारदीवारी पर बगीचे में, बावली के तट पर, गली-कूचों में, गृहोद्यान में तथा एकान्त अश्वशालाओं में एवं गजशालाओं में भी दीप जलाने चाहिये।

इस प्रकार रात व्यतीत होने पर अमावस्या को प्रातःकाल स्नान करें और भक्तिपूर्वक देवताओं तथा पितरों का पूजन करें।

निर्णयसिंधु-द्वितीय परिच्छेद के अनुसार

दिवोदासीय में ब्रह्मपुराण का कथन है कि कात्र्तिक की क्षमावस्था युक्त चतुर्दशी को दीपदान करने से मनुष्य यममार्ग के अंधकार से छूट जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि जिस दिन सूर्यास्त पश्चात एक घड़ी अधिक तक अमावस्या रहे उस दिन दीपावली मानी जानी चाहिये।

दोनों दिन सायंकाल में हो तो दूसरे दिन और केवल पहले दिन ही सायंकाल में अमावस्या हो तो पहले दिन दीपावली मानना उचित है।

इस उत्सव के साथ स्वाति नक्षत्र का योग हो जाय तो सोने पर सुहागा माना गया है।

दशहरा:

हेमाद्रौ व्रतकाण्डे कश्यपः ‘‘उदये दशमी किंचित्संपूर्णोकादशी यदि।
श्रवणक्र्षे यदा काले सा तिथिर्विजयार्भिदा।। श्रवणक्र्षे तु पूर्णयां काकुत्स्थ पास्थतो यतः। उल्लंघयेयुः सीमानं तद्दिनक्र्षे न तो नराः ।।’’

-निर्णयसिन्धु-द्वितीय परिच्छेद हेमाद्रि के व्रतकाण्ड में कश्यप ने लिखा है

कि यदि उदयकाल में दशमी किंचित मात्र भी हो और आगे संपूर्ण एकादशी हो तब यदि अपराह्न समय पर श्रवण नक्षत्र हो तो वह विजयादशमी कहलाती है

जिससे श्रवण नक्षत्र में दशमी के दिन श्रीरामचंद्रजी ने प्रस्थान किया है।

इससे मनुष्य उस दिन श्रवण नक्षत्र में ग्राम की सीमा को लंघन करें।

विजयादशमी के विषय में अधिसंख्य लोगों का यह निराधार विचार है कि यह उत्सव भगवान् श्रीरामचंद्र जी के लंका-विजय के उलक्ष्य में प्रारंभ हुआ है,

लेकिन वेद-पुराणों एवं अन्य हिंदू धर्मशास्त्रों में भी कहीं ऐसा उल्लेख नहीं मिलता।

इसलिये इसे लंका विजय का दिन मानना तो कल्पना मात्र ही है।

निर्णय सिंधु के उपरोक्त उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि भगवान श्रीरामचंद्रजी ने इस दिन लंका-विजय के लिये प्रस्थान किया था।

अतएव वास्तव में यह दिन लंका-विजय के लिये प्रस्थान दिवस है। भगवान् श्री रामचंद्रजी द्वारा लंका-विजय भारत वर्ष का एक सबसे बड़ा पराक्रम माना जाता है।

क्योंकि उनकी यह यात्रा इसी दिन प्रारंभ हुई थी इसलिये सदा के लिये यह दिन भारतवासियों के लिये विजय मुहूत्र्त बन गया। यही इस दशहरा उत्सव की सबसे बड़ी विशेषता है।

आश्विन के शुक्ल पक्ष में सूर्योदय के समय यदि दशमी तिथि हो तो उसे पंडित विजयादशमी कहते हैं।

यहां यह मुख्य अर्थ है कि अपराह्न में पूजा आदि के कथन से कर्म में अपराह्न मुख्य समय है और प्रदोष गौण है।

होली:

फाल्गुन की पूर्णिमा को होली कहते हैं।

यह संध्याव्यापिनी ग्रहण करनी चाहिए।
निर्णय सिंधु-द्वितीय परिच्छेद के अनुसार ब्रह्मवैवर्तपुराण, भविष्यपुराण, निर्णयामृत, ज्योतिर्निबंध, हेमाद्रि, मदनरत्न और नारद के अनुसार

फाल्गुन मास की पूर्णिमा प्रदोष व्यापिनी लेनी चाहि

रक्षा बंधन:

निर्णय सिंधु- द्वितीय परिच्छेद के अनुसार भविष्यपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, कल्पतरू, हेमाद्रि, मदनरत्न और निर्णयामृत में पृष्ठांकित है

कि अपराह्न व्यापिनी श्रावण पूर्णिमा को रक्षाबंधन नामक व्रतोत्सव मनाना चाहिये।

यही सिद्ध है। रक्षाबंधन भद्रा (द्वितीय, सप्तमी, द्वादशी) में नहीं मनाना चाहिये।

भैया दूज:

निर्णय सिंधु द्वितीय परिच्छेद के अनुसार भैया दूज का व्रतोत्सव अपराह्नव्यापिनी कार्तिक शुक्ल पक्ष द्वितीया को मनाना चाहिये।

अपने कथन की पुष्टि में रचयिता ने

भविष्य पुराण,
स्कंद पुराण,
ब्रह्मांड पुराण,
हेमाद्रि,
निर्णयामृत आदि का उदाहरण प्रस्तुत किया है।

धनतेरस:

निर्णयसिंधु-द्वितीय परिच्छेद में उल्लेख मिलता है कि निर्णयामृत में स्कंद पुराण का वाक्य है कि कार्तिक वदी (कृष्ण पक्ष) तेरस को घर से बाहर प्रदोष के समय यमदीपक जलाये तो अकालमृत्यु नष्ट होती है;

उसका मंत्र यह है कि

मृत्यु, पाश, दंड, काल, श्यामासहित यमराज त्रयोदशी के दीपदान से मेरे उपर प्रसन्न हों।

अतएव कार्तिक मास, कृष्ण पक्ष, प्रदोषव्यापिनी त्रयोदशी तिथि को धनतेरस मनाना चाहिये।

यद्यपि धनतेरस का व्रतोत्सव मूलतः यमराज को प्रसन्न करने हेतु इस दिन संध्याकाल में एक दीपक जलाकर मुख्य द्वार पर रखा जाता है तथा इसी भांति दीपावली महोत्सव का श्रीगणेश किया जाता है तथापि इसका नामकरण आयुर्वेद के आदि प्रवत्र्तक महर्षि अथवा अधिदेवता भगवान धन्वतरि के जयंती के कारण ही हुआ ऐसा प्रतीत होता है।

वर्तमान में यह धनतेरस औषधि खाद्यान्न पकाने का पात्र खरीदने वाला त्योहार का स्वरूप धारण कर लिया है।

अन्य पर्वों के तिथि निर्णय:
पद्म पुराण-उत्तरखंड के अनुसार यदि अमावस्या अथवा पूर्णिमा साठ दंड की होकर दिन रात अविकल रूप से रहे और दूसरे दिन प्रतिपदा में भी उसका कुछ अंश चला गया हो तो वह ‘पक्षवर्धिनी’ मानी जाती है।

उस पक्ष की एकादशी का भी यही नाम है। वह दस हजार अश्वमेध यज्ञों के समान फल देने वाली होती है।

जब शुक्ल पक्ष की एकादशी को ‘पुनर्वसु’, नक्षत्र हो तो ‘जया’, जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘श्रवण ‘नक्षत्र’ हो तो ‘विजया’, जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘रोहिणी’ नक्षत्र हो तो ‘जयंती’, जब शुक्ल पक्ष की द्वादशी को ‘पुष्य’ नक्षत्र हो तो ‘पापनाशिनी’ तिथि कहलाती हैं।

ये सभी व्रतोत्सव पापनाशिनी हैं। जब एक ही दिन-रात (सूर्योदय से सूर्योदय तक) एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी हो तो उसे ‘त्रिस्पृशा’ समझना चाहिये।

उसमें दशमी का योग नहीं होना चाहिये। किसी भी महीने या किसी भी पक्ष में आये, यह ‘त्रिस्पृशा’ व्रत चारों पुरुषार्थों को देने वाली है। सभी मास की सभी पक्षों के एकादशी व्रत उनके नामानुकूल तथा चारों पुरुषार्थ फल प्रदान करने वाले हैं। ध्यान रहे कि कोई भी एकादशी व्रत एकादशी व्रतों का विवरण निम्नांकित हैं। मास का नाम कृष्णपक्ष शुक्ल पक्ष 1. मार्ग शीर्ष उत्पत्ति एकादशी मोक्षदा एकादशी 2.. पौष सफला ’’ पुत्रदा ’’ 3. माघ षट्तिला ’’ जया ’’ 4. फाल्गुन विजया ’’ आमलकी ’’ 5. चैत्र पापमोचिनी ’’ कामदा ’’ 6. वैशाख वरुथिनी ’’ मोहिनी ’’ 7. ज्येष्ठ अपरा ’’ निर्जरा ’’ 8. आषाढ़ योगिनी ’’ शयिनी ’’ 9. श्रावण कामिका ’’ पुत्रदा ’’ 10. भाद्रपद अजा ’’ पद्मा ’’ 11. आश्विन इंदिरा ’’ पापांकुश ’’ 12. कार्तिक रमा ’’ प्रबोधिनी ’’ 13. पुरुषोत्तम कमला ’’ कामदा ’’ (अधिक मास) निर्णय सिंधु - द्वितीय परिच्छेद के अनुसार पुराणसमुच्चय में लिखी हैं कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन मत्स्य, वैशाख अमावस्या- कूर्म, श्रावण शुक्ल षष्ठी वाराह, वैशाख शुक्ल चतुर्दशी- नृसिंह, भाद्रपद शुक्ल द्वादशी-वामन, वैशाख शुक्ल तृतीया-परशुराम, चैत्र शुक्ल नवमी-श्रीरामचंद्र जी, भाद्रपदकृष्ण अष्टमी - श्रीकृष्णजी, आश्विन शुक्ल दशमी-बुध और श्रावण शुक्ल षष्ठी-कल्की अवतार हुए/होंगे। वामन, परशुराम और श्रीरामचंद्रजी मध्याह्न, मत्स्य और वाराह-अपराह्न, कूर्म, नरसिंह, बुध और कल्की-संध्याकाल तथा श्रीकृष्णचंद्रजी अर्द्ध रात्रि के समय अवतरित हुए।

सामान्यतः उपरोक्त पर्वों के जन्मकाल व्यापिनी तिथि को ही मनाया जाता है।

यही विधि का विधान है और यही तिथि निर्णय।